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म्बरदीक्षा धारण करनेका विचार किया। आर्त और रौद्र ध्यानके हटते हो उसकी अशुभ लेश्याएँ दूर होने लगीं और शुक्ललेश्याके प्रभावसे धर्मध्यान उत्पन्न हुआ ।
दिगम्बर मुनि होकर कनकोज्जवल संयम, तप और स्वाध्यायको सिद्धिमें संलग्न हो गया। रागके उत्पन्न करनेवाले स्थानोंको छोड़ वह गुफा, वन, पर्वत, श्मशान एवं निर्जन स्थानोंमें विचरण करने लगा। उसकी साधना में अनेक विघ्न आये, पर वह विचलित न हुआ । उपसर्ग और परीषहों को सहनकर निर्विकल्पक चित्त हो धर्म ध्यानमें प्रवृत्त हुआ । आयुका अन्त निकट जान इसने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया और लांतव नामक सप्तम स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ । यहाँ उसे सभी प्रकारकी सुख-संपत्तियां प्राप्त हुई।
अवधिज्ञान द्वारा पूर्व में किये गये तपश्चरणको अवमतकर वह अर्हतभक्ति, गुरुभक्ति और शास्त्रभक्ति में प्रवृत्त हुआ। इस स्वर्ग में उसे तेरह सागर की आयु और पाँच हाथ उन्नत शरीर प्राप्त हुए। वह तेरह हजार वर्ष बीतनेपर एक बार कण्ठसे झरते हुए अमृतका सेवन करता था और साढ़े छह महीने बीत जानेपर सुगंधित श्वांस लेता था । सम्यग्दृष्टि होनेके कारण वह शुभ ध्यान एवं अर्हतुपुजामें संलग्न रहता था । नृत्य, गान और मधुर वाद्यका आनंद लेता हुआ भी चह 'जलमें भिन्न कमल' की तरह निर्लिप्त रहता था । सम्यग्दर्शन के कारण उसे आत्मप्रकाश प्राप्त हो गया । आत्मसत्ता पर विश्वास होनेसे उसे अपने स्वरूपकी उपलब्धि हो गयी । अतएव वह अहंकार और ममकारके बंधनोंसे मुक्त हो आत्मबोधमें विचरण करने लगा। देवगतिके भोगोंके मध्य रहते हुए भी वह उन्हें भौतिक और पौद्गलिक मान रहा था। वह सोचता था कि मैं चेतन हूँ, आत्मा हूँ, अभौतिक हूँ और पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूँ। में ज्ञानस्वरूप हूँ और पुद्गल कभी ज्ञानस्वरूप नहीं हो सकता। आत्मा और पुद्गलमें स्वरूपतः भिन्नता है। दोनों को एक मानना अध्यात्म क्षेत्र में सबसे बड़ा अज्ञान है और यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । यह अज्ञान और मिथ्यात्व सम्यग्दर्शनमूलक सम्यग्ज्ञान से ही दूर हो सकता है । अनन्त अतीत पर्यायों में जब पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नहीं हो सका, तब वर्त्तमान और अनागतमें यह कैसे मेरा हो सकेगा ? यह ध्रुव सत्य है कि आत्मा आत्मा है और पुद्गल पुद्गल है । आत्मा कभी पुद्गल नहीं हो सकती और पुद्गल कभी आत्मा नहीं हो सकता ।
इस देवगति में चारों ओर नाना प्रकारके मोहक पदार्थोंका जमघट है | यहाँ विलास और वैभवकी सभी सामग्रियाँ विद्यमान हैं । इस भोगयोनिमें वीत
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४७