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प्राप्ति होना दुर्लभ है । मुझे इस समय बहुत ही अच्छा संयोग प्राप्त हुआ है । इस संयोगका लाभ उठाना चाहिये ।
इस प्रकार विचारकर राजा नन्दिवर्द्धन तीर्थंकर महावीरके समवशरण में गया और वहाँ उसने श्रावकके द्वादश व्रत ग्रहण किये। महावीरकी स्मृतिमें उसने एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया । जिसका पता खुदाईसे प्राप्त एक अभिलेख द्वारा मिलता है ।
अवन्ती : चण्डप्रद्योतका नमन
तीर्थंकर महावीरका समवसरण विभिन्न स्थलोंपर बिहार करता हुआ अवन्तिदेशको उज्जयिनी नगरी में पहुँचा । यहाँ चण्डप्रद्योत शासन करता था । यह प्रतापशाली और क्रोधी स्वभावका था। बताया गया हैं कि इसके पास चार रत्न थे :- १. लोहजंग नामक लेखवाहक, २. अग्निभीरु नामक रथ, ३. अनलगिरि नामक हस्ति और ४ शिवा नामक देवी शिवा देवी वैशालींके राजा चेटककी बेटी थी । चण्डप्रद्योतकी आठ रानियाँ थीं। उनमें एकका नाम अंगारवती था । यह अंगारवतो सुंसुमारपुरके राजा धुन्धुमारकी पुत्री थी । इस अंगारवतीको प्राप्त करने के लिए प्रद्योतने सुंसुमारपुरपर घेरा डाला था । अंगारवती श्राविका के व्रतोंका पूर्णतया पालन करती थी ।
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चण्डप्रद्योतका सम्बन्ध राजगृह, वत्स, वीतभय और पांचाल आदि देशोंके साथ भी था | चण्डप्रद्योत अपने समयका प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, पुरुषार्थी, शूरवीर और वासना - प्रिय था ।
जब तीर्थंकर महावोरका समवशरण उज्जयिनी में पहुंचा, तो उज्जयिनी - के सभी नर-नारी उपदेशामृत पान करनेके लिये समवशरण में सम्मिलित हुए 1 राजा प्रद्योत भो धर्म-श्रवणको इच्छासे समवशरणमें सम्मिलित हुआ। वह सोचने लगा कि तीर्थंकरका दर्शन सौभाग्योदयसे ही होता है । मैंने अपने जीवनमें अनेक युद्धकर विजयलाभ किये हैं | अब तक के जीवनपर दृष्टिपात करनेसे ज्ञात होता है कि मैंने जो कुछ भी किया है वह शरीर और संसारके लिये किया है, आत्माके लिये कुछ नहीं किया है अब समय आ गया है अतः आत्मशोधन के लिये प्रवृत्त होना आवश्यक हैं ।
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१. जैनमित्र (सुरत) १५३११९३१.
२. मूर्तिका प्राचीन इतिहास ( फलोषि), पृ० १३६ तथा महावीर जयन्ती स्मारिका, सन् १९७३, पृ० ४०.
३. आवश्यकचूर्णि भाग २ पत्र १६० तथा त्रिषष्ठिशसा कापुरुषचरित १०।११।१७३.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २६५
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