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रूप पुद्गल-पर्यायके रूप में उसका अपना अस्तित्व रहता है।' दव्य : लक्षण ___जो मौलिक पदार्थ अपनी पर्यायोंको क्रमशः प्राप्त होता है, वह द्रव्य है। अथवा अनेक गणोंके अविष्वग्भावविशिष्ट अखण्ड पिण्डको द्रव्य कहते हैं। द्रव्यके नामान्तर पदार्थ, वस्तु और तत्त्व भी हैं। द्रव्यके 'सद्भाव्यलक्षणं' और 'गुणापर्य यवद् ये दो लक्षण प्रसिद्ध हैं । इन दोनों लक्षणोंमें परस्पर-विरोध नहीं है, किन्तु अपेक्षाविशेषसे दोनों एक ही अभिप्रायके समर्थक हैं।
द्रव्य एक अखण्ड पदार्थ है और वह अनेक कार्य करता है। इस कारणकार्यसे अनुमिस कारणरूप शक्त्यंशोंकी कल्पना की जाती है तथा इन शक्त्यंशोंको ही गण कहते हैं। ये गुण उम अस्खण्ड पिण्ड स्वरूप द्रव्यसे भिन्न सत्तावाले कोई भिन्न पदार्थ नहीं हैं। इन गुणोंका समुदाय ही द्रव्य है और जो द्रव्य है, वही गुण हैं । द्रव्यसे भिन्न गुण नहीं और गुणोंसे भिन्न द्रव्य नहीं है ।
उक्त दोनों द्रव्यलक्षणोंका अभिप्राय द्रव्यका कश्चित् नित्यानित्यात्मक होना है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप सत्में ध्रौव्य नित्यका और उत्पाद, व्यथ उत्पत्ति तथा नाशके सूचक हैं। जिसमें उत्पत्ति और नाश होते हैं, वह अनित्य तथा प्रौव्यके रहनेसे नित्य माना जाता है। इस प्रकार द्रव्य कथञ्चित नित्यानित्य सिद्ध होता है। 'गणपयंगबद्दव्यं' लक्षणमें भी गण नित्य धर्मके सूचक और पर्याय अनित्य धर्मका बोधक हैं। अतएव दोनों लक्षणोंका तात्पर्य
गुण : स्वरूप और भेष
शक्तिविशेषको गुण कहते हैं. इसमें अन्य शक्तिका बास नहीं रहता, इसलिए इसे निर्गुण कहा जाता है । गुणका पर्याय स्वभाव और विशेषको भी माना जाता है। जिस प्रकार आम्रफलमें भिन्न-भिन्न इन्द्रियगोचर स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि अनेक गण दष्टिगोचर होते हैं, उसी प्रकार जोव, पुद्गल आदि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक गुण विद्यमान रहते हैं । ये गुण द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं । उदाहरणार्थ यो समझा जा सकता है कि जिस प्रकार मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्र, पुष्प और फलोंके समुदायको वृक्ष कहते हैं, तथा मूल, स्कन्ध आदि वृक्षसे भिन्न पदार्य नहीं हैं, उसी प्रकार गुणोंका जो समुदाय है, वही द्रव्य है । गुणोंसे द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है। १. न सर्वथा निस्यमुदेश्यपैति न च क्रियाकारकमा मुकम् ।
नवासप्तो सम्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति । स्वयम्भूस्तोत्र,पय२४. ३२६ । तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा