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होते हैं, पर अनन्तान्त विसोपचयोंसे उपचित औदारिक नवकर्म - स्कंधोंसे रहित वे विग्रहगति सूक्ष्म होते हैं।
स्थावरजीव एकेन्द्रिय होते हैं। स्थावरनामकर्मके उदयसे स्थावरजीवपर्याय प्राप्त होती है। स्थावरजीवोंके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है । इनके पांच भेद है:---
(१) पृथ्वीकायिक--- जिनका शरीर पार्थिव -- पृथ्वीरूप होता है । यथापत्थर, लोहा, सोना, चाँदी आदि खनिज पदार्थं ।
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(२) जलकायिक या अपकायिक – जलके रूपमें जिनका शरीर होता है | यथा - जल, बर्फ, ओस, ओला आदि ।
(३) अग्निकायिक-- अग्निरूप जिनका शरीर होता है । यथा-विद्युत्, दीपक, अंगारा इत्यादि ।
(४) वायुकायिक- वायु या पवनके रूपमें जिनका शरीर रहता है ।
(५) वनस्पतिकायिक – जिन जीवोंका शरीर वनस्पतिके रूपमें हो। यथावृक्ष, लता, वीरुध आदि ।
पृथ्वीकायिक जीवोंकी सिद्धि प्रत्यक्षद्वारा होती है । पर्वत पहले पृथ्वीके तुल्य थे । पश्चात् बढ़ते-बढ़ते ऊँचे होते गये और ये निरन्तर वृद्धिगत हो रहे है । खानोंमेंसे पत्थर निकालते रहते हैं, पर जब उन खानोंको खोदना बन्द कर दिया जाता है, तो उन खानोंके पत्थर पुनः बढ़ने लगते हैं । शरीरकी वृद्धि उसी पदार्थकी होती है, जिसमें जीव रहता है । खानसे पृथक कर देनेपर पत्थरोंका बढ़ना भी रुक जाता है । अतः प्रमाणित होता है कि खनिज पदार्थ खानमें रहते हुए सजीव रहते हैं, अन्यथा उनकी शारीरिक वृद्धि और हास सम्भव नहीं था । जब पत्थरों या लोहादि अन्य पदार्थोंको खोदकर खान से बाहर निकाल लिया जाता है, तब वे निर्जीव हो जाते हैं ।
इसी प्रकार जल जबतक अपने शीतल रूपमें कुएँ, तालाब आदिमें रहता है, सजोब होता है और अग्निसे गर्मकर लेनेपर निर्जीव हो जाता है । अग्नि और वायुके भी इसी प्रकार सजीव और निर्जीव दो-दो रूप हैं ।
पेड़-पौधे, लता आदि जबतक हरे रहते हैं, उनके शरीर में वृद्धि होती रहती है । बीजसे अंकुर, अंकुरसे पौधा और पौधेसे वृक्ष बन जाता है । समय पाकर वह वृक्ष सूख भी जाता है । इस प्रकार वनस्पतिकाय के भी सजीव और निर्जीव दो भेद हैं। जब वनस्पतिकायिक निर्जीव हो जाता है, तो गेहूं, जौ, चना आदि अन्न प्राप्त होते हैं । ये स्थावर जीव स्पर्शन (त्वचा), कार्यबल -- शरीर
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३४७