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हो उपादेय है तथा सम्यकश्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और सम्यग् आचरणरूप निश्चय रत्नत्रय तथा उस निश्चयरत्नत्रयका साधक व्यवहाररत्नत्रय भी उपादेय है । मोक्षके कारणीभूत संवर और निर्जरा तत्त्वकी गणना भी उपादेय में की गयी है ।" ज्ञेष यों तो भी पदार्थ है, पर आध्यात्मिकदृष्टिसे सप्त तत्त्व और नव पदार्थों में से हेयोपादेयके अतिरिक्त समस्त पदार्थ ज्ञेय हैं ।
प्रचचनसार में आचार्य कुन्दकुन्दने ज्ञेयके वर्णनके पूर्व बतलाया है कि गुणपर्यायात्मक ज्ञेय है और जो पर्यायोंमें आसक्त है, वह परसमय अर्थात् मूढ़दृष्टि है। आत्म-स्वभाव में स्थित स्वसमय और पर्यायोंमें स्थित परसमय कहा जाता है। शुद्ध ज्ञानदर्शनात्मक आत्मा ही उपादेय है और यही यथार्थ में ज्ञेय है ।
इस प्रकार हेय, उपादेय और शेयका परिज्ञान प्राप्तकर आत्माके निजी स्वरूपकी अनुभूति करनी चाहिये । इस त्रिपुटीसे ही तत्त्वका निर्देशन प्राप्त होता है । वस्तुमात्र ज्ञेय है और अस्तित्वकी दृष्टिसे ज्ञेयमात्र सत्य है । सत्य ही जीवनका सर्वस्व है ।
१. कथयति — उपादेयतत्त्वमप्रयानन्तसुखं तस्य कारणं मोक्षो, मोक्षस्य कारणं संवर निर्जराद्रयं तस्य कारणं विशुद्धज्ञानदर्शनस्य भावनि जात्मतत्त्व सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं निश्चम रत्नत्रयस्वरूपं तत्साधकं व्यवहाररत्नत्रयरूपं चेति । इदानीं हेयरवं कथ्यते---आकुलस्त्रोत्पादकं नारकादिदुः खं निश्चयेनेन्द्रियसुखं च यस्वम् । तस्य कारणं संसार:, संसारकारणमात्र बबन्धपदार्थद्वयं तस्य कारणं पूर्वोक्त व्यवहारभिश्वय रत्नत्रयाद्विलक्षणं मिष्यादर्शनशानचारित्रत्रयमिति । ---वृहदटीका, द्वितीय अधिकार, गाथा - संख्या १-२ चूलिका, पृ० ८२-८३. २. जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमथिंग त्तिं गिट्ठिा । बादसहायम्मि ठिद्रा ते सगस मया मुणेदब्बा ॥1
— प्रवचनसार, गाथा ९४, पृ० ११०.
४०८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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