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साधनाके कारण महावीरको विभिन्न प्रकारको ऋद्धियां प्राप्त होने लगी, पर वे इन सभी ऋद्धियोंसे अनासक्त थे। उन्हें प्रत्येक उपसर्गको दूर करनेका सामय्ये उपलब्ध था। किन्तु उन्होंने कभी भी अपने सामर्थ्य का प्रयोग नहीं किया । साधक माहावोर संयम और उपवासको सिद्धि द्वारा कर्मोकी निजंना करना चाहते थे । वे अन्य व्यक्तियोंको जीतनेकी अपेक्षा अपनेको जीतना अधिक उपयुक्त मानते थे।
जब वाणिज्यग्रामके निवासी श्रमणोपासक आनन्दको महाबोरके पधारनेका पसा चला, तो उसने आकर उनकी वन्दना की। वहां से विहारकर महावीर श्रावस्ती पधारे और यहींपर उनका दशवा वर्षावास सम्पन्न हुआ। गोशा. लक तो चातुर्मास आरम्भ होनेके पहले हो महाघोरका साथ छोड़कर चला गया था।
इस दशम वर्ष-साधनाकी उपलब्धि संयमकी सिद्धि थी। वे आत्मसिद्धिके लिये निरन्तर प्रयासशील थे। चेतन्यके ऊर्ध्वगमनकी वृत्तिको ही वे धर्मको जननी मानते थे।
एकादशवर्ष-साधना : आत्मानुभूति
जोवन की यात्रामें आत्माकी अमरता हो परबिन्दु है और यही है जीवनका अन्तिम लक्ष्य, क्योंकि इसीको मुक्ति-यात्रा कहा जाता है । आत्माकी अमरताविभावपरिणतिरहित अवस्था वीतराग हुए विना प्राप्त नहीं होती। न तो रागो मुक्त होता है और न विरागी ही। दोनों ही संसारके बन्धनमें जन्धते हैं। वीतरागता रागो और विरागीसे ऊपरको स्थिति है। रागका अर्थ है रंगना या किसी वस्तुमें आसक्त होना । विरागीका अर्थ है-रागकी कुछ न्यूनता। रामी आसक्त होता है, तो विरागी कम आसक्त होता है। उसका पूर्णत: राग छूटता नहीं। किन्तु वीतराग इन दोनोंसे परे है। उसकी आँखों में कोई रंग नहीं है, वह पूर्णतया रंग-मुक्त है । जो वस्तु जैसी है, वीतरागको वैसी हो दिखलायी पड़ती है। वीतरागकी दृष्टि में कोई वस्तु न सुन्दर है और न असुन्दर । यतः वीतरागताकी प्राप्ति अमृतको प्राप्ति है । ___ महावीरने श्रावस्तीमें चातुर्मास समाप्त कर सानुलट्ठीय-सन्निवेशकी ओर बिहार किया । यहाँ इन्होंने भद्र व महाभद्र और सर्वतोभद्रतपस्याओंको करते हुए सोलह उपवारा किये । उपवाराके अन्तमें, इन्होंने आनन्द उपासकके यहां पारणा की और दढ़भूमिको ओर विहार किया। मार्ग में पढ़ाल उद्यानके चैत्यमें जाकर १६. : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा