________________
रूपसे परिणमन करती है, वह पर्याय है।' प्रतिसमयमें गुणोंको होनेवाली अवस्थाका नाम पर्याय है । व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय एकार्थक हैं।
पर्याय क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथञ्चित ध्रौव्यात्मक होती हैं । २ पर्यायके व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्यायकी अपेक्षा दो भेद हैं 1 प्रदेशत्व गुणकी अपेक्षा किसी आकारको लिए हुए द्रव्यको जो परिणति होती है, उसे व्यञ्जनपर्याय कहते हैं और अन्य गुणोंकी अपेक्षा षड्गुणी हानिवृद्धिरूप जो परिणति होती है, उसे अर्थपर्याय कहते हैं। इन दोनों पर्यायोंके स्वभाव और विभागकी अपेक्षा दो-दो भेद होते हैं । स्वनिमित्तकपर्याय स्वभावपर्याय है ओर परनमित्तकपर्याय विभावपर्याय है। जीव और पुद्गलको छोड़कर शेष चार द्रव्योंका परिणमन स्वनिमित्तक होता है, अतः उनमें स्वभावपर्याय सर्वदा रहती है। जीव और पुद्गलकी जो पर्याय परनिमित्तक है, वह विभावपर्याय कहलाती है। परका निमित्त दूर हो जानेपर जो पर्याय होती है, वह स्वभावपर्याय कही जाती है ।
प्रकारान्तरसे विचार करनेपर द्रव्यको अंश-कल्पनाको पर्याय कहा जाता है। यह अंश-कल्पना दो प्रकारको होती है:-(१) तिर्यगशकल्पना और (२) ऊध्वशिकल्पना । एक समयमें द्रव्यके अखपड़ देशमें विष्कम्भकमसे जो देशांशोंकी कल्पना होती है, उसे तिर्यगंशकल्पना कहते हैं और इसीको द्रव्यपर्याय कहते हैं। अनेक समयोंमें प्रत्येक गुणकी कालकमसे तरतमरूप गुणांशकल्पनाको कवशिकल्पना कहते हैं और यही गुणपर्याय है । ___ शक्ति-गुण दोप्रकारकी होती है:-एक भाववती शक्ति और दूसरी क्रियावती शक्ति । द्रव्यके ज्ञानादिक स्वभावोंको भाववती शक्ति कहते हैं। द्रव्यको उस शक्तिको, जिसके निमित्तसे द्रव्यमें प्रदेशपरिस्पन्दन-चलन होकर आकार. विशेषकी प्राप्ति होतो है, क्रियावती शक्ति कहते हैं। इसका ही दूसरा नाम प्रदेशत्व है। गुणके परिणमनको गुणपर्याय कहा जाता है । गुणके दो मेद होनेसे गुणपर्यायके भी दो भेद हैं:-(१) अथंगुणपर्याय और (२) व्यञ्जनगुण
१. स्वमाषविभावस्पसया याति पर्वति परिणमतीति पर्याय इति ।
--बालापपद्धति अ. ६. २. क्रमसिनो एनिस्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः। उत्पाबम्पयरूपा अपि च धौम्मामकाः कथयिन।
-पञ्चाध्यायी, प्रथम अध्याय, पद्य १६५. ३३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा