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है । यतः भावांशके समान अभावांश भी प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाणोंसे गृहीत हो जाता है। जिस प्रकार 'इस भूतलपर घट हैं' मह प्रत्यक्ष द्वारा जाना जाता है, उसी प्रकार 'इस भूतलपर घट नहीं है। यह घटाभाव भी प्रत्यक्ष द्वारा ही गृहीत है।
अनुमानके उपलब्धि और अनुपलब्धि रूप हेतु भी अभावोंके ग्राहक हैं । यह कोई नियम नहीं है कि भावरूप प्रमेयके लिए भावरूप प्रमाण और अभावरूप प्रमेय के लिए प्रभावरूप प्रमाण ही होना चाहिए।
अभाव भावान्तररूप होता है, यह अनुभवसिद्ध है । अतः भावग्राहक प्रमाणोंसे हो वस्तुके अभावांशका भी ग्रहण सम्भव होनेसे अभावको पृथक् प्रमाण माननेकी आवश्यकता नहीं है ।
आगमप्रमाण : विमर्श
मतिज्ञान द्वारा ज्ञास पदार्थमें मनकी सहायतासे होनेवाले विशेष ज्ञानको श्रुतज्ञान या आगमज्ञान कहते हैं। पाँच इन्द्रियों और मनसे शात विषयको ही अवलम्बन लेकर शान करता है। इसके मूल दो मेद हैं: - (१) अनक्षरात्मक और (२) अक्षरात्मक । श्रोत्र इन्द्रियके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मनकी सहायतासे होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञानको अनक्षरात्मक
ज्ञान कहते हैं और श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक जी श्रुतज्ञान होता है, उसे अक्षरात्मक धुतज्ञान कहते हैं। जैसे—जीवशब्द कहनेपर श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा इस शब्दका सुनना मतिज्ञान है और उसके निमित्तसे जीव नामक पदार्थके अस्तित्वको अवगत करना अक्षरात्मक श्रुतशान है । प्रकारान्तरसे जबतक श्रुतज्ञान ज्ञानरूप रहता है, तबतक अनक्षरात्मक है और जब वचनरूप होकर दूसरेको ज्ञान कराने में कारण होता है, सब वही अक्षरात्मक हो जाता है ।
ज्ञानके द्वारा ही हम सबको जानते हैं और दूसरेको ज्ञान करानेका मुख्य साजन वचन है । ज्ञाता वचनके द्वारा श्रोताओंको बोध कराता है और वचनव्यवहार केवल श्रुतज्ञानमें ही पाया जाता है। वक्ता द्वारा कहा गया शब्द श्रोता श्रुतज्ञानमें कारण होता है ।
aath दो भेद हैं: - (१) द्रव्यवाक् और (२) भाववाक् । द्रव्यवाक्के भी दो भेद हैं: - (१) द्रव्यरूप और (२) पर्यायरूप पर्यायरूप द्रव्यवाक् श्रोत्र इन्द्रिय से ग्राह्य है । भाषावगणारूप पुद्गल द्रव्यवाक् है । यह द्रव्यरूप वचन समस्तज्ञानोंमें नहीं पाया जाता । ज्ञानावरणकर्मके क्षय अथवा क्षयोपशमसे युक्त मात्मामें जो सूक्ष्म बोलने की शक्ति है, वह भाववाक् है । इस भाववाक्के बिना ४५० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा