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प्रकृति और परेशानन्द
प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है । कर्मका बन्ध होते ही उसमें जो ज्ञान और दर्शनको रोकने, सुख-दुःख देने आदिका स्वभाव पड़ता है, वह प्रकृतिबन्ध है । प्रदेशबन्धका अर्थ है कर्मपरमाणुओं की गणना । एक कालमें जितने कर्मपरमाणु बन्धको प्राप्त होते हैं, उनका वैसा होना ही प्रदेशबन्ध है । वस्तुतः कर्मपरमाणुओं की संख्या का नियत होना प्रदेशबन्ध है ।
स्थिति और बनुभागबन्ध
स्थितिका अर्थ कालमर्यादा है। प्रत्येक कर्मका बन्ध होते ही उसका सम्बन्ध आत्मासे कब तक रहेगा, यह निश्चित हो जाता है। इस प्रकार कर्मबन्धके समय उसको कालमर्यादाका निश्चित होना स्थितिबन्ध है ।
अनुभागका अर्थ फलदानशक्ति है, जो कर्मबन्धके समय ही पढ़ जाती है । इस शक्तिका स्थित हो जाना ही अनुभागबन्ध है ।
कर्मोंमें विभिन्न प्रकारके स्वभावका पड़ना और उनकी संख्याका होनाधिक. होना योगपर निर्भर है तथा जीवके साथ कम या अधिक समय तक स्थित रहने की शक्तिका पड़ना और तीव्र, या भन्द फलदान शक्तिका स्थिर होना कषायपर निर्भर है ।
प्रकृतिवन्ध मेव वीर स्वरूप
आत्माकी योग्यता और अन्तरंग-बहिरंग निमितोंके अनुसार नाना प्रकारके परिणाम होते हैं । इन परिणामोंसे ही बंधनेवाले कर्मो के स्वभावका निर्माण होता है । यों तो बंधनेवाले कमोंके स्वभावोंका विभाग किया जाय तो अनेक प्रकारका हो सकता है, पर सामान्यत. विविध स्वभाववाले कर्मोंको आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है और इससे प्रकृतिबन्धके मूल आठ मेद प्राप्त होते हैं:
(१) ज्ञानावरण - आत्माकी बाह्य पदार्थोंको जाननेकी शक्ति के आवरण करनेमें निमित्त ।
(२) दर्शनावरण - आत्माकी स्वयंको साक्षात्कार करनेकी शक्ति के आवरण करनेमें निमित्त ।
(३) वेदनीय-बाह्य बारुम्बनपूर्वक सुख-दुःखके वेदन कराने में निमित्त । (४) मोहनीय – राग, द्वेष और मिध्यात्वके होने में निमित्त !
(५) आयु — आत्माकी नर-नरकादि पर्याय धारण करानेमें निमित्त |
(६) नाम - जीवकी गति, जाति आदि पुद्गलको शरीर आदि विविध जयस्वाओंके होने में निमित्त ।
सीकर महावीर मोर उनकी देशना : ३८३