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इस प्रकार पार्श्वनाथका प्रभाव उस समय के सम्प्रदायों और ऋषियों पर दिख लायी पड़ता है।
पार्श्वनाथ धर्मको चातुर्याम धर्म कहा गया है। इसका स्वरूप - १. सर्वथा प्राणातिपातविरमण - हिंसाका स्याग, २ सर्वथा भूषावादविरमण – असत्य का त्याग, ३. सर्वथा अदत्तादानविरमण -- चौर्य त्याग और ४. सर्वथा बहिस्थादानविरमण - परिग्रह त्याग रूप है । यह आत्म-साधनाका पवित्र मार्ग है । चातुयम धर्म का वास्तविक रहस्य चार प्रकारके पापोंसे विरक्त होना है । पार्श्वनाथके काल तक ब्रह्मचर्यव्रतको पृथक् स्थान प्राप्त नहीं हुआ था, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके समय की श्रमण परम्परामें ब्रह्मचर्यकी उपेक्षा थी । इस परम्परा श्रमण स्त्रीको भी परिग्रह के अन्तर्गत समझ कर, स्त्रीका त्यागकर ब्रह्मचर्य धारण करते थे । धन-धान्यके समान स्त्री भी बाह्य वस्तु होने से बहिस्पादान के अन्तर्गत थी ।
इतिहासके आलोक में पार्श्वनाथ
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे, यह अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका है। जैन साहित्य ही नहीं, बौद्ध साहित्य भी तीर्थंकर पार्श्वनाथको ऐतिहासिकताको स्वीकार करता है। डा० जेकोबीने बौद्ध साहित्य के उल्लेखोंके आधारपर निर्ग्रन्थसम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित करते हुए लिखा है - "यदि जैन और बौद्ध सम्प्रदाय एकसे ही प्राचीन होते, जैसाकि बुद्ध और महावीरकी समकालीनता तथा इन दोनोंको इन दोनों सम्प्रदायोंका संस्थापक माननेसे अनुमान किया जाता है, तो हमें आशा करनी चाहिये कि दोनोंने ही अपनेअपने साहित्य में अपने प्रतिद्वन्द्वोका अवश्यही निर्देश किया होता, किन्तु बात ऐसी नहीं है। बौद्धोंने तो अपने साहित्य में, यहाँ तक कि त्रिपिटकों में भी निग्रन्थों का बहुतायत से उल्लेख किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध निर्ग्रन्थ-सम्प्रदायको एक प्रमुख सम्प्रदाय मानते थे । किन्तु निर्ग्रन्थों की धारणा इसके विपरीत थी और वे अपने प्रतिद्वन्द्वीकी उपेक्षा तक करते थे । इससे हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि बुद्धके समय निम्रन्य-सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित सम्प्रदाय नहीं था । यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है । "
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डा० श्रीहीरालालजी जेनने लिखा है- "बौद्ध ग्रन्थ 'अंगुत्तरनिकाय', 'चत्तुक्कनिपात' (बग्ग ५) और उसकी 'अट्ठकथा' में उल्लेख है कि गौतम बुद्धका
t. Indian antiquary, volume 9th, Page 160.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १९