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लोभसे नहीं, सन्तोष और उदा खाले जीतना चाहिए। र, कृपा, दमन, उत्पीड़न, अहंकार आदि सभीका प्रभाव कर्त्तापर पड़ता है। जिस प्रकार कुऍमें की गयी ध्वनि प्रतिध्वनिके रूपमें वापस लौटती है, उसी प्रकार हिंसात्मक क्रियाओंका प्रतिक्रियात्मक प्रभाव कर्त्तापर ही पड़ता है ।
अहिंसाद्वारा हृदयपरिवर्तन सम्भव होता है। यह मारनेका सिद्धान्त नहीं, सुधारनेका है | यह संसारका नहीं, उद्धार एवं निर्माणका सिद्धान्त है । यह ऐसे प्रयत्नोंका पक्षधर है, जिनके द्वारा मानवके अन्तस्में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन किया जा सकता है और अपराधकी भावनाओं को मिटाया जा सकता है । अपराध एक मानसिक बीमारी है, इसका उपचार प्रेम, स्नेह, सद्भावके माध्यमसे किया जा सकता है ।
घृणा या द्वेष पापसे होना चाहिए, पापोसे नहीं । बुरे व्यक्ति और बुराईके बोच अन्तर स्थापित करना ही कर्तव्य है । बुराई सदा बुराई है, वह कभी मलाई नहीं हो सकती; परन्तु बुरा आदमी यथाप्रसंग भला हो सकता है । मूलमें कोई आत्मा बुरी है ही नहीं । असत्यके बीच में सत्य, अन्धकारके बोचमें प्रकाश और विषके भीतर अमृत छिपा रहता है। अच्छे बुरे सभी व्यक्तियोंमें आत्मज्योति जल रही है। अपराधी व्यक्तिमें भी वह ज्योति है किन्तु उसके गुणोंका तिरोभाव है । व्यक्तिका प्रयास ऐसा होना चाहिए, जिससे तिरोहित गुण आविर्भूत हो जायें ।
इस सन्दर्भ में कर्त्तव्यपालनका अर्थ मन, वचन और कायसे किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, न किसी हिंसाका समर्थन करना और न किसी दूसरे व्यक्तिके द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा करवाना है । यदि मानवमात्र इस कत्तंव्यको निभानेकी चेष्टा करे, तो अनेक दुःखोंका अन्त हो सकता है और मानवमात्र सुख एवं शान्तिका जीवन व्यतोत कर सकता है। जबतक परिवार या समाजमें स्वार्थीका संघर्ष होता रहेगा, तबतक जीवनके प्रति सम्मानको भावना उदित नहीं हो सकेगी। यह अहिंसात्मक कर्तव्य देखने में सरल और स्पष्ट प्रतीत होता है, किन्तु व्यक्ति यदि इस कर्त्तव्यका आत्मनिष्ठ होकर पालन करे, तो उसमें नैतिकता के सभी गुण स्वतः उपस्थित हो जायेंगे ।
मूलरूपमें कर्त्तव्योंको निम्नलिखित रूपमें विभक्त किया जा सकता है
१. स्वतन्त्रताका सम्मान |
२. चरित्रके प्रति सम्मान ।
३. सम्पत्तिका सम्मान ।
४. परिवार के प्रति सम्मान |
५. समाजके प्रति सम्मान |
५६०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा