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किसी के मुखसे कभी भी वचन नहीं निकल सकते। भाववारूपी शक्तिका सद्भाव समस्त आत्माओं में पाया जाता है, क्योंकि वह चेतनका सामान्य धर्म है ।
श्रुतज्ञानके बीस भेद हैं: - ( १ ) पर्याय, ( २ ) पर्यायसमास, (३) अक्षर, (४) अक्षरसमास, (५) पद, (६) पदसमास, (७) संघात, (८) संघातसमास, (९ ) प्रतिपत्तिक, (१०) प्रतिपत्तिकसमास, (११) अनुयोग, (१२) अनुयोगसमास, (१३) प्राभृत, (१४) समास (१५) प्राभूत- (१६) प्राभूतपाभूतसमास, (१७) वस्तु, (१८) वस्तुसमास, (१९) पूर्व और (२०) पूर्वसमास ।
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्यासक जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान होता है। यह ज्ञान अविनश्वर और निरावरण होता है। यह सर्वजघन्य ज्ञान है । इसके ऊपर क्रमशः अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात् मागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धियां होती हैं । इन वृद्धियोंके अनन्तर पर्यायसमासज्ञान आता है । पर्यायसमासके अनन्तर वृद्धिंगत होते हुए क्रमशः अक्षर, अक्षरसमास आदि श्रुतज्ञानके मेद उत्पन्न होते हैं ।
आप्तके वचनादिके निमित्तसे होनेवाले अर्थज्ञानको आगम कहते हैं। आसपदसे वीतराग, सर्व और हितोपदेशी व्यक्ति अभीष्ट है। जो जहाँ अवचक है, वह वहाँ आप्त है। वस्तुतः जो राग, द्वेष, मोह-अज्ञान आदि दोषोंसे रहित है, परहितका प्रतिपादन करना ही जिसका एकमात्र कार्य है, ऐसा व्यक्ति ही आप्त कहलाने के योग्य है । आप्तवचनको अर्थज्ञानका कारण होनेसे आगम कहा जाता है । तोर्थंकर जिस अर्थको अपनी दिव्यध्वनिसे प्रकाशित करते हैं, उसका द्वादशांगरूप में कथन गणधरोंके द्वारा किया जाता है। यह श्रुत अंगप्रविष्ट कहलाता है और जो श्रुत अन्य आरातीय शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा रचा जाता है, वह अंगचा है । अंगप्रविष्ट श्रुतके आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदश, अनुतरोपपादिकदश प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ये बारह मैद हैं। अंगबाह्य श्रुत सामायिक, चतुविशस्तय, बन्दना आदि भेदसे चौदह प्रकारका है । वस्तुतः आगमके द्वारा उतने ही पर्दार्थोंका बोष प्राप्त किया जा सकता है, जितने पदार्थीका केवलज्ञानद्वारा । ज्ञानको अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों समान हैं, पर विशद और अविशदकी अपेक्षा दोनोंमें अन्तर है । श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होता है । अतएव वह अमूर्त पदार्थ और उनकी अर्थ पर्यायके सूक्ष्म अंशोंको स्पष्टरूपसे नहीं जान पाता । पर केवलज्ञान निरावरम होने के कारण समस्त पदार्थो को विशदरूपसे जानता है ।
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४५१
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