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कुछ चिन्तकोंका विचार है कि जहाँ वक्ता अनाप्त, अविश्वसनीय, अतस्त्वज्ञ और कषायकलुष हो, वहाँ हेतु द्वारा तत्त्वकी सिद्धि होती है । पर जहाँ आप्तसवंश और वीतराग हो वहाँ उसके वचनोंपर विश्वास करके तत्त्वसिद्धिकी जाती है !"
शब्द और अर्थका सम्बन्ध
शब्द अर्थप्रतिपत्तिके साधन किस प्रकार बनते हैं और उनका अर्थके साथ क्या सम्बन्ध है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । शब्द स्वाभाविक योग्यता और संकेतके कारण हस्तसंज्ञा आदि वस्तुको प्रतिपत्ति करानेवाले हैं। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञापक एवं ज्ञाप्य शक्ति स्वाभाविक है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ में प्रतिपादक और प्रतिपाद्य शक्ति स्वभावतः विद्यमान है । शब्द और अर्थका सम्बन्ध नि नित्य और कथंचित् अनित्य होता है । शब्द में अर्थोत्रो क्षमता स्वभावतः निहित है |
शब्द और अर्थ में तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध न होनेपर भी योग्यतारूप सम्बन्ध पाया जाता है। जिस प्रकार चक्षुका घटादिके रूपके साथ तादात्म्य तदुत्पत्ति-सम्बन्ध नहीं होनेपर भी योग्यतारूप सम्बन्ध देखा जाता है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ में भी यह योग्यतासम्बन्ध निहित रहता है । शब्द में कहने की शक्ति है और अर्थ में कहे जाने की शक्ति है । इसीका नाम योग्यता है ।
वस्तुतः शब्द और अर्थ में वाच्य वाचकशक्तिरूप सम्बन्ध स्वाभाविक ही है । केवल उसको जानने के लिये संकेत ग्रहणकी आवश्यकता होती है। यदि इस स्वाभाविक सम्बन्ध में व्यतिक्रम किया जाय, तो दीपक और घटमें जो प्रकाश्यप्रकाशकशक्ति है उसमें भी व्यतिक्रमको आपत्ति प्रस्तुत हो जायगी और यह आपत्ति प्रतीतिविरुद्ध है। अतः शब्द और अर्थ में वाच्य वाचकशक्तिका मानना आवश्यक है । सारांशतः शब्द और अर्थ में वाच्य याचकभावरूप शक्ति स्वभावतः विद्यमान है और संकेतवशसे आप्तप्रणीत शब्द वस्तुके ज्ञानमें कारण होते हैं।
प्रमाणफल
प्रमाणरूप ज्ञानके दो कार्य है: - ( १ ) अज्ञाननिवृत्ति और (१) स्वपरका १. वक्तनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाषितम् ।
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आप्ते चरितद्वाक्यात् साधिसमागमसाधितम् ||---आप्तमी० श्लोक ७८. २. सहजयोम्यतासंयतवशद्धि शब्दावयो वस्तुप्रतिपतितव :- परीक्षामुख ३ ९६.
४५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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