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इतना ही नहीं उसके तीव्र विषके कारण आस-पासके वृक्ष और लताएं भी सूख कर दूंठ बन चुकी हैं।"
इस समस्त सन्दर्भको सुनकर महावीरने विचार किया कि 'एक ओर चंडफोशिक है, तो दूसरी बोर निरन्तर हो रही विनाश-लीला है। अतः उन्होंने निश्चय किया कि इस चंडकौशिक या दृष्टि-विषको उदबोधित कर सन्मार्ग पर लगाना आवश्यक है। इस विषधरके विषको अमृतमें परिवर्तित करना मेरा काम है ।" अतएव महावीर निर्भय होकर वनके उसी मार्गसे विहार करने लगे। जिसमें नागराज दृष्टिविष निवास करसा था । दृष्टिविषने सोयंकर महावीरको ज्यों ही देखा, फुफकार मारने लगा, विषकी ज्वालाएँ उगलने लगा। महावीर उसके बिलके पास ही स्थिर और अडिग होकर खड़े रहे । नागराजने देखा कि फुफकारका प्रभाव नहीं पड़ रहा है, तो उसने महावीरके पैरके अंगूठेको ओरसे डंस लिया। उसे अनुभव हुआ कि इस व्यक्तिके रक्कमें रक्तका स्वाद नहीं, अपितु सुगना बाद बा रहा है। नपने कई बार महानीरको डंसा, पर महावीर अविचल भावसे ध्यानस्य रहे।
दोनों ओरसे बहुत समयतक संघर्ष चलता रहा । एक ओरसे क्रोधरूप महादानव रह-रहकर विषको ज्वालाएं उगलता था, तो दूसरी ओरसे क्षमाकी अमृत-पिचकारी छूट रही थी। दृष्टिविष विषका वमन करते-करते थक गया और पराजित होकर महावीरके चरणोंके पास लोटने लगा । प्रभुने अपने क्षमाअमृतसे उसके विषकी ज्वाला सदाके लिये शान्त कर दी।
दृष्टिविष महावीरके मौनरूपसे सम्बोधिस होकर मन-ही-मन विचारने लगा"वास्तवमें मनुष्यका अहित कषायावेशके कारण ही होता है। मैंने कोष-कषायके कारण अपनी कितनी योनियोंको यों ही नष्ट किया है। आत्माका सच्चा मंगल रत्नत्रयके द्वारा ही सम्भव है। मैंने इस महानुभावके पगतलमें कई बार दशन किया है। इसके शरीरसे निकलनेवाला रक्त दूधके समान स्वादिष्ट और मोठा है ! इनके मौन सम्बोधनसे मेरा कल्याण सुनिश्चित है।"
दृष्टिविष महावीरका मौन उद्बोधन प्राप्तकर सचेत हुया और अपना मुख नीचेकी ओर करके कुएमें लटक गया। उसने फुफकार मारना बन्द कर दिया और सल्लेखना व्रतमें संलग्न हुआ । अन्तमें अहिंसाकी साधना द्वारा दृष्टिविषने अपने देहका त्यागकर सद्गति प्राप्त की ।
इस प्रकार महावीर निर्भय हो ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए श्वेताम्बी नगरीमें पधारे। यहाँके राजा प्रदेशोने भगवान्का स्वागत किया और भक्तिपूर्वक
तीर्थकर महावीर और उनकी देखना : १४१