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कहाँसे आई कि वे जीवको कर सकें- उसमें रागादिभाव उत्पन्न कर सकें । यदि कर्म विना किसी वैशिष्टयके रागादिक करते हैं, तो कर्मके अस्तित्वकालमें सदा रागादि उत्पन्न होने चाहिए ।
इन प्रश्नोंका समाधान विभिन्न दृष्टियोंके समन्वय द्वारा संभव है । यतः जीवके रागादि परिणामोंसे पुद्गलद्रव्य में कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गल के कर्मरूप परिणमनसे उनकी उदधावस्थाका निमित्त पाकर आत्मामें रागादिभाव उत्पन्न होते हैं । यद्यपि इस समाधान में अन्योन्याश्रय दोष दिखलायी पड़ता है, पर अनादि संयोग मानने से इस दोषका निराकरण हो जाता है ।
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कर्तृ- कर्मभावको व्यवस्थाके स्पष्टीकरण के लिए कारकथ्यवहारका विचार कर लेना आवश्यक है।
संसारमें अनादिकाल से समस्त द्रव्य प्रतिक्षण पूर्व - पूर्व अवस्था - पर्यायको त्यागकर उत्तरोत्तर अन्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं, इसी परिणमनको क्रिया कहा जाता है। अनन्तर पूर्वेक्षणवर्ती परिणामविशिष्ट द्रव्य उपादानकारण है और अनन्तर उत्तरक्षणवर्त्ता परिणामविशिष्ट द्रव्य कार्य है। इस परिणमनअवस्थापरिवर्त्तन में सहकारीस्वरूप अन्य द्रव्य निमित्तकारण है । निमित्तकारणके दो भेद हैं: - ( १ ) उदासीन निमित्तकारण और ( २ ) प्रेरक निमित्तकारण । इन्हीं कारणों में कारकव्यवहार होता है। क्रियानिष्पादकत्व कारकका लक्षण है और इसके कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छ: भेद हैं। क्रियाका उपादानकारण कर्त्ता जिसे क्रिया प्राप्त हो वह कर्म; क्रिया में साधकतम अन्य पदार्थं करणः कर्म जिसको प्राप्त हो वह सम्प्रदान, दो पदार्थोंके लिये वियुक्त होनेमें जो ध्रुव रहे, वह अपादान एव आधारको अधिकरण कहा जाता है। इस कारक प्रक्रियाका अभिप्राय यह है कि संसार में जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका कर्ता
कोई पदार्थ नहीं है ।
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वास्तवमें कर्त्ता - कर्मभाव उसी द्रभ्यमें घटित होता है, जिसमें व्याप्यध्यापक भाव अथवा उपादान - उपादेयभाव रहता है । जो कार्यरूपमें परिणत होता है, उसे व्यापक या उपादान कहते हैं और जो कार्य होता है उसे व्याप्य या उपादेय । मिट्टीसे धड़ा बना, यहां मिट्टी ध्यापक या उपादान है और घट व्याप्य या उपादेय है। यह व्याप्यव्यापकभाव या उपादान - उपादेयभाव सर्वदा एक प्रम्यमें हो होता है, दो द्रभ्योंमें नहीं; यत्तः एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप त्रिकालमें भी परिणमन नहीं होता है ।
जो उपादानके कार्यरूप परिणमनमें सहकारी है, वह निमित्त है। यथातीर्थंकर महावीर और उनकी देखना: ३४१