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द्रव्यमें अनन्त गुण विद्यमान हैं । इन्हें साधारणतः दो वर्गोमें विभक्त किया जा सकता है:--(१) सामान्यगुण और (२) विशेषगुण ।
जो गण अनेक द्रव्योंमें पाये जाते हैं, वे सामान्य गुण हैं। सामान्यगुणके मुख्य छ: भेद हैं:--(१) अस्तित्व, (२) वस्तुत्व, (३) द्रव्यत्व, (४) प्रमेयत्व, (५) अगसलघुत्व अार (६) प्रदेशवत्व ।
जिस क्ति के निमित्तसे द्रव्यका कभी भी अभाव नहीं होता, सदा अस्तित्व चना रहता है, उसे अस्तित्व कहते हैं।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें अर्थक्रियाकारित्व विद्यमान रहता है, उसे यत्व कहते हैं । इस गुफ कारण ही द्रव्य में अपीयाकी प्रवृत्ति दी है।
जिस शक्तिके निमित्त द्रव्य अर्थात् उसके समस्त गुण प्रतिक्षण एक अवस्थाको त्यागकर अन्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं, उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं । इस गुणके कारण द्रव्य परिणामान्तर अर्थात् पर्यायरूप परिणमन करता है ।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसी न किसी ज्ञानका विषय हो, उसे प्रमेयत्व कहते हैं । इस गुणको सद्भावसे द्रव्य प्रमाणका विषय बनता है।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यको अनन्त शक्तियां एक पिण्डरूप रहती हूँ तथा एक शक्ति दुसरी शक्तिरूप परिणमन नहीं करती, उस शक्तिको अगुरुलघुल्न गुण कहते हैं ।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें आकारविशेष होता है, उसे प्रदेशवत्व गुण कहते हैं।
ये छ: गुण सामान्य हैं, क्योंकि सभी द्रव्योंमें पाये जाते हैं । चेतनत्व, मूतत्व और अभूतत्व आदि विशेषगुण हैं, क्योंकि ये गुण खास द्रव्यों में ही पाये जाते हैं। गुण द्रव्यका सहभावी विशेष है। गण व्यसे पथक नहीं पाये जाते हैं। इन्हें भी द्रव्यके समान कञ्चित् नित्य और कञ्चित् अनित्य माना गया है। उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि जीवमें ज्ञान, पुद्गलमें मत्तत्व और धर्मद्रव्यमें अमूर्तत्व गुणोंका अन्वय सदा दृष्टिगोचर होता है। ऐसा समय कभी न तो प्राप्त हुआ है और न प्राप्त होगा, जिसमें ज्ञानादि गुणोंका अभाव रहे । इससे ज्ञात होता है कि ज्ञानादि गुण नित्य हैं और उनकी यह नित्यता प्रत्यभिज्ञानसे सिद्ध है। विषय-भेदसे जीवका ज्ञानगुण परिवर्तित हो सकता है। जब वह घटको जानता है, तब ज्ञान घटाकार हो जाता है और जब' पटको जागता है, तो पटा. कार परिणत हो जाता है। पर ज्ञानकी धारा कभी भी विच्छिन्न नहीं होती।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ३२७