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जीव और पुद्गल ये दोनों गतिशील हैं। इन दोनोंमें गमनक्रियाकी शक्ति हैं, निमित्त मिलनेपर ये गमन करने लगते हैं। संसारी जीव और पुद्गलोंकी गतिका कोई नियम नहीं हैं, पर जब जीव एक पर्याय त्यागकर दूसरी पर्यायको प्राप्त करनेके लिए गमन करता है, उस समय जीवकी सरल गति होती है। सरल गतिका आशय है कि जीव या पुद्गल आकाशके जिन प्रदेशोंपर स्थित हों, वहाँसे गति करते हए वे उन्हीं प्रदेशोंकी सरल रेखाके अनुसार रूपर, नीचे या तिरछे गमन करते हैं। इसीको अनुश्रेणि गति-पंक्तिके अनुसार गति कहते हैं।
नया शरीर ग्रहण करने के लिए दो प्रकारको गतियों होता है:-१) ऋजु और (२) वक्र । प्राप्य स्थान सरलरेखामें हो, वह ऋजु गति और जिसमें पूर्व स्थानसे नये स्थानको प्राप्त करनेके लिए सरल रेखा भंग करनी पड़े, वह वक्र गति है । संसारी जीवोंका उत्पत्ति स्थान सरल रेखामें होता है और वक्ररेखामें भी। आनुपूर्वीकर्मोदयके अनुसार उत्पत्तिस्थानकी प्राप्ति होती है । अत: जन्मान्तर ग्रहण करनेवाली आत्मा ऋजुगति और वक्रगति दोनोंको धारण करती है। __ अन्तराल गतिका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चार समय है । ऋजु गतिमें एक समय, पाणिमुक्तागतिमें दो समय, लालिकागतिमें तीन समय और गोमूत्रिकागतिमें चार समय लगते हैं। मोड़ लेनेके अनुसार समयकी संख्या बढ़ती जाती है। एक मोड़ लेनेपर दो समय, दो मोड़ लेनेपर तीन समय और तीन मोड़ लेनेपर चार समय लगता है। जन्मके भेद
जन्मके तीन भेद हैं--(१) सम्मूर्छन, (२) गर्भ और (३) उपपाद | मातापिताकी अपेक्षा किये विना उत्पत्ति स्थानमें औदारिक परमाणुओंको शरीररूप परिणमाते हए उत्पन्न होना सम्मूच्छन जन्म है । माता-पिताके रज-वीर्यको शरीररूपसे परिणमाते हुए उत्पन्न होना गर्भ जन्म है । उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रियिक पुद्गलोंको शरीररूपसे परिणमाते हुए उत्पन्न होना उपपाद जन्म है । जरायुज, अण्डज और पोत प्राणियोंके गर्भ जन्म होता है, देव और नार. कयोंके उपपाद जन्म होता है तथा पाँच स्थावरकाय, तीन विकलेन्द्रिय, सम्म
छैन मनुष्य और सम्मूर्च्छन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके सम्मन्छन जन्म होता है । योनि और शरीर
जिस आधारमें जीव जन्म लेता है, उसे योनि कहते हैं। योनिको प्राप्त जीव नूतन शरीरके हेतु ग्रहण किये गये पुद्गलों में अनुप्रविष्ट हो जाता है और पश्चात्
तीवर महावीर और उनकी देशना : ३९५