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दिगम्बरसाहित्य के आलोक में ईस्वी की पांचवी शताब्दी से ही नालन्दाफी निकटतिन पावा ही महावीरकी निर्वाणभूमि मानी गयी है। पूव्यपादने लिखा है:पद्मवनदीर्घिकाकुल विविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोधाने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ॥ कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः | अवशेषं सम्प्रापद् व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥ परिनिर्वृतं जिनेन्द्र ज्ञात्वा विबुधा ह्ययाशु चागम्य | देवतरुरक्तचन्दनकालागुरुसुरभिगोशीर्षैः ॥ अग्नीन्द्राज्ञ्जिनदेहं मुकुटानलसुरभिधूपवरमाल्येः । अभ्यच्यं गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवने ॥
अर्थात् - तीर्थंकर महावीर कमलवनसे भरे हुए और नानावृक्षोंसे सुशोभित पावानगर के उद्यानमें कायोत्सगं ध्यानमें आरूढ़ हो गये। उन्होंने कार्तिक कृष्णाके अन्त में स्वाति नक्षत्र में सम्पूर्ण अवशिष्ट कर्म-कलंकका नाश करके अक्षय, अजय और अमर सौख्य प्राप्त किया। देवताओंने जैसे हो जाना कि भगवान्का निर्वाण हो गया, वे अविलम्ब वहाँ पर आये और उन्होंने पारिजात, रक्ल कन्दन, कालागुरु तथा अन्य सुगन्धित पदार्थ और धूपमालाएँ एकत्र कीं । अग्निकुमार देवोंके इन्द्रने अपने मुकुटसे अग्नि प्रज्वलितकर जिनेन्द्रप्रभुकी देहका संस्कार किया । देवोंने गणधरोंको भी पूजा की और अपने-अपने स्थानपर चले गये |
हरिवशपुराण, जयघवला टीका, तिलोयपण्णत्ती, उत्तरपुराण आदि सभी ग्रन्थोंसे यह सिद्ध होता है कि तीर्थंकर महावीरका निर्वाण मगध देशकी पात्रा नगरीमें हुआ है।
बौद्ध साहित्य के आधारपर श्री कन्हैयालाल सरावगीनें कुशीनगर के समीपवर्ती सव्याचको तीर्थंकर महावोरकी निर्वाणमूमि पावा सिद्ध करनेका प्रयास किया है। उन्होंने सठियांवकी जो व्युत्पत्ति पावाके साथ घटित की है उसे पढ़कर महान् आश्वयं होता है। उन्होंने लिखा है "श्रीका प्राकृत रूप सरि या सठि होता है । पावाका कालान्तर में यावा यांवा हो गया। इस प्रकार श्रीपाचा > सिरिपावा सठियाचा साठयांचा बन गया ।""
श्रीका सरि रूप बनता है पर प्राकृतके किसी भी नियमके आधारपर 'र' का 'ठ' और 'प' का 'य' नहीं होता । पादाका यांवा रूप और श्रीके सठि रूपकी कल्पना करना भाषा विज्ञान के समस्त नियमों की अवहेलना करना है । १. पावा-समीक्षा, पृ० ४२.
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना २०३