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बड़ी कठिनाई होती है आत्मानुभूति सहज नहीं है । आत्माको विकारोंसे बचाने की आवश्यकता है। राग-द्वेषके वातावरणसे बाहर निकल कर एकबार जो श्वांस लिया कि उसकी सुगन्ध स्वयमेव सर्वशक्तिमानकी अनुभूति उत्पन्न करा देगी। सुषुप्त आत्मशक्तिके जागृत होनेपर विकाररूपी शत्रुओंका कहीं पता-ठिकाना भी नहीं रहता । जीवनमें एक नगी चमक आ जाती है. नया मोड़ उत्पन्न हो जाता है और सच्चे आनन्दको उपलब्धि होती है । पूर्णता के अभाव में सर्वशक्तियों का उदय नहीं हो पाता ।
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महावीर ज्यों-ज्यों वयकी सीढ़ियोंपर चढ़ते गये, त्यों-त्यों भोगासचिके स्थानपर विरक्ति-भावना वृद्धिंगत होती गयी। जिस यौवनावस्था में सांसारिक प्राणी विषय और भोगोंके प्रति आकृष्ट होते हैं और क्षणिक सुखके लिये अपने जीवनको अर्पित कर देते हैं, उसी योवनावस्थामें महावीर पूर्णरूपसे विरकि प्राप्त करने लगे । तीस वर्षकी अवस्था तक वह गृहस्थ जीवनमें रहे, पर उनका मन एक क्षण भी परिवार, गृह और भोगोंमें आसक्त न हो सका । उनके मनमें कई बार तूफान उठा कि वह गृहस्थ जीवन के बन्धनोंको तोड़कर अपनी लक्ष्यसिद्धिके लिये निकल पड़े। पर किसी न किसी कारणवश उन्हें रुक जाना पड़ा । वस्तुतः साधनाको उपलब्धि सहजमें नहीं होती है। जबतक काललब्धि उपलब्ध नहीं होती, तबतक चाहनेपर भी साधना-पथ नहीं मिल पाता है ।
महावीरमें अद्भुत शूरता और वीरता थी । प्रायः देखा जाता है कि लोग सन्यास लेने के लिये घर-द्वार छोड़ते हैं। पर घरके बोच रहकर इन्द्रियसुख और मोह-ममता से संघर्ष करना साधारण बात नहीं है। रोग, दुःख, पापाचार, क्रोध, मान, माया, लोभ और अहंकार ऐसे साधन हैं, जो व्यक्तिको एक सामान्य परिवेशमें बन्द करके रखते हैं। महावीरको वैशाली में सभी सांसारिक सुखसुविधाएँ प्राप्त थीं, पर उनका मन सदा विरक्त रहता था । अतः वैशालीके सुखसाधन उन्हें अधिक दिनों तक अपने बीच रोक न सके। उन्हें राज्य, भवन, सुख-सम्पदा, कुटुम्ब एवं बन्धुवर्ग आदि सभी बन्धन प्रतीत हो रहे थे । वे इन बन्धनोंसे ऊपर उठकर स्वयं बुद्ध बननेका प्रयास कर रहे थे । वे अपने जीवनप्रवाहको नयी दिशामें परिवर्तित कर साधक बनना चाहते थे । गृह-वास करते हुए भी वे संसार से विरक्त थे। अब उनके अन्तस्तलमें वैराग्यको उत्ताल तरंगे उठ रही थीं। पुरजन-परिजन इन तरंगोंको शान्त करना चाहते थे, पर महावीरके संकल्पको परिवर्तित करने की क्षमता किसी में नहीं थी । तप, त्याग, संयम और ज्ञानके अक्षय पदको प्राप्त करनेके लिये महावीर प्रयत्नशील थे ।
१२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा