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व्यतीत करत. है । मध्यान्ह कालमें आमन्त्रण मिलनेपर अपने या दूसरेके घर भोजन कर आता है ! भोजनमें उसकी अपनी कोई भी रुचि नहीं रहती।
११. उद्दिष्टस्यागप्रतिमा-अपने उद्देश्यसे बनाये गये आहारका ग्रहण न करना उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमाके दो भेद हैं :-(१) ऐलक और (२) क्षुल्लक । क्षुल्लक लंगोटीके साथ चादर भी रखता है और कैंची या छुरेसे अपने केशोंको बनवाता है । जिस स्थान पर क्षुल्लक बैठता या उठता है उस स्थानको कोमल वस्त्र आदिसे स्वच्छ कर लेता है, जिससे किसी जीवको पोड़ा नहीं होती है ।
ऐलक केवल एक लंगोटो ही रखता है तथा केशलुब्ध करता है। मुन्याचार या साध्याचार
श्रमण-संस्था आत्मकल्याण और समाजोत्थान दोनों ही दृष्टियोंसे उपयोगी है । मुनि-आचार, पुरुषार्थमार्गका घोतक है। मुनि परम पुरुषार्थ के हेतु ही निर्गन्यपद धारण करते हैं। रे विमल स्वभावकी प्राप्ति टेत अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग करते हैं। वास्तबमें दिगम्बर वेश आकिंचन्यकी पराकाष्ठा है और है अहिंसाकी आधारशिला । कषाय और वासनासे हिंसक परिणति होती है तथा आकिंचनत्व न स्वीकार करने पर अहंकारका उदय होकर अहिंसा धर्मको उच्चकोटिकी परिपालनामें विक्षेप उत्पन्न हो सकता है। अतएव मुनिके लिये दिगम्बर वेश परमावश्यक है । निग्रंन्यत्वके कारण ही मुनि कंचन और कामिनी इन दोनों ही परवस्तुओंका त्याग कर मोह-रात्रिका उपशमन करता है। अतएव यहाँ संक्षेपमें मुनिके आचारका विचार प्रस्तुत किया जा रहा है__ भुनिके अट्ठाईस मूलगुण होते हैं। इन मूलगुणोंका भली प्रकार पालन करता हुआ मुनि आत्मोत्थानमें प्रवृत्त होता है।
पंच महावत-अहिंसा महायत, सत्य सहावत, अचोयं महाव्रत, ब्रह्मचर्य महादत और अपरिग्रह महावत । श्रावक जिन व्रत्तोंका एकदेशरूपसे अणुरूपमें पालन करता था, मुनि उन्हीं प्रतोंका पूर्णतया पालन करता है। षट्कायके जीवोंका घात नहीं करते हुए राग-द्वेष, काम, क्रोधादि विकारोंको उत्पन्न नहीं होने देता। प्राणोंपर संकट आनेपर भी न असत्य भाषण करता है, न किसीकी बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करता है। पूर्ण शीलका पालन करते हुए अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकारके परिग्रहोंका त्यागी होता है। शुद्धिके हेतु कमण्डलु और प्राणि रक्षाके लिये मयूरपंखकी पिच्छि ग्रहण करता है। ५३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा