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बढ़ रहा था । कुछ व्यक्ति हठयोगकी साधनायें आत्म-शान्ति के स्वप्न देखते थे । राजा महीपाल हठयोगके विशेष उपासक थे । ऋद्धि और सिद्धियाँ प्राप्त करनेके लिये विविध प्रकारके काय- क्लेश सहन किये जाते थे । जनताके समक्ष नये विचार और नये सिद्धान्त प्रस्तुत हो रहे थे, पर कहीं भी प्रकाशकी किरण दिखलायी नहीं पड़ती थी। फलतः सर्वत्र धार्मिक अशान्ति परिलक्षित हो रही थी और चारों ओरसे यह ध्वनि हो रही थी कि किसी ऐसे धार्मिक नेताकी आवश्यकता है, जो इस विशृंखलित समाजको सुगठित और श्रृंखलित कर नया मार्ग प्रदर्शित कर सके ।
संसार में व्याप्त तृष्णा, अनीति, हिंसा, धर्मान्धता एवं जातिमदके विषको दूर करने के हेतु एक ऐसे पुरुषकी आवश्यकता थी, जो अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहके साथ अनेकान्तमयी दृष्टिके आलोकसे लोगों के हृदयान्धकारको छिन्न कर सके । प्रत्येक युग में जब अधर्माचरण बढ़ जाता है, तो कोई ऐसी विलक्षण शक्ति प्रादुर्भूत होती है, जो टूटती हुई मानवताको जोड़नेका कार्य करती है। इस शताब्दीने भी तीर्थंकर महावीरको क्रान्तिद्रष्टा के रूपमें उपस्थित कर मानवता के प्राणकी शंखध्वनि की ।
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ७९