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महावीर छ: महीने तक अनार्य भूमिमें भ्रमणकर वर्षाकालके अनंतर आर्यभूमिमें लौट आये। बशमवर्ष-साधना : संघमाराधना
संयमका अर्थ है इन्द्रियों और मनका दमन करना तथा उन्हें आत्म-वशीभत करना और हिंसा-प्रवृत्तिसे बचना। संयम अहिंसारूपी विशाल वृक्षको एक शाखा है। अहिंसा साध्य है और संयम साधन | संयमके अनुष्ठानसे ही अहिसाको साधना सम्भव होती है। संयम दो प्रकारका है-इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम | इन्द्रियों और मनको अपने-अपने विषयोंमें प्रवृत्त करनेसे रोककर आत्मोन्मुख करना इन्द्रिय-संयम है और षटकायके जीवोंको हिंसाका त्याग करना प्राणी-संयम है। वस्तुतः व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्रके जीवन में सुखशन्तिका हेतु संयम ही है और इसीके द्वारा अहिंसाकी प्राप्ति होती है। जीवनमें अहिंसाकी प्रतिष्ठा संयम ही सम्भव है। अझएक महावीरने अपने दसवें वर्षकी साधनामें संयम और समता-प्राप्तिके लिये पूर्ण प्रयास किया।
महावीर और गोशालकने अनार्य भूमिसे निकलकर सिद्धार्थपुर जाते हुए कूर्मग्रामको ओर प्रस्थान किया।
तपस्वरूप : परिष्कार
कर्मनामके बाहर वैश्यायन नामक एक तापस तपस्या कर रहा था। वह घपमें अधोमुख होकर तपस्या में रत था। इस तपस्वीकी जटाएं बहत बड़ी-बड़ी थीं और उनमें सजीव विद्यमान थे। गोशालक वेश्यायनके इस दश्यको देखकर महावीरसे कहने लगा-"प्रभो ! इस प्रकारको तपस्यासे संयमकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? और संयमके अभावमें अहिंसाकी साधना सम्भव नहीं ? अतः इस तपस्याको आत्म-कल्याणकारिणी कहा जायगा ? मुझे तो यह तपस्वी ढोंगी जैसा प्रतीत हो रहा है। इसकी जटाओंसे जूएं गिर रहे हैं । अतः इस तपस्याको केवल शारीरिक कष्ट ही माना जा सकता है । आत्मशुद्धिके लिये तो उपवास, ध्यान, संयम आदिको आवश्यकता है । तपस्याका अर्थ इच्छा-निरोध है । मनुष्यकी इच्छाएं अपार, असीम और अनन्त हैं । अतः इच्छाओंको पूर्ति सम्भव नहीं है। इच्छाप्रतिके लिये असंयमके पाप-पथपर चलना अनिवार्य होता है।" __ "तपोनुष्ठानसे मनुष्य संयमशील बनसा है और संयमशीलतासे अहिंसाकी प्रतिष्ठा होती है। जिस व्यक्ति के अन्तरमें अहिंसा, संयम और तपको त्रिवेणी १५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा