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बताया जाता है कि काकन्दीके बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान था । इस उद्यानमें तीर्थंकर महावीरका समवशरण एकाविक बार आया था। राजा जितशत्रने भक्ति-भावसे तीर्थकरकी वन्दना की थी। जब समवशरणमें गृहस्थधर्मका वर्णन किया जा रहा था, तब क्षेमक और धृतिघरने इन्द्रभूति गौतम गणधरसे श्रावकके द्वादश नत ग्रहण किये थे।
जिस समय तोयंकर महावीर आत्म-धर्मका प्रवचन कर रहे थे और कषाय एवं विकारोंको पर-संयोगजन्य होनेके कारण हेय बतला रहे थे, उस समय भद्रा सार्थवाहीके पुत्र धन्य और सुनक्षत्र बहुत प्रभावित हुए। वे सोचने लगे कि "आत्मा अपने स्वरूपका अनुभव, परिज्ञान और शुद्धाचरण न कर शरीर, घन, सम्पत्ति, परिवार, मित्र आदि पदार्थोंको अपना समझ उनसे राग-मोह करती है। राग-मोह और द्वेषके कारण ही संसारका सारा जंजाल जीवके समक्ष उपस्थित होता है । अतएव राग-यानः २. सः पर्सनरूप चैतन्य आत्माकी अनुभूति करना ही आत्महितका साधन है ।" - धन्य और सुनक्षत्रने आत्म-प्रकाश प्राप्तकर इन्द्रभूति गौतमसे दिगम्बरदीक्षा ग्रहण करनेकी अभिलाषा प्रकट की। वास्तविक विरक्ति अवगतकर गौतम गणधरने इन दोनोंको दिगम्बर-प्रवज्या प्रदान की 1
तीर्थकर महावीरका समवशरण बम्बईके भरुच नगरमें भी गया और यहाँ का तत्कालीन राजा वसुपाल अधिक प्रभावित हुआ। नगरसेठ जिनदत्त सपा उसकी पत्नी जिनदत्ता एवं पुत्री नीलीने श्रावकके व्रत ग्रहण किये। सिन्धु-सौवीर : उदायनका सम्यक्त्व-रोष
जैन आगम-ग्रन्थोंमें साढ़े पच्चीस देशोंमें सिन्धु-सौवीरका नाम भी सम्मिलित है ।महावीरके समयमें यह एक संयुक्त राज्य था, पर बादमें सिन्धु-सिन्धके नामसे और सौवीर पृथक् नामसे प्रयुक्त होने लगा । भारतीय साहित्यमें सिन्धुसौवीरका विशेष महत्त्व दिखलायी नहीं पड़ता। बोद्धायनमें सिन्धु सौवीरको अस्पृश्य देश कहा गया है और वहां जानेवाले ब्राह्मणको पुनः संस्कारके योग्य बताया है । बौद्ध साहित्यमें गान्धार और कम्बोज राज्योंके उल्लेख तो हैं, पर सिन्धु-सोवोरके नहीं।
१. से गं उदायगे राया सिंधुसोवीरप्पमोक्खाणं सोलसण्ठं जणषयाणं बीतीभयप्पामो
खाणं तिण्इं तेसट्ठीणं नारागरसयागं सहसेणाप्पमोक्तार्ण दसम्हंराइणं समयगाणं-भगवतीसूत्र सटीक, शतक १३, उद्देस ६, पत्र ११३५.
सीकर महावीर और उनकी देशना : २७४