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(२६) स्त्रीवेद, (२७) पुवेद और (२८) नपुंसकवेद । इन अट्ठाईस प्रकृतियोंको मूलतःचार वोंमें विभक्त किया जा सकता है:१)दर्शनमोहनीय, (२) चारित्रमोहनीय, (३) कषायमोहनीय और (४) अकषायमोहनीय ।
५. भाग-थायुकर्मले. नार मेन हैं:-१ बरकार, १२) सियंचायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु ।
६. नामकर्म-अभेदापेक्षया इसके बयालीस भेद हैं और भेदापेक्षया तिरानवे | बयालीस भेदोंकी गणना इस प्रकार है:-(१) गति, (२) जाति, (३) शरीर, (४) आंगोपांग, (५) निर्माण, (६) बन्धन (७) संघात, (८) संस्थान, (९) संहनन, (१०) स्पर्श, (११) रस, (१२) गन्ध, (१३) वर्ण, (१४) आनुपूर्वी, (१५) अगरुलघु, (१६) उपघात, (१७) परघात, (१८) आतप, (१२) उद्योत, (२०) उच्छवास, (२१) विहायोगति, (२२) साधारण शरीर, (२३) प्रत्येकशरीर, (२४) स्थावर, (२५) अस, (२६) दुर्भग, (२७) सुभग, (२८) दुःस्वर, (२२) सुस्वर, (३०) अशुभ, (३१) शुभ, (३२) वादर, (३३) सूक्ष्म, (३४) अपर्याप्त, (३५) पर्याप्त, (३६) अस्थिर, (३७) स्थिर, (३८) आनादेय, (३९) आदेय, (४०) अयशःकोति, (४१) यशःीति, (४२) तीर्थकरत्व ।
७. गोत्रकर्मके दो भेद हैं:-१) उच्च गोत्र, (२) नीच गोत्र ।
८. अन्तराय-अन्तराय कर्मके पांच भेद हैं:-१) दान-अन्तरायः, (२) लाभ अन्तराय, (३} भोग-अन्तराय, (४) उपभोग-अन्तराय और (५) वीर्य-अन्तराय।
शानावरणकर्म मतिमान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञानोंको आवृत्त करता है । जिस प्रकार जलते हुए विद्युत बल्बके ऊपर वस्त्र डाल देने से उसका प्रकाश
आवृत हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणकर्म ज्ञानको माच्छादित करता है। इस कर्मका जितना क्षयोपशम या क्षय होता जाता है, उसी रूपमें ज्ञान भी प्रादुर्भूत होता है।
दर्शनावरणके नव भेदोंमें चार भेद तो चारों दर्शनोंके आवरणमें निमित्तभूत हैं। शेष निद्रादिक पांच भेद हैं। जिस कर्मका लक्ष्य ऐसी नींदमें निमित्त हो, जिससे वेद और परिश्रमजन्य थकावट दर हो जाती है, वह निद्रादर्शनावर्ण कर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी गादी नोंदमें निमित्त है, जिससे जागना अत्यन्त दुष्कर हो जाय, उठाने पर भी न उठे, वह निद्रा-निद्रादर्शनावणकर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी नींदमें निमित्त हो, जिससे बैठे-बैठे ही नींद आ जाय, हाथ-पैर और सिर धूमने लगे, वह प्रचलादर्शनावरण कर्म है । जिस कर्मका उदय ऐसी नींदमें निमित्त हो, जिससे खड़े-खड़े, चलते-चलते या बैठे-बैठे
तीर्थकर महाबीर और उनकी देशना : ३८५