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उपालि द्वारा बद्धकी प्रशंसा सुनकर महावीरका उष्ण रक्त वमन करना इतिहास विरुद्ध मिथ्या कल्पना है। अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि बौद्ध साहित्यके आधारपर महावीरकी निर्वाणभूमि नालन्दाको समीपवर्तिनी पावा ही है, सठियांब वाली पावा नहीं । यदि जैनागमके सबल प्रमाण उपलब्ध हो जायं, तो इस मन्यताको परिवर्तित करने में तनिक भी संकोच नहीं होगा। वर्तमान पाया-सम्बन्धी सामग्री
कुछ विद्वान् भगध जनाको अन्तर्वसिनः में प्राचीन जैन चिह्नोंका अभाव देखकर इसे निर्वाण-भूमि माननेके प हमें नहीं है। वहाँ निर्मित मन्दिर एवं सांस्कृतिक चिह्न आधुनिक हैं। पर इतिहास इस बातका साक्षी है कि १२ वी-१३ वीं शताब्दीमें जैनधर्मका केन्द्र उत्तरी विहारसे हटकर दक्षिणी विहारमें स्थापित हो गया था। राजगृह और पावापुर तो महावीरके समयमें ही जैनतीर्थ बन चुके थे । पावापुरीमें ई० सन्की १३ वीं शताब्दी में एक जैन सम्मेलन हुआ। ई० सन् १२०३ में यहाँ भगवान महावीरकी मूर्ति विराजमान को गयी। इसके पहले भी यहाँ मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई हो, तो इसमें कोई अतिरंजना नहीं है । मदनकोत्तिने अपने समयके छब्बीस तीर्थोंको वर्णन किया है। मदनकोतिका समय ई० सन्को १३वीं शतीका उत्तरार्द्ध है। इन्होंने पावापुरीके वीर जिनका वर्णन किया है । अत: १२वीं शताब्दीके पहले ही मगधवाली पावाकी प्रतिष्ठा महावीरकी निर्वाणभूमिके रूपमें हो चुकी थी। 'तीर्थकल्प' में भी जिनप्रभसूरिने 'पावापुरी' या 'अपापा' के नामसे इस तीर्थका महत्त्व प्रतिपादित किया है । अतएव यह निश्चित है कि वर्तमान पावापुरीको मान्यता जिनसेन प्रथमके पहले ही प्राप्त हो चुकी थी। जिनसेनने इसी कारण श्रेणिकको निर्वाणोत्सवमें सम्मिलित किया है। ___अभी गाँवके मन्दिरकी मरम्मतके समय खुदायीमें एक प्राचीन मन्दिरका अवशेष नीवमें प्राप्त हुआ है। इस ध्वंसावशेषके सम्बन्धमें विशेष जानकारी तो नहीं, पर इतना अवश्य है कि यह ध्वस्त मन्दिर जिसकी बुनियादपर नया मन्दिर निर्मित है, पर्याप्त प्राचीन रहा है। सम्भवतः खुदायोमें अन्य सामग्री भी उपलब्ध हो जाय । अतएव उपलब्ध प्रमाणोंके आलोक में वर्तमान पावापुरी ही महावीरको निर्वाणभूमि है।
जैन प्रमाणोंकी अवहेलना कर नवीनताके व्यामोहमें कोई भले ही सठियांव-फाजिलनगरको तीर्थकर महावीरको निर्वाणभूमि बतलाये, पर यथार्थता १. श्री पूर्णचन्द्र नाहर, जैन लेख-संग्रह, भाग २ (कलकत्ता १९२७), प० २६३. २. मम्पा० में दरबारीलाल कोठिया, शासनपतुस्विशिका, पीर सेवा मंदिर, दिल्ली, ३१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा