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२८. एवभूत- जिस क्रियाका वाचक जो शब्द है उस क्रियारूप परिणत पदार्थको ग्रहण करना ।
२९. सभूतव्यवहार--- पदार्थ में गुण गुणीको भेदरूपसे ग्रहण करना । ३०. उपचरितसद्भूतव्यवहार-सोपाधिक गुण - मुणीको भेदरूपसे ग्रहण
करना ।
३१. अनुपचरितसद्भूतव्यवहार- निरुपाधिक गुण-गुगोको भेदरूप ग्रहण
करना !
३२. असद्भूतव्यवहार-भित्र पदार्थोंको अभेदरूप ग्रहण करना । ३३. उपचरितासमूतव्यवहार-संश्लेषरहित वस्तुको अभेदरूपण करना ।
३४. अनुपचरिताद्भूतव्यवहार-संश्लेषमहित वस्तुको अभेदरूप ग्रहण
करना ।"
आध्यातिमा कोट लन्द
आत्मा शुद्ध स्वरूपकी प्रतीति, अनुभूति और प्राप्ति में सहायक, (१) शुद्धनिश्चय, (२) अशुद्धनिश्चय, (३) उपचरितसद्भूतव्यवहार, (४) अनुपचरितसद्भूतव्यबहार, (५) उपचरितासभूतव्यवहार और ( ६ ) अनुपचरितासभूतव्यवहार नय हैं ! इन नयों द्वारा वस्तुको जानकारीसे 'स्व' का ग्रहण और 'पर'का त्याग होता है ।
मूलतयोंकी मान्यताके सम्बन्धमें विवाद है। किसी चिन्तकके मतसे मूलनय पाँच, किसीके मतसे छः और किसीके मत से सात हैं। वस्तुतः विविध दृष्टिकोणोंके आधारपर नयोंके असंख्यात भी भेद संभव है । प्रत्येक नय एक नया दृष्टिकोण उपस्थित करता है और यह दृष्टिकोण अपने में समीचीन होता है। मूल नय सात हैं:
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१. गैंगमनय
संकल्पमात्रके ग्राहकको नंगमनय कहा जाता है । यह शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आकार और आधेय आदिके आश्रयसे उपचारको विषय करता है । यथा - 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुरो वा वाक्यमें अश्वत्थामा नामक हाथोके मारे जानेपर अन्य व्यक्तिको भ्रम उत्पन्न करनेके हेतु अश्वत्थामा
१. मयोंको विशेष जानकारीके लिए देखिए - नयचक्र, आलापपद्धति और जेनसिदान्तदर्पण |
४६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी कषायं परम्परा