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(६) प्रमत्तसंयतगुणस्थान ___ आत्माको अपनी होनतापर विजय पानेका विश्वास हो जाता है तो वह अपनी अपूर्णताओंको समाप्तकर महाव्रती बन जाता है और नग्न मुद्राको धारण कर लेता है। प्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम और संज्वलनका तीव्र उदय रहनेपर प्रमाद सहित संयमका होना प्रमत्तसंयतगुणस्थान है। हिंसादि पापोंका सर्वदेश त्याग करनेपर भी संज्वलनचतुष्कके सीन उदयसे चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादोंके कारण आचरण किञ्चित् दूषित बना रहता है । (७) अप्रमससंयतगुमस्थान - आत्मार्थी साधककी परमपवित्र भावनाके बलपर कभी-कभी ऐसी स्थिति प्रास होती है कि अन्तःकरणमें उठनेवाले विचार नितान्त शुद्ध और उज्ज्वल हो जाते हैं और प्रमाद नष्ट हो जाता है । संज्वलन कषायका तीन उदय रहनेसे साधक आत्मचिन्तनमें सावधान रहता है । इस गुणस्थानके दो भेद है :स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । स्वस्थानाप्रमत साफ हो गुणरमा से सातवें में और सातवेंसे छठे गुणस्थानमें चढ़ता उत्तरता रहता है। पर जब भावोंका रूप अत्यन्त शुद्ध हो जाता है तो साधक सातिशय अप्रमत्त होकर अस्खलितगतिसे उत्क्रांति करता है। सातिशय अप्रमत्तके अधःकरण आदि विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते हैं। जिसमें समसमय अथवा मिन्नसमयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों ही प्रकारके होते हैं वह अधःकरण है। (८) अपूर्वकरणगुणस्थान
करणका अर्थ अध्यवसाय, परिणाम या विचार है । अभूतपूर्व अध्यवसायों या परिणामोंका उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है। इस गणस्थानमें चारित्र मोहनीयकर्मका विशिष्ट क्षय या उपशप करनेसे साधकको विशिष्ट भावोत्कर्ष प्राप्त होता है । (९) अनिवृत्तिकरणगुमस्थान
इस गुणस्थानमें भावोत्कर्षको निर्मल विचारधारा और तीन हो जाती है। फलतः समसमयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश और भिन्नसमयवर्ती जीवोंके परिणाम विसदृश हो होते हैं । इस गुणस्थानमें संज्वलनचतुष्कके उदयकी मन्दसाके कारण निर्मल हुई परिणतिसे क्रोध, मान, माया एवं वेदका समल नाश हो जाता है। (१०) समसाम्परायगुणस्थान
मोहनीयकर्मका क्षप या उपशम करके आत्मार्थी साधक जब समस्त ५४६ : तोयंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा