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उद्यानके मार्ग से गमन कर रहे थे। प्रकृतिका रम्य वातावरण पशु-पक्षी, मानव और देव सभीको आह्लादित कर रहा था ।
अप्सराओं द्वारा प्रस्तुत मोहक राग-भोग
स्वर्गकी देवांगनाओंके मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि महावीर काम-विजयी और इन्द्रिय-जयी हो सकते हैं ? वे महावीरकी स्वर्ण कांतिमय देहको देखकर सोचने लगीं, हो नहीं सकता कि ऐसे स्वस्थ सुन्दर पुरुष के मनमें काम विकार उत्पन्न न हो। देवांगनाएं महावीरके संयम की परीक्षाएं लेनेके हेतु उद्यत हो उठीं ।
बसंतश्रीका मादक सौरभ सभीके मनको काम वासना से दोशिल बना रहा था । देवांगनाएं ऐसे ही मधुमय वातावरणमें महावीरके समक्ष उपस्थित हुई । वे एक-से-एक सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत थीं। सबकी सब प्रकट होकर नृत्य करने लगीं, गाने लगीं, कामुक हाव-भाव प्रदर्शित करने लगीं और अपने कटाक्षों द्वारा अपने भावोंको प्रकट करने लगीं । अश्लीलतापूर्ण उनके वचन और विकारीभाव बड़े-बड़े संन्यासियोंको विचलित कर सकते थे, पर महावीरपर उनका रंचमात्र भी प्रभाव न पड़ा। प्रभावकी तो बात ही क्या, महावीर ने उनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखा । आखिर वे हारकर तीर्थंकर महावीर से अपने अपराधोंके लिये क्षमा-याचना करने लगीं ।
महावीरकी यशोगाथा चारों ओर फैल गयी और काम-विजयी के रूप में वे सर्वत्र समादृत होने लगे । महावीरने इन्द्रियोंके विकारोंको जीत लिया था । वे स्वकी उपलब्धि और स्वनिष्ठ आनन्दकी खीजमें सलग्न थे । संसारका बड़े-सेबड़ा प्रलोभन उनके लिये तुच्छ या संसारकी भोग-वासना और दुर्गंधभरी गलियोंसे भटकना उन्हें स्वीकार नहीं था । वे सोचते – “विकृतियोंके कीड़ोंसे कुलबुलाता जीवन भो क्या जीवन है ? जीवनकी निर्विकार पवित्रता एवं अनन्त सत्यकी उपलब्धि ही जीवनका महान् उद्देश्य है । वे परम सत्य और परम आनन्दको प्राप्त करनेके लिये प्रयत्नशील थे ।
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स्वयं बुद्ध महावोरकी साधना जड़ नहीं, सचेतन थी और सचेतन साधना गतिहीन नहीं होती। साधनाकी सचेतनता ज्ञानपर अवलम्बित है । वे श्रमणसाधना में संलग्न थे । उनके कदम सूनी और अनजानी राहोंपर दृढ़ता से बढ़ रहे थे ! उन्होंने न तो कभी किसीको डराया और न स्वयं कभी भयभीत हुए । उनके ध्यानयोगकी साधना आत्मानन्दकी साधना थी। भयसे परे, प्रलोभनसे परे, द्वेषसे परे, शरीर में रहकर भी शरीरसे अलग, शरीरकी अनुभूतिसे पृथक,
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १७३