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यह धर्मद्रव्य 'पुण्यका वाची नहीं है । इसके असंख्यात प्रदेश हैं। यह द्रव्यके मूल परिणामी स्वभाव के अनुसार पूर्वपर्यात्रको छोड़ने और उत्तरपर्यायको धारण करनेका क्रम अपने प्रवाही अस्तित्वको बनाये रखते हुए अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चालू रहेगा । धर्मद्रव्यके कारण ही जीव और पुद्गलोंके गमनकी सीमा निर्धारित होती है। इसमें न रस हैं, न रूप है, न गन्ध है, न स्पर्श है और न शब्द ही है ।'
यह जीव और पुद्गलोंको गमन करनेमें उसी प्रकार सहायक है, जैसे जल मछलीके गमन करने में । यह एक अमूत्तिक समस्त लोक में व्याप्त स्वतन्त्र द्रव्य है । rai : स्वरूप
जिस प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंको गमन करने में सहायक है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंके ठहरने या स्थितिमें सहायक है। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोके चलने में सहायता करता है और अधर्मद्रव्य ठहरनेमें । चलने और ठहरने की शक्ति तो जीव और पुद्गलों में पायी जाती है, पर बाह्य सहायता के बिना इस शक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।
सहायक होनेपर भी धर्म और अधर्मद्रव्य प्रेरक कारण नहीं हैं, न किसीको बलपूर्वक चलाते हैं और न किसीको ठहराते ही हैं, किन्तु ये दोनों गमन करते और ठहरते हुए जीब और पुद्गलोंकों सहायक होते हैं ।
आकाशद्रव्य : स्वरूप
जो जोवादि द्रव्योंको अवकाश प्रदान करता है, वह आकाश है। आकाश अनन्त है, किन्तु जितने आकाशमें जीवादि अन्य द्रव्योंकी सत्ता पायी जाती है, वह लोकाकाश कहलाता है और वह सीमित है । लोकाकाशसे परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है, उसे अलोकाकाश कहा जाता है । उसमें अन्य किसी द्रव्यका अस्तित्व नहीं है, और न हो सकता है, क्योंकि वहां गमनागमन के साधनभूत धद्रव्यका अभाव है ।
स्थिति, गमन और रुकावट ये तीनों क्रियाएँ आकाश द्वारा सम्भव नहीं हैं, १. धम्मत्यिकायमरसं अण्णगंध असहमप्फारसं ।
लोगोगाव
पुट्ठ
पिलमसंखादियपदेसं ॥
२. जड़ हवदि धम्मदव्वं तह णं जाणेह दव्त्रमचम्मखं ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं करणभूदं तु
पुठवीन ॥
वही गाथा ८६.
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ३५९
- पञ्चास्तिकाय गाथा ८३.