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(३) मिश्रगुणस्थान
सम्यग्दर्शनके कालमें यदि सम्यङ्मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय आ जाता है तो आत्मा चतुर्थ गणस्थानसे च्युत हो तृतीय गुणस्थानमें आजाती है । जिसप्रकार मिले हए दही और गुडका स्वाद मिश्रित होता है उसी प्रकार इस गणस्थानवर्ती जोवके परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्वसे मिथित रहते हैं. अनादि मिथ्यादृष्टि चतुर्थ गुणस्थानसे पतित हो तृतीय गुणस्थानमें आता है परन्तु सावि मिध्यादृष्टि जीच' प्रथम गुणस्थानसे भी तृतीय स्थानको प्राप्त करता है । यह गुणस्थान मिथ्यात्वसे ऊंचा है पर मिश्रपरिणामोंके कारण यथार्थ प्रतीति नहीं रहती है । (४) अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान
अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्टय इन पाँच प्रकृतियोंके और सादिमिथ्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन सात प्रकृतियोंके उपशमादि होनेपर तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है। पर अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय रहनेसे संयमभाव जागत नहीं होते, अतः यह असंयत या अविरससम्यग्दृष्टिगुणस्थान कहलाता है।
अविरतसम्यग्दष्टि जीव श्रद्धानके सद्धायके कारण संयमका आचरण नहीं करनेपर भो आत्म-अनात्मके विवेकसे सम्पन्न रहता है । भोग भोगते हुए भी उनमें लिप्त नहीं रहता। वह अपने विचारोंपर पूर्ण नियन्त्रण रखता है। आतं जीवोंकी पीड़ा देखकर उसके हृदयमें . करुणाका निर्मल स्रोत प्रवाहित होने लगता है। उसका लक्ष्य और बोध शुरू हो जाता है और वह संयमके पथपर चलनेके लिए उत्कण्ठित रहता है। (५) संयतासंयतगुनस्यान
अप्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम होनेपर जिसके एकदेश चारित्र प्रकट हो जाता है उसे संयतासंयत गुणस्पान कहते हैं। असहिंसासे विरत रहनेके कारण यह संयत और स्थावरहिंसासे अविरत रहनेके कारण असंयत कहलाता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयमें तारतम्य होनेसे दार्शनिक आदि अवान्तर ग्यारह भेद होते हैं । इस गुणस्थानसे आत्माको यथार्थ उत्क्रांति आरम्भ होती है। चतुर्थगणस्थानमें श्रद्धा और विवेक उपलब्ध होते हैं और इस पञ्चम गुणस्थानसे पारित्रिक विकास आरम्भ होता है ।
सीकर महावीर और उनकी देशना : ५४५.