________________
आत्माके ज्ञान, सुख आदि गुणोंमें लीन रहते हैं। इन्हें वचनातीत सुख प्राप्त होता है। __ संसारो जीव क्षुधा-तृषा, रोग-शोक, वध-बन्धन आदिके दुःखोंसे व्याकुल रहते हैं और कर्मानुसार उन्हें अनेक प्रकारकी आकुलताएं प्राप्त होती रहती हैं। कर्म-बन्धके कारण जीवकी परतन्त्र दशा ही संसार है । यह जीव अपने ही राग-द्वेष, मोहभावोंसे अपने लिये कर्मोका बन्धन निर्मित करता है और इस कर्म-चक्रके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में भिन्न-भिन्न शरीरोंको धारण करता है । बालक, युवक, वृद्ध होता हुझा अनेक प्रकारसे दुःख उठाता है । संसारी जीव आवागमन-जन्म-मरणजन्य दुःखोंमें लिप्त रहता है।
मुक्त जीव कर्म-बन्धनसे पूर्णतया निवृत्त होकर आत्म-स्वातन्त्र्यको प्राप्त कर लेता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि पूर्ण स्वातन्त्र्य ही सबसे बड़ा सुख है। जब कर्मजन्य जोवकी परतन्त्रता छूट जाती है, तो मुक्त जीव लोकाग्रभाव में स्थित होकर शाश्वत सुखका अनुभव करता है। इस प्रकार कर्म-बन्धन और कर्ममुक्तिकी दृष्टिसे जीवके उक्त दो भेद हैं। संसारी जीव : भेद-प्रभेद ___ संसारो जीवके मूल दो भेद हैं:-(१) अस और (२) स्थावर | द्वीन्द्रिय जीवसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी अस कहलाते हैं। जीवविपाकी असनामकर्मके उदयसे उत्पन्न वृत्ति-विशेषवाले जीव अस हैं। अपने रक्षार्थ स्वय चलने. फिरनेकी शक्ति सजीवोंमें रहती है। त्रसजीव लोकके मध्य में एक राजू विस्तृत और चौदह राजू लम्बो त्रसमालोमें निवास करते हैं।
त्रसजीवोंके दो भेद हैं:-(१) विकलेन्द्रिय और (२) सकलेन्द्रिय । दो-इन्द्रिय, तोन-इन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंको विकलेन्द्रिय माना जाता है। पंचेन्द्रिय जीवोंकी गणना सकलेन्द्रियमें है । द्वीन्द्रिय जीवोंमें स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ, तीन इन्द्रिय जीवोंमें स्पर्शन, रसना और ध्राण ये तीन इन्द्रियाँ और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्ष ये चार इन्द्रियां होती हैं । लट, शंख आदि जीव द्वीन्द्रिय, चीटी आदि त्रीन्द्रिय और भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय माने गये हैं।
सकलेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। इनके भो दो भेद हैं:--(१) संजी और (२) असंज्ञी । जिनके मन है और सोचने-विचारनेकी विशिष्ट शक्ति है, वे संजो कहलाते हैं और जिनके मन या सोचने-विचारनेकी शक्ति नहीं है, वे असंझी कहलाते हैं । सभी त्रसजीव बादर ३४६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा