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भी प्रेमपूर्ण व्यवहार होना आवश्यक है। विशाल ऐश्वयं और महान वैभव प्राप्त करके भी प्रम ओर आत्मनियन्त्रण निता शान्नि वागाव नहीं लग समाजके प्रत्येक सदस्यका नैतिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हआ है, तब. तक वह भौतिकवादके मायाजालसे मुक्त नहीं हो सकता । व्यक्ति और समाज अपनी दृष्टिको अधिकारको ओरसे हटाकर कर्तव्यको ओर जबतक नहीं लायेगा, तवतक स्वार्थबुद्धि दूर नहीं हो सकतो है।
वस्तुतः समाजका प्रत्येक सदस्य नैतिकतासे अनैतिकता, अहिंसासे हिंसा, प्रेमसे घृणा, क्षमासे क्रोध, उत्सर्गसे संघर्ष एवं मानवतासे पशुतापर विजय प्राप्त कर सकता है । दासता, बर्वरता और हिंसासे मुक्ति प्राप्त करने के लिए अहिंसक साधनोंका होना अनिवार्य है । यतः अहिंसक साधनों द्वारा ही अहिंसामय शांति प्राप्त की जा सकती है। बिना किसी भेद-भावके संसारके समस्त प्राणियोंके कष्टोंका अन्त अहिंसक आचरण और उदारभावना द्वारा ही सम्भव है । भौतिक उत्कर्षकी सर्वथा अवहेलना नहीं की जा सकती, पर इसे मानव-जीवनका अन्तिम लक्ष्य मानना भूल है। भौतिक उत्कर्ष समाजके लिए यहीं सक अभिप्रेत है, जहाँसक सर्वसाधारणके नैतिक उत्कर्ष में बाधक नहीं है। ऐसे भौतिक उत्कर्षसे कोई लाभ नहीं, जिससे नैतिकताको ठेस पहुँचती हो।
समाजधर्मका मूल यही है कि अन्यकी गलती देखनेके पहले अपना निरोक्षण करो, ऐसा करनेसे अन्यको भूल दिखलायी नहीं पड़ेगी और एक महान संघर्षसे सहज ही मुक्ति मिल जायगो। विश्वप्रेमका प्रचार भी आत्मनिरीक्षणसे हो सकता है। विश्पप्रेमके पवित्र सूत्रमें बंध जानेपर सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, देश एवं समाजकी परस्पर घृणा भी समाप्त हो जाती है और सभी मित्रतापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं । हमारा प्रेमका यह व्यवहार केवल मानव-समाजके साथ ही नहीं रहना चाहिए, किन्तु पशु, पक्षी, कीड़े और मकोड़े के साथ भी होना चाहिए। ये पशु-पक्षी भी हमारे ही समान जनदार हैं और ये भी अपने साथ किये जानेवाले सहानुभूति, प्रेम, करता और कठोरताके व्यवहारको समझते हैं। जो इनसे प्रेम करता है, उसके सामने ये अपनी भयंकरता भूल जाते हैं और उसके चरणोंमें नतमस्तक हो जाते हैं; पर जो इनके साथ कठोरता, करता और निर्दयताका व्यवहार करता है। उसे देखते ही ये भाग जाते हैं अथवा अपनेको छिपा लेते हैं। अतः समाजमें मनुष्यके ही समान अन्य प्राणियों को भी जानदार समझकर उनके साथ भी सहानुभूति और प्रेमका व्यवहार करना आवश्यक है।
समाजको विकृत या रोगी बनानेवाले तत्व हैं--(१) शोषण, (२) अन्याय, (३) अत्याचार, (४) पराधीनता, (५) स्वार्थलोलुपता, (६) अविश्वास और,
तीर्घकर महावीर और उनको देशना : ५७३