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है, तो मुझे निराशा ही प्राप्त होनी है । ये भौतिक सुख त्याज्य हैं । अतः मानवजीवन में आध्यात्मिकत्ताको अपनाना और अपनी आध्यात्मिकशक्तिके विकासके लिये पूर्ण प्रयत्न करना परमावश्यक है। हमारी आत्म-ज्योति भोगवादी अविवेकके घने कुहासे में आवृत्त है, जिस प्रकार कीचड़में लिपटे होरेकी ज्योति तिरोहित हो जाती है और वह हीरा मिट्टी जैसा प्रतीत होता है, उसी प्रकार मानवजीवनके वास्तविक तथ्य और सत्य पूर्वाग्रह, अन्धविश्वास और अविवेकसे लिप्त हो जाने के कारण मानवताके क्षितिजसे तिरोहित हो जाते हैं । अतएव मुझे आत्मोद्वारके लिये अतृप्ति, कुण्ठा, निराशा और भोगवादी दृष्टिगोणका त्याग करना है 1
इस प्रकार सहापोह करता हु हो अपने निती शामगारे लिये धन-विहारको चल दिया ।
राजाज्ञा प्राप्त होते ही अमात्य, महिषि-वर्ग, चतुरंगिणी सेना, कलाकार सभी उसके मनोविनोदके लिये साथ-साथ चल दिये । संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त कुमारका मन प्रकृति के इस रमणीय रूपको देखकर भी रम न सका। विषयोंकी विरक्तिने उसको चेतनाको उद्बुद्ध कर दिया था। अतएव हरिषेण यानसे उतरकर पैदल ही वनमें भ्रमण करने लगा। कुछ दूर चलने के पश्चात् उसे अंगपूर्वके ज्ञाता श्रुतसागर नामक मुनि दिखलायी पड़े । उसने तीन प्रदक्षिणाएं की और 'नमोऽस्तु' कहकर मुनिराजकी वन्दना की।
सम्यग्दर्शनके प्रकाशने उसकी अन्तरात्माको आलोकित कर दिया था । विवेकोदयके कारण कषाय और विकार धूमिल हो रहे थे । परिग्रहको आसक्केि त्यागने उसकी आत्मामें संयमको ज्योति प्रज्वलित कर दी थी। अतएव उसने मुनिराजसे दिगम्बर-दीक्षा प्रदान करनेकी प्रार्थना की । मुनि बन हरिषेण एकाकी नदीतट, पर्वत-गुफा एवं श्मशानभूमिमें ध्यानासक्त रहता था । बह ग्रीष्मऋतुमें पर्वतकी चोटीपर, वर्षाऋतु में वृक्षके नीचे और शरदऋतुमें नदीके सटपर ध्यानारूढ़ रहता था। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और सप इन चारों बाराधनाओंका सेवन करता हुआ आत्म-शोधनमें प्रवृत्त रहता था। समाधिमरणसे प्राण त्याग करनेके कारण वह महाशुक्र नामक दशम स्वर्गमें महर्दिक देव हुआ और वहाँसे चयकर मनुष्य-पर्याय प्राप्त की। प्रियमित्र चक्रवर्ती : साधनाने अंगड़ाई की
घातकीखण्ड द्वीपके पूर्व विदेहमें पुष्कलावर्स नामक देश है । यहां पुण्डरी५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा