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स्वार्थिक 'क' प्रत्ययके स्थानपर 'ह' प्रत्यय भी पाया पाया जाता है । यह 'ह' प्रत्यय मुण्डा वर्ग की भाषासे गृहीत है । 'अरिहा शब्द उदाहरणार्थ लिया जा सकता है । 'बार्य' शब्दसे प्राकृतमें 'अय्य' और 'अरिया' शब्द निष्पन्न होगें । तब यह 'अरिहा' शब्द किस प्रकार बनेगा | आर्यशब्दसे स्वार्षिक 'क' प्रत्यय जोड़कर 'अरिय' या 'अरिया' बन सकते हैं। पर 'अरिहा' शब्दका बनना सम्भव नहीं है । यहाँ मुण्डा भाषाका स्वाधिक 'ह' प्रत्यय विद्यमान है। यही कारण है कि उत्तरकालीन प्राकृतवैयाकरणोंने इस समस्याके समाधानार्थं 'क'के स्थानपर 'ह' प्रत्ययका विधान स्वीकार किया।
तीर्थंकर महावीर अर्धमागधी में उपदेश देते थे और उनकी वह दिव्यध्वनि मनुष्य, पशु आदिकी भाषामें परिणत हो जाती थी । समवायांगसूत्रमें लिखा है -- "भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मं आइक्वइ । सा वि य णं अद्धमागही भास भासिज्ज माणी तेसि सव्वेसि आरियमनारियाणं दुप्पयच उप्पयमयपसुपविखसरिसिवाणं अप्पप्पणो हियसिवसुहृदायभासत्ता परिणमइ' ।"
अर्थात् भगवान् महावीरकी देशना अर्धमागधीमें होती थी । यह शान्ति, आनन्द और सुखदायिनी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी और सरिसृपोंके लिये उनकी अपनी-अपनी बोलीमें परिणत हो जाती थी ।
ओवाइयसुत्तसे भो उक्त तथ्यको पुष्टि होती है- "तए णं समणे भगवं महाबीरे कूणियस्स रण्णो भिभिसारपुत्तस्स अद्धमागहए भाषाए भासइ । अरिहा धम्मं परिकहेछ । सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि आरियमणारियाणं अप्पणी सभासाए परिणामेणं परिणमइ ।"
उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि अर्धमागधी भाषा में आयें और आर्येतर भाषाओं का सम्मिश्रण है ।
सर्वमान्य सिद्धान्त है कि अर्धमागधीका रूप-गठन मागधी और शौरसेनीसे हुआ है । हार्नलेने समस्त प्राकृतभाषामों को दो वर्गों में बाँटा है 1 एक वर्गको उसने शौरसेनी प्राकृत बोली और दूसरे वर्गको मागधी प्राकृत बोली कहा हैं । इन बोलियोंके क्षेत्रोंके बीचों-बीचमें उसने एक प्रकारकी एक रेखा खींची, जो उत्तर में खालसी से लेकर बैराट, इलाहाबाद और फिर वहाँसे दक्षिणको रामगढ़ होती
१. समदायाङ्ग ( अहमदाबाद, सन् १९३८ ई०), सूत्र ९८. २. कम्परेटिव ग्रामर, भूमिका, पृ० १७ तथा उसके बाद के पृष्ठ |
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २३९