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पापी मनने तुम्हें भी पापरूपमें ही कल्पित किया है। मुझे अपने कृत्यपर धोर पश्चात्ताप है ।"
चन्दना - "देवी ! तुम बड़ी हो। तुम्हारे चरण भुझे छूने चाहिये । तुमने मेरा महान् उपकार किया है। यदि तुम्हारा यह व्यवहार न हुआ होता, तो महावीरका अभिग्रह मिल ही नहीं पाता । तुम्हारे तलघरने मेरा भाग्योदय किया है । अतएव मेरी कृतज्ञता स्वीकार कीजिये ।"
रानी मृगावतीने चन्दनाको राजभवनमें चलनेका पुनः आग्रह किया और उसे अपनी बड़ी बहनका आग्रह स्वीकार करना पड़ा। कालान्तर में महाराज चेटकको चन्दनाको प्राधिका समाचार भेजा गया और वे चन्दनाको अपने घर लिवा ले गये ।
कौशाम्बीसे बिहारकर महावोर सुमङ्गल, सुच्छेत्ता और पालक आदि गाँवों में विचरण करते हुए चम्पापुरी पहुंचे और यहींपर वर्षावास समाप्त किया । वर्षावासके दिनों में महावीरने चार महोनेका उपवास ग्रहण किया । इस वर्षांवास में उन्होंने स्वातिदत्तको प्रबोधित किया । तीर्थंकर महावीर नानाप्रकारसे मीन साधना करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे । वे चम्पासे विहारकर जम्भय गाँव पहुँचे ।
अन्य उपसर्ग व्याक्ष्म-ता
स्वर्ण तपाये जानेपर ही कुंदन बनता है । व्यक्ति की साधना भी उपसर्ग और परीषहोंके सहन करनेपर ही सफल होती है। जिस प्रकार अञ्जलिका जल शनै: शनै: हाथसे चू जाता है उसी प्रकार उपसर्ग सहनेसे कर्मका कालुष्य समाप्त हो जाता है। अविच्छिन्न तपस्या ही कर्म-निर्जराको सम्पादित करती है । तपश्चर्याकी छेनी से कर्मकी निविड़ श्रृंखलाएं कट रही थीं और धीरे-धीरे वीतरागता उभर रही थी । एक अदम्य परम ज्योतिका उदय निकट था और केवलज्ञानका उषाकाल उपस्थित था । आत्माके आवरण शिथिल हो रहे थे और निर्मलताका तेज बढ़ता जा रहा था ।
महावीरको उपसर्ग - विजय साधारण नहीं थी, उन्होंने बड़े-से-बड़े उपसर्गोको समता और शांतिसे सहन किया। उनकी दृष्टिमें कोई शत्रु मित्र नहीं थे । सभी कल्याणमित्र थे । दुस्सह साधना के तेजसे हिंसा, घृणा, भय और आतंक निष्प्रभ हो गये थे ।
वसंतके दिन थे । चारों ओर वन वाटिकाएँ पुष्पोंसे आच्छादित थीं । पक्षी सुमधुर स्वरोंमें कलकल निनाद कर रहे थे। तीर्थंकर महावीर एक पुष्पित
१७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा