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विकृतियोंपर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने सोये हुए दिव्यभावको जागृत कर लेता है तथा स्वर्गके देवताओंके लिये भी वन्दनीय हो जाता है । अहिंसा, संयम और सपकी ज्योति आत्माको आलोकित कर देती है ।" अतएव उसने अपने पुरुषार्थको जागृत कर दिगम्बर-दीक्षा धारण करनेका संकल्प लिया। वह अपने प्रधान आमात्य सहित मुनि बन गया |
मत्स्यदेश: नन्दिवर्द्धनका अन-बन्दन
मत्स्यदेशकी स्थिति वर्त्तमान में अलवर, धौलपुर, भरतपुर और जयपुर के प्रदेशों में सीमित हैं। साढ़े पच्चीस आर्यदेशोंमें इसकी गणना की गयी है । मत्स्यदेशकी राजधानी विराटनगरी थी । जो वर्तमान जयपुरसे उत्तर-पूर्व में बयालीस मील पर है। मत्स्य जनक कुरुराषके दक्षिण और पश्चिम था । तीर्थंकर महावीरका समवशरण यहाँ आया और यहाँके राजाओंने अत्यन्त हर्षोल्लासके साथ उनके धर्मोपदेशको सुना । तीर्थंकर महावीरके यहाँ पहुँचनेका प्रभाव आज भी विद्यमान है ।
प्रसिद्ध इतिहासकार ओझाजी के शब्दों में मेवाड़ राज्यमें सूर्यास्त के अनन्तर रात्रि भोजनकी आज्ञा न थी। टॉड साहबका कथन है कि कोई भो जैन यति उदयपुर में पधारे, तो रानी महोदया आदरपूर्वक राजमहल में लाकर सम्मानपूर्वक उहाती और आहारका प्रबन्ध करती थी।
आवूके राजा नन्दिवर्द्धनने जब महावीरके समवशरणको चर्चा सुनी, तो उसका मनमयूर भी हर्षोन्मत्त हो नृत्य करने लगा । वह सोचने लगा कि तीर्थंकरोंका सम्पर्क भव्यव्यक्तियोंको ही प्राप्त होता है। जो जन्म-मरण के दुःखोंसे छुटकारा प्राप्त करना चाहता है, उसके लिये तीर्थंकर वाणी ही कल्याणप्रद है । संसारके शत्रुओंसे युद्ध करना सरल है, पर इन्द्रियोंके साथ युद्ध करना कठिन है । जो इन्द्रियजयी हैं, वही संसार में महान है। ज्ञान मानवताका सार है । पर ज्ञानका भी सार सम्यक्त्व या सच्ची श्रद्धा है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रके परिपूर्ण होनेसे ही आत्मा शाश्वत सुखको प्राप्त कर सकती है। जिसने मनुष्य शरीर प्राप्तकर, सद्धर्मका श्रवण नहीं किया, और सद्धर्म श्रवणकर भी जिसने संयम और तप धारण नहीं किया, उसका धर्म-श्रवण कोई महत्त्व नहीं रखता । अनादिकाल से यह प्राणी मनोरम काम भोगों में आसक्त है । स्वर्गका वैश्व सहज में प्राप्त हो सकता है, पुत्र- मित्रादिका संयोग भी सुलभ है, पर एक धर्मकी
१. ओक्षाफीकृत अनूदित, टोंड राजस्थान, जागीर-प्रथा, पृ० ११. २. रा० रा० वासुदेव गोविन्द आप्टे, जैनधर्मका महत्त्व, सूरत, भाग १, पृ० ३७.
२६४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा