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नहीं अनेक जन्मों में साधना सम्पन्न करनी पड़ी। वस्तुतः कर्मोंको कालिमाको सरलतापूर्वक दूर नहीं किया जा सकता है। मानव अनेक जन्मोंमें सत्य और अहिंसाकी साधना करके ही अपनेको इस योग्य बना पाता है कि सत्य और अहिंसाकी प्रकाशकिरणें उसके रोम-रोमसे प्रादुर्भूत हों । इन्द्रियोंकी दासताको उतार राग-द्वेषका विजयी बन सके ।
तीर्थंकर पद बड़े भाग्यशाली साधक पुरुष ही प्राप्त करते हैं । सामान्य सर्वज्ञ, सर्वदर्शी साधु हो जाना सुगम है, पर त्रिभुवनके महापुरुषोंसे पूजिस तीर्थंकरपद पाना सरल नहीं है। धर्मचक्रवर्तीका यह महान् पद अनेक जन्मोंके श्रम और योगसाधनासे उपलब्ध होता है । मानव जन्मगत पूर्णताको प्राप्त करके ही तीर्थंकरपद प्राप्त कर सकता है | तीर्थंकरपद इसीलिये अनुपम है कि उन जैसा उस काल में अन्य कोई नहीं होता । धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होनेके कारण ये बड़े-बड़े आचार्यों द्वारा वन्दनीय होते हैं । वे लोकके सर्वोपरि सर्वतोभद्र कल्याणकर्त्ता होते हैं । उनका तीर्थ - धर्मशासन समस्त आपत्ति-विपत्तियोंका अन्त करनेवाला, लोककल्याणक सर्वोदय तीर्थं होता है ।
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तीर्थंकर के शरीरका प्रत्येक परमाणु योगनरत पूर्णता और विशुद्धताको प्राप्त कर शुद्ध पुद्गल स्कन्ध रूप हीरककी प्रभाको भी मन्द कर देता है सहस्राधिक सूर्य के प्रकाशको भी उनकी प्रभा लज्जित करती है। वे महान्, सुन्दर, सुभग, समचतुरस्र संस्थान और यत्र वृषभनाराचसंहननके धारी होते हैं । उनका अतुल बल, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त सुख अपरिमेय होता है । ज्ञानावरणादि कर्मोंके विनाशसे ज्ञानादि गुणों का पूर्ण विकास और प्रकाश तीर्थंकर में पाया जाता है। वे जीवन मुक्त सच्चिदानंद, शुद्ध आत्मा हो जाते हैं । अतएव शरीरका कोई विकार उनमें शेष नहीं रहता । उनकी आत्मा शुद्ध और शरीर भी शुद्ध हो जाते हैं। परका प्रभाव यहाँ निःशेष है । अतएव विकारके लिये कहीं अवकाश नहीं हैं । अन्तरंगमें रागद्वेषादि नहीं उठते और बहिरंगमें सुधा, तृषा, जन्म-मरण, रोग-शोक, भय आश्चर्य आदि भी विकार नहीं रहता । विशुद्धिके पुंज उद तीर्थंकरोंमें शुद्ध, बुद्ध, परमोत्कृष्ट आत्मतत्वका प्रत्यक्ष दर्शन होता है । अतएव उनके निकट आधि-व्याधि नहीं रहती । फलस्वरूप बहुत दूर-दूर तक न तो दुर्भिक्षजन्य बाधा रहती है और न परस्पर में वैर-विरोध ही रहता है। सभी चर-अचर प्राणी प्रेममन्दाकिनीमें निमग्न हो जाते हैं । म'नव क्या स्वर्गके देवगण भी उनके दर्शन कर अपने को पवित्र मानते हैं । उनकी धर्म-देशनासे संसारके सभी प्राणी पवित्र हो जाते हैं । मौतिकतामें भटकता हुआ मन केंद्रित हो जाता है और बाध्यात्मिक लोकतन्त्रकी सहज में प्रतिष्ठा हो
२४ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा