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जो आत्मा शिशु-शरीरमें रहती है, वही आत्मा युवा-शरीरमें रहती है और वहो वृद्ध-शरीरमें भी। स्थूलशरीरव्यापी आत्मा कृशशरीरव्यापी हो जाती है। ___ आत्माको शरीरपरिमाण माननेसे वह अवयव सहित होने के कारण अनित्य नहीं हो सकती है। यतः यह कोई नियम नहीं है कि जो अवयव सहित होता है, वह विशरणशील ही होता है । आकाश सावयव होनेपर भी नित्य है । जो अविभागी अवयव हैं, वे अवयवीसे कभी पृथक् नहीं हो सकते । जीव या आत्मा : ज्ञान-स्वरूप __ यह अनुभव सिद्ध है कि जो जीव है. वह ज्ञानवान है और जो ज्ञानवान है, वह जीव है । जिस प्रकार उष्णत्वके बिना अग्निका अस्तित्व संभव नहीं, उसी प्रकार ज्ञान गणके बिना जीवका अस्तित्व भी असंभव हैं। एकेन्द्रियस मुक्तात्माओं तकमें ज्ञानगणकी होनाधिकता पायी जाती है। जीवका यह ज्ञानगण ही जड़ पदार्थासे उसे भिन्न सिद्ध करता है । अत: शान जीव या आत्माका निज स्वरूप है। ___ ज्ञान और ज्ञानीको परस्परमें सर्वदा एक दूसरेसे भिन्न माना जाय तो दोनों ही अचेतन हो जायेंगे । यदि यह कहा जाय कि ज्ञानसे भिन्न होनेपर भी आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है, तो ज्ञानके समवायसम्बन्धके पूर्व आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? समवायसम्बन्धके पूर्व आत्माको ज्ञानी माननेसे जानका समवायसम्बन्ध मानना व्यर्थ है, यतः इस सम्बन्धकी कोई आवश्यकता नहीं । अज्ञानी में ज्ञानका समवाय बन नहीं सकता है । क्योंकि अज्ञानी में ज्ञानके मिलनेसे भी अज्ञानता बनी ही रहेगी तथा अज्ञान और ज्ञानके मिश्रणको क्या कहा जायगा ?'
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि जिस प्रकार देवदत्त अपने शरीरसे भिन्न रहनेवाले दात्र--हसियाके द्वारा तृणादिका छेदक हो जाता है, उसी प्रकार जीव भी भिन्न रहनेवाले ज्ञानके द्वारा पदार्थोका शायक हो सकता है। यतः छेदनक्रियाके प्रति दात्र बाह्य उपकरण है और वीर्यान्तराय कर्मके क्षमोपशमसे १. गाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदो दु अण्णमण्णस्स । दोहं अवेदणसं पसजदि सम्म जिणावमदं ।। ण हि सो समवायादो मत्थंतरिदो दु णाणदो गाणी । अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि ।।
-पञ्चास्तिकाय, गाथा ४८-४९. तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ३३९