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मसिमानके अन्तर्गत चार प्रकारको बुखियोंको भी गणना है। इन बुदियोंको अश्रुत-निःसृत मतिज्ञान कहा गया है। ये शिक्षा या विद्या आविके द्वारा प्राप्त नहीं होती और न किसी शास्त्र या विद्याका अनुगमन ही करती है। प्रकारान्तरसे अश्रुत-निःसृत ज्ञानको मतिज्ञानका पृषक भेद न मानकर ईहा, अवाय और पारणके अन्तर्गत ही समाहित किया जाता है । इस शानके चार भेद हैं:-१. औत्पत्तिक, २. वैनयिक, ३. कार्मिक, और ४, पारिणामिक । औत्पसिक
जिस बुद्धि द्वारा अश्रुत और अदृष्ट पदार्थको प्रतीति सहजरूपमें संभव हो यह मतिजान औत्पात्तिक कहलाता है। उदाहरणार्थ बताया जाता है कि एकबार अवन्तिके नृपतिने रोहकसे कहा कि तुम अकेले मुर्गेकी लड़ाई दिखलाओ। रोहक जमो वयस्क नहीं था, पर उसमें मोस्पतिको भूमि समाहित थी । अतएव उसने एक मुर्गे के समक्ष एक दर्पण लाकर रख दिया। जब मर्गेने दर्पणमें अपने प्रतिबिम्बको देखा, तो उसने समझा कि सर्पणके भीतर दूसरा मुर्गा बैठा हुआ है । अतएव यह दर्पणमें अपने प्रतिबिम्बको देख-देखकर प्रतिविम्बित कुक्कुटके साथ युद्ध करने लगा। यहां मर्गकी अनुपस्थिति और प्रतिबिम्बको उपस्थिति दर्शन है । दर्शन के अनन्तर अवग्रह हआ । यह प्रतिबिम्ब किस कोटिका है, यह ईहा और दर्पणमें स्थित प्रतिविम्बका निश्चय अवाय और तदनन्तर धारणाकी उत्पत्ति होती है। वैनयिक . वैयिक बुद्धि धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसंबंधी पुरुषार्थस सम्बन्ध रखती है। यह कठिन से कठिन कार्यको सम्पन्न कर सकती है। इस बुद्धिकी उत्पत्ति सेवा और नम्रतासे होती है । जो साधक विनय और शीलगुण द्वारा अपनी लब्धि और उपयोगका विकास कर लेता है उसे इस प्रकारके शानकी उपलब्धि होती है । इस बुद्धि द्वारा ईच्छाशक्ति और संकल्पका विकास होता है। दीर्य-अन्तरायकी उत्पत्तिमें बाधा उत्पन्न करनेवाले कर्मपुद्गलोंका विलय हो जाता है। जो साधक गुरु-शुश्रूषा आदिके द्वारा इस प्रकारकी बुद्धिक, विकास करता है, वह अदृष्ट और अननुभूत पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त कर लेता है । कामिक
यह यह बुद्धि है जो कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न चेतनाके कारण सत्यको ग्रहण करती है । यह सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों ही प्रकारके विषयोंको जानती है । वस्तुतः इस प्रकारके शानका विकास व्यावहारिक अनुभवसे होता है। शिक्षा या विद्या इसके विकासमें अधिक सहयोगी नहीं। जिस प्रकार एक
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४२९