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उसने अपनी चित्रशाला बनवायी और नगरके चित्रकारोंको बुलाकर सबको बराबर भाग बाँटकर उस चित्रसभाको चित्रित करनेका आदेश दिया । चित्रकारोंमें चित्रागद नामका एक अत्यन्त वृद्ध चित्रकार था । इसे पुत्र नहीं था, केवल एक कनकमंजरी नामको कन्या थी । वह प्रतिदिन अपने पिता के लिये चित्रसभा में भोजन लेकर आती । एक दिन वह भोजन लेकर चित्रसभा की ओर आ रही थी कि राजमार्गपर घोड़े दौड़ने से वह भयभीत हो गयी और कुछ बिलम्बसे भोजन लंकर पिताके पास पहुँची । जब पिता भोजन कर रहा था, तब कनकमंजरीने एक मयूरपिच्छ बना दिया। उस दिन सभागार देखने राजा आया और मयूरपिच्छ देखकर उसे उठाने लगा, पर वह तो चित्र था, आघातसे जंगलीकर नख टूट गया ।
राजाको ध्यानपूर्वक चित्र देखते हुए देखकर कनकमंजरी कहने लगी"अबतक तीन पांव वाला पलंग था । आज चतुर्थ मूर्खके मिल जानेसे पलंग चारों पांव पूरे हो गये ।"
राजा कहने लगा- " शेष तीन कौन है ? और मैं चौथा किस प्रकार हूँ ?" कन्या कहने लगी- " में चित्रांगद नामक चित्रकारकी पुत्री हूँ। मैं सर्वथा अपने पिताके लिये भोजन लेकर आती हूँ । आज जब मैं राजमार्गसे भोजन लेकर आ रही थी, तो एक घुड़सवार बड़ी तेजीसे घोड़े को दौड़ाता हुआ राजपथसे आ रहा था। भीड़-भाड़की जगह में तेजीसे घोड़ा चलाना बुद्धिमानी नहीं है । अतः वह मूर्खरूपी पलंगका पहला पावा है ।
दूसरा मूर्ख इस नगरका राजा है, जिसने चित्रकारोंकी शक्ति और योग्यताको बिना जाने ही सभी चित्रकारोंको समानभाग चित्र बनानेको दिया है ! घरमें अन्य सहयोगी होनेसे दूसरे चित्रकार तो अपने कार्यको अल्प समयमें समाप्त करने में समर्थ हैं, पर मेरे पिता तो पुत्र रहित है, वृद्ध वे अकेले दूसरोंके समान कैसे काम कर सकते हैं ? अतएव मूर्खरूपी पलंगका दूसरा पावा यहांका राजा है ।
तीसरे मूर्ख मेरे पिता है। उनका भर्जित धन समाप्त हो चुका है, जो बचा है उससे ही किसी प्रकार भोजन बनाकर नित्य में लाती हूँ। जब में भोजन लेकर आती हूँ, तब वे शौचादि क्रियाओंसे निवृत्त होनेके लिये जाते हैं । मेरे मानेके पूर्व वे इन क्रियाओंको सम्पन्न नहीं करते। इतने में भोजन ठण्डा और नीरस हो जाता है । अतएव मूर्खरूपी मंचेकै वे तीसरे पाये हैं।
चतुर्थ मूर्ख आप है । जब यहाँ मोरके आने की कोई सम्भवना नहीं, तब फिर २१२ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा