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________________ देखकर अग्निका ज्ञान; रसको चखकर उसके सहचर रूपका शान अपवा ऋत्तिकाके उदयको देखकर एक महतं बाद होनेवाले शकटके उदयकामान प्राप्त करता है, तब उसका वह शान स्वार्थानुमान कहलाता है। जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्योंको कहकर दूसरोंको उन साध्यसाधनोंकी व्याप्ति ग्रहण कराता है सथा दूसरे उसके वचनोंको सुनकर व्याप्ति ग्रहण करके उक्त हेतुओंसे उक्त साध्योंका ज्ञान करते हैं, सो दूसरोंका वह अनुमान ज्ञान परार्थानुमान कहा जाता है और वे परार्थानुमाता माने जाते हैं । अतः अनुमानके उपादानभूत हेतुका प्रयोजक तस्व अन्यथानुपपन्नख स्व और पर दोके द्वारा गृहीत होने तथा दोनों अन्ययानुपपन्नख-ग्रहीताओंको अनुमान होनेसे स्वानुमान और परार्थानुमान भेद सम्भव होते हैं । संक्षेपमें स्वार्थ-स्वप्रतिपत्तिका साधन और परार्थ-पर-प्रतिपत्तिका साधन होने के कारण अनुमानके दो भेद हैं। प्रतिशा और हेतुरूप परोपदेशको अपेक्षा न कर स्वयं ही निश्चित तथा इससे पूर्व तर्कद्वारा गृहीत व्याप्तिके स्मरणसे सहकृत घूमादि साधनसे उत्पन्न हुए पर्वत आदि धर्मी में अग्नि आदि साध्यके शानको स्वार्थानुमान कहा जाता है । यथा-यह पर्वत अग्निवाला है, धमनाला होनेसे ।' प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशकी अपेक्षा लेकर श्रोताको जो साधनसे साध्यका ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परार्थानुमान है। स्वार्थानुमान ज्ञानरूप है और परार्थानुमान वचनरूप है। वक्ता परार्थानुमानवचन-प्रयोगद्वारा श्रोताको व्याप्तिज्ञान कराता है | व्याप्तिज्ञानके अनन्तर साधनसे साध्यका ज्ञान वह स्वयं करता है। १. तत्र स्वयमेव निश्चितासापनात्साध्यशानं स्वार्थानुमानम् । परापदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तानुभूतण्याप्तिस्मरणसहकृताधुपायें:, साधनादुत्पन्नंपर्षतादी धर्मिण्यम्यादेः साध्यस्य ज्ञानं स्वार्थानुमानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमम्निमान् धूमवस्वादिति । अयं हि स्वार्थानुमानस्य ज्ञानरूपस्यापि शम्देनोल्लेखः । यथा-'अयं घटः' इति शम्देन प्रत्यक्षस्य । -हो. दरवारीलाल कोठिया, म्यायदीपिका (बीरसेवामन्दिर) १०७१-७२. २. परोपवेशममेश्य यत्साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् । प्रतिमाहेतुरूपपरोपदे शवशात् श्रोतुस्तम्न साधनात्सध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमग्निमान भवितुमर्हति घूमवत्स्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्त तढाक्यार्थ पर्यालोचयतः स्मृतम्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते । –० दरबारीलाल कोठिया, न्यायदीपिका (बोरसेवामन्दिर) १०४५. mm : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
SR No.090507
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size14 MB
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