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पुनः पुनः नींद आवे और हाथ-पैर चले तथा सिर घूमे वह प्रचला-प्रचला दर्शनावरणकर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी नींदमें निमित्त है, जिससे स्वप्नमें अधिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है और अत्यन्त गादी नींद आती है, वह स्त्यानगद्विदर्शनावरणकर्म है 1
जिस कर्मका उदय प्राणोके सुखके होने में निमित्त है, वह सातावेदनीय और जिसका उदय प्राणीके दुःखके होने में निमित्त है, वह असातावेदनीय कर्म है।
वस्तुतः कर्मप्रकृतियोंके दो भेद हैं:-(१) जीवविपाकी और (२) पुद्गलबिपाकी । जिनका फल जीवमें-जिन कर्मोंका उदय जीवकी विविध अबस्थाओं और परिणामोंके होने में निमित्त है, वे जीवविपाकी कर्म है और जिन कर्मोका उदय शरीर, वचन और मनरूप वर्गणाओंके सम्बन्धसे शरीरादिकरूप कायों के होने में निमित्त होता है, वे पुद्गल-विपाकी कर्म हैं। वेदनीय कर्म जीवावपाको है । अतः वह जोबगत मुख-दुःखके होने में निमित्त होता है ।
जिसका उदय तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपके श्रवान न होने में निमित्त है, वह मिथ्यात्वमोहनीय कर्म है। जिसका उदय तात्त्विक रुचिमें बाधक न होकर भी उसमें चल, मलिन और अगाढ़ दोषके उत्पन्न करने में निमित्त है, वह सम्यक्त्वमोहनीयकर्म है । पिश्रमोहनीयकर्मके उदयसे जीवके सम्पकत्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं।
जिसका उदय हास्यभावके होने में निमित्त है, वह हास्यकम; जिसका उदय रतिरूप भावके होनेमें निमित्त है, वह रतिकर्म; जिसका उदय अरतिरूप परिणाम होने में निमित्त है, वह अतिकम; जिसका उदय शोकरूप परिणाम होने में निमित्त है, वह शोककम; जिसका उदय भयरूप परिणामके होनेमें निमित्त है, वह भयकर्म; जिसका उदय परिणामोंमें ग्लानि उत्पन्न करनेमें निमित्त है, वह जुगुप्सा; जिसका उदय अपने दोषोंको आच्छादित करने एवं स्त्रीसुलभ भावोंके होनेमें निमित्त है, वह स्त्रीवेद; जिसका उदय उत्तम गुणोंके भोगनेरूप पुरुषसुलभ भावोंके होनेमें निमित्त है, वह पुरुषवेद एवं जिसका उदय स्त्री और पुरुषसुलभ भावोंसे विलक्षण कलुषित परिणामोंके होनेमें निमित्त है, वह नपुंसकवेदकर्म है। ___ अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभके उदयके निमित्तसे सम्यक्स्वकी उपलब्धि नहीं होती और मिथ्यात्वरूप परिणति होती है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोष, मान, माया, लोभके उदयके निमित्तसे जीवको देशवत धारण करने में बाधा पहुंचती है और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभके निमित्तसे ३८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा