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धवला-टीका-समन्वितः
षट्खंडागमः
जीवस्थान- द्रव्यप्रमाणानुगम
पुस्तक
सम्पादक हीरालाल जैन
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श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः
षट्खंडागमः
श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः ।
तस्य
प्रथम-खंडे जीवस्थाने हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण--गणितोदाहरण प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादितः
द्रव्यप्रमाणानुगमः केशरविजयजी लायब्रेरी
प. कल्याण जाग्रह
जालार (राज.)
सम्पादकः अमरावतीस्थ-किंग-एडवर्ड-कालेज-संस्कृताध्यापकः, एम. ए., एल्. एल्. बी., इत्युपाधिधारी
हीरालालो जैनः
सहसम्पादकी पं. फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री * पं. हीरालालः सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थः
संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं. देवकीनन्दनः * डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः सिद्धान्तशास्त्री
उपाध्यायः, एम्. ए., डी. लिट्
प्रकाशक:
श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः
अमरावती ( बरार)
वि. सं. १९९८ ]
बीर-निर्वाण-संवत् २४६७
मूल्यं रूप्यक-दशकम्
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प्रकाशकः
श्रीमन्ते सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन - साहित्योद्धारक - फंड-कार्यालय,
अमरावती [ बरार ]
मुद्र
टी. एम्. पाटील, मॅनेजर सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती [ बरार ]
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THE
SAȚKHANDĀGAMA
OF
PUSPADANTA AND BHŪTABALI
WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VIRASENA
VOL. III
DRAVYA-PRAMĀŅĀNUGAMA
Edited toit! introduction, translation, notes and indexes
BY HIRALAL JAIN, M.A., LL. B., C. P. Educational Service, King Edward College, Amraoti.
Pandit Phoolchandra
Siddhānta Shastri
ASSISTED BY
Pandit Hiralal Siddhanta Shastri,
Nyāyatirtha.
Il'ith the co-operation of
Pandit Devakinandana,
Siddhānata Shāstri
Dr. A. N. Upadhye,
M. A., D. Litt.
Published by Shrimanta Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddharaka Fund Karyalaya,
AMRAOTI (Berar ).
1941 Price rupees ten only.
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Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddhāraka Fund Karyalaya,
AMRAOTI ( Berar ).
Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press,
AMRAOTI (Berar )
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MON
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TOURISOTE
१. मूडबिद्री सिद्धान्त ग्रंथोंके कुछ खुले हुए सचित्र व लिखित ताड़पत्र.
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२. मूडबिद्री सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतियां बंधी हुई
३. मूडबिद्रीका सिद्धान्त मंदिर (गुरुबसदि)
न
5
...
४. मूडबिद्रीका सहस्रस्तंभ मंदिर (बड़ा मंदिर)
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श्री
अतिशय क्षेत्र मूडबिद्रीकी जिस सम्मान्य भट्टारक- परम्पराने इन अनुपम सिद्धान्त ग्रंथों की चिरकालसे बड़ी सावधानी और सतर्कतापूर्वक रक्षा की, तथा अब सुअवसर प्राप्त होने पर विद्वत्संसारको उनका लाभ दिया, उसीके भूतपूर्व और वर्तमान गुरुओं के सत्प्रयत्नों की स्मृतिमें यह ग्रंथ विशेष रूप से समर्पित है ।
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त्वदीयं वस्तु, भो स्वामिन्, तुभ्यमेव समर्प्यते ।
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TENDERATE
NUMANO
५. मूडबिद्रीके स्वर्गीय भट्टारक
चारुकीर्ति स्वामी
६. मूडबिद्रीके वर्तमान भट्टारक
चारुकीर्ति स्वामी
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७. मूडबिद्रीय सिद्धान्त बसदिके ट्रस्टी नगरसेठ श्री. देवराजजी
2.मूडबिद्रीय सिद्धान्त बसदिके ट्रस्टी
श्रीयुक्त धर्मपालजी , सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतिलिपि व मिलान करनेवाले _Jain Eसरस्वती-भूषण पं. लोकनाथजी शास्त्री For Private & Personal use Only
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विषय सूची
४४
६६
६८
विषय
. विषय
पृष्ठ प्राक्कथन
१-३, ५ मतान्तर और उनका खंडन
६ गणितकी विशेषता प्रस्तावना १-६७ ८ मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके ग्रंथकी प्रस्तावना (अंग्रेजीमें) - izivl । मिलानका निष्कर्ष १ चित्र और चित्र-परिचय
१] ९ द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची २ मूडबिद्रीका इतिहास
४१० अर्थसंबंधी विशेष-सूचना ३ महाबंधकी खोज
६-१४|११ पाठसंबंधी विशेष-सूचना १ खोजका इतिहास
शुद्धि पत्र २ सत्कर्मपंचिका परिचय
मंगलाचरण ३ महाबंध परिचय ४ उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रति
द्रव्यप्रमाणानुगम १-४८७ पत्तिपर कुछ और प्रकाश
१५
( मूल, अनुवाद और टिप्पण) ५ णमोकार मंत्रके सादित्व अनादित्वका निर्णय
१६
परिशिष्ट
१-४२ ६ शंका-समाधान
१८ ७ द्रव्यप्रमाणानुगम
३१-५१
१ दव्वपरूवणासुत्ताणि १ उत्पत्ति
३१ २ अवतरणगाथासूची २ प्रमाणका स्वरूप
३२ ३ न्यायोक्तियां ३ जीवराशिका गुणस्थानोंकी
४ ग्रंथोल्लेख अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण ३७, ५ पारिभाषिक शब्दसूची ४ जीवराशिका मार्गणास्थानोंकी ६ मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण
मिलान
२०
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माकू कथन
हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष होता है कि गत द्वितीय भागके प्राक् कथनमें हमने मूडबिद्री सिद्धान्तभवनके अधिकारियोंके सहयोगसंबंधी जो सूचना प्रकट की थी, वह क्रियात्मक रूपमें परिणत हुई। इसके प्रमाण पाठक इसी भागके साथ प्रकाशित साहित्यसामग्रीमें देखेंगे। हमने महाधवलके अन्तर्गत ग्रंथ-रचनाके संबंधमें एक स्वतंत्र लेखकेद्वारा जो चिन्ता और जिज्ञासा प्रकट की थी, उसने उक्त सिद्धान्त भवनकी क्रियात्मक शक्तिको जागृत कर दिया । शीघ्र ही हमें स्वयं भट्टारक स्वामी चारुकीर्तिजी द्वारा महाधवलके संबंधी अनेक सूचनाएं और उसका परिचय भी प्राप्त हुआ और उसी सिलसिलेमें सिद्धान्तग्रंथोंके ताड़पत्रों, मंदिरों व अधिकारियों व कार्यकर्ताओंके चित्र भी उन्होंने भिजवानेकी कृपा की, व ताडपत्रीय प्रतियोंसे पाट-मिलानकी सुविधा भी करा दी। इस पुण्य कार्यमें हमारे सदा सहायक पं. लोकनाथजी शास्त्री ने उक्त महाधवल-परिचय और मूडबिद्रीका कुछ इतिहास भी लिख भेजनेकी कृपा की. तथा वे अपने दो सहयोगी पं. नागराजजी शास्त्री और पं. देवकुमारजी शास्त्री के साथ मिलान कार्यमें दत्तचित्त भी हो गये । इस समस्त सहयोगके फलस्वरूप इस भागके साथ हम मृडबिद्री, वहांकी सिद्धान्तप्रतियों, मन्दिरों और अधिकारियोंके चित्र व परिचय और इतिहास पाठकोंके सन्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं । यही नहीं, अब तक प्रकाशित तीनों भागोंके पाठका ताडपत्रीय प्रतियोंसे मिलान व तत्संबंधी निष्कर्ष अत्यन्त परिश्रमपूर्वक सुव्यवस्थित करके पाठकोंके विचारार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। एक ध्यान देने योग्य हर्षकी बात यह है कि मूडबिद्रीमें धवलसिद्धान्तकी एक संपूर्ण ताड़पत्रीय प्रतिके अतिरिक्त दो और ताडपत्रीय प्रतियां हैं । यद्यपि ये बहुत अधिक त्रुटित हैं- इनके बीचके सैकडों पत्र अप्राप्य हो गये हैं- तथापि जितने हैं उतने पाठसंशोधनकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि, इनमें परस्पर पाठभेद भी पाये जाते हैं जहांसे हमारे मिलानमें दिये हुए 'ब' खंडके पाठभेदोंकी उत्पत्ति संभव है । विशेषतः मिलानके 'ब' खंडमें दिये हुए भाग एकके पृष्ठ २२८ से अन्ततकके पाठभेद तो यहीं से उत्पन्न हुए विदित होते हैं । यथाशक्ति इन त्रुटित प्रतियोंके मिलान लेनेका भी हमने प्रयत्न किया है, किन्तु वर्तमान परिस्थितिमें इनका उतना और उसप्रकार उपयोग नहीं हो पाया जितना सूक्ष्मताकी दृष्टिसे अभीष्ट है। यथावसर इन प्रतियोंका विशेष परिचय देने और उपयोग लेनेका भी प्रयत्न किया जायगा । इस महान् साहित्यिक निधिको सर्वोपादेय बनाने में सहायताके लिये मूडबिद्रीके उक्त महानुभावोंका हम जितना उपकार माने, थोड़ा है।
१ यह लेख जैन गजट, जैन मित्र, जैन संदेश, जैन बोधक आदि पत्रों में नवम्बर १९४० में प्रकट हुआ था। उसका पूर्णरूप अन्तिम सूचनाओं तकके समाचार लेकर दिसम्बर १९४० के जैन सिद्धान्त भास्करमें प्रकाशित हो चुका है।
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प्राक् कथन
प्रस्तुत भागके पाठ-संशोधन व अनुवादमें सम्पादकोंको विशेष कठिनाईका साम्हना करना पड़ा है । एक तो यहांका विषय ही बड़ा सूक्ष्म है, और दूसरे उसपर धवलाकारने अपने समयके गणित शास्त्रकी गहरी पुट जमाई है । इसने हमें बढ़ा हैरान किया, तथापि किसी अज्ञात शक्तिकी प्रेरणा, जनताकी सद्भावना और विद्वानोंके सहयोगसे वह कठिनाई भी अन्ततः हल हो ही गई, और अब हम यह भाग भी पूर्व भागोंके समान कुछ आत्मविश्वासके साथ पाठकोंके हाथमें सौंपते हैं। मूल भागमें सामान्य विषय-प्ररूपणके अतिरिक्त कोई २८० शंकाएं उठाकर उनका समाधान किया गया है । इसके गहन, अपरिचित और दुरूह भागको अनुवादमें बीजगणित और अंकगणितके कोई २८० उदाहरणों तथा ५० विशेषार्थों व ३३३ पादटिप्पणोद्वारा सुगम और सुबोध बनानेका प्रयत्न किया गया है। इसका गणित बैठानेमें हमें हमारे कालेजके सहयोगी, गणितके अध्यापक प्रोफेसर काशीदत्तजी पांडे, एम. ए., से विशेष सहायता मिली है । उन्होने कई दिनोंतक लगातार घंटों हमारे साथ बैठ बैठकर करण-गाथाओंको समझने समझाने व अन्य गणित व्यवस्थित करनेमें बड़ी रुचि और लगनसे खूब परिश्रम किया है। गाथा नं. २८ (पृ. ४७) का गणित नागपुरके वयोवृद्ध गणिताचार्य, हिस्लप कालेजके भूतपूर्व गणिताध्यापक प्रोफेसर जी. के. गर्देने बैठा देने की कृपा की है, तथा उसीका दूसरा प्रकार, एवं पृ. ५०-५१ पर दिये हुए पश्चिम-विकल्पका जो गणित संबंधी सामंजस्य प्रस्तावनाके पृ. ६६ पर ' अर्थसंबंधी विशेष सूचना' शीर्षकसे दिया गया है वह लखनऊ विश्वविद्यालयके गणिताचार्य व · हिन्दू गणितशास्त्रका इतिहास' के लेखक डाक्टर अवधेश नारायणसिंहजीने लगाकर भेजनेकी कृपा की है। इस अत्यन्त परिश्रम पूर्वक दिये हुए सहयोगके लिये उपर्युक्त सभी सज्जनोंके हम बहुत ही कृतज्ञ हैं । इस भागमें यदि कुछ सुन्दर और महत्त्वपूर्ण सम्पादन कार्य हुआ है तो वह इसी सहयोगका परिणाम है । हां, जो कुछ त्रुटियां और स्खलन रहे हों उनका उत्तरदायित्व हमारे ही ऊपर है, क्योंकि, अन्ततः समस्त सामग्रीको वर्तमान रूप देनेकी जिम्मेदारी हमारी ही रही है।
इन सिद्धान्त ग्रंथोंकी ओर विद्वान् पाठक कितने आकर्षित हुए हैं, यह उन अभिप्रायोंसे स्पष्ट है जो या तो समालोचनादिके रूपमें विविध पत्रोंमें प्रकाशित हो चुके हैं, या जो विशेष पत्रों द्वारा हमें प्राप्त हुए हैं । उन सभी सदभिप्रायोंके लिये हम लेखकोंके विशेष आभारी हैं । इन अभिप्रायोंमें ऐसी अनेक सैद्धान्तिक व अन्य शंकाएं भी उठाई गई हैं जो ग्रंथके सूक्ष्म अध्ययनसे पाठकोंके हृदयमें उत्पन्न हुई। कितने ही अंशमें उन शंकाओंके उत्तर भी हम यथाशक्ति उन उन पाठकोंको व्यक्तिगत रूपसे भेजते गये हैं । अब हम उनमेंसे कुछ महत्त्वपूर्ण शंकाएं और उनके समाधान, इस भागकी भूमिकामें पृष्ठक्रमसे व्यवस्थित करके प्रकाशित कर रहे हैं, जिससे ग्रंथराजके सभी पाठकोंको लाभ हो और इस सिद्धान्तके समझने समझाने में सहायता पहुंचे । गहन सिद्धान्तोंके अर्थपर प्रकाश डालनेवाले अभिमतों का हम सदैव आदर करेंगे ।
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प्राक् कथन सम्पादन-संबंधी हमारी शेष साधन-सामग्री और सहयोगप्रणाली पूर्ववत् ही इस भागके लिए भी उपलब्ध रही। हमें अमरावती जैन मन्दिरकी हस्तलिखित प्रतिके अतिरिक्त आराके सिद्धान्तभवन
और कारंजाके महावीर ब्रह्मचर्याश्रमकी प्रतियोंका मिलानके लिये लाभ मिलता रहा, तथा सहारनपुरकी प्रतिके नोट किये हुए पाठभेद भी समुपलब्ध रहे । अतएव हम उनके अधिकारियोंके बहुत आभारी हैं । मूडबिद्रीय प्रतियोंके मिलान प्राप्त हो जानेसे हमने इन प्रतियोंके परस्पर पाठभेद व छूटे हुए पाठ आदि देना आवश्यक नहीं समझा ।
हमारे सम्पादनकार्यमें विशेषरूपसे सहायक पं देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री गत तीन चार मास बहुत ही व्याधिग्रसित रहे, जिसकी हमें अत्यन्त चिन्ता और आकुलता रही। यद्यपि अभी भी वे बहुतही दुर्बल हैं, तथापि व्याधि दूर हो गई है और वे उत्तरोत्तर स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं जिसका हमें परम हर्ष है। हमें आशा और विश्वास है कि वे शीघ्र ही पूर्ण स्वास्थ्य लाभ करके अपनी विद्वत्ताका लाभ हमें देते रहनेमें समर्थ होंगे।
हमारे सहयोगी पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका नवजात पुत्र गत फरवरी मासमें अत्यन्त रुग्ण हो गया, जिससे फरवरीके अन्तमें पंडितजीको अकस्मात् देश जाना पड़ा। यथाशक्ति खूब उपचार करने पर भी दुर्दैवसे पंडितजीको पुत्र-वियोगका अपार दुख सहन करना पड़ा, जिसका हमें . भी अत्यन्त शोक है, और शेष कुटुम्बकी सहानुभूतिसे हृदय द्रवित होता है । तबसे फिर पंडितजी वापिस नहीं आ सके। चूंकि इस समय पंडित फूलचन्द्रजी हमारे सन्मुख नही हैं, इससे हमें यह निस्संकोच प्रकट करते हुए हर्ष होता है कि प्रस्तुत कठिन ग्रन्थको वर्तमान स्वरूप देनेमें पंडितजीका भारी प्रयास रहा है, जिसके लिये शेष सम्पादकवर्ग उनका बहुत आभारी है।
प्रथम भागके प्रकाशित होनेसे ठीक आठ माह पश्चात् ही दूसरा भाग जुलाई १९४० में प्रकाशित हुआ था। मार्च १९४१ में आठ माहके पश्चात् ही यह तीसरा भाग प्रकाशमें आ रहा है। जो कुछ सहयोग और सहानुभूति इस महत्त्वपूर्ण साहित्यके प्रकाशनमें मिल रही है उससे आशा और विश्वास होता है कि यह पुण्य कार्य सुचारु रूपसे प्रगतिशील होता जायगा ।
)
किंग एडवर्ड कॉलेज,
अमरावती १-४-४१
हीरालाल जैन
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प्रस्तावना
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INTRODUCTION.
1. Cooperation of the Moodbidri Authorities and Collation
of the Palmleaf Manuscripts.
ho had so far out this mil
ts and misoi
It will be noticed with the greatest pleasure by every one interested in the publication of this series that the present Volume is appearing with the full cooperation of the authorities at the pontifical seat at Moodbidri where the old palm leaf Mss. of this unique work are deposited and worshipped. The publication of the first two volumes and our ceaseless afforts, as well as of those who realised the value and importance of this venture, brought about this miraculous and most welcome change in the outlook of those who had so far stood apart and looked upon the undertaking with doubts and misgivings. The immediate occasion for the change wis provided by the publication of my article in which anxiety was exprassed concerning the rea, contents of the palmleaf Ms. which goes by the name of Mahälhavala. It aroused a sensation amongst those who had any idea of the possible contents of thoso Mes. I and stirred the hearts of all concerned. An examination of the palmleaf Mss. was, therefore, immediately arranged and I was soon informed by telegrams and letters about the results of that examination. The contact thus established proved lasting and the collation of the Dhavala Mss. With the published part of the work was carried out. The collation of the rest of the work is also proceeding, thanks to the sympathetic attitude of the authorities yud the cooperation of a band of learned people there.
As a result of the search, two more old but incomplete palmleaf Mss. Of Dbavala have been discoverel. These would prove of immense value in settling the text more accurately. At present, the collation of all these palmleaf Mss. in a thorough and accurate manner was not possible, but it might be hoped that this will also be accomplished in the near future. The result of the Moodbidri collations, go far, has been that of the 483 variants noticed in the text of the three volumes yet published, including the present volume, 149 contribute towards the improvement of the text in the matter of sense or expression or both, 62 appear to be optionally acceptable, 157 are phonetic options of the Prakrit language, while 120 are unacceptable, being scribal or other errors. These have been properly classified by us in an appendix and the general results are embodied in the Hindi Introduction (page 49). It was necessry to emend the translation very slightly only at 78 places in all. Our principles of text constitution and translation, as laid down by us in the Introduction to Volume I, are thus mostly borne out by this collation. The position of the euphonic ya may have to be reconsidered, but we must wait for more material. of the 19 expressions which were not found in the available Mss. but were thought to be necessary by us and were, therefore, added and placed within brackets in the
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present Volume 13 have been found almost verbatim in the palmleaf Mss. We re-examinel the remaining 6 additions and found that even if we omit them from their allotted positions we have to infer the sepse from the context.
2. Contents of the Mahadhavala manuscript.
The examination of the Mahādhavala palmleaves corroborated our doubts as well as fulAlled our hopes. The My has been found to contain, on the first twenty-seven leaves, a work which has been called Sattakamma-Panchika. A careful exami. nation of the extracts received by us from that work reveals the fact that it is a gloss on the first four out of the eighteon Adhikaras or chapters contained in the supplementary part of Dhavalā which is entirely the composition of Virasena without any strata of old Sutras. The author and the date of this gloss ramain yet obscure.
The rest of the Mahådhavala Ms. contains the Mahabandha, presumably the composition of Acharya Bhutabali himself. This is indicated by the nature of the contents examined in the light of what has been said about the Mahabandha of Bhutabali in the Dhavala and Jayadhavala
3. Subject matter of this volume. The subject matter of this volume is the enumeration of souls in ench of the fourteen stages of spiritual alvancement (Gonisthä:29), and in the different varieties of life and existence called the soul-quests (Mārganāsthānas ). These have been calculated in terms of infinite ( Ananta ), innumerablo (Asamkhyāta ) and numerable (Samkhyāta ), and the standards have been first explained an l defined. Living beings are infinite in number. Of these, the major bulk, which also is infinite in num. ber, consists of beings that are on the lowest rung of the spiritual ladder, the first stage of mental evolution (Mithyātvins ). Of the rest, again, the major part are the absolved beings (Mukta or Siddha ) who are also ininite. The beings in the stagog froin the 2nd to the 5th are innumerable, while those in the last nine stages (6th to 14th ) are in all just three less than nine crores. The author of Dhavala has illustrated these quantities arithmetically by taking the entire living creation to be 16, out of which 13 would fall under the first category, while the remaining 3 would include the Siddhas and all the souls of the other thirteen stages. We have tried to carry this illustration further by splitting up the 3 as well so as to allot 2 to the Siddhas and distribute the remaining 1 among the thirteen stagos according to their quantitative order. (See Intro. page 37).
The soul quantities, according to the subdivisions falling under the Mårganästhānas, have been defined and illustrated in his own way by the author. But we have tried to work the sime out in figures that are consistent with the Gunasthāna distribution, keeping the entire Jivarāshi as 16, the Mithyadrishtis as 13, the Siddhas 2, and the rest comprised within 1. The categories falling under the fourteen Mārgauasthānas are 63, of which 23 are infinite, 32 innumerable, and & numberable. It would be interesting to note that the entire human race is said to be innumerable, but those that are found in the stages from the 2nd to the 14th are just three less than eight hundred and seventy-eight crores. These are spread over all
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iii
the two and half Dvipas or mainlands over which the human population is spread. ( Page 38-43 )
4. Scientific Importance of the Work. The distribution of souls in the various stages of spiritual advancement and the varieties of life and existence is tased upon certain Jaina dogmas which are in their nature inscrutable. An attempt has been made by the authors of the Sutras and the Commentary to put the distribution in a precise mathematical from. The authors have made full use of the mathematical knowledge of their times, which reveals a considerably high state of development during the earliest centuries of the Christian era when the Sutras were composed, as well as during the latter part of the 8th and the earlier part of the 9th century when the commentary was written. The author of the Sutras shows a clear conception of infinity and orders of infinity within infinity in their application to matter, time and space. Within the sphere of finite numbers he mentions figures from one to hundred, thousand, tens and hundreds of thousands, and crores, also their multiples, squares and square roots, as well as the fundamental operations of arithmetic, namely, addition, subtraction, multiplication and division. The commentator has amplified this knowledge considerably in the light of what was known at his time. Several practical methods of division have been explained. There is a free use of the place value notation. The use of fruction has been frequently made in order to arrive at quotients with particular divisors, or to determine divisors when a particular quotient is given. This indicates the kuowledge of fractions at that stage. The processes of evolution and involution are identical with those current in modern mathematics. Thus, we notice the use of powers ( Vargita-samvargita ) and roots ( Varga-mula ). This indicates that the author of Dhavala had a clear knowledge of the law of indices and possibly of the theory of logarithms, as may be inferred from the relations shown between the Varga-shalakas and Ardhacchedas I The role of three was an operation well known to the author for the purposes of showing variations. We also find the use of the summation of an arithmetic series. The author is also found to have employed the mensuration formula for a circle. The ratio of the circumference to the diameter is taken as & little less than 10, and it is just possible that approximations to this value in a fractional form to a fair degree of accuracy were known to the author.
It may be hoped that the work will considerably widen our knowledge about the state of mathematics and its application to the problems of life in ancient India. As I have already acknowledged in my foreword, my colleague Professor K. D. Panday, M. A, bas interpreted for me many of the author's formulas and has also assisted in framing the illustrations, while Dr. Avadhesh Narain Singh, D. sc., Professor
The number of times that a particular figure is multiplied by itself is its Vargashalākas, while the number of times that a particular figure is successively halved is its ardbacchedas.
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of Mathematics in the Lucknow University and the author of the History of Hindu Mathematics has contributed the interpretations of formulas which are set forth by us on page 66 of the Hindi Introduction. Both these scholars are at present studying the work from the point of view of its mathematical importance, and some of my remarks above are based upon information already supplied by them. The emendation of the text of the verse 28 as well as its explanation and illustration as given in our translation are the contributions of Professor G. R. Garde, M. A., the well known Sanskritist and Mathematician of Nagpur.
5. Other Topics. Other topics discussed in the Hindi Introduction are as follows:--
1 An account of the palmleaf manuscripts as well as of the institutions and personalities of Moodbidri, together with a short history of the place, has been given with illustrations. It appears that the Jaina institutions of Moodbidri date from about the 11th century, with a back ground that may be about four centuries older. The foundation of the pontifical seat was laid during the 12th century and the zenith of prosperity was reached during the following two or three centuries.(Page 1.6)
2. A little more light is shed on what have been called by the author of Dhavală the Northern and Southern Schools of thought (Uttara Pratipatti and Dakshiņa pratipatti ), to which we had drawn attention in the Introduction to Vol. I, page iii & 57, and which are cited more than once in the text now presented. ( Page 92, 94, 98 of the text. ) One mention of these Schools noticed by us in the Jayadhavală associates one school with Arya Mankhu and the other with Nagahasti. An attempt is being made by us to get more light on this important subject (page 15).
3. Our conclusions about the authorship of Namokara Mantra expressed in the Introduction to Vol. II, created a considerable stir amongst people who have come to regard the sacred formula as eternal. A reconsideration of the pertinent text in the light of the readings obtained from the palm leaf Mss. of Moodbidri, corroborates our previous conclusions so far as the linguistic expression of the sacred formula in its present form is concerned. But there is no contradiction in regarding the sense of the formula as even older than Pushpadanta. ( Page 16 )
4. After the publication of the first Vol., a great interest in the subject matter of the work was aroused and a number of questions were received by us from time to time for more light about the text and its interpretation. We tried to satisfy the curiousity of our inquirers then and there, and now we reproduce here in a properly arranged form a set of twenty-- four questions with answers, because we considered them important from one point of view or another. It will be seen from these that our principles of text constitution and interpretation are fully justified. ( Page 18-31)
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१ चित्र परिचय.
ऊपरसे नीचेकी ओर प्रथम सचित्र ताड़पत्र श्रीधवल ग्रंथका है। इसके मध्यमें एक तीर्थकरका चित्र है, जिसके दोनों ओर अनुमानतः यक्ष-यक्षिणी खड़े किये गये हैं। इसके दोनों
ओर दो दो तीर्थंकरोंके और चित्र हैं, तथा उनके एक ओर यक्ष और दूसरी ओर यक्षिणी चित्रित हैं । फिर दोनों छोरोंपर प्रवचन करते हुए आचार्य व श्रोता श्रावकोंके चित्र हैं।
दूसरा सचित्र ताड़पत्र भी श्रीधवल ग्रंथराजका है। बीचमें तीर्थंकर विराजमान हैं, और आजू बाजू सात सात भक्त वन्दना करते हुए दिखाये गये हैं।
तीसरा ताड़पत्र श्रीधवलका कनाड़ी लिपिमें हस्त-लिखित है। चौथा ताड़पत्र कनाड़ी लिपिमें हस्त-लिखित श्रीमहाधवल ग्रंथका है।
पांचवां ताड़पत्र श्रीजयधवल ग्रंथका है । बीचमें कनाड़ीका हस्तलेख तथा आजू बाजू चित्र हैं।
छठवां ताड़पत्र श्रीमहाधवलका २७ वा पत्र है, जहां ' सत्तकम्मपंचिका' पूरी हुई कही जाती है । इसके भी बीचमें हस्तलेख और आजू बाजू चक्राकार चित्र हैं।
सातवा ताड़पत्र त्रिलोकसार ग्रंथके भीतरका है।
नीचेसे ऊपरकी ओर प्रथम ग्रंथ श्रीधवल सिद्धान्त (षट्खंडागम) है । इसके ताड़पत्रोंकी - लम्बाई २ फुट, चौडाई २॥ इंच, तथा पत्र संख्या ५९२ है । प्रत्येक पृष्ठ पर प्रायः ११ पंक्तिय हैं, और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग १३८ अक्षर हैं । इसप्रकार प्रत्येक ताड़पत्रपर श्लोक-संख्या लगभग १२०॥ आती है, जिससे कुल ग्रंथका प्रमाण ७१९८४ श्लोंकोंके लगभग आता है।
अभीतक यही समझा जाता था कि धवलाकी प्राचीन ताडपत्रीय प्रति एकमात्र यही है। किन्तु अब खोजसे ज्ञात हुआ है कि वहां धवलाकी दो और भी ताडपत्रीय प्राचीन प्रतियां हैं, जिनकी ताडपत्रोंकी संख्या क्रमशः ८०० और ६०५ है। इनमें पाठभेदभी कहीं कहीं बहुत कुछ पाया जाता है। किन्तु इन दोनों प्रतियों के बीचबीच के अनेक ताड़पत्र अप्राप्य हैं, और इस प्रकार ये दोनोही प्रतियां बहुत कुछ त्रुटित हैं। इनका प्रशस्तियों आदि सहित विशेष परिचय आगेके भागमें देनेका प्रयत्न किया जायगा ।
____ दूसरा ग्रंथ श्रीमहाधवल कहलाता है । इसके ताड़पत्रोंकी लम्बाई २ फुट . इंच, चौड़ाई २॥ इंच तथा पत्रसंख्या २०० है । प्रत्येक पृष्ठपर प्रायः १३ पंक्तिया, और प्रत्येक पंकिमें
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
लगभग १७० अक्षर हैं । इस प्रकार प्रत्येक ताड़पत्रपर श्लोक संख्या १३८ आती है, जिससे कुलप्रथका प्रमाण २७६०० श्लोकोंके लगभग आता है। किन्तु बड़े बड़े पारिभाषिक शब्दोंके सूक्ष्मरूप बनाकर लिखे गये हैं, इससे श्लोक प्रमाण अधिक भी हो सकता है ।
तीसरा ग्रंथ श्रीजयधवल सिद्धान्त है । इसके ताड़पत्रोंकी लम्बाई २ । फुट, चौड़ाई २॥ इंच, तथा पत्रसंख्या ५१८ है । प्रत्येक पृष्ठपर प्रायः १३ पंक्तियां, और प्रत्येक पंक्ति में लगभग १३८ अक्षर हैं। इस प्रकार प्रत्येक ताड़पत्रपर श्लोक संख्या लगभग १२० आती है, जिससे कुल ग्रंथका प्रमाण ६११२४ श्लोकोंके लगभग आता है ।
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यह मूडबिद्रीका वही सुप्रसिद्ध मंदिर है, जहां सिद्धान्त ग्रंथोंकी ताडपत्रीय प्रतियां शताब्दियों से बिराजमान हैं । इन्हीं के कारण यह मन्दिर ' सिद्धान्त मन्दिर' या ' सिद्धान्त बसदि ' -कहलाता है । अनेक रत्नमयी प्रतिमायें भी यहां विराजमान हैं, जिनके दर्शन के लिये प्रतिवर्ष दूर दूरसे यात्री आते हैं । यहां के मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ तीर्थंकर हैं । यहीं महारक गद्दी है, जिससे इसे ' गुरु बसदि ' भी कहते हैं । इसका सब कार्यभार एक पंचायत के आधीन है, जिससे यह 'पंचायती मन्दिर' भी कहलाता है ।
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यह मूडबिद्रीका 'बडा मन्दिर' है। यहां के मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ तीर्थंकर हैं, जिनकी मूर्ति सुवर्ण आदि पंच धातुओंकी बनी मानी जाती है। इसकी इमारत तीन मंजिलकी है । दूसरे मंजिलपर ' सहस्रकूट चैत्यालय ' बहुत ही मनोज्ञ है । तीसरे मंजिलमें छोटी बडी ४० प्रतिमाएं विराजमान हैं जो स्फटिकमयी हैं । इसीलिये इस मंजिलको ' सिद्धकूट ' भी कहते हैं । मन्दिरके सन्मुख एक 'मानस्तंभ' और एक 'ध्वजस्तंभ' खड़ा है । तीनों मंजिलोंमें स्तंभोंकी संख्या कोई एक हजार है, जिससे इस मन्दिरका नाम ' सहस्रस्तंभ ' या हजार स्तंभवाला मन्दिर प्रसिद्ध हुआ है । अपनी अनुपम सुन्दरता के कारण यह मन्दिर 'त्रिभुवन- तिलक- चूडामणि' भी कहलाता है ।
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ये मूडबिद्री स्वर्गीय भट्टारक श्रीचारुकीर्ति स्वामी हैं । आप संस्कृतके अच्छे विद्वान् थे, तथा अन्य अनेक भाषाओंके भी जानकार थे । आपके समय में मूडी में अच्छी धर्मप्रभावना हुई | आपने कई जगह कितने ही जैनमंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया व पंचकल्याणादि कराये । आपकेही सुसमय में श्रीधवल और श्रीजयधवल, इन दोनो सिद्धांत ग्रंथों की प्रतिलिपियां हुईं थीं, और तीसरे सिद्धान्त ग्रंथ महाधवलकी प्रतिलिपिका कार्य भी प्रारम्भ हो गया था । अजैन जनतामें भी आपका अच्छा गौरव और सन्मान रहा ।
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चित्र परिचय
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ये मूडबिद्रीके वर्तमान भट्टारक श्रीचारुकीर्ति स्वामी हैं, जो सिद्धान्त बसदिके मुख्य अधिकारी हैं । आप अपनी मातृभाषा कनाड़ी के अतिरिक्त संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी आदि अनेक भाषाओंके ज्ञाता हैं। उत्तर भारतमें भी आप दीर्घकाल तक रह चुके हैं। आपके ही समयमें श्रीमहाधवलकी प्रतिलिपि पूर्ण हुई । आपके ही सरल स्वभाव और उदार विचारोंका यह सुफल है कि वहांकी पंचायतद्वारा श्रीमहाधवलकी प्रतिलिपि जिज्ञासु समाज को प्राप्य बनानेका प्रस्ताव स्वीकृत हो गया है । आप जीर्णोद्धारादि धार्मिक कार्योंमें खूब दत्तचित्त रहते हैं । ग्रंथोंका जीर्णोद्धार कार्य भी आपकी दृष्टिके ओझल नहीं रह सका। हमारे सिद्धान्त-ग्रंथके संशोधन व प्रकाशन कार्यमें अब हमें आपकी पूर्ण सहानुभूति और सहायता मिल रही है, जिसके सुफल पाठक इस ग्रंथभागमें तथा आगे भी देखेंगे।
आप मूडबिद्री के नगरसेठ श्रीदेवराजजी सेठी हैं । सिद्धान्तमन्दिरके आप पंच हैं, और भट्टारकजीके सत्कार्योंमें आपकी सम्मति और सहयोग रहता है । आप भी सिद्धान्तग्रंथोंके सुप्रचार के पक्षपाती हैं।
आप मूडबिद्री सिद्धान्तमन्दिरके पंच श्रीयुक्त धर्मपालजी हैं । आप एक बडे उत्साही युवक हैं, और सिद्धान्तग्रंथोंके सुप्रचार करानेमें आपकी विशेष रुचि है।
सरस्वती भूषण पं. लोकनाथजी शास्त्रीका पैतृक निवासस्थान मूडबिद्री ही है। आपका विद्याभ्यास स्वनामधन्य स्वर्गीय पं. गोपालदासजी बरैयाकी अध्यक्षतामें मोरेना विद्यालयमें हुआ था । तत्पश्चात् आपने मूडबिद्रीकी जैन संस्कृत पाठशालामें बीस वर्ष तक अध्यापन कार्य किया, और अनेक ऐसे योग्य विद्वान् उत्पन्न किये जो अब उस प्रान्तमें धर्म और समाजकी भारी सेवा कर रहे हैं । आपने अपने निरंतर कठिन परिश्रमसे वीरवाणीविलास सिद्धान्तभवनकी स्थापना की है जिसमें मुद्रित व हस्तलिखित ताडपत्रादि चार हजार ग्रंथोंसे ऊपरका संग्रह है। यहांसे आप एक वीरवाणी ग्रंथमालाका भी संपादन करते हैं, जिसमें सोलह ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। आप मूडबिद्रीके भंडारसे अलभ्य ग्रंथोंकी प्रतिलिपि कराकर मुंबई, आरा, इंदौर, सहारनपुर, कलकत्ता आदि शास्त्रभंडारोंको भेज चुके हैं, जिसकी श्लोक सं. ८५००० से भी ऊपर हो गई है। आपका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्धान्तग्रंथोंकी प्रतिलिपियोंसे संबंध रखता है। जैसा हम प्रथम भागकी भूमिकामें कह आये हैं, महाधवलकी नागरी प्रतिलिपि पहले पहल आपके द्वारा ही सन् १९१८ से १९२२ तक की गई थी। सन् १९२४ में आपने सहारनपुर पहुंचकर वहांकी धवला और जयधवलाकी कनाड़ी और नागरी प्रतियों का मिलान करवाया था। वर्तमानमें हमारी
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षखंडागमकी प्रस्तावना महाधवलकी प्रतिसंबंधी शंकाओंपर आपने ही अपने दो तीन सहयोगी विद्वानोंसहित उक्त प्रतिकी जांच पड़ताल की, और बहुमूल्य परिचय भेजनेकी कृपा की। हमारे प्रकाशित व प्रकाशनीय ग्रंथांशोंका ताड़पत्रीय प्रतियोंसे मिलान भी आपके ही द्वारा किया जा रहा है। आपकी आयु इस समय पचास वर्षकी है । लगभग दस वर्षसे श्वासकी व्याधिसे पीड़ित होते हुए भी आप साहित्यसेवाके कार्यसे विश्रान्ति नहीं लेते, और प्रस्तुत सिद्धान्तप्रकाशन कार्यमें तो आप अत्यन्त तन्मयताके साथ जी तोड़कर सहयोग दे रहे हैं, जिसके सुफल पाठक इस भागमें तथा आगे प्रकाशनीय भागोंमें देखेंगे ।
२ मूडबिद्रीका इतिहास . (दक्षिण भारतका कर्नाटक देश जैन धर्मके इतिहासमें अपना एक विशेष स्थान रखता है । दिगम्बर जैन सम्प्रदायके अधिकांश सुविख्यात और प्राचीनतम ज्ञात आचार्य और ग्रंथकार इसी प्रान्तमें हुए हैं । आचार्य पुष्पदन्त, समन्तभद्र, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र, चामुण्डराय आदि महान् ग्रंथकारोंने इसी भूभागको अलंकृत किया था ।)
इसी दक्षिण कर्नाटक प्रान्तमें ही मूडबिद्री नामका एक छोटासा नगर है जो शताब्दियोंसे जैनियोंका तीर्थक्षेत्र बना हुआ है । कहा जाता है कि यहां जैनधर्मका विशेष प्रभाव सन् ११०० ईस्वीके लगमग होय्सल-नरेश बल्लालदेव प्रथमके समयसे बढा । तेरहवीं शताब्दिमें यहांकी पार्श्वनाथ बसदिको तुलुवके आलूप नरेशोंसे राज्यसन्मान मिला । पन्द्रहवीं शताब्दिमें विजयनगरके हिंन्दू नरेशोंके समय इस स्थानकी कीर्ति विशेष बढ़ी। शक १३५१ ( सन् १५२९) के देवराय द्वितीयके एक शिलालेखमें उल्लेख है कि वेणुपुर (मूडबिद्री) उसके भव्यजनोंके लिये सुप्रसिद्ध है) वे शुद्ध चारित्र पालते हैं, शुभ कार्य करते हैं, और जैनधर्मकी कथाओंका श्रवण करते हैं। यहांके स्थानीय राजा भैररसने अपने गुरु वीरसेन मुनिकी प्रेरणासे यहांके चन्द्रनाथ मन्दिर को दान दिया था । सन् १९५१-५२ में यहांकी होस बसदि ( त्रिभुवनतिलक-चूडामणि व बड़ा मन्दिर ) का · भैरादेवी मण्डप ' नामसे प्रसिद्ध मुखमण्डप विजयनगर नरेश मल्लिकार्जुन इम्मडिदेवरायके राज्यमें बनाया गया था । विरूपाक्ष नरेश के राज्य उनके सामन्त विद्वरस ओडेयरने सन् १४७२-७३ में इसी बसदिको भूमिदान दिया था। यहां सब मिलाकर अठारह बसदि (जिनमन्दिर ) हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध 'गुरु बसदि ' है जहां सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतियां सुरक्षित हैं और जिनके कारण वह · सिद्धान्त बसदि ' भी कहलाती है। यह नगर • जैन काशी' नामसे भी प्रसिद्ध है। यहां अब जैनियोंकी जनसंख्या बहुत कम रहगई है, किन्तु जैन संसारमें इसका पावित्र्य कम नहीं हुआ। यहांकी गुरुपरंपरा और सिद्धान्त रक्षाके लिये यह स्थान जैन धार्मिक इतिहासमें सदैव अमर रहेगा।
. देखो Salatore's Mediaeval Jainism, P. 351 ff., and, Ancient Karnataka P.410-11,
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मूडबिद्रीका इतिहास
मूडबिद्री पंडित लोकनाथजी शास्त्रीने मूडबिद्रीका निम्न इतिहास लिखकर भेजनेकी कृपा की है। कनाड़ी भाषामें बांसको 'बिदिर' कहते हैं। बांसोंके समूह को छेदकर यहांके सिद्धान्त मंदिरका पता लगाया गया था, जिससे इस ग्रामका 'बिदुरे' नाम प्रसिद्ध हुआ। कनाड़ीमें 'मूड' का अर्थ पूर्व दिशा होता है, और पश्चिम दिशाका वाचक शब्द 'पडु' है । यहाँ मूल्की नामक प्राचीन ग्राम पडुबिदुरे कहलाता है, और उससे पूर्व में होने के कारण यह ग्राम मूडबिदुरे या मूडबिदिरे कहलाया । वंश और वेणु शब्द बांस के पर्यायवाची होनेसे इसका वेणुपुर अथवा वंशपुर नामसे भी उल्लेख किया गया है । अनेक व्रती साधुओं का निवासस्थान होनेसे इसका नाम व्रतिपुर या व्रतपुर भी पाया जाता है ।
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यहां की गुरुबसदि अपरनाम सिद्धान्त बसदि के सम्बधर्मे यह दंतकथा प्रचलित है। कि लगभग एक हजार वर्ष पूर्व यहांपर बांसों का सघन वन था । उस समय श्रवणबेलगुल ( जैन बिद्री) से एक निर्बंथ मुनि यहां आकर पडुबस्ती नामक मंदिरमें ठहरे । पडुबस्ती नामक प्राचीन जिनमंदिर अब भी वहां विद्यमान है, और उस मंदिरसे सैकड़ों प्राचीन ग्रंथ स्वर्गीय भट्टारकजीने मठमें विराजमान किये हैं । एक दिन उक्त निर्बंथ मुनि जब बाहर शौचको गये थे तब उन्होंने एक स्थानपर एक गाय और व्याघ्रको परस्पर क्रीडा करते देखा, जिससे वे अत्यन्त विस्मित होकर उस स्थानकी विशेष जांच पड़ताल करने लगे । उसी खोजबीन के फलस्वरूप उन्हे एक बांसके भिरेमें छुपी हुई व पत्थरों आदिसे घिरी हुई पार्श्वनाथ स्वामीकी काले पाषाणकी नौ हाथ प्रमाण खड्गासन मूर्तिके दर्शन हुए। तत्पश्चात् जैनियोंकेद्वारा उसका जीर्णोद्धार कराया गया, और उसी स्थानपर 'गुरुबसदि का निर्माण हुआ । उक्त मूर्ति पादपीठ पर उसके शक ६३६ (सन् ७१४ ) में प्रतिष्ठित किये जानेका उल्लेख पाया जाता
उसके आगेका गद्दीमंडप ( लक्ष्मी मंडप ) सन् १५३५ में चोलसेठीद्वारा निर्मापित किया गया था । इस बसदिके निर्माण का व्यय छह करोड रुपया कहा जाता है जिसमें संभवत: वहां की रत्नमयी प्रतिमाओं का मूल्य भी सम्मिलित होगा । इस मन्दिरके गुप्तगृहमें सुवर्णकलशों में
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सिद्ध रस ' स्थापित है, ऐसा भी कहते हैं ।
एक किंवदन्ती है कि होय्शल- नरेश विष्णुवर्धनने सन् १९१७ में वैष्णव धर्म स्वीकार करके लेबीडु अर्थात् दोरसमुद्र में अनेक जिन मन्दिरोंका ध्वंस कर डाला, व जैनधर्मपर अनेक अभ्य अत्याचार किये। उसी समय एक भयंकर भूकंप हुआ और भूमि फटकर एक विशाल गर्त वहां उत्पन्न होगया, जिसका संबंध नरेशके उक्त अत्याचारोंसे बतलाया जाता है । उनके उत्तराधिकारी नारसिंह और उनके पश्चात् वीर बल्लालदेवने जैनियोंके क्षोभको शान्त करनेके लिये नये मन्दिरोंका निर्माण, जीर्णोद्धार, भूमिदान आदि अनेक उपाय किये । वीर बल्लालदेवने तो अपने राज्यमें शान्तिस्थापना के लिये श्रवणवेलगुलसे भट्टारक चारुकीर्तिजी पंडिताचार्यको आमंत्रित किया । वे दोरसमुद्र
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षटखंडागमकी प्रस्तावना पहुंचे और उन्होंने अपनी विद्या व बुद्धि के प्रभावसे वहांका सब उपद्रव शान्त किया, जिससे जैनधर्मकी अच्छी प्रभाक्ना हुई। इसका कुछ उल्लेख विळगीके शासन लेखमें भी पाया जाता है, जो इस प्रकार है-- "कर्णाटक-सिद्धसिंहासनाधीश्वर-बल्लालरायं प्रार्थिसे श्री चारुकीर्तिपंडिताचार्यर् इंतु कीर्तियं पडेदर"
तिवें रायननेंदु नेलंबारिवडे तन मंत्रनपविधियिनदं॥ कुंबलकायिं सूळदु य
शं बडे देसकक्के पंडितार्यने नोंतं ॥ दोरसमुद्रसे चारुकीर्तिजी महाराज अपने शिष्योंसहित मूडबिद्री आये और उन्होने वहां गुरुपीठ ( भट्टारक गद्दी ) स्थापित की, यहां आते समय उन्होंने पासही नल्लूर प्राममें भी भट्टारक गदी स्थापित की थी, किन्तु वर्तमानमें वहां कोई अग भारक नहीं हैं, वहांके मठका सब प्रबन्ध मूडबिद्री मठसे. ही होता है । यह मूडबिद्रीमें भट्टारक गद्दी स्थापित होनेका इतिहास है, जिसका समय सन् ११७२ ईस्वी बतलाया जाता है। तबसे भट्टारकोंका नाम चारुकीर्ति ही रखा जाता है, यद्यपि उसके साथ साथ कुछ स्वतंत्र नामों, जैसे वर्धमानसागर, अनन्तसागर, नेमिसागर आदिका भी उल्लेख पाया जाता है । धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतियां यहां धारवाड जिलेके बंकापुरसे लाई गईं, ऐसी भी एक जनश्रुति है। इस मठसे दक्षिण कर्नाटकमें जैनधर्मका खूब प्रचार व उन्नति हुई । वर्तमानमें मठकी संपत्तिसे वार्षिक आय लगभग दस हजारकी है।'
३ महाबंधकी खोज
१ खोजका इतिहास षट्खंडागमका सामान्य परिचय उसके प्रथम दो भागोंमें प्रकाशित भूमिकाओंमें दिया जा चुका है। वहां हम बतला आये हैं कि धरसेनाचार्यसे आगमका उपदेश पाकर पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्योने उसकी छह खंडोंमें ग्रन्थरचना की, जिनमेंसे प्रथम पांच खंड उपलब्ध श्रीधवलकी प्रतियोंके अन्तर्गत पाये जाते हैं और छठे खंड महाबन्धके सम्बन्धमें धवल तथा जयधवल में यह सूचना पाई जाती है कि महाबंध स्वयं भूतबलि आचार्यका रचा हुआ ग्रन्थ है, उसमें बंधविधानके चार प्रकारों प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का खूब विस्तारसे वर्णन किया गया है, तथा यह वर्णन इतना विशद और सर्वमान्य हुआ कि यतिवृषभ और वीरसेन जैसे आचार्योंने अपनी अपनी ग्रन्थरचनामें उसकी सूचनामात्र दे देना पर्याप्त समझा; उस विषयपर और कुछ विशेष कहनेकी उन्हें गुंजायश नहीं दिखी।
१ देखो लोकनाथशास्त्रीकृत मूडबिद्रेय चरित (कनाड़ी). देखो प्रथम भाग, भूमिका पू. ६३ आदि, व द्वि. भाग भूमिका पृ. १५ आदि.
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सत्कर्मपंचिका परिचय . इस महाबंधकी अभीतक कोई प्रति प्रकाशमें नहीं आई। किन्तु हम सब यह आशा करते रहे हैं कि मूडबिद्रीके सिद्धान्तभवन में जो महाधवल नामकी कनाडी प्रति ताडपत्रोंपर तृतीय सिद्धान्तग्रन्थ रूपसे सुरक्षित है, वही भूतबलिकृत महाबंध ग्रन्थ है । इस आशाका आधार अभीतक केवल हमारा अनुमान ही था, क्योंकि न तो कोई परीक्षक विद्वान उस प्रतिका अच्छी तरह अवलोकन कर पाया था और न किसीने उसके कोई विस्तृत अवतरण आदि देकर उसका सुपरिचय ही कराया था। उस प्रतिका जो कुछ थोडासा परिचय उपलब्ध हुआ था, वह मूड़बिदके पं. लोकनाथजी शास्त्रीकी कृपासे उनके वीरवाणीविलास जैन सिद्धान्त भवनकी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (१९३५) के भीतर पाया जाता था। उस परिचयमें दिये गये महाधवल प्रतिके प्रारंभिक भागके सूक्ष्म अवलोकनसे मुझे ज्ञात हुआ कि यह ग्रन्थरचना महाबंध खंडकी नहीं है, किन्तु संतकम्मके अन्तर्गत शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी एक 'पंचिका ' है, जिसे उसके कर्ताने 'पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ' कहा है। उन अवतरणोंसे महाबंधका कहीं कोई पता नहीं चला । मैंने अपनी इस आशंकाको एक लेखके द्वारा प्रकट किया और इस बातकी प्रेरणा की कि महाधवलकी प्रतिका शीघ्रही पर्यालोचन किया जाना चाहिए और महाबंधका पता लगानेका प्रयत्न करना चाहिये । इस लेखके फलस्वरूप मूडबिद्रीमठके भट्टारकस्वामी व पंचोंने उस प्रतिकी जांचकी व्यवस्था की, और शीघ्र ही मुझे तारद्वारा सूचित किया कि महाधवल प्रतिके भीतर सत्कर्मपंचिका भी है, और महाबंध भी है। तत्पश्चात् वहांसे पं. लोकनाथजी शास्त्रीद्वारा संग्रह किये हुए उक्त प्रति के अनेक अवतरण भी मुझे प्राप्त हुए, जिनपरसे महाधवल प्रतिके अन्तर्गत ग्रन्थरचनाका यहां कुछ परिचय कराया जाता है।
२ सत्कर्मपंचिका परिचय महाधवल प्रतिके अन्तर्गत ग्रन्थरचनाके आदिमें 'संतकम्मपंचिका ' है, जिसकी उत्थानिका का अवतरण अनेक दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण है। यद्यपि यह अवतरण पूर्व प्रकाशित धवलाके दोनों भागोंकी भूमिकाओंमें यथास्थान उद्धृत किया जा चुका है, तथापि वह उक्त रिपोर्टपरसे लिया गया था, और कुछ त्रुटित था । अब यह अवतरण हमें इस प्रकार प्राप्त हुआ है।
वोच्छामि सत्तकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।
" महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदिवेदणाओ (दि-) चउव्वीसमणियोगद्दारेसु तत्थ कदिवेदणा त्ति जाणि अणियोगद्दासणि वेदणाखंडम्हि, पुणो पास.कम्म-पयडि-बंधण चत्तारि आणियोगहारेसु तत्थ बंध-बंध. णिज्जणामणियोगेहि सह वग्गणाखंडम्हि, पुणो बंधविधाणणामणियोगो महाबंधम्मि, पुणो बंधगाणियोगो खुद्दा
पवंचेण परूविदाणि । पुणो तेहिंतो सेसट्टारसाणियोगद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्लाइगंभीरत्तादो अस्थविसम्पदाणमत्थे थोरुद्धयेण पंचियसरूवेण भणिस्सामो।"
इस उत्थानिकासे सिद्धान्तग्रन्थोंके सम्बन्धमें हमें निम्न लिखित अत्यन्त उपयोगी और महत्वपूर्ण सूचनाएं बहुत स्पष्टतासे मिल जाती हैं
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षटखंडागमकी प्रस्तावना १ महाकर्मप्रकृतिपाहुडके चौबीस अनुयोगद्वारों से प्रथम दो अर्थात् कृति और वेदना, वेदनाखंडके अन्तर्गत रचे गये हैं। फिर अगले स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंधनके चार भेदोंमेंसे बंध और बंधनीय वर्गणाखंडके अन्तर्गत हैं । बंधविधान महाबंधका विषय है, तथा बंधक खुदाबंध खंडमें सन्निहित है । इस स्पष्ट उल्लेखसे हमारी पूर्व बतलाई हुई खंड-व्यवस्थाकी पूर्णतः पुष्टि हो जाती है, और वेदनाखंडके भीतर चौबीसों अनुयोगद्वारों को मानने तथा वर्गणाखंडको उपलब्ध धवलाकी प्रतियोंके भीतर नहीं माननेवाले मतका अच्छी तरह निरसन हो जाता है।
२ उक्त छह अनुयोगद्वारोंसे शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी ग्रन्थरचनाका नाम सत्तकम्म (सत्कर्म) है, और इसी सत्कर्मके गंभीर विषयको स्पष्ट करनेके लिए उसके थोड़े थोड़े अवतरण लेकर उनके विषमपदोंका अर्थ प्रस्तुत ग्रंथमें पंचिकारूपसे समझाया गया है।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि शेष अठारह अनुयोगद्वारोंसे वर्णन करनेवाला यह सत्कर्म ग्रन्थ कौनसा है ? इसके लिए सत्कर्मपंचिकाका आगेका अवतरण देखिए, जो इस प्रकार है
___ तं जहा । तत्र ताव जीवदधस्स पोग्गलदव्यमवलंबिय पजायेसु परिणमणविहाणं उच्चदे-जीवदव्वं दुविहं, संसारिजीवो मुक्कजीवो चेदि । तत्थ मिच्छत्तासंजमकसायजोगेहि परिणदसंसारिजीवो जीव-भवनेत्त-पोग्गल-विवाइसरूवकम्मपोग्गले बंधियण पच्छा तेहिंतो पुपत्त-छविहफलसरूवपज्जायमणेय संसरदो जीवो परिणमदि त्ति । एदेसिं पजायाणं परिणमणं पोग्गलणिबंधणं होदि । पुणो मुक्कनीवस्स एवंविध-णिबंधणं णत्थि, किंतु सत्थाणेण पज्जायंतरं गच्छदि । पुणो
जस्स वा व्यस्त सहावो दव्वंतरपडिबद्धो इदि ।
एदस्सस्थो-एत्थ जीवदध्वस्स सहावा णाणदसणाणि | पुणो दुविहजीवाणं णाणसहावविवक्खिदजीवहिंतो वदिरित्त-जीवपोग्गलादि-सव्वदव्वाणं परिच्छेदणसहावेण पज्जायंतरगमणणिबंधणं होदि । एवं दसणं पिवत्तव्वं ।
यहां पंजिकाकार कहते हैं कि वहाँपर अर्थात् उनके आधारभूत ग्रन्थके अठारह अधिकारों से प्रथमानुयोगद्वार निबंधनकी प्ररूपणा सुगम है। विशेष केवल इतना है कि उस निबंधनका निक्षेप छह प्रकारसे बतलाया गया है। उनमें तृतीय अर्थात् द्रव्यनिक्षेपके स्वरूपकी प्ररूपणामें आचार्य इस प्रकार कहते हैं। जिसका खुलासा यह है कि यहां पर पुद्गलद्रव्यके अवलं. बनसे जीवद्रव्यके पर्यायोंमें-परिणमन विधानका कथन किया जाता है। जीवद्रव्य दो प्रकारका है, संसारी व मुक्त । इनमें मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे परिणत जीव संसारी है । वह जीवविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और पुद्गलविपाकी कर्मपुद्गलोंको बांधकर अनन्तर उनके निमित्तसे पूर्वोक्त छह प्रकारके फलरूप अनेक प्रकारकी पर्यायोंमें संसरण करता है, अर्थात् फिरता है । इन पर्यायोंका परिणमन पुद्गळके निमित्तसे होता है । पुनः मुक्तजीवके इस प्रकारका परिणमन नहीं पाया जाता है। किन्तु वह अपने स्वभावसे ही पर्यायान्तरको प्राप्त होता है। ऐसी स्थितिमें 'जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वतरपडिबद्धो इदि ' अर्थात् — जिस द्रव्यका स्वभाव द्रव्यान्तरसे प्रतिबद्ध है ' इति ।
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सत्कर्मपंचिका परिचय
इस प्रकरण के मिलान के लिए हमने वीरसेन स्वामीके धवलान्तर्गत निबन्धन अधिकारको निकाला । वहां आदि में ही निबंधन के छह निक्षेपोंका कथन विद्यमान है और उनमें तृतीय द्रव्यनिक्षेपका कथन शब्दशः ठीक वही है जो पंजिकाकारने अपने अर्थ देनेसे ऊपरकी पंक्ति में उद्धृत किया है और उसीका उन्होंने अर्थ कहा है । यथा—
निबंधणेति अणियोगद्दारे निबंधणं ताव अपयदणिबंधणणिराकरणटुं णिक्खिवियब्वं । तं जहाणामणिबंधणं, ठवणणिबंधणं, दब्वणिबंधणं, खेत्तणिबंधणं, कालणिबंधणं, भावणिबंधणं चेदि छविहं णिबंधणं होदि ।
इसके पश्चात् नाम और स्थापना निबंधनका स्वरूप बतलाया गया है और उसके पश्चात् द्रव्यनिबंधन का वर्णन इस प्रकार है
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जं दब्वं जाणिदव्वाणि अस्सिदूण परिणमदि, जस्स या सहस्स ( दव्वस्स) सहावो दव्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणं । ( धवला क. प्रति, पत्र १२६० ) प्रतिमें ' सदस्स ' पद अशुद्ध है, वहां 'दव्वस्स' पाठ ही होना चाहिए। यहां वाक्य के ये शब्द ' जस्स वा दव्बस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो ' ठीक वे ही हैं, जो पंजिकामें भी पाये जाते हैं, और इन्हीं शब्दों का पंजिकाकारने 'एत्थ जीवदव्वस्स सहावो णाणदंसणाणि' आदि वाक्यों में अर्थ किया है । यथार्थतः जितना वाक्यांश पंजिकामें उद्धृत है, उतने परसे उसका अर्थ व्यवस्थित करना कठिन है । किन्तु धवला के उक्त पूरे वाक्यको देखनेमात्र से उसका रहस्य एकदम खुल जाता है । इसपर से पंजिकाकारकी शैली यह जान पड़ती है कि आधारग्रन्थके सुगम प्रकरणको तो उसके अस्तित्वकी सूचनामात्र देकर छोड़ देना, और केवल कठिन स्थलोंका अभिप्राय अपने शब्दों में समझाकर और उसी सिलसिले में मूलके विवक्षितपदों को लेकर उनका अर्थ कर देना । इस परसे पंजिकाकारकी उस प्रतिज्ञाका भी स्पष्टीकरण हो जाता है, जहां उन्होंने कहा है कि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमध्ये थोरुद्वयेण पंचियसरूवेण भणिस्सामो ' अर्थात् उन अठारह अनुयोगद्वारोंका विषय बहुत गहन होनेसे हम उनके अर्थकी दृष्टिसे विषमपदोंका व्याख्यान करते हैं, और ऐसा करने में मूलके केवल थोड़ेसे उद्धरण लेंगे । यही पंचिकाका स्वरूप है । मूलप्रन्थके वाक्योंको अपनी वाक्यरचनामें लेकर अर्थ करते जाना अन्य टीकाग्रन्थों में भी पाया जाता है । उदाहरणार्थ, विधानन्दिकृत अष्टसहस्री में अकलंकदेवकृत अष्टशती इसीप्रकार गुंथी हुई है। पंजिकाकी यह विशेषता है कि उसमें पूरे ग्रन्थका समावेश नहीं किया जाता, केवल विषमपदको प्रहण कर समझाया जाता है ।
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सत्कर्मपंचिका उक्त अवतरणके पश्चात् शास्त्रीजीने लिखा है
" इस प्रकार छह द्रव्योंके पर्यायान्तरका परिणमन विधान- विवरण होनेके बाद निम्न प्रकार प्रतिज्ञा वाक्य है
संपहि पक्कमाहियारस्स उक्कस्सपकमदब्वस्स उत्तप्पा बहुगविवरणं कस्सामो । तं जहा- अप्प चक्खाणमाणस्स उक्कस्सपक्कम दव्वं थोवं । कुदो १" इत्यादि ।
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
आगे चलकर कहा गया है
चचारि आउगाणं णीचुच्चागोदाणं पुणो एक्कारस-पयडीणं सगसेसछप्पण्णबंधपयडिसूचयणमिदि। चउसट्रिपयडीणमप्पाबहुगं गंथयारेहि परविदं । अम्हेहि पुणो सूचिदपयडीणमप्पाबहगं गंथ उत्तप्पाबहुगबलेण परूविदं । ............एवं पक्कमाणिओगो गदो।
आगे चलकर पुनः आया है
एत्थ पयडीसु जहण्णपक्कमदव्वाणं अप्पाबहुगं उच्चदे। तं जहा-सम्वत्थोवमपञ्चक्खाणमाणे पक्कमदग्वं । कुदो ? इत्यादि ।
यहां उपर्युक्त निबंधन अधिकारके पश्चात् प्रक्रम अधिकारका प्रारम्भ बतलाया है और क्रमशः उसके उत्कृष्ट और जघन्य प्रक्रम द्रव्यके अल्पबहुत्वका कथन किया है, तथा इस बातकी सूचना की है कि चौंसठ प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व प्रन्थकारने स्वयं कर दिया है, अतः हम यहाँ केवल उनके द्वारा सूचित प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व उक्त ग्रंथोक्त अल्पबहुत्वके बलसे करते हैं। धवलामें भी निबंधन अनुयोगद्वारके पश्चात् आठवें अनुयोग प्रक्रमका वर्णन है, और वहां उत्तरप्रकृतिप्रक्रमके उत्कृष्टउत्तरप्रकृतिप्रक्रम और जघन्यउत्तरप्रकृतिप्रक्रम ऐसे दो भेद करके वर्णन प्रारम्भ किया गया है । तथा वहां वह सब अल्पबहुत्व पाया जाता है जो पंचिकाकारने स्वीकार किया है और जिसके सम्बन्धमें शंकादि उठाकर उचित समाधान किया है।
उत्तरपय डिपक्कमो दुविहो, उक्कस्सउत्तरपयडिपक्क्रमो जहण्णउत्तरपयडिपक्कमो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । सव्वत्थोवं अपच्चक्खाणकसायमाणपदेसग्गं। अपच्चक्खाणकोधे विसेसाहिया।......... जहण्णए पयदं । सम्वत्थोवमपच्चक्खाणमाणे पक्कमदव्वं । कोधे विसेसाहिया। ......... एवं पकमे त्ति समत्तमणिओगद्दारं । (धवला क. प्रति, पत्र १२६६-६७)
प्रक्रम अधिकारके पश्चात् पंचिकामें उपक्रमका वर्णन इस प्रकार प्रारंभ होता है--
उवक्कमो चउब्विहो-बंधणोवक्कमो उदीरणोवकमो उवसामणोवक्कमो विपरिणामोवक्कमो चेदि । तत्थ बंधणोवक्कमो चउविहो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधणोवक्कमणभेदेण । पुणो एदेसिं चउणं पि बंधणोवक्रमाणं अस्थो जहा सत्तकम्मपाहुडम्मि उत्तो तहा वत्तव्यो। सत्तकम्मपाहुडम्मि णाम कदम ! महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउव्वीसमणियोगद्दारेसु विदियाहियारो वेदणा णाम । तस्स सोलसाणियोगद्दारेसु चउत्थ-छट्टम-सत्तमणियोगद्दाराणि दध-काल-भावविहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडिणामाहियारो। तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि अट्टकम्माणं पयडि-ट्रिदि-अणुभाग-पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडि-टिदि-अणुभाग-पदेससत्तत्तादो । एदाणि सत्तकम्मपाहुडं णाम | मोहणीयं पडुच्च कसायपाहुडं पि होदि । (सत्कर्मपंचिका)
यहां उपक्रमके चार भेदोंका उल्लेख करके प्रथम बंधन उपक्रमके, पुनः प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चार प्रभेदोंके विषयमें यह बतलाया गया है कि इनका अर्थ जिसप्रकार संतकम्मपाहुडमें किया गया है उसप्रकार करना चाहिए। उस संतकम्मपाहुडसे भी प्रकृतमें वेदनानुयोगद्वारके तीन और प्रकृति अनुयोगद्वारके चार अधिकारोंसे अभिप्राय है। यहां भी पंचिकाकार स्पष्टतः धवलाके निम्न उल्लिखित प्रकरणका विवरण कर रहे हैं
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सत्कर्मपंचिका परिचय
जो सो कम्मोवक्कमो सो चउम्विहो, बंधणउवक्कमो उदीरणउवक्कमो उवसामणउवक्कमो विपरिणामउवक्कमो चेदि ।...... जो सो बंधणउवक्कमो सो चउब्विहो, पयडिबंधणउवक्कमो ठिदिबंधणउवकमो अणुभागबंधणउवकमो पदेसबंधणउवक्कमो चेदि ।...... एत्थ एदोस चउण्हमुवकमाणं जहा संतकम्मपयडिपाहुडे परविदं तहा परूवेयव्वं । जहा महाबंधे परूविदं, तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे? ण, तस्स पढमसमयबंधम्मि चेव वावारादो । ण च तमेत्थ वोत्तुं जुतं, पुणरत्तदोसप्पसंगादो । (धवला क. पत्र १२६७)
यहां जो बंधनके चारों उपक्रमोंका प्ररूपण महाबंधके अनुसार न करके संतकम्मपाहुडके अनुसार करनेका निर्देश किया गया है, उसीका पंचिकाकारने स्पष्टीकरण किया है कि महाकम्मपयडिपाहुडके किन किन विशेष अधिकारोंसे यहां संतकम्मपाहुड पदद्वारा अभिप्राय है।
पंचिकामें उपक्रम अधिकारके पश्चात् उदयअनुयोगद्वारका कथन है जैसा उसके अन्तिम भागके अवतरणसे सूचित होता है । यथा--
उदयाणियोगद्दारं गदं।
यहांके कोई विशेष अवतरण हमें उपलब्ध नहीं हुए। अतः धवलासे मिलान नहीं किया जा सका । तथापि उपक्रमके पश्चात् उदय अनुयोगद्वारका प्ररूपण तो है ही। उक्त पंचिका यहीं समाप्त हो जाती है। इससे जान पड़ता है कि इस पंचिकामें केवल निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम
और उदय, इन्हीं चार अधिकारोंका विवरण है । शेष मोक्ष आदि चौदह अनुयोगोंका उसमें कोई विवरण यहां नहीं है। इससे जान पड़ता है कि यह पंचिका भी अधूरी ही है, क्योंकि पांचकाकी उत्थानिकामें दी गई सूचनासे ज्ञात होता है कि पंचिकाकार शेष अठारहों अधिकारोंकी पंचिका करनेवाले थे। शेष ग्रन्थभाग उक्त प्रतिमें छूटा हुआ है, या पंचिकाकारद्वारा ही किसी कारणसे रचा नहीं गया, इसका निर्णय वर्तमानमें उपलब्ध सामग्री परसे नहीं हो सकता।
यह पंचिका किसकी रची हुई है, कब रची गई, इत्यादि खोजकी सामग्रीका भी अभी अभाव है । पंचिका प्रतिकी अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है--
श्री जिनपदकमलमधुव्रतननुपम सत्पात्रदाननिरतं सम्यक्वनिधानं कित्ते वधू
मनसिजनेने शांतिनाथ नेसेदं धरैयोल ॥ घरेयोल्.........पुरजिदनुपमं चारुचारित्रनादुन्नतधैर्य सादिपर्यंत रदिय नेनिसि पंपिंगुणानीकदि .........सद्भक्तियादेशदि सत्कर्मदा पंचियं विस्तरदिं श्रीमाधणंदिवतिगे बरेसिदं रागदिं शांतिनाथं ॥
उदविदमुददि सरकमंद पंजियननुपमाननिर्वाणसुखप्रदम बरेथिसि शान्तं
मदरहितं माषणंदियतिपतिगित्तं ॥ श्री माघनंदिसिद्धान्तदेवगै सत्कर्मपंजियं श्रीमददयादित्यं प्रतिसमानं बरेदं ॥ मंगलं महा॥ पं. लोकनाथजी शास्त्रीकी सूचनानुसार इस " अन्तिम प्रशस्तिमें दो तीन कानडीमें
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना कंदवृत्त पध हैं जो कि शान्तिनाथ राजाके प्रशंसात्मक पद्य हैं । उक्त राजाने ' सत्कर्मपंचिका ' को बिस्तारसे लिखवाकर भक्ति के साथ श्री माघनंद्याचार्यजीको दे दिया। प्रति लिखनेवाला श्री उदयादित्य है।" इसके ताडपत्रोंकी संख्या २७ और ग्रन्थ-प्रमाण लगभग ३७२६ श्लोकके है।
__ ३ महाबंध-परिचय मूडबिद्रीकी महाधवल नामसे प्रसिद्ध ताडपत्रीय प्रतिके पत्र २७ पर पूर्वोक्त सत्कर्मपंजिका समाप्त हुई है । २८ वां ताड़पत्र प्राप्त नहीं है । आगे जो अधिकार-समाप्तिकी व नवीन अधि. कार-प्रारंभकी प्रथम सूचना पाई जाती है वह इसप्रकार है
एवं पगदिसमुक्कित्तणा समत्तं (त्ता)। जो सो सवबंधो णो सब्वबंधो...इत्यादि । तथा ' एवं कालं समत्तं ' ' एवं अंतरं समत्तं ' इत्यादि ।
पं. लोकनाथजी शास्त्रीके शब्दोंमें 'इस रीतिसे भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्वका वर्णन है'। अल्पबहुत्वकी समाप्ति-पुष्पिका इसप्रकार है
एवं परत्थाणअद्धाअप्पाबहुगं समत्तं । एवं पगदिबंधो समत्तो ।
इस थोड़ेसे विवरणसे ही अनुमान हो जाता है कि प्रस्तुत ग्रंथरचना महाबंधके विषयसे संबन्ध रखती है । हम प्रथम भागकी भूमिकाके पृष्ठ ६७ पर धवला और जयधवलाके दो उद्धरण दे चुके हैं, जिनमें कहा गया है कि महाबंधका विषय बंधविधानके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चारों प्रकारोंका विस्तारसे वर्णन करना है। इन प्रकारोंका कुछ और विषय-विभाग धवला प्रथम भागके पृष्ठ १२७ आदि पर पाया जाता है जहां जीवडाणकी प्ररूपणाओंका उद्गमस्थान बतलाते हुए कहा गया है
, बंधावहाणं चउन्विहं । तं जहा-पयडिबंधो टिदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधी चेदि । तत्थ जो सो पयडिबंधो सो दुविहो, मूलपयडिबंधो उत्तरपयडिबंधो चेदि । तत्थ जो सो मूलपयडिबंधो सो थप्पो। जो सो उत्तरपयाडिबंधो सो दुविहो, एगेगुत्तरपयडिबंधो अवोगाढउत्तरपयडिबंधो चेदि । तत्थ जो सो एगेगुत्तरपयडिबंधो तस्स चउवीस आणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति | तं जहा-समुश्कित्तणा सब्यबंधो णोसव्वबंधो अक्कस्सबंधो अणुक्कस्सबंधो जहण्णबंधो अजहण्णबंधो सादियबंधो अणादियबंधो धुवबंधी अद्धवबंधो बंध. सामित्तविचयो बंधकालो बंधंतर बंधसणियासो णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागाणुगमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ।
यहां प्रकृतिबंध विधानके एकैकोत्तरप्रकृतिबंधके अन्तर्गत जो अनुयोगद्वार गिनाये गये हैं, उनमेंसे आदिके समुत्कीर्तना सर्वबंध और नोसर्वबंध, इन तीन, तथा अन्तके भंगविचयादि नौ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख महाधवलाकी उक्त ग्रंथरचनाके परिचयमें भी पाया जाता है । अतः यह भाग महाबंधके प्रकृतिबंधविधान अधिकारकी रचनाका अनुमान किया जा सकता है। यह प्रकृतिबंध ताड़पत्र ५० पर अर्थात् २३ पत्रोंमें समाप्त हुआ है ।
प्रकृतिबंध अधिकारकी समाप्तिके पश्चात् महाधवलमें ग्रंथरचना इसप्रकार है
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महाबंध - परिचय
' णमो अरिहंताणं ' इत्यादि
एथो ठिदिबंधो दुविधो, मूलपगदिठिदिबंधो चेव उत्तरपगडिठिदिबंधो चेव । एत्थो मूलपगीडठिदिबंधो पुग्वगमणिज्जो | तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - ठिदिबंधठाणपरूवणा, णिसेयपरूवणा अद्धाकंडयपरूवणा अप्पाबहुगेति । एवं भूयो ठिदिअप्पाबहुगं समत्तं । एवं मूलपगदिठिदिबंध (धे) चउग्वीसमणियोगद्दारं समतं ।
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भुजगार बंधेत्ति ।............
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इस प्रकार भुजगारबंध प्रारंभ होकर काल, अन्तर इत्यादि अल्पबहुत्व तक चला गया है । ' एवं जीवसमुदाहरेति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं ठिदिबंधं समतं ।
बंधविधानके इस स्थितिबंधनामक द्वितीय प्रकारका भी कुछ परिचय धवला प्रथम भागसे मिलता है । पृ. १३० पर कहा गया है-
हिदिबंधो दुविहो, मूलपयडिट्ठिदिबंधो उत्तरपयडिट्ठिदिबंधो वेदि । तत्थ जो सो मूलपयडिट्टिदिबंधो सो थप्पो । जो सो उत्तरपयडिद्विदिबंधो तस्स चउवीस अणियोगद्दाराणि । तंजहा- अद्धाछेदो, सब्वबंधी...... इत्यादि ।
यहां स्थितिबंधके मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति, इसप्रकार दो भेद करके उनमें से प्रथमको अप्रकृत होने के कारण छोड़कर प्रस्तुतोपयोगी द्वितीय भेदके चौवीस अनुयोगद्वार बतलाये गये हैं । इनसे पूर्वोक्त महाधलकी रचना महाबंध से संबंधकी सूचना मिलती है ।
यह स्थितिबंध ताड़पत्र ५१ से ११३ अर्थात् ६३ पत्रों में समाप्त हुआ है ।
इनसे आगे महाघवलमें क्रमशः अनुभागबंध और फिर प्रदेशबंधका विवरण पाया जाता है । यथा——
एवं जीवसमुदाहरेत्ति समत्तमणियोगद्वाराणि । एवं उत्तरपगदिअणुभागबंधो समत्तो । एवं अणुभागबंधो समत्तो । x × × ×
जो सो पदेसबंध सो दुविधो, मूलपगदिपदेसबंधी चेव उत्तरपगदिपदेसबंधी चैव । एत्तो मूलपयदिपदेसबंधी पुण्वं गमणीयो भागाभागसमुदाहारो अट्टविधबंधगस्स आउगभावो x x x x एवं अध्याबहुगं समतं । एवं जीवसमुदाहारेत्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं पदेसबंधं समत्तं ।
एवं बंधविधाणेत्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं चदुबंधो समत्तो भवदि ।
अनुभागबंध ताड़पत्र ११४ से १६९ अर्थात् ५६ पत्रोंमें, व प्रदेशबंध १७० से २१९ अर्थात् ५० पत्रों में समाप्त हुआ है ।
यहीं महाघवल प्रतिकी ग्रंथरचना समाप्त होती है। इस संक्षिप्त परिचयसे स्पष्ट है कि माधव प्रतिके उत्तर भागमें बंधविधानके चारों प्रकारों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका विस्तारसे वर्णन है, तथा उनके भेद-प्रभेदों व अनुयोगद्वारों का विवरण धवलादि ग्रंथोंमें संकेतित विषय-विभाग के अनुसार ही पाया जाता है । अतएव यही भूतबलि आचार्यकृत महाबंध हो सकता है। दुर्भाग्यतः इसके प्रारंभका ताड़पत्र अप्राप्य होनेसे तथा यथेष्ट अवतरण न मिलनेसे जितनी जैसी चाहिये उतनी छानबीन ग्रंथकी फिर भी नहीं हो सकी । तथापि अनुभागबंध-विधानकी समाप्ति के
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना पश्चात् प्रतिमें जो पांच छह कनाडीके कंद-वृत्त पद्य पाये जाते हैं, उनमें से एक शास्त्रीजीने पूरा उद्धृत करके भेजनेकी कृपा की है, जो इस प्रकार है
सकलधरित्रीविनुतप्रकटितयधीशे मल्लिकब्बे बरेसि सत्पुण्याकर-महाबंधद पु
स्तकं श्रीमाघनंदिमुनिगळि गित्तऴ् इस पद्यमें कहा गया है कि श्रीमती मल्लिकाम्बा देवीने इस सत्पुण्याकर महाबंधकी पुस्तकको लिखाकर श्रीमाघनन्दि मुनिको दान की। यहां हमें इस प्रन्थके महाबंध होनेका एक महत्त्वपूर्ण प्राचीन उल्लेख मिल गया । शास्त्रीजीकी सूचनानुसार शेष कनाड़ी पद्योंमेंसे दो तीनमें माधनन्याचार्यके गुणोंकी प्रशंसा की गई है, तथा दो पद्योंमें शान्तिसेन राजा व उनकी पत्नी मल्लिकाम्बा देवीका गुणगान है, जिससे महाबंध प्रतिका दान करनेवाली मल्लिकाम्बा देवी किसी शांतिसेन नामक राजाकी रानी सिद्ध होती हैं। ये शान्तिसेन व माघनन्दि निःसंदेह वे ही हैं जिनका सत्कर्मपंजिकाकी प्रशस्तिमें भी उल्लेख आया है। प्रतिके अन्तमें पुनः ५ कनाड़ाके पद्य हैं जिनमेंसे प्रथम चारमें माघनन्दि मुनीन्द्रकी प्रशंसा की गई है व उन्हें ' यतिपति' 'व्रतनाथ' व 'व्रतिपति' तथा ' सैद्धान्तिकाग्रेसर' जैसे विशेषण लगाये गये हैं। पांचवें पद्यमें कहा गया है कि रूपवती सेनवधूने श्रीपंचमीव्रतके उद्यापनके समय (यह शास्त्र ) श्रीमाघनन्दि व्रतिपतिको प्रदान किया । यथा
श्रीपंचमियं नोंतुध्यापनेयं माडि बरेसि राध्यांतमना ।
रूपवती सेनवधू जितकोप श्रीमाघनन्दि व्रतिपति गित्तल ॥ यहां सेनवधूसे शान्तिसेन राजाकी पत्नीका ही अभिप्राय है । नामके एक भागसे पूर्णनामको सूचित करना सुप्रचलित है |
यह अन्तकी प्रशस्ति वीरवाणीविलास जैनसिद्धान्त भवनकी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (१९३५) में पूर्ण प्रकाशित है।
उक्त परिचयमें प्रतिके लिखाने व दान किये जानेका कोई समय नहीं पाया जाता। शान्तिसेन राजाका भी इतिहासमें जल्दी पता नहीं लगता । माघनन्दि नामके मुनि अनेक हुए हैं जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोला आदिके शिलालेखोंमें पाया जाता है। जब शान्तिसेन राजाके उल्लेखादि संबन्धी पूर्ण पद्य प्राप्त होंगे, तब धीरे धीरे उनके समयादिके निर्णयका प्रयत्न किया जा सकेगा।
हम ऊपर कह आये हैं कि इस प्रतिमें महाबंध रचनाके प्रारंभका पत्र २८ वां नहीं है। शास्त्रीजीकी सूचनानुसार प्रतिमें पत्र नं.१०९,११४, १७३,१७४, १७६, १७७, १८३, १८४, १८५, १८६, १८८, १९७, २०८, २०९ और २१२ भी नहीं हैं । इसप्रकार कुल १६ पत्र नहीं मिल रहे हैं। किन्तु शास्त्रीजीकी सूचना है कि कुछ लिखित ताडपत्र विना पत्रसंख्याके भी प्राप्त हैं। संभव है यदि प्रयत्न किया जाय तो इनमेंसे उक्त त्रुटिकी कुछ पूर्ति हो सके।
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उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति
४ उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति पर कुछ और प्रकाश
प्रथम भागकी प्रस्तावना में' हम वर्तमान ग्रंथभाग अर्थात् द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा में के तथा अन्यत्र से तीन चार ऐसे अवतरणों का परिचय करा चुके हैं जिनमें ' उत्तरप्रतिपत्ति' और 'दक्षिणप्रतिपत्ति' इसप्रकार की दो भिन्न भिन्न मान्यताओंका उल्लेख पाया जाता है । वहां हम कह आये हैं कि 'हमने इन उल्लेखोंका दूसरे उल्लेखों की अपेक्षा कुछ विस्तारसे परिचय इस कारणसे दिया है क्योंकि यह उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तिका मतभेद अत्यन्त महत्वपूर्ण और विचारणीय है । संभव है इनसे धवलाकारका तात्पर्य जैनसमाजके भीतरकी किन्हीं विशेष सांप्रदायिक मान्यताओंसे ही हो यहां हमारा संकेत यह था कि संभवतः यह श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यता भेद हो और यह बात उक्त प्रस्तावना के अन्तर्गत अंग्रेजी वक्तव्यमें मैंने व्यक्त भी कर दी थी कि --
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"At present I am examining these views a bit more closely. They may ultimately turn out to be the Svetambara and Digambara Schools ". उक्त अवतरणों में दक्षिणप्रतिपत्तिको ' पवाइज्जमाण ' और ' आयरियपरंपरागय' भी कहा । अब श्रीजयधवलमें एक उल्लेख हमें ऐसा भी दृष्टिगोचर हुआ है जहां 'पवाइज्जंत ' तथा आइरियपरंपरागय' का स्पष्टार्थ खोलकर समझाया गया है और अज्जमंखुके उपदेशको वहां अपवाइज्नमाण ' तथा नागहस्ति क्षमाश्रमणके उपदेशको ' पत्राइजंत ' बतलाया है । यथा-
"
,
'
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को पुण पवाइजतोत्र एसो णाम वुत्तमेदं ? सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमन्त्रोच्छिष्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्लपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो ति भण्णदे | अथवा अज्जमंखुभयताणमुवएस एस्थापवाइज्जमाणो णाम । नागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतो त्ति घेत्तव्वो ।
( जयधवला अ. पत्र ९०८ )
अर्थात् यहां जो ' पवाइज्जत' उपदेश कहा गया है उसका अर्थ क्या है ? जो सर्व आचार्योंको सम्मत हो, चिरकालसे अव्युच्छिन्नसंप्रदाय - क्रमसे आ रहा हो और शिष्यपरंपरा से प्रचलित और प्रज्ञापित किया जा रहा हो वह ' पवाइज्जंत ' उपदेश कहा जाता है । अथवा, भगवान् अज्जमंखुका उपदेश यहां ( प्रकृत विषयपर ) अपवाइज्जमाण' है, तथा नागहस्तिक्षपणका उपदेश ' पवाइज्जंत' है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
अज्जमंखु और नागहस्तिके भिन्न मतोपदेशोंके अनेक उल्लेख इन सिद्धान्त ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं, जिनकी कुछ सूचना हम उक्त प्रस्तावना में दे चुके हैं । जान पड़ता है कि इन दोनों आचार्योंका जैनसिद्धान्तकी अनेक सूक्ष्म बातोंपर मतभेद था । जहां वीरसेनस्वामी के संमुख ऐसे मतभेद उपस्थित हुए, वहां जो मत उन्हें प्राचीन परंपरागत ज्ञात हुआ, उसे 'पवाइज्जमाण' कहा ।
१ षट्खंडागम भाग, १ भूमिका पृष्ठ ५७.
२ देखो पृ. ९२, ९४, ९८ आदि, मूल व अनुवाद.
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना तथा जिस मतकी उन्हें प्रामाणिक प्राचीन परंपरा नहीं मिली, उसे 'अपवाइजमाण' कहा है । प्रस्तुत उल्लेखसे अनुमान होता है कि उक्त प्रतिपत्तियोंसे उनका आभिप्राय किन्ही विशेष गढ़ी हुई मतधाराओंसे नहीं था। अर्थात् ऐसा नहीं था कि किसी एक आचार्यका मत सर्वथा 'अपवाइज्जमाण' और दूसरेका सर्वथा 'पवाइज्जमाण' हो। किंतु इन्हें दक्षिणप्रतिपत्ति और उत्तरप्रतिपत्ति क्यों कहा है यह फिर भी विचारणीय रह जाता है।
५ णमोकारमंत्रके सादित्व-अनादित्वका निर्णय । ___ द्वितीय भागकी प्रस्तावना (पृ. ३३ आदि ) में हम प्रगट कर चुके हैं कि धवलाकारने जीवट्ठाणखंड व वेदनाखंडके आदिमें जो शास्त्रके निबद्धमंगल व अनिबद्धमंगल होनेका विचार किया है उसका यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवट्ठाणके आदिमें णमोकारमंत्ररूप मंगल भगवान् पुष्पदंतकृत होनेसे यह शास्त्र निबद्धमंगल है, किन्तु वेदनाखंडके आदिमें णमो जिणाणं' आदि नमस्कारात्मक मंगलवाक्य होनेपर भी वह शास्त्र अनिबद्धमंगल है, क्योंकि वे मंगलसूत्र स्वयं भूतबलिकी रचना न होकर गौतमगणधरकृत हैं। वेदनाखंडमें भी निबद्धमंगलव तभी माना जा सकता है, जब वेदनाखंडको महाकर्मप्रकृतिपाहुड मान लिया जाय और भूतबलि आचार्यको गौतम गणधर , अन्य किसी प्रकारसे निबद्धमंगलव सिद्ध नहीं हो सकता। इस विवेचनसे धवलाकारका यह मत स्पष्ट समझमें आता है कि उपलब्ध णमोकारमंत्रके आदि रचयिता आचार्य पुष्पदंत ही हैं।
प्रथम भागमें उक्त विवेचनसंबन्धी मूलपाठका संपादन व अनुवाद करते समय हस्तलिखित प्रतियोंका जो पाठ हमारे सन्मुख उपस्थित था उसका सामञ्जस्य बैठाना हमारे लिये कुछ कठिन प्रतीत हुआ, और इसीसे हमें वह पाठ कुछ परिवर्तित करके मूलमें रखना पड़ा । तथापि प्रतियोंका उपलब्ध पाठ यथावत् रूपसे वहीं पादटिप्पणमें दे दिया था। (देखो प्रथम भाग पृ. ४१)। किंतु अब मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतिसे जो पाठ प्राप्त हुआ है वह भी हमारे पादटिप्पणमें दिये हुए प्रतियोंके पाठके समान ही है। अर्थात्---
“जो सुत्तस्सादीए सुकत्तारेण कयदेवताणमोकारो तं णिबद्धमंगलं | जो सुत्तस्सादीए सुसकत्तारेण णिबद्धदेवताणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं"
अब वेदनाखंडके आदिमें दिये हुए धवलाकारके इसी विषयसंबन्धी विवेचनके प्रकाशमें यह पाठ समुचित जान पड़ता है । इसका अर्थ इसप्रकार होगा
"जो सूत्रग्रंथके आदिमें सूत्रकारद्वारा देवतानमस्कार किया जाता है, अर्थात् नमस्कारवाक्य वयं रचकर निबद्ध किया जाता है उसे निबद्धमंगल कहते हैं । और जो सूत्रग्रंथके आदिमें सूत्रकारद्वारा देवतानमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है, अर्थात् नमस्कारवाक्य स्वयं न रचकर किसी अन्य आचार्यद्वारा पूर्वरचित नमस्कारवाक्य निबद्ध कर दिया जाता है, उसे अनिबद्धमंगल कहते हैं।"
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णमोकारमंत्रके सादित्व-अनादित्वका निर्णय इसप्रकार मूडबिद्रीकी प्रति व प्रचलित प्रतियोंके पाठकी पूर्णतया रक्षा हो जाती है, उसका वेदनाखंडके आदिमें किये गये विवेचनसे ठीक सामंजस्य बैठ जाता है, तथा उससे धवलाकारके णमोकारमंत्रके कर्तृत्वसंबन्धी उस मतकी पूर्णतया पुष्टि हो जाती है जिसका परिचय हम विस्तारसे गत द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें करा आये हैं । णमोकारमंत्रके कर्तृत्वसंबन्धी इस निष्कर्षद्वारा कुछ लोगोंके मतसे प्रचलित एक मान्यताको बड़ी भारी ठेस लगती है। वह मान्यता यह है कि णमोकारमंत्र अनादिनिधन है, अतएव यह नहीं माना जा सकता कि उस मंत्रके आदिकर्ता पुष्पदन्ताचार्य हैं । तथापि धवलाकारके पूर्वोक्त मतके परिहार करनेका कोई साधन व प्रमाण भी अबतक प्रस्तुत नहीं किया जा सका। गंभीर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि णमोकारमंत्रसंबन्धी उक्त अनादिनिधनत्वकी मान्यता व उसके पुष्पदन्ताचार्यद्वारा कर्तृत्वकी मान्यतामें कोई विरोध नहीं है । भावकी ( अर्थकी ) दृष्टिसे जबसे अरिहंतादि पंच परमेष्ठीकी मान्यता है तभीसे उनको नमस्कार करने की भावना भी मानी जा सकती है। किंतु णमो अरिहंताणं' आदि शब्दरचनाके कर्ता पुष्पदन्ताचार्य माने जा सकते हैं। इस बातकी पुष्टिके लिये मैं पाठकोंका ध्यान श्रुतावतारसंबन्धी कथानककी ओर आकर्षित करता हूं। धवला, प्रथम भाग, पृ.५५ पर कहा गया है कि
'सुत्तमोइपणं अस्थदो तित्थयरादो, गंथदो गणहरदेवादो ति'
अर्थात् सूत्र अर्थप्ररूपणाकी अपेक्षा तीर्थकरसे, और ग्रंथरचनाकी अपेक्षा गणधरदेवसे अवतीर्ण हुआ है।
यहां फिर प्रश्न उत्पन्न होता हैद्रव्यभावाभ्यामकृत्रिमस्वतः सदा स्थितस्य श्रुतस्य कथमवतार इति ?
अर्थात् द्रव्य-भावसे अकृत्रिम होनेके कारण सर्वदा अवस्थित श्रुतका अवतार कैसे हो सकता है !
इसका समाधान किया जाता है-- एतत्सर्वमभविष्यद्यदि द्रव्यार्थिकनयो ऽ विवक्षिष्यत् । पर्यायार्थिकनयापेक्षायामवतारस्तु पुनर्घटत एव ।
अर्थात् यह शंका तो तब बनती जब यहां द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा होती । परंतु यहाँपर पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा होनेसे श्रुतका अवतार तो बन ही जाता है।
आगे चलकर पृष्ठ ६० पर कर्ता दो प्रकारका बतलाया गया है, एक अर्थकर्ता व दूसरा ग्रंथकर्ता । और फिर विस्तारके साथ तीर्थंकर भगवान् महावीरको श्रुतका अर्थकर्ता, गौतम गणधरको द्रव्यश्रुतका ग्रंथकर्ता तथा भूतबलि-पुष्पदन्तको भी खंडसिद्धान्तकी अपेक्षा कर्ता या उपतंत्रकर्ता कहा है । यथा--
तत्थ कत्ता दुविहो, अत्थकत्ता गंथकत्ता चेदि। महावीरोऽर्थकर्ता।... एवंविधो महावीरोऽर्थकर्ता। ... तदो भावसुदस्स अस्थपदाणं च तिस्थयरो कत्ता । तिस्थयरादो सुदपजाएण गोदमो परिणदो ति दब
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
सुदस्स गोदमो कत्ता । ततो गंथरयणा जादेति ।...तदो एयं खंडसिद्धतं पडुछ भूदबलि-पुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चति । तदो मूलतंतकत्ता वड्डमाणभडारओ, अणुतंतकत्ता गोदमसामी, उवतंतकत्तारा भूदबलि-पुप्फ. यंतादयो वीयरायदोसमोहा मुणिवरा। किमर्थ कर्ता प्ररूप्यते ? शास्त्रस्य प्रामाण्यप्रदर्शनार्थम् , 'वक्त. प्रामाण्याद् वचनप्रामाण्यम् ' इति न्यायात् । (षटूखंडागम भाग १, पृष्ठ ६०-७२)
उसी प्रकार, स्वयं धवल ग्रंथ आगम है, तथापि अर्थकी दृष्टिसे अत्यन्त प्राचीन होनेपर भी उपलभ्य शब्दरचनाकी दृष्टिसे उसके कर्ता वीरसेनाचार्य ही माने जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि णमोकारमंत्रको द्रव्यार्थिक नयसे पुष्पदन्ताचार्यसे भी प्राचीन मानने व पर्यायार्थिक नयसे उपलब्ध भाषा व शब्दरचनाके रूपमें पुष्पदन्ताचार्यकृत माननमें कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । वर्तमान प्राकृत भाषात्मक रूपमें तो उसे सादि ही मानना पड़ेगा। आज हम हिन्दी भाषामें उसी मंत्रको 'अरिहंतोंको नमस्कार' या अंग्रेजीमें 'Bow to the Worshipful' आदि रूपमें भी उच्चारण करते हैं, किंतु मंत्रका यह रूप अनादि क्या, बहुत पुराना भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, हम जानते हैं कि स्वयं प्रचलित हिन्दी या अंग्रेजी भाषा ही कोई हजार आठसौ वर्षसे पुरानी नहीं है । हाँ, इस बातकी खोज अवश्य करना चाहिये कि क्या यह मंत्र उक्त रूपमें ही पुष्पदन्ताचार्यके समयसे पूर्वकी किसी रचनामें पाया जाता है ! यदि हां, तो फिर विचारणीय यह होगा कि धवलाकारके तत्संबंधी कथनोंका क्या अभिप्राय है। किन्तु जबतक ऐसे कोई प्रमाण उपलब्ध न हों तबतक अब हमें इस परम पावन मंत्रके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यको ही मानना चाहिये ।
६. शंका-समाधान षट्खंडागम प्रथम भागके प्रकाशित होनेपर अनेक विद्वानोंने अपने विशेष पत्रद्वारा अथवा पत्रोंमें प्रकाशित समालोचनाओंद्वारा कुछ पाठसम्बंधी व सैद्धान्तिक शंकाएं उपस्थित की हैं। यहां उन्हीं शंकाओंका संक्षेपमें समाधान करनेका प्रयत्न किया जाता है। ये शंका-समाधान यहां प्रथम भागके पृष्ठक्रम से व्यवस्थित किये जाते हैं।
पृष्ठ ६ १शंका--' वियलियमलमूढदसणुत्तिलया' में 'मलमूढ' की जगह 'मलमूल ' पाठ अधिक ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि सम्यग्दर्शनके पच्चीस मल दोषामें तीन मूढ़ता दोष भी सम्मिलित हैं।
(विवेकाभ्युदय, ता. २०-१०-४०) समाधान--'मलमूढ' पाठ सहारनपुरकी प्रतिके अनुसार रखा गया है और मूडबिद्रीसे जो प्रतिमिलान होकर संशोधन-पाठ आया है, उसमें भी ' मलमूढ' के स्थानपर कोई पाठ-परिवर्तन नहीं प्राप्त हुआ । तथा उसका अर्थ सर्व प्रकारके मल और तीन मूढताएं करना असंगत भी नहीं है।
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शंका-समाधान
"
' पाठ है, जिसका अनुवाद
में 'महु २ शंका - - गाथा ४ 'मुझपर ' किया गया है । समझमें नहीं आता कि यह अनुवाद कैसे ठीक हो सकता है, जब कि 'महु' का संस्कृत रूपान्तर 'मधु' होता है !
( विवेकाभ्युदय, ता० २० - १०-४० ) समाधान - प्रकृत में ' महु' का संस्कृत रूपान्तर ' मह्यम् ' करना चाहिए | देखो हैम व्याकरण 'महु मज्झु ङसि ङभ्याम् ८, ४, ३७९. इसीके अनुसार मुझपर ऐसा अर्थ
6
किया गया है ।
I
३ शंका - गाथा ४ में ' दाणवरसीहो ' पाठ है । पर उसमें नाश करनेका सूचक 'हर ' शब्द नहीं है । ' वर ' की जगह ' हर ' रखना चाहिए था । (विवेकाभ्युदय, ता०२०-१०-४०) समाधान - हमारे सन्मुख उपस्थित समस्त प्रतियोंमें ' दाणवरसीहो ' ही पाठ था और मूडबिद्री से उसमें कोई पाठ - परिवर्तन नहीं मिला। तब उसमें 'वर' के स्थानपर जबरदस्ती 'हर ' क्यों कर दिया जाय, जब कि उसका अर्थ ' हर ' के बिना भी सुगम है ? ' वादीभसिंह ' आदि नामोंमें विनाशबोधक कोई शब्द न होते हुए भी अर्थमें कोई कठिनाई नहीं आती ।
,
पृष्ठ ७
४ शंका - गाथा ५ में ' दुकयंतं ' पाठ है जिसका अर्थ किया गया है ' दुष्कृत अर्थात् पापों का अन्त करनेवाले ' यह अर्थ किसप्रकार निकाला गया, उक्त शब्दका संस्कृत रूपान्तर क्या है, यह स्पष्ट करना चाहिए । (विवेकाम्युदय, २०-१०-४० ) का संस्कृत रूपान्तर है ' दुष्कृतान्त ' जिसका अर्थ दुष्कृत सुस्पष्ट है ।
समाधान -- ' दुकयंतं अर्थात् पापोंका अन्त करनेवाले
५ शंका - गाथा ५ में ' - वई सया देतं ' पाठ है, जिसका रूपान्तर होगा ' - पति सदा दन्तं ' । इसमें हमें समझ नहीं पड़ता कि ' दन्त' शब्दसे इंद्रियदमनका अर्थ किसप्रकार लाया जा सकता है ? ( विवेकाभ्युदय, २०- १०-४० )
समाधान - प्राकृत में ' दंतं ' शब्द ' दान्त' के लिये भी आता है । यथा, दंतेन चितेण चरंति धीरा ' ( प्राकृतसूक्तरत्नमाला ) पाइअसद्दमहण्णओ कोषमें ' दंत' का अर्थ ' जितेन्द्रिय ' दिया गया है । इसीके अनुसार ' निरन्तर पंचेन्द्रियों का दमन करनेवाले ' ऐसा अनुवाद किया गया है ।
1
६ शंका- गाथा ६ में ' विणिहयवम्महपसरं ' का अर्थ होना चाहिये ' जिन्होंने ब्रह्माद्वैतकी व्यापकताको नष्ट कर दिया है और निर्मलज्ञान के रूपमें ब्रह्मकी व्यापकताको बढ़ाया है ' । ( विवेकाभ्युदय, २०-१०-४० >
"
समाधान - जब काव्य में एकही शब्द दो वार प्रयुक्त किया जाता है तब प्रायः दोनों जगह उसका अर्थ भिन्न भिन्न होता है । किन्तु उक्त अर्थमें ' वम्मह' का अर्थ दोनों जगह 'ब्रह्म' ले लिया गया है, और उनमें भेद करनेके लिए एकमें 'अद्वैत' शब्द अपनी ओरसे डाला गया
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
है, जिसके लिए मूलमें सर्वथा कोई आधार नहीं है । प्राकृत में ' वम्मह ' शब्द ' मन्मथ ' के लिए आता है । हैम प्राकृतव्याकरण में इसके लिए एक स्वतंत्र सूत्र भी है- ' मन्मथे वः ८, १, २४२. इसकी वृत्ति है — मम्मथे मस्य वो भवति, वम्महो ' । इसीके अनुसार हमने अनुवाद किया है, जिसमें कोई दोष नहीं ।
पृष्ठ १५
७ शंका - आगमे मूले ' सम्मइसुत्ते ' इति लिखितमस्य भवद्भिरर्थः कृतः ' सम्मतितर्फे ' । सम्मतितर्काख्यं श्वेताम्बरीयग्रन्थमस्ति, तस्य निर्देश आचार्यैः कृतः वा सम्महसुतं नाम किमपि दिगम्बरीयं ग्रन्थं वर्तते ? ( पं. झम्मनलालजी तर्कतीर्थ, पत्र ता. ४-१-४१ ) अर्थात् मूलके ' सम्मइत्ते ' से सम्मतितर्कका अर्थ लिया है जो श्वेताम्बरीय ग्रंथ है । आचार्यने उसीका उल्लेख किया है या इस नामका कोई दिगम्बरीय ग्रंथ भी है ! समाधान - णामं ठवणा दवियं ' इत्यादि गाथा उद्धृत करके जो सन्मति सूत्रका उल्लेख किया है वह सन्मतितर्क नामका प्राप्त ग्रन्थ ही प्रतीत होता है, क्योंकि यह गाथा तथा उससे पूर्व उद्घृत चार गाथाएं वहां पाई जाती हैं | सन्मतितर्क के कर्ता सिद्धसेनका स्मरण महापुराण आदि अनेक ' दिगम्बर प्रन्थोंमें भी पाया जाता है, जिससे अनुमान होता है कि ये आचार्य दोनों सम्प्रदायोंमें माम्य रहे हैं । इससे अन्य कोई ग्रन्थ इस नामका जैन साहित्य में उपलब्ध भी नहीं है ।
पृष्ठ १९
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८ शंका - वच्चस्थणिरवेक्खो मंगलसद्दो णाममंगलं ' इत्यत्र तस्य मंगलस्याधारविषयेष्वष्टविधेष्वजीवाधारकथने भाषायां जिनप्रतिमाया उदाहरणं प्रदत्तं तत्कथं संगच्छते ? अजीवोदाहरणे जिनभवनमुदाह्रियतामिति । ( पं. झम्मनलाल जी तर्कतीर्थ, पत्र ता. ४-१-४१ ) अर्थात् नाममंगलके आठ प्रकार के आधार - कथन में भाषानुवादमें अजीव आधारका उदाहरण जिनप्रतिमाका दिया गया है, सो कैसे संगत है ? जिनभवनका उदाहरण अधिक ठीक था ?
समाधान - धवलाकारने नाममंगलका जो लक्षण दिया है और उसके जो आधार बतलाये हैं, उनसे तो यही ज्ञात होता है कि एक या अनेक चेतन या अचेतन मंगल द्रव्य नाममंगलके आधार होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हम पार्श्वनाथ तीर्थंकरका नामोच्चारण करें तो यह एक जीवाश्रित नाममंगल होगा । यदि हम चौवीस तीर्थकरों का नामोच्चारण करें तो यह अनेक जीवाश्रित नाममंगल होगा । यदि हम अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ, या केशरियानाथ आदि प्रतिमाओंका नामोच्चारण करें तो यह अजीवाश्रित नाममंगल होगा, इत्यादि । इस प्रकार जिनप्रतिमा माममंगलका आधार बन जाती है, जिसका कि उसी पृष्ठपर दी हुई टिप्पणियों से यथोचित समर्थन हो जाता है । इसी प्रकार पंडितजी द्वारा सुझाया गया जिनमन्दिर भी अजीव नाममंगलका आधार माना जा सकता है ।
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शंका-समाधान
पृष्ठ २९
९ शंका - पृ० २९ पर क्षेत्रमंगलके कथनमें लिखा है ' अर्धाष्टारत्न्यादि पंचविंशत्युत्तरपंचधनुःशतप्रमाणशरीर ' जिसका अर्थ आपने 'साढ़े तीन हाथसे लेकर ५२५ धनुष तकके शरीर' किया है, और नीचे फुटनोटमें ' अर्धाष्ट इत्यत्र अर्ध चतुर्थ इति पाठेन भाग्यम्' ऐसा लिखा है । सो आपने यह कहांसे लिखा है और क्यों लिखा है ? ( नानकचंदजी, पत्र १ - ४-४० ) समाधान -- केवलज्ञानको उत्पन्न करनेवाले जीवोंकी सबसे जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ ( अरत्नि) और उत्कृष्ट अवगाहना पांचसौ पच्चीस धनुष प्रमाण होती है । सिद्धजीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना इसीलिए पूर्वोक बतलाई है । इसके लिए त्रिलोकसारकी गाथा १४१ - १४२ देखिये | संस्कृतमें साढ़े तीनको 'अर्धचतुर्य' कहते हैं । इसी बात को ध्यान में रखकर ‘ अर्घाष्ट ' के स्थानमें ' अर्धचतुर्थ ' का संशोधन सुझाया गया है, वह आगमानुकूल भी है । ' अधीष्ट' का अर्थ ' साढ़े सात ' होता है जो प्रचलित मान्यता के अनुकूल नहीं है । इसी भागके पृष्ठ २८ की टिप्पणीकी दूसरी पंक्ति में त्रिलोकप्रज्ञप्तिका जो उद्धरण ( आढट्ठहत्यपहुदी ) दिया है उससे भी सुझाए गये पाठकी पुष्टि होती है ।
२१
पृष्ठ ३९
१० शंका - धवलराजमें क्षयोपशमसम्यक्त्वकी स्थिति ६६ सागरसे न्यून बतलाई है, जब कि सर्वार्थसिद्धिमें पूरे ६६ सागर और राजवार्तिक में ६६ सागर से अधिक बतलाई है ? इसका क्या कारण है ! ( नानकचंदजी, पत्र १-४-४१ )
समाधान - सर्वार्थसिद्धिमें क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति पूरे ६६ सागर वा राजवार्तिक में सम्यग्दर्शनसामान्यकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक ६६ सागर और धवला टीका पृ. ३९ पर सम्यग्दर्शन की अपेक्षा मंगलकी उत्कृष्ट स्थिति देशोन छयासठ सागर कही है । इस मतभेदका कारण जानने के पूर्व ६६ सागर किस प्रकार पूरे होते हैं, यह जान लेना आवश्यक है ।
कारने जीवाण खंडको अन्तरप्ररूपणा में ६६ सागरकी स्थितिके पूरा करने का क्रम इसप्रकार दिया है:
एको तिरिक्खो मणुसो वा लंतव-काविट्ठवासियदेवेषु चोइससागरोवमा उडिदिएसु उप्पण्णो । एक सागरोवमं गमिय विदियसागरोवमादिसमए सम्मतं पडिवष्णो । तेरस सागरोवमाणि तस्थ अच्छिय सम्मत्तेन सह खुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुवालिय मणुसाउएणूग-बावीस सागरोवममाउट्ठिदिएस आरणच्ददेवेसु उववष्णो । तत्तो चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजममणुसारिय उवरिमगेवज्जे देवेसु मणुसाउगेणूणएकतीस सागरोवमाउट्ठिदीएस उबवण्णो । अंतो मुहुत्तूणछावद्विसागरोवमचरिमसमए परिणाम पच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो | x x x एसो उपचिक्रमो अउप्पण्ण उपायण उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्टी पूरेदम्वा ।
अर्थात् — कोई एक तिथंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपमकी आयुस्थितिवाले लान्सव
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२२
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
कापिष्ठ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहाँपर एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपमके आदि समय में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और तेरह सागरोपम तक वहां रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत होकर मनुष्य हो गया । उस मनुष्यभवमें संयमको अथवा संयमासंयमको परिपालनकर इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण - अच्युत कल्पके देवोंमें उत्पन्न हुआ | वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ । इस मनुष्य भवमें संयमको धारण कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले अहमिन्द्र देवों में उत्पन्न हुआ । वहां पर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपमके अन्तिम समयमें परिणामों के निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । x x x यह उत्पत्तिक्रम अव्युत्पन्नजनोंके व्युत्पादनार्थ कहा है । परमार्थसे तो जिस किसी भी प्रकारसे छयासठ सागरोपमकालको पूरा करना चाहिए ।
सर्वार्थसिद्धिकार जो क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकी स्थिति पूरे ६६ सागर बता रहे हैं, वह षट्खंडागम के दूसरे खंड खुद्द बंधके आगे बताये जानेवाले सूत्रों के अनुसार ही है, उसमें धवला से कोई मतभेद नहीं है । भेद केवल धवलाके प्रथम भाग पृ. ३९ पर बताई गई देशोन ६६ सागरकी स्थिति से है । सो यहां पर ध्यान देनेकी बात यह है कि धवलाकार वेदकसम्यक्त्व या सम्यक्त्वसामान्यकी स्थिति नहीं बता रहे हैं, किन्तु मंगलकी उत्कृष्ट स्थिति बता रहे हैं, और वह भी सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे, जिसका अभिप्राय यह समझ में आता है कि सम्यक्त्व होने पर जो असंख्यातगुणश्रेणी कर्म - निर्जरा सम्यक्त्वी जीवके हुआ करती है, उसीकी अपेक्षा मं+गल अर्थात् पापको गलानेवाला होनेसे वह सम्यक्त्व मंगलरूप है, ऐसा कहा गया है । किन्तु जो जीव ६६ सागर पूर्ण होनेके अन्तिम मुहूर्तमें सम्यक्त्वको छोड़कर नीचे के गुणस्थानों में जा रहा है, उसके सम्यक्त्वकालमें होनेवाली निर्जरा बंद हो जाती है, क्योंकि परिणामों में संक्लेशकी वृद्धि होनेसे वह सम्यक्त्वसे पतनोन्मुख हो रहा है । अतएव इस अन्तिम अन्तर्मुहूर्तसे कम ६६ सागर मंगलकी उत्कृष्ट स्थिति बताई गई प्रतीत होती है ।
अब रही राजवार्त्तिकमें बताये गये साधिक ६६ सागरोपमकालकी बात सो उस विषय में एक बात खास ध्यान देनेकी है कि राजवार्त्तिककार जो साधिक छ्यासठ सागरकी स्थिति बता रहे हैं वह क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकी नहीं बता रहे हैं किन्तु सम्यग्दर्शनसामान्यको ही बता रहे हैं, और सम्यग्दर्शनसामान्यकी अपेक्षा वह अधिकता बन भी जाती है । उसका कारण यह है कि एकबार अनुत्तरादिकमें जाकर आये हुए जीवके मनुष्यभवमें क्षायिकसम्यकत्वकी उत्पत्तिकी भी संभावना है । पुनः क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्तकर संयमी हो अनुत्तरादिकमें उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हुआ। ऐसे जीवके साधिक छयासठ सागर काल बन जाता है, और क्षायोपशमिकसे क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर लेनेपर भी सम्यग्दर्शनसामान्य बराबर बना ही रहता है । इसकी पुष्टि जीवस्थान खंडकी अन्तर प्ररूपणा के निम्न अवतरणसे भी होती है :
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शंका-समाधान 'उकस्सेण छावट्टि सागरोवमाणि सादिरयाणि ॥ तं जहा-एको अट्ठावीससंतकम्मिओं पुश्वकोडाउअमणुसेसु उववण्णो अवस्सिओ वेदगसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो १ तदो पमत्तापमसपरावत्तसहस्सं कादूण २ उवसमसेढीपाओग्गविसोहीए विसद्धो ३ अपुब्बो ४ अणियट्टी ५ सुहुमो ६ उवसती ७ पुणो वि सुहमो ८ अणियट्टी ९ अपुग्यो १० होदूण हेट्रा पडिय अंतरिदो देसूणपुवकोडिं संजममणुपालेदूण मदो तेत्तीससागरोवमाउट्ठिदीएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुवकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । खइयं पिट्ठविय संजमं कादूण कालं गदो । तेत्तीससागरोवमाउट्रिदीएसु देवसु उववण्णो । ततो चुदो पुन्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो - संजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अपुवो जादो लद्धमंतरं ११ अणियही १२ सुहमो १३ उवसंतो १४ भूओ सुहमो १५ अणियही १६ अपुब्बो १७ अप्पमत्तो १८ पमत्ती जादो १९ अप्पमत्तो २० उवरि छ अंतोमुहुत्ता अट्ठहि वस्सेहि छन्त्रीसंतोमुहुत्तेहि य ऊणा पुब्वकोडीहि सादिरेयाणि छावट्रिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि'
___ यह विवरण उपशामक जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल बताते हुए अन्तरप्ररूपणामें आया है । अर्थात् कोई एक जीव उपशमश्रेणीसे उतरकर साधिक छयासठ सागरके बाद भी पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़ सकता है । उक्त गद्यका भाव यह है:--
'मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और आठ वर्षका होकर वेदकसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात् प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानोंमें कईवार आ जा कर उपशमश्रेणीपर चढ़ा और उतरकर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटी वर्षतक संयमको पालके मरणकर तेतीस सागरकी आयुवाला देव हुआ। वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। यहांपर क्षायिकसम्यक्त्वको भी धारण कर तथा संयमी होकर मरा और पुनः तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत हो पुनः पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और यथासमय संयमको धारण किया । जब उसके संसारमें रहनेका काळ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह गया, तब पहले उपशमश्रेणीपर चढा, पीछे क्षपकश्रेणीपर चढ़कर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इसप्रकारसे उपशमश्रणीवाले जीवका उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष और छव्वीस अन्तर्मुहासे कम तीन पूर्वकोटियोंसे अधिक छयासठ सागरोपमकाल प्रमाण होता है।
___ इस अन्तरकाल में रहते हुए भी वह बराबर सम्यग्दर्शनसे युक्त बना हुआ ह, भले ही प्रारंभमें ३३ सागर तक क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी और बाद में क्षायिकसम्यक्त्वा रहा हो। इस प्रकार सम्यग्दर्शनसामान्यकी दृष्टिसे साधिक ध्यासठ सागरकी स्थितिका कथन युक्तिसंगत ही है और उसमें उक्त दोनों मतोंसे कोई विरोध भी नहीं आता है।
खुद्दाबंधके कालानुयोगद्वारमें भी सम्यक्त्वमार्गणाके अन्तर्गत सम्यक्त्वसामान्यकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरसे कुछ अधिक दी है । यथा--
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिस्याणि ।
(धवला. अप, ५०७)
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षट्खंडागमको प्रस्तावना इस सूत्रकी व्याख्यामें कहा गया है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणोंको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्रहण कर अन्तर्मुहूर्तकालके बाद वेदकसम्यक्त्यको प्राप्त होकर उसमें तीन पूर्वकोटियोंसे अधिक व्यालीस सागरोपम बिताकर बादमें क्षायिकसम्यक्त्वको धारणकर और चौवीस सागरोपमवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पुनः पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवके साधिक ६६ सागरकाल सिद्ध हो जाता है।
किंतु बेदकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हुए पूरे ६६ सागर ही दिये हैं, यथा-- वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण छावहिसागरोवमाणि ।
(धवला. अ. प, ५०७) इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मनुष्यभवकी आयुसे कम देवायुवाले जीवोमें उत्पन्न कराना चाहिए और इसी प्रकारसे पूरे ६६ सागर काल वेदकसम्यक्त्वकी स्थिति पूरी करना चाहिए।
उक्त सारे कथनका भाव यह हुआ कि सम्यग्दर्शनसामान्यकी अपेक्षा साधिक ६६ सागर, वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा पूरे ६६ सागर, और मंगलपर्यायकी अपेक्षा देशोन ६६ सागरकी स्थिति कही है, इसलिए उनमें परस्पर कोई मत-भेद नहीं है।
पृष्ठ ४२ ११. शंका--णमो अरिहंताणमित्यत्र अरिमोहस्तस्य हननात् अरिहंता शेषघातिनामविनाभाविस्वात् अरिहंता इति प्रतिपादितम् । तदभीष्टमाचार्यैः । पुनः अस्वरसात् उच्चते वा 'रनो ज्ञानहगावरणादयः मोहोऽपि रजः, तेषां हननात् अरिहंता, इति लिखितम् तदत्र अरहंता इति पदं प्रतीयते । भवद्भिरपि श्रीमूलाचारादिग्रंथानां गाथाटिप्पण्णौ निन्ने लिखितं तत्र गाथायामपि अरहंता लिखितम् । आचार्याणामुभयमभीष्टं प्रतीयते णमो अरिहंताणं, णमो अरहंताणं' परन्तु उभयत्र कथने णमो अरिहंताणं ' लिखितम् । इत्यत्र लेखकविस्मृतिस्तु नास्ति वान्यत् प्रयोजनम् ?
(पं० झम्मनलालजी, पत्र ४.१.४१) __ अर्थात् धवलाकारने णमोकारमंत्रके प्रथम चरणके जो विविध अर्थ किये हैं उनसे अनुमान होता है कि आचार्यको अरिहंत और अरहंत दोनो पाठ अभीष्ट हैं । किन्तु आपने केवल ' अरिहंता' पाठ ही क्यों लिखा ?
समाधान- णमोकारमंत्रके पाठमें तो एकही प्रकारका पाठ रखा जा सकता है । तो भी ' णमो अरिहंताणं पाठ रखनेमें यह विशेषता है कि उससे अरिहंता और अर्हत् दोनो प्रकारके अर्थ लिये जा सकते हैं। प्राकृत व्याकरणानुसार अर्हत् शब्दके अरहंत, अरुहंत व अरिहंत तीनों प्रकारके पाठ हो सकते है। अतएव अरिहंत पाठ रखनेसे उक्त दोनों प्रकारके अर्थों की गुंजाइश रहती है । यह बात अरहंत पाठ रखनेसे नहीं रहती ( देखो परिशिष्ट पृ. ३८)
१२ शंका-'अपरिवाडीए पुण सयलसुदपारगा संखज्जसहस्सा। और यदि परिपाटी क्रमकी अपेक्षा न की जाय तो उस समय संख्यात हजार सकल श्रुतके धारी हुए। भगवान् महावीरके
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शंका-समाधान
समयमैं तो गिने चुने ही श्रुतकेवली हुए हैं । संख्यात हजार सकल श्रुतके धारियोंका पता तो शास्त्रोंसे नहीं लगता । अतः यह अंश विचारणीय प्रतीत होता है । ( पृष्ठ ६५)
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०.) समाधान- त्रिलोकप्रज्ञप्ति, हरिवंशपुराण आदिमें भगवान महावीरके तीर्थकालमें पूर्वधारी ३००, केवलज्ञानी ७००, विपुलमती मन:पर्ययज्ञानी ५००, शिक्षक ९९००, अवधिज्ञानी १३००, वैक्रियिकऋद्धिधारी ९०० और वादी ४०० बतलाये हैं। इनमें यद्यपि पूर्वधारी केवल तीनसौ ही बतलाये हैं, पर केवलज्ञानी केवलज्ञानोत्पत्तिके पूर्व श्रेणी-आरोहणकालमें पूर्वविद् हो चुके हैं और विपुलमती मनःपर्ययज्ञानी जीव तद्भव-मोक्षगामी होनेके कारण पूर्वविद् होंगे। अवधिज्ञानी आदि साधुओंमें भी कुछ पूर्वविद् हों तो आश्चर्य नहीं । पर अवधिज्ञान आदिकी विशेषताके कारण उनकी गणना पूर्वविदोंमें न करके अवधिज्ञानी आदिमें की गई हो। इस प्रकार परि. पाटी क्रमके विना भगवान् महावीरके तीर्थकालमें हजारों द्वादशांगधारी माननेमें कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती है।
पृष्ठ ६८ १३ शंका--'धदगारवपडिबद्धो' का अर्थ 'रसगारवके आधीन होकर' उचित नहीं जंचता । गारल ( गारव ? ) दोषका अर्थ मैंने किसी स्थानपर देखा है, किन्तु स्मरण नहीं आता। 'धद ' का अर्थ रस भी समझमें नहीं आता । स्पष्ट करनेकी आवश्यकता है।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान- 'गारव' पदका अर्थ गौरव या अभिमान होता है, जो तीन प्रकारका हैऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारव । यथा
तओ गारवा पन्नत्ता। तं जहा-इडिगारवे रसगारवे सातागारवे । स्था. ३, ४.
ऋद्धियों के अभिमानको ऋद्धिगारव, दधि दुग्ध आदि रसोंकी प्राप्तिसे जो अभिमान हो उसे रसगारव, तथा शिष्यों व भक्तों आदि द्वारा प्राप्त परिचर्याके सुखको सातगारव या सुखगारव कहते हैं।
उक्त वाक्यसे हमारा अभिप्राय : रसादि गारवके आधीन होकर' से है। मूलपाठका संस्कृत रूपान्तर हमारी दृष्टिमें ‘धृतगारवप्रतिबद्धः' रहा है। प्रतियोंमें 'धद' के स्थानपर 'दध' पाठ भी पाया जाता है जिससे यदि दधिका अभिप्राय लिया जाय तो उपलक्षणासे रसगारवका अर्थ आजाता है।
पृष्ठ १४८ __ शंका १४.-प्रतिभासः प्रमाणञ्चाप्रमाणञ्च' इत्यादि बाक्यमें प्रतिभासका अनध्यवसायरूप अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता । मेरी समझमें उसका अर्थ वहां ज्ञान-सामान्य ही होना चाहिए, • क्योंकि ज्ञानका प्रामाण्य और अप्रामाण्य बायार्थ पर अवलम्बित है, अतः वह विसंवादी भी हो
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना सकता है और अविसंवादी भी। अनध्यवसाय विसंवादी ज्ञानका भेद है। उसमें जिस तरहसे विसंवादित्व और अविसंवादित्वकी चर्चा दी गई है वह स्याद्वादकी दृष्टिके अनुकूल होते हुए भी चित्तको नहीं लगती।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान- यद्यपि प्रतिभासका जो अर्थ किया गया है, वह स्वयं शंकाकारके मतसे भी सदोष नहीं है, तथापि यदि प्रतिभासका अर्थ ज्ञानसामान्य भी ले लिया जाय, तो भी कोई आपत्ति नहीं आती है। ऐसी अवस्थामें अनुवाद पंक्ति १२ में ‘और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है' के स्थानमें ' और जो ज्ञान-सामान्य है' अर्थ करना चाहिए।
पृष्ठ १९६ १५ शंका-- 'असर्वज्ञानां व्याख्यातृत्वाभावे आषसम्ततेविच्छेदस्यार्थशून्याया वचनपद्धतेरार्षत्वाभावात् ' । यहाँ विच्छेदस्य ' के स्थानमें 'विच्छेदः ' पाठ अच्छा जंचता है। उससे वाक्यरचना भी ठीक हो जाती है।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४० ) समाधान--प्राप्त प्रतियोंसे जो पाठ समुपलब्ध हुआ उसकी यथाशक्ति संगति अनुवादमें बैठा ली गई है । मूडबिद्रीसे भी उस पाठके स्थानपर हमें कोई पाठान्तर प्राप्त नहीं हुआ। तथापि विच्छेदस्य' के स्थानपर 'विच्छेदः स्यात् ' पाठ स्वीकार कर लेनेसे अर्थ और अधिक सीधा और सुगम हो जाता है । तदनुसार उक्त शंकाका अनुवाद इस प्रकार होगा
शंका--असर्वज्ञको व्याख्याता नहीं मानने पर आर्ष-परम्पराका विच्छेद हो जायगा, क्योंकि, अर्थशून्य वचन-रचनाको आर्षपना प्राप्त नहीं हो सकता है।
पृष्ठ २१३ १६ शंका-संस्कृत (मूल) में जो ‘णवक' शब्द आया है उसका अर्थ आपने कुछ न करके नवक ' ही लिखा है । सो इसका क्या अर्थ है ? (नानकचंदजी, पत्र १.४.४० )
समाधान- नवक' का अर्थ नवीन है, इसलिए सर्वत्र नवीन बंधनेवाले समयप्रबद्ध को नवक समयप्रबद्ध कह सकते हैं। पर प्रकृतमें विवक्षित प्रकृतिके उपशमन और क्षपणके द्विचरमावली और चरमावली अर्थात् अन्तकी दो आवलियोंके कालमें बंधनेवाले समयप्रबद्धको ही नवकसमयप्रबद्ध कहा है। इस नवकसमयप्रबद्धका उस विवक्षित प्रकृतिके उपशमन या क्षपणकालके भीतर उपशम या क्षय न होकर उपशमन या क्षपणकालके अनन्तर एक समय कम दो आवलीकालमें उपशम या क्षय होता है । एक समय कम दो आवलीकालमें उपशम या क्षय कैसे होता है, इसके लिए प्रथमभाग पृष्ठ २१४ का विशेषार्थ देखिये । विशेषके लिए देखिये लब्धिसार, क्षपणासार ।
पृष्ठ २५० १७ शंका-शंकाका प्रारंभ प्रथम पंक्तिमें आये हुए ' तथापि ' शब्दसे जान पड़ता है, न
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शंका-समाधान कि उससे पूर्वके शरीरस्य स्थौल्यनिर्वर्तक ' इत्यादिसे, क्योंकि उसी शास्त्रीय परिभाषाके करनेपर, जो उससे पहले नहीं की गई है, शंकाकारने ' तथापि ' से शंकाका उत्थान किया है।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान-यहांपर 'तथापि ' से शंका मान लेनेपर 'शरीरस्य स्थौल्यनिर्वर्तकं कर्म बादरमुच्यते' इसे आगमिक परिभाषा मानना पड़ेगी। परन्तु यह आगमिक परिभाषा नहीं है। धवलाकारने स्वयं इसके पहले 'न बादरशब्दोऽयं स्थूलपर्यायः' इत्यादि रूपसे इसका निषेध कर दिया है । अतः शंकाकारके मुखसे ही स्थूल और सूक्ष्मकी परिभाषाओंका कहलाना ठीक है, ऐसा समझकर ही उन्हें शंकाके साथ जोड़ा गया है।
पृष्ठ २९७ १८ शंका-'ऋद्धरुपर्यभावात् ' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, उसके स्थानमें · ऋढेरुत्पस्यभावात् ' पाठ ठीक प्रतीत होता है।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान-उक्त पाठके ग्रहण करनेपर भी 'ऋद्धरुपरि ' इतने पदका अर्थ ऊपरसे ही जोड़ना पड़ता है, और उस पाठके लिए प्रतियोंका आधार भी नहीं है। इसलिए हमने उपलब्ध पाठको ज्योंका त्यों रख दिया था। हालहीमें धवला अ. पत्र २८५ पर एक अन्य प्रकरण सम्बंधी एक वाक्य मिला है, जो उक्त पाठके संशोधनमें अधिक सहायक है । वह इस प्रकार है---' पमत्ते तेजाहारं णस्थि, लद्धीए उवरि लद्धीणमभावा ।' इसके अनुसार उक्त पाठको इस प्रकार सुधारना चाहिए 'ऋद्धेपरि ऋद्धरभावात् ' अथवा 'ऋद्धेः ऋढेरुपर्यभावात् ' तदनुसार अर्थ भी इस प्रकार होगा'क्योंकि, एक ऋद्धिके ऊपर दूसरी ऋद्धिका अभाव है'।
पृष्ठ ३०० १९ शंका-६० वी गाथा (सूत्र) का अर्थ करते हुए लिखा है कि 'तत्र कार्मणकाययोगः स्यादिति '। जिसका अर्थ आपने ' इषुगतिको छोड़कर शेष तीनों विग्रहगतियोंमें कार्मणकाययोग होता है, ऐसा किया है। सो यहां प्रश्न होता है कि इषुगतिमें कौनसा काययोग होता है ?
( नानकचंदजी, पत्र १.४.४०) समाधान-इषुगतिमें औदारिकमिश्रकाय और वैक्रियिकमिश्रकाय, ये दो योग होते हैं, क्योंकि उपपातक्षेत्रके प्रति होनेवाली ऋजुगतिमें जीव आहारक ही होता है । अनाहारक केवल विप्रहवाली गतियों में ही रहता है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पाणिमुक्ता, लांगलिका
और गोमूत्रिका, इन तीन गतियोंके अन्तिम समयमें भी जीव आहारक हो जाता है, क्योंकि, अन्तिम समयमें उपपातक्षेत्रके प्रति होनेवाली गति ऋजु ही रहती है। इस व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर ही सर्वार्थसिद्धिमें ' एकं द्वौ बीन्वानाहारकः' इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए यह कहा है कि 'उपपादक्षेत्र प्रति ऋज्व्यां गतो आहारकः । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः ।'
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
पृष्ठ ३३२ । २० शंका-सूत्र नं. ९३ में 'सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पजत्तियाओ' पर आपने फुटनोट लगाकर "अत्र ‘संजद ' इति पाठशेषः प्रतिभाति" ऐसा लिखा है। सो लिखना कि यह आपने कहांसे लिखा है, और क्या मनुष्यनीके छठा गुणस्थान होता है ? आगे पृ० ३३३ पर शंका-समाधानमें लिखा है कि स्त्रियोंके संयतासंयत गुणस्थान होता है, सो पहलेसे विरोध आता है !
__ (नानकचंदजी, पत्र १-४-४०) ____अन 'संनद' इति पाठ शेषः प्रतिभाति " यह सम्पादक महोदयोंका संशोधन है । ऐसे संशोधनको मूलसूत्रका अर्थ करते समय नहीं जोड़ना उचित प्रतीत होता है ।
(जैनगजट, ३ जुलाई १९४०) समाधान-उक्त पाद-टिप्पण देनेके निम्न कारण है:--
(१) आलापाधिकारमें मनुष्यस्त्रियोंके आलाप बतलाते समय सभी (चौदह ) गुणस्थानोंमें उनके आलाप बतलाये हैं।
(२) द्रव्यप्रमाणानुगममें मनुष्यस्त्रियोंका प्रमाण कहते समय चौदहों गुणस्थानोंकी अपेक्षा उनका प्रमाण कहा है । यथा
मणसिणीसु मिच्छाइट्टी दवपमाणेण केवडिया, कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोशकोडाकोडीए हेट्टदो, छह वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेढदो ॥ ४८ ॥ पृ. २६०. मणुसिणीसु सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि चि दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ ४९ ॥ पृ. २६१.
(३) आगममें मनुष्यके सामान्य, पर्याप्त, योनिमती और अपर्याप्त, ये चार भेद किये हैं। वहां योनिमती मनुष्यसे भावसे स्त्रीवेदी मनुष्योंका ही प्रहण किया है । षट्खंडागममें उसी भेदके लिये मणुसिणी शब्द आया है, और उन्हीं भेदोंके क्रमसे वर्णन भी है।
(४) इससे ऊपरके सूत्रमें मनुष्यनियोंको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जो पर्याप्त और अपर्याप्त बतलाकर इसी सूत्रमें जो शेष गुणस्थानोंमें केवल पर्याप्त ही बतलाया है, इससे भी भाववेदकी ही मुख्यता प्रतीत होती है, क्योंकि गुणस्थानोंमें पर्याप्तत्व और अपर्याप्तत्वकी व्यवस्था भाववेदकी अपेक्षासे ही की गई है।
(५) यदि यहाँ उक्त पादटिप्पणको ग्रहण न किया जाये तो धवलाकारने इसी सूत्रकी व्याख्यामें जो यह शंका उठाई है कि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सियेत् ' अर्थात् , तो इसी भागमसे द्रव्यस्त्रियोंका मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायगा, ऐसी शंकाके उत्पन्न होनेका कोई कारण नहीं रह जाता है।
___ इन उपर्युक्त हेतुओंसे यही प्रतीत होता है कि यहां मनुष्यनियोंका भाववेदकी अपेक्षाही प्रतिपादन किया गया है, द्रव्यवेदकी अपेक्षासे नहीं। और इसीलिये उक्त ९३ सूत्रपर 'अत्र • संजद ' इति पाठशेषः प्रतिभाति' यह पादटिप्पण जोडा गया है।)
२१ शंका-९३ सूत्रके नीचे जो शंका दी है कि हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी
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शंका-समाधान
स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? उसका समाधान करते हुए लिखा है कि नहीं; क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं । सो इसका खुलासा क्या है ! क्या सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियोंमें उत्पन्न हो सकता है !
(नानकचंदजी, १-४-४०) स्त्रियोंको अपर्याप्तदशामें सम्यक्त्व नहीं होता है, ऐसा गोम्मटसार आदि ग्रंथोंका कथन है। तदनुसार धवलाके द्वितीय खंडमें पृ. ४३० पर भी लिखा है ' इस्थिवेदेण विणा ........ ' अपर्याप्तदशामें स्त्रीवेदीको सम्यक्त्व नहीं। किन्तु धवलाके प्रथम खंडमें पृ. ३३२ पर इसके विरुद्ध लिखा हैहुण्डावसर्पिण्या स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, उत्पद्यन्ते । तत्कुतोऽवसीयते ? अस्मा देवार्षात् । ऐसा विरोधी कथन क्यों है ?
(पं. अजितकुमारजी शास्त्री, पत्र २२.१०.४०) समाधान-अन्य गतिसे आकर सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होता है, यह तो सुनिश्चित है । इसलिए उक्त शंका-समाधानका अर्थ इस प्रकार लेना चाहिए
शंका--हुंडावसर्पिणीकालमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होते हैं ! समाधान--नहीं; क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं।
यहां ' उत्पधन्ते' क्रियाका अर्थ ' होना' लेना चाहिए । इससे स्पष्ट हो जाता है कि हुंडावसर्पिणीकालके दोषसे स्त्रियां सम्यग्दृष्टि न होवें, ऐसा शंकाकारके पूछनेका अभिप्राय है।।
__ अथवा, इस शंका-समाधानका निम्न प्रकारसे दूसरा भी अभिप्राय कदाचित् संभव हो सकता है
शंका-हुंडावसर्पिणीकालमें जैसे अन्य अनेकों असंभव बातें संभव हो जाती हैं, उसी प्रकारसे अन्य गतिसे आकर सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियोंमें क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? ।
समाधान- सूत्र नं. ९३ में कहा है कि ' असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्त्रियां नियमसे पर्याप्त होती हैं ' इससे जाना जाता है कि किसी भी कालमें सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होते हैं।
इस अभिप्रायके लिये मूलपाठमें 'चेन्न' के पश्चात्का विराम हटा लेना चाहिये । तथापि आगेके संदर्भसे इस अभिप्रायका सामंजस्य यथोचित नहीं बैठता ।
पृष्ठ ३४२ २२ शंका-धवलसिद्धान्तानुसार जो द्रव्यसे पुरुष होवे और भावों में स्त्रीरूप हो उसे योनिमती कहते हैं । किन्तु गोम्मटसार जीवकांड गाथा १५०, १५६, ३८० से ज्ञात होता है कि द्रव्यमें स्त्री हो, और परिणतिमें स्त्रीभाव हो उसको योनिमती कहते हैं। इस प्रकारकी योनिमाके १४ गुणस्थान माने हैं । इसका समाधान कीजिए। (० लक्ष्मीचंद्रजी)
समाधान-योनिमती तिर्यंच स्त्रियोंके उदय प्रकृतियां बतलाते हुए कर्मकांड गाथा मं.
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३०
षटखंडागमकी प्रस्तावना (२९६ में कहा है-पुंसंदूणिस्थिजुदा जोणिणीये' अर्थात् योनिमतीके पूर्वोक्त ९७ प्रकृतियोंमेंसे पुरुषवेद
और नपुंसक वेदको घटाकर स्त्री वेदके मिला देनेपर ९६ प्रकृतियोंका उदय होता है। मनुष्यनियोंके विषयमें कहा है-'मणुसिणिए स्थीसहिदा' ॥३०१॥ अर्थात् पूर्वोक्त १०० प्रकृतियोंमें स्त्रीवेदके मिला देनेपर और तीर्थकर आदि ५ प्रकृतियां निकाल देनेपर मनुष्यनियोंके ९६ प्रकृतियोंका उदय होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां योनिमती उसे कहा है जिसके स्त्रीवेदका उदय हो । ऐसे जीवके द्रव्य वेद कोई भी रहेगा तो भी वह योनिमती कहा जायगा। अब रही योनिमतीके १४ गुणस्थान की बात, सो कर्मभूमिज स्त्रियों के अन्तके तीन संहननोंका ही उदय होता है, ऐसा गो० कर्मकांड की गाथा ३२ से प्रगट है। परन्तु शुक्लध्यान, क्षपक श्रेण्यारोहणादि कार्य प्रथम संहननवालके ही होते हैं । इससे यह तो स्पष्ट है कि द्रव्यस्त्रियोंके १४ गुणस्थान नहीं होते हैं। पर गोम्मटसारमें स्त्रीवेदीके १४ गुणस्थान बतलाये अवश्य हैं, इसलिए वहां द्रव्यसे पुरुष और भावप्ले स्त्रीवेदीका ही योनिमती पदसे ग्रहण करना चाहिए। इस विषयमें गोम्मटसार और धवलसिद्धान्तमें कोई मतभेद नहीं है । द्रव्यस्त्रोके आदिके पांच गुणस्थान ही होते हैं । गोम्मटसारकी गाथा नं. १५० में भाववेदकी मुख्यतासे ही योनिमतीका ग्रहण है। गाथा नं. १५६ और १५९ में टीकाकारने योनिमतीसे द्रव्यस्त्रीका ग्रहण किया है, किन्तु वहां भी परिणतिमें स्त्रीभाव हो, ऐसा नहीं कहा गया है।
टिप्पणियोंके विषयमें २३ शंका-~-धवलाके फुटनोटोंमें दिये गये भगवती आराधनाकी गाथाओंको मूलाराधनाके नामसे उल्लेखित किया गया है, यह ठीक नहीं। जबकि ग्रन्थकार शिवार्य स्वयं उसे भगवती आराधना लिखते हैं, तब मूलाराधना नाम उचित प्रतीत नहीं होता । मूलाराधनादर्पण तो पं. आशाधरजीकी टीका का नाम है, जिसे उन्होंने अन्य टीकाओंसे व्यावृत्ति करनेके लिए दिया था। यदि आपने किसी प्राचीन प्रतिमें ग्रन्थका नाम मूलाराधना देखा हो तो कृपया लिखनेका अनुग्रह कीजिए ।
(पं० परमानन्दजी शास्त्री, पत्र २९-१०-३९) समाधान-टिप्पणियोंके साथ जो ग्रंथ-नाम दिये गये हैं वे उन टिप्पणियोंके आधारभूत प्रकाशित ग्रंथोंके नाम हैं। शोलापुरसे जो ग्रन्थ छपा है, उसपर ग्रन्थका नाम ' मूलाराधना.' दिया गया है । वही प्रति हमारी टिप्पणियोंका आधार रही है । अतएव उसीका नामोल्लेख कर दिया गया है । ग्रन्थके नामादि सम्बन्धी इतिहासमें जानेके लिए वह उपयुक्त स्थल नहीं था ।
२४ शंका-टिप्पणियोंमें अधिकांश तुलना श्वेताम्बर ग्रन्थोंपरसे की गई है। अच्छा होता यदि इस कार्यमें दिगम्बर ग्रन्थोंका और भी अधिकता के साथ उपयोग किया जाता। इससे तुलना-कार्य और भी अधिक प्रशस्तरूपसे सम्पन्न होता ।
(अनेकान्त, १, २ पृ. २०१) (जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) (जैनगजट, ३ जुलाई १९४०)
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द्रव्यप्रमाणानुगमकी उत्पत्ति समाधान-प्रथम भागमें कुल टिप्पणियोंकी संख्या ८५५ है। उनमेंसे दिगम्बर ग्रन्थोंसे ६२२ और श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे २२८ तथा अन्य ग्रन्थोंसे ५ टिप्पणियां ली गई हैं । यदि ग्रन्थसंख्याकी दृष्टिसे भी देखा जाय तो टिप्पणीमें उपयोग किये गये ग्रन्थोंकी संख्या ७७ है, जिनमें दिगम्बर ग्रन्थ ४०, श्वताम्बर ग्रन्थ ३०, अजैन ग्रन्थ १, व कोष, व्याकरण, अलंकारादि विषयक ग्रन्थोंकी संख्या ६ है। इससे स्पष्ट है कि अधिकांश तुलना किन ग्रन्थोंपरसे की गई है। जहां जिस ग्रन्थकी जो टिप्पणी उपयुक्त प्रतीत हुई वह ली गई है। इसमें ध्येय यही रखा गया है कि इस सिद्धान्त विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी साहित्यकी ओर पाठकोंकी दृष्टि जा सके।
७ द्रव्यप्रमाणानुगम
१ द्रव्यप्रमाणानुगमकी उत्पत्ति षटखंडागमके प्रस्तुत भागमें जीवद्रव्यके प्रमाणका ज्ञान कराया गया है, अर्थात् यहां यह बतलाया गया है कि समस्त जीवराशि कितनी है, तथा उसमें भिन्न भिन्न गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंमें जीवोंका प्रमाण क्या है । स्वभावतः प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस अत्यन्त अगाध विषयका वर्णन आचार्योने किस आधारपर किया है ? यह तो पूर्वभागोंमें बता ही आये हैं कि षट्खंडागमका बहुभाग विषय-ज्ञान महावीर भगवान्की द्वादशांगवाणीके अगभूत चौदह पूर्वी से द्वितीय आग्रायणीय पूर्वके कर्मप्रकृति नामक एक अधिकार-विशेषमेंसे लिया गया है। उसमेंसे भी द्रव्यप्रमाणानुगमकी उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई गई है
__ कर्मप्रकृतिपाहुड, अपरनाम वेदनाकृत्स्नपाहुड (वेयणकसिणपाहुड) के कृति, वेदना आदि चौवीस अधिकारोंमें छठवां अधिकार 'बंधन' है, जिसमें बंधका वर्णन किया गया है । इस बंधन के चार अर्थाधिकार हैं, बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान । इनमेंसे बंधक नामक द्वितीय अधिकारके एकजीवकी अपेक्षा स्वामित्त्व, एकजीवकी अपेक्षा काल, आदि ग्यारह अनुयोगद्वार हैं। इन ग्यारह अनयोगद्वारोंमें से पांचवां अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाण नामका है और वहींसे प्रकृत द्रव्यप्रमाणानुगम लिया गया है । ( देखा षटखंडागम, प्रथम भाग, पृ. १२५-१२६) .. यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब जीवट्ठाणकी सत, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और अल्पबहुत्त्व, ये ह प्ररूपणायें बंधविधानके प्रकृतिस्थानबंध नामक अवान्तर अधिकारके आठ अनुयोगद्वारोंमेंसे ली गई हैं, तब यह द्रव्यप्रमाणानुगम भी वहींसे क्यों नहीं लिया, क्योंकि, वहां भी तो यह अनुयोगद्वार यथास्थान पाया जाता था? इसका उत्तर यह दिया गया है कि प्रकृतिस्थानबंधके द्रव्यानुयोगद्वारमें ' इस बंधस्थानके बंधक जीव इतने हैं। ऐसा केवल सामान्य रूपसे कथन किया गया है, किन्तु मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंकी अपेक्षा कथन नहीं किया गया। बंधक अधिकारमें
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना गुणस्थानोंकी अपेक्षा कथन किया गया है, वहां बतलाया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव इतने होते हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि जीव इतने हैं; इत्यादि । अतएव जीवट्ठाणमें द्रव्यप्रमाणानुगमके लिये बंधक अधिकारका यही द्रव्यप्रमाणानुगम उपयोगी सिद्ध हुआ । (देखो षट. प्रथम भाग, पृ. १२९)
२ प्रमाणका स्वरूप द्रव्यप्रमाणानुगमकी उत्पत्ति बतलानेमें जो कुछ कहा गया है उसीसे स्पष्ट है कि यह भिन्न भिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें जीवोंका प्रमाण बतलाया गया है। यह प्रमाण चार अपेक्षाओंसे बतलाया गया है, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव ।
१. द्रव्यप्रमाण-द्रव्यप्रमाणके तीन भेद हैं, संख्यात, असंख्यात और अनन्त । जो संख्यान पंचेन्द्रियोंका विषय है वह संख्यात है। उससे ऊपर जो अवधिज्ञानका विषय है यह असंख्यात है और उससे ऊपर जो केवलज्ञानका विषय है वह अनन्त है ।
संख्यातके तीन भेद हैं, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । गणनाका आदि एकसे माना जाता है। किन्तु एक केवल वस्तुकी सत्ताको स्थापित करता है, भेदको सूचित नहीं करता । भेदकी सूचना दोसे प्रारंभ होती है, और इसीलिये दोको संख्यातका आदि माना है। इसप्रकार जघन्य संख्यात दो है । उत्कृष्ट संख्यात आगे बतलाये जानेवाले जघन्य परीतासंख्यातसे एक कम होता है। तथा इन दोनों छोरोंके बीच जितनी भी संख्यायें पाई जाती हैं वे सब मध्यम संख्यातके भेद हैं।
___ असंख्यातके तीन भेद हैं, परीत, युक्त और असंख्यात, और इन तीनों से प्रत्येक पुनः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारका होता है। जघन्य परीतासंख्यातका प्रमाण अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका, ऐसे चार कुंडोंको द्वीपसमुद्रोंकी गणनानुसार सरसोंसे भर भरकर निकालनेका प्रकार बतलाया गया है, जिसके लिये त्रिलोकसार गाथा १८-३५ देखिये । आगे बतलाये जानेवाले जघन्य युक्तासंख्यातसे एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यातका प्रमाण मिलता है, तथा जघन्य और उत्कृष्ट परीतके बीचकी सब गणना मध्यम परीतासंख्यातके भेद रूप है।
जघन्य परीतासंख्यातके वर्गित-संवर्गित करनेसे अर्थात् उस राशिको उतने ही वार गुणित प्रगुणित करनेसे जघन्य युक्तासंख्यातका प्रमाण प्राप्त होता है । आगे बतलाये जानेवाले जघन्य असंख्यातासंख्यातसे एक कम उत्कृष्ट युक्तासंख्यातका प्रमाण है और इन दोनोंके बीचकी सब गणना मध्यम युक्तासंख्यातके भेद हैं ।
१ संखाणं पंचिंदियविसओ तं संखेज णाम । तदो उवरि जं ओहिणाणविसओ तमसंखेम्जं णाम । तदो उवरि जे केवलणाणस्सेव विसओ तमणंतं णाम । (पृ. २६७-२६८)
२. एयादीया गणणा, वीयादीया हवेज्ज संखेज्जा'। (त्रि. सा, १६ ) जघन्यसंख्यातं द्विसंख्यं तस्य भेदमाइकत्वेन एकस्य तदभावात् । (गो. जी. जी. प्र. टीका ११८ गा.)
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प्रमाणका स्वरूप
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जघन्य युक्तासंख्यातका वर्ग ( य य ) जघन्य असंख्यातासंख्यात कहलाता है, तथा आगे बतलाये जानेवाले जघन्य परीतानन्तसे एक कम उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात होता है, और इन दोनों के बीच की सब गणना मध्यम असंख्याता संख्यातके भेदरूप है ।
जघन्य असंख्यातासंख्यातको तीन वार वर्गित संवर्गित करनेसे जो राशि उत्पन्न होती है उसमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, एक जीव और लोकाकाश, इनके प्रदेश तथा अप्रतिष्ठित और प्रतिष्ठित वनस्पतिके प्रमाणको मिला कर उत्पन्न हुई राशिको पुनः तीन वार वर्गित संवर्गित करना चाहिये । इसप्रकार प्राप्त हुई राशिमें कल्पकालके समय, स्थिति और अनुभागबंधाध्यवसायस्थानोंका प्रमाण तथा योगके उत्कृष्ट अविभागप्रतिच्छेद मिलाकर उसे पुनः तीन वार वर्गित संवर्गित करनेसे जो राशि उत्पन्न होगी वह जघन्य परीतानन्त कही जाती है । आगे बतलाये जानेवाले जघन्ययुक्तानन्तसे एक कम उत्कृष्ट परीतानन्त का प्रमाण है, तथा बीचके सब भेद मध्यम परीतानन्त हैं ।
जघन्य परीतानन्तको वर्गित संवर्गित करनेसे जघन्य युक्तानन्त होता है । आगे बताये जानेवाले जघन्य अनन्तानन्तसे एक कम उत्कृष्ट युक्तानन्तका प्रमाण है, तथा बीचके सब भेद मध्यम युक्तानन्त होते हैं ।
जघन्य युक्तानन्तका वर्ग जघन्य अनन्तानन्त होता है । इस जघन्य अनन्तानन्तको तीन वार वर्गित संवर्गित करके उसमें सिद्ध जीव, निगोदराशि, प्रत्येकवनस्पति, पुद्गलराशि, कालके समय और अलोकाकाश, ये छह राशियां मिलाकर उत्पन्न हुई राशिको पुनः तीन वार वर्गित संवर्गित करके उसमें धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य संबंधी अगुरुलघुगुणके अविभागप्रतिच्छेद मिला देना चाहिये । इस प्रकार उत्पन्न हुई राशिको पुनः तीन वार वर्गित संवर्गित करके उसे केवलज्ञानमेंसे घटावे और फिर शेष केवलज्ञानमें उसे मिला देवे । इस प्रकार प्राप्त हुई राशि अर्थात् केवलज्ञानप्रमाण उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है । जघन्य और उत्कृष्ट अनन्तानन्तकी मध्यवर्ती सब गणना मध्यम अनन्तानन्त कहलाती है । ( देखो पृ. १९.२६ तथा त्रिलोकसार गाथा १८-५१ ) २. कालप्रमाण - जीवोंका परिमाण जाननेके लिये दूसरा माप कालका लगाया गया है, जिसके भेद प्रभेद इसप्रकार हैं- एक परमाणुको मंदगतिसे एक आकाशप्रदेशसे दूसरे आकाशप्रदेशमें जानेके लिये जो काल लगता है वह समय कहलाता है । यह कालका सबसे छोटा, अविभागी परिमाण है। असंख्यात (अर्थात् जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण) समयोंकी एक आवलि होती है । संख्यात आवलियोंका एक उच्छ्वास या प्राण होता है । सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक, सात स्तोकोंका एक लव, और साढ़े अड़तीस लवोंकी एक नाली होती है । दो नालीका मुहूर्त और तीस मुहूर्तका एक अहोरात्र या दिवस होता है। वर्तमान कालगणना में अहोरात्र चौवीस घंटोंका माना जाता है । इसके अनुसार एक मुहूर्त अड़तालीस मिनिटका, एक नाली चौवीस मिनिटकी, एक लव ३७७९ सेकेंडका, एक स्तोक ५६३९ सेकेंडका तथा एक उच्छ्रास ईई सेकेंडका पड़ता है। आवलि और समय एक सेकेंडसे बहुत सूक्ष्म काल प्रमाण होता है । ( देखो पृ. ६५, तथा ति. प. ४, २८४-२८८ )
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना यह कालप्रमाण तालिकारूपमें इस प्रकार रखा जा सकता है
अहोरात्र या दिवस = ३० मुहूर्त = २४ मुहूर्त
= २ नाली = ४८ मिनिट नाली
= ३८॥ लव = २४ मिनिट लव
= ७ स्तोक = ३७३१ सेकेंड स्तोक
७ उच्छ्वास = ५५६५ सेकेंड उच्छ्वास या प्राण = संख्यात आवली = ३४४३ सेकेंड आवलि
असंख्यात (ज. यु. असं.) समय समय
एक परमाणुके एक आकाशप्रदेशसे दूसरे आकाशप्रदेशमें
मन्दगतिसे जानेका काल एक सामान्य स्वस्थ प्राणीके ( मनुष्यके ) एक वार श्वास लेने और निकालनेमें जितना समय लगता है उसे उच्छ्वास कहते हैं। एक मुहूर्तमें इन उच्छ्वासोंकी संख्या ३७७३ कही गई है, जो उपर्युक्त प्रमाणानुसार इस प्रकार आती है-२४३८३४७४७=३७७३ । एक अहोरात्र (२४ घंटे) में ३७७३४३०=१,१३,१९० उच्छ्वास होते हैं। इसका प्रमाण एक मिनटमें ३४४३= ७८.६ आता है, जो आधुनिक मान्यताके अनुसार ही है।
एक मुहूर्तमेंसे एक समय कम करने पर भिन्नमुहूर्त होता है, तथा भिन्नमुहूर्तसे एक समय कम कालसे लगाकर एक आवलि व आवलिसे कम कालको भी अन्तर्मुहूर्त कहा है। (पृ. ६७) इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्त सामान्यतः संख्यात आवलि प्रमाण ही होता है, किन्तु कहीं कहीं भन्तर् शब्दको सामीप्यार्थक मानकर असंख्यात आवलि प्रमाण भी मान लिया गया है। (पृ. ६९)
___ पंद्रह दिनका एक पक्ष, दो पक्षका मास, दो मासकी ऋतु, तीन ऋतुओंका अयन, दो अयनका वर्ष, पांच वर्षका युग, चौरासी लाख वर्षका पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांग का पूर्व, चौरासी पूर्वका नयुतांग, चौरासी लाख नयुतांग का नयुत, तथा इसीप्रकार चौरासी और चौरासी लाख गुणित क्रमसे कुमुदांग और कुमुद, पद्मांग और पद्म, नलिनांग और नलिन, कमलांग और कमल, त्रुटितांग और त्रुटित, अटटांग और अटट, अममांग और अमम, हाहांग और हाहाँ, हूहांग और हूहू, लतांग और लता, तथा महालतांग और महालता क्रमशः होते हैं । फिर चौरासी लाख गुणित क्रमसे श्रीकल्प ( या शिर:कंप), हस्तप्रहेलित (हस्तप्रहेलिका) और अचलप (चर्चिका) होते हैं । चौरासीको इकतीस वार परस्पर गुणा करनेसे अचलप्रकी वर्षाका प्रमाण आता है, जो नव्वे शून्यांकोंका होता है। यद्यपि इन नयुतांगादि काल-गणनाओंका उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथभागमें नहीं आया, तथापि संख्यात गणनाकी मान्यताका कुछ बोध करानेके लिये यह
१ हाहांग और हाहा नामक संख्याओंके नाम राजवार्तिक व हरिवंशपुराण के कालविवरणमें नहीं पाये जाते ।
२ यह तिलोयपण्णत्तिके अनुसार है। किन्तु चौरासी को इकतीस वार परस्पर गुणित करनेसे (८४)३१ Logarithm के अनुसार केवल साठ (६०) अंकप्रमाण ही संख्या आती है।
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प्रमाणका स्वरूप
सब यहां दी गई है। यह सब संख्यात (मध्यम) का ही प्रमाण है। इससे कई गुणे ऊपर जाकर उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण होता है जो ऊपर गणना-मापमें बता ही आये हैं।
आगे क्षेत्रप्रमाणमें बतलाये जानेवाले एक प्रमाण योजन (अर्थात् दो हजार कोश) लम्बा चौड़ा और गहरा कुड बनाकर उसे उत्तम भोगभूमिके सात दिनके भीतर उत्पन्न हुए मेढेके रोमानों ( जिनके और खंड कैंचीसे न हो सकें) से भर दे, और उनमेंसे एक एक रोमखंडको सौ सौ वर्षमें निकाले । इसप्रकार उन समस्त रोमोंको निकालने में जितना काल व्यतीत होगा, उसे व्यवहारपल्य कहते हैं। उक्त रोमोंकी कुल संख्या गणितसे ४५ अंक प्रमाण आती है, और तदनुसार व्यवहारपल्यका प्रमाण ४५ अंक प्रमाण शताब्दियां अथवा ४७ अंक प्रमाण वर्ष हुआ।
इस व्यवहारपल्यको असं.ख्यात कोटि वर्षोंके समयोंसे गुणित करनेपर उद्धारपल्यका प्रमाण आता है, जिससे द्वीप-समुद्रोंकी गणना की जाती है । इस उद्धारपल्यको असंख्यात कोटि वर्षोंके समयोसे गुणित करने पर अद्धापल्यका प्रमाण आता है । कर्म, भव, आयु और काय, इनकी स्थितिके प्रमाणमें इसी अद्धापत्यका उपयोग होता है । जीवद्रव्यकी प्रमाण-प्ररूपणामें भी यथावश्यक इसी पल्योपमका उपयोग किया गया है । एक करोडको एक करोडसे गुणा करने पर जो लब्ध आता है उसे कोड़ाकोड़ी कहते हैं । दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्योपमोंका एक अद्धासागरोपम और दस कोडाकोड़ी अद्धासागरोपमोंकी एक उत्सर्पिणी और इतने ही कालकी एक अवसर्पिणी होती है । इन दोनोंको मिलाकर एक कल्पकाल होता है ।
३. क्षेत्रप्रमाण--पुद्गल द्रव्यके उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म भागको परमाणु कहते हैं जिसका पुनः विभाग न हो सके, जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं और जो अप्रदेशी तथा अंत, आदि व मध्य रहित है। एक अविभागी परमाणु जितने आकाशको रोकता है उतने आकाशको एक क्षेत्रप्रदेश कहते हैं। अनन्तानन्त परमाणुओंका एक अवसन्नासन्न स्कंध, आठ अवसन्नासन्न स्कंधोंका एक सनासन्न स्कंध, आठ सन्नार.न स्कंधोंका एक त्रुटरेणु (त्रुटिरेणु, तृटरेणु), आठ त्रुटरेणुओंका एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओंका एक रथरेणु, आठ रथरेणुओंका उत्तम भोगभूमिसंबंधी बालाग्र, आठ उत्तम भोगभूमिसंबंधी बालानोंका एक मध्यम भोगभूमिसंबंधी बालाग्र, आठ मध्यम भोगभूमिसंबंधी बालानोंका एक जघन्य भोगभूमिसंबंधी बालाय, आठ जघन्य भोगभूमिसंबंधी बालानोंका एक कर्मभूमिसंबंधी बालाग्र, आठ कर्मभूमिसंबंधी बालानोंकी एक लिक्षा (लीख), आठ लिक्षाओंका एक जूं, आठ जूवोंका एक यव ( यव-मध्य ), और आठ यवोंका एक अंगुल होता है । अंगुल तीन प्रकारका है, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । ऊपर जिस अंगुलका प्रमाण बतलाया है बह उत्सेधांगुल ( सूचि ) है। पांचसौ उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है, जो अपसर्पिणीकालके प्रथम चक्रवर्तीके पाया जाता है। भरत और ऐरावत क्षेत्रमें जिस कालमें सामान्य मनुष्यका जो अंगुल प्रमाण होता है वह उस उस कालमें उस उस क्षेत्रका आत्मांगुल कहलाता है । मनुष्य, तिथंच, देव और नारकियोंके शरीरकी अवगाहना तथा चतुर्निकाय देवोंके निवास और नगरके प्रमाणके लिये उत्सेधांगुल ही ग्रहण किया जाता है। द्वीप, समुद्र,
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३६
षट्खंडागमकी प्रस्तावना पर्वत, वेदी, नदी, कुंड, जगती (कोट), वर्ष (क्षेत्र ) का प्रमाण प्रमाणांगुलसे किया जाता है, तथा भुंगार, कलश, दर्पण, वेणु, पटह, युग, शयन, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नाली, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र तथा मनुष्योंके निवास व नगर, उद्यानादिका प्रमाण आत्मांगुलसे किया जाता है । छह अगुलोंका पाद, दो पादोंकी विहस्ति ( बलिस्त ), दो विहस्तियोंका हाथ, दो हाथोंका किष्कु, दो किष्कुओंका दंड, युग, धनु, मुसल व नाली, दो हजार दंडोंका एक कोश तथा चार कोशोंका एक योजन होता है । (ति. प. १, ९८-११६) द्रव्यका अविभागी अंश = परमाणु
८ जू = यव अनन्तानन्त परमाणु = अवसन्नासन्न स्कंध | ८ यव = उत्सेधांगुल ८ अवसन्नासनस्कंध = सन्नासनस्कंध
| (५०० उत्सेधांगुल = प्रमाणांगुल) ८ सन्नासन्नस्कंध = त्रुटरेणु
६ अंगुल
= पाद ८ त्रुटरेणु = त्रसरेणु
२ पाद = रथरेणु ८ त्रसरेणु
= विहस्ति
२ विहस्ति ८ रथरेणु = उत्तम भो. भू.बालान
== हाथ ८ उ. भो. भ. बा. = मध्यम , , ,
२ हाथ = किष्कु ८ म. भो. भू. बा. = जघन्य ,,,
२ किकु. = दंड, युग, धनु, ८ ज. भो. भू. बा. = कर्मभूमि बालान
मुसल या नाली ८ क. भू. बालान - लिक्षा
२००० दंड = कोस ८ लिक्षा = जूं
। ४ कोश = योजन अंगुलसे आगेके प्रमाण भी आत्म, उत्सेध व प्रमाण अंगुल के अनुसार तीन तीन प्रकारके होते हैं। एक प्रमाण योजन अर्थात् दो हजार कोश लम्बे, चौड़े और गहरे कुंडके आश्रयसे अद्धापल्य नामक प्रमाण निकालनेका प्रकार ऊपर कालप्रमाणमें बता आये हैं। उसी अद्धापल्यके अर्धच्छेद' प्रमाण अद्धापल्योंका परस्पर गुणा करनेपर सूच्यंगुलका प्रमाण आता है । सूच्यंगुलके वर्ग को प्रतरांगुल और घनको घनांगुल कहते हैं। अद्धापल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण, अथवा मतान्तरसे अद्धापल्यके जितने अर्धच्छेद हों उसके असंख्यातवें भागप्रमाण, घनांगुलोंके परस्पर गुणा करनेपर जगश्रेणीका प्रमाण आता है । जगश्रेणीके सातमें भाग प्रमाण रज्जु होता है, जो तिर्यक् लोकके मध्य विस्तार प्रमाण है । जगश्रेणीके वर्गको जगप्रतर तथा जगश्रेणीके घनको लोक कहते हैं ।
ये सब अर्थात् पल्य, सागर, सूच्यंगुल प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक उपमा मान हैं, जिनका उपयोग यथावसर द्रव्य, क्षेत्र और काल, इन तीनों अपेक्षाओंसे बतलाये गये प्रमाणोंमें किया गया है। उनका तात्पर्य द्रव्यप्रमाणमें उतनी संख्यासे, कालप्रमाणमें उतने समयोंसे तथा क्षेत्रप्रमाणमें उतने ही आकाशप्रदेशोंसे समझना चाहिये ।
१एक राशि जितनी बार उत्तरोतर आधी आधी की जा सके, उतने उस राशिके अर्धच्छेद कहे जाते हैं।
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जीवराशिका गुणस्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण
४. भावप्रमाण-पूर्वोक्त तीना प्रकारके प्रमाणोंके ज्ञानको ही भावप्रमाण कहा है। (देखो सूत्र ५)। इसका अभिप्राय यह है कि जहां जिस गुणस्थान व मार्गणास्थानका द्रव्य, काल व क्षेत्रकी अपेक्षासे प्रमाण बतलाया गया है वहां उस प्रमाणके ज्ञानको ही भावप्रमाण समझ लेना चाहिये।
३ जीवराशिका गुणस्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण . सर्व जीवराशि अनन्तानन्त है। उसका बहुभाग मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवी है, तथा शेष एक भाग अन्य तरह गुणस्थानों और सिद्धोंमें विभाजित है। इनमें भी मिथ्यादृष्टि और सिद्ध क्रमहानिरूपसे अनन्तानन्त हैं । सासादनादि चार गुणस्थानोंके जीव प्रत्येक राशिमें असंख्यात हैं, तथा शेष प्रमत्तादि नौ गुणस्थानोंके जीव संख्यात हैं जिनकी कुल संख्या तीन कम नौ करोड़ निश्चित है । यद्यपि अनन्तको संख्यामें उतारना भ्रामक हो सकता है, तथापि धवलाकारने उक्त राशियोंके क्रमिक प्रमाणका बोध कराने के लिये सर्व जीवराशिको १६ और इनमेसे मिथ्याष्टिराशिको १३, तथा सासादनादि तेरह गुणस्थानोंके जीवों और सिद्धोंका संयुक्त प्रमाण ३ अंकोंके द्वारा सूचित किया है । अब हम यदि इसी अकसंदृष्टिके आधारसे सभी गुण थानों व सिद्धोंका अलग अलग प्रमाण कल्पित करना चाहें, तो स्थूलतः इसप्रकार किया जा सकता है
चौदह गुणस्थानोंमें जीवराशियोंके प्रमाणकी संदृष्टि गुणस्थान
प्रमाण
अंकसंदृष्टि १. मिथ्यादृष्टि
अनन्त *२. सासादन
असंख्य ३. मिश्र ४. अविरतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तविरत
५९३९८२०६ ७. अप्रमत्तविरत
२९६९९१०३ ८. अपूर्वकरण
८९७ ९. अनिवृत्तिकरण
८९७ १०. सूक्ष्मसाम्पराय
८९७ ११. उपशान्तमोह
२९९ १२. क्षीणमोह
५९८ १३. सयोगिकेवली १४. अयोगिकवली सिद्ध
अनन्त सर्वजीवराशि
अनन्त
८९९९९९९७
८९८५०२.
५९८ )
१६
१ सासादनसे संयतासंयत तक चारों गुणस्थानोंके जीव समुच्चय व पृथक् पृथक् रूपसे भी पत्योपमके
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षटखंडागमकी प्रस्तावना चौदहों गुणस्थानोंकी जीवराशियोंके प्रमाण-प्ररूपणके पश्चात् उनका भागाभाग और फिर उनका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। भागाभागमें सामान्य राशिको लेकर विभाग करते हुए सबसे अल्प राशि तक आये हैं । अल्पबहुत्वमें सबसे छोटी राशिसे प्रारंभ करके गुणा और योग (सातिरेक) करते हुए सबसे बड़ी राशि तक पहुंचे हैं। इस अल्पबहुत्वका तीन प्रकारसे प्ररूपण किया गया है, स्वस्थान, परस्थान और सर्वपरस्थान । स्वस्थानमें केवल अवहारकाल और विवक्षित राशिका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। परस्थानमें अवहारकाल, भाज्य तथा अन्य जो राशियां उनके प्रमाणके बीच में आ पड़ती हैं उनका और विवक्षित राशिका अल्पबहुत्व दिखाया गया है। तथा सर्वपरस्थानमें उक्त राशियोंके अतिरिक्त अन्य राशियोंसे भी अल्पबहुत्व दिखाया गया है। (पृ. १०१-१२१)
४ जीवराशिका मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण गुणस्थानोंमें जीवप्रमाण–प्ररूपणके पश्चात् गति आदि चौदह मार्गणाओं व उनके भेद-प्रभेदोंमें जीवराशिका प्रमाण दिखलाया गया है और यहां प्रत्येक राशिका प्रमाण, भागाभाग और अल्पबहुत्व यथाक्रमसे समझाया गया है । जिसप्रकार गुणस्थानोमें प्रथम मिथ्यादृष्टिके प्रमाण समझानेमें आचार्यने गणितकी अनेक प्रक्रियाओंका उपयोग करके दिखाया है, उसी प्रकार मार्गणास्थानोंमें प्रथम नरकगतिके प्रमाणप्ररूपणमें भी गणितविस्तार पाया जाता है। (देखो पृ. १२१-२०५)
उक्त प्रमाण-विवेचन बड़ी सूक्ष्मता और गहराईके साथ किया गया है, किन्तु आचार्यने अंकसंदृष्टि कायम नहीं रखी, जिससे सामान्य पाठकोंको विषयका बोध होना सुगम नहीं है । अतएव हम यहांपर उन सब मार्गणाओंकी पृथक् पृथक् प्रमाण-प्ररूपक अंकसंदृष्टियां आचार्यद्वारा कल्पित अंकोंके आधारसे बनानेका प्रयत्न करते हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य अनन्त, असंख्यात व संख्यातके भीतर राशियोंके अल्पबहुत्वका कुछ स्थूल बोध कराना मात्र है । प्रत्येक मार्गणाके भीतर संपूर्ण जीवराशिका समुच्चय प्रमाण १६ ही रखा गया है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे परीक्षण करनेपर एक दूसरी मार्गणाओंकी अंकसंदृष्टियोंमें परस्पर वैषम्य दृष्टिगोचर हो सकता है। यह सर्वजीवराशिके लिये केवल १६ जैसी अल्प संख्या लेकर समस्त मार्गणाओंके प्रभेदोंको उदाहृत करनेमें प्रायः अनिवार्य ही है। एक राशि दूसरी राशिसे जितनी विशेष व जितनी गुणित अधिक है उसका अनुमान इन अंकोंसे कदापि नहीं करना चाहिये। यहां तो सिर्फ एक मार्गणाके भीतर राशियोंकी परस्पर अधिकता या अल्पताका ही क्रम जाना जा सकता है । यद्यपि गणितके सूक्ष्म विचारसे यह वैषम्य भी संभवतः दूर किया जा सकता था, किन्तु उससे फिर संदृष्टियां सुगम होने की अपेक्षा दुर्गम सी हो जाती, जिससे हमारा अभिप्राय पूर्ण नहीं होता। चूंकि यहां प्रत्येक मार्गणाके भीतर जीवराशियोंका प्रमाणक्रम निर्दिष्ट करना अभीष्ट है, अतएव राशियां बहुत्वसे अल्पत्वकी और क्रमसे रखी गई हैं, उनके रूढक्रमसे नहीं। हां, सिद्ध सर्वत्र अन्त
असंख्यातवें भाग हैं। इममें भी असंयप्तसम्यग्दृष्टि सबसे आधिक, इनके असंख्यात माग मिश्रगुणस्थानीय, इनके प्रख्यात माग सासादन गुणस्थानाय तथा इनके असंख्यातवें माग संयतासंयत जीव हैं।
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जीवराशिका मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण की ओर ही रखे हैं। कहीं कहीं राशिके जो अंक दिये गये हैं उनसे कुछ अधिक प्रमाण विवक्षित है, क्योंकि, उसमें कोई अन्य अल्प राशि भी प्रविष्ट होती है। ऐसे स्थानोंपर अंकके आगे धनका चिन्ह + बना दिया गया है, और अंक देकर टिप्पणीमें उस विवक्षित राशिका उल्लेख कर दिया गया है । इस दिशामें यह प्रयत्न, जहां तक हमें ज्ञात है, प्रथम ही है, अत: सावधानी रखने पर भी कुछ त्रुटियां हो सकती हैं । यदि पाठकोंके ध्यानमें आवें, तो हमें अवश्य सूचित करें ।
चौदह मार्गणास्थानोंमें जीवराशियोंके प्रमाणकी संदृष्टियां ( मार्गणा शीर्षकके आगे दी गई पृष्ठसंख्या उस मार्गणाके भागाभागकी सूचक है।)
१ गति मार्गणा (पृ. २०७) तिर्यंच देव नारक मनुष्य । सिद्ध । सर्व जीव अनन्त असंख्य असंख्य
असंख्य
अनन्त
अनन्त १६
२०.
१२
३२
१६
१६
२ इन्द्रिय मार्गणा ( पृ. ३१९) १ इंद्रिय | २ इंद्रिय | ३ इंद्रिय | ४ इंद्रिय । ५ इंद्रिय । अतींद्रिय | सर्व जीव अनन्त
असंख्य - असंख्य असंख्य असंख्य अनन्त
अनन्त १८२
१२ १६
१४
१४
वनस्पति । वायु अनन्त असंख्य
१६
३ काय मार्गणा (पृ. ३४१) जल प्रथिवी तेज ।
त्रस असंख्य असंख्य असंख्य असंख्य
अकाय | सर्व जीव
अनन्त
अनन्त ३२
१६
.
१६
काय. अनन्त
४ योग मार्गणा (पृ. ४१२) वचन. मन.
अयोगी असंख्य असंख्य
अनन्त ३२ र
सर्व जीव
अनन्त
१८४
१ यहाँ यह सिद्धोका प्रमाण अयोगिकेवलियोंसे सातिरेक समझना चाहिये ।
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
नपुंसक अनन्त
५ वेद मार्गणा (पृ. ४२१) पुरुष
अवेद असंख्य असंख्य
अनन्त
स्त्री
सर्व जीव. अनन्त
२००
२०
३२
१६
लोभ. अनन्त ૮ ૨
माया. अनन्त
६ कषाय मार्गणा (पृ. ४३१)
क्रोध. मान. अकषायी. अनन्त अनन्त
अनन्त ४८ ४४
१२.३
सर्व जीव अनन्त
१६
विभंग. ।
केवल.
सर्व जीव
कुमति. कुश्रुत. अनन्त ८३२
७ ज्ञान मार्गणा (पृ. ४४२ ) मति. । अवधि. | मनःपर्यय, | श्रुत. असख्य असंख्य संख्यात २०
असंख्य
अनन्त
अनन्त
१६
६४
८४
८ संयम मार्गणा (पृ. ४५१) असंयमी | देशसं. | सामाः । यथाख्या. | परि. वि. | सू. सां. | सिद्ध । सर्व जीव
छेदो. अनन्त । असंख्य संख्यात संख्यात संख्यात संख्यात अनन्त
अनन्त ८३२ +"
१२८
१६
९ दर्शन मार्गणा (पृ. ४५७)
अवधि. केवल. असंख्य असंख्य
अनन्त
अचक्षु. अनन्त ८३२ ६४
चक्षु.
सर्व जीव अनन्त
१२८
६४
६४
२ यहां मिद्धोंका प्रमाण ९वें गुणस्थानके अवेद भागसे ऊपरके समस्त गुणस्थानोंकी राशियोंसे सातिरेक है। ३ यहां सिद्धोंका प्रमाण ११ वें और ऊपरके समस्त गुणस्थानोंकी राशियोंसे सातिरेक है। ४ यहां सिद्धोका प्रमाण १३ वें और १४ वें गुणस्थानोंकी राशियोंसे सातिरेक है। ५ यहाँ मिथ्यादृष्टियोका प्रमाण २ सरे, ३ सरे और ४ थे गुणस्थान की राशियोंसे साधिक है । ६ यहां सिद्धोंका प्रमाण १३ वें और १४ वें गुणस्थानोंकी राशियोंसे सातिरेक है।
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जीवराशिका मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण
१० लेश्या मार्गणा ( पृ. ४६६ ) नील. । कापोत. | पीत. । पन. | शुक्ल. । अलेश्य | सर्व जीव
कृष्ण. । अनन्त
अनन्त
अनन्त
असंख्य । असंख्य
असंख्य
| अनन्त
अनन्त
+
१६
१६
११ भव्य मार्गणा (पृ. १७३)
भव्य अनन्त १९६
अभव्य অনর २८
सिद्ध ठानन्त ३२
सर्व जीव अनन्त
१२ सम्यक्त्व मार्गणा (पृ. ४७८ ) मिथ्या. क्षायोप. | क्षायिक. । औपश.. मिश्र. | सासा. सिद्ध । सर्व जीव अनन्त असख्य
असंख्य असंख्य असंख्य अनन्त
अनन्त
२०८
१७
१६
१३ संज्ञा मार्गणा (पृ. ४८३)
असंही अनन्त १९९
संक्षी असंख्य
अनुभय अनन्त
सर्व जीव
अनन्त
२५
१४ आहार मार्गणा (पृ. ४८५)
अनाहारक
आहारक अनन्त
बंधक अनन्त
अबंधक अनन्त
सर्व जीव अनन्त
७ यहां सिद्धोंका प्रमाण १४ वें गुणस्थान राशिसे सातिरेक है । ८ यहां सिद्धोंका प्रमाण १३ वें और १४ वें गुणस्थानोंकी राशियोंसे सातिरेक समझना चाहिये ।
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षट्खंडागमकी प्रस्तवना मार्गणास्थानोंके भीतर बतलाई गई राशियोंका बहुत्यसे अल्पत्वकी ओर क्रम जहांतक हमारे विचारमें आया है, निम्न प्रकार है
अनन्त १ असंयमी २ अचक्षुदर्शनी ३ कुमति । ४ कुश्रुत । ५ मिथ्यादृष्टि ६ नपुंसकवेदी ७तियंच ८ असंही ९ काययोगी १० एकेन्द्रिय ११ वनस्पतिकायिक १२ भव्य १३ आहारक १४ अनाहारक १५ कृष्ण लेश्या १६ नील , १७ कापोत,, १८ लोभ कषायी १९ माया , २० क्रोध , २१ मान , २२ सिद्ध २३ अभव्य
असंख्यात
संख्यात २४ वायुकायिक
५६ सामायिकसंयत । २५ जल
५७ छदोपस्थापना ," २६ पृथिवी,
५८ यथाख्यात २७ तेज "
५९ केवलज्ञानी २८ त्रस ,
६० केवलदर्शनी २९ वचनयोगी
६१ परिहारसंयत ३० द्वीन्द्रिय
६२ मनःपर्ययज्ञानी ३१ त्राीन्द्रय
६३ सूक्ष्मसांपरायसंयत ३२ चतुरिन्द्रिय ३३ चक्षुदर्शनी ३४ पंचेन्द्रिय ३५ संशी ३६ मनोयोगी ३७ विभंगशानी ३८ देवगति ३९ स्त्रीवेदी ४० नारक ४१ पुरुषवेदी ४२ मनुष्य ४३ पीतलेश्या ४४ पद्म ,, ४५ मतिज्ञानी। ४६ श्रुत ," ४७ अवधि, । ४८ अवधिदर्शनी ४९ शुक्ललेश्या ५०क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी. ५१ क्षायिक ५२ औपशमिक , ५३ मिश्र ५४ सासादन ५५ देशसंयत
अनन्त राशियां २३, असंख्यात राशियां २४-५५३३२, संख्यात ५६-६३८; कुल ६३.
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जीवराशिका मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण इस प्रमाण-प्ररूपणमें स्वभावतः पाटकोंको मनुष्योंके प्रमाणके सम्बधमें विशेष कौतुक हो सकता है। इस आगमानुसार सर्व मनुष्योंकी संख्या असंख्यात है। उनमें गुणस्थानोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात, कालप्रमाणसे असंख्यातासंख्यात कल्पकाल (अवसर्पिणियोंउत्सर्पिणियों) के समय प्रमाण, तथा क्षेत्रप्रमाणसे जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग अर्थात् असंख्यात करोड़ योजन क्षेत्रप्रदेश प्रमाण हैं । द्वितीयादि गुणस्थानवी जीव संख्यात हैं, जो इस प्रकार हैं
२ सासादन गुणस्थानवी मनुष्य ५२ करोड़ (व मतान्तरसे ५० करोड़) ३ मिश्र , ,, १०४ करोड़ (पूर्वोक्तसे दुगुने) ४ असंयतसम्यग्दृष्टि ,, ,, ७०० करोड़ ५ संयतासंयत ,, ,, १३ करोड़
छठवेसे चौदहवें गुणस्थानतकके मनुष्यों की संख्या वही है जो ऊपर गुणस्थान प्रमाण-प्ररूपणमें दिखा आये हैं, क्योंकि, ये गुणस्थान केवल मनुष्योंके ही होते हैं, देवादिकोंके नहीं। अतः जिनका प्रमाण संख्यात है, ऐसे द्वितीय गुणस्थानसे चौदहवें गुणस्थान तकके कुल मनुष्योंका प्रमाण ५२+१०४+ ७००+१३+तीन कम ९ करोड़, अर्थात् कुल तीन कम आठसौ अठहत्तर करोड़ होता है । आजकी संसारभरकी मनुष्यगणनासे यही प्रमाण चौगुनेसे भी अधिक हो जाता है। मिथ्यादृष्टियोंको मिलाकर तो उसकी अधिकता बहुत ही बढ़ जाती है। जैन सिद्धान्तानुसार यह गणना ढाई द्वीपवर्ती विदेह आदि समस्त क्षेत्रोंकी है जिसमें पर्याप्तकोंके अतिरिक्त निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भी सम्मिलित हैं।
नाना क्षेत्रोंमें मनुष्य गणनाका अल्पबहुत्व इस प्रकार बतलाया गया है अन्तद्वीपोंके मनुष्य सबसे थोड़े हैं । उनसे संख्यातगुणे उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्य हैं । इसीप्रकार हरि और रम्यक, हैमवत और हैरपवत, भरत और ऐरावत, तथा विदेह इन क्षेत्रोंका मनुष्यप्रमाण पूर्व पूर्वसे क्रमशः संख्यातगुणा है । (देखो पृ. ९९)
एक बात और उल्लेखनीय है कि वर्तमान हुंडावसर्पिणीमें पद्मप्रभ तीर्थंकरका ही शिष्य-परिवार सबसे अधिक हुआ है, जिसकी संख्या तीन लाख तीस हजार ३,३०,००० थी।
__उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों और मार्गणा-स्थानोंमें जीवद्रव्यके प्रमाणका ज्ञान भगवान् भूतबलि आचार्यने १९२ सूत्रोंमें कराया है, जिनका विषयक्रम इस प्रकार है
, प्रथम सूत्रमें द्रव्यप्रमाणानुगमके ओघ और आदेश द्वारा निर्देश करने की सूचना देकर दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें सूत्रों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके जीवोंका प्रमाण क्रमशः द्रव्य, काल,क्षेत्र और भावकी अपेक्षा बतलाया है। छठवें सूत्रमें द्वितीयसे पांचवें गुणस्थान तकके जीवोंका तथा आगेके सातवें और आठवें सूत्रमें क्रमशः छठे और सातवें गुणस्थानोंका द्रव्य-प्रमाण बतलाया है । उसी प्रकार ९ वें और १० वें सूत्रमें उपशामक तथा ११ वें व १२ वें में क्षपकों और अयोगकेवली जीवोंका तथा १३ ३ व १४ वें सूत्रमें सयोगिकेवलियोंका प्रवेश और संचय-कालकी
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४.
षट्खंडागमकी प्रस्तावना अपेक्षासे प्रमाण कहा गया है । सूत्र नं. १५ से मार्गणास्थानोंमें प्रमाणका निर्देश प्रारंभ होता है, जिसके प्ररूपणकी सूत्र-संख्या निम्न प्रकार है-- सूत्रसे सूत्रतक कुल सूत्र
सूत्रसे सूत्रतक कुल सूत्र नरकगति १५ - २३ = ९ ज्ञान मार्गणा १४१ - १४७ = ७ तियंचगति २४ - ३९ = १६ संयम , १४८ - १५४ = ७ मनुष्यगति ४० - ५२ = १३ दर्शन ,,१५५ - १६१ = ७ देवगति ५३ - ७३ = २१ । लेझ्या ,, १६२ - १७१ = १० इंद्रिय मार्गणा ७४ -
भव्य , १७२ - १७३ = २ काय , ८७ - १०२ = १६ सम्यक्त्व ,, १७४ - १८४ = ११ योग , १०३ - १२३ = २१ संज्ञी , १८५ - १८९ = ५ वेद , १२४ - १३४ = ११ आहार , १९० - १९२ = ३ कषाय ,, १३५ - १४० = ६
५ मतान्तर और उनका खंडन धवलाकारने अपने समयकी उपलब्ध सैद्धान्तिक सम्पत्तिका जितना भरपूर उपयोग किया है वह ग्रंथके अवलोकनसे ही पूर्णतः ज्ञात हो सकता है । सूत्रों, व्याख्यानों और उपदेशोंका जो साहित्य उनके सन्मुख उपस्थित था, उसका सिंहावलोकन प्रथम भागकी भूमिकामें कराया जा चुका है। प्रस्तुत ग्रंथभागमें भी जहां प्रकृत विषयके विशेष प्रतिपादनके लिये धवलाकारको सूत्र, सूत्रयुक्ति व व्याख्यानका आधार नहीं मिला, वहां उन्होंने 'आचार्य परंपरागत जिनोपदेश'' परम गुरूपदेश, ''गुरूपदेश, ' व 'आचार्य-वचन ' के आश्रयसे प्रमाणप्ररूपण किया है। किन्तु विशेष ध्यान देने योग्य कुछ ऐसे स्थल हैं, जहां आचार्यने भिन्न भिन्न मतोंका स्पष्ट उल्लेख करके एकका खंडन और दूसरेका मंडन किया है । यहां हम इसीप्रकारके मत-मतान्तरोंका कुछ परिचय कराते हैं
(१) सूत्रकारने प्रमाणप्ररूपणामें प्रथम द्रव्यप्रमाण, फिर कालप्रमाण, और तत्पश्चात् क्षेत्रप्रमाणका निर्देश किया है। सामान्य क्रमानुसार क्षेत्र पहले और काल पश्चात् उल्लिखित किया जाता है, फिर यहां काल का क्षेत्रसे पूर्व निर्देश क्यों किया गया ? इसका समाधान धवलाकार करते हैं कि कालकी अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण सूक्ष्म होता है, अतएव 'जो स्थूल और अल्प वर्णनीय हो, उसका पहले व्याख्यान करना चाहिये।' इस नियमके अनुसार कालप्रमाण पूर्व और क्षेत्रप्रमाण उसके अनन्तर कहा गया है। इस स्थल पर उन्होंने सूक्ष्मत्वके संबंधमें कुछ आचार्योंकी एक भिन्न मान्यताका उल्लेख किया
परमगुरूवदेसादो जाणिज्जदे।...इदमेत्तियं हीदि ति कधं णबदे? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो।... अप्पमत्तसंजदाणं पमाणं गुरूवदेसादो बुच्चदे । (पृ. ८९ ) और भी देखिये पृ. १११, ३५१,४०६, ४७१.
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मतान्तर और उनका खंडन है कि जो बहुप्रदेशोंसे उपचित हो वही सूक्ष्म होता है, और इस मतकी पुष्टिमें एक गाथा भी उद्धृत की है जिसका अर्थ है कि काल सूक्ष्म है, किन्तु क्षेत्र उससे भी सूक्ष्मतर है, क्योंकि, अगुलके असंख्यातवें भागमें असंख्यात कल्प होते हैं । धवलाकारने इस मतका निरसन इसप्रकार किया है कि यदि सूक्ष्मत्वकी यही परिपा मान ली जाय तब तो द्रव्यप्रमाणका भी क्षेत्रप्रमाणके पश्चात् प्ररूपण करना चाहिये, क्योंकि, एक गाथानुमार, एक द्रव्यांगुलमें अनन्त क्षेत्रांगुल होनेसे क्षेत्र सक्षम और द्रव्य उनसे सूक्ष्मतर होता है । ( पृष्ठ २७-२८)
(२) तिर्यक् लोकके विस्तार और उसी संबधसे रज्जूके प्रमाणके संबंधों भी दो मतोंका उल्लेख और विवेचन किया गया है । ये दो भिन्न भिन्न मत त्रिलोकप्रज्ञप्ति और परिकर्मके भिन्न भिन्न सूत्रों के आधारसे उत्पन्न हुए ज्ञात होते हैं। रज्जूका प्रमाण लानेकी प्रक्रियामें जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंको रूपाधिक करनेका विधान पारकर्मसूत्रमें किया गया है जिसका 'एक रूप' अर्थ करनेसे कुछ व्याख्यानकारोंने यह अर्थ निकाला है कि तिर्यक्लोकका विस्तार स्वयंभूरमण समुद्र की बाहिरी वेदिकापर समाप्त हो जाता है। किन्तु त्रिलोकप्रज्ञाप्तिके आधारसे धवलाकारका यह मत है कि स्वयंभूरमण समुद्रसे बाहर असंख्यात द्वीपसागरों के विस्तार परिमाण योजन जाकर तिर्यक्लोक समाप्त होता है, अतः जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंमें एक नहीं, किन्तु संख्यातरूप अधिक बढ़ाना चाहिये । इस मतका परिकर्मसूत्रसे विरोध भी उन्होंने इसप्रकार दूर कर दिया है कि उस सूत्रमें 'रूपाधिक' का अर्थ 'एकरूप अधिक' नहीं, किन्तु 'अनेक रूप अधिक' करना चाहिये। एक रूपवाले व्याख्यानको उन्होंने सच्चा व्याख्यान नहीं, किन्तु व्याख्यानाभास कहा है । अपने मतकी पुष्टिमें धवलाकारने यहां जो अनेक युक्तियां और सूत्रप्रमाण दिये हैं उनसे उनकी संग्राहक और समालोचनात्मक योग्यताका अन्छा परिचय मिलता है। इस विवेचनके अन्तमें उन्होंने कहा है
'एसो अस्थो जइवि पुब्वाइरियसंपदायविरुद्धो, तो वि तंतजुत्तिबलेण अम्हेहि परूविदो । तदो इदमित्थं वेत्ति हासग्गही काययो, अईदिनत्थविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहे उत्ताणुववत्तीदो । तम्हा उवएसं लक्षूग विसेसणिण्णयो एस्थ काययो।
अर्थात् हमारा किया हुआ अर्थ यद्यपि पूर्वाचार्य-संप्रदायके विरुद्ध पड़ता है, तो भी तंत्रयुक्तिके बलसे हमने उसका प्ररूपण किया । अतः ' यह इसीप्रकार है ' ऐसा दुराग्रह नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अतीन्द्रिय पदार्थों के विषयमें अल्पज्ञों द्वारा विकल्पित युक्तियों के एक निश्चयरूप निर्णयके लिये हेतु नहीं पाया जाता। अतः उपदेशको प्राप्त कर विशेष निर्णय करनेका प्रयत्न करना चाहिये । यहां ग्रंथकारकी कैसी निष्पक्ष, निर्मल, शोधक बुद्धि और जिज्ञासा प्रकट हुई है ?
(पृ. ३४ से ३८) (३) एक मुहूर्तमें कितने उच्छ्रास होते हैं, यह भी एक मतभेदका विषय हुआ है । एक मत है कि एक मुहूर्तमें केवल ७२० प्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास होते हैं। किन्तु धवलाकार कहते हैं कि यह मत न तो एक स्वस्थ पुरुषके श्वासोच्छ्वासोंकी गणना करनेसे सिद्ध होता है,
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षटखंडागमकी प्रस्तावना और न केवली द्वारा भाषित प्रमाणभूत अन्य सूत्रसे इसका सामञ्जस्य बैठता है। उन्होंने एक प्राचीन गाथा उद्धृत करके बतलाया है कि एक मुहूर्तके उच्छ्वासोंका ठीक प्रमाण ३७७३ है,
और इसी प्रमाण द्वारा सूत्रोक्त एक दिवसमें १,१३,१९० प्राणोंका प्रमाण सिद्ध होता है । पूर्वोक्त मतसे तो एक दिनमें केवल २१,६०० प्राण होंगे, जो किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं । (पृ. ६६.६७)
(४) उपशामक जीवोंकी संख्याक विषयमें उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति, ऐसी दो भिन्न . मान्यताएं दी हैं। प्रथम मतानुसार उक्त जीवोंकी संख्या ३०४, तथा द्वितीय मतानुसार उनसे ५ कम अर्थात् २९९ है। इस मतभेदकी प्ररूपक दो गाथाएं भी उद्धृत की गई हैं। उनमेंसे एकमें एक तीसरा मत और स्फुटित होता है, जिसके अनुसार उपशामकोंकी संख्या पूरे ३०० है । इन मतभेदोंपर धवलाकारने कोई ऊहापोह नहीं किया, उन्होंने केवलमान उनका उल्लेख ही किया है।
(५) इन्हीं उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तियोंका मतभेद प्रमत्तसंयत राशिके प्रमाण-प्ररूपणमें भी पाया जाता है। उत्तरप्रतिपत्तिके अनुसार प्रमत्तोंका प्रमाण ४,६६,६६,६६४ है, किन्तु दक्षिणप्रतिपत्त्यनुसार यह प्रमाण ५,९३,९८,२०६ आता है। इन मतभेदोंके बीच निर्णय करनेका भी धवलाकारने यहां कोई प्रयत्न नहीं किया। किन्तु दक्षिणप्रतिपत्तिके प्रमाणमें जो कुछ आचार्योंने यह शंका उठाई है कि सब तीर्थंकरोंमें सबसे बड़ा शिष्यपरिवार पद्मप्रभस्वामीका ही था, किन्तु वह परिवार भी मात्र ३,३०,००० ही था । तब फिर जो सर्व संपतोंकी पूरी संख्या ८९९९९९९७ एक प्राचीन गाथामें बतलाई है, वह कैसे सिद्ध हो सकती है ? इसका परिहार धवलाकारने यह किया है कि इस हुंडावसर्पिणी कालवी तीर्थंकरों के साथ भले ही संयतोंका उक्त प्रमाण पूर्ण न होता हो, किन्तु अन्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियोंमें तो तीर्थकरोंका शिष्य-परिवार बड़ा पाया जाता है । दूसरे, भरत और ऐरावत क्षेत्रोंकी अपेक्षा मनुष्योंका प्रमाण विदेह क्षेत्रमें संख्यातगुणा पाया जाता है, अतः वहां उक्त प्रमाण पूरा हो सकता है । इसलिये उक्त प्रमाणमें कोई दूषण नहीं है। (पृ. ९८-९९)
(६) पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल देवोंके अवहारकालके आश्रयसे बतलाया गया है। किन्तु धवलाकारका मत है कि कितने ही आचार्योंका उक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, वानव्यन्तर देवोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्गमात्र बतलाया गया है। यहां कोई यह शंका कर सकता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि संबंधी अवहारकाल ही गलत है और वानव्यन्तर देवोंका अवहारकाल ठीक है, यह कैसे जाना जाता है ? यहां धवलाकार कहते हैं कि हमारा कोई एकान्त आग्रह नहीं है, किन्तु जब दो बातोंमें विरोध है तो उनमेंसे कोई एक तो असत्य होना ही चाहिये । किन्तु इतना समाधानपूर्वक कह चुकने पर धवलाकारको अपनी निर्णायक बुद्धिकी प्रेरणा हुई और वे कह उठे-अहवा दोणि वि वक्खाणाणि भसञ्चाणि, एसा अम्हाणं पइज्जा।' अर्थात् उक्त दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हम प्रतिज्ञापूर्वक कह सकते हैं । इसके आगे धवलाकारने खुद्दाबंध सूत्रके आधारसे उक्त दोनों अवहारकालोंको असिद्ध करके उनमें यथोचित प्रमाण-प्रवेश करनेका उपदेश दिया है । (पृ. २३१-२३२)
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गणित की विशेषता
( ७ ) सासादन सम्यग्दृष्टियों का प्रमाण एक प्राचीन गाथामें ५२ करोड़ और दूसरी गाथामें ५० करोड़ पाया जाता है | धवलाकारने प्रथम मत ही ग्रहण करनेका आदेश किया है, क्योंकि, वह प्रमाण आचार्य परंपरागत है । (पृ. २५२ )
( ८ ) सूत्र ४५ में मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण बतलाया है 'कोड़ा कोड़ा कोड़ से ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी से नीचे' अर्थात् छठवें वर्ग के ऊपर और सातवें वर्गके नीचे । किन्तु एक दूसरा मत है कि मनुष्य-पर्याप्त राशि वादाल वर्गके ( ४२९४९६७२९६ ) अर्थात् द्विरूप वर्गधाराके पांचवें वर्गस्थानके घनप्रमाण है । धवलाकारने इस दूसरे मतका परिहार किया है और उसके दो कारण दिये हैं । एक तो वादालका घन २९ अंक प्रमाण होकर भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी के ऊपर निकल जाता है, जिससे सूत्रोक्त अंक- सीमाओं का सर्वथा उल्लंघन हो जाता है । दूसरे यदि ढाई द्वपिके उस भागका क्षेत्रफल निकाला जाय जहां मनुष्य विशेषतासे पाये जाते हैं, तो उसका क्षेत्रफल केवल २५ अंक प्रमाण प्रतरांगुलों में आता है, जिससे उस २९ अंक प्रमाण मनुष्यराशिका वहां निवास असंभव सिद्ध होता है । यहीं नहीं, सर्वार्थसिद्धि के देवोंका प्रमाण मनुष्य पर्याप्त शिसे संख्यातगुणा कहा गया है जबकि सर्वार्थसिद्धि विमानका प्रमाण केवल जम्बूद्वीप के बराबर है । अतएव उक्त प्रमाणसे इन देवोंकी अवगाहना भी उनकी निश्चित निवास-भूमिमें असंभव हो जायगी । अतः उक्त राशिका प्रमाण सूत्रोक्त अर्थात् कोड़ाकोड़ा कोड़ा - कोड़ीसे नीचे ही मानना उचित है । (पृ. २५३-२५८ )
( ९ ) आहारमिश्रकाययोगियोंका प्रमाण आचार्य - परम्परागत उपदेशसे २७ माना गया है, किन्तु सूत्र १२० में उनका प्रमाण ' संख्यात' शब्द के द्वारा सूचित किया गया है । इसपर से धवलाकारका मत है कि उक्त राशिका प्रमाण निश्चित २७ नहीं मानना चाहिये, किन्तु मध्यम संख्यातकी अन्य कोई संख्या होना चाहिये, जिसे जिनेन्द्र भगवान् ही जानते हैं । यद्यपि २७ भी मध्यम संख्यातका ही एक भेद है और इसलिये उसके भी उक्त प्रमाणप्ररूपण में ग्रहण करने की संभावना हो सकती है, किन्तु इसके विरुद्ध धवलाकारने दो हेतु दिये हैं । एक तो सूत्र में केवल 'संख्यात' शब्द द्वारा ही वह प्रमाण प्रकट किया गया है, किसी निश्चित संख्या द्वारा नहीं | दूसरे मिश्रकाययोगियोंसे आहारकाययोगी संख्यातगुणे कहे गये है । दोनों विकल्पों में यहां सामंजस्य बन नहीं सकता, क्योंकि, सर्व अपर्याप्तकाल से जधन्य पर्याप्तकाल भी संख्यात - गुणा माना गया है । ( पृ ४०२ )
६ गणितकी विशेषता
धवलाकारने अपने इस ग्रंथभागके आदिमें ही मंगलाचरण गाथामें कहा है कि-' णमिण जिणं भणिमो दव्वणिओगं गणियसारं ' अर्थात् जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके हम द्रव्यप्रमाणानुयोगका कथन करते हैं, जिसका सार भाग गणितशास्त्र से सम्बंध रखता है, या जो गणित-शास्त्र- प्रधान है । यह प्रतिज्ञा इस ग्रंथ में पूर्णरूपसे निवाही गई है | धवलाकारने इस ग्रंथभागमें गणितज्ञानका खूब उप
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
योग किया है, जिससे तत्कालीन गणितशास्त्रकी अवस्थाका हमें बहुत अच्छा परिचय मिल जाता है । धवलाकारसे शताब्दियों पूर्व रचे गये भूतबलि आचार्यके सूत्रोंमें जो गणितशास्त्रसंबंधी उल्लेख हैं, वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं । उनमें एकसे लगाकर शत, सहस्र, शतसहस्र ( लक्ष ), कोटि, कोटाकोटाकोटी व कोटा कोटाकोटाकोटी तक की गणना, व उससे भी ऊपर संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्तका कथन, गणितकी मूल प्रक्रियाओं जैसे सातिरके, हीन, गुण और अवहार या प्रतिभाग अर्थात् जोड़ बाकी, गुणा, भाग, वर्ग और वर्गमूल, तथा प्रथम, द्वितीय आदि सातवें तक वर्ग व वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यास आदिका खूब उपयोग किया गया है । क्षेत्र और कालसंबंधी विशेष गणना - मानों जैसे अंगुल, योजन, श्रेणी, जगप्रतर व लोक तथा आवली, अन्तर्मुहूर्त, अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी, पल्योपम, तथा विष्कंभ विष्कंभसूची ( पंक्तिरूप क्षेत्रआयाम ), इन सबका भी सूत्रों में खूब उपयोग पाया जाता है, जिनके स्वरूपपर ध्यान देनेसे आजसे लगभग दो हजार वर्षपूर्वके एतद्देशीय गणितज्ञानका अच्छा दिग्दर्शन मिल जाता है ।
धवलाकारकी रचनामें असंख्यात, असंख्यातासंख्यात तथा अनन्त और अनन्तानन्तके आन्तरिक प्रभेदों और तारतम्योंका और भी सूक्ष्म निदर्शन किया गया है, जिसका स्वरूप हम ऊपर दिखा आये हैं । इस विषय में धवलाकारद्वारा अर्धच्छेद और वर्गशलाकाओंके परस्पर संबंधका तथा वर्गित - संवर्गित राशिका जो परिचय दिया गया है वह गणितकी विशेष उपयोगी वस्तु है । (देखो पृ. १८-२६) । सर्व जीवराशिका उसके अन्तर्गत राशियों में भाग-प्रविभाग दिखानेके लिये धवलाकार
ध्रुवराशि (भागहार विशेष ) स्थापित करनेकी क्रिया और उससे भाग देनेकी प्रक्रियाएं जैसे खंडित, भाजित, विरलित और अपहृत विस्तारसे दी हैं, जो गणितज्ञोंको रुचिकर सिद्ध होंगी। (देखो पृ. ४१ ) । ध्रुवराशिसे भाग देनेपर विवक्षित मिथ्यादृष्टिराशि क्यों आती है, इसका कारण समझाने में भाज्य और भाजक हानि-वृद्धिक्रमका जो तारतम्य और संबंध बतलाया गया है और क्षेत्र - गणितसे समझाया गया है, वह गणितशास्त्रका एक बहुमूल्य भाग है । (देखो पृ. ४२ आदि) । अवतरण गाथा २४ से ३२ तककी नौ गाथाओं में इसी संबंध के बड़े सुंदर नियम गुरुरूपमें उद्धृत किये गये हैं और उनका उपयोग विवक्षित राशियां लानेके लिये यथासंभव और यथास्थान भागके अनेक विकल्पोंमें करके बतलाया गया है । अधस्तन विकल्पमें निश्चित भाज्य और भाज़कसे नीचेकी संख्या लेकर वही भजनफल उत्पन्न करके बतलाया गया है, और वह भी द्विरूप अर्थात् वर्गधारामें, अष्टरूप अर्थात् घनधारामें और घनाघनधारा । अर्थात् निश्चित संख्याका प्रथम, द्वितीय व तृतीय वर्गमूल लेकर भाजकको कम कर वही भजनफल उत्पन्न कर दिखाया है । उपरिम विकल्पमें निश्चित भाज्य व भाजकसे ऊपरकी अर्थात् वर्ग, घन व घनाघनरूप राशियां ग्रहण करके वही भजनफल उत्पन्न किया गया है । इस प्रक्रियामें धवला - कारने तीन और विकल्प कर दिखाये हैं, गृहीत, गृहीतगृहीत, और गृहीतगुणकार । गृहीत तो सीधा है, अर्थात् उसमें ऊपरके भाज्य और भाजकके द्वारा निश्चित भजनफल उत्पन्न किया गया है । किन्तु गृहीतगृहीत में निश्चित भजनफल भी एक बड़ी राशिका भाजक बन जाता है और उसके
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मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलानका निष्कर्ष लब्धका. उसी भाजकमें भाग देनेसे निश्चित भजनफल प्राप्त होता है। गृहीतगुणकारमें निश्चित. भजनफल का विवक्षित राशिमें भाग देनेसे जो लब्ध आया उसका उसी भाजक राशिसे गुणा करके उत्पन्न हुए भजनफलका विवक्षित राशिके वर्गमें भाग देकर निश्चित भजनफल प्राप्त किया गया है । ये सब विकल्प वर्गात्मक राशियोंमें ही घटित होते हैं। इनका पूर्ण स्वरूप पृष्ठ ५२ से ८७ तक देखिये । प्रमाणराशि, फलराशि और इच्छाराशि, इनकी त्रैराशिक क्रियाका उपयोग जगह जगह दृष्टिगोचर होता है। (पृ. ९५, १०० )
मनुष्यगति-प्रमाणके प्ररूपणमें राशि दो प्रकारकी बतलाई है ओज और युग्म । इनमेंसे प्रत्येकके पुन: दो विभाग किये गये हैं। किसी राशिमें चारका भाग देनेसे यदि तीन शेष रहें तो वह तेजोज राशि, यदि एक शेष रहे तो कलिओज राशि, यदि चार शेष रहें ( अर्थात् कुछ शेष न रहे) तो कृतयुग्म राशि तथा यदि दो शेष रहे तो बादरयुग्म राशि कहलाती है । इनमेसे मनुष्यराशि तेजोज कही गई है । (पृ. २४९)
८ मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलानका निष्कर्ष
यह तो पाठकोंको विदित ही है कि इन सिद्धान्तग्रंथोंकी प्राचीन प्रतियां केवल एकमात्र मूड़बिद्रीक्षेत्रके सिद्धान्तमन्दिरमें प्रतिष्ठित हैं । पूर्व प्रकाशित दो भागोंके लिये हमें इन प्राचीन प्रतियोंके पाठ-मिलानका सुअवसर प्राप्त नहीं हो सका था। किन्तु हर्षकी बात है कि अब हमें वहां के भट्टारकस्वामी और पंचोंका सहयोग प्राप्त हो गया है, जिसके फलस्वरूप ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलानकी. व्यवस्था हो गई है। पूर्व प्रकाशित दोनों भागों और इस तृतीय भागका मूल पाठ वहांकी ताड़पत्रीय प्रतियोंसे मिलाया जा चुका है और उससे जो पाठभेद हमें प्राप्त हुए हैं उनपर खूब विचार कर हमने उन्हें चार श्रेणियोंमें विभाजित किया है
(अ) वे पाठभेद जो अर्थ व पाठकी दृष्टिसे अधिक शुद्ध प्रतीत हुए। (देखो परिशिष्ट पृ. २० आदि)
(ब) वे पाठभेद जो शब्द और अर्थ दोनों दृष्टियोंसे दोनों ही शुद्ध हैं, अतएव जो संभवतः प्राचीन प्रतियोंके पाठभेदोंसे ही आये हैं । (देखो परिशिष्ट पृ. २९ आदि)
. (स) वे पाठभेद जो प्राकृतमें उच्चारणभेदसे उत्पन्न होते हैं और विकल्परूपसे पाये जाते हैं। ( देखो परिशिष्ठ पृ. ३२ आदि)
(ड) वे पाठभेद जो अर्थ या शब्दकी दृष्टिसे अशुद्ध हैं और इस कारण ग्रहण नहीं किये जा सकते । (देखो परिशिष्ट पृ. ३८ आदि)
इस श्रेणी-विभागके अनुसार मूडबिद्रीकी प्रतियोंका पाठ-मिलान इस भागके साथ प्रकाशित हो रहा है । संक्षेपमें यह पाठभेद-परिस्थिति इस प्रकार आती है
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
(अ) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ६२, भाग २ में २५ और भाग ३ में ६२, इस प्रकार कुल १४९ पाये गये हैं । भेद प्रायः बहुत थोड़ा है, और अर्थकी दृष्टिसे तो अत्यन्त अल्प । यह इस बात से और भी स्पष्ट हो जाता है कि इन पाठभेदों के कारण अनुवादमें किंचित् भी परिवर्तन करने की आवश्यकता केवल भाग १ मे १९, भाग २ में १० और भाग ३ में ३२, इस प्रकार कुल ६१ स्थलोंपर पड़ी है। शेत्र ८८ स्थलों का पाठपरिवर्तन वांछनीय होनेपर भी उससे हमारे किये हुए भाषानुवाद में कोई परिवर्तन आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ ।
५०
(ब) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ३०, भाग २ में कोई नहीं, और भाग ३ में ३२, इसप्रकार कुल ६२ पाये गये, और इसमें भी किंचित् अनुवाद-परिवर्तन केवल प्रथम भागमें १७ स्थलों पर आवश्यक समझा गया है ।
(स) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ६०, भाग २ में ३० और भाग ३ ६७, इसप्रकार कुल १५७ पाये गये है । इनसे अर्थ में कोई भेदकी तो संभावना ही नहीं है। इनमें अधिकांश पाठ तो ऐसे हैं जो उपलब्ध प्रतियोंमें भी पाये जाते थे, किन्तु हमने प्राकृत व्याकरण के नियमोंको ध्यान में रखकर परिवर्तित किये हैं । ( देखिये ' पाठ संशोधन के नियम, ' षट्खं. भाग १, प्रस्तावना
पृ. १०-१३)
(ड) श्रेणी के पाठभेद भाग १ में ३८, भाग २ में १५, भाग ३ में ६७, इस प्रकार कुल १२० पाये गये । इनमें अधिकांश तो स्पष्टतः अशुद्ध हैं, और जहां उनके शुद्ध होनेकी संभावना हो सकती है, वहां टिप्पणी देकर स्पष्ट कर दिया गया है कि वे पाठ प्रकृतमें क्यों नहीं ग्राह्य हो
सकते ।
इस प्रकार कुल पाठभेद १४२+६२+१५७+ १२० =४८८ आये हैं । संक्षेपमें यह परिस्थिति इस प्रकार है
भाग
१
२
३
कुल
मूल पाठ में भेद
ब
स
ड
६२
३०
६०
३८
२५
X
३०
१५
६२ ३२ ६७ ६७ १४९ । ६२ । १५७ १२०
अ
कुल
१९०
७०
२२८
४८८
अनुवाद परिवर्तन
ब १७
कुल ३६
१०
१०
३२
X
३२ ६१ । १७ । ७८
मूलपाठके संशोधनमें अर्थ और शैली की पाठ स्खलित प्रतीत हुए थे । प्रतियोंका आधार न होनेसे हमने वे पाठ जिससे पाठक सुलभता हमारे जोड़े हुए पाठको अलग पहिचान सकें । गत द्वितीय भाग में भी इसीप्रकार पाठ कहीं कहीं जोड़ना पड़े थे । किन्तु वह आलाप प्रकरण होनेसे स्खलन शीघ्र दृष्टिमें आजाते हैं । पर इस
अ
१९
दृष्टिसे कुछ स्थानोंपर हमें कोष्ठकोंके भीतर रखे हैं,
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मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलानका निष्कर्ष भागका विषय बहुत कुछ सूक्ष्म है, अतएव यहांके स्खलन बड़े ही गंभीर विचारके पश्चात् ध्यानमें आसके और उनका पाठ धवलाकारकी शैलीमें ही बड़े विचारके साथ रखना पड़ा। ऐसे पाठ प्रस्तुत भाग में १९ हैं । हमें यह प्रकट करते हुए हर्ष होता है कि मूडबिद्रीके मिलानसे इन पाठोंमें के १२ पाठ जैसे हमने रखे हैं वैसे ही शब्दश: ताडपत्रीय प्रतियोंमें पाये गये । एक पाठमें हमारे रखे हुए 'खवगा' के स्थानपर ' बंधगा' पाठ आया है, किन्तु विचार करनेपर यह अशुद्ध प्रतीत होता है, वहां 'खवगा' ही चाहिये। शेष ६ पाठ मूडबिद्रीकी प्रतिमें नहीं पाये गये । किन्तु वे पाठ अशुद्ध फिर भी नहीं हैं। यथार्थतः वहां अर्थकी दृष्टिसे वही अभिप्राय पूर्वापर प्रसंगसे लेना पड़ता है। धवलाकारकी अन्यत्र शैलीपरसे ही वे पाठ निहित किये गये हैं।
१ देखो पृष्ठ २६४, ३५४, ३८३, ३८४, ३९२, ४१२, ४२४, ४३५, ४४४, ४५१. २ देखो पृष्ठ ४८६. ३ देखो पृष्ठ ६१,२४८, ३४८, ३५३, ४४०.
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पृष्ठ नं.
१८
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय
कानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विषयकी उत्थानिका १-१०
विस्तारानन्त,सर्वानन्त औरभावा
नन्तके भेद और स्वरूप १ द्रव्यप्रमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश
| १९ प्रकृतमें गणनानन्तसे प्रयोजनकी भेद-कथन
सिद्धि और शेष दश अनन्तोंके २ द्रव्यशब्दकी निरुक्ति और भेट
कथन करनेका हेतु
१६-१७ ३ जीवद्रव्यका साधारण और असा- २० गणनानन्तके तीन भेद-परीत, युक्त धारण लक्षण
और अनन्तानन्त ४ अजीवद्रव्यके रूपी और अरूपी
२१ मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणमें विवक्षित भेद वा उनके लक्षण
अनन्तानन्तका प्रतिपादन । ५ द्रव्यप्रमाणानुगममें प्रकृत द्रव्यका
२२ अनन्तानन्तके जघन्यादि तीन भेद, निर्देश
तथा मिथ्याष्टियोंके प्रमाणमें ६ प्रमाण शब्दकी निरुक्ति तथा द्रव्य
मध्यम अनन्तानन्तके ग्रहणका प्रमाण शब्दका समास-विच्छेद ४
परिकर्मके प्रमाणपूर्वक प्रतिपादन ७ द्रव्यका लक्षण
२३ अथवा, मिथ्यादृष्टिराशि तीन वार ८ छहों समासोंके लक्षण व उदाहरण ६-७
वर्गित-संवर्गितराशिसे अनन्तगुणी ९ संख्याकी सर्वथा एकरूपताका
तथा छह द्रव्यप्रक्षिप्तराशिसे अनपरिहार
न्तगुणी हीन है, इसका सोप१० द्रव्यप्रमाणानुगमका अर्थ
पत्तिक प्रतिपादन और इन राशि११ निर्देशका स्वरूप और उसके भेदों
योंके उत्पत्तिक्रमका प्ररूपण १९-२६ का स्पष्टीकरण
८-१० २४ कालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव
राशिका निरूपण, तथा क्षेत्रओघसे द्रव्यप्रमाणनिर्देश १०-१०१ प्रमाणके पूर्व कालप्रमाणके प्रति१२ मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण
पादनकी सार्थकता
१.२५ कालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव. प्ररूपण
राशिकी गणना करनेका प्रकार १३ अनन्तके ११ भेद, नामानन्त और
तथा इस गणनामें केवल अतीतस्थापनानन्तका स्वरूप
कालके ग्रहणका प्रतिपादन २८-२९ १४ द्रव्यानन्तके भेद
२६ अतीतकालसे मिथ्याष्ट्रिराशि बड़ी १५ आगम और आप्तका लक्षण
है, इसका सोलह-प्रतिक अल्प१६ आगम द्रव्यानन्तका स्वरूप
- बहुत्वसे समर्थन
३०-३१ १७ नोआगम द्रब्यानन्तके भेद, उनका
क्षेत्रकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिराशिका स्वरूप और तद्विषयक शंका
प्रमाण-प्ररूपण, तथा क्षेत्रप्रमाणके समाधान
१३-१५ पूर्व भावप्रमाणके प्रतिपादन न कर१८ शाश्वतानन्त, गणनानन्त अप्रदेशि
नेका कारण
३२
२७
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"पृष्ठ नं.
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय २८ क्षेत्रकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिराशिके
गृहीतगृहात और गृहीतगुणकार ५४ मापनेका प्रकार
३२४४ द्विरूपधारामें गृहीत उपरिम विकल्प२९ लोक, जगच्छेणी और राजुका
द्वारा मिथ्यादृष्टिराशिकी उत्पत्ति स्वरूप
३३/४५ घनधारामें गृहीत उपरिम विकल्प ३० मध्यलोक-विस्तारके संबंधमें मत- ४६ घनाघनधारामें गृहीत उपरिम भेद तथा धवलाकारका तत्संबंधी
विकल्प सयुक्तिक निर्णय
३४-३८/४७ गृहीतगृहीत-उपरिम विकल्पमें ३१ क्षेत्रप्रमाणके प्ररूपणकी सार्थकता ३८/ तीनों धाराओंके द्वारा मिथ्याष्टि३२ भावप्रमाणका स्वरूप व उसके भेद ३८-३९ राशिकी उत्पत्ति ३३ सूत्रमें भावप्रमाणके नहीं कहने में ४८ गृहीतगुणकार उपरिम विकल्पमें
तीनों धाराओंके द्वारा मिथ्यावृष्टि ३४ भावप्रमाणकी अपेक्षा खंडित,
राशिकी उत्पत्ति भाजित, विरलित और अपहृत ४९ सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयनामक गणितकी प्रक्रियाओंके द्वारा
तासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणमिथ्यादृष्टिराशिके लाने की विधि ३९ स्थानवी जीवोंका प्रमाण १ वर्गस्थानमें खंडित, आदिके द्वारा ५० सासादनसम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण मिथ्यादृष्टिराशिके प्रमाण-निरूपण- ५१ क्षेत्र और कालकी अपेक्षा सासाकी प्रतिज्ञा
दनसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणकी प्ररू३६ मिथ्यादृष्टिराशि लाने के लिए ध्रुव
पणा नहीं करनेका कारण राशिकी स्थापना व उसके द्वारा ५२ कालप्रमाणसंबंधी आवली,उच्छास, खंडित, भाजित, विरलित और ____ स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त, भिन्नअपहत विधिओंसे मिथ्याष्टि
मुहूर्त और अन्तर्मुहूर्तका स्वरूप राशिका प्रमाण-प्ररूपण
४१ ५३ एक मुहूर्त में प्राणोंकी संख्यासिद्धि *३७ मिथ्यादृष्टिराशिका प्रमाण तथा
और मतान्तरका खंडन तत्संबंधी गणितका शास्त्रीय
५४ असंयतसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याकारण
४२-४६ दृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि और संय३८ गणितसंबंधी नौ करण-गाथाएं ४६-४९ तासंयत अवहारकालोका कथन । ३९ सर्पजीवराशिमेंसे मिथ्यादृष्टि और ५५ ओघसम्यग्मिथ्यादृष्टि, सासादनसिद्ध-तेरस गुणस्थानोंके प्रमाण
सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंका पृथक करनेकी निरुक्ति
अवहारकाल आवलीके असंख्या४० विकल्पके अधस्तन और उपरिम
तवें भाग न होकर 'असंख्यात . भेद, तथा वर्गधारामें मिथ्यादृष्टि
आवली प्रमाण है। इस बातका राशि लानेके लिए अधस्तन
समर्थन व विरोध-परिहार विकल्पकी असंभवता |
५२/५६ सासादनसम्यग्दृष्टि आदि राशि४१ घनधारामें अधस्तन विकल्प
योंके अनबस्थित रहने पर भी उनके ४२ घनाघनधारामें अधस्तन विकल्प ५३| निश्चित प्रमाण लानेके लिए ४३ उपरिम विकल्पके तीन भेद-गृहीत.
निश्चित भागहारका समर्थन . .. .. 190
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७७
षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. | क्रम नं. विषय ५७ खंडित,भाजित विरलित, अपहृत,
पात्तिके अनुसार उपशामकों और प्रमाण कारण और निरुक्तिके द्वारा
क्षपकोंकी संख्याका मतभेद धर्गधारामें सासादनसम्यग्दृष्टियोंके ७१ एक एक गुणस्थानमें उपशामक प्रमाणका प्ररूपण
७१ और क्षपकोंका संयुक्त प्रमाण ५८ अधस्तनविकल्पमें द्विरूपवर्गधारा
७२ सयोगिकेवलियोंका प्रवेश व आदिका आश्रय लेकर सासादन
कालकी अपेक्षा प्रमाण । सम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणका प्ररूपण
७३ सयोगिकेवली जिनोंकी लक्षपृथ५९ उपरिमविकल्पके तीनों भेदों में
क्व संख्याके निकालनेका विधान द्विरूपवर्गधारा आदिका आश्रय
७४ यथाख्यातसंयतोंका, सर्वसंयतलेकर सासादनसम्यग्दृष्टियोंके
राशिका तथा उपशामक और क्षपप्रमाणका प्ररूपण
कोंका प्रमाण ६० सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्य- ७५ प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंकी ग्दृष्टि और संयतासंयत की प्ररू
राशिके निकालनेका एक नया पणा खडित आदि विधिसे सासा
प्रकार दनसम्यग्दृष्टि की प्ररूपणाके समान ७६ दक्षिणप्रतिपत्तिवाली सर्व संयउनके पृथक् पृथक् अवहारकालके
तोकी संख्यापर आक्षेप और समाद्वारा करनेका निर्देश
धान ६१ सासादनसम्यग्दृष्टि आदिके अव.
७७ उत्तरप्रतिपत्तिकी अपेक्षा प्रमत्त. हारकाल, प्रमाण और पल्योपमकी
संयत आदिका प्रमाण अंकसंदृष्टि
ओघ भागाभाग प्ररूपण ६२ प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण
अल्पबहत्वके कथनकी प्रतिज्ञा ६३ अप्रमत्तसंयतोंका प्रमाण
और स्वतंत्र अल्पबहुत्व अनुयोग
द्वारके होते हुए भी यहां उसके ६४ अप्रमत्तसंयतोंके प्रमाणसे प्रमत्त
कहनेका कारण
११४ संयतोंके दूने प्रमाणका कारण
८० अल्पबहुत्वके दो भेद स्वस्थान और ६५ चारों उपशामकोंका प्रवेशकी
सर्वपरस्थान
११४ अपेक्षा प्रमाण
मिथ्यादृष्टिराशिमें स्वस्थान अल्प६६ चारों उपशामकोंका कालकी अपेक्षा
बहुत्वका अभाव
११४ प्रमाण व उनकी संख्याके जोड़नेका ८२ सासादनादि राशियोंमें स्वस्थान प्रकार
अल्पबहुत्व
११४ ६७ चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका ८३ ओघ सर्वपरस्थान अल्पबहुस्ख
प्रवेशकी अपेक्षा प्रमाण ६८ चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका
आदेशसे द्रव्यप्रमाणनिर्देश १२१-४८७ कालकी अपेक्षा प्रमाण व उनकी संख्याके जोड़नेका प्रकार
१ गतिमार्गणा १२१-३०५ ६९ उपशामकों और क्षपकोंकी संख्याके
(नरकगति) लानेका करणसूत्र
९४ ८४ सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि७. उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिण प्रति-
योंका प्रमाण
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क्रम नं.
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय ८५ असंख्यातके नामादि ग्यारह भेद
विकल्पके द्वारा उक्त राशिकी और उनका स्वरूप
१२३-१२५ प्ररूपणा प्रकृतगणनासंख्यातसे प्रयोजन ९९ सासादनसे लेकर असंयतसम्यतथा शेष असंख्यातोंके वर्णनकी
ग्दष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणसार्थकता
१२५ स्थानमें सामान्य नारकियोंका ८७ गणनासंख्यातके जघन्यपरीता
प्रमाण संख्यात आदि नौ भेद, तथा
गणस्थान-प्रतिपन्न सामान्य प्रकृतमें मध्यम असंख्यातासं
नारकियोंको गुणस्थान-प्रतिपन्न ख्यातका ग्रहण
ओघप्रमाण के समान मान लेने८८ तीन वार वर्गित संवर्गितराशिसे
पर आनेवाले दोषका परिहार १ असंख्यातगुणी तथा छह द्रव्य १०१ ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि-अवहारप्रक्षिप्तराशिसे असंख्यातगुणी हीन
कालके आश्रयसे गुणस्थान राशिसे प्रयोजन और उक्त राशि
प्रतिपन्न देव, तिर्यंच और नारयोंका स्वरूप-निदर्शन
कियोंके प्रमाण लाने के लिए अव८९ सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंका
हारकाल उत्पन्न करनेकी विधि कालकी अपेक्षा प्रमाण व हेतु।
और उनका प्रमाण .९० क्षेत्रप्रमाणसे पहले काल प्रमा
प्रथम पृथिवीमें नारकियोंका __णके वर्णनकी सार्थकता
प्रमाण ९१ नारक मिथ्यादृष्टियोंकी कालकी
सामान्य नारकोंके प्रमाण समान अपेक्षा गणना करनेका प्रकार
प्रथम प्रथिवीके नारकाका प्रमाण ९२ नारकसामान्य मिथ्याष्टियोंका
माननेपर उत्पन्न होनेवाली । क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण
आपत्तिका परिहार और विशे९३ नारकसामान्य मिथ्याष्टियों की
षताका प्रतिपादन विष्कम्भसूचीका प्रमाण
|१०४ प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि नार९४ सूत्रपठित 'अंगुल' शब्दसे
कोंकी विष्कंभसूची और अवहारसूच्यंगुलके ग्रहणका सप्रमाण
काल समर्थन
१०५ उक्त नारकोंका प्रकारान्तरसे ९५ वर्गस्थानमें खंडित आदिके द्वारा
अवहारकाल
१६४ विष्कंभसूचीका प्ररूपण
१३५ १०६ प्रत्येक पृथिवीके प्रति अवहार९६ नारकसामान्य मिथ्यादृष्टियोंके
काल, प्रक्षेप शलाकाएं और प्रमाण लानेकेलिए विष्कंभसूचीके
विष्भसूचीमें अपनयनरूपबलसे भागहारकी उत्पत्ति १४१
संख्याके प्रमाणका प्रतिपादन ९७ वर्गस्थानमें प्रमाण आदिके द्वारा
१०७ सामान्य अवहारकालमात्र छह अवहारकालका निरूपण १४२
पृथिवियोंके द्रव्यका आश्रय लेकर ९८ नारक सामान्य मिथ्यादृष्टि
प्रत्येक पृथिवीमें अवहारकाल प्रक्षेपराशिका प्रमाण अवहारकालसे
शलाकाएं निकालनेका विधान किस प्रकार आता है, यह बता
१०८ उक्त सातों अवहारकालोंके मिलाकर प्रमाण, कारण, निरुक्ति और
नकी विधि और उनसे प्रथम .
१६२
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पृष्ठ नं.
षट्खंडागमकी प्रस्तावना : क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय - पृथिवीके अवहारकालके उत्पन्न... बतलानेवाली अंकसंदृष्टि करनेका क्रम
१७५ १२१ दूसरीसे सातवीं पृथिवी तकके १०९ प्रकारान्तरसे प्रथम . पृथिवीके
मिथ्यादृष्टि नारकियोंका द्रव्य, . अवहारकाल लानेकी विधियां
काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण १९८ ११० छठी और सातवीं पृथिवियोंका १२२ जगच्छेणीके कितने कितने वर्गसंयुक्त अवहारकाल
मूलोंके परस्पर गुणा करनेसे १११ पांचवीं, छठी और सातवीं पृथि
किस किस पृथिवीके नारक. वियोंका संयुक्त अवहारकाल
मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण आता ११२ चौथी, पांचवीं, छठी और सा
है, इसका स्पष्टीकरण और उसमें तवीं पृथिवियोंका संयुक्त अव
प्रमाण
२०० हारकाल.
१८२१२३ तृतीयादि पृथिवियोंके द्रव्यके ११३ तीसरीसे सातवीं तक पांच पृथि
आश्रयसे दूसरी पृथिवीके द्रव्यः वियोंका संयुक्त अवहारकाल
उत्पन्न करनेकी विधि
२०१ ११४ दूसरीसे सातवीं तक छह पृथि. १२४ प्रथम पृथिवीके आश्रयसे दूसरी वियोंका संयुक्त अवहारकाल
पृथिवीके द्रव्य उत्पन्न करनेकी ११५ दूसरी आदि छह पृथिवियोंके
विधि और इसी प्रकार शेष पृथिसंयुक्त ., अवहारकालसे प्रथम
वियोंके द्रव्य उत्पन्न करनेकी . पृथिवीके अवहारकालके लानेकी..
सूचना
२०३ विधि
१८६ १२५ दूसरीसे सातवीं पृथिवीतक गुण. ११६ हानिरूप और प्रक्षेपरूप अंकोंका
स्थान प्रतिपन्न जीवोंका प्रमाण २०६ शान करानेके लिये अंकसंदृष्टि,
२६ दूसरीसे सातवीं प्रथिवी तक तथा प्रक्षेपरूप राशिकी विधि
गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंका ११७ राशिके हानिरूप विधानका अंक
प्रमाण ओघप्ररूपणाके समान संदृष्टि द्वारा स्पष्टीकरण
कहनेसे उत्पन्न होनेवाले दोषका ११८ सामान्य अवहारकालके पकविर
परिहार और सातों पृथिवियोंके लनके प्रति प्राप्त सामान्य द्रव्यके
गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंके अवसातबी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि
हारकालोंका प्रतिपादन
२०६ द्रव्यप्रमाण खंड करके उनका |१२७ नरकगति-सबन्धी भागाभाग सातों पृथिवियोंमें विभाजन और १२८ नरकगति-सम्बन्धी अल्पबहुत्व
२०८ इनपरसे प्रथम पृथिवीके अवहार
(तिर्यंचगति) कालकी उत्पत्ति
१९३ १२९ मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत ११९ खंड शलाकाओंका आश्रय करके
गुणस्थानतक सामान्य तिर्यंचोंका प्रकारान्तरसे प्रथम पृथिवीके
प्रमाण, तथा सामान्य तिर्यंचोंका मिथ्यादृष्टि अवहार कालकी
प्रमाण ओघप्रमाणके समान उत्पत्तिः
माननेपर आनेवाले दोषका १२० नरकगतिके सामान्य और विशेष
परिहार रुपसे अचहारकाल, विष्का- |१३० सामान्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों की सूची और प्रक्षेप अवहारकाल
ध्रुवराशि मौर गुणस्थान प्रतिपन्न
२०७
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२३७
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची कम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय __ सामान्य तिर्यंचोंका अवहारकाल २१६/ पर्याप्तोंका प्रमाण १३१ जहां राशिका अनन्तरूप प्रमाण
१४२ पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्याष्टि बताया है वहां भी कालप्ररूपणासे
योनिमतियाँका द्रव्य, काल और द्रव्यप्ररूपणाकी सूक्ष्मता सिद्ध
क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण होती है, इसका स्पष्टीकरण २१७/१४३ पंवेन्द्रियतियच मिथ्यादृष्टि योनि१३२ पंचेन्द्रियतिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका
मतियोंका अवहारकाल और द्रव्य और कालकी अपेक्षा प्रमाण
उसके विषयमें मतभेद
२३० १३३ असंख्यातासंख्यात अपसर्पिणी- १४४ पंचेन्द्रियतिर्यंच मिथ्यादृष्टि योनिउत्सर्पिणीकालों के बीतने पर
मतियोंके अवहारकालका खंडित
आदिके द्वारा कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टिराशि
२३२ के विच्छेद होनेकी शंकाका
१४५ पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादृष्टि समाधान
योनिमतियोंकी विष्कम्भ सूची १३४ पंचेन्द्रियतिर्यंच मिथ्यादृष्टिराशि
और द्रव्यका वर्णन का क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण व १४६ सासादन गुणस्थानसे लेकर उनके अवहारकालकी सिद्धि
संयतासंयत तक प्रत्येक गणस्था१३५ पंचेन्द्रियतिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके
नमें पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि.
मतियों का प्रमाण तथा उसे अवहारकालका खंडित आदिके
ओघवत् कहनेसे उत्पन्न हुई । द्वारा प्ररूपण
२२. आपत्तिका परिहार
२३७ १३६ पंचेन्द्रियतिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंकी
|१४७ पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती असंविष्कंभसूची और द्रव्यका सम
यतसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि,
२२५ १३७ सासादन गुणस्थानसे लेकर
सासादन और संयतासंयतका अवहारकाल
२३८ संयतासंयत तक प्रत्येक गुण
|१४८ पंचेन्द्रितियेच पर्याप्तों में असंयत- ... स्थानमें पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका
सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदियोंसे असंप्रमाण
२२६१
यतसम्यग्दृष्टि स्त्रीवेदियोंके, और १३८ द्रव्यप्रमाणके आदिमें कथन
स्त्रीवेदियोसे, नपुंसकवेदियोंके करनेका प्रयोजन, व द्रव्यप्रमाण अन्य प्रमाणोंसे स्तोक है,
उत्तरोत्तर कम होनेका कारण .
१४९ पंचेन्द्रियतिथंच तीनवेदवाले इसमें हेतु
२२७,
सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे पंचेन्द्रिय१३९ द्रव्यप्रमाणसे कालप्रमाणके
तिर्यंच योनिमती असंयतसम्यसूक्ष्मत्वकी सिद्धि
म्हष्टि जीव कम हैं, या अधिक हैं, १४० पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्या
इस विषयमें उपदेशका अभाव २३८ दृष्टियोंका क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण, |१५० पंचेंद्रियतिर्यंच अपर्याप्तोंका द्रव्य, तथा उनके अवहारकालका
काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण स्पष्टीकरण
२२८/ व अवहारकालका निरूपण . २३९ १४१ सासादन गुणस्थानसे लेकर
तिथंचगति सम्बन्धी भागाभाग संयतासंयत तक पंचेद्रिय तिर्यंच
और अल्पबहुत्व
र्थन
२२८
२४०
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पृष्ट नं.
२५४
२५
२५५
२६०
२६०
५८
षटखंडागमकी प्रस्तावना फ्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय (मनुष्यगति)
| मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है, १५२ सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका
इसका समर्थन द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा १६४ दो वेवाले मनुष्य पर्याप्तोंका प्रमाण
२४४ अवहारकाल और उनका प्रमाण १५३ सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका
बादालके घनप्रमाण मनुष्य अबहारकाल व खंडित आदिके
पर्याप्तराशि है, इस मतका खंडन ' द्वारा उसका कथन
२४६] और सूत्रप्रतिपादित मतका १५४ मध्यम विकल्प और उपरिम
समर्थन विकल्पमें भेद
२४८/१६६ सासादनगुणस्थानसे लेकर १५५ मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहार
संयतासंयततक प्रत्येक गुणस्थानकालका जगश्रेणीमें भाग देने पर
में पर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण रूप अधिक मिथ्यादृष्टिराशि
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर आती है, इसमें प्रमाण
अयोगिकेवली गुणस्थानतक १५६ ओज और युग्म राशियोंके भेद
प्रत्येक गुणस्थानमें पर्याप्त मनुप्रभेद और उनके लक्षण
२४९ याका प्रमाण १५७ यहां जीवस्थानमें मनुष्य मिथ्या.
मनुष्यनियोंमें मिथ्याष्टियोंका दृष्टि अवहारकालका जगश्रेणी में
प्रमाण व अवहारकाल निरूपण भाग देनेपर रूप अधिक सासाद
सासादन गुणस्थानसे लेकर नादि तेरह गुणस्थानवी अपन
अयोगिकेवली तक प्रत्येक गुणयनराशि आती है, इसका सम
स्थानमें मनुष्यनियोंका प्रमाण, र्थन
तथा गुणस्थान-प्रतिपन्न मनुष्यनी १५८ मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंके अवहार
गुणस्थान-प्रतिपन्न सामान्य कालका कथन
मनुष्योंके संख्यातवें भाग होती १५९ सासादन गुणस्थानसे लेकर
हैं, इसमें हेतु संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक १७० लब्ध्यपर्याप्त मनुप्योंका द्रव्य, गुणस्थानमें सामान्य मनुष्योंका
काल और क्षेत्रको अपेक्षा प्रमाण प्रमाण
२५१ १७१ मनुष्यगतिसम्बन्धी भागाभाग १६० सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्य
और अल्पबहुत्व ग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंके प्रमाणमें
(देवगति) मतभेद
२५२१७२ सामान्यदेवों में मिथ्यादृष्टियोंका १६१ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर
अयोगिकेवली गुणस्थानतक मनु- १७३ संख्यात, असंख्यात और अनष्योंका प्रमाण
२५२ न्तके लक्षण व परस्पर भेद १६२ पर्याप्त मनुप्य मिथ्यादृष्टियोंका १७४ काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण और खंडित आदिके द्वारा
सामान्य देव मिथ्याष्टियोंका उसका कथन
प्रमाण १६३ पर्याप्त मनुष्यराशिमेंले गुणस्थान- १७५ सासादन गुणस्थानसे लेकर प्रतिपन्नराशिके घटा देनेपर
असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक
२६१
२६२
२६४
प्रमाण
२६६
२६७
२६८
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पृष्ठ नं.
२६९/
असं
२८०
.
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची क्रम नं. विषय .
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय प्रत्येक गुणस्थानमें सामान्य
सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और देवोंका प्रमाण
असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका प्रमाण, ७६ असंयतसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्या
तथा सनत्कुमारसे लेकर शतार दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि
सहस्रार कल्पतक मिथ्यादृष्टि देवोंका अवहारकाल
देवोंका प्रमाण और भागहार १७७ भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य,
आनत-प्राणत कल्पसे लेकर नव काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण ।
ग्रैवेयक तक मिथ्यादृष्टयादिचारों १७८ सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और
गुणस्थानवर्ती देवोंका प्रमाण २८१ असंयतसम्यग्दृष्टि भवनवासियों- १८९ अनुदिशोसे लेकर अपराजित का प्रमाण
अनुत्तरविमानतक असंयतसम्य१७९ वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देवोंका
ग्दृष्टि देवोंका प्रमाण द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा १९० गुणस्थान-प्रतिपन्न सर्व देवोंके प्रमाण
अवहारकाल १८० वानव्यन्तर और योनिमतियोंके
आनतादि उपरिम गुणस्थानअबहारकालमें मतभेद और
प्रतिपन्न देवोंका प्रमाण पल्योउसका निर्णय
पमके असंख्यातवें भाग है, यह १८१ सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और
वचन 'इसके द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे असंयतसम्यग्दृष्टि वानव्यन्तरीका
पल्योपम अपहृत होता है। ऐसा प्रमाण
विशेषित करके क्यों कहा?इसकी १८२ ज्योतिषी देवाका प्रमाण, व उस
सफलता प्रमाणको सामान्य देवराशिके १९२ सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंका समान कहनेसे आनेवाले दोषका
प्रमाण
२८६ परिहार
२७५ १९३ देवगतिसंबंधी भागाभाग १८३ ज्योतिषी देवोंका अवहारकाल २७६/१९४ देवगतिसंबंधी अल्पबहुत्व
૨૮૮ १८५ सौधर्म और ऐशान कल्पवासी
चतुर्गतिसंबंधी भागाभाग
२९५ मिथ्यादृष्टि देवोंका द्रव्य, काल
१९६ चतुर्गतिसंबंधी अल्पबहुत्व २९७ और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण
२ इन्द्रियमार्गणा ३०५-३२९ १८५ सौधर्म और ऐशान मिथ्यादृष्टि | १९७ सामान्य एकेन्द्रिय, बादर एके. देवोंकी विष्कंभसूची
न्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इन १८६ खुद्दाबंधमें सामान्यसे जीवोंका
तीनोंके पर्याप्त तथा अपर्याप्तीका प्रमाण कहते समय जो विष्कंभ
द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा सूचियां बतलाई हैं, वे ही यहां
प्रमाण
३०५ विशेषरूपसे जीवोंका प्रमाण १९८ उक्त नौ राशियोंकी ध्रुवराशियां ३०७ बताते समय कही गई हैं, अतः १९९ खंडित आदिके द्वारा उक्त नौ यह कथन परस्पर विरुद्ध है.
राशियोंका वर्णन
३०८ इस प्रकार उत्पन्न हुई शंकाका २०० पर्याप्त और अपर्याप्त विकलत्रय समाधान
२७८ जीवोंका द्रव्यकी अपेक्षा प्रमाण । ३१० १८७ सौधर्म और ऐशान कल्पवासी २०१ प्रकृतमें पर्याप्त और अपर्याप्त
२७६
Page #81
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________________
६०
पृष्ठ नं.
षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं.,क्रम नं. विषय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतु- २१३ अपर्याप्तकालमें गुणस्थान-प्रतिरिन्द्रिय पदसे किनका ग्रहण किया
पन्न जीव लब्ध्यपर्याप्तक नहीं गया है, इसका स्पष्टीकरण ३११ होते, इसका समर्थन
३१८ २०२ सयोगिकेवलीके पंचेद्रियत्वका
२१४ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा भागासमर्थन ३११) भाग
३१८ २०३ विकलत्रय जीवोंका कालकी २१५ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा अल्प__ अपेक्षा प्रमाण ३१२ बहुत्व
३२२ २०४ द्वीन्द्रियादि राशियां सर्वथा
३ कायमागणा ३२९-३८६ आयसहित होनेसे विच्छिन्न नहीं होती हैं, फिरभी ये असंख्याता
२१६ पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजसंख्यात अपसर्पिणियों और
स्कायिक, वायुकायिक, तथा उत्सर्पिणियोंके द्वारा विच्छिन्न
बादरपृथिवीकायिक, बादरअपकाहोती हैं, ऐसे विरोधका परिहार ३१२
यिक, बादरतैजस्कायिक, बादर२०५ विकलत्रयजीवोंकाक्षेत्रकी अपेक्षा
घायुकायिक,बादरवनस्पतिकायिक प्रमाण
प्रत्येकशरीर तथा इन पांच बाद२०६ पंचेन्द्रियसामान्य और पंचेन्द्रिय
रोंके अपर्याप्तः सुक्ष्मप्रथिवीकापर्याप्तोंका द्रव्य, काल और
यिक, सूक्ष्मअप्कायिक, सूक्ष्मक्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण
तैजस्कायिक, सूक्ष्मवायुकाायक, २०७ विकलत्रयोंके प्रमाण-प्रतिपादक
तथा इन चार सूक्ष्मों के पर्याप्त सूत्रके साथ पंचेन्द्रियोंके प्रमाण
और अपर्याप्तोंका प्रमाण ३२९ का प्रतिपादक सूत्र क्यों नहीं २१७ पृथिवीकायिकका अर्थ, प्रसंगसे कहा, इसका स्पष्टीकरण ३१५
कर्मके भेदोंका उल्लेख, तथा बादर २०८ विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रियोंका
का स्वरूप
३३० अवहारकाल तथा द्रव्यप्रमाण ३१५/२१८ पृथिवीकायिक आदिके प्रत्येक २०९ सासादनगुणस्थानसे लेकर
होते हुए उन्हें 'प्रत्येकशरीर' अयोगिकेवली गुणस्थान तक
यह विशेषण क्यों नहीं लगाया पंचेन्द्रियसामान्य और पंचेन्द्रिय
जाता है, इसका स्पष्टीकरण
३३१ पर्याप्तोंका प्रमाण
३१७ २१९ सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त २१० जिनकी इन्द्रियां नष्ट होगई हैं,
इनके स्वरूपोंका स्पष्टीकरण ३३१ ऐसे सयोगी अयोगी जिनको २२० विग्रहगतिमें विद्यमान वनस्पतिपंचेन्द्रिय कैसे कहा जा सकता
कायिक जीव प्रत्येक है, या है, इस शंकाका समाधान ३१७ साधारण, इस शंकाका समा. २११ लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियोंका द्रव्य,
धान
३३२ काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण ३१७/२२१ तैजस्कायिकराशिके उत्पन्न कर२१२ लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियों के प्रमाण
नेकी विधि
३३४ का प्रतिपादक सूत्र पंचेन्द्रिय २२२ चौथीवार कितनी गुणकारशलामिथ्याष्टियोंके प्रमाण प्रतिपादक
काओंके जानेपर तैजस्कायिकसूत्रके साथ नहीं कहनेका कारण ३.१८ राशि उत्पन्न होती है, इससे
३१४
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________________
पृष्ठ न. ३५१
३५६
३४२
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची फ्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय लेकर इस विषयमें अनेक मता- | खंडित आदिसे राशिका कथन न्तरोंका उल्लेख, और कौन मत २३५ बादरतैजस्कायिक पर्याप्तराशिका पूर्व परंपरागत है, इसका
सका
प्रमाण समर्थन
३३७/२३६ बादरवायुकायिक पर्याप्तराशिका २२३ प्रकारान्तरसे तैजस्कायिकराशिके उत्पन्न करनेका विधान ३३९/
द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा
प्रमाण २२४ खंडित आदिके द्वारा तैजस्कायिकराशिका वर्णन
११.२३७ बादरवायुकायिक पर्याप्तराशिका २२५ तेजस्कायिकराशिसे पृथिवी, जल
प्रमाण और वायुकायिकराशिके उत्पन्न
२३८ भेद-प्रभेदयुक्त वनस्पतिकायिक करने की प्रक्रिया, तथा इन्हीं तीनों
जीवोंका द्रव्य-प्रमाण राशियोंके अवहारकाल
'जिनका शरीर वनस्पतिरूप २२६ प्रकृतोपयोगी करणसूत्र, तथा
होता है उन्हें वनस्पतिकायिक उक्त चारों राशियोंके सूक्ष्म,
कहते हैं, वनस्पतिकायिकका सूक्ष्मपर्याप्त, सूक्ष्मअपर्याप्त
ऐसा अर्थ करनेपर विग्रहगतिमें और बादरराशिसम्बन्धी अवहार
स्थित जीवोंको वनस्पतिकायिकत्व काल
कैसे प्राप्त होता है, इस शंकाका २२७ बादरतैजस्कायिक आदि राशि
समाधान योंके अर्धच्छेद
३४४/२४० भेद-प्रभेदयुक्त वनस्पतिकायिक २२८ बादरतैजस्कायिकराशिकी सत्त
जीवोंका काल और क्षेत्रकी अपेक्षा रह प्रकारकी प्ररूपणा
प्रमाण २२९ बादरवनस्पति प्रत्येक शरीर- २४१ पूर्वोक्त जीवराशियोंकी धुवराशिकी सत्तरह प्रकारकी प्ररू
राशियां पणा, तथा दूसरी बादरराशि- २४२ बसकायिकसामान्य और त्रसयोंकी पूर्वोक्त राशियोंके समान
कायिकपर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्ररूपण करनेकी सूचना
द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा २३० सप्रतिष्टित और अप्रतिष्ठित
प्रमाण . प्रत्येकवनस्पतिमें भेद ।
३४७/२४३ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे २३१. सूत्रमें बादरवनस्पतिप्रत्येकशरीर
लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक का ही प्रमाण कहा, उनके भेदोंका
त्रसकायिक सामान्य और त्रसनहीं, इसका कारण
३४८ __ कायिकपर्याप्तोंका प्रमाण २३२ बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर
लब्ध्यपर्याप्त त्रसकायिकाका अपकायिक पर्याप्त और बादरवन
प्रमाण स्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त |२४५ लब्ध्यपर्याप्त सकायिकोंका राशियोंका द्रव्य, काल और
प्रमाण लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियों के क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण
રૂટ
प्रमाणके समान कहनेसे उत्पन्न २३३ उक्त तीनों राशियों के भागहार ३५० हुई आपत्तिका परिहार २३४ बादरतैजस्कायिक पर्याप्त- २४६ कायमार्गणासम्बन्धी भागाभाग
राशिका प्रमाण, अवहारकालव २४७कायमार्गणासम्बन्धी अल्पबहत्व
३४४४
३५८
३५९
३६०
३६२
२४४
३६२
३६३ ३६३ ३६५
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________________
३९७
३९७
३९९
४००
षट्खंडागमको प्रस्तावना क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय ४ योगमार्गणा ३८६-४१३ दनसम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण और २४८ पांचों मनोयोगी तथा सत्य,
अवहारकाल उभय और असत्य इन तीन
२६१ औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतवचनयोगी जीवोंका प्रमाण
सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली २४९ उक्त आठ राशियां देवों के
जिनका प्रमाण संख्यातवें भाग क्यों हैं ? इसका
२ वैक्रियिककाययोगी मिथ्याष्टिसमर्थन
योंका प्रमाण व अवहारकाल २५० सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे
३ वैक्रियिककाययोगी सासादनलेकर संयतासंयततक उक्त आठो
सम्यग्दृष्टि,और असंयतसम्यग्दृष्टि राशियोंका प्रमाण तथा उसका
जीवराशिका प्रमाण व अवहार
काल ओघप्ररूपणाके समान कथन करने में हेतु
... २६४ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्या
दृष्टियोंका प्रमाण २५१ प्रमत्तसंयतसे लेकरसयोगिकेवली तक उक्त आठोंराशियोंकाप्रमाण
२६५ वैक्रियिकमिश्रकाययोगीसासादन
सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि २५२ प्रमत्तसंयतादिगुणस्थानोंमें आठ राशियोंका प्रमाण ओघसमान
जीवोंका प्रमाण व अवहारकाल न कहनेका कारण
२६६ आहारककाययोगी प्रमत्तसंयतों
का प्रमाण २५३ वचनयोगी और अनुभयवचन
२६७ आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तयोगी मिथ्यादृष्टिजीवोंका द्रव्य,
संयतोंका प्रमाण व मतान्तर काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण
परिहार
४०२ २५४ सासादनादि गुणस्थानवर्ती उक्त
१०.२६८ कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टिजीवों . राशियों का प्रमाण
का प्रमाण व ध्रुवराशि
४०२ २५५ स्व-भेद-युक्त मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीवोंके
२६९ कार्मणकाययोगी सासादनसम्यअवहारकाल और जीवराशियां
। ग्दृष्टि और असंयतसंम्यग्दृष्टि
जीवेंका प्रमाण व अवहारकाल ४०३ २५६ काययोगी और औदारिककाय
कार्मणकाययोगी सयोगिजिनका योगी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण
प्रमाण
४०४ २५७ सासादनगुणस्थानसे लेकर
२७१ योगमार्गणा सम्बन्धी भागाभाग ४०४ सयोगिकेवली तक काययोगी और औदारिककाययोगियोंका
२७२ योगमार्गणा सम्बन्धी अल्पबहुत्व ४०८ प्रमाण, धुवराशि तथा अवहार
५ वेदमार्गणा ४१३-४२४ काल
३९५२७३ स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण, २५८ औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्या
देवियोंके प्रमाणकी खुदाबंधसे दृष्टियोंका प्रमाण और ध्रुवराशि
सिद्धि और स्त्रीवेदियोंका अव२५९ औदारिककाययोगराशिके संख्या
हारकाल
६१३ तवें भाग औदारिकामिश्रकाय- २७४ सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर योगराशके होने में हेतु
संयतासंयत गुणस्थान तक २६० औदारिकमिश्रकाययोगी सासा
प्रत्येक गुणस्थानमें स्त्रीवेदियोका
३
भमाण
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________________
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची ऋम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. प्रमाण
४१४ ६ कषायमार्गणा ४२४-४३६ २७५ स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके २८८ क्रोध, मान, माया और लोभकम होनेका कारण
कषायी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुण
स्थानसे लेकर संयतासंयत गुण६ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर
स्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें अनिवृत्तिकरण उपशमक व
जीवोंका प्रमाण व अवहारकाल ४२४ क्षपकके सवेदभाग तक स्त्रीवेदियोंका प्रमाण
३१०२८९ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर
अनिवृत्ति गुणस्थानतक चारों २७७ पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण
कषायवाले जीवोंका प्रमाण
४२८ व अवहारकाल
२९० लोभकषायी उपशमक, व क्षपक २७८ सासादनसम्यग्दृष्टिसेलेकर अनि
सुक्ष्मसाम्परायिकसंयतोंकाप्रमाण
४२९ वृत्तिकरण उपशमक व क्षपकके
२९१ अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषायसवेद भाग तक पुरुष वेदियोंका
वीतरागछद्मस्थाका प्रमाण और प्रमाण व अवहारकाल
द्रव्यकर्म चार प्रकारका होनेसे २७९ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर
चार भेदों में विभक्त. मूल उपसंयतासंयत तकके नपुंसक वेदि
शान्तकषायराशि प्रत्येक मूलोघयोंका प्रमाण व अवहारकाल
प्रमाणको कैसे प्राप्त होती है, २८० प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर
इस शंकाका समाधान अनिवृत्तिकरण उपशमक क्षपकके
२९२ अकषायी क्षीणकषायतिरागसवेद भाग तक नपुंसकवेदियोंका
छद्मस्थ और अयोगिकेवली प्रमाण
जिनोंका प्रमाण २८१ स्त्रीवेदी प्रमत्तादिगशिसे भी २९३ अकषायी सयोगिकेवली जिनोंका नपुंसकवेदी प्रमत्तादिराशिके
प्रमाण
४३१ संख्यात भाग होनेका कारण । २९४ कषायमार्गणासम्बन्धी भागाभाग ४३१ २८२ अपगतवेदी उपशामकोंका प्रवेश- २९५ कषायमार्गणासम्बन्धी अल्पकी अपेक्षा प्रमाण
बहुत्व
४३३ २८३ उपशान्तकषायजीवके उपशामक
७ ज्ञानमार्गणा ४३६-४४६ सक्षा कैसे है, इस शंकाका २९६ मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यासमाधान
दृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि २८४ अपगतवेदी उपशामकोका संचय
जीवोंका प्रमाण, ध्रुवराशि और * कालकी अपेक्षा प्रमाण
अवहारकाल २८५ अपगतवेदी तीनों क्षपक और २९७ विभंगवानी मिथ्यादृष्टि जीवोंका अयोगिकेवलियोंका प्रमाण
प्रमाण व अवहारकाल २८६ अपगतवेदी सयोगिकेवलियोंका २९८ विभंगवानी सासादनसम्यग्दृष्टि प्रमाण ४२१) जीवोंका प्रमाण
४३८ २८७ वेदमार्गणासम्बन्धी भागाभाग व
२९९ मति, श्रुत, और अवधिनानी अल्पबहुत्व
४२१/ जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुण
४३०
४३०
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________________
पृष्ठन.
४५३
४५४
षटखंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय
पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय स्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुण- | इस विषयका ऊहापोहात्मक स्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें
शंका-समाधान जीवोंका प्रमाण व अवहारकाल ४३९३१४ चक्षुदर्शनी जीवों में सासादन३०० अवधिज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत
सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय
क्षीणकषाय गुणस्थानतक के गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें
जीवोंका प्रमाण जीवोंका प्रमाण
४४१ ३१५ अचक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि ३०१ मनःपर्ययज्ञानियों में प्रमत्तसंयत
गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय
गुणस्थानतकके जीवोंका प्रमाण गुणस्थानतक जीवोंका प्रमाण ४४१ व ध्रुवराशि
४५५ ३०२ केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली ३१६ अवधिदर्शनी जीवोंका प्रमाण व और अयोगिकेवलीजिनोंका प्रमाण ४४२ अवहारकाल
४५५ ३०३ ज्ञानमार्गणा सम्बन्धी भागाभाग ४४२३१७ केवलदर्शनी जीवों का प्रमाण . ३०४ ज्ञानमार्गणासम्बन्धी अल्पबहुत्व ४४४/३१८ श्रुतदर्शन और मनःपर्ययदर्शन
८ संयममार्गणा ४४७-४५२| | क्यों नहीं होता है, इस शंका ३०५ संयमी जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुण
का समाधान
४५६ स्थानसे लेकर अयोगिकेवली |३१९ ज्ञानमार्गणासम्बन्धी भागाभाग ४५७ गुणस्थानतकका प्रमाण
४४७,३२० ज्ञानमार्गणासम्बन्धी अल्पबहुत्व ४५८ ३०६ सामायिक और छेदोपस्थापना
१० लेश्यामागेणा ४५९--४७१ संयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे ३२१ कृष्ण, नील और कापोत लेश्यालेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान
वालों में मिथ्याडष्टि गुणस्थानसे तक प्रत्येक गुणस्थानका प्रमाण
लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणघ दोनों संयतोंके भेदाभेद विष
स्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती यक शंकाका समाधान
४४७
जीवोंका प्रमाण व ध्रुवराशि ४.९ ३०७ परिहार विशुद्धिसंयमवाले प्रमत्त ३२२ तेजोलेश्यावाले जीवों में मिथ्याऔर अप्रमत्तसंयतोंका प्रमाण ४४९
दृष्टि जीवोंका प्रमाण व अवहार३०८ सूक्ष्मसाम्परायसंयमवाले उप
४६१ शमक व क्षयकोंका प्रमाण ४४९ ३२३ तेजोलेश्यावाले जीवों में सासा९ यथाख्यातसंयमी, संयमासंयमी
दन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे और असंयमी जीवोंका पृथक
लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानपृथक् प्रमाण
तकके जीवोंका प्रमाण
४६२ ३१. संयममार्गणासम्बन्धी भागाभाग ४५१/३२४ पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्या३११ संयममार्गणासम्बन्धी अल्पबहुत्व ४५१/ दृष्टि जीवोंका प्रमाण व अवहार
९ दर्शनमार्गणा ४५३-४५९/ काल ३१२ चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका ३२५ पनलेश्यावाले जीवों में सासादन
द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण
४५३/ गुणस्थानतकके जीवोंका प्रमाण ४६३ ३१३ चक्षुदर्शनी जीव किसे कहते हैं, ३२६ शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मिथ्या
४६३
४५३/
स्थानसे लेकर अप्रमत्त
चक्षुदर्शनी जीव किस
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क्रम नं.
विषय
दृष्टि गुणस्थानले लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीवोंका प्रमाण व अवद्वारकाल
द्रव्यप्रमाणानुगम-विषयसूची
पृष्ठ नं. क्रम नं.
३२७ शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका प्रमाण ३२८ लेश्यामार्गणासंबंधी भागाभाग ३२९ लेश्यामार्गणासंबंधी अल्पबहुत्व
संयतासंयत संख्यात ही क्यों होते हैं, इस शंकाका समाधान
३३६ क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों क्षपक व अयोगिकेवली जिनोंका प्रमाण ३३७ क्षायिकसम्यग्दृष्टि सयोगिकेवली
जिनोंका प्रमाण
३३८ वेदकसम्यग्दृष्टियें । में
असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीवोंका प्रमाण
४६३
४६५ ३४१ सम्यक्त्वमार्गणासम्बन्धी भागा४६६
४६७
बहुत्व
क्षयकसम्यग्दृष्टि
११ भव्यमार्गणा ४७२-४७३ ३४३ प्रमत्तसंयत वेदकसम्यग्दृष्टियोंसे ३३० भव्यसिद्धिक जीवोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में जीवों का प्रमाण
३३१ अभव्यसिद्धिक जीवोंका प्रमाण ३३२ भव्यमार्गणासम्बन्धी भागाभाग और अल्पबहुत्व
संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण व अवहारकाल
४७३
गुणस्थानवर्ती
१२ सम्यक्त्वमार्गणा ४७४ - ४८१ ३४५ संज्ञी जीवोंमें सासादन गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायगुणस्थान ३३३ सम्यग्दृष्टि जीवों में असंयततक प्रत्येक सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर जीवोंका प्रमाण अयोगिकेवली गुणस्थानतक ३४६ असंशी जीवका द्रव्य, काल प्रत्येक गुणस्थान में जीवोंका प्रमाण और क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण ३३४ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयत३४७ संशीमार्गणासंबंधी भागाभाग व सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपअल्पबहुत्व शान्तकषाय गुणस्थान तक के जीवोंका प्रमाण ३३५ क्षायिकसम्यग्दृष्टि
विषय
| ३३९ उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थानतक के जीवोंका प्रमाण
३४० सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण व अवहारकाल
४७४
४७२
४७२ ३४४
४७४
| ३४२ सम्यक्त्वमार्गणासम्बन्धी अल्प
भाग
४७६
४७५
संयतासंयत
जीव संख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं, इस शंकाका समाधान १३ संज्ञीमार्गणा
३५१ आहारमार्गणासम्बन्धी भागाभाग ३५२ आहारमार्गणासम्बन्धी
अल्प
बहुत्व
६५
पृष्ठ नं.
૪૨
४८३
१४ आहारमार्गणा ४८३-४८७ ३४८ आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थान में आहारक जीवोंका प्रमाण व ध्रुवराशि ४७९ ३४९ अनाहारक जीवोंका प्रमाण, ध्रुवराशि व अवहारकाल ४७६ ३५० अनाहारक अयोगिकेवली जीवों
का प्रमाण
४७६
४७७
४७९
४७९
४८०
४८२-४८३
४८२
४८२
४८३
४८४
४८५
४८५
४८५
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१० अर्थसंबंधी विशेष सूचना
१. पृष्ठ ४७ की गाथा नं. २८ का प्रतियोंमें उपलब्ध पाठको रखते हुए अर्थ
दो हारोंके अन्तरसे एक हारमें भाग देने पर जो लब्ध आता है उससे भाजित पूर्व लब्धका, तथा दोनों हारोंसे अलग अलग भाजित भाज्यके भजनफलोंका अन्तर हानिवृद्धिरूप होता है । ( अर्थात् उपर्युक्त दोनों प्रक्रियाओंका फल बराबर ही होता है और समानरूपसे घटता बढ़ता है | )
उदाहरण (बीजगणितसे ) -
(१) यदि स से ब छोटा है तो
(२) यदि स से ब बड़ा है तो
(अंकगणितसे ) -
भाज्य = अ; हार ( भाजक ) = ब और स; पूर्वलब्ध
भाज्य =
पूर्वलब्ध
९
३
३६; हार ( भाजक )
= ३;
३६
६
अ
ब
६
अ
स
- = ६; दूसरा लब्ध
अ
स
अ
ब
= २; ६ - ४ = २.
= क÷
= ६ और ९;
३६
९
= क :
अ
ब
स स - ब
= ४; हारान्तर ९
= क
स
ब - स
-
२. पृष्ठ ५०-५१ परके पश्चिम विकल्पका स्पष्टीकरण
पृ. ५०-५१ पर मूलमें जो पश्चिमविकल्प बतलाया गया है, उसके सम्बन्धमें हमारे सन्मुख दो आपत्तियां उपस्थित हुईं, कि एक तो वह धवलाकार द्वारा स्वीकृत अंकसंदृष्टिसे घटित नहीं होता, और दूसरे प्रकृतमें उसका कोई फल नहीं दिखाई देता । इन्ही आपत्तियोंको दूर करने के लिये मूल में प्राप्त पाठ रखकर भी अनुवाद में हमने उस पाठका संशोधन सुझाया है । तथापि एक तरह से बीजगणित द्वारा मूलमें दिया हुआ गणित सिद्ध भी हो सकता है । जैसे -
६ = ३.
मानलो, जीवराशि क; मिथ्यादृष्टिराशि = अ; सिद्धतेरसराशि = ब; अ = क – ब. अब चूंकि क अनन्तराशि है, अतएव - क + १ = क; क - १ = क॰
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अब मूल पाठानुसार
क
स
अ
क +
ब
क +
पाठसंबंधी विशेष सूचना
क
- ब
ब
क
= क -
क
(क - १) +
क
ब
क
= क
ब + १
ब
किन्तु यह उदाहरण बनता तभी है, जब यह मान लिया जाय कि अनन्तमें एक घटाने व एक बढ़ानेसे अनन्त ही रहता है । अतएव यह उदाहरण अंकसंदृष्टिसे नहीं बतलाया जा
सकता ।
११ पाठसंबंधी विशेष सूचना
क +
क
ब
६७
पृ. २८८ की पंक्ति ९ में ' एवं जोइसिय
आदिसे लगाकर पृ. २९०
पंक्ति २ के 'गपदत्तादो' तकका पाठ प्रतियोंमें व मूडबिद्रीकी प्रतिमें निम्न प्रकार है, जो धवलाकारकी अन्यत्र पाठ-व्यवस्था से कुछ भिन्न है । हमने उसे मुद्रणमें अन्यत्रकी व्यवस्थानुसार कुछ हेरफेरसे रख दिया है और उसका कारण भी वहीं दे दिया है । किन्तु पाठकों की सूचना के लिये वह पूरा पाठ प्रतियोंके अनुसार यहां दिया जाता है
परस्थाणे पयदं । सन्त्रत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । एवं यव्वं जाव पलिदोवमोचि । तदो उवरि मिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सगअवहारकालस्स असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? पलिदोवमो । अहवा पदरंगुलस्त असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि १ सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । को पडिभागो ? परिदोत्रमस्स संखेज्जदिभागो । उवरि सत्थानभंगो । एवं जोइसियवाणवंतराणं पिणेयवं । भवणवासियाणं सत्थाणे सन्वत्थोवा मिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई | अवहारकालो असंखेज्जगुगे । को गुणगारो ? सगअवहारकालस्स असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? विक्खंभसूई | अहवा सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेठिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? विक्खंभसूचिवग्गो | अहवा घणंगुलं । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूई । दव्वमसंखेज्जगुगं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई | पदरमसंखेज्जगुणं । को गुगगारो ? अवहारकालो । लोगो असंखेज्जगुगो । को गुणगारो ? सेढी । सासणादीणं मूलोघभंगो । भवणवासियाणं सम्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । एवं यडवं जाव प्रलिदोवमोति । तदो उवरि भवणवासिय मि च्छाइट्ठिविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूईए असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? पलिदोवमो | अहवा पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असं
जाणि सूचिअंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । को पडि भागो ? पलिदोवमो | उवरि सगसत्थाणभंगो । सोहम्मादि जाव उवरिमउवरिमगेवज्जो त्ति सत्थाणप्पा बहुगं जाणिय यव्वं । उवरि परस्थाणं णस्थि, तत्थ से सगुणद्वाणाणमभावादो । सब्वट्टे सत्थाणं पि णत्थि एकपदचादो ।
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शुद्धिपत्र
(पुस्तक १)
शुद्ध
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ६७ १६ नानाप्रकारकी उज्वल और निर्मल धवल, निर्मल और नानाप्रकारकी विनयसे
विनयसे १८८ ४ उपदेशष्टव्यम्
उपदेष्टव्यम् २०५ २५ शंका, २९ इसलिये
शंका- तो फिर २५१ १ तत्प्रतिघातः
तप्रतिघातः ३४५ ८ -सन्तापान्यूनतया
-सन्तापान्न्यूनतया २६ संतापसे न्यून नहीं है, सन्तापरूप है,
(पुस्तक २) ४३३ २८ आहार, भय और मैथुन भय, मैथुन और परिग्रह ५३७ ४ दब्वेण छल्लेस्सा, भावेण तेउ- दव्व-भावेहिं छल्लेस्साओ,
पम्म-सुक्कलेस्साओ; , १५ द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे तेज, द्रव्य और भावसे छहों लेश्याएं, पद्म और शुक्ललेश्याएं;
(पुस्तक ३) ९ २ अवशेषः
अविशेषः , १२ अवशेष
अविशेष १५ २ कडय-रुजगदीव
कडय-रुजग-दीव १४ कटक, रूचकवरद्वीप
कटक (कंकण), रुचक (ताबीज) व द्वीप १५ ३-४ चेत्तद्वतिरिक्त
चेत्तद्व्यतिरिक्त , १२ नोआगमद्रव्यान्त
नोआगमद्रव्यानन्त १६ १४ अप्रेदशानन्त
अप्रदेशानन्त १८ ६ तस्स
तत्थ तस्स २६ २८ दुक्खेवा
पक्खेवा २७ ३० असंखेभ्जा
असंखेजा २८ ७ रासम्हि
रासिम्हि ८ अवाहिरजदि
अवहिरिजदि
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पृष्ठ
99
३०
३२ १० कोदवेण
पंक्ति अशुद्ध
१३ व्यख्यान
२६ शतप्रथक्त्व
"3
३३
३४
३५ ३० बेगद
३८ २ हा संगो
११२
१२६
३० कोदोके समान
"
३९ ५ सहिय
२९ घणयमाणो
३ छिण्णाविसिद्धं
४५
५ असंखेज्ज
५१ १४ क - ब ( मिथ्यादृष्टि )
८८
६ विरदाण णु कमेण
८९
३ पमत्त संजदा णं
६ दसगुणद्वारा सिणा
१६ भी हो........चाहिये,
39
२६४
३ ज
१३५
७ असेजदि
१५७ २७ जिनबिम्ब
१७६ १६ जणश्रेणी
१७६ २२
__१०४८५७६ १२३ सव्वद्दणरूवाणि
१९०
२०७
६ तिअवहारकाला २१७ ६ पंचिदिय
२८१
२८७
१७१ २ ताए
२२१ ११ गुणियं
२५७ २२-२४ यहां धवला के.... स्पष्ट है
२६० १० मणुसणीणं
२६२
४ असंखेजस
२६३
८
पादेसु
99
९ के
१ सासणदीणं
५ असंदसम्माइट्टिणो
शुद्धिपत्र
शुद्ध
व्याख्यान
शतपृथक्त्व
कोडवे
या कुडव (कुड़े) से
घणपमाणो
छिण्णावसि
वेसद
हासग्गहो
ही है, ऐसा असत् आग्रह नहीं करना चाहिये,
मुहिय
असंखेज
क - अ ( मिथ्यादृष्टि )
विरदाण कमेण
पमत्त संजदाणं दसगुणद्वाणरासिणा
च
असंखेज्जदि जिन और जिनबिम्ब
जग श्रेणी
१०४८५७६
१९३ सव्वाणिरूवाण त्ति अवहारकाला पंचिदिय
तीए गुणिय
x
मसिणीणं असंखेजस्त
पक्खित्त पहि
पाठेसु
को
सासणादीर्ण असंजदसम्मादट्टिणो
६९
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शुद्धिपत्र
पदत्तादो पदत्व सर्वार्थसिद्धि सम्यग्दृष्टियोंका असंखेज्जदिभाग चार बह्म-बह्मोत्तर णाढवेदव्वमिदि णाढवेदव्वं प्रारंभ
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २९० २ पदत्थादो " १० पदार्थ " २४ सर्वासिद्धि २९१ १४ सम्यग्दृहियोंका २९२ ५ असंखेजदिभाण २९६ २६ जार ३०२ १ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर ३०६ १० णादरेव्वामिदि
। णादरेव्वं " २६ ग्रहण " २८ , ३०७ ४ सराग
६ तेण " १६ सरागस्वरूपसे . " १९ उस अतीत ३१२ ८ -वत्तादो ३१८ ९ सखज३३० ४ -कम्मत३५९ ११ पुवुत्त ३६६ ५ बादरवण्फा ३६७ २ तेसिमपज्जत्ता। ३६९ ६ वाउणं ३८१ २ पजत्ता ४४० १० आवलिएाए ४४७ ९ पुविल्ल ४८० १० सम्वसम्मत्तेसुप्पायण
" सपगजंतेण एकस्वरूपसे जाते हुए वित्तीदो
संखेज
-कम्मतपुश्वुत्त बादरवणप्फर तेसिमपज्जत्ता घाऊणं पज्जत्ता आवलियाए पुष्विल्ल सब्वसम्मत्तेसु पाएण
-
-
-
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दव्वपमाणाणुगमो
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मंगलाचरणम्
पंच-परमेहि-वंदणं (धवलान्तर्गतम् )
सिद्धा दट्ठमला विसुद्ध-बुद्धी य लद्ध-सव्वत्था । तिहुवण-सिर-सेहरया पसियंतु भडारया सव्वे ॥१॥
तिहुवण-भवणप्पसरिय-पच्चक्खवबोह-किरण-परिवेढो । उइओ वि अणत्थवणो अरहंत-दिवायरो जयऊ ॥२॥
ति-रयण-खग्ग-णिहाएणुत्तारिय-मोह-सेण्ण-सिर-णिवहो । आइरिय-राउ पसियउ परिवालिय-भविय-जिय-लोओ ॥ ३॥
अण्णाणयंधयारे अणोरपारे भमंत-भवियाणं । उज्जोओ जेहि कओ पसियंतु सया उवज्झाया ॥ ४ ॥
संधारिय-सीलहरा उत्तारिय-चिरपमाद-दुस्सीलभरा । साहू जयंतु सव्वे सिव-सुह-पह-संठिया हु णिग्गलिय-भया ॥५॥
जयउ धरसेण-णाहो जेण महाकम्म-पयडि-पाहुड-सेलो। बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स ॥ ६ ॥)
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(
(सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदयलि-पणीदे
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
तस्स सिरि-वीरसेणाइरिय-विरहया टीका
धवला केवलणाणुजोइयछद्दव्वमणिजियं पवाईहि ।।
णमिऊण जिणं भणिमो दव्वणिओगं गणियसारं ॥१॥) ( संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहणद्वं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह
दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य ॥१॥
जिन्होंने केवलज्ञानके द्वारा छह द्रव्योंको प्रकाशित किया है और जो प्रवादियों के द्वारा नहीं जीते जा सके ऐसे जिनेन्द्रदेवको मैं (वीरसेन आचार्य) नमस्कार करके गणितकी जिसमें मुख्यता है ऐसे द्रव्यानुयोगका प्रतिपादन करता हूं ॥१॥
विशेषार्थ--द्रव्यानुयोगका दूसरा नाम द्रव्यप्रमाणानुगम या संख्याप्ररूपणा है। यद्यपि द्रव्य छह हैं फिर भी इस अधिकारमें गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकर केवल जीवद्रव्यकी संख्याका ही प्ररूपण किया गया है।
जिन्होंने चौदहों गुणस्थानोंके अस्तित्वको जान लिया है ऐसे शिष्योंको अब उन्हीं चौदहों गुणस्थानोंके अर्थात् चौदहों गुणस्थानवी जीवोंके परिमाण (संख्या) के ज्ञान करानेके लिये भूलबलि आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
द्रव्यप्रमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥ १॥
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छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं
[ १, २, १. द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत्पर्यायानिति द्रव्यम् । अथवा द्रूयते द्रोष्यते अद्रावि पर्याय इति द्रव्यम् । तं च दव्वं दुविहं, जीवदव्यं अजीवदव्यं चेदि । तत्थ जीवदव्धस्स लक्खणं वुच्चदे । तं जहा, ववगदपंचवण्णो ववगदपंचरसो ववगददुगंधो ववगदअट्ठफासो सुहुमो अमुत्ती अगुरुगलहुओ असंखेजपदेसिओ अणिदिसंठाणो त्ति एवं जीवस्स साहारणलक्षणं । उड्डगई भोत्ता सपरप्पगासओ त्ति जीवदव्यस्स असाहारणलक्खणं । ' उत्तं च
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंठाणे ॥ १ ॥ जं तं अजीवदव्यं तं दुविहं, रूवि-अजीवदव्यं अरूवि-अजीवदव्यं चेदि । तत्थ जे तं रूवि-अजीवदव्यं तस्स लक्खणं वुचदे- रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः पुद्गलाः रूपि अजीवद्रव्यं
जो पर्यायोंको प्राप्त होता है, प्राप्त होगा और प्राप्त हुआ है उसे द्रव्य कहते हैं। अथवा, जिसके द्वारा पर्याय प्राप्त की जाती है, प्राप्त की जायगी और प्राप्त की गई थी उसे द्रब्य कहते हैं। वह द्रव्य दो प्रकारका है, जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य । उनमेंसे जीवद्रव्यका लक्षण कहते हैं। वह इसप्रकार है, जो पांच प्रकारके वर्णसे रहित है, पांच प्रकारके रससे रहित है, दो प्रकारके गन्धले रहित है, आठ प्रकारके स्पर्शसे रहित है, सूक्ष्म है, अमूर्ति है, अगुरूलघु है, असंख्यातप्रदेशी है और जिसका कोई संस्थान अर्थात् आकार निर्दिष्ट नहीं है वह जीव है। यह जीवका साधारण लक्षण है। अर्थात् यह लक्षण जीवको छोड़कर दूसरे धर्मादि अमूर्त द्रव्योंमें भी पाया जाता है, इसलिये इसे जीवका साधारण लक्षण कहा है। परंतु ऊर्ध्वगतिस्वभावत्व, भोक्तृत्व और स्वपरप्रकाशकत्व यह जीवका असाधारण लक्षण है। अर्थात् यह लक्षण जीवद्रव्यको छोड़कर दूसरे किसी भी द्रव्यमें नहीं पाया जाता है, इसलिये इसे जीवद्रव्यका असाधारण लक्षण कहा है। कहा भी है
जो रसरहित है, रूपरहित है, गन्धरहित है, अव्यक्त अर्थात् स्पर्शगुणकी व्यक्तिसे
चेतनागुणयक्त है. शब्दपर्यायसे रहित है, जिसका लिंगके द्वारा ग्रहण नहीं होता है और जिसका संस्थान अनिर्दिष्ट है अर्थात् सब संस्थानोंसे रहित जिसका स्वभाव है उसे जीवद्रव्य जानो ॥१॥
अजीवद्रव्य दो प्रकारका है, रूपी अजीवद्रव्य और अरूपी अजीवद्रव्य । उनमें जो रूपी अजीवद्रव्य है उसका लक्षण कहते हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे युक्त पुद्गल रूपी
१ प्रवच. २, ८०, पश्चा. १३४. २ — स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ' तत्त्वार्थसू. ५, २३.
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१, २, १. ]
दव्यमाणागमे णिसपरूवणं
शब्दादि । तं च रूवि - अजीवदव्वं छन्हिं, पुढवि-जल-छाया चउरिदियविसय-कम्मक्खंध - परमाणू चेदि । वुत्तं च
पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय कम्म-परमाणू । छवि मेयं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरे हिं' ॥ २ ॥
[ ३
जं तं अरूवि - अजीवदव्यं तं चउत्रिहं, धम्मदव्वं अधम्मदव्त्रं आगासदव्वं कालदव्यं चेदि । तत्थ धम्मदव्वस्स लक्खणं वुच्चदेववगदपंचवणं ववगदपंचरसं ववगद - दुगंधं ववगदअडपासं जीव- पोग्गलाणं गमनागमनकारणं असंखेजपदेसियं लोगपमाणं धम्मदव्वं । एवं चेत्र अधम्मदव्वं पि, गवरि जीव-पोग्गलाणं एदं द्विदिहेदू । एवमागास पि, णवरि आगासदव्यमणंतपदेसियं सव्वगयं ओगाहणलक्षणं । एवं चेव कालदव्वं पि, वरिस - परपरिणामहेऊ अपदेसियं लोग पदेसपरिमाणं । एदाणि छ
अजीवद्रव्य है, जैसे शब्दादि । वह रूपी अजीवद्रव्य छह प्रकारका है, पृथिवी, जल, छाया, नेत्रको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंके विषय, कर्मस्कन्ध और परमाणु । कहा भी है
जिनेन्द्रदेवने पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इन्द्रियके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु, इसप्रकार पुद्गलद्रव्य छह प्रकारका कहा है ॥ २ ॥ विशेषार्थ - - ऊपर जो पुगलके छह भेद बतलाये हैं वे उपलक्षणमात्र हैं, इसलिये उपलक्षणसे उस उस जाति के पुतलोंका उस उस भेदमें ग्रहण हो जाता है । ग्रन्थान्तरोंमें जो पुद्गल के स्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूल सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म, ये छह भेद गिनाये हैं और उनका दृष्टान्तोंद्वारा स्पष्टीकरण करनेके लिये उपर्युक्त पृथिवी आदि छह प्रकार बतलाये हैं, इससे भी यही सिद्ध होता है कि ये पृथिवी आदि नाम उपलक्षणरूप से लिये गये हैं ।
अरूपी अजीवद्रव्य चार प्रकारका है, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य | उनमें से धर्मद्रव्यका लक्षण कहते हैं । जो पांच प्रकारके वर्णसे रहित है, पांच प्रकार रससे राहत है, दो प्रकारके गन्धसे रहित है, आठ प्रकारके स्पर्शसे रहित है, जीव और पुद्गलों के गमन और आगमन में साधारण कारण है, असंख्यात प्रदेशी है और लोकाकाशके बराबर है वह धर्मद्रव्य है । इसीप्रकार अधर्मद्रव्य भी है, परंतु इतनी विशेषता है कि यह जीव और पुद्गलों की स्थिति में साधारण कारण है । इसीप्रकार आकाशद्रव्य भी है, पर इतनी विशेषता है कि आकाशद्रव्य अनन्तप्रदेशी, सर्वगत और अवगाहनलक्षगवाला है । इसीप्रकार
१ गो. जी. ६०१. पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसयकम्मपाओग्गा । कम्मातीदा एवं छन्भेया पौग्गला होंति ॥ पञ्चा. ८३.
२ लोगागास पदे से एक्के जे डिया हु एक्केका । रयणाणं रासी हव ते कालागू असंखदव्वाणि ॥ दव्व सं. २२. गो. जी. ५८९.
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? ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १.
दव्वाणि । एदेसु छसु दन्त्रेसु केण दव्त्रेण पगदं ? जस्स संताणिओगद्दारे चोदसमग्गणठाणेहि चोदसजीव समासाणमत्थित्तं परूविदं जीवदव्वस्त तेण पगदं । तं कधं णव्यदि ति भणिदे 'मिच्छादिट्ठी केवडिया ' इदि सेसदव्त्राणं परिमाणमुज्झिदूण जीवदव्त्रपरिमाण परूवयसुत्ताद जाणिजदि जीवदव्त्रेणेक्केण चेव पगदं ण अण्णदेहिं ति । प्रमीयन्ते अनेन अर्था इति प्रमाणम् । दव्वस्त पमाणं दव्त्रयमाणं । एवं तप्पुरिससमासे' कीरमाणे दव्वादो पमाणस्स भेदो दुक्कदि, जहा देवदत्तस्स कंबलो त्ति । एत्थ देवदत्तादो कंबलस्सेव भेदो ण, अभेदे वि उप्पलगंधो इच्चेवमादिसु तप्पुरिससमासदंसणादो | अधवा दब्वादो पमाणं केण वि सरूवेण भिण्णं चेव, अण्णहा विसेसिय विसेसण भावाणुवव
कालद्रव्य भी है, पर इतनी विशेषता है कि कालद्रव्य अपने और दूसरे द्रव्योंके परिणमन में साधारण कारण है, अप्रदेशी अर्थात् एकप्रदेशी है और लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं । इसप्रकार ये छह द्रव्य हैं ।
शंका--इन छह द्रव्योंमेंसे यहां प्रकृतमें किस द्रव्यसे प्रयोजन है, अर्थात् किस द्रव्यके द्वारा प्रकृत विषय कहा जायगा ?
समाधान -- सत्प्ररूपणानुयोगद्वार में चौदहों मार्गणास्थानोंके द्वारा जिस जीवद्रव्य के चौदों जीवसमासोंके अस्तित्वका निरूपण कर आये हैं, प्रकृतमें उसी जीवद्रव्य से प्रयोजन है ।
शंका -- यह कैसे जाना ?
समाधान - - ' मिथ्यादृष्टि जीव कितने हैं' इसप्रकार शेष पांच द्रव्यों के परिमाणको छोड़कर एक जीवद्रव्यके परिमाणके निरूपण करनेवाले सूत्रसे यह जाना जाता है कि प्रकृतमें एक जीवद्रव्यसे ही प्रयोजन है, अन्य द्रव्योंसे नहीं ।
जिसके द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं या जाने जाते हैं उसे प्रमाण कहते हैं और द्रव्यके प्रमाणको द्रव्यप्रमाण कहते हैं ।
शंका- इसप्रकार 'द्रव्य प्रमाण ' इन दोनों पदोंमें तत्पुरुष समास करने पर द्रव्यसे प्रमाणका भेद प्राप्त होता है, जैसे 'देवदत्तका कम्बल ' ?
समाधान - देवदत्त से कम्बलका जिसप्रकार भेद है, प्रकृतमें उसप्रकारका भेद नहीं है, क्योंकि, अभेदके रहने पर भी ' उत्पलगन्ध' इत्यादि पदों में तत्पुरुष समास देखा जाता है । इसका यह तात्पर्य है कि ' उत्पलगन्ध ' इत्यादि पदोंमें ' उत्पलस्य गन्धः उत्पलगन्धः ' इत्यादि रूपले तत्पुरुष समास के रहने पर भी जिसप्रकार उत्पलसे गन्धका भेद नहीं होता है, उसी प्रकार यहां पर भी द्रव्यसे प्रमाणका सर्वथा भेद नहीं समझना चाहिये ।
अथवा, द्रव्यसे प्रमाण किसी अपेक्षासे भिन्न ही है । यदि द्रव्यसे प्रमाणका कथंचित् भेद न माना जाय तो द्रव्य और प्रमाणमें विशेष्य-विशेषणभाव नहीं बन सकता है । अथवा,
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१, २, १.]
दव्वपमाणाणुगमे णिदेसपरूवणं त्तीदो । अधवा कम्मधारयसमासो कादयो दव्यमेव पमाणं दव्यपमाणमिदि। एत्थ वि ण दधपमाणाणमेयंतेण एगत्तं, एकत्थ समासाभावादो । अधवा दुंदसमासो कादव्यो । तं जधा, दव्यं च पमाणं च दव्वपमाणमिदि । दुदसमासो अवयवपहाणो त्ति दव्यपमाणाणं पुध पुध परूवणं पावेदि । ण च सुत्ते पुध पुध दव्य-पमाणाणं परूवणा कदा । जदि वि समुदयपहाणो दुंदसमासो आसइजदि तो वि अवयववदिरित्तसमुदायाभावादो अवयवाणं चेव परूवणा पावेदि । ण च सुत्ते अवयवाणं समूहस्स वा परूवणा कदा । तदो ण दुंदसमासो कीरदि ति ? ण एस दोसो, दबस्स पमाणे परूविदे दव्यं पि परूविदमेव : कुदो ? दयवदिरित्तपमाणाभावादो। तिकालगोयराणंतपजयाणमण्णोणाजवुत्ती दव्यं । वुत्तं च
नयोपनयैकान्तानां त्रिक लानां समुच्चयः ।
अविभ्राड्भावसम्बन्धी द्रव्यमेकमनेकधा' ॥ ३ ॥ संखाणं दधस्सेको पजाओ, तदो ण दोण्हमेगतमिदि । वुतं चद्रव्य और प्रमाण इन दोनों पदोंमें ‘दव्यमेव पमाणं दवपमाणं' अर्थात् द्रव्य ही प्रमाण द्रव्यप्रमाण है, इसप्रकार कर्मधारय समास करना चाहिए । यहां पर भी द्रव्य और प्रमाण इन दोनों में एकान्तसे एकत्व अर्थात् अभेद नहीं है, क्योंकि, सर्वथा एकार्थमें अर्थात् अभेदमें समास ही नहीं हो सकता है । अथवा, द्रव्य और प्रमाण इन दोनों पदों में द्वन्द्वसमास करना चाहिये । वह इसप्रकार है, द्रव्य और प्रमाण द्रव्यप्रमाण ।
शंका-द्वन्द्वसमास अवयवप्रधान होता है, इसलिये द्रव्य और प्रमाणका पृथक् पृथक् प्ररूपण प्राप्त हो जाता है। परंतु सूत्रमें द्रव्य और प्रमाणका पृथक पृथक् कथन नहीं किया है । यद्यपि समुदायप्रधान भी द्वन्धसमास हो सकता है, तो भी अवयवोंको छोड़कर समुदाय पाया नहीं जाता है, इसलिये समुदायप्रधान द्वन्द्वसमासके करने पर भी अवयवोंकी ही प्ररू. पणा प्राप्त होती है। परंतु सूत्र में अवयवोंकी अथवा समूहकी प्ररूपणा नहीं की गई है। इस लिये द्रव्य और प्रमाण इन दोनों पदोंमें द्वन्द्वसमास नहीं किया जा सकता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यके प्रमाणके प्ररूपण कर देने पर द्रव्यका भी प्ररूपण हो ही जाता है, क्योंकि, द्रव्यको छोड़कर उसका प्रमाण नहीं पाया जाता है।
त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंकी परस्पर अपृथग्वृत्ति द्रव्य है। कहा भी है" जो नैगमादि नय और उनकी शाखा उपशाखारूप उपनयोंके विषयभूत निकालवर्ती पर्यायोंका अभिन्न संबन्धरूप समुदाय है उसे द्रव्य कहते हैं। वह द्रव्य कथंचित् एकरूप और कथंचित् अनेकरूप है ॥ ३॥
द्रव्यकी एक पर्याय संख्यान है, इसलिये द्रव्य और प्रमाणमें एकत्व अर्थात् सर्वथा अभेद नहीं है । कहा भी है
१ आ. मी. १०७.
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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १. एयदवियम्मि जे अस्थपज्जया क्यणपज्जया चावि ।
तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवदि दव्वं ॥ ४॥ एवं ताणं भेदो भवदु णाम, किंतु दव्वगुणपरूवणादारेणेव दव्वस्स परूवणा भवदि, अण्णहा दव्वपरूवणोवायाभावादो । उत्तं च
नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना ।
अंगांगिभावात्तव वस्तु यत्तत् क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ॥ ५॥ तदो दव्वगुणे पमाणे परूविदे दव्यं परूविदं चेव (एवं मुत्ते दव्वपमाणाणं परूवणा अत्थि त्ति इंदसमासो वि ण विरुज्झदे । सेससमासाणमेत्थ संभयो णत्थि । ते सब्बे पि समासा केत्तिया ? छच्चेव भवंति । उत्तं च
बहुव्रीह्यव्ययीभावो द्वन्द्वस्तत्पुरुषो द्विगुः ।
कर्मधारय इत्येते समासाः षट् प्रकीर्तिताः ॥ ६ ॥ किमिदि इदरेसिं संभवो णत्थि ? एत्थ तदत्थाभावादो । को तेसिमत्थो ?
एक द्रव्यमें अतीत, अनागत और 'अपि' शब्दसे वर्तमान पर्याय रूप जितने अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है ॥ ४ ॥
__यद्यपि इसप्रकार द्रव्य और प्रमाणमें भेद रहा आवे, फिर भी द्रव्यके गुणोंकी प्ररूपणाके द्वारा ही द्रव्यकी प्ररूपणा हो सकती है, क्योंकि, द्रव्यके गुणोंकी प्ररूपगाके विना द्रव्यप्ररूपणाका कोई उपाय नहीं है। कहा भी है
अपने गुणों और पर्यायोंकी अपेक्षा नानास्वरूपताको न छोड़ता हुआ वह द्रव्य एक है और अन्वयरूपसे एकपनेको नहीं छोड़ता हुआ वह अपने गुणों और पर्यायोंकी अपेक्षा नाना ह । इसप्रकार अनन्तरूप जो वस्तु है वही, हे जिन, आपके मतमें क्रमशः अंगांगीभावसे वचनोंद्वारा कही जाती है ॥ ५॥
__ अतः द्रव्यके गुणरूप प्रमाणके प्ररूपण कर देने पर द्रव्यका कथन हो ही जाता है। इसप्रकार सूत्रमें द्रव्य और प्रमाणकी प्ररूपणा है ही, अतएव द्वन्द्वसमास भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है । इसप्रकार तत्पुरुष, कर्मधारय और द्वन्द्व समासको छोड़कर शेष समासोंकी यहां संभावना नहीं है।
शंका-वे संपूर्ण समास कितने हैं ? समाधान-वे समास छह ही हैं। कहा भी है
बहुव्रीहि, अव्ययीभाव, द्वन्द्व, तत्पुरुष, द्विगु और कर्मधारय, इसप्रकार ये छह समास कहे गये हैं ॥ ६॥
शंका--यहां द्रव्यप्रमाण इस पदमें उपर्युक्त तीन समासोंको छोड़कर दूसरे समासोंकी संभावना क्यों नहीं है ? १ गो. जी. ५८२. स. त.१.३३.
२ युक्त्यनु. ५०
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१, २, १.]
दव्वपमाणाणुगमे णिदेसपरूवणं बहिरर्थो बहुव्रीहिः परं तत्पुरुषस्य च ।
पूर्वमव्ययीभावस्य द्वन्द्वस्य तु पदे पदे ॥ ७ ॥ संख्यापूर्वकस्तत्पुरुषो द्विगुः समासः, यथा पञ्चनदमित्यादि । एकाधिकरणः तत्पुरुषः कर्मधारय इति । एत्थ चोदगो भणदि- संखा एक्का चेव, एगवदिरित्तदुवादीणमभावादो। सा च एकसंखा सयपदत्थाणमत्थि त्ति जाणिजदि, अण्णहा तेसिमत्थि. त्ताणुववत्तीदो। तदो किं तीए संखापरूवणाए इदि । एत्थ परिहारो वुच्चद- सयलपयत्थाणं जदि एक्का चेव संखा णियमेण भवदि तो सवपदत्थाणं एक्कादो अव्वदिरित्ताणं एगत्तं पसज्जेज्ज । तहा च एगट्ठदंसणे सयलट्ठदंसणं, एगढविणासे सयलट्ठविणासो, एयटुप्पत्तीए सयलटुप्पत्ती जाएज्ज । ण च एवं, तहा अदसणादो । तम्हा पदत्थभेदो इच्छिदव्यो। संते तब्भेदे तत्थ टियसंखाए भेदो भवदि चेव, भिण्णहट्ठियसंखाणाणमेगत्तविरोधादो। होदु एकसंखा चेव बहुवा, ण तदो अण्णा संखा चे ण,
समाधान-क्योंकि यहां पर उनका अर्थ घटित नहीं होता है, इसलिये अन्य समासोंका ग्रहण नहीं किया।
शंका-उन छहों समासोका क्या अर्थ है ?
समाधान-अन्य अर्थप्रधान बहुव्रीहि समास है। उत्तर पदार्थप्रधान तत्पुरुष समास है। अव्ययीभाव समासमें पूर्व पदार्थप्रधान है। द्वन्द्व समासकी प्रत्येक पदमें प्रधानता रहती है ॥७॥
संख्यापूर्वक तत्पुरुषको द्विगु समास कहते हैं, जैसे पंचनद इत्यादि । जहां पर दो पदार्थोंका एक आधार दिखाया जाता है ऐसे तत्पुरुषको कर्मधारय समास कहते हैं।।
शंक. - यहां पर शंकाकार कहता है कि संख्या एकरूप ही है, क्योंकि, एकको छोड़कर दो आदिक संख्याएं नहीं पाई जाती हैं । और वह एकरूप संख्या संपूर्ण पदार्थों में रहती है ऐसा जाना जाता है। यदि ऐसा न माना जाय तो उन संपूर्ण पदार्थोका अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, इसलिये यहां पर उस संख्याकी प्ररूपणासे क्या प्रयोजन है ?
समाधान-आगे उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं। संपूर्ण पदार्थोके नियमसे एक ही संख्या होती है, यदि ऐसा मान लिया जाय तो वे संपूर्ण पदार्थ एकरूप संख्यासे अभिन्न हो जाते हैं, इसलिये उन सबको एकत्वका प्रसंग आ जाता है। और ऐसा मान लेने पर एक पदार्थका ज्ञान होने पर संपूर्ण पदार्थोंका शान, एक पदार्थके विनाश होने पर संपूर्ण पदार्थोंका विनाश और एक पदार्थकी उत्पत्ति होने पर संपूर्ण पदार्थोकी उत्पत्ति होने लगेगी। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा देखा नहीं जाता है, इसलिये पदार्थों में भेद मान लेना चाहिये । इसप्रकार पदार्थों में भेदके सिद्ध हो जाने पर उनमें रहनेवाली संख्यामें भेद सिद्ध हो ही जाता है, क्योंकि, अनेक पदार्थों में रहनेवाली संख्याओंमें एकत्व अर्थात् अभेद माननेमें विरोध आता है।
शंका-एक यह संख्या ही अनेक रूप हो जाओ, परंतु उससे भिन्न संख्या नहीं
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८ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १.
ए किस्से बहुत विरोधादो । एगत्तं पडि समानत्तणेण एगत्तमावण्णाए दव्व-खेत-कालभावभेदेण णाणत्तमुवगदाए एकसंखाए ण बहुत्तं विरुज्झदे चेज्जदि एवं तो एगसंखादो कथंचि भेदा दुवादिसंखाए भेदो किमिदि ण इच्छिजदे | कहं भेदो चे, दव्त्रादिभेदं पडुच्च तदो चेव दुब्भावो समाणत्तदंसणादो । दोहमेगत्तं दव्वट्ठियणयविवखादो । जवणये विवक्खिदे एकसंखादो से सेकसंखा वदिरित्तेत्ति णाणत्तं । णेगमणए विव-क्खिदे दुवादिभाव । एत्थ पुण णेगमणयविवक्खादो संखामेदो गहेदव्वो । यथावस्त्ववबोधः अनुगमः, केवलि श्रुतकेवलिभिरनुगतानुरूपेणावगमो वा । द्रव्यप्रमाणस्य द्रव्य - प्रमाणयोर्वा अनुगमः द्रव्यप्रमाणानुगमः, तेन द्रव्यप्रमाणानुगमेनेति निमित्ते तृतीया । दुविहो णिसो, सोदाराणं जहा णिच्छयो होदि तहा देसो णिदेसो । कुतीर्थपाखण्डिनः
पाई जाती है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, एक संख्याको बहुतरूप माननेमें विरोध
आता है ।
शंका- - एक यह संख्या एकत्वके प्रति समान होनेसे एकरूप है, और द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावके भेदसे नानारूप है, इसलिये एक संख्या में बहुत्व विरोधको प्राप्त नहीं होता है ?
प्रतिशंका - यदि ऐसा है तो एक संख्या से कथंचित् भिन्न होने के कारण दो आदि संख्याओंका उससे भेद क्यों नहीं मान लेते हो ?
शंका - एक संख्या से दो आदि संख्याओंका भेद कैसे है ?
समाधान -- द्रव्य, क्षेत्र आदि भेदों की अपेक्षासे दो इसीलिये संख्याओं में दो आदि रूपता बन जाती है, क्योंकि, संख्यारूप भेदोंकी समानता देखी जाती है ।
द्रव्यार्थिकनकी विवक्षासे एक और नाना इन दोनोंमें एकत्व है । पर्यायार्थिकनयकी विवक्षा होने पर विवक्षित एक संख्या से शेष एक संख्याएं भिन्न हैं, इसलिये उनमें नानात्व है । तथा नैगमनयकी विवक्षा होने पर द्वित्व आदि भाव बन जाता है । इसप्रकार ( संख्या के कथंचित् एकरूप और कथंचित् नानारूप सिद्ध हो जाने पर उनमें से ) यहां प्रकृतमें तो नैगमनयकी विवक्षासे संख्याभेद ही ग्रहण करना चाहिये ।
वस्तु के अनुरूप ज्ञानको अनुगम कहते है । अथवा, केवली और श्रुतकेवलियोंके द्वारा परंपरा से आये हुए अनुरूप ज्ञानको अनुगम कहते हैं । द्रव्यगत प्रमाणके अथवा द्रव्य और प्रमाणके अनुगमको द्रव्यप्रमाणानुगम कहते हैं । उससे अर्थात् द्रव्यप्रमाणानुममकी अपेक्षा, इसप्रकार द्रव्यप्रमाणानुगम पदके साथ सूत्रमें जो तृतीया विभक्ति जोड़ी है वह निमित्तरूप अर्थ में जानना चाहिये ।
निर्देश दो प्रकारका है । जिस प्रकारके कथन करनेसे श्रोताओं को पदार्थके विषय में
आदि संख्याओं का भेद है और द्रव्य आदि भेदों के साथ दो आदि
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१, २, १.]
दव्वपमाणाणुगमे णिदेसपरूवणं अतिशय्य कथनं वा निर्देशः । स द्विविधः द्विप्रकारः शरीरस्वभावरूपप्रकृतिशीलधर्माणां निर्देश इव । ओघेण, ओघं वृन्दं समूहः संपातः समुदयः पिण्डः अवशेषः अभिन्नः सामान्यमिति पर्यायशब्दाः। गत्यादिमार्गणस्थानैरविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानानां प्रमाणप्ररूपणमोघनिर्देशः। चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टसकलजीवराशिप्ररूपणादादेशः किन्न स्यादिति चेन्न, सर्वजीवराशिनिरूपणं प्रति प्रतिज्ञाभावात् । क प्रतिज्ञास्याचार्यस्येति चेत्, जीवसमासप्रमाणनिरूपणे प्रतिज्ञा । सा कुतोऽवसीयत इति चेत्, ‘एत्तो इमेसि चोहसण्हं जीवसमासाणं' इत्यादिसूत्रादवसीयते । सर्वजीवराशिव्यतिरिक्तचतुर्दशगुणस्थानानाम भावात्तथापि सर्वजीवराशिरेव निरूपितस्स्यादिति चेन्न, जीवसमुदायस्यानिश्चय होता है उस प्रकारके कथन करनेको निर्देश कहते हैं। अथवा, कुतीर्थ अर्थात् सर्वथा एकान्तवादके प्रस्थापक पाखण्डियोंको उलंघन करके अतिशयरूप कथन करनेको निर्देश कहते हैं। वह निर्देश शरीरके स्वभाव, रूप, प्रकृति, शील और धर्मके निर्देशके समान दो प्रकारका है। उनमेंसे एक ओघनिर्देश है। ओघ, वृन्द, समूह, संपात, समुदय, पिण्ड, अवशेष,
और सामान्य ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। इस ओघनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इसप्रकार हुआ कि गत्यादि मार्गणास्थानोंसे विशेषताको नहीं प्राप्त हुए केवल चौदहों गुणस्थानोंके अर्थात् चौदहों गुणस्थानवी जीवोंके प्रमाणका प्ररूपण करना ओघनिर्देश है।
शंका-वह ओघनिर्देश चौदहों गुणस्थानविशिष्ट संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपण करनेवाला होनेसे आदेशनिर्देश क्यों नहीं कहलाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, ओघनिर्देशमें संपूर्ण जीवराशिके निरूपणकी प्रतिक्षा नहीं की गई है। __शंका-तो फिर आचार्यने ओघनिर्देशकी किस विषयमें प्रतिज्ञा की है ?
समाधान- आचार्यने ओघनिर्देशसे जीवसमालोंके ( गुणस्थानोंके ) प्रमाणके निरूपणमें प्रतिज्ञा की है।
शंका--आचार्यने ओघनिर्देशसे जीवसमासोंके प्रमाणके निरूपणमें प्रतिज्ञा की है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-' एत्तो इमेसिं चोहसण्हं जीवसमासाणं' इत्यादि सूत्रसे जाना जाता है कि ओघनिर्देशसे जीवसमासोंके विषयमें आचार्यकी प्रतिक्षा है।
- शंका--संपूर्ण जीवराशिको छोड़कर चौदह गुणस्थान पाये नहीं जाते हैं, इसलिये चौदह गुणस्थानोंके निरूपण करने पर भी तो संपूर्ण जीवराशिका ही निरूपण हो जाता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, ओघनिर्देशके निरूपणमें समस्त जीवसमुदाय अविवक्षित है।
विशेषार्थ-यद्यपि गुणस्थानों में संपूर्ण जीवराशिका अन्तर्भाव हो जाता है, फिर भी एक जीवके भी एक पर्यायमें संपूर्ण गुणस्थान संभव हैं, इसलिये यह कहा गया है कि ओघनिर्देशमें
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१० ]
डागमे जीवाणं
[ १, २, २.
विवक्षितत्वात् । आदेसेण, आदेशः पृथग्भावः पृथकरणं विभजनं विभक्तीकरणमित्यादयः पर्यायशब्दाः । गत्यादिविभिन्न चतुर्दश जीवसमासप्ररूपणमादेशः । णिसो' इदि कट्टु आदेसं थप्पं काढूण ओघपरूवणमुत्तरमुत्तं भणदि
6 जहा उद्देसो तहा
ओघेण मिच्छाही व्वपमाणेण केवडिया, अनंता ॥ २ ॥
ओघसद्दुच्चारणाभावे ओघादेसपरूवणासु कदमेसा परूवणेत्ति सोदारस्स चित्तं मा घुलिसदिति तच्चित्तस्स थिरतुप्पायण ओघेणेत्ति भणिदं । मिच्छादिट्टिग्गहणाभावे कदमस्त जीवसमासस्स इमा परूवणा इदि सोदारस्स संदेहो होज्ज, तस्स संदेहुप्पत्तिनिवारण मिच्छादिट्टिग्गहणं कदं । दव्त्रयमाणेणेत्ति अभणिय केवडिया इदि सामणेण पुच्छिदे इमा पुच्छा किं व्यवितया, किं खेत्तविसया, किं कालविसया, किंवा भावविसया, इदि संदेहो होज्ज; तणिवारणई दन्यपमाणगहणं कई । केवडिया इदि पुच्छा ।
संपूर्ण जीवराशिके कथन करनेकी विवक्षा नहीं की गई है ।
आदेश से कथन करनेको आदेशनिर्देश कहते हैं। आदेश, पृथग्भाव, पृथक्करण, विभजन, विभक्तीकरण इत्यादिक पर्यायवाची शब्द हैं। आदेशनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इसप्रकार है कि गति आदि मार्गणाओंके भेदोंसे भेदको प्राप्त हुए चौदह गुणस्थानों का प्ररूपण करना आदेशनिर्देश है ।
' उदेशके अनुसार निर्देश करना चाहिये ' ऐसा समझकर आदेशको स्थगित करके पहले ओघनिर्देशका प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
ओघसे मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं, अनन्त हैं ॥ २ ॥
ओघ शब्दके उच्चारण नहीं करने पर ओघ और आदेश प्ररूपणाओंमेंसे 'यह कौनसी प्ररूपणा है ' इसप्रकार श्रोताका चित्त मत घुले, इसलिये उसके चित्तकी स्थिरता उत्पन्न करनेके लिये सूत्रमें 'ओघसे' यह पद कहा है । सूत्रमें मिथ्यादृष्टि पदके ग्रहण नहीं करने पर श्रोताको संदेह हो सकता है, इसलिये मिथ्यादृष्टि पदका ग्रहण किया है । सूत्रमें द्रव्यप्रमाणसे' इस पदको न कहकर ' कितने हैं' इसप्रकार सामान्यसे पूछने पर यह पृच्छा क्या द्रव्यविषयक है, क्या क्षेत्रविषयक है, क्या कालविषयक है, अथवा क्या भावविषयक है, प्रकारका सन्देह हो सकता है, अतः उस सन्देहके निवारणार्थ सूत्र में 'द्रव्यप्रमाण ' पदको ग्रहण किया है । 'कितने हैं' यह पद प्रश्नरूप है ।
कौनसे जीवसमास की यह प्ररूपणा है इसप्रकार उसकी सन्देहोत्पत्ति के निवारण करनेके लिये सूत्रमें
★
१ सामान्येन तावत् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । स. सि. मिच्छाइडी पावाणंताणंता ॥ गी. जी. ६२३. मिच्छाता । पञ्चसं. २, ९.
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१, २, २.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइट्टिपमाणपरूवणं
[११ पुच्छामंतरेण · ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्यपमाणेण अणंता' इदि किण्ण वुश्चदे ? न, अस्य स्वकर्तृत्वनिराकरणद्वारेणाप्तकर्तृत्वप्रतिपादनफलत्वात् । तदपि किं फलमिति चेन, 'वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यम्' इति न्यायात् वचनस्यास्य प्रामाण्यप्रदर्शनफलम् । भूतबल्यादीनामाचार्याणां व व्यापार इति चेन्न, तेपां व्याख्यातृत्वाभ्युपगमात् । अणंता इदि पमाणं चुतं, एवं वुत्ते संखेज्जासंखेज्जाणं पडिणियत्ती । तं च अणंतमणेयविधं । तं जहा----
णामं ठवणा दवियं सस्सद गणणापदेसियमणतं ।
एगो उपयादेसो वित्थारो सब भावो य ॥८॥ तत्थ णामाणंतं जीवाजीवमिस्सदव्यस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता इदि । जंतं हवणाणतं णाम तं कढकम्मेसु वा चित्तकम्मे वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण
शंका--'कितने हैं। इसप्रकारके प्रश्नके विना ही ' ओघनिर्देश मिथ्यारहिं जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्त हैं' इसप्रकारका सूत्र क्यों नहीं कहा?
समाधान--नहीं, क्योंकि, अपने कर्तृत्वका निराकरण करके आप्तके कर्तृत्वक्षा प्रतिपादन करना कितने हैं ' इस पदके सूत्र में देनेका फल है।
शंका--अपने कर्तृत्वका निराकरण करके आप्तकर्तृत्वके प्रतिपादन करनेका भी क्या फल है?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, 'वक्ताको प्रमाणतासे वचनोंमें प्रमाणता आती है। इस न्यायके अनुसार 'अनन्त हैं' इस ववनकी प्रमाणता दिग्वाना इसका फल है।
शंका-- जब कि 'ओघेण मिच्छाइट्टी' इत्यादि वचनके कर्ता आप्त सिद्ध हो जाते है तो फिर भूतबलि आदि आचार्यों का व्यापार कहां पर होता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, उनको आप्तके वचनोंका व्याख्याता स्वीकार किया है, इसलिये आप्तके वचनोंके व्याख्यान करने में उनका व्यापार होता है।
सूत्रमें दिये गये ' अणंता' इस पदके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कहा गया है। मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त है, इसप्रकार कथन करने पर संख्यात और असंख्यातकी निवृत्ति हो जाती है । वह अनन्त अनेक प्रकारका है, जो इसप्रकार है
नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त, इसप्रकार अनन्तके ग्यारह भेद हैं ॥८॥
उनसे कारणके बिना ही जीव, अजीव और मिश्र द्रव्यकी अनन्त ऐसी संशा करना नाम अनन्त है।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, १ सीवणिखइरसोगकट्ठादिसxx जहासरूपेण घडियडवणाxx चित्तारहितो वण्णविसेंसेहि णिकपणाणि
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१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, २. कम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा मेंडकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जे च अण्णे दुवणाए विदा अणंतमिदि तं सव्वं दृवणाणंतं णाम । जं तं दवाणंतं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमो गंथो सुदणाणं सिद्धतो पवयणमिदि एगहो । अत्रोपयोगिनः श्लोकाः--
पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहतेः । द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ॥ ९ ॥ आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयं विदुः । त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धत्वसंभवात् ॥ १० ॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् ।
यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥ ११ ॥ तत्थ आगमदो दव्वाणंतं अणंतपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो। अवगम्य विस्मृता
भेंडकर्म अथवा दन्तकर्ममें अथवा अक्ष (पासा) हो या कौड़ी हो, अथवा दूसरी कोई वस्तु हो उसमें, यह अनन्त है, इसप्रकारकी स्थापना करना यह सब स्थापनानन्त है।
द्रव्यानन्त आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। आगम, ग्रन्थ, श्रुतक्षान, सिद्धान्त और प्रवचन ये एकार्थवाची शब्द हैं । इस विषयमें उपयोगी श्लोक हैं
पूर्वापर विरुद्धादि दोषोंके समूहसे रहित और संपूर्ण पदार्थोंके द्योतक आप्तवचनको आगम कहते हैं ॥९॥
___ आप्तके वचनको आगम जानना चाहिये और जिसने जन्म, जरा आदि अठारह दोषोंका नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिये । इसप्रकार जो त्यक्तदोष होता है वह असत्यवचन नहीं बोलता है, क्योंकि, उसके असत्यवचन बोलनेका कोई कारण ही संभव नहीं है ॥ १०॥
रागसे, द्वेषसे अथवा मोहसे असत्य वचन बोला जाता है, परंतु जिसके ये रागादि दोष नहीं रहते हैं उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण भी नहीं पाया जाता है ॥ ११ ॥
अनन्तविषयक शास्त्रको जाननेवाले परंतु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीवको
.........
चित्तकम्माणि णाम । वत्थेमु पाणसालियकसदादीहिं जाणिदूण किरियाए णिप्पाइचाणि रुवाणि छिपएहि वा कदाणि पोत्तकम्माणि णाम । लेप्पयारेहि लेविऊण जाणि णिप्पाइदाणि रूवाणि ताणि लेप्पकम्माणि णाम | एत्थ रट्टएदि जाणि पत्रदेसु घडिदाणि रूवाणि ताणि लेणकम्माणि णाम । वडइपिंडेण पासादेसु घडिदरूवाणि गिहकम्माणि णाम । तेण चेव कुडेसु घडिदरूवाणि भित्तिकम्माण णाम । दंतिदंतादिसु घडिदरूवाणि दंतकम्माणि णाम । भिंडेहि घडिदरूवाणि भिंडकम्माणि णाम | धवला १२०९.
१ अनु. पत्र १६४. टीका.
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१, २, २. ]
दवमाणागमे मिच्छाइट्टि पमाणपरूवणं
[ १३
वगमानां अवगमिष्यतां वा किमिति द्रव्यागमव्यपदेशो न स्यादिति चेन्न, शक्तिरूपोपयोगस्य श्रुतावरणक्षयोपशमलक्षणस्य साम्प्रतं तत्रासच्वात् । आगमादण्णो णोआगमो । जं तं णोआगमद दव्वातं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्याणंतं भवि यदव्त्राणंतं तव्त्रदिरित्तदव्या चेदि । तत्थ जाणुगसरीरदव्वाणंतं अनंतपाहुडजाणुगसरीरं तिकालजादं । कथं अणतपाहुडादो आधार तणेण वदिरित्तस्स सरीरस्स अणंतववएसो ! ण, असिसदं धावदि परसुखदं धावदि इचेवमादिसु तदो वदिरित्तस्स वि आधारपुरुसस्स आधेयववदेसदसदो। भवदु वट्टमाणम्हि आधारस्स आधेयोवयारो णादीदाणागदकालेसु त्तिण एस दोसो, - भविस्सरज्जम्हि वि पुरिसे राया आगच्छदित्ति ववहारदंसणादो । पज्जयपज्जइणो
आगमद्रव्यानन्त कहते हैं ।
शंका -- जिनको पहले ज्ञान था किंतु पश्चात् विस्मृत हो गया है, अर्थात् छूट गया है अथवा जो भविष्यकाल में जानेंगे उन्हें भी द्रव्यागम यह संज्ञा क्यों न दी जाय ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम है लक्षण जिसका ऐसा शक्तिरूप उपयोग वर्तमानमें उन जीवोंके नहीं पाया जाता है, इसलिये उन्हें द्रव्यागम यह संज्ञा नहीं प्राप्त सकती है।
आगमसे अन्यको नोआगम कहते हैं । वह नोआगम द्रव्यानन्त तीन प्रकारका है, शायक शरीर नो आगमद्रव्यानन्त, भव्य नो आगमद्रव्यानन्त और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त । उनमें से, अनन्तविषयक शास्त्रको जाननेवालेके तीनों कालोंमें होनेवाले शरीरको ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यानन्त कहते हैं ।
शंका- अनन्तविषयक शास्त्र अर्थात् अनन्तविषयक शास्त्रका ज्ञाता आधेय है और उसका शरीर आधार है, अतएव अनन्तविषयक शास्त्र के ज्ञातासे आधारतया शरीर भिन्न है, इसलिये उस शरीरको अनन्त यह संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सौ तरवारें ( सौ तरवारवाले ) दौड़ती हैं, सौ फरसा ( सौ फरसावाले ) दौड़ते हैं इत्यादि प्रयोगों में तरवार और फरसासे भिन्न परंतु उनके आधारभूत पुरुषों में भी जिसप्रकार आधेयरूप तरवार और फरसा यह संज्ञा देखी जाती है, सीप्रकार प्रकृतमें भी आधारभूत शरीर में आधेयका व्यवहार जान लेना चाहिये ।
- शंका - वर्तमान कालमें आधारभूत शरीरमें आधेयका उपचार भले ही हो जाओ, परंतु अतीत और अनागतकालीन शरीरोंमें यह व्यवहार नहीं हो सकता है ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिसकी राजारूप पर्याय नष्ट हो गई है, अथवा जिसे भविष्य में राजारूप पर्याय प्राप्त होगी, ऐसे पुरुषमें भी जिसप्रकार 'राजा आता है' यह व्यवहार देखा जाता है, उसीप्रकार प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये ।
शंका - पर्याय और पर्यायीमें भेद न होने के कारण वहां पर आधार-आधेयभाव नहीं
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१४ ] छक्वंडागमे जीवट्ठाण
[ १, २, २. भेदाभावादो ण तत्थ आधाराधेयभावो । अह जइ एत्थ वि आधाराधे यभावो होज्ज, जाणुगसरीरभवियाणं पुणरुत्तदा ढुकेज्जेत्ति । जदि एवं, तो एदं परिहरिय धणुसदे भुंजदीदि एदं गहेयव्यं । न धनुर्धतायामेवायं व्यवहारः, धनुष्यपसार्य भुंजानेष्वपि धनुःशतं भुंक्त इति व्यवहारदर्शनात् । न घृतकुम्भदृष्टान्तो घटते, घटस्य घृतव्यपदेशानुपलम्भतो दृष्टान्तदाष्ट्रान्तिकयोः साधाभावात् । जंतं भवियाणंतं तं अणत
पाया जाता है। फिर भी यदि यहां भी आधार-आधेयभाव माना जाये तो शायकशगर और भावी इन दोनोंके कथनमें पुनरुक्तता प्राप्त हो जायगी ?
समाधान--- यदि ऐसा है तो इस दृष्टान्तको छोड़कर ‘सौ धनुष (सौ धनुषवाले) भोजन करते हैं। प्रकृतमें इस दृष्टान्तको लेना चाहिये। धनुपोंके धारण करनेरुप अवस्था ही सौ धनुष भोजन करते हैं यह व्यवहार नहीं होता है किंतु धनुषोंको दुर करके भोजन करनेवालोंमें भी 'सौ धनुष भोजन करते हैं' इसप्रकार व्यवहार देखा जाता है। किन्तु यहां पर घृतकुम्भका दृष्टान्त लागू नहीं होता है, क्योंकि, घटके घृत इसप्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाने के कारण दृष्टान्त और दार्टान्तमें साधर्म्य नहीं है।
विशेपार्थ-नोआगमद्रव्यनिक्षेपके तीन भेद किये हैं, शायकशरीर, भावी और तद्वयतिरिक्त । इनमेंसे ज्ञायकशरीरमें ज्ञाताका त्रिकालभावी शरीर लिया जाता है और भावी में जो वर्तमानमें ज्ञाता नहीं है किंतु आगे होगा उसका ग्रहण किया जाता है। अब यदि जो पर्याय पहले हो चुकी है या आगे होगी उसे ही शायकशरीरका अतीत और भावी मान लें तो शायकशरीरभावी नोआगमद्रव्यमें और भावी नोआगमद्रव्यमें कोई अन्तर नहीं रह जायगा । इसलिये ज्ञायकशरिमें संबन्धप्राप्त भिन्न आधारमें आधेयका उपचार किया जाता है और भावीमें वही वस्तु आगे होनेवाली पर्यायरूपसे कही जाती है ऐसा समझना चाहिये । यद्यपि ऊपर आधारमें आधेयका उपचार दिखानेके लिये ' असिसदं चावदि ' इत्यादि दृष्टान्त दे आये हैं जिससे यह समझ में आ जाता है कि जिसप्रकार तरवारधारी सौ पुरुपोंके दौड़नेपर सौ तरवारें दौड़ती है इत्यादि रूपसे व्यवहार होता है उसीप्रकार अनन्त आदि विषयक शास्त्रके ज्ञाताके शरीरको भी नोआगमद्रव्यानन्त आदि कह सकते हैं। परंतु जो शरीर अभी प्राप्त नहीं हुआ है या प्राप्त होगा उसे कैसे नोआगमद्रव्यानन्त आदि कह सकते हैं, क्योंकि, उपचार संबद्ध पदार्थमें होता है। इसका समाधान यह है कि जिसप्रकार धनुषोंको दूर रखकर भोजन करने पर भी 'धणुसदं भुंजदि' यह व्यवहार बन जाता है, उसीप्रकार अतीत और अनागत शरीरकी अपेक्षा भी उपचारसे आधार-आधेयभाव मान कर नोआगमद्रव्यानन्त आदि संज्ञा बन जाती है। प्रकृतमें घृतकुम्भका दृष्टान्त इसलिये लागू नहीं होता है कि घर में घी इसमकारका व्यवहार नहीं होनेसे वहां आधार-आधेयभापकी संभावना ही नहीं है।
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१, २, २.] दयपमाणाणुगमे मिच्छाइहिपमाणपरूवणं
[१५ प्पाइडजाणुगभावी जीवो। जंतं तच्चदिरित्तदव्याणंतं तं दुविहं, कम्माणत णोकम्मागंतमिदि । जं तं कम्माणंतं तं कम्मस्स पदेसा। जं तं णोकम्माणंतं तं कडय-रुजगदीवसमुद्दादि एयपदेसादि पोग्गलदव्यं वा । आगममधिगम्य विस्मृतः कान्तर्भवतीति चेत्तद्वतिरिक्तद्रव्यानन्ते । जं तं सस्सदाणंतं तं धम्मादिदव्यगयं । कुदो ? सासयत्तेण दव्याणं विणासाभावादो। जं तं गणणाणंतं तं वहुवण्णणीयं सुगमं च । जं तं अपदेसियाणते तं परमाणू । नोकर्मद्रव्यानन्ते द्रव्यत्वं प्रत्यविशिष्टयोः शाश्वताप्रदेशानन्तयोरन्तर्भावः किमिति न स्यादिति चेत् ? उच्यते-न तावच्छाश्वतानन्तं नोकर्मद्रव्यानन्तेऽन्तभवति, तयोभदात् । अन्तो विनाशः, न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तम् । द्रव्यं शाश्वतमनन्तं शाश्वतानन्तम् । नोकर्म च द्रव्यगतानन्त्यापेक्षया कटकादीनां वास्तवान्ताभावापेक्षया च अनन्तम् , ततो नानयोरेकत्वमिति । एकप्रदेशे परमाणौ तद्वयतिरिक्तापरो द्वितीयः
जो जीव भविष्यकालमै अनन्तविषयक शास्त्रको जानेगा उसे भावी-नोआगमध्यानन्त कहते हैं। सद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यान्त दो प्रकारका है, कर्मतव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त और नोकर्मतद्वयातिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रदेशांको कर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त कहते हैं। कटक, रुचकवरद्वीप और समुद्रादि अथवा एक प्रदेशादि पुद्गलद्रव्य ये सब नोकर्मतद्वयतिरिक्त-नोआगमद्रव्यानन्त हैं।
शंका--जो आगमका अध्ययन करके भूल गया है उसका द्रव्यनिक्षेपके किस भेदमें अन्तर्भाव होता है ?
समाधान-ऐसे जीवका तव्यतिरिक्त नोकर्मद्रव्यानन्तमें अन्तर्भाव होता है।
शाश्वतानन्त धर्मादि द्रव्योंमें रहता है, क्योंकि, धर्मादि द्रव्य शाश्वतिक होनसे उनका कभी भी विनाश नहीं होता है।
जो गणनानन्त है वह बहुवर्णनीय और सुगम है। एक परमाणुको अप्रदेशिकानात कहते हैं।
शंका--द्रव्यत्वके प्रति अविशिष्ट ऐसे शाश्वतानन्त और अप्रदेशानन्तका नोकर्मद्रव्यानन्तमें अन्तर्भाव क्यों नहीं हो जाता है ?
समाधान-शाश्वतानन्तका नोकर्मद्रव्यानन्तमें तो अन्तर्भाव होता नहीं है, क्योंकि, इन दोनों में परस्पर भेद है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं। अन्त विनाशको कहते हैं, जिसका अन्त अर्थात् विनाश नहीं होता है उसे अनन्त कहते हैं। जो धर्मादिक द्रव्य
अनन्त है उसे शाश्वतानन्त कहते हैं। और नोकर्म द्रव्यगत अनन्तताकी अपेक्षा और कटकादिके वस्तुतः अन्तके अभावकी अपेक्षा अनन्त है, इसलिये इन दोनों में एकत्व नहीं हो सकता है । एकप्रदेशी परमाणुमें उस एक प्रदेशको छोड़कर अन्त इस संशाको प्राप्त होनेवाला दूसरा प्रदेश नहीं पाया जाता है, इसलिये परमाणु अप्रदेशानन्त है। ऐसी स्थितिमें
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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १,२, २ .
प्रदेशेोऽन्तव्यपदेशभाक् नास्तीति परमाणुरप्रदेशानन्तः । तथा च कथमयं नोकर्मद्रव्यानन्ते द्रव्यगतानन्तसंख्यापेक्षया अनन्तव्यपदेशभाज्यन्तर्भवेत् । द्रव्यं प्रत्येकत्वं तत्रास्ति इति चेत् ? अस्तु तथैकत्वं न पुनरन्येनान्येन प्रकारेणायातानन्त्यं प्रति । जं तं एयातं तं लोगमज्झादो एगसेटिं पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणंतं । ण दव्वाणंते दव्यभेदमस्ति - ऊदे दमणतं पददि, एगदव्यस्सागासस्स पज्जवसाणदंसणाभावमस्सिदूण द्विदत्तादों । जहा अपारो सागरो, अथाहं जलमिदि । जं तं उभयाणतं तं तथा चैव उभयदिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयादेसाणंतं । जं तं वित्थाराणंतं तं पदरागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि । जं तं सव्वाणंतं तं घणागारेण आगासं पेक्खमाणे अंताभावादो सव्वाणंतं भवदि । जं तं भावाणंतं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमदो भावानंतं अनंतपाहुडजाणगो उवजुत्तो । जं तं णोआगमदो भावानंतं तं तिकालजादं अनंतपज्जय परिणदजीवादिदव्वं ।
I
दे अते के अनंतेण पयदं ? गणणाणतेण पयदं । तं कथं जाणिजदि ? द्रव्यगत अनन्त संख्याकी अपेक्षा अनन्त संशाको प्राप्त होनेवाले नोकर्मद्रव्यानन्तमें वह अप्रेदशानन्त कैसे अन्तर्भूत हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता है, इसलिये अप्रदेशानन्त भी स्वतन्त्र है ।
शंका- द्रव्य के प्रति एकत्व तो उनमें पाया ही जाता है ?
समाधान -- इन अनन्तोंमें यदि द्रव्यके प्रति एकत्व पाया जाता है तो रहा आवे, परंतु इतने मात्र से इन अनन्तोंमें अन्य अन्य प्रकारसे आये हुए आनन्त्य के प्रति एकत्व नहीं हो सकता है ।
लोकके मध्य से आकाश-प्रदेशों की एक श्रेणीको देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे एकानन्त कहते हैं । द्रव्यभेदका आश्रय लेकर स्थित द्रव्यानन्तमें यह एकानन्त अन्तर्भूत नहीं होता है, क्योंकि, यह एकानन्त एक आकाशद्रव्यका अन्त नहीं दिखाई देनेके कारण उसका आश्रय लेकर स्थित है, जैसे अपार समुद्र, अथाह जल इत्यादि । लोकके मध्यसे आकाश प्रदेशपंक्तिको दो दिशाओं में देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे उभयानन्त कहते हैं । आकाशको प्रतररूपसे देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे विस्तारानन्त कहते हैं । आकाशको घनरूपसे देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे सर्वानन्त कहते हैं । आगम और नोआगमकी अपेक्षा भावानन्त दो प्रकारका है। अनन्तविषयक शास्त्रको जाननेवाले और वर्तमान में उसके उपयोगले उपयुक्त जीवको आगमभावानन्त कहते हैं । त्रिकालजात अनन्त पर्यायोंसे परिणत जीवादि द्रव्य नोआगमभावानन्त है ।
शंका- - इन ग्यारह प्रकारके अमन्तोंमेंसे प्रकृत में किस अनन्त से प्रयोजन है ? समाधान - प्रकृतमें गणनानन्त से प्रयोजन है ।
१६]
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१, २, २. ] दव्यपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं
[१७ 'मिच्छादिट्ठी केवडिया' इदि सिस्सेण पुच्छिदे 'अणंता' इदि पमाणपरूवणादो जाणिअदि। ण च सेस-अणताणि पमाणपरूवयाणि तत्थ तधादसणादो । जदि गणणाणतेण पगदं सेस-दसविध-अणंतपरूवणं किमद्वं कीरदे ? वुच्चदे
अवगयणिवारणटुं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च ।
संसयविणासणटुं तच्चत्थवधारणद्वं च ॥ १२ ॥ उत्तं च पुयाइरिएहि
जत्थ बहू जाणेज्जो अपरिमिदं तत्थ णिक्खिवे सूरी ।
जत्थ बहू अ ण जाणइ च उत्यवो तत्थ णिक्खेवो ॥ १३ ॥ अधवा णिक्खेवविसिट्टमेदं वणिज्जमाणं वत्तारस्सुप्पथोत्थाणं कुज्जा इदि णिक्खेवो कीरदे । तथा चोक्तम्
प्रमाण-नयनिक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद् भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ १४ ॥
शंका-- यह कैसे जाना जाता है कि प्रकृतमें गणनानन्तसे प्रयोजन है ?
समाधान-'मिथ्यादृष्टि जीव कितने हैं' इसप्रकार शिष्यके द्वारा पूछने पर 'अनन्त हैं ' इत्यादि रूपसे प्रमाणका प्ररूपण करनेसे जाना जाता है कि प्रकृतमें गणनानन्तसे प्रयोजन है। इस गणनानन्तको छोड़कर शेष अनन्त प्रमाणके प्ररूपण करनेवाले नहीं हैं, क्योंकि, शेष अनन्तोंमें गणनारूपसे कथन नहीं देखा जाता है।
शंका- यदि प्रकृतमें गणनानन्तसे प्रयोजन है तो गणनानन्तको छोड़कर शेष दश प्रकारके अनन्तोंका प्ररूपण यहां पर किसलिये किया है ?
समाधान-अप्रकृत विषयके निवारण करनेके लिये, प्रकृत विषयके प्ररूपण करनेके लिये, संशयका विनाश करनेके लिये, और तत्त्वार्थका निश्चय करने के लिये यहां पर सभी अनन्तोंका कथन किया है ॥ १२॥
पूर्वाचार्योंने भी कहा है
जहां जीवादि पदार्थों के विषयमें बहुत जानना चाहे, वहां पर आचार्य सभीका निक्षेप करेन तथा जहां पर बहुत न जाने, तो वहां पर चार निक्षेप अवश्य करना चाहिये ॥१३॥
अथवा निक्षेपके विना वर्णन किया गया यह विषय कदाचित् वक्ताको उन्मार्गमें ले जावे, इसलिये यहां पर सभी अनन्तोंका निक्षेप किया है। कहा भी है
प्रमाण, नय और निक्षेपोंके द्वारा जिस पदार्थकी समीक्षा नहीं की जाती है उसका अर्थ युक्त होते हुए भी अयुक्तसा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्तसा
१ सं. प. गा. १५,
२ सं. प. गा. १४ ( देखो पाठ भेद)
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१८]
छखंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २. ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते ।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ १५ ॥ जं तं गणणाणंतं तं पि तिविहं, परित्ताणतं जुत्ताणतं अगंताणतमिदि । अणंता इदि सामण्णेण वुत्ते एदम्हि चेवाणंते मिच्छाइटि-जीवा होंति इदरेसु अणंतेसु ण होति त्ति ण जाणिज्जदे, अणंता इदि बहुवयणणिदेसादो । जत्थ तिण्णि वि अणंताणि अस्थि तस्स चेव अगंताणतस्स गहणं होदि इदि चे ण, मिच्छाइट्ठीणं बहुत्तमवेक्खिय बहुवयणुप्पत्तीदो । अहवा तिणि वि अणंताणि सभेदे अस्सिऊण अगंतवियप्पाणि । तत्थ एदस्स बहुत्तविवक्खाए बहुवयणं अण्णभेदस्सणेदि ण जाणिज्जदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- 'अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण' त्ति ज्ञापकादवसीयते यथा अनन्तानन्ता मिथ्यादृष्टय इति, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति
प्रतीत होता है॥१४॥
विद्वान् पुरुष सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, नामादिकके द्वारा वस्तुमें भेद करनेके उपायको न्यास या निक्षेप कहते हैं और ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं । इसप्रकार युक्तिसे अर्थात् प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा पदार्थका ग्रहण अथवा निर्णय करना चाहिये ॥ १५ ॥
गणनानन्त तीन प्रकारका है, परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त ।
शंका-सूत्रमें 'अणंता' इसप्रकार मिथ्यादृष्टियोंका परिमाण सामान्यरूपसे कहा गया है, पर इतने कथन करनेमात्रसे अनन्तके तीन भेदोंमेंसे इसी अनन्तमें मिथ्यादृष्टि जीव अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण पाया जाता है दूसरे अनन्तोंमें नहीं, यह बात नहीं जानी जाती है, क्योंकि, सूत्रमें अनन्तके किसी भी भेदका उल्लेख न करके केवल उसका बहुवचनरूपसे निर्देश किया है। जहां पर तीनों अनन्त पाये जाते हैं वहां उसी अनन्तानन्तका ग्रहण होता है, सो भी नहीं है, क्योंकि, मिथ्याहाट जीवोंके बहुत्वकी अपेक्षा करके अनन्त शब्दका बहुवचन प्रयोग बन सकता है। अथवा तीनों अनन्त अपने अपने भेदोंका आश्रय करके अनन्त विकल्परूप हैं। उनके इसी भेदकी विवक्षासे बहुवचन दिया है अन्य भेदकी अपेक्षासे नहीं, यह भी नहीं जाना जाता है ?
समाधान- आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं-'मिथ्यादृष्टि जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होते हैं' इस शापक सूत्रसे जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त होते हैं। अथवा, व्याख्यानसे
___ प्रतिषु ' प्रमाण नयं युक्तवत् । ज्ञानं प्रमाणं परिग्रहः । इति एतेनैव पाठेनोक्तकारिकाद्वयस्य सूचना प्राप्यते । दे. (सं. प. गा. १०-११)
२ प्रतिषु · उप्पण्णभेदस्स ' इति पाठः ।
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१, २,२
]
दव्वरमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं
[१९
न्यायाद्वा ।
जंतं अणंताणंतं तं पि तिविहं, जहण्णमुक्कस्सं मज्झिममिदि। तत्थ इमं होदि त्ति ण जाणिज्जदि जहण्णमणंताणंतं ण भवदि उक्कस्समणंताणंतं च भवदि ? 'जम्हि जम्हि अणंताणतयं मग्गिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्णमणुक्कस्स-अणंताणंतस्सेव गहणं' इदि परियम्मवयणादो जाणिज्जदि अजहण्णमणुक्कस्स-अणंताणंतस्सेव गहणं होदि त्ति । तं पि अणंताणंतवियप्पमत्थि त्ति इमं होदि त्ति ण जाणिज्जदि ? जहण्णअणताणंतादो अणंताणि वग्गणट्ठाणाणि उवरि अब्भुस्सरिऊण उक्कस्स-अणंताणंतादो अणंताणि वग्गणटाणाणि हेट्टा ओसरिऊण अंतरे जिणदिट्ठभावो रासी घेत्तव्यो । अहवा तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासीदो अणंतगुणो छद्दव्वपक्खित्तरासीदो अणंतगुणहीणो मिच्छाइहिरासी होदि । को तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासी ? उच्चदे- जहण्णमणंताणंतं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स
विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ' ऐसा पाय है जिससे भी जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त होते हैं।
ऊपर जो अनन्तानन्त कद्द आये हैं वह भी तीन प्रकारका है, जघन्य अनन्तानन्त, उत्कृष्ट अनन्तानन्त और मध्यम अनन्तानन्त ।
शंका-उन तीनों अनन्तानन्तोंमेंसे यहां पर जघन्य अनन्तानन्त नहीं होता है और उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है, ऐसा कुछ भी नहीं जाना जाता है ?
समाधान--'जहां जहां अनन्तानन्त देखा जाता है वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तका ही ग्रहण होता है' इस परिकर्मके वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तका ही ग्रहण है।
शंका-वह मध्यम अनन्तानन्त भी अनन्तानन्त विकल्परूप है, इसलिये उनमेंसे यहां कौनसा विकल्प लिया है, इस बातका केवल मध्यम अनन्तानन्तके कथन करनेसे ज्ञान नहीं होता है ?
समाधान--जघन्य अनन्तानन्तसे अनन्त वर्गस्थान ऊपर जाकर और उत्कृष्ट अनन्तानन्तसे अनन्त वर्गस्थान नीचे आकर मध्यमें जिनेन्द्रदेवके द्वारा यथादृष्ट राशि यहां पर अनन्तानन्त पदसे ग्रहण करनी चाहिये । अथवा, जघन्य अनन्तानन्तके तीनवार वर्गित. संवर्मित करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उससे अनन्तगुणी और छह द्रव्योंके प्रक्षिप्त करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उससे अनन्तगुणी हीन मध्यम अनन्तानन्तप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवोंकी राशि है।
शंका-तीन चार वर्गितसंवर्गित राशि कौनसी है ?
१ति.प. पत्र ५३. यत्रानन्तानन्तं मार्गणं तत्राजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तं ग्रामम् । त. रा. वा. ३. ३८,
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२० ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, २.
जहण्णमर्णताणतं दाऊण वग्गिद संवग्गिदं काऊणुप्पण्ण महारासिं दुप्पाडेरासिं काऊण तत्थेक्करासिं विरलेऊण अवरं महारासिपमाणं रूवं पडि दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं काऊण पुणो उदिमहारासिंदुपडिरासिं काऊण तत्थेक्करासिपमाणं विरलेऊग अवरमहारासिं विरलणरासिरूवं पडि दाऊण अण्णोष्ण भासे कदे तिष्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासी' णाम ।
समाधान - जघन्य अनन्तानन्तका विरलन करके और विरलित राशिके प्रत्येक एक के ऊपर जघन्य अनन्तानन्तको देयरूपसे देकर उनके परस्पर वर्गितसंवर्गित करने पर जो मद्दाराशि उत्पन्न हो उसकी दो पंक्ति करनी चाहिये, अर्थात् तत्प्रमाण राशिको दो स्थानोंपर स्थापित करना चाहिये। उनमें से एक राशिका विरलन करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एकके ऊपर दूसरी पंक्ति में स्थापित महाराशिको देयरूपसे देकर और उनके परस्पर वर्गित संवर्गित करने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसकी फिरसे दो पंक्ति करनी चाहिये । उनमेंसे एक राशिका विरलन करके और विरलित राशि के प्रत्येक एकके ऊपर दूसरी पंक्ति में स्थापित महाराशिको देयरूपसे देकर उनके परस्पर गुणा करने पर जो महाराशि उत्पन्न होती है उसे तीनवार वर्गितसंवर्गित राशि कहते हैं ।
उदाहरण (बीजगणितसे )
जघन्य अनन्तानन्त=क
त्रि. सा. ४८.
क
एकवार वर्गितसंवर्गित राशि = क
दोवार
तीनवार
= क
क
99
33
"
क + १
क +१+क
( अंकगणितसे ) --
33
क
(G)
= क
क
क
क + १
क
= क
क
क x क
जघन्य अनन्तानन्त = २
ર
કૈ
२५६
एकवार २ = ४; दोवार ४ = २५६६ तीनवार २५६
=
क
क
क + १
क + १
( ~*~ ) ( * + ***')
क १ क x क
क
-
= क
क
१ अवराणंताणंतं तिप्पडिरासिं करितु विरलादि । तिसलागं च समार्णिय लद्वेदे पविखवेदव्वा ॥
क.+१
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१.२, २.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं
[२१ एसो सव्यजीवरासीदो किंचूणमिच्छादिद्विरासीदो य अणंतगुणहीणो त्ति कधं जाणिजदि? बुच्चदे- जहण्णपरित्ताणंतस्स अद्धच्छेदणाणमुवरि तस्सेव वग्गसलागाओ रूवाहियाओ पक्खित्त जहण्ण-अणंताणंतस्स वग्गसलागा भवंति । जहण्णपरित्ताणतस्स अद्धच्छेदणाहि दुगुणिदाहि जहण्णपरित्ताणते गुणिदे जहण्णमणंताणंतस्स अद्धछेदणयसलागा हवंति । एदाओ च जहण्णपरित्ताणंतादो असंखेज्जगुणाओ तस्सेव उवरिमवग्गादो असंखेज्जगुणहीणाओ । एदाणमुवरि जहण्ण-अणंताणंतस्स वग्गसलागाओ जहण्णपरित्ताणंतस्स अद्धच्छेदणाहिंतो विसेसाहियाओ पक्खित्ते पढमवारवग्गिदसंवग्गिदरासिस्स वग्गसलागा भवंति । जहण्ण-अणंताणंतस्स अद्धछेदणाओ जहण्ण-अणंताणतेण गुणिदे पढमवारवग्गिदसंबग्गिदरासिस्स अद्धच्छेदणयसलागा भवंति । एदाओ जहण्ण-अणंताणंतादो
(यदि हम २५६ को २५६ से इतने ही वार गुणा करें तो जो संख्या उत्पन्न होगी वह ६१७ अंकवाली होगी। इसप्रकार इकाईरुप छोटीसी २ संख्याको तीनवार वर्गितसंवर्गित करने पर ६१७ अंकवाली महासंख्या उत्पन्न होती है । इस परसे किसी भी मूलराशिसे उत्पन्न हुई त्रिवार वर्गितसंवर्गित राशिके विस्तारका अनुमान लगाया जा सकता है।)
शंका- तीनवार वर्गितसंवर्गित करनेसे उत्पन्न हुई यह महाराशि संपूर्ण जीवराशिसे और संपूर्णजीवराशिसे कुछ कम (द्वितीयादि शेष तेरह गुणस्थानसंबन्धी राशि और सिद्धराशि प्रमाण कम) मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे अनन्तगुणी हीन है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदोंमें उसीकी अर्थात् जघन्य परीतानन्तकी एक अधिक वर्गशलाकाएं मिला देने पर जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। तथा जघन्य परीतानन्तके द्विगुणित अर्धच्छेदोंसे जघन्य परीतानन्तके गुणित करने पर जघन्य अनन्तानातकी अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। ये जघन्य अनन्तानन्तकी अर्धच्छेदशलाकाएं जघन्य परीतानन्तसे असंख्यातगुणी हैं और उसीके अर्थात् जघन्य परीतानन्तके उपरिम वर्गसे असंख्यातगुणी हीन हैं। इन जघन्य अनन्तानन्तकी अर्धच्छेद शलाकाओंमें, जो जघन्य परीतानन्तकी अर्धच्छेदशलाकाओंसे अधिक हैं,ऐसी जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं मिला देने पर प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाएं होती हैं। जघन्य अनन्तानन्तके अर्धच्छेदोंको जघन्य अनन्तानन्तसे गुणित करने पर प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं
तब्बग्गे पुण जाय ताणतं लहु तं च तिख्खुत्तो । वग्गसु तह न तं होइ णतखेवे खिवसु छ इमे ॥ क. ग्रं. ५, ८४.
१ वग्गिदवारा वग्गसलागा रासिस्स अद्धछेदस्स । अद्धिदवारा वा खलु दलवारा होंति अद्धछिदी ॥ त्रि. सा. ७६.
२ विरलिज्जमाणरासिं दिण्णस्सद्धन्छिदीहिं संगुणिदे । अद्धच्छेदा होंति हु सव्वत्थुप्पण्णरासिस्स ॥ वि. सा. १०७.
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२२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, २.
अनंतगुणाओ तस्सेव उवरिमवग्गादो अनंतगुणहीणाओ । एदाणमुवरि पढमवारवग्गिदसंवग्गिद सिस्स वग्गसलागाओ पक्खित्ते विदियवारवग्गिद संवग्गिद सिस्स वग्गसलागा हवंति' । पढमवारवग्गिद संवग्गिदरासिस्स अद्धच्छेदणाहि पढमवारवग्गिदसंवग्गिदरासि गुणदे विदियवारवग्गिद संवग्गिदासिस्स अद्धछेदणय सलागाओ भवंति । एदाओ पढमवारवग्गिद संवग्गिदरासीदो अनंतगुणाओ तस्सेव उवरिमवग्गणादो अर्णतगुणहीणाओ । दाणमुवरि विदियवारवग्गिदसंवग्गिदरासिस्स वग्गसलागाओ पक्खिते तदियवारवग्गि
होती हैं । ये प्रथमवार वर्गित संवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं जघन्य अनन्तानन्त से अनन्तगुणी हैं और उसीके अर्थात् जघन्य अनन्तानन्तके उपरिम वर्गसे अनन्तगुणी हीन हैं । इन प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाओं में प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं मिला देने पर दूसरीवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं होती हैं । तथा प्रथमवार वर्गित संवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाओंके द्वारा प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिको गुणित करने पर दूसरीवार वर्गित संवर्गित राशि की अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। ये दूसरीवार वर्गित संवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिसे अनन्तगुणी हैं, और उसीके, अर्थात् प्रथमवार वर्गित संवर्गित राशिके उपरिम वर्गले अनन्तगुणी हीन हैं । इन दूसरीवार वर्गित संवर्गित राशिकी अर्धच्छेदशलाकाओं में दूसरीवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं मिला देने पर तीसरीवार वर्गित संवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं होती हैं 1
1
विशेषार्थ - जो राशि विरलन-देयक्रम से उत्पन्न होती है उसके अर्धच्छेद् विरलितराशिको राशिके अर्धच्छेदोंसे गुणा करने पर आते हैं । तथा उसकी वर्गशलाकाएं विरलितराशिके अर्धच्छेदों में देयराशिके अर्धच्छेदों के अर्धच्छेद या वर्गशलाकाएं मिला देने पर होती हैं । गणितके इस नियम के अनुसार जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदोंसे जघन्य परीतानन्तको गुणा कर देने पर जघन्य युक्तानन्तके अर्धच्छेद और जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदों में उसीकी वर्गशलाकाएं मिला देने पर जघन्य युक्तानन्तकी वर्गशालकाएं उत्पन्न होंगी। फिर भी प्रकृतमें जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेद लाना है । परंतु जघन्य अनन्तानन्त जघन्य युक्तानन्तके उपरम वर्गरूप है, और वर्गसे उपरिम वर्गकी वर्गशलाकाओं और अर्धच्छेदों को लाने के लिये यह नियम है कि विवक्षित वर्गके अर्धच्छेदों से उपरिम वर्ग के अर्धच्छेद दूने और विवक्षित वर्गकी वर्गशलाकाओं से उपरिम वर्गकी वर्गशलाकाएं एक अधिक होती हैं । इसलिये जघन्य युक्तानन्तके अर्धच्छेदोंको दूना कर देने पर जघन्य अनन्तानन्तके अर्धच्छेद और जघन्य युक्तानन्तकी धर्मशलाकाओंमें एक और मिला देने पर जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं
१ विरलिबरासिच्छेदा दिण्णद्धच्छेदच्छेदसम्मिलिदा । वग्गसलागपमाणं होंति समुप्पण्णरासिस्स ॥ ति. सा. १०८.
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१, २, २. ]
[ २३
होंगी। इस संपूर्ण व्यवस्थाको ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदों में उसीकी एक अधिक वर्गशलाकाएं मिला देने पर जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाएं और जघन्य परीतानन्तकी द्विगुणित अर्धच्छेदशलाकाओं से जघन्य परीतानन्तको गुणित कर देने पर जघन्य अनन्तानन्तकी अर्धच्छेदशलाकाएं होती है । इसीप्रकार वर्गित संवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेद लाने की पद्धतिके अनुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीयवार वर्गित संवर्गित राशि के अर्धच्छेद और वर्गशलाकाओंके संबन्ध में भी समझ लेना चाहिये । उदाहरण ( बीजगणित से ) -
दवमाणागमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं
जघन्य परीतानन्तको वर्गितसंवर्गित करनेसे जघन्य युक्तानन्त उत्पन्न होता है । तथा जघन्य युक्तानन्तके वर्गप्रमाण जघन्य अनन्तानन्त है ।
२
मान लो जघन्य परीतानन्तका मान २
परीतानन्त की वर्गितसंवर्गित राशि के उपरिम वर्ग प्रमाण जघन्य अनन्तानन्त
द्वितीयवार वर्गित संवर्गित
अनन्तानन्त प्रथमवार वर्गितसंवर्गित
ख
२ + ख
२
= २
अ
ग
२ + ग
२
= २
= २
२
अ
२ + अ + १
२
= २
क
२ + क
ख २
= २ ( मान लो )
ग २
= २ ( मान लो )
तृतीयवार वर्गित संवर्गित
२ संख्यासे लेकर जितनीवार वर्ग करनेसे विवक्षित राशि उत्पन्न होती है उतनी उस वर्ग शिकी वर्गशलाकाएं होती है । जैसे ४ की वर्गशलाका १ और १६ की २ होती हैं, क्योंकि, २ का एकवार वर्ग करनेसे ४ और २ वार वर्ग करनेसे १६ उत्पन्न होते हैं। तथा विवक्षित राशिको जितनीवार आधा आधा करते हुए एक शेष रहे उतने उस राशिके
क २
= २ ( मान लो )
२
अर्धच्छेद होते हैं; जैसे १६ के अर्धच्छेद ४ होते हैं । बीजगणित से २ राशिके
अ
अर्धच्छेद २ होंगे और वर्गशलाका अ होगी ।
अ
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२४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, २. दसंवग्गिदरासिस्स वग्गसलागा भवंति । एसो वग्गसलागरासी पढमवारवग्गिदसंवग्गिदरासीदो उवरि एगमवि वग्गट्ठाणं ण च वड्डिदो, तेणेदेसिं दोण्हं रासीणं वग्गसलागाओ सरिसाओ। एदाणं च वग्गसलागाओ जहण्णपरित्ताणंतादो असंखेजगुणाओ। जदि एसो रासी सव्वजीववग्गसलागरासिणा सरिसो हवदि तो तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासिणा सव्वजीवरासी वि सरिसो होज्ज; ण च एवं । तं कधं ? ' जहण्ण-अणंताणंतं वग्गिजमाणे जहण्ण-अणंताणंतस्स हेहिमवग्गणहाणेहिंतो उवरि अणंतगुणवग्गट्ठाणाणि गंतूण सव्वजीवरासिवग्गसलागा उप्पजदि' त्ति परियम्मे वुत्तं । गुणगारो पि जम्हि जम्हि अणतयं मग्गिजदि तम्हि तम्हि अजहण्ण-अणुक्कस्साणताणतयं घेत्तव्यं । ण च तदियवारवग्गिद
अब आगे इन सब राशियोंकी वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेद लिखे जाते हैं-- ज. प. अ. ज. अ. अ. प्र. व. सं. द्वि. व. सं. तृ. व. सं. अ क ख
ग २+ अ + १ २ + क २ + ख २ + ग
क.
२
२२ + अ + १
प्रमाण
वर्ग श.
२ + अ +
१ २ + क २+ख २ + ग अ २+ अ +१ २ + क २ + ख व
२ + ग अर्धच्छेद
२ ___ यह तीसरीवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाराशि प्रथमवार बर्गितसंवर्गित राशिसे ऊपर एक भी वर्गस्थानसे वृद्धिको प्राप्त नहीं हुई है, अर्थात् प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिके उपरिम वर्गके भीतर ही तीसरीवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाराशि आती है, इसलिये इन दोनों राशियोंकी, अर्थात् प्रथमवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं और तृतीयवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाओंकी वर्गशलाकाएं समान हैं, जो वर्गशलाकाएं जघन्य परीतानन्तसे असंख्यातगुणी है। यदि यह तृतीयवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाराशि संपूर्ण जीवोंकी वर्गशलाकाराशिके समान होती है, ऐसा मान लिया जावे, तो तीनवार वर्गितसंवर्गितराशिके समान संपूर्ण जीवराशि भी हो जावे । परंतु ऐसा है नहीं ।
शंका-यह कैसे ?
समाधान -- जघन्य अनन्तानन्तके उत्तरोत्तर वर्ग करने पर जघन्य अनन्तानन्तके अधस्तन वर्गस्थानोंसे ऊपर अनन्तगुणे वर्गस्थान जाकर संपूर्ण जीवराशिकी वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं, ' इसप्रकार परिकर्ममें कहा है। गुणकार भी जहां जहां अनन्तरूप देखने में आता है वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट
प्रम अनन्तानन्तरूप गुणकारका ग्रहण करना
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१, २, २.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइहिपमाणपरूवणं
[ २५ संवग्गिदरासिवग्गसलागाओ हेट्टिमवग्गणट्ठाणेहिंतो उवरि परियम्म-उत्त-अणंतगुणवग्गणहाणाणि गंतूणुप्पण्णाओ, किंतु हेहिमवग्गट्टाणादो उवरि सादिरेयजहण्ण-परित्ताणंतगुणमद्धाणं गंतूणुप्पण्णाओ। केण कारणेण ? जहण्णपरित्ताणतस्स अद्धच्छेदणाहितो विसेसाहियाहि जहण्ण-अणंतागंतस्स वग्गसलागाहि तदियवारवग्गिदसंवग्गिदरासिवग्गसलागाणं वग्गसलागाओ हेट्ठिमअद्धाणेणूणाओ अवहिरिजमाणे सादिरेयजहण्णपरित्ताणंतमागच्छदि त्ति । ण च जहण्ण-अणंताणंतादो हेट्ठिम-अद्धाणं पडुच्च सादिरेयजहण्णपरिताणतगुणं गंतूण सव्वजीवरासिवग्गसलागाओ उप्पण्णाओ, किंतु अणंताणंतगुणं गंतूण सव्यजीवरासिवग्गमलागाओं। कुदो ? 'अणताणतविसए अजहण्णमणुक्कस्स-अणंताणतेणेव गुणगारेण भागहारेण वि होदव्वं ' इदि परियम्मवयणादो। ण च एदस्स जहण्णपरित्ताणतादो विसेसाहियस्स असंखेज्जत्तमसिद्धं, संते वए णटुंतस्स अणंतत्तविरोहादो। ण
चाहिये । परंतु तृतीयवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं जघन्य अनन्तानन्तके अधस्तन वर्गस्थानसे ऊपर परिकर्मसूत्रमें कहे गये अनन्तगुणे वर्गस्थान जाकर नहीं उत्पन्न होती हैं, किंतु जघन्य अनन्तानन्तके अधस्तन वर्गस्थानोंसे ऊपर कुछ अधिक जघन्यपरीतानन्तगुणे वर्गस्थान जाकर उत्पन्न होती हैं। इससे प्रतीत होता है कि संपूर्ण जीवराशिकी वर्गशलाका ओंसे तीनवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाएं अनन्तगुणी न्यून हैं।
शंका - ऐसा किस कारणसे है ?
समाधान-जो कि जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदोंसे अधिक हैं ऐसी जघन्य अनन्तानन्तकी वर्गशलाकाओंके द्वारा नघन्य अनन्तानन्तके अधस्तन वर्गस्थानसे न्यून तीसरीवार वर्गितसंवर्गित राशिकी वर्गशलाकाओंकी वर्गशलाकाएं अपहृत करने पर कुछ अधिक जघन्य परीतानन्त आता है। परंतु जघन्य अनन्तानन्तके अधस्तन वर्गस्थानोंकी अपेक्षा जघन्य अनन्तानन्तसे कुछ अधिक जघन्य परीतानन्तगुणे वर्गस्थान जाकर संपूर्ण जीवराशिकीवर्गशलाकाएं नहीं उत्पन्न होती हैं, किंतु जघन्य अनतानन्तसे अनन्तानन्तगुणे वर्गस्थान जाकर संपूर्ण जीवराशिकी वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। क्योंकि, 'अनन्तानन्तके विषयमें गुणकार और भागहार अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तरूप ही होना चाहिये' इसप्रकार परिकर्मसूत्रका वचन है। ऊपर जो जघन्य परीतानन्तसे विशेषाधिक कह आये है वह विशेषाधिक असंख्यातरूप है यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि, व्यय होने पर समाप्त होनेवाली राशिको अनन्तरूप मानने में विरोध आता है। इसप्रकार कथन करनेसे अर्धपुद्गल
१ तस्मिन्नेकवारं वर्गिते द्विकवारानन्तस्य जघन्यमुत्पद्यते । ततोऽनन्तस्थानानि गत्वा वर्गशलाकाः। त्रि. सा, गा.६९ टीका । तस्मिन्नेकवारं वर्णिते जघन्यद्विकवारानंतमुत्पद्यते। ततः अनंतानंतवर्गस्थानानि गत्वा जीवराशेर्वर्गशलाका. राशिः । गो. जी. जी. प्र. टी. ( पर्याप्तिप्ररूपणा) ।
२ प्रतिषु 'णिटुंतस्स ' इति पाठः।
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२६] छखंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, २. च अद्धपोग्गलपरियट्टेण वियहिचारो, उवयारेण तस्स आणतियादो। को वा छद्दव्यपक्खित्तरासी ? वुच्चदे- तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासिम्हि -
सिद्धा णिगोदजीवा वण'फदी कालो य पोग्गला चेय ।
सव्वमलोगागासं छप्पेदे णतपक्खेवा ॥ १६ ॥ एदे छप्पक्खेवपक्खित्ते छदव्वपक्खित्तरासी होदि । एदस्स अजहण्णमणुक्कस्तअणंताणतयस्स जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तो मिच्छाइद्विरासी । एदं कधं णव्यदि ति भणिदे अणंता इदि वयणादो। एदं वयणमसच्चत्तणं किं ण अल्लियदि ति भणिदे असच्चकारणुम्मुकजिणवयणकमलविणिग्गयत्तादो । ण च पमाणपडिग्गहिओ पयत्थो पमाणंतरेण परिक्खिजदि, अवट्ठाणादो ।
परिवर्तनके साथ व्याभिचार हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि, अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालको उपचारसे अनन्तरूप माना है।
शंका-जिसमें छह द्रव्य प्रक्षिप्त किये गये हैं वह राशि कौनसी है ?
समाधान-तीनवार वर्गितसंवार्गत राशिमें- सिद्ध, निगोदजीव, वनस्पतिकायिक, पुद्गल, कालके समय और अलोकाकाश ये छहों अनन्त राशियां मिला देना चाहिये ॥१६॥
प्रक्षिप्त करने योग्य इन छह राशियोंके मिला देने पर छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि होती है। इसप्रकार तीनवार वर्गितसंवर्गित राशिसे अनन्तगुणे और छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशिसे अनन्तगुणे हीन इस मध्यम अनन्तानन्तकी जितनी संख्या होती है तन्मात्र मिथ्यादृष्टिजीवराशि है।
शंका-मिथ्यादृष्टिराशि इतनी है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-सूत्रमें 'अणंता' ऐसा बहुवचनान्त पद दिया है, जिससे जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टिराशि मध्यम अनन्तानन्तप्रमाण होती है।
शंका-- यह वचन असत्यपनेको क्यों नहीं प्राप्त हो जाता है ?
समाधान-असत्य बोलनेके कारणोंसे रहित जिनेन्द्रदेवके मुखकमलसे निकले हुए ये वचन हैं, इसलिये इन्हें अप्रमाण नहीं माना जा सकता। जो पदार्थ प्रमाणप्रसिद्ध है उसकी दूसरे प्रमाणों के द्वारा परीक्षा नहीं की जाती है, क्योंकि, वह पदार्थ प्रमाणसे अवस्थित है।
१ति. प. पत्र ५३. सिद्धा णि गोदसाहियवणप्फदिपोग्गलपमा अणंतगुणा । काल अलोगागासं छच्चेदेणंतक्लेवा ॥ त्रि. सा. ४९. सिद्धा निगोअजीवा वणस्सई काल पुग्गला चेव । सव्वमलोगनहं पुण तिवन्गिउं केवल. पगंमि ॥ क. ग्रं. ४, ८५.
२ प्रतिषु तत्तियाणिमेत्तो' इति पाठः ।
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१, २, ३. ]
दव्यमाणानुगमे मिच्छा इट्ठिपमाणपरूवणं
[ २७
अणताणताहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति का - लेण ॥ ३ ॥
किमहं खेत्तपमाणमइकम्म कालपमाणं वुच्चदे ? ' जं थूलं अप्पवण्णणीयं तं पुव्वमेव भाणियन्त्रं ' इदि णायादो । कथं कालपमाणादो खेत्तपमाणं बहुवण्णणिज्जं ? वुच्चदेखेत्तपमाणे लोगो परूवेदव्वो । सो वि सेढिपरूवणाए विणा ण जाणिज्जदि त्ति सेढी
वेदव्वा । सावि रज्जुपरूवणाए विणा ण जाणिज्जदि त्ति रज्जू परूवेदव्वा । रज्जू वि सगच्छेदणाहि विणा ण जाणिज्जदित्ति रज्जुच्छेदणा परूवेदव्वा । ताओ वि दीवसागरपरूवणा विणा ण जाणिज्जंति त्ति दीवसागरा परूवेदव्या त्ति । ण च कालपमाणे एवं महंती परूवणा अस्थि, तदो कालादो खेत्तं सुहुममिदि जाणिज्जदे । के वि आइरिया एवं भणति बहुवे हि पदेसेहि उवचिदं सहुममिदि । उत्तं च
( सुमो य हवदि कालो तत्तो य सुट्टमदरं हवदि खेत्तं । अंगुल - असंखभागे हवंति कप्पा असंखेज्जा' ॥ १७ ॥
कालकी अपेक्षा मिध्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं ॥ ३ ॥
शंका- क्षेत्रप्रमाणको उल्लंघन करके कालप्रमाणका कथन क्यों किया जा रहा है ? समाधान जो स्थूल और अल्पवर्णनीय होता है उसका पहले ही कथन करना चाहिये' इस न्याय के अनुसार पहले कालप्रमाणका कथन किया जा रहा है ।
"
शंका - कालप्रमाणकी अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण बहुवर्णनीय कैसे है ?
॥ इदि ॥
समाधान- - क्षेत्रप्रमाण में लोक प्ररूपण करने योग्य है । उसका भी जगच्छेणीके प्ररूपणके विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये जगच्छ्रेणीका प्ररूपण करना चाहिये । जगच्छ्रेणीका भी रज्जुके प्ररूपण किये विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये रज्जुका प्ररूपण करना चाहिये । रज्जुका भी उसके अर्धच्छेदों का कथन किये विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये रज्जुके छेदोंका प्ररूपण करना चाहिये । रज्जुके छेदों का भी द्वीपों और सागरोंके प्ररूपणके विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये द्वीपों और सागरोंका प्ररूपण करना चाहिये । परंतु कालप्रमाण में इसप्रकार बड़ी प्ररूपणा नहीं है, इसलिये कालप्रमाणकी प्ररूपणाकी अपेक्षा क्षेत्रप्रमाणकी प्ररूपणा अतिसूक्ष्मरूपसे वर्णित है, यह बात जानी जाती है ।
कितने ही आचार्य ऐसा कथन करते हैं कि जो बहुत प्रदेशों से उपचित होता है वह सूक्ष्म होता है । कहा भी है
कालप्रमाण सूक्ष्म है, और क्षेत्रप्रमाण उससे भी सूक्ष्म है, क्योंकि, अंगुलके असंख्या
१ सहुमो य होइ कालो तत्तो सहुमयरं हवइ खेतं । अंगुल पेटीमेचे ओसप्पिणीओ असंखेम्जा ॥ वि. मा. पृ. २४, गा. २१८.
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२८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ३.
एदं वक्खाणं ण घडदे । कुदो ? खेत्तादो दव्त्रस्स परूवणपसंगादो । तं कथं ? एकहि दव्वंगुले अणतपरमाणुपदेसेहि णिष्फण्णे एगं खेत्तंगुलमोगाहे, गणणं पटुच अताणि खेत्तंगुलाणि होंति त्ति ।
सुमं तु हवदि खेत्तं तत्तो य सुहुमदरं हवदि दव्वं । खेत्तंगुला अणंता एगे दव्बंगुले होंति ॥ १८ ॥ इदि ॥
कथं काले मिणिज्जंते मिच्छाइट्ठी जीवा ? अनंताणंताणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिसमए ठवेण मिच्छाइट्ठिरासिंच ठवेऊण कालम्हि एगो समयो मिच्छाइट्ठिरासहि एगो जीवो अवहिरज्जदि । एवमवहिरिजमाणे अवहिरिजमाणे सच्चे समया अवहिरिज्जति, मिच्छाइट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि । एत्थ चोदगो भणदि - मिच्छाइट्ठिरासी अवहिरिजद, सच्चे समया ण अवहिरिज्जति त्ति । केण कारणेण ? कालमाहपपरूवय सुत्तदंसणादो । किं तं सुतं ? उच्चदे
भाग असंख्यात कल्प होते हैं ॥ १७ ॥
परंतु उनका इसप्रकारका व्यख्यान करना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर क्षेत्ररूपणा के अनन्तर द्रव्यप्ररूपण का प्रसंग प्राप्त हो जायगा ।
शंका
- यह कैसे ?
समाधान - क्योंकि, अनन्त परमाणुरूप प्रदेशोंसे निष्पन्न एक द्रव्यांगुलमें अवगाहनाकी अपेक्षा एक क्षेत्रांगुल ही है, किंतु गणनाकी अपेक्षा अनन्त क्षेत्रांगुल होते हैं, इसलिये 'जो बहुत प्रदेशों से उपचित होता है वह सूक्ष्म होता है' यह कहना ठीक नहीं है ।
$
क्षेत्र सूक्ष्म होता है और उससे भी सूक्ष्मतर द्रव्य होता है, क्योंकि, एक द्रव्यांगुल में अनन्त क्षेत्रांगुल होते हैं ॥ १८ ॥
शंका - कालप्रमाणकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कैसे निकाला जाता है ? समाधान - एक और अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके समयोंको स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवोंकी राशिको स्थापित करके कालके समय में से एक एक समय और उसीके साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणमेंसे एक एक जीव कम करते जाना चाहिये । इसप्रकार उत्तरोत्तर कालके समय और जीवराशिके प्रमाणको कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परंतु मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता है ।
शंका- यहां पर शंकाकारका कहना है कि मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण भले ही समाप्त हो जाओ परंतु कालके संपूर्ण समय समाप्त नहीं हो सकते है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणकी अपेक्षा कालके समयोंका प्रमाण बहुत अधिक है। इसप्रकार से प्ररूपण करनेवाला सूत्र भी देखने में आता है । वह सूत्र कौनसा है इसप्रकार पूछने पर शंकाकार कहता है
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१, २, ३. ] दव्यपमाणाणुगमे मिच्छाइहिपमाणपरूवणं
[२९ (धम्माधम्मागासा तिण्णि वि तुल्लाणि होति थोवाणि ।
बडीदु जीवपोग्गलकालागासा अणंतगुणा ॥ १९ ॥) ण एस दोसो, अदीदकालगहणादो । जहा सव्ये लोए पत्थो तिहा विहत्तो, अणागदो वट्टमाणो अदीदो चेदि । तत्थ अणिप्फण्णो अणागदो णाम । घडिज्जमाणो वट्टमाणो । णिफण्णो ववहारजोग्गो अदीदो णाम । तत्थ अदीदेण पत्थेण मिणिज्जते सव्यबीजाणि । एत्थुवसंहारगाहा
__पत्थो तिहा विहत्तो अणागदो वट्टमाणतीदो य ।
एदेसु अदीदेण दु मिणिज्जदे सव्वबीजं तु ।। २० ॥ तधा कालो वि तिविहो, अणागदो वट्टमाणो अदीदो चेदि । तत्थ अदीदेण मिणिज्जते सव्वे जीवा । एत्थुवसंहारगाहा
कालो तिहा विहत्तो अणागदो वट्टमाणतीदो य । एदेसु अदीदेण दु मिणिज्जदे जीवरासी दु ॥ २१ ॥
धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और लोकाकाश, ये तीनों ही समान होते हुए स्तोक हैं। तथा जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, कालके समय और आकाशके प्रदेश, ये उत्तरोत्तर वृद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणे हैं ॥ १९ ॥
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण निकालने में अतीत कालका ही ग्रहण किया है।
जिसप्रकार, सब लोकमें प्रस्थ तीन प्रकारसे विभक्त है, अनागत, वर्तमान और अतीत । उनमेंसे जो निष्पन्न नहीं हुआ है वह अनागत प्रस्थ है, जो बनाया जा रहा है वह वर्तमान प्रस्थ है, और जो निप्पन्न हो चुका है तथा व्यवहारके योग्य है वह अतीत प्रस्थ है। उनमेंसे अतीत प्रस्थके द्वारा संपूर्ण बीज मापे जाते हैं। यहां पर इस विषयकी उपसंहाररूप गाथा कहते हैं
_ प्रस्थ तीन प्रकारका है, अनागत, वर्तमान और अतीत । इनमेंसे अतीत प्रस्थके द्वारा संपूर्ण बीज मापे जाते हैं ॥२०॥
उसीप्रकार, काल भी तीन प्रकारका है, अनागत, वर्तमान और अतीत । उनमें से अतीत कालके द्वारा संपूर्ण जीवराशिका प्रमाण जाना जाता है। यहां पर उपसंहाररूप गाथा कहते हैं
___ काल तीन प्रकारका है, अनागतकाल, वर्तमानकाल और अतीतकाल । इनमेंसे अतीतकालके द्वारा संपूर्ण जीवराशिका प्रमाण जाना जाता है ॥ २१॥
१ प्रतिषु जहा लोए तहा सव्वे लोए' इति पाठः।
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३०]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ३. तेण कारणेण मिच्छाइहिरासी ण अवहिरिज्जदि, सव्वे समया अवहिरिज्जति । अदीदकालो थोवो मिच्छाइट्टिरासी बहुगो त्ति कधं णव्वदे ? सोलस-पडिय-अप्पाबहुगादो । कधं सोलसपडिय-अप्पाबहुगं ? सव्वत्थावा वट्टमाणद्धा, अभवसिद्धिया अणंतगुणा। को गुणगारो ? जहण्णजुत्ताणतं । सिद्धकालो अणंतगुणो । को गुणगारो ? छम्मासट्टमभागेण रूवाहिएण छिण्ण-अदीदकालस्स अणंतिम भागो। अणाइस्म अदीद. कालस्स कधं पमाणं ठविज्जदि ? ण, अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्तं पावेदि, विरोहा । सिद्धा संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? रूवसदपुधत्तं । असिद्धकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेज्जावलियाओ। अदीदकालो विसेसाहिओ। केत्तियमेत्तेण ? सिद्धकालमत्तेण । भवसिद्धिया मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । को
इसलिये मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता है, परंतु अतीतकालके संपूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं।
शंका-अतीतकाल स्तोक है और मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण उससे अधिक है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- सोलह राशिगत अल्पबहुत्वसे यह जाना जाता है कि अतीतकालसे मिथ्याष्टि जीवराशिका प्रमाण आधिक है।
शंका-सोलह राशिगत अल्पबहुत्व कि.सप्रकार है ?
समाधान-वर्तमानकाल सबसे स्तोक है । अभव्य जीवोंका प्रमाण उससे अनन्तगुणा है। यहां पर गुणकार क्या है ? जघन्य युक्तानन्त यहां पर गुणकाररूपसे अभीष्ट है। अभव्यराशिसे सिद्धकाल अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? छह महीनोके अष्टम भागमें एक मिला देने पर जो समयसंख्या आवे उससे भक्त अतीतकालका अनन्तवां भाग गुणकार है।
शंका- अतीतकाल अनादि है, इसलिये उसका प्रमाण कैसे स्थापित किया जा सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाय तो उसके अभावका प्रसंग आ जायगा। परंतु उसके अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिये उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायगी, सो बात भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है।
सिद्धकालसे सिद्ध संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? यहां पर शतप्रथक्त्वरूप गुणकार लेना चाहिये। सिद्ध जीवोंसे असिद्धकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? यहां पर संख्यात आवलिकाएं गुणकार हैं। असिद्धकालसे अतीतकाल विशेष अधिक है। कितना विशेष अधिक है ? सिद्धकालका जितना प्रमाण है, उतने विशेषसे अधिक है । अर्थात्
१ क. आ. प्रत्योः
दस ' इति पाठः।
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१. २, ३.] दवपमाणाणुगमे मिच्छाइहिपमाणपरूवणं
[ ३१ गुणगारो ? भवसिद्धियमिच्छाइट्ठीणमपंतिमभागो । भवसिद्धिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? तेरसगुणट्ठाणमत्तेण । मिच्छाइट्ठी विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? तेरसगुणहाणमेत्तेण पमाणेणूण-अभवसिद्धियमेत्तेण । संसारत्था विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? तेरमगुणहाणमेत्तेण । सव्वे जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? सिद्धजीवमेत्तेण । पोग्गलदव्यमणंतगुणं । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । एसद्धा अणंतगुणा । को गुणगारो ? सव्यपोग्गलदव्वादो अणंतगुणो । सबद्धा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? वट्टमाणातीदकालमत्तेण । अलोगागासमणतगुणं । को गुणगारो ? सबकालादो अणंतगुणो । सव्यागासं विसेसाहियं । केत्तियमेतेण ? लोगागासपदेसमेत्तेण । जेण अदीदकालादो मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा तेण सव्वे समया अवहिरिजंति मिच्छाइहिरासी ण अवहिरिज्जदि
असिद्धकालमें सिद्धकालका प्रमाण मिला देने पर अतीतकालका प्रमाण हो जाता है । अतीतकालसे भव्य मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? भव्य मिथ्यादृष्टियोंका अनन्तवां भाग गुणकार है। भव्य मिथ्यादृष्टियोंसे भव्य जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? सासादन गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक जीवोंका जितना प्रमाण है उतने विशेषरूप अधिक हैं। अर्थात् भव्य मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाण में सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवोंके प्रमाणके मिला देने पर समस्त भव्य जीवोंका प्रमाण होता है । भव्य जीवोंसे सामान्य मिथ्यादृष्टि जीव विशेष अधिक हैं। कितने विशेषरूप अधिक है ? अभव्य राशिसे सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवोंके प्रमाणको कम कर देने पर जो राशि अवशिष्ट रहे उतने विशेषसे अधिक है। अर्थात् भव्यराशिमेंसे सासादन आदि तेरह गुणस्थानवालोंका प्रमाण कम करके अभव्यराशिको मिला देने पर सामान्य मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण होता है । सामान्य मिथ्यादृष्टियोंसे संसारी जीव विशेष अधिक है। कितने अधिक हैं ? सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवोंका जितना प्रमाण है उतने विशेषसे अधिक हैं । संसारी जीवोंसे संपूर्ण जीव विशेष अधिक हैं ? कितने अधिक हैं ? सिद्ध जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक है। संपूर्ण जीवराशिसे पुद्गलद्रव्य अनन्तगुणा है। यहां पर गुणकार क्या है ? यहां पर संपूर्ण जीवराशिसे अनन्तगुणा गुणकार है। पुद्गलद्रव्यसे अनागतकाल अनन्तगुणा है। यहां पर गुणकार क्या है ? यहां पर संपूर्ण पुद्गलद्रव्यसे अनन्तगुणा गुणकार है। अनागतकालसे संपूर्ण काल विशेष अधिक है। कितना अधिक है ? वर्तमान और अतीतकालमात्र विशेषसे अधिक है। संपूर्ण कालसे अलोकाकाश अनन्तगणा है। यहां पर गुणकार क्या है ? संपूर्ण कालसे अनन्तगुणा यहां पर गुणकार है। अलोकाकाशसे संपूर्ण आकाश विशेष अधिक है। कितना अधिक है ? लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतना विशेषरूप अधिक है। इसप्रकार इस अल्पबहुत्वसे यह प्रतीत हो जाता है कि अतीतकालसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं, अतः अतीतकालके संपूर्ण समय अपहृत हो जाते हैं, परंतु मिथ्यादृष्टि जीवराशि भपहत नहीं होती है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
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३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ४. त्ति सिद्धं । किम कालपमाणं वुच्चदे ? मिच्छाइद्विरासिस्स मोक्खं गच्छमाणजीवे पडुच्च संते वि वए ण वोच्छेदो होदि त्ति जाणावणहूँ ।
खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ ४ ॥
खेत्तपमाणमुल्लंघिय अप्पवण्णणिजं भावपमाणं किमिदि ण परूविज्जदि ? खेत्तपरूवणादो भावपरूवणं महदरमिदि ण परूविज्जदे । तं जहा, भावपमाणं णाम णाणं । तं पि पंचविहं । तत्थ वि एकेकमणेयवियप्पं । तत्थ वि अणेगाओ विपडिवत्तीओ त्ति । खेतेण कधं मिच्छाइहिरासी मिणिज्जदे ? वुच्चदे-जधा पत्थेण जव-गोधूमादिरासी मिणिज्जदि तधा लोएण मिच्छाइद्विरासी मिणिज्जदि । एवं मिणिज्जमाणे मिच्छाइट्ठिरासी अणंत. लोगमेत्तो होदि त्ति । एत्थुवउज्जती गाहा
पत्थेण कोदवेण व जह कोइ मिणेज्ज सव्वबीजाई । एवं मिणिज्जमाणे हवंति लोगा अणता दु ॥ २२ ॥
शंका- यहां पर कालकी अपेक्षा प्रमाण किसलिये कहा गया है ?
समाधान-मोक्षको जानेवाले जीवोंकी अपेक्षा संसारी जीवराशिका व्यय होने पर भी मिथ्यावृष्टि जीवराशिका सर्वथा विच्छेद नहीं होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहां पर कालकी अपेक्षा प्रमाण कहा है।
क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है ॥ ४ ॥
शंका-यहां पर क्षेत्रप्रमाणका उल्लंघन करके अल्पवर्णनीय भावप्रमाणका प्ररूपण क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान-क्षेत्रप्रमाणके प्ररूपण करनेकी अपेक्षा भावप्रमाणका प्ररूपण अतिविस्तृत है, इसलिये भावप्रमाणका प्ररूपण पहले नहीं किया गया है। भावप्रमाणका प्ररूपण अतिविस्तृत है आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं। ज्ञानको भावप्रमाण कहते हैं । वह भी पांच प्रकारका है । उन पांच भेदोंमें भी प्रत्येक अनेक भेदरूप है। उसमें भी अनेक विवाद हैं । इससे सिद्ध होता है कि भावप्रमाणका प्ररूपण क्षेत्रप्रमाणके प्ररूपणकी अपेक्षा अतिविस्तृत है।।
शंका-क्षेत्रप्रमाणके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसे मापी, अर्थात् जानी, जाती है ?
समाधान-जिसप्रकार प्रस्थसे जौ, गेहूं आदिको राशिका माप किया जाता है, उसीप्रकार लोक प्रमाणके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी अर्थात् जानी जाती है। इसप्रकार लोकके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका माप करने पर वह अनन्त लोकमात्र है। यहां पर इस विषयकी उपयोगी गाथा दी जाती है
जिसप्रकार कोई प्रस्थसे कोदोंके समान संपूर्ण बीजोंका माप करता है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी लोकसे अर्थात् लोकके प्रदेशोंसे तुलना करने पर मिथ्यादृष्टि जीव
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१,२, ४. ]
दवमाणागमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं
[ ३३
पत्थेण ताव पत्थवाहिरत्थो पुरिसो पत्थबाहिरत्थाणि बीयाणि मिणेदि । कथं लोएण लोयस्थो पुरसो लोयत्थं मिच्छाइहिरासिं मिणेदि ति ? जदो लोगेण पण्णाए मिणिज्जं मिच्छा डिजीवा तदो ण एस दोसो । कथं पण्णाए मिणिज्जंते मिच्छाइट्ठिजीवा ? बुम्बदेएक्वेक्कम्मि लोगागासपदेसे एक्केकं मिच्छाइट्टिजीवं णिक्खेविऊग एक्को लोगो इदि मणेण संकपेयत्र । एवं पुणो पुणो मिणिश्रमाणे मिच्छाइद्विरासी अनंतलोगमेत्तो होदि । एत्थुवसंहारगाहा—
लोगागासपदे से एक णिक्खिवेवि तह दिट्ठ |
एवं गणिमाणे हवंति लोगा अणंता दु ॥ २३ ॥
को लोगो' णाम ? सेढिघणो । का सेठी १ सत्तरज्जुमेत्तायामो । का रज्जू
राशिका प्रमाण लाने के लिये अनन्त लोक होते हैं, अर्थात् अनन्तलोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि है ॥ २२ ॥
शंका - प्रस्थसे बहिर्भूत पुरुष प्रस्थसे बहिर्भूत बीजोंको प्रस्थके द्वारा मापता है, यह तो युक्त है, परंतु लोकके भीतर रहनेवाला पुरुष लोकके भीतर रहनेवाली मिथ्यादृष्टि जीवराशिको लोकके द्वारा कैसे माप सकता है ?
समाधान - जिसलिये बुद्धिसे संपूर्ण मिथ्यादृष्टि जीव लोकके द्वारा मापे जाते हैं, इसलिये उपर्युक्त दोष नहीं आता है ।
शंका - बुद्धिसे मिथ्यादृष्टि जीव कैसे मापे जाते हैं ?
समाधान - लोकाकाशके एक एक प्रदेश पर एक एक मिथ्यादृष्टि जीवको निक्षिप्त करके एक लोक हो गया इसप्रकार मनसे संकल्प करना चाहिये । इसप्रकार पुनः पुनः माप करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तलोकप्रमाण होती है । इसप्रकार बुद्धिसे मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी जाती है । इस विषयकी यहां पर उपसंहाररूप गाथा कहते हैं
लोकाकाशके एक एक प्रदेश पर एक एक मिध्यादृष्टि जीवको निक्षिप्त करने पर जैसा जिनेन्द्रदेवने देखा है उसीप्रकार पूर्वोक्त लोकप्रमाणके क्रमसे गणना करते जाने पर अनन्त लोक हो जाते हैं ॥ २३ ॥
शंका - लोक किसे कहते हैं ?
-
समाधान - जगछेगी घनको लोक कहते हैं ।
शंका - जगछ्रेणी किसे कहते हैं ?
समाधान-- - सात रज्जुप्रमाण आकाश प्रदेशों की लंबाईको जगछेणी कहते हैं ।
१ जगसेदिवणयमाणो लोयायासो । ति प पत्र ४. पयरं सेटीए गुणियं लोगो । अनु. सू. पृ. १५९. २ सेठी विपदा । होदि असंखेज्जदिमप्पमाणविंदंगुलाण हदी ॥ त्रि. सा. ७. असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ सेदी । अनु. पृ. १५९.
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३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ४. णाम ? तिरियलोगस्स मज्झिमवित्थारो । कधं तिरियलोगस्स रुंदत्तणमाणिज्जदे ? जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवच्छेदणाओ च रूवाहियाओ केसि च आइरियाणमुवएसेण संखेज्जरूवाहियाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा छिण्णाविसिष्टुं गुणिदे रज्जू णिप्पज्जदि । एसो एति सेढीए सत्तमभागो' (कम्मि तिरियलोगस्स पज्जवसाणं ?
शंका-रज्जु किसे कहते हैं ? समाधान-तिर्यग्लोकके मध्यम विस्तारको रज्जु कहते हैं। शंका-तिर्यग्लोककी चौड़ाई कैसे निकाली जाती है ?
समाधान-- जितना द्वीपों और सागरोंका प्रमाण है उनको तथा एक अधिक जम्बूद्वीपके छेदोंको विरलित करके तथा उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे, अर्धच्छेद करने के पश्चात् अवशिष्ट राशिको गुणित कर देने पर रज्जुका प्रमाण उत्पन्न होता है। अथवा, कितने ही आचार्योंके उपदेशसे जितना द्वीपों और सागरोंका प्रमाण है उसको और संख्यात अधिक जम्पद्वीपके छेदोंको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे, छेद करनेके पश्चात् अवशिष्ट राशिको गुणा कर देने पर रज्जुका प्रमाण उत्पन्न होता है । यह जगच्छ्रेणीका सातवां भाग आता है।
विशेषार्थ- रज्जुके विषय में दो मत पाये जाते हैं। कितने ही आचार्योका ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण सनद्रकी बाह्य वेदिका पर जाकर रज्जु समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्योंका ऐसा मत है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंकी चौड़ाईसे रुके हुए क्षेत्रसे संख्यात. गुणे योजन जाकर रज्जुकी समाप्ति होती है। स्वयं वीरसेन स्वामीने इस दूसरे मतको अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियों के प्रमाणको लानेके लिये २५६ अंगुलके वर्ग प्रमाण जो भागहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुद्रसे संख्यातगुणे योजन जाकर ही मध्यलोककी समाप्ति होती है। इन दोनों मतोंके अनुसार रज्जुका प्रमाण निकालनेके लिये रज्जुके जितने अर्धच्छेद हों उतने स्थानपर २ रख. कर परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उसका अर्धच्छेद करनेके अनन्तर जो भाग अवशिष्ट रहे उससे गुणा कर देना चाहिये । इसप्रकार करनेसे रज्जुका प्रमाण आ जाता है। जितने द्वीप और समुद्र हैं उनमें एक अधिक या संख्यात अधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद मिला देने पर रज्जुके अर्धच्छेद हो जाते हैं । इनके निकालनेकी प्रक्रिया इसप्रकार है
___ मध्यसे रज्जुके दो भाग करना चाहिये, यह प्रथम अर्धच्छेद है। अनन्तर आधा आधा
१ जगसेढीए सत्तमभागो रज्जू य भासंते । ति. प. पत्र ६. जगसेढिसत्तभागो रज्जू । त्रि. सा. ७. उद्धारसागराणं अडाइज्जाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर-दीवोदहि रज्जु एवइया ॥ बृ. क्षे. १, ३.
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१, २, ४.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवर्ण
[ ३५ तिण्हं वादवलयाणं वाहिरभागे । तं कधं जाणिज्जदि ? ' लोगो वादपदिद्विदो' त्ति वियाहपण्णत्तीवयणादो । सयंभुरमणसमुद्दबाहिरवेदियाए परदो केत्तियमद्धाणं गंतूण तिरियलोगसमत्ती होदि ति भणिदे असंखेज्जदीवसमुद्दरुंदरुद्धजोयणेहितो संखेज्जगुणाणि गंतूण होदि । एदं कुदो णव्यदे ? जोइसियाणं वेछप्पणंगुलसदवरगमेत्तभागहारपरूवयसुत्तादो',
करनेसे (पहले मतके अनुसार) दुसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमण समुद्र में, तीसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमण द्वीपमें, इसप्रकार एक एक अर्धच्छेद उत्तरोत्तर एक एक द्वीप और एक एक समुद्र में पड़ता है। किंतु लवण समुद्र में दो अर्धच्छेद पड़ेंगे। उनमें से पहला डेढलाख योजन भीतर जाकर और दुसरा पचास हजार योजन भीतर जाकर पड़ता है। इनमेंसे दूसरा अर्धच्छेद जस्तूपिका मान लेने पर जितने द्वीप और समुद्र है उतने अर्धच्छेदोंका प्रमाण आ जाता है । अन्तमें पचास हजार योजन लवण समुद्रके और इतने ही योजन जम्बूद्वीपके अवशिष्ट रहते हैं । इनको मिला देने पर एक लाख योजन होता है। इस एक लाख योजनके १७ अर्धच्छेद करने पर एक योजन अवशिष्ट रहता है, जिसके १९ अर्धच्छेद करनेके बाद एक सूच्यंगुल शेष रहता है । पल्यके अर्धच्छेदोंके वर्ग प्रमाण एक सूच्यंगुलके अर्धच्छेद होते हैं। इसप्रकार पहले मतके अनुसार जितने द्वीप और समुद्र है उनकी संख्यामें १+१७+१९-३७ अर्धच्छेद अधिक पल्यके अर्धच्छेदोंके वर्ग प्रमाण अर्धच्छेद मिला देने पर रज्जुके कुल अर्धच्छेद होते हैं। तथा दूसरे मतके अनुसार इस संख्यामें संख्यात और मिला देने पर रज्जुके संपूर्ण अर्धच्छेद होते हैं, क्योंकि, इस मतके अनुसार संख्यात अर्धच्छेद् हो जानेके बाद स्वयंभूरमण समुद्र में अर्धच्छेद प्राप्त होता है।
शंका-तिर्यग्लोकका अन्त कहां पर होता है ? समाधान-तीनों वातवलयों के बाह्य भागमें तिर्यग्लोकका अन्त होता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'लोक वातवलयोंसे प्रतिष्ठित है' इस व्याख्याप्रज्ञप्तिके वचनसे जाना जाता है कि तीनों वातवलयों के बाह्य भागमें लोकका अन्त होता है।
स्वयंभूरमण समुद्रकी बाह्य वेदिकासे उस ओर कितना स्थान जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंके व्याससे जितने योजन रुके हुए हैं उनसे संख्यात् गुणा जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है।
शंका-यह किससे जाना जाता है ? समाधान- ज्योतिषी देवोंके दोसौ छप्पन अंगुलोंके वर्गमात्र भागहारके प्ररूपक
१ भजिदम्मि सेदिवग्गे वेसयछप्पणअंगुलकदीए। जं लद्धं सो रासी जोदिसियसुराणं सव्वाण । ति. प. पत्र २०१. तिण्णिसयजोयणाणं बेगदछप्पणअंगुलाणं च । कदिहिदपदरं वेंतरजोइसियाणं च परिमाणं ॥ गो. जी. १६०. बेछपगंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स । अनु. सू. १४२. पृ. १९२.
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३६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ४. (दुगुणदुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगे' त्ति तिलोयपण्णत्तिसुत्तादो य णयदे ण च ऐदै वक्खाणं जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाहियाणि त्ति परियम्मसुत्तेण सह विरुज्झइ, रूवेहि अहियाणि रूवाहियाणि ति गहणादो। अण्णाइरियवक्खाणेण सह विरुज्झदि त्ति ण, एदस्स वक्खाणस जं भद्दत्तं तेण वक्खाणाभासेण विरुद्धदाए एदस्स समवट्ठाणादो । तं वक्खाणाभासमिदि कुदो णव्वदे ? जोइसियभागहारसुत्तादो चंदाइचबिंबपमाणपरूवयतिलोयपण्णत्तिसुत्तादो' च । ण च सुत्तविरुद्धं वक्वाणं होइ, अइप्पसंगादो। किं च ण तं वक्खाणं घडदे, तम्हि वक्खाणे अवलंबिज्जमाणे सेढीए सत्तमभागम्हि अहसुण्णदंसणादो। ण च सेढीए सत्तमभागम्हि अट्ठसुण्णओ अत्थि, तदत्थित्तविहाययसुत्ताणुवलंभादो । तदो तत्थ असुणविणासणर्टी केत्तिएण वि रासिणा सूत्रसे और 'तिर्यग्लोकमें दोके वर्गसे लेकर उत्तरोत्तर दुना दुना है' इस त्रिलोकप्रशप्तिके सूत्रसे जाना जाता है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंके व्याससे रुके हुए क्षेत्रसे संख्यातगुणा आकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है। और यह व्याख्यान 'जितने द्वीपों और सागरोंकी संख्या है और जम्बूद्वीपके रूपाधिक जितने छेद हैं उतने रज्जुके अर्धच्छेद हैं । परिकर्म सूत्रके इस व्याख्यानके साथ भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर रूपले अधिक अर्थात् एकसे अधिक ऐसा ग्रहण न करके रूपसे आधिक अर्थात् बहुत प्रमाणसे अधिक ऐसा ग्रहण किया है।
शंका- यह व्याख्यान अन्य आचार्यों के व्याख्यानके साथ तो विरोधको प्राप्त होता है?
समाधान - नहीं, क्योंकि, यह व्याख्यान जिसलिये संगत है इसलिये दूसरे ध्याख्यानाभासोंसे इसके विरुद्ध पड़ने पर भी यह व्याख्यान प्रमाणरूपसे अवस्थित ही रहता है।
शंका-अन्य आचार्योंका व्याख्यान व्याख्यानाभास है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- ज्योतिषियोंके भागहारके प्ररूपक सूत्रसे और चन्द्र तथा सूर्यके बिम्बोंके प्रमाणके प्ररूपक त्रिलोकप्रक्षप्तिके सूत्रसे जाना जाता है कि पूर्वोक्त व्याख्यानके विरुद्ध जो अन्य आचार्योंका व्याख्यान पाया जाता है वह व्याख्यानाभास है। और सूत्रविरुद्ध व्याख्यान ठीक नहीं कहा जा सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा। तथा वह अन्य आचार्योंका व्याख्यान घटित भी तो नहीं होता है, क्योंकि, उस व्याख्यानके अवलम्बन करने पर जगच्छेणीके सप्तम भागका जो प्रमाण बतलाया है उसके अन्तमें आठ शून्य दिखाई देते हैं। परंतु जगच्छेणीके सप्तम भागरूप प्रमाणमें अन्तके आठ शून्य नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि, अन्तमें आठ शून्योंके अस्तित्वका विधायक कोई सूत्र नहीं पाया जाता है। इसलिये
१ अट्ठच उदुतितिसत्तासत यहाणेसु णव सुण्णाणि । छत्तीससत्तदुणवअट्ठा तिचउका होति अंककमा एदेहि गुणिदसंखेन्जरूवपदरंगुलेहिं भजिदाए। सेठिकदीए लहूं माणं चंदाण जोइसिंदाणं ॥ तेत्तियमेत्ताणि रविणो इवति ॥ १२, १३, १४॥ ति. प. पत्र २०१.
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[३७
१, २, ४.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइहिपमाणपरूवणं अहिएण होदव्यं । होतो वि असंखेज्जभागभहिओ संखेज्जभागभहिओ वा ण होदि, तदणुग्गहकारिसुत्ताणुवलंभादो। तदो दीवसमुद्दरुद्धखेतायामादो संखेज्जगुणेण बाहिरखेत्तेण होदव्यमण्णहा पुव्वुत्तसुत्तेहि सह विरोहप्पसंगादो। 'जो मच्छो जोयणसहस्सिओ सयंभूरमणसमुदस्स बाहिरिल्लए तडे वेयणसमुग्घाएण समुहदो काउलेस्सियाए लग्गों' सि एदेण वेयणासुत्तेण सह विरोहो किण्ण होदि त्ति भणिदे ण, सयंभूरमणसमुद्दस्स बाहिरवेदियादो परभागद्विदपुढवीए बाहिरिल्लतडत्तणेण गहणादो। तो वि काउलेस्सियाए महामच्छो ण लग्गदि त्ति णासंकणिज्ज, पुढविहिदपदेसम्हि चेव हेट्ठा वादवलयाणम
रज्जुके प्रमाणके अन्तमें बतलाये हुए आठ शुन्योंके नष्ट करनेके लिये जो कुछ भी राशि हो वह आधिक ही होना चाहिये । अधिक होती हुई भी वह राशि असंख्यातवांभाग अधिक अथवा संख्यातवांभाग अधिक तो हो नहीं सकती है, क्योंकि, इसप्रकारके कथनकी पुष्टि करनेवाला कोई सूत्र नहीं पाया जाता है। इसलिये जितने क्षेत्र विस्तारको द्वीपों और समुद्रोंने रोक रक्खा है उससे संख्यातगुणा बाहिरी अर्थात् अन्तके समुद्रसे उस ओरका क्षेत्र होना चाहिये, अन्यथा पहले कहे गये सूत्रोंके साथ विरोधका प्रसंग आ जायगा।
'जो एक हजार योजनका महामत्स्य है वह वेदनासमुद्धातस पीडित हुआ स्वयंभूरमण समुद्रके बाह्य तट पर कापोतलेश्या अर्थात् तनुवातवलयसे लगता है, इस वेदनाखंडके सूत्रके साथ पूर्वोक्त व्याख्यान विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता है ऐसा किसीके पूछने पर आचार्य कहते हैं कि फिर भी इस कथनका पूर्वोक्त कथनके साथ विरोध नहीं आता है, क्योंकि, यहां पर 'बाहा तट' इस पदसे स्वयंभूरमण समुद्रकी बाह्य वेदिकाके परभागमें स्थित पृथिवीका ग्रहण किया गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो महामत्स्य कापोतलेश्यासे संसक्त नहीं हो सकता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, पृथिवीस्थित प्रदेशोंमें अध. स्तन वातवलयका अवस्थान रहता ही है।
विशेषार्थ---यहां ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये कि समुद्रकी वेदिका और
१रूवाहियदीवसागररूवाणि विरलिय विग करिय अण्णोण्णब्भत्थं कादण तत्थ तिणि रूवाणि अवणिय जोयणलक्खेण गुणिदे दीवसमुद्दरुद्धतिरियलोगखेत्तायामुप्पत्तीदो। ण च एत्तियो चेव तिरियलोगविक्खंभो जगसेढीए सत्तमभागम्मि पंचसुण्णाणुवलंभादो। ण च एदम्हादो रज्जुविक्खंभो ऊणो होदि रज्जुअब्भंतरभूदस्स चउव्वीसजोयणमेत्तवादरुद्धक्खेत्तरस वज्झामुवलंभादो। ण च तेत्तियमेवं पक्खित्ते पंचसुण्णओ फिदृति तहाणुवलंभादो। तम्हा सबलदीव. सायरविवस्वादो बाहि केत्तिएण वि खेतेण होदव्वं । धवला. ८८१.ति. प. प. २२५.
२ जो मच्छो जोयणसहस्सओ सयंभुरमणसमुदस्स बाहिरिलए तड अच्छिदो ॥ ८॥ वेयणसमुग्धादेण समुहदो॥ ८॥ काउलेस्सियाए लग्गो, काउलेस्सिया णाम तदियो वादवलओ ॥ ९॥ सू. धवला. पत्र ८८१-८८२
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३८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५.
' । सो अत्थो जइवि पुव्वाइरियसंपदायविरुद्धो तो वि तंतजुत्तिले अम्हेहिं परूविदो । तदो इदमित्थं वेत्ति हा संगहो कायच्त्रों, अईदियत्थविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहे उत्ताणुववत्तदो । तम्हा उवएसं लड़्ण विसेसणिष्णयो एत्य कायन्त्रो त्ति । खेत्तपमाणपरूवणं किमहं कीरदे ? असंखेज्जपदेसे लोगागासे अनंतलोग मेत्तो वि जीवरासी सम्माइ त्ति जाणावणडुं । अट्ठसु माणेसु लोगपमाणेण मिणिज्जमाणे एत्तिय लोगा होंति त्ति जाणावणङ्कं वा । तो वि ते केत्तिया होंति त्ति भणिदे एगलोगेण मिच्छाइट्ठिीरासिम्हि भागे हिदे लद्धरूवमेता लोगा होंति ।
तिन्हं पि अधिगमो भावप्रमाणं ॥ ५ ॥
वातवलय के मध्यभागमें जो पृथिवी है वहां वातवलयकी संभावना है । और इसलिये महामत्स्य वेदनासमुद्धात के समय उससे स्पर्श कर सकता है । इसलिये स्वयंभूरमणकी बाह्य वेदिका के उस ओर असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंके व्यास से संख्यातगुणी पृथिवीके सिद्ध हो जाने पर भी 'वेदनासमुद्धात से पीड़ित हुआ महामत्स्य वातवलय से संसक्त होता है ' वेदनाखंडके इस वचनके साथ उक्त कथनका कोई विरोध नहीं आता है ।
यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचार्योंके संप्रदाय के विरुद्ध है, तो भी आगमके आधारपर युक्ति के बलसे हमने (वीरसेन आचार्यने ) इस अर्थका प्रतिपादन किया है । इसलिये यह अर्थ इसप्रकार भी हो सकता है, इस विकल्पका संग्रह यहां पर छोड़ना नहीं चाहिये, क्योंकि, अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थ जीवोंके द्वारा कल्पित युक्तियों के विकल्प रहित निर्णय के लिये हेतुता नहीं पाई जाती है । इसलिये उपदेशको प्राप्त करके इस विषय में विशेष निर्णय करना चाहिये ।
शंका- यहां पर क्षेत्रप्रमाणका प्ररूपण किसलिये किया है ?
समाधान - असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमें अनन्तले कप्रमाण जीवराशि समा जाती इस बातके ज्ञान करानेके लिये यहां पर क्षेत्रप्रमाणका प्ररूपण किया है । अथवा, आठ प्रकारके प्रमाणों में से लोकप्रमाणके द्वारा जीवोंकी गणना करने पर इतने लोक हो जाते हैं इस बातके ज्ञान कराने के लिये यहां पर क्षेत्रप्रमाणका प्ररूपण किया है । तो भी वे लोक कितने होते हैं ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि एक लोकका अर्थात् एक लोकके जितने प्रदेश है उनका मिध्यादृष्टि जीवराशिमें भाग देने पर जितनी संख्या लब्ध आवे तत्प्रमाण लोक होते हैं ।
उपर्युक्त तीनों प्रमाणोंका ज्ञान ही भावप्रमाण है ॥ ५ ॥
१ भावत्थो पुव्ववेरियदेवेण महामच्छो सयंभुरमणबाहिर वेश्याए बाहिरे भागे लोगणालीए सामीवे पुचीदी | तत्थ तिव्ववेयणावसेण वेयणसमुग्वादेण समुग्धादो जाव लोगणालीए बाहिरपेरंतो लन्गो चि उत्तं होदि ।
धवला. पत्र. ८८२.
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१, २, ५. ]
दव्यमाणानुगमे मिच्छाइद्विपमाणपरूवणं
[ ३९
अधिगम णापमाणमिदि एगो । सो वि अधिगमो पंचविधो मदि-सुद-ओहिमणपज्जव केवलणाणभेदेण । एक्केकं तिविहं दव्य - खेत्त - कालभेएण | दव्वत्थिविसयणाणं दव्वभावमाणं । खेत्तविसिदव्वस्स गाणं खेत्त भावपमाणं । तहा कालस्स वि वत्तव्यं । सुते भावपमाणं ण वृत्तं ? ण, तस्स अणुत्तसिद्धीदो। ण च भावपमाणमंतरेण तिन्हं पमाणाणं सिद्धी भवदि, सहियपमाणाभावे गउणपमाणस्सासंभवादो, भावपमाणं बहुवण्णणीयमिदि वा हेदुवादाहेदुवादाणं अवधारणसिस्साणमभावादो वा । अधवा एयं भावपमाणं वत्तव्यं । तं जहा - मिच्छाइट्ठिरासिणा सव्वपज्जए भागे हिदे जं भागलद्धं तं भागहारमिदि कट्टु सव्वपज्जयस्सुवरि खंडिद - भाजिद - विरलिद - अवहिदाणि वसव्वाणि । तं जहा - सव्वपज्जए भागहारमेत्ते खंडे कदे तत्थ एगखंडपमाणं मिच्छाइट्ठिरासी होदि । खंडिदं गदं । तेणेव भागहारेण सव्वपज्जए भागे हिदे भागलद्वपमाणं मिच्छारासी होदि । भाजिदं गदं । तं चेत्र भागहारं विरलेदूण सव्वपज्जयं समखंडं काढून
अधिगम और ज्ञानप्रमाण ये दोनों एकार्थवाची शब्द हैं। वह ज्ञानप्रमाण भी मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदले पांच प्रकारका है । तथा उन पांचों से प्रत्येक ज्ञानप्रमाण द्रव्य, क्षेत्र और कालके भेदसे तीन तीन प्रकारका है। उन तीनोंमेंसे द्रव्योंके अस्तित्व विषयक ज्ञानको द्रव्यभावप्रमाण कहते हैं । क्षेत्रविशिष्ट द्रव्यके ज्ञानको क्षेत्रभावप्रमाण कहते हैं । इसीप्रकार कालभावप्रमाणके विषय में भी जानना चाहिये ।
शंका- सूत्रमें भावप्रमाणका स्वतंत्र कथन नहीं किया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उसकी बिना कहे ही सिद्धि हो जाती है । दूसरे भावप्रमाणके विना शेष तीन प्रमाणोंकी सिद्धि भी नहीं हो सकती है, क्योंकि, योग्य अर्थात् मुख्य प्रमाणके अभाव में गौणप्रमाणका होना असंभव है । अथवा, भावप्रमाण बहुवर्णनीय है, अथवा, हेतुवाद और अहेतुवादके अवधारण करनेवाले शिष्योंका अभाव होनेसे सूत्रमें स्वतन्त्ररूपसे भावप्रमाणका कथन नहीं किया है।
अथवा, इस भावप्रमाणका कथन करना चाहिये । वह इस प्रकार है, मिथ्यादृष्टि जीवराशिका संपूर्ण पर्यायों में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसे भागहाररूपसे स्थापित करके संपूर्ण पर्यायोंके ऊपर खंडित, भाजित, विरलित और अपहृत इनका कथन करना चाहिये | आगे उन्हीं चारोंका स्पष्टीकरण करते हैं
संपूर्ण पर्यायों के भागहारप्रमाण खंड करने पर जितने खंड आवें, उनमें से एक खण्डका जितना प्रमाण हो तन्मात्र मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है । इसप्रकार खण्डितका वर्णन समाप्त हुआ ।
पूर्वोक्त भागहारका ही संपूर्ण पर्यायोंमें भाग देने पर जो भजनफल लब्ध आवे तत्प्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है । इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ ।
पूर्वोक्त भागहार को ही विरलित करके और डल चिरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर
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४.] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ५ दिणे तत्थ बहुखंडाणि च्छोड्डिय एगखंडगहिदे मिच्छाइद्विरासिपमाणं होदि । विरलिदं गदं । तं चेव भागहारं सलागभूदं ठवेदूण मिच्छाइद्विरासिपमाणं सव्यपज्जए अवहिरिजदि, सलागादो एगरूवं अवणिज्जदि । पुणो मिच्छाइट्ठिरासिपमाणं सबपज्जयम्मि अवहिरिज्जदि, सलागादो एगं रूवमवणिज्जदि । एवं पुणो पुणो कीरमाणे सव्वपज्जओ व सलागाओ च जुगवं णिद्विदाओ। तत्थ एगवारमवहारिदपमाणं मिच्छाइद्विरासी होदि । अवहिदं गद । मिच्छाइद्विरासिस्स पमाणविसए सोदाराणं णिच्छयुप्पायणटुं मिच्छाइट्ठिरासिस्स पमाणपरूवणं वग्गट्ठाणे खंडिद-भाजिद विरलिद-अवहिद-पमाण-कारण-णिरुत्तिवियप्पेहि वत्तइस्सामो । सुत्ताभावे कधमेदं वुच्चदे ? सुत्तेण सूचिदत्तादो। तं जहा
सिद्धतेरसगुणहाणपमाणं मिच्छाइद्विरासिभाजिदसिद्धतेरसगुणहाणपमाणवग्गं च
संपूर्ण पर्यायोंके समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर उनमेंसे बहुत खण्डोंको छोड़कर और एक खण्डके ग्रहण करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण होता है। इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ।
उसी भागहारको शलाकारूपसे स्थापित करके संपूर्ण पर्यायोंमेंसे मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणको कम करना चाहिये, एकवार कम किया इसलिये शलाकाराशिमेंसे एक घटा देना चाहिये। दूसरीवार मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणको शेष संपूर्ण पर्यायों से घटा देना चाहिये । दूसरीवार मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणको कम किया इसलिये शलाका राशिमेसे एक और कम कर देना चाहिये । इसप्रकार पुनः पुनः करने पर संपूर्ण पर्यायें और उसीप्रकार शलाकाराशि युगपत् समाप्त हो जाती हैं। यहां पर संपूर्ण पर्यायोंमेंसे जितना प्रमाण एकवार घटाया गया है तत्प्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है। इसप्रकार अपहृतका कथन समाप्त हुआ।
अब आगे मिथ्यादृष्टि जीवोंकी राशिके विषय में श्रोताओंको निश्चय उत्पन्न करानेके लिये वर्गस्थानमें खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण बतलाते हैं।
शंका-वर्गस्थानमें खण्डित आदिकके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपक सूत्र नहीं होने पर इसका कथन क्यों किया जा रहा है?
समाधान-सूत्रसे सूचित होने के कारण इसका कथन किया है, जो इसप्रकार है
सिद्ध और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवी जीवराशिको तथा सिद्ध और तेरह गुणस्थानवी जीवराशिके वर्गमें मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणका भाग देने पर
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१, २, ५. ] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं
[४१ सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खिविय तस्स धुवरासि त्ति णाम कादूण ठवेदव्यो २५६ । सम्वजीवरासिउवरिमवग्गे २५६ धुवरासिपमाणमेत्तखंडे कदे तत्थ एगखंडं १३ मिच्छाइहिरासिपमाणं होदि । खंडिदं गदं । धुवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तं मिच्छाइद्विरासिपमाणं होदि । भाजिदं गदं । धुवरासिं विरलेऊण एक्केकस्स रूवस्स सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे समखंडं कादण दिण्णे एगखंडपमाणं मिच्छाइहिरासी
........
जो लब्ध आवे उसको संपूर्ण जीवराशिमें मिला देने पर जितना प्रमाण हो उसकी ध्रुवराशि २५.६ ऐसी संज्ञा करके स्थापित कर देना चाहिये ।
उदाहरण ( बीजगणितसे )जीवराशि = अ+ब; सिद्धतेरहगुणस्थानवर्ती राशि = अ; मिथ्यादृष्टि जीवराशि = ब. इन संकेतोंसे पूर्वोक्त रीतिके अनुसार ध्रुवराशि निम्न आती है
अ+ अ + (अ+ब) = अ + २अब + ब = ( अ + ब) प्रवराशि
१२
१३
(अंकगणितसे) - ३ + 8 + १६ = ३९ + ९ + २०८ = २५६ ध्रुवराशि
इसप्रकार ध्रुवराशिका जितना प्रमाण है (२.५७) उतने संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्ग २५६ के खण्ड करने पर उनमेंसे एक खण्ड १३ मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण होता है । इसप्रकार खण्डितका कथन समाप्त हुआ।
___ संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें धुवराशिका भाग देने पर जितना भजनफल आवे उतना मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है। इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण ( भाजित )- २५६ : २१६ = २१६ ४ ३३३ = १३ मिथ्यादृष्टि राशि ।
ध्रुवराशिका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एक पर संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर उनमेंसे एक खण्डप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है । इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण ( विरलित )- ध्रुवराशि १६ = १९१६
ध्रुवराशिका विरलन और जीवराशिके उपरिम वर्गके समान खंड करके स्थापित करना१३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ ९
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४२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५
होदि । विरलिदं गदं । तं चैव ध्रुवरासिं सलागभूदं ठवेऊण मिच्छाइद्विरासिपमाणं सब्वजीवरासिउवरिमवग्गम्हि अवणीय धुवरासीदो एगरूवमवणिज्जदि । पुणो विमिच्छाइडि सिपमाणं सव्जीवरासिस्सुवरिमवग्गम्हि अवणीय ध्रुवरासीदो एगं रूवमवणिज्जदि । एवं पुणो पुणो कीरमाणे सव्वाजीवरासिउवरिमवग्गो च ध्रुवरासी च जुगवं गिट्टिदा । तत्थ एगवारमवणिदपमाणं मिच्छाइडिरासी होदि । अवहिदं गदं । तस्स पमाणं केत्तियं ? सव्वजीवरासिस्स अनंता भागा अनंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणिति । तं जहा
-
सव्व जीवरासि पढमवग्गमूलं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स सव्वजीवरासिं समखंड
अतः एक खंड १३ प्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि हुई।
पूर्वोक्त ध्रुवराशिको शलाकारूपसे स्थापित करके और मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणको संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके प्रमाणमेंसे निकालकर शलाकाभूत ध्रुवराशिमें से एक कम कर देना चाहिये । फिर भी मिथ्यादृष्टि राशिके प्रमाणको शेष संपूर्ण जीवराशिके उपरि वर्ग के प्रमाण में से न्यून करके ध्रुवराशिमें एक और कम कर देना चाहिये । इसप्रकार पुनः पुनः करने पर संपूर्ण जीवराशिका उपरिम वर्ग और ध्रुवराशि युगपत् समाप्त हो जाती है । इसमें एकवार निकाली हुई राशिका जितना प्रमाण हो उतनी मिथ्यादृष्टि जीवराशि है । इसप्रकार अपहृतका वर्णन समाप्त हुआ ।
उदहारण
अपहृत ) -
शलाकारूप ध्रुवराशि १९ १३ जीवराशिका उपरिम वर्ग २५६
-१
-१३
२४३
-१३
२३०
१८१३
- १
१७१३
इस क्रमसे उपरिम वर्गमैसे मिध्यादृष्टि राशिका प्रमाण और ध्रुवराशिमेंसे एक एक घटाते जाने पर शलाकाराशि और उपरिम वर्गराशि एक साथ समाप्त होंगे। इनमें एकवार घटाई जानेवाली संख्या १३ प्रमाण मिथ्यादृष्टि हैं ।
शंका
- उस मिध्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण कितना है ?
समाधान - संपूर्ण जीवराशिके अनन्त बहुभागप्रमाण मिध्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है, जो प्रमाण संपूर्ण जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलों के बराबर होता है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है
संपूर्ण जीवराशि के प्रथम वर्गमूलको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक
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१, २, ५.] दवपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं
[४३ काऊण दिण्णे रूवं पडि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलपमाणं पावदि । पुणो सिद्धतेरसगुणठाणेहि भजिदसव्धजीवरासिपढमवग्गमूलं पुयविरलणाए हेट्ठा विरलिय उवरिमविरलणाए एगपढमवगमूलं घेत्तूण समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सिद्धतेरसगुणहाणपमाणं पावेदि । तत्थुवरिमविरलणयरूवूणमेत्तसव्यजीवरासिपढमवग्गमूलाणि रूवृणहेद्विमविरलणमैत्तसिद्धतेरसगुणहाणपमाणाणि च घेतूण मिच्छाइट्ठिरासी होदि । पमाणं गदं । केण कारणेण ? सव्वजीवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमनग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? सव्व
एकके ऊपर जीवराशिको समान खण्ड करके देवरूपसे दे दने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति संपूर्ण जीवराशिका प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है। अनन्तर सिद्धराशि और सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके प्रथम वर्गमूल में भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे पहले विरलनके नीचे विरलित करके उपरिम विरलनके एकके प्रति प्राप्त संपूर्ण जीवराशिके प्रथम वर्गमूलको ग्रहण करके और उसके समान खण्ड करके अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर देयरूपसे स्थापित करने पर प्रत्येक एकके प्रति सिद्धराशि और सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवराशि का प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर उपरिम विरलनमें प्ररूपण किये गये संपूर्ण जीवराशिके एक कम प्रथम वर्गमूलोंको और एक कम अधस्तन विरलनमात्र सिद्ध और सापादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवोंके प्रमाणको मिला देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण होता है । इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण ( प्रमाण )- जीवराशि = १६; प्रथम वर्गसूल=४, सिद्धतेरस-३ (१ विरलन वर्गमूल ) ४ ४ ४ ४
- , १ सिद्धतेरसका प्रथम वर्गमूलमें
३ भाग देने पर लब्ध (२ विरलन) ३ १
(अतः मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण प्रथम विरलनकी शेष तीन राशियां ४+४+४=१२ और दूसरे चिरलनमें प्रथम राशि (सिद्धतेरस) को छोड़कर दूसरी राशि १ मिला देने पर मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण १२+१=१३ आ जाता है।)
किस कारणसे?
शंका-संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर कौनसी राशि आती है ?
समाधान-संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर संपूर्ण जीवराशि ही आती है।
उदाहरण ( बीजगणितसे)-जीवराशि क; = = क
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४.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ५. जीवरासी चेव आगच्छदि । दुभागभहियसव्वजीवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? तिभागहीणसव्वजीवरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? सव्वजीवरासिवग्गक्खेत्तं पुव्वावरायामेण तिणि खंडाणि करिय तत्थेगखंडं घेत्तूण खंड करिय संधिदे सव्वजीवरासिदुभागवित्थारं वेति । भागायामखेतं होदि। एदं अधियविरलणाए दिण्णे एकेकस्स रूवस्स तिभागहीणसव्वजीवरासी पावेदि। तिभागब्भहियसव्वजीवरासिणा सयजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? चउभागहीण
( अंकगणितसे )-२५६ : १६ = १६ शंका-दूसरा भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर कौनसी राशि आती है ?
समाधान-तीसरा भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आती है। उदाहरण ( बीजगणितसे)- क'__ = २ क = क - क
क
३
"
.
क
+
( अंकगणितसे )- १६ का दुसरा भाग ८ है; अतः द्वितीय भाग ८ अधिक १६ = २४ का २५६ में भाग देने पर १०२ आता है, जो जीवराशि १६ का तीसरा भाग हीन है।
शंका-दूसरा भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर तीसरा भाग हीन जीवराशि किस कारणसे आती है ?
समाधान-संपूर्ण जीवराशिके वर्गरूप क्षेत्रके पूर्व और जीवराशिवर्ग पश्चिमके विस्तारसे तीन खंड करके और उनमें से एक खंड ग्रहण १ करके उसके भी दो खंड करके संधित अर्थात् प्रसारित कर देने पर २ संपूर्ण जीवराशिका दूसरा भागरूप विस्तार जाना जाता है । यही ३ | भागायाम क्षेत्र है। इसको अधिक विरलन राशिके प्रत्येक एकके ऊपर देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति तीसरा भागहीन संपूर्ण जीवराशि प्राप्त होती है।
शंका-तीसरा भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर वया आता है ?
समाधान-चौथा भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आती है। यहां पर भी कारणका पहलेके समान कथन करना चाहिये। अर्थात् संपूर्ण जीवराशिके वर्गरूप क्षेत्रके पूर्व और पश्चिम विस्तारसे चार खण्ड करके और उनमें से एक खण्डके तीन खण्ड करके प्रसारित कर देने पर संपूर्ण जीवराशिका तीसरा भागरूप विस्तार जाना जाता है। अनन्तर इन खण्डोंको
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१, २, ५.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपख्वणं सव्यजीवरासी आगच्छदि । एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । एवं संखेजभागब्भहियसव्यजीवरामिणा तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? संखेज्जभागहीणसव्यजीवरासी आगच्छदि । उक्कस्ससंखेज्जभागब्भहियसव्वजीवरासिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? जहण्णपरित्तासंखेज्जभागहीणसव्वजीवरासी आगच्छदि । असंखेज्जभाग
भहियसबजीवरासिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? असंखेज्जभागहीणसधजीवरासी आगच्छदि । उक्कस्स-असंखेज्जासंखज्जभागभहियसव्यजीवरासिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? जहण्णपरित्ताणंतभागहीणसव्वजीवरासी आगच्छदि ।
अधिक विरलन राशिके प्रत्येक एकके ऊपर दे देने पर चौथा भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आ जाती है।
उदाहरण ( बीजगणितसे)- २ क = क - क
क+
क+ क
न+१+ - क
( अंकगणितसे )- (१६ का तीसरा भाग ५३ है, अतः तृतीय भाग ५१+१६=२१३ का २५६ में भाग देने पर १२ आते हैं, जो जीवराशि १६ का चौथा भाग हीन है।)
शंका- इसीप्रकार संख्यातवां भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर क्या आता है ?
समाधान -- संख्यातवां भागहीन संपूर्ण जीवराशि आती है। उदाहरण (बीजगणितसे )- क . न ... क
न+१
'' न शंका-उत्कृष्ट संख्यातवां भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर क्या आता है ?
समाधान - जघन्य परीतासंख्यातवां भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आती है।
शंका- असंख्यातवां भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गम भाग देने पर क्या आता है ?
समाधान-असंख्यातवां भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आती है।
शंका-- उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातयां भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीपराशिके उपरिम धर्गमें भाग देने पर कौनसी राशि आती है ?
समाधान-जघन्य परीतानन्तवां भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आती है।
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४६] छवखंडागमे जीवहाणं
[ १, २, ५ अणंतमागब्भहियसव्वजीवरामिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? अणंतभागहीणसव्वजीवरासी आगच्छदि । सव्वत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । एत्थ उवउज्जंतीओ गाहाओ
अवहारवडिरूवाणवहारादो हु लचअवहारो। रूवहिओ हाणीए होदि हु वड्डीए विवरीदो ॥ २४ ॥ अवहारविसेसेण य छिण्णवहाराटु लद्धरूवा जे । रूवाहियऊणा वि य अवहारो हाणिवडीणं ॥ २५ ॥ लद्धविसेसच्छिण्णं लद्धं रूवाहिऊणयं चापि । अवहारहाणिवडीणवहारो सो मुणेयव्वो ॥ २६ ॥
शंका-- अनन्तवां भाग अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर कौनसी राशि आती है ? ।
समाधान-अनन्तवां भाग हीन संपूर्ण जीवराशि आती है । सर्वत्र कारणका कथन पहले के समान करना चाहिये । अब यहां पर उपयुक्त गाथाएं दी जाती हैं
भागहारमें उसीके वृद्धिरूप अंशके रहने पर भाग देनेसे जो लन्ध भागहार (हर) आता है वह हानिमें रूपाधिक और वृद्धि में इससे विपरीत अर्थात् एक कम होता है ॥२४॥
उदाहरण ( बीजगणितसे )
क
...
- Dक
न
-
१
(अंकगणितसे)-- (१)* = = १ - ३ (२) २
= ३ = १ + !
भागहार विशेषसे भागहारके छिन्न अर्थात् भाजित करने पर जो संख्या आती है उसे रूपाधिक अथवा रूपन्यून कर देने पर वह क्रमसे हानि और वृद्धिमें भागहार होता है ॥ २५॥
लन्ध विशेषसे लन्धको छिन्न अर्थात् भाजित करने पर जो संख्या उत्पन्न हो उसे एक अधिक अथवा एक कम कर देने पर वह क्रमसे भागहारकी हानि और वृद्धिका भागहार होता है॥२६॥
उदाहरण गाथा २५-२६ के(बीजग
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१, २, ५.]
[४७
दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं लद्धंतरसंगुणिदे अवहोरे भज्जमाणरासिम्हि । पक्खित्ते उप्पज्जइ लद्धसहियस्स जो रासी ॥ २७ ॥ हारान्तरहृतहाराल्लब्धेन हतस्य पूर्वलब्धस्य । हारहृतभाज्यशेषः से चान्तरं हानिवृद्धी स्तः ॥ २८ ॥
वद्धिका--
प
+
म
बुद्धिापर्फम पर हानिका- पम - -
हानिका
-
-
( अंकगणितसे)वृद्धिका- ३६ = १; ३६ = ६; ६ छिन्न अवहार + १ = + १ = ५,
९.५ = १८ हानिरूप अवहार। ३६१ = १० वृद्धिरूप लब्ध. हानिका - ३ - १ = ३, ९३ = १८; ३६ = २ = ६ - ४ हानिरूप लब्ध. (भागहारके स्थानमें लब्ध लेकर प्रक्रिया करनेसे पहलेके समान ही भागहार आ जाता है।)
दो लब्ध राशियोंके अन्तरसे भागहारको गुणित करके और इससे जो उत्पन्न हो उसे भज्यमान राशिमें मिला देनेपर अधिक लब्धकी जो भज्यमान राशि होगी वह उत्पन्न होती है ॥२७॥
उदाहरण (बीजगणितसे )- स, = ड, ब (स-ड) + क = व स = अ
( अंकगणितसे )--भज्यमान राशि ४० और ३६, भाजक ४, ४०:४१०, ३६:४९, १०.९=१ लब्धान्तर ४४१४+३६=४० अधिक लब्धकी भज्यमान राशि ।
'हारान्तरसे अर्थात् हारके एक खंडसे हारको अपहृत करके जो लब्ध आवे उससे पूर्व लब्धको गुणित करने पर उत्पन्न हुई राशिका (और नये लब्धका) भागहारसे भाजित भाज्यशेष ही अन्तर है जो हानि और वृद्धिरूप होता है ॥२८॥
१ प्रतिषु । हृतस्य ' इति पाठः । २ प्रतिषु शेषस्य चा.' इति पाठः । किन्तु अजमेरस्थप्रतौ अत्र स्वीकृतः पाठः उपलभ्यते ।
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४८]
[१. २, ५.
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं अवणयणरासिगुणिदो अवणयणेणूणएण लद्धेण । भजिदो हु भागहारो पक्खेवो होदि अवहारो ॥ २९॥
ल
उदाहरण ( बीजगणितसे) --
भज्यमान राशि-न, भाजक-स= अx ब लब्ध-क,
शेष-र (वृद्धिरूप). लब्ध-(क+१), शेष-र' (हानिरूप).
न%(अ-ब)क+र-(१) और न =(अx ब) (क+१)- र'--(२) (१) से न = 4 x क + वृद्धिरूप.
(२) से नब (क+१)---हानिरूप. ( अंकगणितसे)
भज्यमान राशि-२६३, हार-७२, हारांतर-९; २६३.४७ पूर्व लब्ध-३
भाज्य शेष-४७ = ८४३+8" (हारांतरहृतहार-८).
= २९ +:-(वृद्धिरूप).
10.53
४७
२६३ = ८४४ -२५ = ३० - ३ ( हानिरूप). भागहारको अपनयन राशिसे गुणा कर देने पर और अपनयनराशिको लब्धराशिमेंसे घटाकर जो शेष रहे उसका भाग दे देने पर जो लब्ध आता है वह भागहारमें प्रक्षेपराशि होती है ॥ २९॥ उदाहरण ( बीजगणितसे )-- क, इष्ट ख, अपनयन राशि क-ख
___ ब+ व (क-ख) = ब क प्रक्षेप अवहार ( अंकगणितसे )-भज्यमान ३६, भाजक ४; इष्ट ६, ३६:४२,९ - ६-३ अपनयन राशि २२ प्रक्षेप भागहार
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१, २, ५.]
[४९
दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइद्विपमाणपरूवणं पक्खेवरासिगुणिदो पक्खेवेणाहिएण लद्धेण । भजिओ हु भागहारो अवणेज्जो होइ अवहोरे ॥ ३० ॥ जे अहिया अवहारे रूवा तेहिं गुणित्तु पुव्वफलं । अहियवहारेण हिए लद्धं पुव्वफलं ऊणं ॥ ११ ॥ जे ऊणा अवहारे रूवा तेहिं गुणित्तु पुवफलं । ऊणवहारेण हिए लद्धं पुव्वफलं अहियं ॥ ३२ ॥
भागहारको प्रक्षेपराशिसे गुणा कर देने पर और प्रक्षेपसे अधिक लब्धराशिका भाग देने पर जो लब्ध आता है वह भागहारमें अपनेय राशि होती है ॥ ३०॥ उदाहरण ( बीजगणितसे )--- क, इष्ट ख, प्रक्षिप्त राशि (ख-क),
अपनेय भागहार व - ब (ख) - खब ( अंकगणितसे )--३६-९, इष्ट १२; प्रक्षेप ३, अपनेय भागहार ४-१२-४-१३
भागाहारमें जितनी अधिक संख्या होती है उससे पूर्व फलको गुणित करके तथा आधिक अवहारसे हृत अर्थात् भाजित करने पर जो आवे उसे पूर्वफलमेंसे घटा देने पर नया लब्ध आता है ॥३१॥
उदाहरण ( बीजगणितसे )--- = स; नया भागहार- +ड
अ बस नया लब्ध%2111
ब+ड ब +ड
ब+ड
अर्थात् इसे पुराने भजनफल स में से घटा देने
पर नया भजनफल आ जाता है। ( अंकगणितसे )--३६ = ४; १२ नया भागहार; भागाहारमें अधिक ३;
= १, ४ - १ = ३ नया भजनफल. भागहारमें जितनी न्यून संख्या होती है उससे पूर्व फलको गुणित करके तथा न्यून भागहारसे हृत करने पर जो आवे उसे पूर्वफलमें जोड़ देने पर नया लब्ध आता है ॥३२॥
२२
१ ल. क्ष. ४७०.
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५०] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ५. एदाहि गाहाहि पडिबोहियस्स सिस्सस्स पच्छिमवियप्पो वत्तव्यो । तं जहा, सिद्धतेरसगुणट्ठाणावट्टिदमिच्छाइडिभागब्भहियसव्वजीवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? सिद्धतेरसगुणट्ठाणभजिदसयजीवरासिभागहीणसधजीवरासी आग
३४
२
उदाहरण ( बीजगणितसे )---- स; ब - ड नया भागहार;
नया लब्ध = बड-बस-स+ बडड
सड इसे पुराने भजनफल स में जोड़नेसे नया भजन
फल आ जाता है। ( अंकगणितसे)-३६-३, ९ नया भागहार,
१, ३+१=४ नया भजनफल. इन गाथाओंके द्वारा जो शिष्य प्रतिबोधित किया जा चुका है उसको पश्चिम विकल्प बतलाया जाता है । वह इसप्रकार है
शंका-सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवराशिका मिथ्यादृष्टि जीवराशिमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे अधिक संपूर्ण जीवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर कौनसी राशि आती है ? ।
___ समाधान-सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती राशिका संपूर्ण जीवराशिमें भाग देने पर जो प्रमाण लब्ध आवे उतनी कम संपूर्ण जीवराशि आती है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ।
विशेषार्थ-यहां पर जो अन्तिम विकल्प बतलाया गया है उसका गणित पूर्व निश्चित संकेतोंके अनुसार निम्न प्रकार बैठता हैउदाहरण ( बीजगणितसे)-- (अंकगणितसे )
१६२१४ = १६-१६
किन्तु एक तो गणितसे ये राशियां समान नहीं सिद्ध होती, और दूसरे उनका जो फल निकलता है वह मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण न होनेसे प्रकृतमें उसका कोई उपयोग दिखाई नहीं देता। बहुत कुछ सोच विचार करने पर भी हम इस विषयमें ठीक निर्णय पर नहीं पहुंच सके। तथापि विषयके पूर्वापर प्रसंगको देखते हुए यहां अन्तिम विकल्पमें वही बात आना चाहिये जिससे यह प्रकरण प्रारंभ हुआ है, और जिसका कि
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१, २, ५. ]
दव्वपमाणानुगमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं
च्छदित्तिण संदेहो ( ? ) । कारणं गदं । तस्स का णिरुत्ती ? सिद्धतेरसगुणड्डाणपमाणेण सव्वजीवरासिं भागे हिदे जं भागलद्धं तं विरलेऊण एक्केकस्स रूवस्स सव्वजीवरासिं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि सिद्धतेरसगुणद्वाणपमाणं पावदि । तत्थ बहुखंडा मिच्छाइट्ठि सिपमाणं होदि । एयं खंड सिद्धतेरसगुणद्वाणपमाणं हवदि । णिरुत्ती गदा ।
यहां कारण बतलाया जा रहा है, अर्थात सर्वजीवराशि व सिद्धतेरस गुणस्थानवर्ती राशिकी अपेक्षा ध्रुवराशिके द्वारा मिध्यादृष्टि राशिका प्रमाण निश्चित करना । तदनुसार पाठ कुछ निम्न प्रकार होना चाहिये था—
सिद्धतेरसगुणट्टाणेण मिच्छाइ भिजिद सिद्धतेरसगुणहाणवग्गेण च अब्भहियसव्व जीवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? सिद्धतेरसगुणट्टाणहीणसव्व जीवरासी आगच्छदि तिण संदेहो ।
अर्थात् सिद्धतेरस गुणस्थानवर्ती राशिले अधिक और मिध्यादृष्टि राशिसे भाजित सिद्धतेरसगुणस्थानवर्गसे अधिक सर्व जीवराशिका सर्व जीवराशिके उपरिम वर्ग में भाग देने पर क्या आता है ? सिद्धतेरसगुणस्थान राशिसे हीन सर्वजीवराशि आती है, इसमें संदेह नहीं । उदाहरण (बीजगणित से ) = ब = क ब ( मिथ्यादृष्टि )
क
अ
+ क
अ +
३ ३ ३ ३ ३ १ १ १ १ १ १
१
३
[ ५१
ब
१६'
३+१३+१६
( अंकगणितसे ) -
= १३ = १६ - ३ ( मिथ्यादृष्टि )
शंका- इसकी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवरा । शिके प्रमाणके निकालनेकी निरुक्ति क्या है ? समाधान- - सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती राशिका संपूर्ण जीवराशिमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर संपूर्ण जीवराशिको समान खण्ड करके देयरूपसे स्थापित कर देने पर विरलित राशि के प्रत्येक एकके प्रति सिद्ध और सासादन सम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । उसमें अर्थात् विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त खण्डों में एक भाग कम बहुभागरूप मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है और एक भाग सिद्ध और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवोंका प्रमाण है । इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ ।
उदाहरण सर्वजीवराशि १६: सिद्धतेरस ३, १६३६ =५३
इसप्रकार एक खण्ड ३ सिद्ध और सासादनादि तेरह गुणस्थानवर्ती जीवराशिका प्रमाण और शेष बहुभाग १३ मिध्यादृष्टि राशिका प्रमाण हुआ ।
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५२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ५. जो सो वियप्पो सो दुविहो, हेटिमवियप्पा उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेट्ठिमवियप्पं वत्तइस्सामो। तं जहा, वेरूवे हेट्ठिमवियप्पो णत्थि । कारणं सव्वजीवरासीदो धुवरासी अन्भहिओ जादो त्ति । अहरूवे हेडिमवियप्पं वत्तइस्सामो। धुवरासिणा सव्धजीवरासिं गुणेऊण सव्वजीवरासिघणे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? जदि सव्वजीवरासिणा तस्स घणो अवहिरिज्जदि तो सधजीवरासिउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि धुवरासिणा सव्वजीवरासिउपरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि ? एवं मिच्छाइद्विरासिमागमणं मणेणावहारिय गुणेऊण भागग्गहणं कदं। एत्थ दुगुणादिकरणं वत्तइस्सामो। तं जहा, सबजीवरासिणा सधजीवरासिघणे ओवट्टिदे सव्वजीवरासिउवरिमवग्गो आगच्छदि । दुगुणिदसव्यजीवरासिणा सयजीवरासिघणे ओवट्टिदे सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्स दुभागो आगच्छदि । तिगुणिदसधजीवरासिणा सव्वजीवरासिघणे ओवट्टिदे सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्स तिभागो आगच्छदि । अणेण
............................
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तनविकल्प और उपरिमविकल्प । इन दोनों से अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
द्विरूपवर्गधारामें (प्रकृतमें ) अधस्तनविकल्प संभव नहीं है, क्योंकि, संपूर्ण जीवराशिसे ध्रुवराशिका प्रमाण अधिक है। अब अष्टरूप अर्थात् धनधारामें अधस्तनविकल्प बतलाते हैं। ध्रुवराशिसे संपूर्ण जीवराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका संपूर्ण जीवराशिके घनमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, क्योंकि, यदि संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणसे संपूर्ण जीवराशिका घन अपहृत किया जाता है तो संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गका प्रमाण आता है। और फिर ध्रुवराशिके प्रमाणका संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणके उपरिमवर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। इसप्रकार मिथ्यादृष्टिरासि आती है इस बातको मनमें निश्चित करके पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया है। उदाहरण-जीवराशि १६, धुवराशि १९३, १६ ४ १९९३ = ४२९६
जीवराशि १६ का घन ४०९६.४९९६ = १३ मिथ्यादृष्टि अब यहां पर द्विगुणादिकरणविधिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणसे संपूर्ण जीवराशिके घनके अपवर्तित करने पर संपूर्ण जीवराशिके उपरिमघंर्गका प्रमाण आता है (४०९६ : १६ - २५६)। द्विगुणित संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणसे संपूर्ण जीवराशिके घनके अपवर्तित करने पर संपूर्ण जीवराशिके उपरिमवर्गका दूसरा भाग आता है (४०९६ : ३२ = १२८)। त्रिगुणित संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणसे संपूर्ण जीवराशिके घनके अपवर्तित करने पर संपूर्ण जीवराशिके उपरिमवर्गके प्रमाणका तीसरा भाग आता है (४०९६-४८-८५३)। इसप्रकार इसी विधिसे जबतक ध्रुवराशिका प्रमाण
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१, २, ५ ]
दवमाणागमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं
[ ५३
विहाणेण गुणगारो वढावेदव्वो जाव ध्रुवरासिपमाणं पत्तो त्ति । पुणो ध्रुवरासिगुणिदसव्वजीवरासिणा सव्वजीवरासिघणे ओवहिदे सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्स ध्रुवरासिभागो आगच्छदि सो चेव मिच्छाइडिरासी । एदेण कारणेण ध्रुवरासिणा सव्वजीवरासिं गुणेऊण सव्जीवसिघणे ओट्टिदे मिच्छाइट्टिरासी आगच्छदित्ति ।
घणघणे वत्तस्साम । ध्रुवरासिणा सव्वजीवरासिं गुणेऊण तेण घणपढमवग्गमूलं गुणेऊण घणघणपढमवग्गमूले ओवट्टिदे मिच्छाइट्ठिरासी आगच्छदि । केण कारण ? घणपढमवगमूले घणाघणपढमवग्गमूले ओवट्टिदे सव्वजीवरासिस्स घणो आगच्छदि । पुणो वि सव्वजीवरासिणा सव्वजीवरासिघणे ओवहिदे सव्त्रजीवरासिउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि ध्रुवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । एवमागच्छदित्ति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । एत्थ दुगुणादिकरणे कदे वियप समप्पदि ।
१९६३ प्राप्त नहीं हो जाता है तबतक गुणकारको बढ़ाते जाना चाहिये । पुनः ध्रुवराशिसे संपूर्ण जीवराशिको गुणित करने पर जो लब्ध आवे उससे संपूर्ण जीवराशि के घनके अपवर्तित करने पर, संपूर्ण जीवराशिके उपरिमवर्ग में ध्रुवराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे, तत्प्रमाण भाग आता है, और वही मिध्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है । इसी कारणले यह कहा कि ध्रुवराशिसे संपूर्ण जीवराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे संपूर्ण जीवराशिके घनके अपवर्तित करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
उदाहरण - x २ = १३६ ४९६ : ४६ = ४०९६६ = १३ मि.
अब घनाघनमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं । ध्रुवराशिसे संपूर्ण जीवराशिको गुणित करके जो गुणनफल आवे उससे जीवराशिके घनके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो गुणनफल आवे उसके द्वारा घनाघनके प्रथम वर्गमूलको उद्वर्तित करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, क्योंकि, घनके प्रथम वर्गमूलसे घनाघनके प्रथम वर्गमूलको उद्वर्तित करने पर संपूर्ण जीवराशिका घन आता है । अनन्तर संपूर्ण जीवर शिसे संपूर्ण जीवराशिके घनके अपवर्तित करने पर संपूर्ण जीवराशिका उपरिम वर्ग आता है । अनन्तर ध्रुवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्ग में भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है । घनाघनधारा में इसप्रकार जीवराशिका प्रमाण आता है, ऐसा समझ कर पहले गुणा करके, अनन्तर, भागका ग्रहण किया है । यहां पर द्विगुणादिकरणके कर लेने पर अधस्तन विकल्प समाप्त हो जाता है ।
उदाहरण - १६ के घनका प्रथम वर्गमूल ६४, घनाघनका प्रथम वर्गमूल २६२१४४,
१९१३ × १६ × ६४ =
२६२१४४ २६२१४४ १ १३
= १३ मि.
२६२१४४ १३
÷
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५.
उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ गहिदं वत्तस्समो | धुवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ? मिच्छाइसी आगच्छदि । तस्स भागदारस्स अद्धच्छेदणयमेत्तवारं रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे मिच्छाद्विरासी चेत्र अवचिट्ठदे । केण कारणेण ? धुव सिस्स अद्धच्छेद्दणयसलागा जदि सव्वजीवरासिअद्धच्छेदणयसलागाहि सरिसा त्ति घेष्वंति तो घुवरासिं अद्धद्वेण छिदिऊणुव्वराविद सिपमाणं सव्यजीवरासिं मिच्छाइडिरासिणा खंडिदपमार्ग होदि । एवं होदिति काऊण सच्चजीवरासि अद्धच्छेदणयं सलागभूदं द्ववेऊग सव्यजीव रासि उपरिमवग्गे अद्वच्छेदेण छिष्णे सव्त्रजीवरासी आगच्छदि । पुणे मिच्छाइद्विरासि गोवहिद सव्वजीवरासिणा उवरिम
५४ ]
उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहतिगृहीत और गृहीत गुणकार | उनमें से पहले गृहीत उपरिम विकल्पको दिखलाते हैं
शंका - ध्रुवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्ग में भाग देने पर कौनसी राशि आती है ?
समाधान - मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है ( २५६ : २ = १३ )।
ध्रुवराशिप्रमाण भागद्दार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार जीवराशिके उपरिमवर्गरूप राशि अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि ही आ जाती है ।
उदाहरण - ध्रुवराशि १९ है । इसमें से १६ के अर्धच्छेद ४ होते हैं। शेष ३३ के चौथे अर्धच्छेद पर अधिक रहता है, इसलिये १९ के अधिक ४ अर्धच्छेद हुए । अतएव जीवराशि १६ के वर्ग २५६ के इतनीवार अर्थात् ४ + वार अर्धच्छेद करने पर १३ आ जाते हैं ।
१ उ
१ उ
शंका- भागहार राशिके अर्धच्छेदप्रमाण जीवराशिके उपरिम वर्ग के अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि किस कारण से आती है ?
ध्रुवराशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं संपूर्ण जीवराशिकी अर्ध-छेदशलाकाओं के बराबर होती हैं, यदि ऐसा ग्रहण कर लिया जाता है तो ध्रुवराशिको अर्धार्धरूपसे छिन्न करके शेष रही हुई राशिका प्रमाण, संपूर्ण जीवराशिको मिथ्यादृष्टि राशिसे खण्डित करने पर जो लब्ध आता है, उतना होता है ( १६ ÷ १३ = १२३ ) । इसप्रकार होता है, इसलिये संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंको शलाकारूपसे स्थापित करके संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गको अर्धच्छेदोंके बराबर छिन्न करने पर संपूर्ण जीवराशिका प्रमाण आ जाता है । अनन्तर मिथ्यादृष्टि जीवराशिके द्वारा उद्धर्तित संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणसे ऊपर उत्पन्न की हुई संपूर्ण जीवराशिमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है ।
उदाहरण - जीवराशि १६ के अर्धच्छेद ४ के बराबर जीवराशि के वर्ग २५६ के अर्धच्छेद करने पर १६ लब्ध आते हैं। अनन्तर मिथ्यादृष्टिके प्रमाणसे भाजित जीवराशिके प्रमाण
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१, २, ५.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं
[५५ सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । अधवा धुवरासिअद्धच्छेदणया जदि सधजीवरासिउवरिमवग्गस्स अद्धच्छेदणयसरिसा हवंति तो अद्धद्धेण छिण्णावसिट्टरासिपमाणं मिच्छाइद्विरासिणा एगरूवं खंडिदेगखंडपमाणं होदि । पुणो धुवरासिअद्धच्छेदणए सलागा काऊण सधजीवरासिउवरिमवग्गे अद्धद्धेण छिण्णे एगरूत्रमागच्छदि । पुणो तमेगरूवं मिच्छाइट्ठिरासिभजिदेगरूवेण भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि त्ति। अधवा धुवरासिणा सव्वजीवरासिस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण तदुवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि त्ति । केण कारणेण ? सव्वजीवरासिउवरिमवग्गेण तदुवरिमवग्गे भागे हिदे सव्वजीवरासिस्स उवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो धुवरासिणा साजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि त्ति । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स
१६ का जीवराशिके प्रमाण १६ में भाग देने पर १३ मिथ्यादृष्टिका प्रमाण लब्ध आता है।
___ अथवा, ध्रुवराशिके अर्धच्छेद यदि संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके अर्धच्छेदोंके समान होते हैं तो उत्तरोत्तर अर्धाधरूपसे छिन्न करनेके अनन्तर अवशिष्ट रही राशिका प्रमाण, मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे एक रूपको खंडित करके जो एक भाग आता है, उतना होता है। अमन्तर ध्रुवराशिके अर्धच्छेदोंको शलाकारूपसे स्थापित करके संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गको अर्धार्धरूपसे छिन्न करने पर एक आता है। अनन्तर उस एकको मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणसे भक्त एकके द्वारा भाजित करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आ जाती है।
उदाहरण-१६ के उपरिम वर्ग २५६ के अर्धच्छेद ८ के बराबर धुवराशि १९६२ के अर्धच्छेद करने पर आठवां अर्धच्छेद १३ होता है जो १ में मिथ्यादृष्टिके प्रमाण १३ के भाग देने पर जो लब्ध आता है उतनेके बराबर है। पुनः इन ८ अर्धच्छेदोंको शलाका करके २५६ के इतनी बार अर्धच्छेद करने पर १ आता है। पुनः इस १ में १३ का भाग देने पर १३ लब्ध आते हैं, यही मिथ्यादृष्टिराशि है।
___अथवा, ध्रुवराशिके द्वारा संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका उसके उपरिम वर्गमें (जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें) भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आ जाती है, क्योंकि, संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गका उसके उपरिम वर्गमें भाग देने पर संपूर्ण जीवराशिका उपरिम वर्ग आता है। पुनः ध्रुवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण-सर्व जीवराशिका उपरिम वर्ग २५६; सर्व जीवराशिके उपरिम वर्ग २५६
का उपरिम वर्ग ६५५३६, २५६.२५६ ६५५३६, ६५५३६ . ६५५३६.१३
१३ १ १३ १ १३ = १३ उक्त भागहारके अर्धच्छेदप्रमाण उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्याहाष्ट
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५६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ५. अद्धच्छेदणए कदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । एदस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयसलागा केत्तिया ? सबजीवरासीदो उवरि दोण्णि वग्गट्ठाणाणि चडिदाणि त्ति दो रूवे विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थरासिरूवूणेण गुणिदसव्वजीवरासिअद्धच्छेदणयमेत्ता होऊण अंतिमभागहारेण अधिया भवंति । एवं भागहारस्स तिगच्छेदणए सलागा काऊण तीहि तीहि सरूवेहि रासिम्मि भागे हिदे वि मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । एवं चउक्कादिछेदणयसलागाहि वि रासिम्हि छिज्जमाणे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि त्ति परूवेदव्वं । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु बग्गट्ठाणेसु उवरि वत्तव्यं । णवरि भागहारच्छेदणाओ संकलिजमाणे एवं संकलेदवाओ। तं जहा, सबजीवरासीदो चडिदद्धाणमेत्तवग्गसलागाओ विरलिय विगं करियण्णोण्णभत्थरासिरूवणेण सव्वजीवरासिच्छेदणए गुणिदे भागहार
जीवराशि आती है।
शंका-इस भागहारकी अर्धच्छेदशलाकाएं कितनी है?
समाधान-संपूर्ण जीवराशिके ऊपर दो वर्गस्थान जाकर वह भागहार उत्पन्न हुआ है, इसलिये दोका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो संख्या उत्पन्न हो उसमेंसे एक कम करके अवशिष्ट राशिके द्वारा संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंको गुणित करके जो प्रमाण आवे उसे अन्तिम भागहारसे अधिक करने पर अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। उदाहरण-२४२-४-१=३४४ =
अधिक उक्त भागाहारके कुल
अर्धच्छेद होते हैं।
इसीप्रकार भागहारके त्रिकच्छेदोंको शलाका करके तीन तीनका राशिमें भाग देने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि आ जाती है। इसीप्रकार चतुर्थ आदि छेद शलाकाओंके द्वारा भी राशिके छिन्न करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, ऐसा कथन करना चाहिये । उदाहरण-२३ के ६३२९ २१० इसप्रकार २ त्रिकछेद हैं, अतः इतनीवार २५६ में
___३ का भाग देने पर १३ लब्ध आ जाते हैं। इसीप्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानोंके ऊपर भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भागहारके अर्धच्छेदोंका संकलन करते समय इसप्रकार संकलन करना चाहिये । आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं
संपूर्ण जीवराशिसे जितने वर्गस्थान ऊपर गये हो उतनी वर्गशलाकाओंका विरलन करके और उस विलित राशिके प्रत्येक एकको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे एक कम करके शेष राशिसे संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंको गुणित करने
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१, २, ५. ]
दवमाणागमे मिच्छाइट्ठिपमाणपरूवणं
[ ५७
छेदणया भवंति । सव्वत्थ दुगुणादिकरणं पिवत्तन्वं । तदो वेरूवधारापरूवणा समता भवदि ।
अवधारा गहिदं वत्तहस्सामा । ध्रुवरासिणा सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्सुवरिमवगं गुणेऊण तेण arraftaarगे भागे हिदे मिच्छाइट्ठिरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्तुवरिमवग्गेण घणउवरिमवग्गे मागे हिदे सव्वजीवरासिउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि धुत्ररासिणा सब्वजीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइट्टिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेते रासिस्स अद्धच्छेद कदे विमिच्छाइट्ठरासी चेत्र अवचिदे | तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणया केत्तिया ? एगरूवं विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्थरासिणा तिगुण'
पर भागदार राशिके अर्धच्छेद होते हैं । सर्वत्र द्विगुणादिकरणका भी कथन करना चाहिये । तब जाकर द्विरूप वर्गधाराका प्ररूपण समाप्त होता है ।
अब अष्टरूपधारा अर्थात् घनधारामें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैंध्रुवराशिके द्वारा संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका जीवराशिके घनके उपरिम वर्ग में भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आ जाती है, क्योंकि, संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका जीवराशिके धनके उपरि वर्ग में भाग देने पर संपूर्ण जीवराशिका उपरिम वर्ग आता है । अनन्तर ध्रुवराशिका संपूर्ण जीवराशि उपरिम वर्ग में भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। घनधारामें इसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका प्रहण किया है।
१६ १६ २५६ १६७७७२१६
- x
x
१. १ १३
१३
उदाहरण
१६७७७२१६ १
=
१६७७७२१६ १३
१३ मिथ्यादृष्टि.
उक्त भागद्वारके अर्धच्छेदप्रमाण उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्याष्टि जीवराशि ही आ जाती है ।
शंका - उक्त भागहार के अर्धच्छेद कितने हैं ?
÷
,
समाधान - एकका विरलन करके और उसे दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि आवे उसे गुणित करके और उसमेंसे एक कम करके जो राशि रहे उससे संपूर्ण
१ प्रतिषु ' - रासिण। गुण-' इति पाठः ।
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५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ५. रूवूणेण गुणिदसयजीवरासिच्छेदणयमेत्ता हवंति । उपरि सवत्थ दोरूवादीणमण्णोण्ण
भत्थरासिणा तिगुणरूवूणेण गुणिदसधजीवरासिच्छेदणयमेत्ता हवंति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु णेयव्यं । सव्वत्थ दुगुणादिकरणं कायव्यं । एवं कदे अट्ठपरूवणा समत्ता भवदि।
घणाघणे गहिदं वत्तइस्सामो। धुवरामिणा सधजीवरासिउवरिमवग्गस्सुबारिमवग्गं गुणेऊण तेण घणउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणाघणउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? घणउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गेण घणाघणउवरिमवग्गे भागे हिदे घणउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गेण घणउपरिमवग्गे भागे हिदे सयजीवरासिउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि धुवरासिणा सव्व जीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ठ गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते
जीवराशिके अर्धच्छेदोंको गुणित करने पर जो संख्या आवे उतने उक्त भागहारके अर्धच्छेद होते हैं।
उदाहरण-२ = २४३ = ६ - १ = ५४४ = २० अर्धच्छेदः पर अन्तिम ११३ होगा।
ऊपर सर्वत्र दो संख्या आदिका परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे त्रिगुणित करके और उस त्रिगुणित राशिमेंसे एक कम करके शेष राशिसे संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंको गुणित करने पर अर्धच्छेदोंका प्रमाण होता है। इसीप्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त स्थानों में भी लगा लेना चाहिये । सर्वत्र द्विगुणादिकरण भी करना चाहिये । इसप्रकार करने पर घनधारा समाप्त होती है।
अब घनाघनधारामें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-ध्रुवराशिसे संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जीवराशिके घनके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनके उपरिम वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, क्योंकि, घनके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनाघनके उपरिम वर्गमें भाग देने पर घनका उपरिम वर्ग आता है। फिर संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनके उपरिम वर्गमें भाग देने पर संपूर्ण जीवराशिका उपरिम वर्ग आता है। फिर ध्रुवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। घनाघनधारामें इसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव. राशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया है। उदाहरण-१६३ ४ १६३ ४ १६३ = ६८७१९४७६७३६;
६८७१९४७६७३६ -१३ मिथ्यादृष्टि, ६५५३६४ २०६४ १६७७७२१६
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१, २, ५.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइद्विपमाणपरूवणं
[५९ रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणया केत्तिया ? एगरूवं विरलेऊण विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा णवगुणरूवूणेण सधजीवरासिच्छेदणए गुणिदमेत्ता । उवरि सधस्थ चडिदद्धाणसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा णगुणरूवृणेण गुणिदसव्वजीवरासिच्छेदणयमेत्ता भवंति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । सव्वत्थ दुगुणादिकरणं पि कायव्वं । एवं कदे घणाघगपरूवणा समत्ता भवदि ।
गहिदगहिदं वत्तइस्सामो । सयजीवरासिउवरिमवग्गस्स अणंतिमभागेण मिच्छाइढिरासिणा उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तम्हि चेव वग्गे भागे हिदे
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि आ जाती है।
उदाहरण-उक्त भागहार के ६८ अर्धच्छेद होंगे, पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होगा। अतः इतनीवार उक्त भाज्य राशिके छेद करने पर लब्ध १३ मिथ्यादृष्टि राशि आती है।
शंका- उक्त भागहारके अर्धच्छेद कितने हैं ?
समाधान-एकका विरलन करके और उसे दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे नौ से गुणा करके जो लब्ध आवे उसमें से एक कम करके जो राशि शेष रहे उसे संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंसे गुणित कर देने पर जो राशि आवे उतने उक्त भागद्वारके अर्धच्छेद हैं।
-२-२४९=१८-१= १७४४६८.
उG
आगे सर्वत्र जितने स्थान ऊपर जावें तत्प्रमाण शलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे नौसे गुणा करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करके शेष राशिको संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंसे गुणित कर दे। ऐसा करने पर घनाघनधारामें विवक्षित भागहारके अर्धच्छेद आ जावेंगे । इसीप्रकार घनाघनधाराके संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानोंमें भी लगा लेना चाहिये । सर्वत्र द्विगुणादिकरण भी कर लेना चाहिये। इसप्रकार करने पर घनाघनधाराकी प्ररूपणा समाप्त होती है।
___ अब ग्रहीतगृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते है-संपूर्ण जीवराशिक उपरिम वर्गके अनन्तिम भागरूप मिथ्यादृष्टि जीवराशिका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका उसी वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण-उपरिम वर्ग २५६ का इच्छित वर्ग ६५५३६, ६५५३६ . १३ ६५५३६, ६५५३६. ६५५३६ ....
--१३मिथ्याधि, १३
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६०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ५. मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी चेव अवचिट्ठदे । तस्सद्धच्छेदणया केत्तिया ? मिच्छाइट्ठिरासिअद्धच्छेदणएणूणतन्भजिदरासिअद्धच्छेदणयमेत्ता । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । घेरूवपरूवणा गदा । अदुरूवं वत्तइस्सामो । सव्यजीवरासिघणस्स अणंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तम्हि चेव वग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आग-' च्छदि। तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी आगच्छदि त्ति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्यं । एवमहरूवपरूवणा गदा । घणाघणे वत्तइस्सामो । घणाघणपढमवग्गमूलस्प अणंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्याहष्टि जीवराशि ही आती है।
उदाहरण-उक्त भागहरके १२ अर्धच्छेद होंगे, पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होगा। अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ आती है।
शंका-उक्त भागहारके अर्धच्छेद कितने हैं ?
समाधान-जिस राशिमें मिथ्यादृष्टि राशिका भाग दिया गया है उसके अर्धच्छेदों से मिथ्यादृष्टि राशिके अर्धच्छेद कम कर देने पर उक्त भागहारके अर्धच्छेद होते हैं । इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानों में भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें द्विरूपवर्गधाराकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें अष्टरूप अर्थात् घनधाराको बतलाते हैं
संपूर्ण जीवराशिके घनके अनन्तिम भागका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आधे उसका उसी वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-धनराशि ४०९६ का इच्छित वर्ग १६७७७२१६, १६७७७२१६ . १३. १६७७७२१६, १६७७७२१६ . १६७७७२१६ .. ११ १३ १
१७२५६ = १३ मिथ्यादृष्टि.
१३ - १२॥ उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके २० अर्धच्छेद होंगे पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होगा। अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ आती है।
इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानोंमें भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें धनधाराकी प्ररूपणा समाप्त हुई । अब घनाघनधारामें गृहीत. गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं
भनाधनके प्रथम वर्गमूलके अनन्तिम भागका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो
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[६१
१, २, ५.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तम्हि चेव वग्गे मागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि। तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइट्ठिरासी चेव आगच्छदि । (एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्यं)। एवं घणाघणपरूवणा गदा । गहिद गहिदं गदं।
गहिदगुणगारं वत्तइस्सामो। वेरूवे सधजीवरासिउवरिमवग्गस्स अणंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तमेव वग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे मागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेसे रासिस्म अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी चेव अवचिट्ठदे । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसुणेयव्यं ।
भाग लब्ध आवे उसका उसी वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। । उदाहरण-घनाघनका प्रथम वर्गमूल २६२१४४,
२६२१४४ . १३ २६२१४४, २६२१४४.२६२१०० = १३ मिथ्यादृष्टि. १ १ १३
१
१३ १३मध्याहाष्ट. उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्याराष्टि राशि ही आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके ३२ अर्धच्छेद होंगे पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होता है। अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्या दृष्टि राशि १३ आती है।
(इसीप्रकार संख्येय, असंख्येय और अनन्त वर्गस्थानोंमें भी लगा लेना चाहिये)। इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें घनाघनकी प्ररूपणा समाप्त हुई। इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पका कथन समाप्त हुआ।
__ अब गृहीतगुणकार उपरिम विकल्पको बतलाते है-हिरूप वर्गधारामें संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके अनन्तवें भागका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे उसी वर्गराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका उक्त वर्गराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-उपरिम वर्ग २५६ का इच्छित वर्ग ६५५३६,
६५५३६२ . ६५५३६ = १३ मिथ्याष्टि.
१३
शमच्चावाट.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि ही आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके २८ अर्धच्छेद होते हैं। अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होता है। अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्याष्टि राशि १३ भाती है।
इसप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानों में भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५.
६२ ] वेरूवपरूवणा गदा । अहरूवे वत्तहस्सामा | घणस्स अनंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तमेव वग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइट्ठिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे विमिच्छाइडिसी चेव आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । अपरूवणा गदा । घणाघणे वत्तइस्लामो । घणाघणपढमवग्गमूलम्स अनंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तमेव वग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइट्ठिरासी
गृहीतगुणकार उपरम विकल्पमें द्विरूप वर्गधाराकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब अनुरूप धारामें गृहीतगुणकार उपरम विकल्पको बतलाते हैं
घनके अनन्तिम भागका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे उसी वर्गराशिको गुणित करके लब्ध राशिका उक्त वर्गराशिके उपरिम वर्ग में भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है ।
उदाहरण- घनराशि ४०९६ का इच्छित वर्ग. १६७७७२१६६
१६७७७२१६ १३ _ १६७७७२१६, १३ १६७७७२१६२ १
÷ K १
१ १६७७७२१६९
१३
=
१३ १६७७७२१६' १३
= १३ मिथ्यादृष्टि.
उक्त भागहार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि ही आती है ।
उदाहरण - उक्त भागहारके ४४ अर्धच्छेद प्रमाण उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ लब्ध आती है ।
इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीतगुणकार उपरम विकल्पमें अष्टरूप प्ररूपणा समाप्त हुई । अब घनाघनधारामें उसीको बतलाते हैं—
१६७७७२१६ १६७७७२१६
१
÷
घनाघनके प्रथम वर्गमूलके अनन्तिम भागका ऊपर इच्छित वर्ग में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे उसी वर्गराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका उक्त वर्ग राशिके उपरिम वर्ग में भाग देने पर मिध्यादृष्टि जीवराशि आती है ।
÷ =
१
उदाहरण – घनाघन के प्रथम वर्गमूल २६२१४४ का इच्छित वर्ग ६८७१९४७६७३६६ ६८७१९४७६७३६ १३_६८७१९४७६७३६,
१३
१ ६८७१९४७६७३६
१
X
X
=
६८७१९४७६७३६_६८७१९४७६७३६',
=
१३
६८७१९४७६७३६२ ६८७१९४७६७३६२
१३
१३
= १३ मिध्यादृष्टि.
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१, २, ६. ]
दव्त्रपमाणानुगमे सासणसम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं
[ ६३
आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे विमिच्छाइसी चैत्र आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु यव्त्रं । घणाघणपरूवणा गदा ।
(साससम्म इपिडि जाव संजदा संजदा त्ति दव्वपमाणेण केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममनहरिज्जदि अंतोमुडुत्तेण ॥ ६ ॥ )
एत्थ नाव सासणसम्माइहिरासिस्स पमाणपरूवणं वत्तइस्सामो । सासण सम्माइडी दव्यमाणेण केवडिया ? पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागो । खेत्तकालपमाणेहि किमिदि
उक्त भागहार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि ही आती है ।
उदाहरण - उक्त भागहार के ६८ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ आती है ।
इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहतिगुणकार उपरम विकल्पमें घनाघनप्ररूपणा समाप्त हुई ।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं । इन चार गुणस्थानों में प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के प्रमाणकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है ॥ ६ ॥
उनमें से पहले यहां सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण बतलाते हैं
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितनी है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है ।
-
विशेषार्थ – आगे अंकसंदृष्टि से सासादन सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवर्ती जीवराशिका प्रमाण लाने के लिये पल्योपमका प्रमाण ६५५३६ और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण लाने के लिये अवहारकालका प्रमाण ३२ कल्पित किया है । इसप्रकार सासा दनसम्यग्दृष्टिके अवहारकाल ३२ का ६५५३६ प्रमाण पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण २०४८ आता है जो कि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है । अर्थप्ररूपणा भी इसीप्रकार जान लेना चाहिये ।
शंका- यहां क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणकी अपेक्षासे भी सासादनसम्यग्दृष्टि
१ सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यङ् मिथ्यादृष्टयोऽसंयत सम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्च पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि., १, ८. मिच्छा सावयसा सण मिस्सा विरदा दुवारणंता य । पल्लासंखेज्जदिममसंखगुणं संखसंखगुणं ॥ गो. जी. ६२४. पल्या संख्यात भागास्तु परे गुणचतुष्टये । पं. सं. ५९. सासायण इचउरो होंति असंखा ॥ पञ्चसं. २, २२.
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६४) छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ६. सासणसम्माइटिपरूवणा ण परूविदा ? ण, एत्थ मिच्छाइद्विस्सिव तेहि परूवेदधस्स कारणाभावा । किं तत्थ कारणं ? वुच्चदे--असंखेज्जपएसिए लोए कधमणंतो जीवरासी सम्मादि त्ति जादसंदेहणिराकरण खेत्तपमाणं वुचदे । आयविरहिदस्स सिझंतजीवे अवेक्खिय सव्ययस्स सबजीवरासिस्स किं वोच्छेदो होदि, ण होदि त्ति जादसंदेहणिराकरणलं कालपमाणं परूविज्जदि। ण च एदेसु कारणेसु एकं पि कारणमेत्थ संभवइ, अणुवलंभादो । तम्हा खेत्तकालपरूवणा सासणादीणं गंथे ण परूविदा । एत्थ
जीवराशिका प्ररूपण क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीवराशिका क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणकी अपेक्षासे प्ररूपण करनेका कारण था, उसप्रकार यहां पर उक्त दोनों प्रमाणोंके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्ररूपण करनेका कोई कारण नहीं है । अतएव उक्त प्रमाणोंके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्ररूपण नहीं किया।
शंका- वहां पर उक्त दोनों प्रमाणोंके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्ररूपण करनेका क्या कारण है?
समाधान- असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनन्तप्रमाण जीवराशि कैसे समा जाती है, इसप्रकारसे उत्पन्न हुए संदेहके दूर करनेके लिये क्षेत्रप्रमाणका कथन किया जाता है । तथा आयरहित और सिद्धयमान जीवोंकी अपेक्षा व्ययसहित संपूर्ण जीवराशिका विच्छेद होता है या नहीं, इसप्रकार उत्पन्न हुए संदेहके दूर करनेके लिये कालप्रमाणका प्ररूपण किया जाता है। परंतु इन कारणोंमेंसे यहां पर एक भी कारण संभव नहीं है, क्योंकि, यहां पर कोई भी कारण नहीं पाया जाता है। अतः क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्ररूपण ग्रन्थमें नहीं किया।
विशेषार्थ-शंकाकारका कहना है कि जिसप्रकार पहले मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपण करते समय 'अणंताणताहि ओसप्पिणिउस्सपिणीहि ण अवहिरंति कालेण' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका कालकी अपेक्षा प्रमाण कहा है, और खेत्तेण अणंताणंता लोगा' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण कहा है, उसीप्रकार प्रकृतमें भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण क्षेत्र और कालप्रमाणकी अपेक्षासे कहना चाहिये। शंकाकारकी इस शंकाका समाधान इसप्रकार समझना चाहिये कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त होते हैं, अतएव उनका असंख्यातप्रदेशी लोकाकाशमें रहना असंभव है ऐसी शंका किसीको हो सकती है। अतः इसके परिहारके लिये मिथ्यादृष्टि जीवराशिका क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा प्ररूपण किया। दूसरे, मोक्षको जानेवाले जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका व्यय तो निरंतर चालू है पर उनकी वृद्धि कभी भी नहीं होती इसलिये उनका अभाव हो जायगा, ऐसी शंका भी किसीको हो सकती है, अतएव इसके परिहार करनेके लिये कालप्रमाणकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्ररूपण किया कि अनन्तानन्त
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१, २, ६. ]
दव्यपमाणानुगमे सासणसम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं
[ ६५
भागहारमा तमुत्तमिदि सासणसम्माइट्ठिआदिरासिपमाणविसयणिण्णयुप्पायणटुं परूविदं । तं च अंतमुत्तमणेयवियष्पं तदो एत्तियमिदि ण जाणिज्जदि । तत्थ णिच्छयजणणणिमित्तं किंचि अद्धापरूवणं कस्सामो । तं कथं ? असंखेज्जे समए घेत्तूण एया आवलिया हवदि । तप्पा ओग्गसंखेज्जावलियाओ घेत्तूण एगो उस्सासो हवदि । सत्त उसासे घेतू एगो थोवो हवदि । सत्त थोवे घेतूण एगो लवो हवदि । अठतीस लवे अद्धलवं च घेत्तूण एगा णालिया हवदि । उत्तं च
उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियोंके हो जाने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि समाप्त नहीं हो सकती है । परंतु सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के संबन्धमें इन दोनों प्रश्नों में से कोई प्रश्न उपस्थित नहीं होता है, क्योंकि, वे केवल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अतः उनकी लोकाकाशमें अवस्थिति कैसे होगी, यह बात नहीं कही जा सकती है । और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव, यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होते रहते हैं इसलिये उनका व्यय होता है, फिर भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमैसे उसी अनुपात से सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होते रहते हैं, अतएव व्ययके समान आय भी निरंतर चालू है । इसलिये उनका अभाव हो जायगा, यह भी नहीं कहा जा सकता है। इसप्रकार क्षेत्र और कालप्रमाणकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका प्रमाण कहने के लिये कोई कारण नहीं होनेसे उक्त प्रमाणोंके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका कथन नहीं किया ।
आवलि असंखसमया संखेज्जावलिसमूह उस्सासो । सत्तासो थोवो सत्तत्थोवा लवो एक्को' ॥ ३३ ॥ )
सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवराशिका प्रमाण कहते समय भागहारका प्रमाण जो अन्तर्मुहूर्त कहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि आदि राशियोंके प्रमाण विषयक निर्णय के उत्पन्न करनेके लिये कहा है । परंतु वह अन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकारका है, इसलिये प्रकृतमें इतना अन्तर्मुहूर्त विवक्षित है, यह नहीं जाना जाता है । इसलिये विवक्षित अन्तर्मुहूर्त के विषय में निश्चय उत्पन्न करनेके लिये थोड़ेमें कालका प्ररूपण करते हैं ।
शंका- वह कालप्ररूपणा किसप्रकार है ?
समाधान - असंख्यात समयकी एक आवली होती है । ऐसी तद्योग्य संख्यात आवलियोंका एक उच्छ्वास होता है । सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक होता है । सात स्तोकोंका एक लव होता है, और साढे अड़तीस लवोंकी एक नाली होती है । कहा भी है
J
असंख्यात समयोंकी एक आवली होती है। संख्यात आवलियोंके समूहको एक उच्छ्वास कहते हैं। सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक होता है और सात स्तोकोंका एक लव होता है ॥ ३३ ॥
१ गो. जी. ५७४.
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६६] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ६. ( अट्टत्तीसद्धलवा णाली वे णालिया मुहुत्तो दु । एगसमएण हीणो भिण्णमुहुत्तो भवे सेसं ॥ ३१ ॥ अडस्स अणलसस्स य णिरुवहदस्स य जिणेहि जंतुस्स । उस्सासो हिस्सासो एगो पाणो त्ति आहिदो एसो ॥ ३५ ॥ . तिणि सहस्सा सत्त य सयाणि तेहत्तरं च उस्सासा ।
एगो होदि मुहत्तो सम्वेसिं चेव मणुयाण ॥ ३६॥ सत्तसएहि वीसुत्तरेहि पाणेहि एगो मुहुत्तो होदि त्ति केवि भणंति, पाइयपुरिसुस्सासे दट्टण तण्ण घडदे । कुदो ? केवलिभासिदत्थादो पमाणभूदेण अण्णेण सुत्तेण सह विरोहादो । कधं विरोहो ? जेणेदं चउहि गुणिय सत्तूण-णवसदं पक्खित्ते सुत्तुत्तुस्सा
साढ़े अड़तीस लवोंकी एक नाली होती है, और दो नालियोंका एक मुहूर्त होता है। तथा मुहूर्तमेसे एक समय कम करने पर भिन्न मुहूर्त होता है, और शेष अर्थात् दो, तीन आदि समय कम करने पर अन्तर्मुहूर्त होते हैं ॥ ३४॥
जो सुखी है, आलस्यरहित है और रोगादिककी चिन्तासे मुक्त है, ऐसे प्राणीके श्वासोच्छासको एक प्राण कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ३५॥
सभी मनुष्योंके तीन हजार सातसौ तेहत्तर उच्छासोंका एक मुहूर्त होता है ॥३६॥
कितने ही आचार्य सातसौ बीस प्राणोंका एक मुहूर्त होता है, ऐसा कहते हैं; परंतु प्राकृत अर्थात् रोगादिसे रहित स्वस्थ मनुष्यके उच्छासोंको देखते हुए उन आचार्योंका इसप्रकार कथन करना घटित नहीं होता है, क्योंकि, जो केवली भाषित अर्थ होने के कारण प्रमाण है, ऐसे अन्य सूत्रके कथनके साथ उक्त कथनका विरोध आता है।
शंका-सूत्रके कथनसे उक्त कथनमें कैसे विरोध आता है ? समाधान-क्योंकि ऊपर कहे गये सातसौ बीस प्राणोंको चारसे गुणा करके जो
१ गो. जी. ५७५. होति हु असंखसमया आवलिणामो तहेव उस्सासो। संखेज्जावलिणिवहो सो चेव पाणो त्ति विवखादो ॥ सत्तुस्सासो थोव सत्त थत्रा लव ति णादवो। सत्तत्तरिदलिदलवा णाली वे णालिया मुहुत्तं च ॥ ति. प. पत्र ५०. ग. सा. १, ३२-३४, असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलिअत्ति वुच्चइ, संखेज्जाओ आवलिओ ऊसासो, संखिज्जाओ आवलिआओ नीसासो, सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए एस मुहुत्ते विआहिए। अनु. पृ. १६४. व्या. प्र. पृ. ५००.
२ गो. जी. ५७४. टी. हट्ठस्स अणवगल्लस्स निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ । अनु. पृ. १६४. व्या. प्र. पृ. ५००.
___३ आब्यानलसानुपहतमनुजोच्छ्वासस्त्रिसप्तसप्तत्रिमितैः । आहुर्मुहूर्तम् ...॥ गो. जी., जी. प्र. टी., १२५. तिणि सहस्सा सत्त य सयाई तेहुत्तरि च ऊसासा। एस मुहुत्तो भणिओ सबेहिं अणंतनाणीहिं। अनु, पृ. १६४. व्या. प्र. पृ. ५००.
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१, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं
[६७ सपमाणं पावदि । एकवीससहस्स-छस्सयमेतपाणेहि संवच्छरियाण दिवसो होदि । एत्थ पुण एगलक्ख-तेरहसहस्स-णउदि-सयपाणेहि दिवसो होदि । पाणेहि विप्पडिवण्णाणं संवच्छरियाणं कालववहारो कधं घडदे ? ण, केवलिभासिददिवसमुहुत्तेहि समाणदिवस. मुहुत्तभुवगमादो। एवं परूविदमुहुत्तुस्सासे ठवेऊण तत्थ एगो उस्सासो घेत्तव्यो । संखेज्जावलियाहि एगो उस्सासो णिप्फज्जदि त्ति सो उस्सासो संखेज्जावलियाओ कयाओ। तत्थ एगमावलियं घेत्तूण असंखेज्जेहि समएहि एगावलिया होदि त्ति असंखेज्जा समया कायव्या । तत्थ एगसमए अवणिदे सेसकालपमाणं भिण्णमुहुत्तो उच्चदि । पुणो वि अवरेगे समए अवणिदे सेसकालपमाणमंतोमुहुत्तं होदि । एवं पुणो पुणो समया अवयव्या जाव उस्सासो णिहिदो त्ति । तो वि सेसकालपमाणमंतोमुहुत्तं चेव होइ । एवं सेसुस्सासे वि अवयव्या जावेगावलिया सेसा त्ति । सा आवलिया वि
.....................................
गुणनफल आवे उसमें सात कम नौ सौ अर्थात् आठसौ तेरानवे और मिलाने पर सूत्रमें कहे गये मुहूर्तके उच्छासोंका प्रमाण होता है, इसलिये प्रतीत होता है कि उपर्युक्त मुहूर्तके उच्छासोंका प्रमाण सूत्रविरुद्ध है। यदि सात सौ बीस प्राणोंका एक मुहूर्त होता है, इस कथनको मान लिया जाय तो केवल इक्कीस हजार छह सौ प्राणों के द्वारा ही ज्योतिषियों के द्वारा माने हए दिन अर्थात अहोरात्रका प्रमाण होता है। किन्तु यहां आगमानुकूल कथनके अनुसार तो एक लाख तेरह हजार और एक सौ नव्ये उच्छासोंके द्वारा एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है।
शंका-इसप्रकार प्राणों के द्वारा दिवसके विषयमें विवादको प्राप्त हुए ज्योतिषियों के कालव्यवहार कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, केवलीके द्वारा कथित दिन और मुहूर्तके समान ही ज्योतिषियोंके दिन और मुहूर्त माने गये हैं, इसलिये उपर्युक्त कोई दोष नहीं है।
इसप्रकार केवल के द्वारा प्रतिपादित एक मुहूर्तके उच्छासोंको स्थापित करके उनमेंसे एक उच्छास ग्रहण करना चाहिये। संख्यात आवलियोंसे एक उच्छास निष्पन्न होता है, इसलिये उस एक उच्छासकी संख्यात आवलियां बना लेना चाहिये । उन आवलियोंमेंसे एक आवलीको ग्रहण करके, असंख्यात समयोंसे एक आवली होती है, इसलिये उस आवलीके असंख्यात समय कर लेना चाहिये। , यहां मुहूर्तमेंसे एक समय निकाल लेने पर शेष कालके प्रमाणको भिन्नमुहूर्त कहते हैं । उस भिन्नमुहूर्तमेंसे एक समय और निकाल लेने पर शेष कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। इसप्रकार उत्तरोत्तर एक एक समय कम करते हुए उच्छासके उत्पन्न होने तक एक एक समय निकालते जाना चाहिये । वह सब एक एक समय कम किया हुआ काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है । इसीप्रकार जब तक आवली उत्पन्न नहीं होती है तब तक शेष रहे हुए एक उच्छासमेंसे भी एक एक समय कम करते जाना चाहिये । ऐसा करते हुए जो आवली उत्पन्न होती है उसे भी अन्तर्मुहूर्त कहते हैं।
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६८ ]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ६.
अंतोमुहुत्तमदि भण्णदि । तदो अवरेण आवलियाए असंखेजदिभाएण तहि आवलियम्ह भागे हिदे जं भागलद्धं तं असंजदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । एसो वि कालो अंतोमुहुत्तमेव । असंजदसम्माइडिअवहारकालमवरेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे सम्मामिच्छाइड्डिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूयेहि गुणिदे सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे हि संजदासंजद अवहारकार्लो होदि । ओघसासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदाणं अवहारकालो असंखेज्जदिभागो ण होदि, असंखेज्जावलियाहि होदव्वं । तं कुदो णच्वदे ? 'उवसमसम्माइट्ठी थोवा | खइयसम्माइडी असंखेज्जगुणा । वेदयसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा' 'त्ति अप्पा बहुग सुत्तादो व्वदे । तं जहा, खइयसम्म इट्ठीणमवहारकालेग ताव संखेज्जाव - लियमेत्तेण आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्तेण वा होदव्त्रं, अण्णहा मणुस्सेसु असंखे
तदनन्तर दूसरी आवलीके असंख्यातवें भागका उस आवलीमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रमाणके निकालनेके विषय में अवहारकालका प्रमाण होता है । यह काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है । असंयतसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकालको दूसरी आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टिविषयक अवहारकाल होता है । इसे संख्यात से गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर संयतासंयतविषयक अवहारकाल होता है । इसप्रकार जो पूर्वोक्त चार गुणस्थानवाले जीवोंका अवहारकाल बतलाया है उसमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतविषयक सामान्य अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें भाग नहीं होता, किन्तु उसे असंख्यात आवलीप्रमाण होना चाहिये ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-' उपशमसम्यग्दृष्टि जीव थोड़े होते हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे होते हैं और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे होते हैं ' इस अल्पबहुत्वके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे उक्त बात जानी जाती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है
क्षायिक सम्यग्दष्टियों का अवहारकाल संख्यात आवली अथवा आवलीके संख्यातवें भागप्रमाण होना चाहिये । यदि ऐसा न माना जावे तो मनुष्यों में असंख्यात क्षायिकसम्यदृष्टि
१ असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । खध्यसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । वेदगसम्मादिठ्ठी असंखेज्जगुणा ॥ जी. डा. अ. ब. १५-१७. सू. तदनन्तरं ( औपशमिकानन्तरम् ) क्षायिकग्रहणं तस्य प्रतियोगित्वात्संसार्यपेक्षया द्रव्यतस्ततोऽसंख्येयगुणत्वाच्च । तत उत्तरं मिश्रग्रहणं तदुभयात्मकत्वाचतोऽसंख्येयगुणत्वाच्च । स. सि. २, १०
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१, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं ज्जखइयसम्माइट्ठीणं संभवप्पसंगादो । संखेज्जावलियभागहारुप्पायणविहाणं वुच्चदे । तं जहा, वासपुधत्तमंतरिय जइ सोहम्मदेवेसु संखेजाणं खइयसम्माइट्ठीणमुप्पत्ती लब्भइ तो संखेज्जपलिदोवमेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए संखेज्जावलियाहि पलिदोवमे खंडिय तत्थेगखंडमेत्ता खइयसम्माइट्ठी होति । उवसमसम्माइट्ठीणमवहारकालो पुण असंखेज्जावलियमेत्तो, खइयसम्माइट्ठीहिंतो तेसिं असंखेज्जगुणहीणतण्णहाणुववत्तीदो । सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं पि अवहारकालो असंखेज्जावलियमेत्तो, उवसमसम्माइट्ठीहिंतो तेसिमसंखेज्जगुणहीणत्तणहाणुववत्तीदो । 'एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेण' इत्ति सुत्तेण सह विरोहो वि ण होदि, सामीप्याथै वर्तमानान्तःशब्दग्रहणात्' । मुहूर्तस्यान्तः
योंकी उत्पत्तिका प्रसंग आ जायगा । अब आगे संख्यात आवलीरूप भागहारके उत्पन्न करनेकी विधि कहते हैं । वह इसप्रकार है
___ एक वर्षपृथक्त्वके अनन्तर यदि सौधर्म देवोंमें संख्यात क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्ति प्राप्त होती है तो संख्यात पल्योपमकी स्थितिवाले देवों में कितने क्षायिक सम्पदृष्टि जीव प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक विधि के अनुसार फलराशि संख्यातको इच्छाराशि संख्यात पल्योपमसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि वर्ष पृथक्त्वका भाग देने पर अर्थात् संख्यात आवलियोंसे पल्योपमके खंडित करने पर जो भाग लब्ध आवे उतने एक खण्ड प्रमाण क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल तो असंख्यात आवलीप्रमाण है, अन्यथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणे हीन बन नहीं सकते हैं । उसीप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भी अवहारकाल असंख्यात आवलीप्रमाण है, अन्यथा उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे उक्त दोनों गुणस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हीन बन नहीं सकते हैं । ' इन गुणस्थानों से प्रत्येक गुणस्थानकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालसे पल्योपम अपहृत होता है । इस पूर्वोक्त सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तमें जो अन्तर शब्द आया है उसका सामीप्य अर्थ ग्रहण किया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो मुहर्तके समीप हो उसे अन्तर्मुहूर्त कहते हैं।
, विशेषार्थ--अन्तर्मुहूर्तका पल्योपममें भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना सासादन आदि चार गुणस्थानोंमेंसे प्रत्येक गुणस्थानवाले जीवोंका प्रमाण है, यह पूर्वोक्त सूत्रका अभिप्राय है। पर टीकाकार वीरसेनस्वामीने यह सिद्ध किया है कि सासादन, मिश्र और देशविरतके अघहारकालका प्रमाण असंख्यात आवलियां है। अब यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता
१ एदेहि पलिदोवममवहिरादि अंतोमुहुतेण कालेणेति सुत्तेण वि ण विरोहो, तस्स उवयारणिबंधणनादो। धवला, अल्पब.
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७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ६. ( अन्तर्मुहूर्तः । कुतः पूर्वनिपातः ? राजदन्तादित्वात् । कुतः ओत्वम् ? 'एए छच्च समाणा' इत्येतस्मात् ) एदेण सणक्कुमारादिगुणपडिवण्णाणमवहारकालाणं पि असंखेज्जावलियत्तं पसाहिये । एत्थ चोदगो भणदि । एदाओ रासीओ अवविदाओ ण होंति, हाणिवड्डिसंजुदत्तादो। ण च हाणिवड्डीओ णत्थि ति वोत्तुं सकिञ्जदे, आयव्ययाभावे मोक्खाभावादो अणादिअपज्जवसिदसासणादिगुणकालाणुवलद्धीदो च । जदि एदाओ रासीओ अवहिदाओ तो एदे भागहारा घडंति, अण्णहा पुण ण घडंति । अणवद्विदरासिभागहारेणापि अणवद्विदसरूवेणेव अवहाणा होति । एत्थ परिहारो वुच्चदे- सासणसम्माइद्विरासीणमुक्कस्ससंचयं
है कि उक्त तीनों गुणस्थानोंकी संख्या लानेके लिये यदि अवहारकालका प्रमाण असंख्यात आवलियां मान लिया जाता है तो सूत्रमें आये हुए अन्तर्मुहूर्त प्रमाण भागहारके साथ उक्त असंख्यात आवलिप्रमाण भागहारका विरोध आता है, क्योंकि, उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्तमें संख्यात आवलियां ही होती हैं, असंख्यात नहीं । इस पर वीरसेनस्वामीने यह समाधान किया है कि यहां पर अन्तर्मुहूर्तमें आये हुए अन्तर् शब्दसे मुहूर्तके समीपवर्ती कालका ग्रहण करना चाहिये जिससे अन्तर्मुहर्तका अभिप्राय मुहूर्तसे अधिक भी हो सकता है।
शंका - यहां पर अन्तर शब्दका पूर्व निपात कैसे हो गया है ?
समाधान-क्योंकि, अन्तर शब्दका राजदन्तादि गणमें पाठ होनेसे पूर्वनिपात हो गया है।
शंका--- अन्तर् शब्दमें अरके स्थानमें ओत्व कैसे हो गया है ?
समाधान- 'एए छच्च समाणा' इस नियामक वचनके अनुसार यहां पर ओत्व हो गया है।
इस उपर्युक्त कथनसे गुणस्थानप्रतिपन्न सानत्कुमार आदि कल्पवासी देवासंबन्धी अवहारकाल असंख्यात आवलीप्रमाण सिद्ध कर दिया गया ।
शंका- यहां पर शंकाकार कहता है कि ये उपर्युक्त जीवराशियां अवस्थित नहीं होती हैं, क्योंकि, इन राशियोंकी हानि और वृद्धि होती रहती है। यदि कहा जाय कि इन राशियोंकी हानि और वृद्धि नहीं होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, यदि इन राशियोंका आय और व्यय नहीं माना जाय तो मोक्षका भी अभाव हो जायगा। तथा अनादि अपर्यवसितरूपसे सासादन आदि गुणस्थानोंका काल भी नहीं पाया जाता है, इसलिये भी इन राशियोंकी हानि और वृद्धि मान लेना चाहिये। यदि इन उपर्युक्त राशियोंको अवस्थित माना जावे तो ये भागहार बन सकते हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि, अनवस्थित राशियोंके भागहारोंका भी अनवस्थितरूपसे ही सद्भाव माना जा सकता है ?
समाधान-आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार किया जाता है। क्योंकि सासादन
१ राजदन्तादिषु परम् । २।२।३१। पाणिनि ।
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१, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं
[७१ तिकालगोयरमस्सिऊण जम्हा पमाणपरूवणं कदं तम्हा वड्डिहाणीओ णत्थि त्ति भागहारपरूवणं घडदि त्ति । सासणसम्माइटिअवहारकालेण वलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । सासणसम्माइट्ठीणं पमाणपरूवणं वग्गट्टाणे खंडिद-भाजिद-विरलिदअवहिद-पमाण-कारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि वत्तइस्सामो । तं जहा
पलिदोवमे असंखेज्जावलियमेत्तखंडे कए तत्थ एगखंडं सासणसम्माइद्विरासिपमाणं होदि । खंडिदं गदं । असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे ज भागलद्धं ते सासणसम्माइहिरासिपमाणं होदि । भाजिदं गदं । असंखेज्जावलियाओ विरलेऊग एकेकस्स रूवस्स पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडपमाणं सासणसम्माइहिरासी होदि । विरलिदं गदं। सासणसम्माइटिअवहारकालं सलागभूदं ठवेऊण
सम्यग्दृष्टि आदि राशियोंके त्रिकालविषयक उत्कृष्ट संचयका आश्रय लेकर प्रमाण कहा गया है, इसलिये उस अपेक्षासे वृद्धि और हानि नहीं है। अतः पूर्वोक्त भागहारोंका कथन करना बन जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकालका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आ जाती है।
अब वर्गस्थानमें खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण कहते हैं। वह इसप्रकार है
असंख्यात आवलीके समयोंका जितना प्रमाण हो उतने पल्योपमके खण्ड करने पर उनमेंसे एक खण्डके बराबर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण होता है। इसप्रकार खण्डितका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण-पल्योपमप्रमाण ६५५३६ के सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकाल ३२ प्रमाण खण्ड करने पर २०४८ आते हैं। यही सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है।
असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है । इसप्रकार भाजितका कथन समाप्त हुआ।
उदाहरण-६५५३६ : ३२ = २०४८ सासादनसम्यग्दृष्टि. . असंख्यात आवलियोंको विरलित करके उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर उनमेंसे एक खण्ड प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ। उदाहरण–२०४८ २०४८ २०४८ इसप्रकार ३२ वार विरलित करके
६५५३६ को उक्त विरलित राशिके प्रत्येक एक पर समानरूपसे दे देने पर २०५८ सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आ जाती है।
सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकालको शलाकारूपसे स्थापित करके पल्योपममेंसे
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ६.
७२ ] पलिदोवमम्हि सासणसम्माइडिरासिपमाणं अवणिज्जदि, अवहारकालादो एगरूवमवजिदिः पुणेो वि सासणसम्माइडिरासिपमाणं पलिदोवमम्हि अवणिजदि, अवहारकालादो एगरुवमवणिजदि । एवं पुणो पुणो कीरमाणे पलिदोवमो अवहारकालो च जुगवं णिहिदो । तत्थ एगवारमवहिदपमाणं सासणसम्माइट्टिरासी होदि । अवहिदं गदं । तस्स पमाणं पलिदोपमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि ति पमाणं गदं । केण कारण ? पलिदोवमपढमवग्ग मूलेण पलिदोवमे भागे हिदे पलिदोवमपढमवग्गमूलमागच्छदि । तस्सेव विदियवग्गमूलादो पलिदोवमे भागे हिदे विदियवग्गमूलस्स
सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणको घटा देना चाहिये । पल्योपममेंसे सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशिको एकवार कम किया, इसलिये अवहारकालरूप शलाकाराशिमेंसे एक कम कर देना चाहिये । फिर भी पल्योपममें से सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणको घटा देना चाहिये | दूसरीवार यह क्रिया हुई, इसलिये अवहारकालरूप शलाका राशिमेंसे एक और कम कर देना चाहिये । इसप्रकार पुनः पुनः करने पर पल्योपम और अवहारकाल एक साथ समाप्त हो जाते हैं । इस क्रियामें एकवार जितनी राशि घटाई जावे उतना सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है । इसप्रकार अपहृतका कथन समाप्त हुआ ।
उदाहरण - शलाका राशि ३२ पल्योपम ६५५३६ १
३१ १
२०४८ ६३४८८ २०४८
६१४४०
इस क्रम से पल्योपममें से २०४८ और शलाकारूप भागहार मेंसे एक एक कम करते जाने पर दोनों
३०
राशियां एक साथ समाप्त होती हैं । इनमेंसे एकवार घटाई जानेवाली संख्या २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि हैं ।
उस सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ ।
उदाहरण - पल्योपम ६५५३६ का प्रथम वर्गमूल २५६ है और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण २०४८ है । २५६ का २०४८ में भाग देने पर ८ आते हैं । इस ८ संख्याको असंख्यातरूप मान लेने पर यह सिद्ध हो जाता है कि पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है ।
शंका- किस कारणसे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण सासादनसम्यदृष्टि जीवराशि आती है ?
समाधान - पल्योपमके प्रथम वर्गमूलका पल्योपममें भाग देने पर पल्योपमका प्रथम वर्गमूल आता है । उसीके दूसरे वर्गमूलका पल्योपममें भाग देने पर दूसरे वर्गमूलका जितना
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१, २, ६.] दवपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं [७३ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि आगच्छति । तदियवग्गमूलेण पलिदोवमे भागे हिदे विदियतदियवग्गमूलाणि अण्णोण्णभत्थे कए तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि आगच्छति । एदेण कमेण असंखे जाणि वग्गट्ठाणाणि हेट्ठा ओसरिऊण द्विदअसंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि आगच्छंति त्ति ण संदेहो । कारणं गदं । तस्स का णिरुत्ती ? असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमपढमवग्गमूले भागे हिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि । अधवा असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमविदियवग्गमूले भागे हिदे जं भागलद्धं तेण विदियवग्गमूलं गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । अधवा असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमतदियवग्गमूले भागे हिदे जं भागलळू तेण तदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा विदियवग्गमूलं गुणेऊण तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि आगच्छंति । एदेण कमेण असंखेज्जाणि वग्गहाणाणि हेट्ठा ओसरिऊण असंखेज्जावलियाहि पदरावलियाए भागे हिदाए जं
प्रमाण हो उतने प्रथम वर्गमूल लब्ध आते है। पल्योपमके तीसरे वर्गमूलका पल्योपममें भाग देने पर दूसरे और तीसरे वर्गमूलके प्रमाणका परस्पर गुणा करनेसे जो प्रमाण आवे उतने प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं। इस क्रमसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर जो असंख्यात आवलियां स्थित हैं उनका पल्योपममें भाग देने पर असंख्यात प्रथम वर्गमूल आते हैं। इसमें संदेह नहीं है । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण-पल्यके प्रथम वर्गमूल २५६ का ६५५३६ में भाग देने पर २५६ लब्ध आते हैं। दूसरे वर्गमूल १६ का ६५५३६ में भाग देने पर दूसरे वर्गमूल १६ वार २५६ अर्थात् ४०९६ लब्ध आते हैं। तीसरे वर्गमूल ४ का ६५५३६ में भाग देने पर, दूसरे वर्गमूल १६ और तीसरे वर्गमूल ४ को परस्पर गुणा करनेसे जो ६४ लब्ध आते हैं, उतने अर्थात् ६४ वार प्रथम वर्गमूल २५६ अर्थात् १६३८४ लब्ध आते हैं। इसीप्रकार उत्तरोत्तर नीचे जाने पर असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध आवेंगे इसमें कोई संदेह नहीं।
शंका- असंख्यात प्रथम वर्गमूल आते हैं, इसकी निरुक्ति क्या है ?
समाधान -- असंख्यात आवलियोंका पल्योपमके प्रथम वर्गमूलमें भाग देने पर जो प्रमाण आवे उतने प्रथम वर्गमूल होते हैं । अथवा, असंख्यात आवलियोंका पल्योपमके द्वितीय वर्गमूलमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे द्वितीय वर्गमूलको गुणित कर देने पर जितना प्रमाण आव उतने पल्यापमके प्रथम वर्गमूल होते हैं। अथवा, असंख्यात आवलियोका पल्यापमके तीसरे वर्गमूलमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे तीसरे वर्गमूलको गुणित करके उस गणित राशिसे दसरे वर्गमलको गणित करके वहां जितना प्रमाण आवे उतने प्रथम वर्गमल होते हैं। इसी क्रमसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर असंख्यात आवलियोंका प्रतरावली में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे प्रतरावलीको गुणित करके, उस गुणित राशिसे प्रतरा
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७४ ] छक्वंडागमे जीवाणं
[१, २, ६. भागलद्धं तेण पदरावलियं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा तदुवरिमवग्गं गुणेऊण एवमुवरि. मुवरिमवग्गट्ठाणाणि विदियवग्गमूलंताणि णिरंतरं सवाणि गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि हवंति त्ति । णिरुत्ती गदा ।
वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उबरिमवियप्पो चेदि । तत्थ वेरूवे हेडिमवियप्पं वत्तइस्सामो । असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमपढमवग्गभूले भागे हिदे जं भागलद्धं तेण, पलिदोवमपढमवग्गमूले गुणिदे सासण सम्माइट्ठिरासी होदि । अधवा अवहारकालेण पलिदोवमविदियवग्गमूले भागे हिदे जं भागलढू तेग विदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा पढमवग्गमूले गुणिदे सासणसम्माइहिरासी होदि । अधवा अवहारकालेण पलिदोवमतदियवग्गमूले भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा विदियवग्गमूलं गुणेऊग पुणो वि तेण गुणिदरासिणा पढमवग्गमूलं गुणिदे
वलीके उपरिम वर्गको गुणित करके, इसप्रकार द्वितीय वर्गमूलपर्यंत सर्व उपरिम उपरिम वर्गस्थानोंको निरंतर गुणित करने पर वहां जितना प्रमाण आवे उतने प्रथम वर्गमूल होते हैं। इसप्रकार निरुक्तिका कथन समाप्त हुआ।
उदाहरण-असंख्यात आवलीप्रमाण ३२ का भाग पल्यके प्रथम वर्गमूल २५६ में देने पर ८ लब्ध आते हैं। इसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि २०४८ में ८ ही प्रथम वर्गमूल होते हैं। द्वितीय वर्गमूल १६ में ३२ का भाग देने पर ३ लब्ध आता है। इसका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा करने पर ८ लब्ध आते हैं। तृतीय वर्गमूल ४ में ३२ का भाग देने पर लब्ध आता है । इसका, दूसरे १६ और तीसरे ४ वर्गमूलके परस्पर गुणनफल ६४ से, गुणा कर देने पर ८ लब्ध आते हैं । इसप्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तनविकल्प और उपरिमविकल्प । उन दोनों में से पहले द्विरूपवर्गधारामें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं
असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। उदाहरण-पल्योपम ६५५३६ का प्र. वर्गमूल २५६; असंख्यात आवलियां ८.
२५६४८% २०४८ सा. अथवा, अवहारकालका पल्योपमके द्वितीय वर्गमूलमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके उस गुणित राशिसे प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। उदाहरण—६५५३६ का द्वितीय वर्गमूल १६, अवहारकाल ३२;
१६ : ३२ = ३, १६ ४ ३ = ८, २५६४८ = २०४८ सा. अथवा, अवहारकालका पल्योपमके तृतीय वर्गमूलमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे तृतीय वर्गमूलको गुणित करके उस गुणित राशिसे द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके फिर भी उस गुणित राशिसे प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि
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१, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं
[७५ सासणसम्माइडिरासी होदि । एदेण कमेण असंखेज्जाणि वग्गट्टाणाणि हेढा ओसरिऊण असंखेज्जावलियाहि पदरावलियाए भागे हिदाए जं भागलद्धं तेण पदरावलियं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा तदुवरिमवग्गं गुणेऊण एवमुवरिमवग्गट्ठाणाणि पढमवग्गमूलंताणि सव्याणि णिरंतरं गुणिदे सासणसम्माइद्विरासी होदि। जदि वि णिरुत्ति भण्णमाणे एसो अत्थो पुव्वं परूविदो तो वि ण पुणरुत्तो होदि, तिण्णि वि वग्गधाराओ अस्सिऊण हिदहेट्टिमवियप्पसंबंधत्तादो। वेरूवे हेडिमवियप्पो गदो।
अहरूवे हेहिमवियप्पं वत्तइस्सामो । असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमपढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणपल्लपढमवग्गमूले भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी होदि। केण कारणेण ? पलिदोरमपढमवगमूलेण घणपल्लपढमबग्गमूले भागे हिदे पलिदोवममागच्छदि । पुणो असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासण सम्माइद्विरासी आगच्छदि। एवमाग
जीघराशि होती है। उदाहरण-६५५३६
४ ३२ -१, ४४१ =३, १६४३ = ८; २५६४८ = २०४८ सा. इसी क्रमसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर असंख्यात आवलियोंका प्रतरावलीमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे प्रतरावलीको गुणित करके उस गुणित राशिसे प्रतरावलीके उपरिम वर्गको गुणित करके इसीप्रकार प्रथम वर्गमूलपर्यन्त उपरिम उपरिम संपूर्ण वर्गस्थानोंको निरन्तर गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। उदाहरण-प्रतरावलि = २.
२’ ३२ = १६; २४ १६ = १, ४ x १ = १;
१६४३ = ८, २५६४ ८ = २०४८ सा. यद्यपि निरुक्तिका कथन करते समय यह विषय पहले वहां पर कह आये हैं, तो भी इस विषयके यहां पर पुनः कथन करनेसे पुनरुक्त दोष नहीं होता है, क्योंकि, यहां पर तीनों ही वर्गधाराओंका आश्रय लेकर स्थित अधस्तन विकल्पका संबन्ध है। इसप्रकार द्विरूप वर्गधारामें अधस्तन विकल्पका कथन समाप्त हुआ।
अब घनधारामें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं। असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आधे उसका घनपल्यके प्रथम वर्गमूलमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है, क्योंकि, पल्योपमके प्रथम वर्गमूलले धनपल्यके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर पल्योपमका प्रमाण आता है। अनन्तर असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमके भाजित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है। घनपल्यमें इसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है, ऐसा समझ कर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। उदाहरण--पल्योपमका प्रथम वर्गमूल २५६, घनपल्यका प्रथम वर्गमूल १६७७७२१६;
२५६ ४ ३२ = ८१९२, १६७७७२१६ : ८१९२ = २०४८ सा.
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७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ६. च्छदि ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । अहरूवे हेडिमवियप्पो भवदु णाम, वेरूवे हेडिमवियप्पो ण घडदे। केण कारणेण ? अवहारकालेग पलिदोवमादो हट्टिमवग्गहाणाणि भागे हिदे सासणसम्माइट्ठिरासी ण उप्पज्जदि त्ति । ण एस दोसो, पलिदोवमादो हेहिमवग्गट्ठाणाणि अवहारकालणावट्टिय तप्पाओग्गवग्गट्ठाणाणि गुणिदे केवलमोवट्टिदे च जत्थ रासी आगच्छदि सो हेट्ठिमवियप्पो त्ति अब्भुवगमादो । मिच्छा-- इहिरासिपरूवणाए वि एदम्हि णए अवलंबिज्जमाणे वेरूवे हेट्ठिमवियप्पो अत्थि त्ति वत्तव्बो ? एसा परूवणा जेण अवहारकालपहाणा तेण पलिदोपमादो हेहिमवग्गहाणाणि अवहारेणोवहिय जदि सासणसम्माइहिरासी उप्पाइदं सकिज्जदे तो हेहिमवियप्पस्स वि संभवो होज्ज । ण च एवं वेरूवधाराए संभवइ । एदं णयमास्सिऊण मिच्छाइट्ठिरासिपरूवणाए हेहिमवियप्पो णत्थि त्ति भणिदं । एसो णओ एत्थ पहाणो । एवमट्टरूवपरूवणा गदा।
शंका-घनधारामें अधस्तन विकल्प रहा आवे, परंतु द्विरूप वर्गधारामें अधस्तन विकल्प घटित नहीं होता है, क्योंकि, अवहारकालका पल्योपमसे नीचेके वर्गस्थानों में भाग दिया जाता है तो सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि उत्पन्न नहीं होती है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पल्योपमसे नीचेके वर्गस्थानोंको अवहारकालसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे उसके योग्य वर्गस्थानोंके गुणित करने पर अथवा, केवल अपवर्तित करने पर, अर्थात् पल्योपमको अवहारकालसे भाजित करने पर, जहां पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है वह अधरतन विकल्प यहां पर स्वीकार किया गया है। उदाहरण-पल्योपमका अधस्तन वर्गस्थान = २५६, २५६ : ३२ = ८, २५६४८
=२०४८ सा. अथवा. ६५५३६ : ३२ = २०४८ सा. शंका-मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी प्ररूपणामें भी इस नयके अवलम्बन करने पर द्विरूपवर्गधारामें अधस्तन विकल्प बन आता है, इसलिये वहां पर उसका कथन करना चाहिये था?
समाधान- क्योंकि यह प्ररूपणा अवहारकालप्रधान है, इसलिये पल्योपमसे नीचेके धर्गस्थानोंको अवहारकालसे भाजित करके यदि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि उत्पन्न करना शक्य है तो यहां पर अधस्तन विकल्प भी संभव है। परंतु मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण निकालते समय द्विरूपवर्गधारामें इसप्रकार अधस्तन विकल्प संभव नहीं है । इसी नयका आश्रय करके मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी प्ररूपणामें अधस्तन विकल्प नहीं होता, ऐसा कहा है । यह नय यहां पर प्रधान है । इसप्रकार घनधारा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण निकालनेके लिये असंख्यात आवली.
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१. २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं
[७७ घणाघणे वत्तइस्सामो । असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमपढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणपल्लविदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणाघणपल्लविदियवग्गमूले भागे हिदे सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि। केण कारणेण ? घणपल्लविदियवग्गमूलेण घणाघणपल्लविदियवग्गमूले भागे हिदे घणपल्लपढमवग्गमूलमागच्छदि । पुणो वि पलिदोवमपढमवग्गमूलेण घणपल्लपढमवग्गमूले भागे हिदे पलिदोवममागच्छदि । पुणो वि असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । एत्थ दुगुणादिकरणे कदे हेडिमवियप्पो समप्पदि।
उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ वेरूवधाराए गहिदं वत्तइस्सामो । असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्मा
प्रमाण जो भागहार है वह पल्योपमके प्रथम वर्गमूलसे छोटा है, इसलिये यहां पर अधस्तन विकल्प बन जाता है। परंतु मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण निकालनेके लिये जो भागहार कह आये हैं वह जीवराशिक उपरिम वर्गके प्रथम वर्गमूलरूप जीवराशिसे बड़ा है, अतएव वहां पर द्विरूपवर्गधारामें अधस्तन विकल्प किसी प्रकार भी संभव नहीं है।
___ अब घनाघनधारामें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं-असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनपल्यके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनपल्यके द्वितीय वर्गमूलमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, क्योंकि, घनपल्यके द्वितीय वर्गमूलका घनाघन पल्यके द्वितीय वर्गमूलमें भाग देने पर घनपल्यका प्रथम वर्गमूल आता है। अनन्तर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलका घनपल्यके प्रथम वर्गमूलमें भाग देने पर पल्योपम आता है। अनन्तर असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। घनाघनधारामें इसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण अता है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया।
उदाहरण-पल्योपमका प्रथम वर्गमूल २५६, घनपल्यका द्वितीय धर्गमूल ४०९६॥ घनाघन पल्यका द्वितीय वर्गमूल ६८७१९४७६७३६,
६८७१९४७६७३६
३२x२५६x४०२६ २०४८ सा. यहां पर द्विगुणादिकरणके कर लेने पर अधस्तन विकल्प समाप्त हो जाता है।
उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकार । उनमें से पहले द्विरूप वर्गधारामें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है।
उदाहरण-६५५३६ ३२ = २०४८ सा.
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७८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, ६. इहिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्त अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । एवं तिय-चउक्क पंचादिछेदणाणि वि अवलंबिय सासणसम्माइहिरासी उप्पाएदव्यो । अधवा असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमं गुणेऊण पदरपल्ले भागे हिदे सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? पलिदोवमेण पदरपल्ले भागे हिदे पलिदोवममागच्छदि । पुणो वि असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइटिरासी आगच्छदि। एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्त अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे सासणसम्माइट्टि.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार पल्योपम राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है।
उदाहरण-३२ भागहारके ५ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार ६५५३६ के अर्धच्छेद करने पर २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
__ इसीप्रकार त्रिकछेद, चतुष्कछेद और पंचछेद आदिका अवलंबन करके भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि उत्पन्न कर लेना चाहिये।
उदाहरण-३२ के त्रिकोट २ ३२
३२. उदाहरण-३२ क पत्रकछद र
३२
३ ९ २७ ६५५३६ के त्रिकोट ६५५३६ ६५५३६ ६५५३६ ६१५३६ कात्रकछद ३
९
२७ ६५५३६ . ३२ = २०४८ सा. इसीप्रकार चतुष्कछेद आदि के भी उदाहरण बना लेना चाहिये ।।
अथवा, असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरपल्यमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। इसका कारण यह है कि पल्योपमका प्रतरपल्यमें भाग देने पर पल्योपम आता है, और फिर असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आ जाता है । द्विरूपवर्गधारामें इसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, अतएव पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया।
६५५३६२ . उदाहरण-६५० २०४८ सासादनसम्यग्दृष्टि.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भन्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है।
उदाहरण-३२४ ६५५३६ रूप भागहारके २१ अर्धच्छेद होते हैं, इसलिये इतनीवार ६५५३६४ ६५५३६ के अर्धच्छेद करने पर भी २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
१ प्रतिषु 'मेत्ते सरिसव्व छेदणए' इति पाठः।
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[७९
१, २, ६.] दवपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं रासी आगच्छदि । तस्स अद्धच्छेदणयसलागा केत्तिया? असंखेज्जावलियद्धच्छेदणयाहियपलिदोवमद्धच्छेदणयमेत्ता। अधवा असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा पदरपल्लं गुणेऊण तम्सुवरिमवग्गे भागे हिदे सासणसम्माइट्ठिरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? पदरपल्लेण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पदरपल्लो आगच्छदि । पुणो वि पलिदोवमेण पदरपल्ले भागे हिदे पल्लो आगच्छदि । पुणो असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइट्टिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कह गुणेऊण भागग्गहणं कदं। तस्स भागहारस्म अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि । म भागहारस्प्त अद्धच्छेदणयसलागा केत्तिया? पलिदोवमादो उपरि चडिदद्धाणसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिरूवूणेण पलिदोवमस्स अद्धच्छेदणाओ गुणिय असंखेज्जावलियाणं छेदणापक्खित्तमेत्ता ।
शंका- उक्त भागहारकी अर्धच्छेद शलाकाएं कितनी हैं ?
समाधान - असंख्यात आवलियोंके अर्धच्छेदोंको पल्योपमके अर्धच्छेदोंमें मिला देने पर जितना प्रमाण आवे उतनी उक्त भागहारकी अर्धच्छेद शलाकाएं हैं।
उदाहरण-३२ के अर्धच्छेद ५ और ६५५३६ के अर्धच्छेद १६ इन दोनोंका जोड़ २१ होता है । यही ३२४ ६५५३६ के अर्धच्छेद जानना चाहिये।
___ अथवा, असंख्यात आवलियोंसे पल्योपमको गुणित करके जो गुणा की हुई राशि लब्ध आवे उससे प्रतरपल्यको गुणित करके जो राशि लब्ध आवे उसका प्रतरपल्यके उपरिम वर्गमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, क्योंकि, प्रतरपल्यका प्रतरपल्यके उपरिम वर्गमें भाग देने पर प्रतरपल्य आता है। पुनः पल्योपमका प्रतरपल्यमें भाग देने पर पल्योपम आता है। पुनः असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। द्विरूप वर्गधारामें इसप्रकार भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, इसलिये पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। उदाहरण- ६५५३६' x ६५५३६२
३२x६५५३६४६५५३६१=२०४८ सा. उक्त भागद्दारके जितने अर्धच्छेद हों, उतनीवार उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-३२४ ६५५३६४ ६५५३६२ रूप भागहारके ५३ अर्घच्छेद होते हैं, इसलिये इतनीवार ६५५३६४ ६५५३६ प्रमाण भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी २०४८ आते हैं।
शंका-उक्त भागहारकी अर्धच्छेदशलाकाएं कितनी हैं ?
समाधान-पल्योपमसे ऊपर दो स्थान आये हैं, इसलिये दोका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न होवे उसमेंसे एक कमा कर जो शेष रहे उससे पल्योपमके अर्धच्छेदोंको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें असंख्यात आवलियोंके अर्धच्छेदोंके मिला देने पर उक्त भागहारकी अर्धच्छेद
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८० ]
छक्खंडागमे जीवाणं
एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु णेयच्वं । वेरूवपरूवणा गदा ।
अरू वत्तस्साम । असंखेज्जावलियाहि पदरपल्लं गुणेऊण घणपल्ले भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? पदरपल्लेण घणपल्ले भागे हिदे पलिदोवममागच्छदि । पुणो वि असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सास सम्माइरािसी आगच्छदि । एवमागच्छदिति कट्टु गुणेऊग भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अर्द्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइदिरासी आगच्छदि । तस्स अद्धच्छेद्णयसलागा केत्तिया ? दुगुणिदप लिदोवमद्धच्छेदणएसु असंखेज्जावलियाणं अद्धच्छेदणयपक्खित्तमेत्ता । अथवा असंखेज्जावलियाहि पदरपलं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा घणपलं गुणेऊण घणपल्लउवरिमवग्गे भागे हिदे सासणसम्म इडिरासी
शलाकाएं आ जाती है ।
उदाहरण-२ २=४-१=३x १६ = ४८ +५ =५३.
[ १, २, ६.
१ १
इसीप्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्तराशिमें भी ले जाना चाहिये । इसप्रकार द्विरूपप्ररूपणा समाप्त हो गई ।
अब घनधारामें गृहीत उपरिम विकल्प बतलाते हैं- असंख्यात आवलि - योंसे प्रतरपल्यको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनपल्य में भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आ जाता है, क्योंकि, प्रतरपल्यका घनपत्य में भाग देने पर पल्योपम आता है । पुनः असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है । घनधारामें इसप्रकार सासादनसम्यदृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया ।
उदाहरण
६५५३६३
= २०४८ सासादन सम्यग्दृष्टि.
३२ × ६५५३६'
उक्त भागहार के जितने अर्धच्छेद हों उननीवार उक्त भज्यमानराशि घनपल्यके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आ जाता है ।
उदाहरण - उक्त भागहार ३२ x ६५५३६' के अर्धच्छेद ३७ होते हैं; इसलिये ३७ वार उक्त भज्यमान राशि ३६५३६२ के अर्धच्छेद करने पर भी २०४८ आते हैं ।
शंका - उक्त भागद्दारकी अर्धच्छेदशलाकाएं कितनी हैं ?
समाधान - द्विगुणित पल्योपमके अर्धच्छेदों में असंख्यात आवलियोंके अर्धच्छेद मिला देने पर उक्त भागद्दारकी अर्धच्छेद शलाकाएं होती हैं ।
उदाहरण - १६x२ = ३२+५= ३७.
अथवा, असंख्यात आवलियोंसे प्रतरपल्यको गुणित करके जो गुणितराशि लब्ध आवे उससे धनपल्यको गुणित करके लब्ध राशिका घनपल्यके उपरिम वर्ग में भाग देने पर
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१, २, ६. ]
दव्वपमाणानुगमे सासणसम्म इट्टि आदि पमाणपरूवणं
[ ८१
आगच्छदि । केण कारणेण ? घणपल्लेणुवरिमवग्गे भागे हिदे घणपल्लो आगच्छदि । पुणो विपदरपण घणपल्ले भागे हिदे पलिदोवमो आगच्छदि । पुणो वि असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । एवमागच्छदिति गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सास सम्माइट्ठिरासी आगच्छदि । तस्सद्धच्छेदणयसलागा केत्तिया १ एगरूवं विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्थरासितिगुणरूवृणेण पलिदोवमस्स अद्धच्छेदणाओ गुणिय असंखेज्जावलियाणं अद्धच्छेदणयपक्खित्तमेत्ता । एवमुवरि वि अद्धच्छेदणयाणं संकलणविहाणं वतव्वं । एत्थ दुगुणादिकरणं कायव्वं । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु यव्वं । अट्ठरुव परूवणा गदा ।
घणघणे वत्तस्साम । असंखेज्जावलियाहि पदरपल्लं गुणेऊण तेण घणपल्लव
सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आ जाता है, क्योंकि, घनपल्यका घनपल्यके उपरिम वर्ग भाग देने पर घनपल्य आता है । पुनः प्रतरपल्यका घनपल्य में भाग देने पर पल्योपम आता है । पुनः असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है । घनधारामें इसप्रकार भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया ।
उदाहरण-:
६५५३६ x ६५५३६ ३२ x ६५५३६' x ६५५३६ १
उक्त भागद्दारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
उदाहरण – उक्त भागहार के ८५ अर्धच्छेद होते हैं, इसलिये ८५ वार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है ।
शंका - उक्त भागहारकी अर्धच्छेदशलाकाएं कितनी होती हैं ?
= २०४८ सा.
समाधान - एकका विरलन करके और उसे दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशिको तीनसे गुणा करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करके शेषसे पल्योपमके अर्धच्छेदों को गुणित करके जो संख्या आवे उसमें असंख्यात आवलियोंके अर्धच्छेद मिला देने पर उक्त भागहारके अर्धच्छेद होते हैं ।
उदाहरण – २ = २४३ = ६ - १ =५x१६ = ८० + ५ = ८५.
१
इसीप्रकार ऊपर भी अर्धच्छेदोंके संकलन करनेके विधानका कथन करना चाहिये । यहां पर द्विगुणादिकरणविधि करना चाहिये । इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्तस्थानों में भी ले जाना चाहिये । इसप्रकार घनधारा प्ररूपणा समाप्त हुई ।
अब घनाघनधारामें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं— असंख्यात आवलियोंसे प्रतरपल्यको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनपल्य के उपरिम
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८२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ६.
रिमवगं गुणेऊण तेण घणाघणपल्ले भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? घणपल्लवरिमवग्गेण घणाघणपल्ले भागे हिदे घणपल्लो आगच्छदि । पुणो वि पदरपण घणपले भागे हिदे पलिदोवमो आगच्छदि । पुणो वि असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइट्ठिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदित्ति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदेवि - सास सम्माडिरासी आगच्छदि । तस्स अच्छेदणयसलागा केत्तिया ? रूवूणण वहि रूहि पलिदोवमस्स अद्धच्छेदणए गुणिय असंखेज्जावलियद्धच्छेदणय पक्खित्तमेत्ता । अधवा असंखेज्जावलियाहि पदरपल्लं गुणेऊण तेण घणपल्लुवरिमवग्गं गुणेऊण तेण पुणो घणाघणपलं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे सासणसम्माइदुिरासी आगच्छदि । केण कारण ? घणाघणेण उवरिमवग्गे भागे हिदे घणाघणो आगच्छदि । पुणो वि
वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनपल्य में भाग देने पर सासादन - सम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, क्योंकि, घनपल्यके उपरिम वर्गका घनाघनपत्य में भाग देने पर घनपत्य आता है । पुनः प्रतरपल्यका घनपत्य में भाग देने पर पल्योपम आता है । पुनः असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है । घनाघनधारामें इस प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया ।
उदाहरण
६५५३६ x ६५५३६ x ६५५३६ ३२ x ६५५३६' x ६५५३६ x ६५५३६
= २०४८ सा.
उक्त भागहार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आ जाता है ।
उदाहरण – उक्त भागहारके अर्धच्छेद १३३ होते हैं, इसलिये उतनीवार उक्त भज्य मान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि २०४८ आती है ।
शंका- उक्त भागहारकी अर्धच्छेदशलाकाएं कितनी हैं ?
समाधान - नोमेंसे एक कम करके जो शेष रहते हैं उनसे पल्योपमके अर्धच्छेदों को गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें असंख्यात आवलियों के अर्धच्छेद मिला देने पर उक्त भागहारके अर्धच्छेद होते हैं
उदाहरण - ९ - १ = ८x१६ = १२८ +५ = १३३.
अथवा, असंख्यात आवलियोंसे प्रतरपल्यको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनपल्य के उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनाघनपल्यको गुणित करके आये हुए लब्धका घनाघनपल्यके उपरिम वर्गमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, क्योंकि, घनाघनपल्यका उसके उपरिम वर्गमें भाग देने पर घनाघनपल्य
प्रतिषु ' घणपङ्कं ' इति पाठः ।
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१, २, ६. ] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइट्टि आदिपमाणपरूवणं
[ ८३
घणपल्लवरिमवग्गेण घणाघणे भागे हिदे घणपल्लो आगच्छदि । पुणो वि पदरपल्लेण घपले भागे हिदे पलिदोवमो आगच्छदि । पुणो वि असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइट्ठिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए करे वि सासणसम्माइसी आगच्छदि । तस्सद्धच्छेदणयसलागा केत्तियां ? एगघणाघणवग्गसलागं विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्थकदणवगुणरूवूणरासिणा पलिदोवमद्धच्छेदणए गुणिय असंखेज्जावलियाणं अद्धच्छेद्णयपक्खित्तमेत्ता । एवं दोणि चत्तारि - आदि-वग्गडाणाणि विरलिय विगुणिदण्णोष्णमत्थणवगुणरूवूणरासिणा पलिदोवमद्धच्छेदणा गुणिय सादिरेगा
आता है । पुनः घनपल्यके उपरिम वर्गका घनाघनपत्य में भाग देने पर घनपल्य आता है । पुनः प्रतरपल्यका घनपल्य में भाग देने पर पल्योपम आता है । पुनः असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है । घनाघनधारा में इसप्रकार भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है, इसलिये पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया ।
६५५३६ x ६५५३६
उदाहरण
= २०४८ सा.
३२४ ६५५३६' x ६५५३६ x ६५५३६ x ६५५३६ उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
उदाहरण – उक्त भागहारके २७७ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भाग्य राशिके अर्धच्छेद करने पर २०३८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है ।
शंका- उक्त भागद्दारकी अर्धच्छेदशलाकाएं कितनी होती हैं ?
समाधान - घनाघनरूप एक वर्गशलाकाका विरलन करके और उसे दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुए दोको नौसे गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे पल्योपमके अर्धच्छेदोंको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें असंख्यात आवलियोंके अर्धच्छेदों के मिला देने पर उक्त भागहार के अर्धच्छेदोंका प्रमाण आ जाता है ।
उदाहरण – २ = २४ ९ = १८ - १ = १७ x १६ = २७२ + ५ = २७७.
१
इसीप्रकार दो वर्गस्थान या चार वर्गस्थान आदि ऊपर गये हों तो दो या चार आदिका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि आवे उसे नौसे गुणा करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करें, जो शेष रहे उसे पल्योपमके अर्धच्छेदोंसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें असंख्यात आवलियोंके अर्धच्छेद मिला कर सर्वत्र भागहार के अर्धच्छेद उत्पन्न कर लेना चाहिये । सर्वत्र द्विगुणादि
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८४]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ६. करिय भागहारद्धच्छेदणया उप्पाएदव्या । सव्वत्थ दुगुणादिकरणं कादव्वं । गहिद. परूवणा गदा।
गहिदगहिदं वत्तइस्सामो। तं जहा, पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण वेरूवधाराए उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तम्हि चेव वग्गे भागे हिदे सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि । एवमुवरि सव्वत्थ कायव्वं । वेरूवपरूवणा गदा। अहरूवे वत्तइस्सामो । घणपल्लपढमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागेण सासणसम्माइहिरासिणा उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तम्हि चेव वग्गे मागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते
६५५३६४३२७
५५३६४३२
करण कर लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीत उपरिमविकल्प प्ररूपणा समाप्त हुई।
अब गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-पल्योपमके असंख्यातवें भाग (सासादनसम्यग्दृष्टिराशि) का द्विरूपवर्गधारामें ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका उसी इच्छित वर्गमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। उदाहरण-६५५३६ का इच्छित वर्ग ६५५३६२
६५५३६५ २०४८
६५५३६-३२-२०४८सा. उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके २१ अर्धच्छेद हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
इसीप्रकार ऊपरके वर्गस्थानों में भी सर्वत्र करना चाहिये । इसप्रकार द्विरूपवर्गधाराकी प्ररूपणा समाप्त हुई । अब घनधारामें गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं
- घनपल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका उसी इच्छित वर्गमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। उदाहरण-घन ६५५३६३ का प्रथम वर्गमूल २५६३
३६३४६५५३६३
= ६५५३६५४३२ २५६४३२
२०४८, २०४८ ६५५३६६
६५५३६४३२% २०४८ सा.
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१, २, ६. ]
दवमाणागमे सासण सम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं
[ ८५
रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइट्ठिरासी आगच्छदि । एवं सव्वत्थ परूवेदव्वं । अट्टरूपरूवणा गदा | घणाघणे वत्तइस्सा मो । घणाघणपल्लविदियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागेण सासणसम्माइद्विरासिणा उवरि इच्छिद्रवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तहि चेव वग्गे भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदयमेते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सास सम्माइरासी आगच्छदि । दिगहिदो गदो |
दिगुणगारं वत्तइस्सामो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण सासणसम्म इट्ठरासिणा उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तमेव वग्गं गुणेऊण तस्सुवरिम
उक्त भागहार के अर्धच्छेदप्रमाण उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है ।
उदाहरण - उक्त भागहारके ८५ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी २०४८ प्रमाण सासादन सम्यग्दृष्टिराशि आती है ।
इसीप्रकार सर्वत्र प्ररूपण करना चाहिये । इसप्रकार घनधारा समाप्त हुई । अब घनाघनधारामें गृहीतगृहीत उपरिम विकल्प बतलाते हैं
घनाघनपल्के द्वितीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणका घनाघनपल्यके ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका उसी वर्ग में भाग देने पर सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
उदाहरण – घनाघन ६५५३६ का द्वितीय वर्गमूल १६६ १६ का असंख्यातवां भाग २ × १६,
= २०४८;
६५५३६' x ६५५३६' २०४८
१६' २x१६ ६५५३६' x ६५५३६' ६५५३६ x ३२
= २०४८.
उक्त भागहार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
उदाहरण -- उक्त भागहारके २७७ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दा राशि आती है । इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्प समाप्त हुआ ।
= ६५५३६ x ३२१
अब गृहीतगुणकार उपरिम विकल्पको बतलाते हैं—पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि के प्रमाणका पल्योपमके ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे उसी इच्छित वर्गको गुणित करके आई हुई लब्ध राशिका इच्छित वर्ग उपरिम वर्ग में भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
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८६)
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ६. वग्गे भागे हिदे सासणसम्माइट्ठिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइद्विरासी अवचिट्ठदे । एवं सव्वत्थ वत्तन्वं । वेरूवपरूवणा गदा। अद्वरूवे वत्तइस्सामो । घणपल्लपढमवगमूलस्स असंखेजदिभागेण सासणसम्माइट्ठिरासिणा उपरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तमेव वग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे सासणसम्माइहिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइटिरासी अवचिट्ठदे । एवं सव्वत्थ वत्तव्यं । अट्टरूवपरूवणा गदा । घणाघणे वत्तइस्सामो । घणाघण
उदाहरण-६५५३६२
उदाहरण-२०४८ -
2 = ६५५३६ ४ ३२, ६५५३६२ x ६५५३६ ४ ३२ = ६५५३६३ ४ ३२६ ६५५३६२४ ६५५३६..
२०४८ सा.
६५५३५४३२
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भव्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि ही आती है।
उदाहरण—उक्त भागहारके ५३ अर्धच्छेद होते हैं, अतएव इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी २०१८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
इसीप्रकार सर्वत्र करना चाहिये । इसप्रकार द्विरूपप्ररूपणा समाप्त हुई। अब अष्टरूपमें गृहीतगुणकार उपरिम विकल्पको बतलाते हैं
घनपल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप सासादनसम्यग्दृष्टि राशिका घनपल्यके ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे उसी इच्छित वर्गको गुणित करके आई हुई लब्ध राशिका इच्छित वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है। उदाहरण-६५५३६३ का प्रथम वर्गमूल २५६, ___२५६५ ६५५३६४ ६५५३६ = ६५५३६' x ३२,
२०४८ ६५५६६ ४ ६५५३६४३२ = ६५५३६११ ४ ३२, ६५५३६६ x ६५५३६..
६५५३६१४३२ = २०४८ सा.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है।
उक्त भागहारके १८१ अर्धच्छेद होते हैं, अतएव इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धपछेद करने पर भी २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
इसीप्रकार सर्वत्र कहना चाहिये । इसप्रकार अष्टरूप प्ररूपणा समाप्त हुई। अब
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१, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं
[८७ विदियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागेण सासणसम्माइट्ठिरासिणा उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जं भागलद्धं तेण तमेव वग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि सासणसम्माइद्विरासी अवचिट्ठदे । एवं सव्वत्थ घणाघणधाराए वत्तव्यं । गहिदगुणगारो गदो। एवं सासणसम्माइटिपरूवणा समत्ता। एवं सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणं च वत्तव्यं । णवरि विसेसो अप्पप्पणो अवहारकालेहि खंडिदादो वत्तव्वा । एत्थ एदेसि संदिह्रि वत्तइस्सामो
वत्तीस सोलस चत्तारि जाण सदसहिदमट्ठवीसं च । एदे अवहारत्था हवंति संदिट्टिणा दिहा ॥ ३७॥
घनाघनधारामें गृहीतगुणकार उपरिम विकल्पको बतलाते हैं
घनाघनके द्वितीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका घनाघनपल्यके ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उससे उसी इच्छित घर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका उसी इच्छित वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है।।
उदाहरण- १६...
हरण- = २०४८. ६५५३६४ ६५५३६.
२०४८
-=६५५३६°४३२, ६५५३६८४ ६५५३६१ ४ ३२ = ६५५३६३५ x ३२;
६५५६६५-३२- २०४८ सा. उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके ५६५ अर्धच्छेद होते हैं, इसलिये इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी २०४८ प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आती है।
सर्वत्र घनाघनधारामें आगे भी इसीप्रकार कहना चाहिये । इसप्रकार गृहीतगुणकार उपरिम विकल्प समाप्त हुआ।
इसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि प्ररूपणा समाप्त हुई । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवराशिके प्रमाणका खण्डित, भाजित आदिके द्वारा कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अपने अपने अवहारकालके द्वारा ही खण्डित, भाजित आदिका कथन करना चाहिये। आगे इन सबकी अंकसंदृष्टि बतलाते हैं
सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालका प्रमाण ३२, सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अषहारकालका प्रमाण १६, असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालका प्रमाण ४, भौर संयता
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ७. पण्णट्ठी च सहस्सा पंचसया खलु छ उत्तरा तीसं । पलिदोवमं तु एवं वियाण संदिट्ठिणा दिहं ॥ ३८ ॥ विसहस्सं अडयालं छण्णउदी चेय चदुसहस्साणि । सोलसहस्साणि पुणो तिणिसया चउरसीदीया ॥ ३९ ॥ पंचसय वारसुत्तरमुद्दिट्ठाई तु लद्धदव्वाई ।
सासण-मिस्सासंजद-विरदाविरदाण णु कमेण ॥ ४० ॥ सासणसम्माइट्ठी ३२; सम्मामिच्छाइट्ठी १६; असंजदसम्माइट्ठी ४, संजदासजद १२८, एदे अवहारकाला । सासणसम्माइट्ठिदव्वपमाणं २०४८ सम्मामिच्छाइढिदव्यपमाणं ४०९६ असंजदसम्माइट्ठिदव्वपमाणं १६३८४ संजदासंजददव्वपमाणं ५१२ । पलिदोवमपमाणं ६५५३६' । । पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया, कोडिपुधत्तं ॥७॥)
पमत्तसंजदग्गहणं सेसगुणहाणाणं पडिसेहढें । कोडिपुधत्तग्गहणं सेससंखाणिरा
संयतसंबन्धी अवहारकालका प्रमाण १२८ जानना चाहिये । सम्यग्ज्ञानियोंके द्वारा देखे गये ये अवहारार्थ हैं ॥ ३७॥
__ पैंसठ हजार पांचसौ छत्तीसको पल्योपम जानना चाहिये ऐसा सम्यग्ज्ञानियोंने अवलोकन किया है ॥ ३८॥
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण २०४८, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण ४०९६, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण १६३८४ और संयतासंयत जीवराशिका प्रमाण ५१२ आता है ॥ ३९-४०॥
सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी भागहार ३२, सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी भागहार १६, असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी भागहार ४ और संयतासंयतसंबन्धी भागहार १२८ है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण २०४८, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण ४०९६, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण १६३८४ और संयतासंयत जीवराशिका प्रमाण ५१२ है । तथा पल्योपमका प्रमाण ६५५३६ समझना चाहिये।
प्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? कोटिपृथक्त्वप्रमाण हैं ॥७॥
शेष गुणस्थानोंका प्रातिषेध करनेके लिये प्रमत्तसंयतपदका ग्रहण किया है। शेष संख्याओंका निराकरण करनेके लिये कोटिपृथक्त्व पदका ग्रहण किया है।
१ पं. सं. पृ. ८.
२ प्रमत्तसंयताः कोटीपृथक्त्वसंख्या:। पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा तिसां कोटीनामुपरि नवानामधः। स. सि. १, ८. पंचेव य तेणउदी णवठ्ठविसयच्छउत्तरं पमदे । गो. जी. ६२४.
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१, २, ८.] दव्वपमाणाणुगमे अप्पमत्तसंजदपमाणपरूवणं
[८९ करणटुं। पुधत्तमिदि तिण्हं कोडीणमुवरि णवण्हं कोडीणं हेढदो जा संखा सा घेत्तवा । सा अणेगवियप्पादो इमा होदि त्ति ण जाणिजदे ? ण, परमगुरूवदेसादो जाणिजदे । तत्थ पमत्तसंजदा णं पंच कोडीओ तेणउदिलक्खा अट्ठाणउदिसहस्सा छउत्तरं विसदं च ५९३९८२०६ । एदमेत्तियं होदि त्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो।
अप्पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥८॥
जदि वि एवं संखेज्जा इदि वयणं सव्वसंखेज्जवियप्पाणं साहारण हवदि तो वि कोडिपुधत्तं ण पूरेदि त्ति णवदे । तं कधं? पुध सुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो, 'पमत्तद्धादो अप्पमत्तद्धा संखेज्जगुणहीणो' त्ति सुत्तादो वा । अप्पमत्तसंजदाणं पमाणं गुरूवदेसादो वुचदे। दो कोडीओ छण्णउदिलक्खा णवणउदिसहस्सा तिरहियसयं च । अंकदो वि एत्तिया हवंति २९६९९१०३ । वुत्तं च
शंका-पृथक्त्व इस पदसे तीन कोटिके ऊपर और नौ कोटिके नीचे जितनी संख्या है, वह लेना चाहिये । परंतु वह मध्यकी संख्या अनेक विकल्परूप होनेसे यही संख्या यहां ली गई है यह नहीं जाना जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, यह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। उसमें प्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण पांच करोड़ तेरानवे लाख अट्ठानवे हजार दोसौ छह ५९३९८२०६ है।
शंका-यह संख्या इतनी है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-आचार्यपरंपरासे आये हुए जिनेन्द्रदेवके उपदेशसे यह जाना जाता है कि यह संख्या इतनी ही है। ___ अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ८॥
यद्यपि सूत्र में आया हुआ ‘संखेजा' यह वचन, संख्यात संख्याके जितने भी विकल्प हैं, उनमें समानरूपसे पाया जाता है तो भी वह कोटिपृथक्त्वको पूरा नहीं करता है, अर्थात् यहां पर कोटिपृथक्त्वसे नीचेकी संख्या इष्ट है, यह जाना जाता है।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-यहां पर पूर्वोक्त अर्थ इष्ट न होकर यदि कोटिपृथक्त्वरूप अर्थ ही इष्ट होता तो अलगसे सूत्र बनानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। अथवा, 'प्रमत्तसंयतके कालसे अप्रमत्तसंयतका काल संख्यातगुणा हीन है' इस सूत्रसे भी जाना जाता है कि यहां पर कोटिपृथक्त्वरूप अर्थ इष्ट नहीं है।
अब गुरूपदेशसे अप्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण कहते हैंअप्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण दो करोड़ छयानवे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन ...... ......."
१ अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः। स. सि. १, ८. तिरधियसयणवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त वे कोडी। गो जी. ६२५, कोडीसहस्सपुहुत्तं पभत्तइयरे उ थोवयरा । पञ्चसं. २. २२.
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९.]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ९. तिगहिय-सद णवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त त्रे कोडी।
पंचेव य तेणउदी णवह विसया छउत्तरा चेय ॥ ११ ॥ अप्पमत्तदव्वादो पमत्तदव्वं केण कारणेण दुगुणं ? अपमत्तद्धादो पमत्तद्धाए दुगुणसादो।
चदुण्हमुवसामगा दव्वपमाणेण केवडियाः पवेसेण एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कस्सेण चउवणं ॥ ९ ॥
एगेगगुणट्ठाणम्हि एगसमयम्हि चारित्तमोहणीयमुवसामेंतो जहण्णेण एगो जीवो पविसइ, उक्कस्सेण चउवण्ण जीवा पविसंति । एदं सामण्णदो भवदि । विसेसदो पुण अह-समयाहिय-वासपुधत्तम्भंतरे उवसमसेढिपाओग्गा अह समया हवंति । तत्थ पढमसमए एगजीवमाई कादूण जा उक्कस्सेण सोलस जीवा त्ति उवसमसे ढिं चति । विदियसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण चउवीस जीवा त्ति उवसमसेटिं चडंति । तदियसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण तीस जीवा त्ति उवसमसेटिं चडंति । चउत्थसमए एगजीवमाइं काऊण जा उक्कस्सेण छत्तीस जीवा त्ति उवसमसेढिं चडंति ।
है। अंकोसे भी अप्रमत्तसंयत २९६९९१०३ इतने ही हैं। कहा भी है
प्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण पांच करोड़ तेरानवे लाख अट्ठानवे हजार दोसौ छह है और अप्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण दो करोड़ छयानवे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन है॥४१॥
शंका-अप्रमत्तसंयतके द्रव्यसे प्रमत्तसंयतका द्रव्य किस कारणसे दूना है ? समाधान-क्योंकि, अप्रमत्तसंयतके कालसे प्रमत्तसंयतका काल दुगुणा है।
चारों गुणस्थानोंके उपशामक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेशकी अपेक्षा एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूपसे चौवन होते हैं ॥ ९ ।
__ उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें एक समयमें चारित्रमोहनीयका उपशम करता हुआ जघन्यसे एक जीव प्रवेश करता है और उत्कृष्टरूपसे चौवन जीव प्रवेश करते हैं। यह कथन सामान्यसे है। विशेषकी अपेक्षा तो आठ समय अधिक वर्षपृथक्त्वके भीतर उपशमश्रेणीके योग्य (लगातार) आठ समय होते हैं। उनमेंसे प्रथम समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे सोलह जीवतक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। दूसरे समय में एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्ट रूपसे चौवीस जीवतक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। तीसरे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे तीस जवितक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। चौथे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे
१ गो. जी. ६२५. परं तत पंचेव य तेणउदी णवट्ठविसयच्छ उत्तरं पमदे' इति पाठः। पं. सं. ६२, ६३.
२ चत्वार उपशामकाः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्षेण चतुःपंचाशत् । स. सि. १,८. " एगारचउपपणा समग उवसामगा य उवसंता । पश्चसं. २,२३.
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१,२, १०.] दव्वरमाणाणुगमे उवसामगपमाणपरूवणं
[९१ पंचमसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण वायाल जीवा ति उवसमसेटिं चडति । छट्टसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण अडदाल जीवा त्ति उवसमसेढिमारुहंति । सत्तमहमदोसु समएसु एकजीवमाई काऊण जावुक्कस्सेण चउवण्ण जीवा ति उवसमसेटिं चडंति । उत्तं च
सोलसयं चउवीसं तीसं छत्तीस तह य वायालं ।
अडयालं चउवण्णं चउवण्ण होइ अंतिमए ॥ ४२ ॥ अद्धं पडुच्च संखेना ॥ १०॥
पुव्वुत्तेसु असु समएसु एगेगगुणहाणम्हि उक्कस्सेण संचिदसधजीवे एगटुं कदे चउरुत्तरतिसयमेत्ता हवंति । तेसिं संखेवेण मेलावणविहाणं वुच्चदे । अटुं गच्छं दृविय सत्तारसमाई काऊण छ उत्तरं करिय संकलणसुत्तेण' मेलाविदे एगेगगुणहाणम्मि संचिदछत्तीस जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। पांचवें समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे ब्यालीस जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। छठे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्ट रूपसे अड़तालीस जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। सातवें और आठवें इन दोनों समयों में एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे चौवन चौवन जीव तक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। कहा भी है
निरन्तर आठ समयपर्यन्त उपशमश्रेणी पर चढ़नेवाले जीवों में अधिकसे अधिक प्रथम समयमें सोलह, दूसरे समयमें चौवीस, तीसरे समयमें तीस, चौथे समयमें छत्तीस, पांचवें समयमें ब्यालीस, छठे समयमें अड़तालीस, सातवें समयमें चौवन और अन्तिम अर्थात् आठवें समयमें भी चौवन जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ते हैं॥४२॥
कालकी अपेक्षा उपशमश्रेणी में संचित हुए सभी जीव संख्यात होते हैं ॥१०॥
पूर्वोक्त आठ समयों में एक एक गुणस्थानमें उत्कृष्टरूपसे संचित हुए संपूर्ण जीवोंको एकत्रित करने पर तीनसौ चार होते हैं। आगे संक्षेपसे उन्हींके ओड़ करनेकी विधि कहते हैं
__ आठको गच्छरूपसे स्थापित करके, सत्रहको आदि अर्थात् मुख करके और छहको उत्तर अर्थात् चय करके 'पदमेगेण विहीणं' इत्यादि संकलन सूत्रके नियमानुसार जोड़ करने पर प्रत्येक गुणस्थानमें उपशमक जीवोंकी संचित राशिका प्रमाण तीनसौ चार भा जाता है।
उदाहरण-८ - १ = ७ + २ = ३३४ ६ = २१ + १७ = ३८ x ८ = ३०४.
१ गो. जी. ६२७. पं. सं. ६५, ६७.
२ स्वकालेन समुदिताः संख्येयाः । स. सि. १, ८. अद्ध पडच्च सेटीए हॉति सव्वे वि संखेज्जा। पञ्चसं. २, २३.
३१दमेगेण विहीणं दुभाजिदं उत्तरेण संगुणिदं । पभव जुदं पदगुणिदं पदगणिदं तं विजाणाहि। त्रि.सा. १६४. एकहीनं पदं वृद्धया ताडितं भाजितं द्विभिः। आदियुक्तं पराभ्यस्तमीप्सितं गणितं मतम् ॥ पं. सं. ७७.
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९२)
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ११. उवसामगाणं पमाणं हवदि । (सउक्कास्सपमाणजीवसहिदा सव्वे समया जुगवं ण लहंति त्ति के वि पुव्वुत्तपमाणं पंचूर्ण करेंति। एदं पंचूणं वक्खाणं पवाइज्जमाणं दक्खिणमाइरियपरंपरागयमिदि जं वुत्तं होइ । पुव्वुत्तवक्खाणमपवाइज्जमाणं वाउं आइरियपरंपरा-अणागदमिदि णायव्वं । ___ चउण्हं खवा अजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडियाः पवेसेण एको वा दो वा तिणि वा, उक्कस्सेण अडोत्तरसदं ॥११॥
अट्ठसमयाहिय-छ-मासभंतरे खवगसेढिपाओग्गा अट्ठ समया हवंति । तेसिं समयाणं विसेसविवक्खमकाऊण सामण्णपरूवर्ण कीरमाणे जहण्णेण एगो जीवो खवगगुणहाणं पडिवज्जदि । उक्कस्सेण अट्टोत्तरसयमेत्तजीवा खवगगुणट्ठाणं पडिवज्जति । विसेसमस्सिदूण परूविज्जमाणे पढमसमए एगजीवमाइं काऊण जा उक्कस्सेण वत्तीस जीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । विदियसमए एगजीवमाई काऊग जा उकास्सेण अडदालीस जीवा त्ति खवगसेटिं चडति । तदियसमए वि एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण सट्टि जीवा त्ति खवगसेटिं चडंति । चउत्थसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्करसेण वाहत्तरि जीवा त्ति
___ अपने इस उत्कृष्ट प्रमाणवाले जीवोंसे युक्त संपूर्ण समय एकसाथ नहीं प्राप्त होते हैं। इसलिये कितने ही आचार्य पूर्वोक्त प्रमाणसे पांच कम करते हैं। पूर्वोक्त प्रमाण से पांच कमका यह व्याख्यान प्रवाहरूपसे आ रहा है, दक्षिण है और आचार्य-परंपरागत है, यह इस कथनका तात्पर्य है। तथा पूर्वोक्त ३०४ का व्याख्यान प्रयाहरूपसे नहीं आ रहा है, वाम है, आचार्य-परंपरासे अनागत है, ऐसा जानना चाहिये।
__ चारों गुणस्थानोंके क्षपक और अयोगिकेवली जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेशकी अपेक्षा एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ हैं॥११॥
आठ समय अधिक छह महीनाके भीतर क्षपकश्रेणीके योग्य आठ समय होते हैं। उन समयोंके विशेष कथनकी विवक्षा न करके सामान्यरूपसे प्ररूपण करने पर जघन्यसे एक जीव क्षपक गुणस्थानको प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ जीव क्षपक गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। विशेषका आश्रय लेकर प्ररूपण करने पर प्रथम समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे बत्तीस जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। दूसरे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे अड़तालीस जीवतक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। तीसरे समय में एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे साठ जीवतक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। चौथे समयमें एक जीवको
१ सर्वोत्कृष्ट प्रमाश्लिष्टा लल्यन्ते न यतः क्षणाः । आचार्यैरपरैरुक्ताः पंचभी रहितास्ततः ॥ पं. सं. ६८.
२ चत्वारः क्षपका अयोगिकेवलिनश्च प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा। उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । स. सि. १, ८. खवगा स्त्रीणाजोगी एगाह जाव होति अट्ठसयं । पञ्चसं. २, २४.
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१, २, १२.] दव्वपमाणाणुगमे खवग-आदिपमाणपरूवणं
[९३ खवगसेटिं चडंति । पंचमसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण चउरासीदि जीवा त्ति खवगमेढिं चडंति । छट्ठमसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण छण्णउदि जीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । सत्तमसमए अट्ठमसमए च एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण अट्टत्तरसयजीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । उत्तं च
वत्तीसमट्ठदालं सट्ठी वाहत्तरी य चुलसीई ।
छण्णउदी अष्टुत्तरसदमटुत्तरसयं च वेदव्यं ॥ ४३ ॥ अद्धं पडुच्च संखेज्जा ॥ १२ ॥
अट्ठसमयसंचिदसव्वजीवे उक्कस्सेणे एगढे कदे अद्भुत्तरछस्सयमेत्तजीवा हवंति । तिस्से मेलावणविहाणं वुच्चदे । तं जहा-अटुं गच्छं हविय चोत्तीसमाई काऊण वारसुत्तरं करिय संकलणसुत्तेण मेलाविदे खवगरासी मिलदि । एत्थ करणगाहा
आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे बहत्तर जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। पांचवें समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे चौरासी जीवतक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। छठे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे छयानवे जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं । सातवें और आठवे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे प्रत्येक समयमें एकसौ आठ जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। कहा भी है
निरन्तर आठ समयपर्यन्त क्षपक श्रेणी पर चढ़नेवाले जीवों में पहले समयमें बत्तीस, दूसरे समयमें अड़तालीस, तीसरे समयमें साठ, चौथे समयमें बहत्तर, पांचवें समयमें चौरासी, छठे समयमें छयानवे, सातवे समयमें एकसौ आठ और आठवें समयमें एकसौ आठ जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ४३ ॥
कालकी अपेक्षा संचित हुए क्षपक जीव संख्यात होते हैं ॥ १२ ॥
पूर्वोक्त आठ समयों में संचित हुए संपूर्ण जीवोंको एकत्रित करने पर संपूर्ण जीव छहसौ आठ होते हैं। आगे उसी संख्याके जोड़ करने की विधि कहते हैं-आठको गच्छरूपसे स्थापित करके चौतीसको आदि अर्थात् मुख करके और बारहको उत्तर अर्थात् चय करके 'पदमेगेण विहीणं' इत्यादि संकलनसूत्रके नियमानुसार जोड़ देने पर क्षपक जीवोंकी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है।
उदाहरण-८-१-७,७:२-३३,३३४ १२:४२, ४२+३४ = ७६, ७६४८ =६०८. अब यहां इसी विषयमें करणगाथा दी जाती है
१ गो. जी. ६२८. पं. सं. ७९-८०. २ स्वकालेन समुदिताः संख्येयाः। स. सि. १, ८. अद्धाए सयपुहुत्तं । पञ्चसं. २, २४. ३ प्रतिषु 'जीवे ण' इति पाठः।
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १२. उत्तरदलहयगच्छे पचयदलणे सगादिवेत्त पुणो ।
पक्खिविय गच्छगुणिदे उवसम-खवगाण परिमाणं ॥ १४ ॥ एसा उत्तरपडिवत्ती । एत्थ दस अवणिदे दक्षिणपडिवत्ती हवदि । एसा उवसम-खवगपरूवणगाहा
तिसदिं वदंति केई चउरुत्तरमस्थपंचयं केई उवसामगेसु एदं खवगाणं जाण तदुगुणं ॥ ४५ ॥ चउरुत्तरतिष्णिसयं पमाणमुवसामगाण केई तु ।।
तं चेव य पंचूर्ण भणंति केई तु परिमाणं ॥ १६ ॥ एगेगगुणट्ठाणम्हि उवसामग-खवगाणं पमाणपरूवणगाहा
उत्तर अर्थात् प्रचयको आधा करके और उसे गच्छसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उसमेंसे प्रचयका आधा घटा देने पर और फिर स्वकीय आदि प्रमाणको जोड़ देने पर उत्पन्न राशिके पुनः गच्छले गुणित करने पर उपशमक और क्षपकोंका प्रमाण आता है ॥४४॥
उदाहरण-क्षपकोंकी अपेक्षा आदि ३४, प्रचय १२, गच्छ ८, उपशमकोंकी अपेक्षा मादि १७, प्रचय ६, गच्छ ,
१२:२% ६, ६४८ = ४८, ४८ - ६= ४२, ४२+३४ = ७६, ७६४८ = ६०८ एक गुणस्थानमें क्षपकोंका प्रमाण ।
६.२ = ३, ३४८ = २४, २४ - ३ = २१, २१ + १७ = ३८, ३८४८= ३०४ एक गुणस्थानमें उपशमकोका प्रमाण ।
विशेषार्थ-यद्यपि यह करणगाथा यहां पर उपशमकों और क्षपकोंका प्रमाण लानेके लिये उद्धत की गई है और उसमें उपशमकों और क्षपकोंके प्रमाण लानेकी प्रतिक्षा भी की गई है, परंतु जहां समान हानि या समान वृद्धि पाई जाती है ऐसी अनेक संख्याओंका जोड़ भी इसी नियमसे आ जाता है।
__ यह उत्तरमान्यता है । ६०८ मेंसे १० निकाल देने पर दक्षिणमान्यता होती है । अब आगे उपशमक और क्षपक जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा देते हैं
कितने ही आचार्य उपशमक जीवोंका प्रमाण तीनसौ कहते है। कितने ही आचार्य तीनसौ चार कहते हैं और कितने ही आचार्य तीनसौ चारमेंसे पांच कम अर्थात् दोसो निन्यानवे कहते हैं । इसप्रकार यह उपशमक जीवोंका प्रमाण है । क्षपकोंका इससे दुना जानो॥४५॥
कितने ही आचार्य उपशमक जीवोंका प्रमाण तीनसौ चार कहते है और कितने ही आचार्य पांच कम तीनसौ चार अर्थात् दोसौ निन्यानवे कहते हैं॥४६॥
आगे एक एक गुणस्थानमें उपशमक और क्षपक जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा देते हैं
१ गो. नी. ६२६. सं. पं. ६९.
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१, २, १४. ]
माणागमे सजोगिकेवलिपमाणपरूवणं
एकगुणट्ठाणे असु समरसु संचिदाणं तु । असय सत्तणउदी उवसम - खवगाण परिमाणं ॥ ४७ ॥
सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडियाः पवेसणेण एको वा दो वा तिण्णि वा, उकस्लेण अट्टुत्तरयं ॥ १३ ॥ एदस्त सुत्तस्स अत्थो पुत्रं व परूवेदव्वो । अद्धं पडुच्च सदसहस्सपुत्तं ॥ १४ ॥
अद्धमस्सिऊण सदसहस्सपुधत्ताणयणविहाणं बुच्चदे - अड्डसमयाहियछम्मासाणमअंतरे जदि अट्ठ सिद्धसमया लब्भंति तो चालीस सहस्स अट्ठसय एक्केतालीसमेत अट्ठसमयाहियछ मासान्तरे केत्तिया सिद्धसमया लब्भंति त्ति तेरासिए कदे तिणिलक्खछब्बीससहस्स- सत्तसय- अट्ठावीसमेत सिद्धसमया लब्भंति । पुणो एदम्हि सिद्धकाल म्ह संचिदस जोगिजीवाणं पमाणाणयणं बुच्चदे । तं जहा - छसु सिद्धसमएसु तिष्णि तिण्णि
[ ९५
एक एक गुणस्थानमें आठ समय में संचित हुए उपशमक और क्षपक जीवों का परिमाण आठसौ सत्तानवे है ॥ ४७ ॥
सयोगिकेवली जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेशसे एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूप से एकसौ आठ होते हैं ।। १३ ।।
इस सूत्र का अर्थ पहले के समान कहना चाहिये ।
कालकी अपेक्षा संपूर्ण सयोगी जिन लक्षपृथक्त्व होते हैं ॥ १४ ॥
सयोगी जिन कालका आश्रय करके लक्षपृथक्त्व कहे हैं, आगे उसी लक्षपृथक्त्व के लकी विधि कहते हैं
आठ समय अधिक छह माह के भीतर यदि आठ सिद्ध समय प्राप्त होते हैं तो चालीस हजार आठसौ इकतालीस मात्र अर्थात् इतनीवार आठ समय अधिक छह माह के भीतर कितने सिद्ध समय प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस सिद्ध समय आते हैं। अब आगे इस सिद्ध कालमें संचित हुए सयोगी जीवोंका प्रमाण लाने की विधि कहते हैं । वह इसप्रकार है
१ सयोग केवलिनः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । स. सि. १, ८. २ स्वकालेन समुदिताः शतसहस्रपृथक्त्वसंख्याः । स. सि. १, ८. को डिपुहुत्तं सजोगिओ । पञ्चसं. २, २४. ३ सक्षणाष्टकषण्मास्यामेकत्राष्ट क्षणा यदि । इयतीनां तदा तास सद्वियोग्या कति क्षणाः ॥ चत्वारिंशसहस्राणि षण्मास्योऽष्टक्षणाधिकाः । भवन्त्यष्टशतान्येकचत्वारिंशानि सिद्धयताम् ॥ आद्यन्तयोः प्रमाणेच्छे विधायान्तस्तयोः फलम् । अन्तेन गुणितं कृत्वा भजनीयं तदादिना ॥ समयानां त्रयोलक्षाः षड्डिशतिसहस्रकाः । अष्टावि विबोद्धव्यमपरे शतसप्तकम् | पं. सं. ८६-८९.
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९६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १४. जीवा केवलणाणं उप्पाएंति, दोसु समएसु दो दो जीवा जदि केवलणाणं उप्पाएंति, तो असमयसंचिदसजोगिजिणा वावीस भवंति। असु सिद्धसमएसु जदि वावीस सजोगिजिणा लभंति तो तिण्णिलक्ख-छव्वीससहस्स-सत्तसय अठ्ठावीसमेत्त-सिद्धसमएसु केत्तिया सजोगिजिणा लब्भंति ति तेरासिए कए अहलक्ख-अट्ठाणउदिसहस्स-दुरहिय-पंचसदमेत्ता सजोगिजिणा लद्धा हवंति । वुत्तं च
अद्वेव सयसहस्सा अट्ठाणउदी तहा सहस्साई ।
संखा जोगिजिणाणं पंचसद विउत्तरं जाण ॥ ४८ ॥ एदीए दिसाए बहुएहि पयारेहि सजोइरासिस्स पमाणमाणेयव्यं । तं जहाजम्हि पुविल्लसिद्धकालस्स अद्धमेत्तो सिद्धकालो लब्भइ तम्हि तेरासियमेवमाणेयव्यं । तं जहा- अहसु सिद्धसमएसु जदि चउत्तालीसमेत्ता सजोगिजिणा लब्भंति तो एक्क. लक्ख-तिसहिसहस्स-तिण्णिसय-चउसहिमेत्त-सिद्धसमयाणं केत्तिया सजोगिजिणा लब्भंति त्ति तइरासिए कदे पुठिवल्लो चेव सजोगिरासी उप्पज्जदि । जम्हि आउ व्वे पुबिल्लसिद्धकालस्स चउभागमेत्तो सिद्धकालो लब्भइ तम्हि एवं तइरासि कायव्वं । अहसु सिद्धसमएसु जदि अहरासीदि सजोगिजिणा लब्भंति तो एगासीदिसहस्स-छस्सय-वासीदि
छह सिद्ध समयोंमें तीन तीन जीव, और दो समयों में दो दो जीव यदि केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, तो आठ समयों में संचित हुए सयोगी जिन बावीस होते हैं। इसप्रकार यदि आठ सिद्ध समयों में बावीस सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो तीन लाख छव्वीस हजार सातसौ अट्ठाईस सिद्ध समयों में कितने सयोगी प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर आठ लाख अट्ठानवे हजार पांचसौ दो सयोगी जिन प्राप्त हो जाते हैं। कहा भी है
सयोगी जीवोंकी संख्या आठ लाख अट्ठानवे हजार पांचसौ दो जानो ॥४८॥
इसी दिशाले अनेक प्रकारसे सयोगी जीवोंकी राशि लाना चाहिये । आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं
___ जहां पर पहलेके सिद्धकालका अर्धमात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है वहां पर इसप्रकार त्रैराशिक लाना चाहिये । वह इसप्रकार है-आठ सिद्ध समयोंमें यदि चवालीस सयोगी जिन प्राप्त होते हैं, तो एक लाख सठ हजार तीनसौ चौसठ सिद्ध समयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर पूर्वोक्त ८९८५०२ सयोगी जीवोंकी ही राशि आ जाती है । अथवा, जिसमें पहलेके सिद्धकालका चौथा भागमात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है वहां पर इस प्रकार त्रैराशिक करना चाहिये । आठ सिद्ध समयोंमें यदि अठासी सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो इक्यासी हजार छहसौ ब्यासीमात्र सिद्ध समयों में कितने सयोगी जिन प्राप्त होंगे इस
१ गो. जी. ६२९.
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१, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे सजोगिकेवलिपमाणपरूवणं
[ ९० मेत्तसिद्धसमयाणं केत्तिया सजोगिजिणा लब्भंति त्ति तेरासिए कए सो चेव रासी लम्भदि । एवमण्णत्थ वि जाणिऊण वत्तव्यं । जहाक्खादसंजदाणं पमाणवण्णणा गाहा
अढेव सयसहस्सा णवणउदिसहस्स चेव णवयसया ।
सत्ताणउदी य तहा जहक्खादा होंति ओघेण ॥ ४९ ॥ एवं परूविदसव्वं संजदरासिमेगडे कदे अट्ठकोडीओ णवणउदिलक्खा णवणउदिसहस्सा णवसद सत्ताणउदिमेत्तो होदि ८९९९९९९७ । एदम्हादो रासीदो उवसामग-खवगपमाणमवणेयव्वं । तेसिं पमाणपरूवणगाहा
णव चेव सयसहस्सा छव्वीससया य होंति अडसीया ।
परिमाणं णायव्वं उवसम-खवगाणमेदं तु ॥ ५० ॥ एदमवणिय तीहि भागो हायव्यो। लद्धमप्पमत्तरासी हवदि । दुगुणिदे पमत्तरासी
प्रकार त्रैराशिक करने पर वही पूर्वोक्त ८९८५०२ सयोगी जीवराशि ही आ जाती है। इसीप्रकार अन्यत्र भी जानकर कथन करना चाहिये ।
प्रमाणराशि फलराशि इच्छाराशि
लन्ध प्रमाण ८समय २२ केवली समय ३२६७२८
८९८५०२ ८समय ४४ केवली १६३३६४
८९८५०२ ८समय ८८ केबली
८१६८२
८९८५०२ अब यथाख्यात संयतोंकी संख्याका वर्णन करनेवाली गाथा देते हैं
सामान्यसे यथाख्यातसंयमी जीव आठ लाख निन्यानवे हजार नौसौ सत्तानवे होते हैं ॥४९॥
इसप्रकार प्ररूपण की गई संपूर्ण संयत जीवोंकी राशिको एकत्रित करने पर कुल संख्या आठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौसौ सत्तानवे ८९९९९९९७ होती है। इस राशिमेंसे उपशमक और क्षपक जीवोंके प्रमाणको निकाल देना चाहिये । उपशमक और सपक जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा इसप्रकार है
उपशमक और क्षपक जीवोंका परिमाण नौ लाख दो हजार छह सौ अठासी जानना चाहिये ॥५०॥
संयतोंकी संपूर्ण राशिमेंसे इस उपशमक और क्षपक जीवराशिको निकालकर तीनका भाग देना चाहिये। जो तीसरा भाग लब्ध आया उतना अप्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण
१ गो. जी. जी. प्र., टी. ६२९.
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९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १४. हवदि । वुत्तं च
( सत्तादी अहंता छण्णवमझा य संजदा सव्वे ।
तिगभजिदा विगगुणिदापमत्तरासी पमत्ता दु' ।। ५१ ।। Vएसा दक्षिणपडिवत्ती । एसा गाहा ण भदिया त्ति के वि आइरिया जुत्तिबलेण भणंति । का जुत्ती ? वुच्चदे-सव्वतित्थयरेहितो पउमप्पहभडारओ बहुसीसपरिवारो तीससहस्साहिय-तिण्णिलक्खमेत्तमुणिगणपरिवुदत्तादो । तेसु सत्तर-सएण गुणिदेसु एक्कसविलक्खाहियपंचकोडिमेत्ता संजदा होति । एदे च पुचिल्लगाहाए वुत्तसंजदाणं पमाणं ण पावेंति । तदो गाहा ण भदिएत्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे- सम्योसप्पिणीहिंतो अइमा हुंडोसप्पिणी। तत्थतणतित्थयरसिस्सपरिवार जुगमाहप्पेण ओहट्टिय डहरभावमापण्ण घेत्तूण ण गाहासुतं सिदुं सक्किज्जदि, सेसोसप्पिणीतित्थयरेसु बहुसीसपरिवारुवलंभादो। ण च भरहेरावयवासेसु मणुसाण बहुत्तमत्थि, जेणेत्थतणेक्कतित्थयर
है। इसे दूना करने पर प्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण होता है। कहा भी है
जिस संख्याके आदिमें सात हैं, अन्तमें आठ हैं और मध्यमें छहवार नौ हैं, उतने अर्थात आठ करोड निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तान्नवे सर्व संयत हैं। (इनमेंसे उपशमक और क्षपकॉका प्रमाण ९०२६८८ निकालकर जो राशि शेष रहे उसमें) तीनका भाग देने पर २९६९९१०३ अप्रमत्तसंयत होते हैं। और अप्रमत्तसंयतोंके प्रमाणको दोसे गुणा कर देने पर ५९३९८२०६ प्रमत्तसंयत होते हैं ॥५१॥
__ यह दक्षिण मान्यता है। यह पूर्वोक्त गाथा ठीक नहीं है ऐसा कितने ही आचार्य युक्तिके बलसे कहते हैं।
शंका-वह कौनसी युक्ति है ? आगे शंकाकार उसी युक्तिका समर्थन करता है कि संपूर्ण तीर्थकरोंकी अपेक्षा पद्मप्रभ भट्टारकका शिष्य-परिवार अधिक था, क्योंकि, घे तीन लाख तीस हजार मुनिगणोंसे वेष्ठित थे। इस संख्याको एकसौ सत्तरसे गुणा करने पर पांच करोड़ इकसठ लाख संयत होते हैं। परंतु यह संख्या पूर्व गाथामें कहे गये संयतोंके प्रमाणको नहीं प्राप्त होती है, इसलिये पूर्व गाथा ठीक नहीं है ?
समाधान-आगे पूर्व शंकाका परिहार करते हैं कि संपूर्ण अवसर्पिणियोंकी अपेक्षा यह हुंडावसर्पिणी है, इसलिये युगके माहात्म्यसे घटकर म्हस्वभावको प्राप्त हुए हुंडावसर्पिणी कालसंबन्धी तीर्थकरके शिष्य-परिवारको ग्रहण करके गाथास्त्रको दषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि, शेष अवसर्पिणियोंके तीर्थकरोंके बड़ा शिष्य-परिवार पाया जाता है। दूसरे भरत और ऐरावत क्षेत्रमें मनुष्योंकी अधिक संख्या नहीं पाई जाती है जिससे उन दोनों क्षेत्रसंबन्धी एक तीर्थकरके संघके प्रमाणसे विदेहसंबन्धी एक तीर्थकरका संघ समान
१ सत्तादी अटुंता कण्णवमज्ज्ञा य संजदा सव्वे । अंजलिमौलियहत्थो तियरणसुद्धे णमंसामि । गो.जी. ६३१.
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१, २, १४. ]
दन्त्रमाणानुगमे उत्तरपडिवत्तिपरूवणं
[ ९९
गणपमाणेण विदेहेक्कतित्थयरगणो सरिसो होज्ज । किं तु एत्थतणमणुवेर्हितो विदेहमनुस्सा संखेज्जगुणा । तं जहा - सव्वत्थोवा अंतरदीवमणुस्सा | उत्तर कुरुदेव कुरुमणुवा संखेज्जगुणा । हरिरम्मयवासेसु मणुआ संखेज्जगुणा । हेमवद हेरण्णव दमणुआ संखेज्जगुणा । भरहेरावदमणुआ संखेज्जगुणा | विदेहे मणुआ संखेज्जगुणा' ति बहुवमणुस्सेसु जेण संजदा बहुआ चेव तेणेत्थतणसंजाणं पमाणं पहाणं काढूण जं दूसणं भणिदं तण्ण दूसणं, बुद्धिविणाइरियमुहविणिग्गय चादो
एतो उत्तरपडिवतिं वत्तस्साम । एत्थ पमत्तसंजदपमाणं चत्तारि कोडीओ छासलिक्खा छासद्विसहस्सा छसद चउसहिमेत्तं भवदि । वृत्तं च
चउसठ्ठी छच्च सया छासट्टिसहस्स चेव परिमाणं । छासट्ठिसय सहस्सा कोडिचउक्कं पमत्ताणं ॥ ५२ ॥
४६६६६६६४ । वे कोडीओ सत्तावीसलक्खा णवणउदिसहस्सा चत्तारिसद अडाणउदिमेत्ता अप्पमत्तसंजदा हवंति । उत्तं च-
माना जाय । किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रके मनुष्योंसे विदेह क्षेत्रके मनुष्य संख्यातगुणे हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है
अन्तरद्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं । उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि और रम्यक क्षेत्रोंके मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रोंके मनुष्य हरि और रम्यकके मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके मनुष्य हरि और रम्यकके मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । विदेह क्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । बहुत मनुष्यों में क्योंकि संयत बहुत ही होंगे इसलिये इस क्षेत्रसंबन्धी संयतोंके प्रमाणको प्रधान करके जो दूषण कहा वह दूषण नहीं हो सकता, क्योंकि, वह बुद्धिरहित आचार्योंके मुखसे निकला हुआ है । अब आगे उत्तर मान्यताको बतलाते है
गया
उत्तर मान्यता के अनुसार संयतों में प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण केवल चार करोड़ छ्यासठ लाख छयासठ हजार छहसौ चौसठ है । कहा भी है
प्रमत्तसंयतों का प्रमाण चार करोड़ छ्यासठ लाख छयासठ हजार छहसौ चौसठ ४६६६६६६४ है ॥ ५२ ॥
दो करोड़ सत्ताईस लाख निन्यानवे हजार चारसौ अट्ठानवे अप्रमत्तसंयत जीव हैं ।
कहा भी है
१ अंतरदीव मणुस्सा थोवा ते कुरुसु दससु संखेज्जा । तचो संखेज्जगुणा हवंति हरिरम्मगेसु सेसु । वरिसे संखेज्जगुणा हेरण्णवदम्मि हेमवदवरिले । भरहेरावदवंसे संखेज्जगुणा विदेहे य ॥ ति. प. पत्र १६०.
२ प्रतिषु ' छावत रिसहस्स ' इति पाठः ।
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१.०] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १४. वे कोडि सत्तवीसा होति सहस्सा तहेव णवणउदी।
चउसद अट्ठाणउदी परिसंखा होदि विदियगुणा ॥ ५३ ॥ अंकदो वि २२७९९४९८ । उवसामग-खवगपमाणपरूवणा पुव्वं व भाणिदया। णवरि 'सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जा' एदस्स परूवणा अण्णहा हवदि । तं जहा
अट्ठसमयाहियछमासाणं जदि अट्ठसमयमेत्तो सिद्धकालो लब्भदि तो चत्तारिसहस्स-सत्तसद-एगूणतीसमेत्त-अट्ठसमयाहिय-छम्मासाणं केत्तियो सिद्धकालो लब्भदि त्ति तेरासिए कदे सत्ततीससहस्स अट्ठसद-वत्तीसमेत्तसिद्धसमया लब्भंति । एदम्हि कालम्हि संचिदसजोगिजिणपमाणमाणिज्जदे । तं जहा- अट्ठसु समएसु चोद्दस चोद्दस सजोगिजिणा होति त्ति कट्ट जदि अण्हं समयाणं बारहोत्तरसयमेत्ता सजोगिजिणा लब्भंति तो ससतीससहस्स-अट्ठसद-वत्तीसमेत्तसिद्धसमयाणं केत्तिया लब्भंति त्ति तेरासिए कए पंचलक्ख-एगूणतीससहस्स-छस्सय-अद्वेदालीसमेत्ता सजोगिजिणा हवंति । वुत्तं च
पंचेव सयसहस्सा होंति सहस्सा तहेव उणतीसा। छच्च सया अडयाला जोगिजिणाणं हवदि संखा ॥ ५४ ॥
द्वितीय गुणस्थान अर्थात् अप्रमत्तसंयत जीवोंकी संख्या दो करोड़ सत्ताईस लाख निन्यानवे हजार चारसौ अट्ठानवे है॥५३॥
अंकोंसे भी २२७९९४९८ अप्रमत्तसंयत जीव हैं। उपशामक और क्षपक जीवोंके प्रमाणका प्ररूपण पहलेके समान कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सयोगिकेवली जीव कालकी अपेक्षा संचित हुए संख्यात होते हैं। यहां पर केवलियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा दूसरे प्रकारसे होती है। वह इसप्रकार है- आठ समय अधिक छह महीनेका यदि आठ समयमात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है तो चार हजार सातसौ उनतीसमात्र आठ समय अधिक छह महीनोंके कितने सिद्धकाल प्राप्त होंगे; इसप्रकार त्रैराशिक करने पर सेंतीस हजार आठसौ बत्तीसमात्र सिद्ध समय प्राप्त होते हैं। अब इस कालमें संचित हुए सयोगी जिनका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है-आठ समयों से प्रत्येक समयमें चौदह चौदह सयोगी जिन होते हैं, ऐसा समझकर यदि आठ समयोंके एकसौ बारह सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो संतीस हजार आठसौ बत्तीस सिद्ध समयोंके कितने सयोगी जीव प्राप्त होंगे, इसप्रकार बैराशिक करने पर पांच लाख उनतीस हजार छहसौ अड़तालीस सयोगी जीव प्राप्त होते हैं। कहा भी है
सयोगी जिन जीवोंकी संख्या पांच लाख उनतीस हजार छहसौ अड़तालीस है ॥५४॥ प्रमाणराशि फलराशि इच्छाराशि
लब्ध ६ माह ८ समय । ८ समय
३७८३२ समय ८समय
११२ केवली ३७८३२ समय ५२९६४८ केवलि
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१, २, १४.] दबपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं
[१०१ ५२९६४८। एदेण अत्थपदेण अणेगेहि पयारेहि सजोगिरासी आणेयव्यो। उवसामग-खवगपमाणपरूवणगाहा
पंचेव सयसहस्सा होंति सहस्सा तहेव तेत्तीसा ।
असया चोत्तीसा उवसम-खवगाण केवलिणो ॥ ५५ ॥ एदे सव्वसंजदे एयहे कदे सत्तर-सदकम्मभूमिगदसव्वरिसओ भवंति । तेसिं पमाणं छकोडीओ णवणउइलक्खा णवणउदिसहस्सा णवसय-छण्णउदिमत्तं हवदि । एदस्स वेतिभागा पमत्तसंजदा हवंति। तिभागो अप्पमत्तादिसेससंजदा हवंति। वुत्तं च
___ छक्कादी छक्कंता छण्णवमझा य संजदा सव्वे ।
तिगभजिदा विगगुणिदापमत्तरासी पमत्ता दु ॥ ५६॥ ६९९९९९९६ । दव्वपमाणेण अवगदचोद्दसगुणट्ठाणाणं अप्पणो इच्छिद-इच्छिदरासिस्स एत्तियो एत्तियो भागो होदि त्ति तेसि भागभागपरूवणा कीरदे। तं जहा- भागादो भागो भागभागो । तं भागभागं वत्तइस्सामो । सव्यजीवरासिं सिद्धतेरसगुणहाणभजिदसव्व
इस पद्धतिके अनुसार दूसरे प्रकारसे भी सयोगी जीवोंकी राशि ले आना चाहिये । अब उपशमक और क्षपक जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा कहते हैं
चारों उपशमक, पांचों क्षपक और केवली ये तीनों राशियां मिलकर कुल पांच लाख तेतीस हजार आठसौ चौतीस हैं ॥ ५५॥
विशेषार्थ-ऊपर सयोगिकेवलियोंकी संख्या ५२९६४८ बतला आये हैं । उसमें चारों उपशमकोंकी संख्या ११९६ और पांचों क्षपकों की संख्या २९९० और मिला देने पर तीनोंकी संख्या ५३३८३४ हो जाती है।
इन सब संयतोंको एकत्रित करने पर एकसौ सत्तर कर्मभूमिगत संपूर्ण ऋषि होते हैं। उन सबका प्रमाण छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौसौ छयानवे है। इसका दो बेट तीन भाग अर्थात् ४६६६६६६४ जीव प्रमत्तसंयत हैं, और तीसरा भाग अर्थात् २३३३३३३२ जीव अप्रमत्तसंयत आदि शेष संयत हैं। कहा भी है
जिस संख्याके आदिमें छह, अन्तमें छह और मध्यमें छहवार नौ हैं, उतने अर्थात् छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ च्यानवे ६९९९९९९६ जीव संपूर्ण संयत हैं। इसमें तीनका भाग देने पर लब्ध आवे उतने अर्थात् २३३३३३३२ जीव अप्रमत्त आदि संपूर्ण संयत हैं और इसे दोसे गुणा करने पर जितनी राशि उत्पन्न हो उतने अर्थात् ४६६६६६६४ जीव प्रमत्तसंयत हैं ॥५६॥
द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा जाने हुए चौदहों गुणस्थानोंका प्रमाण अपनी इच्छित राशिके प्रमाणका इतनावां इतनावां भाग होता है, इसका शान करानेके लिये उनकी भागाभाग प्ररूपणा करते हैं। वह इसप्रकार है-भागसे होनेवाला भाग भागाभाग है। आगे उसी भागाभागको बतलाते है
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१०२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १४. जीवरासिमेत्ते भागे कदे तत्थ बहुभागो मिच्छाइट्ठिरासिपमाणं होदि । सेसं तेरसगुणट्ठाणोवहिदासिद्धरासिणा रूवाहिएण खंडिदे बहुखंडा सिद्धा हवंति । सेसाणं भागभागपरूवणहं सेसरासीओ एगभागहारेणाणिज्जते । तं जहा- संजदासंजददव्वं तप्पमाणेण कीरमाणे एगं भवदि । सासणसम्माइट्ठिदव्यं पि संजदासंजददव्यपमाणेण कीरमाणे सासणसम्माइट्ठि-अवहारकालेणोवट्टिदसंजदासंजद-अवहारकालमत्तं हवदि । सम्मामिच्छाइटिदव्वं संजदासंजददव्वपमाणेण कीरमाणे सम्मामिच्छाइट्ठि-अवहारकालेणोवट्टिदसंजदासंजद-अवहारकालमत्तं भवदि । असंजदसम्माइट्ठिदव्यं पि संजदासंजददव्वपमाणेण कीरमाणे असंजदसम्माइट्ठि-अवहारकालेणोवहिदसंजदासंजद-अवहारकालमत्तं भवदि ।
सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवी जीवराशिके प्रमाणका संपूर्ण जीवराशिमें भाग देने पर जो प्रमाण आवे उतने संपूर्ण जीवराशिके भाग करने पर उनसे बहुभाग मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है। जो एक भाग शेष रहता है उसे, सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी जीवराशिके प्रमाणसे भाजित सिद्धराशिमें रूपाधिक करके जो जोड़ हो उससे खण्डित करने पर जो बहुभाग आवे उतने सिद्ध होते हैं। उदाहरण-सर्व जीवराशि १६, सिद्ध २, सासादन आदि १; १६:३ = ५३ ३ ३ ३ ३ ३ १ बहुभाग १३ मिथ्यादृष्टि
१ १ १ १ १ १ और ३ सिद्धतेरस.
२१%D२+१%3D३, ३३% १, ३-१=२सिद्धः १ सासादन आदि. अब शेष राशियोंके भागाभागके प्ररूपण करनेके लिये शेष राशियां एक भागहारसे लाई जाती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है
संयतासंयत जीवराशिके द्रव्यको उसी प्रमाणसे (शलाकारूप) करने पर एक होता है (५१२ = १ पिंडरूप)। सासादनसम्यग्दृष्टिका द्रव्य भी संयतासंयतके द्रव्यप्रमाणसे करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालका संयतासंयत अवहारकालमें भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण होता है।
उदाहरण-१२८: ३२% ४४५१२ = २०४८ सासा.
सम्यग्मिथ्यादृष्टिका द्रव्य संयतासंयतके द्रव्यप्रमाणरूपसे करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि भवहारकालका संयतासंयत अवहारकालमें भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण होता है।
उदाहरण-१२८:१६८४५१२% ४०९६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्य.
असंयतसम्यग्दृष्टिका द्रव्य भी संयतासंयतके द्रव्यके प्रमाणरूपसे करने पर असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालका संयतासंयत अवहारकालमें भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण
१ प्रतिषु सुसम्बो' इति पाठः।
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१, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं
[१०३ णवसंजददव्वं संजदासंजददव्वपमाणेण कीरमाणे एगरूवस्स असंखेजदिभागं भवदि । एवमुप्पाइयसव्यसलागाओ एयर्ल्ड काऊण संजदासंजद-अवहारकालमोवाहिय लद्धण पलिदोवमे भागे हिदे तेरसगुणहाणदव्वमागच्छदि । एवं जेसिं जेसिं गुणट्ठाणाणं दव्याण मेगभागहारेणागमणमिच्छदि तेसिं तेसिं सलागाहि संजदासंजद-अवहारकालमोवट्टिय पलिदोवमे भागे हिदे ते ते रासीओ आगच्छंति ।
अधवा सासणसम्माइट्ठि-अवहारकालेण संजदासंजद अवहारकालमोवट्टिय लद्धेण सासणसम्माइट्ठि-अवहारकालं गुणेऊण पुणो तेणेव गुणगारेण रूवाहिएण तं चेवोवट्टिदे
होता है।
उदाहरण-१२८ : ४ = ३२४ ५१२ = १६३८४ असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य,
छठेसे लेकर चौदहवें गुणस्थानतक नौ संयतोंका द्रव्य संयतासंयतके द्रव्यके प्रमाणरूपसे करने पर एकरूप जो संयतासंयतका द्रव्य कह आये हैं उसका असंख्यातवां भाग होता है।
उदाहरण-२:५१२= ३५६४५१२ = २ नवसंयत द्रव्य.
इसप्रकार पहले उत्पन्न की हुई संपूर्ण शलाकाओंको एकत्रित करके और उनसे संयतासंयतसंबन्धी अवहारकालको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे पल्योपमके भाजित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवी जीवराशिका प्रमाण आ जाता है। उदाहरण-१+४+ ८+ ३२+२६४ = ४५२५६
३२७६८ १२८ : ४५२१६ - १९५२२ ६५५३६ ५ २३५३३ - २३०४२. इसीप्रकार जिन जिन गुणस्थानोंके द्रव्यका प्रमाण एक भागहारसे लानेकी इच्छा हो उन उन गुणस्थानोंकी शलाकाओंसे संयतासंयतसंबन्धी अवहारकालको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका पल्योपममें भाग देने पर उन उन गुणस्थानोंकी राशियां आ जाती हैं। उदाहरण-असंयतसम्यग्दृष्टि शलाकाराशि ३२,
१२८:३२% ४, ६५५३६:४=१६३८४ असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य. अथवा, सासादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालसे संयतासंयतके अवहारकालको अपवर्तित करके नो लब्ध आवे उससे सासादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे एक अधिक उसी गुणाकारसे अपवर्तित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन दोनोंका अवहारकाल आ जाता है।
उदाहरण-१२८ : ३२ = ४, ३२४ ४ = १२८, ४+ १ =५, १२८ : ५ - २५३ सासादन और संयतासंयतका अवहारकाल । इसका भाग पल्योपम ६५५३६ में देने पर सासादन और संयतासंयत इन दोनों गुणस्थानोंका द्रव्य २०४८+ ५१२ = २५६० आ जाता है। इसीप्रकार आगे भी जानना चाहिये।
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१०४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १४. सासण-संजदासंजदाणं अवहारकालो होदि । पुणो तं दो-गुणट्ठाण-अवहारकालं सम्मामिच्छाइट्ठि-अवहारकालेणोवट्टिय लद्धेण सम्मामिच्छाइहि-अवहारकालं गुणेऊण पुणो तेणेव गुणगारेण रूवाहिएण पुव्वं गुणिद-अवहारकालमोवट्टिदे तिण्हं गुणट्ठाणाणमवहारकालो हवदि । पुणो तमवहारकालं असंजदसम्माइट्टि-अवहारकालेणोवट्टिय लद्धण असंजदसम्माइट्टि-अवहारकालं गुणेऊण पुणो तेणेव गुणगाररासिणा रूवाहिएण पुचिल्लगुणिद-अवहारकालमोवहिदे चउण्हं गुणहाणाणमवहारकालो हवदि । पुणो णव-संजददव्वेण चउण्हं गुणट्ठाणाणं दवमोवट्टिय लद्धण चउण्हं गुणहाणाणमवहारकालं गुणेऊण पुणो तेणेव गुणगारेण रूवाहिएण तं चेव गुणिद-अवहारकालमोवट्टिदे तेरसण्हं गुणट्ठाणाणमवहारकालो होदि ।
अनन्तर उन दोनों गुणस्थानोंके अवहारकालको सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अवहारकालसे भाजित करके जो लब्ध आवे उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालसे गुणित करके अनन्तर एक अधिक उसी पूर्वोक्त गुणकारसे पहले गुणित किये हुए अवहारकालके अपवर्तित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन तीनों गुणस्थानोंका अवहारकाल होता है। उदाहरण–१२८ : १६ = १२८, १२८ x १६ = १२८, १२ + १ = २०८ ६०१३
९३६ सा. सम्यमि. और संयतासंयतका अवहारकाल । अनन्तर इन तीनों गुणस्थानोंसंबन्धी अवहारकालको असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालसे भाजित करके जो लब्ध आवे उससे असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको गुणित करके पुनः एक अधिक उसी पूर्वोक्त गुणकारसे पहले गुणित किये हुए अवहारकालके अपवर्तित करने पर द्वितीयादि चार गुणस्थानोंका भागहार आ जाता है। उदाहरण-०१३-४ = १२८, १२६ x ४ = १३८, १२८ + १ = १८०
१२८ . १८० = २३८ सासादनादि ४ गुणस्थानोंका अवहारकाल । अनन्तर प्रमत्तसंयत आदि नौ संयतोंके द्रव्यसे सासादन आदि चार गुणस्थानोंके द्रव्यको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे उक्त चार गुणस्थानोंके अवहारकालको गुणित करके अनन्तर एक अधिक उसी पूर्वोक्त गुणकारसे उसी गुणित अवहारकालको अपवर्तित करने पर सासादनादि तेरह गुणस्थानोंका अवहारकाल होता है। उदाहरण-नवसंयतराशि २, सासादनादि चार गुणस्थानराशि २३०४०, सासादनादि
चार गुणस्थानोंका अवहारकाल १२८, २३००० = ११९२० १२८.११५२० - २९४९१२, ११५२० . १. ११५२१ , ४५१ - ९ '
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१, २, १४. ]
toryमाणागमे ओघ - भागभागपरूवणं
[ १०५
अधवा संजदासंजद - अवहारकालं विरलेऊण पुणो पलिदोवमं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि संजदासंजददव्यमाणं पावदि । तमेगरुवस्सुवरि दि-संजदासंजदद णवसंजदरासिणोवट्टिय लद्धं विरलेऊण उवरिमविरलणाए पढमरूवधरिदसंजदासंजदद समखंड करिय दिणे रूवं पडि णत्रसंजदरासिपमाणं पावेदि । पुणो तं घेत्तूण उवरिमविरलणाए विदियादि-रूवाणमुवरि ट्ठिदसंजदासंजददव्वाणमुवरि पक्खिविदव्त्रं जाव मि-विरोवर दि-नवसंजदरासी सरिसच्छेदं काऊण पविट्ठोत्ति । जदि हेडिमविरलणादो उवरिमविरलणा रूवाहिया हवदि तो एगरूवपरिहाणी हवदि । अध वेरूवाहियं दुगुणमेत्ता हवदि तो दोन्हं रूत्राणं परिहाणी हवदि । अध तिरूवाहियतिउणमेचा हवदि तो तिहं रूवाणं परिहाणी हवदि । एत्थ पुण उवरिमविरलणादो हेडिमविरलणा असंखेज्जगुणा त्ति एगरूव - असंखेज्जदिभागस्स परिहाणी हवदि । तं जहा, हेडिमविरलरूवाहियमेतद्वाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडिय -
२९४९१२ ११५२१ २९४९१२ २७१७८
÷
९
१ स्थान राशिका अवहारकाल.
अथवा, संयतासंयत के अवहारकालको विरलित करके अनन्तर उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति संयतासंयत द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्तर विरलित राशिके एकके ऊपर स्थित उस संयतासंयतके द्रव्यको प्रमसादि नौ संयतराशिसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उसके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनमें पहले एकके ऊपर रक्खे हुए संयतासंयतके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति प्रमत्तादि नौ संयत राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्तर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त उस नौ संयत द्रव्यको ग्रहण करके उपरिम विरलनके द्वितीयादि रूपोंके ऊपर स्थित संयतासंयतके द्रव्योंमें तबतक मिलाते जाना चाहिये जबतक अधस्तन विरलन के ऊपर स्थित नौ संयतराशि समान छेद करके प्रविष्ट हो सके। यदि अधस्तन विरलनसे उपरिम विरलन एक अधिक होवे तो एककी हानि होती है । यदि अधस्तन विरलन से उपरिम विरलन दो अधिक दुगुने होवें तो दोकी हानि होती है । यदि अधस्तन विरलन से उपरम विरलन तीन अधिक तिगुना होवे तो तीनकी हानि होती है। यहां प्रकृतमें तो उपरम विरलनसे अधस्तन विरलन असंख्यातगुणा है, इसलिये एकके असंख्यातवें भागकी हानि होती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है
एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो
१ प्रतिषु ' अध वा रूवाहिय ' इति पाठः ।
=
= २:
१०३६८९ २३४५६३ सासादन आदि १३ गुण
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१०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १४. स्वपरिहाणि लभामो त्ति तेरासिए कदे एगरुवस्स असंखेजदिभागो आगच्छदि । तमुवरिमविरलणाए अवणिदे णवसंजदसहियसंजदासंजदाणमवहारकालो होदि ।
पुणो सासणसम्माइहि-अवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सासणसम्माइहिदव्यपमाणं पावदि । पुणो उवरिमविरलणपढमरूवधरिदसासणसम्माइडिदव्यं णवसंजदसहिदसंजदासंजददव्वेणोवट्टिय तत्थ लद्धमावलियाएं असंखेजदिमागं घिरलेऊण उवरिमविरलणाए पढमरुवस्सुवरि हिदसासणसम्माइदिव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दसगुणट्ठाणरासीओ पावेंति । एत्थ एगरूवधरिददसगुणहाणरासिपमाणं घेत्तूण उवरिमविरलणम्हि सुण्णं मोत्तूण तदणंतररूवस्सुवरि हिदसासणदव्वम्हि पक्खित्ते एकारसगुणहाणरासीओ सव्वे मिलिदा हवंति । एवं हेहिम
उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर एकका ' असंख्यातवां भाग आता है। उसे उपरिम विरलनमेंसे घटा देने पर नौ संयतसहित संयतासंयत राशिका अवहारकाल होता है। उदाहरण-नौ संयतराशि २, संयतासंयत अवहारकाल १२८, संयतासंयत द्रव्य ५१२;
अधस्तन विरलन २५६ में १ ५१२ ५१२ १२ १२८ वार; अधिक अर्थात् २५७ स्थान जाकर ५१२:२= २५६,
यदि १ की हानि प्राप्त होती है २ २ २ २ २ २ २५वार.
तो उपरिम विरलन मात्र १२८ ११ १२ १२ २५६ वार; स्थान जाकर कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिकसे ३३६ की हानि प्राप्त हो जाती है। इसे उपरिम विरलन राशि १२८ भेले घटा देने पर १२७३२९ आते हैं। यही संयत सहित संयतासंयतके द्रव्यका अवहारकाल है।
अनन्तर सालादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एक पर पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति सासादनसम्यग्दृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उपारिम विरलनके पहले अंकपर रक्खे हुए सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यको प्रमत्तादि नौ संयतोंके द्रव्यसहित संयतासंयतके द्रव्यसे भाजित करके वहां जो आवलीका असख्यातवा भाग लब्ध आवे उन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनके पहले अंकपर स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति संयतासंयत आदि दश गुणस्थानवी जीवोंकी संख्या प्राप्त होती है। यहां अधस्तन विरलनके एक अंकपर रक्खे हुए दश गुणस्थानकी राशिके प्रमाणको ग्रहण करके उपरिम विरलनमें शून्य स्थानको (जिस पहले अंकके ऊपर रक्खी हुई संख्यामें दश गुणस्थानोंके द्रव्यका भाग दिया है उसे) छोड़कर उसके अनन्तर अंकपर स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यमें मिला देने पर सब मिल कर सासादन और संयतासंयत आदि अयोगिकेवलीपर्यंत ग्यारह गुणस्थानवर्ती
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१, २, १४. ]
दव्यमाणागमे ओघ - भागभागपरूवणं
[ १०७
विरलणमेतदसगुणद्वाणदव्वं उवरिमविरलणाए हिदसासणदव्त्रम्हि णिरंतरं दिण्णे हेडिम - विरलणमेतदसगुणद्वाणरासी समप्पदि । एत्थ एगरूवस्स परिहाणी लब्भदि । पुणो उवरिमविरलणाए तदणंतररूवोवरि द्विदसासणदव्वं हेडिमविरलणाए समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि दसगुणहाणरासिपमाणं पावेदि । एदं पि घेत्तूण पुत्रं व समकरणे कदे पुणो वि उat एगरूवपरिहाणी लब्भदि । एवं पुणो पुणो कादव्वं जा उवरिमविरलणा सन्मा एक्कारसगुणट्ठाण अवहारकालमेत्तं पत्ता त्ति । एवं समकरणं करिय परिहीणरूवाणं पमाणमाजिदे । तं जहा, हेडिमविरलणरूवाहियमेतद्भाणमुवरिमविरलणाए गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तसव्वरूवेसु केवडियरूवपरिहाणि लभामो त्ति तेरासियं करिय रूवादियहेट्टिमविरलणाए उवरिमविरलणमोवट्टिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अवणिज्जमाणरूवाणि लब्धंति । ताणि उवरिमविरलगाए सरिसच्छेदं काऊण अवणिदे एक्कारसगुणट्टाणाणमवहारकालो होदि । तेण अवहारकालेण पलिदो मे भागे हिदे एक्कारसगुणट्ठाणदव्वमागच्छदि ।
जीवराशि होती है । इसप्रकार अधस्तन विरलनमात्र दश गुणस्थानोंके द्रव्यको उपरिम विरलन में स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यमें मिला देने पर अधस्तन विरलनमात्र दश गुणस्थानोंकी जीवराशि समाप्त हो जाती हैं और यहां एककी हानि प्राप्त होती है । अनन्तर उपरिम विरलन में, जहां तक दश गुणस्थानराशि मिलाई हो उसके अनन्तर के विरलित अंकपर स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यको अधस्तन विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति संयतासंयत आदि दश गुणस्थानोंकी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । इस राशिको भी लेकर पहले के समान समीकरण करने पर, अर्थात् उपरिम विरलन के शून्यस्थानको छोड़कर आगे के स्थानों में अधस्तन विरलनमात्र दश गुणस्थानराशिके मिला देने पर, फिर भी ऊपर एककी हानि प्राप्त होती है । इसप्रकार जबतक संपूर्ण उपरिम विरलन सासादन और संयतासंयतादि दश इसप्रकार ग्यारह गुणस्थानवर्ती राशिके अवहारकालके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक यही विधि पुनः पुनः करते जाना चाहिये । इसप्रकार समीकरण करके हानिको प्राप्त हुए अंकोंका प्रमाण लाते हैं । वह इसप्रकार है
एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान उपरिम विरलनमें जाकर यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमात्र संपूर्ण स्थानों में कितने अंकों की हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलन से उपरिम विरलन के भाजित करने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अपनेयमान अंक प्राप्त होते हैं । उनको उपरिम विरलनमेंसे समच्छेद विधान करके घटा देने पर सासादन और संयतासंयत आदि दश इसप्रकार ग्यारह गुणस्थानवर्ती राशिका अवहारकाल प्राप्त होता है । इस अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर उपर्युक्त ग्यारह गुणस्थानवर्ती जीवराशि आती है ।
उदाहरण - सासादन अव. ३२१ द्रव्य २०४८, संयतासंयतादि १० गुणस्थान द्रव्य ५१४ |
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१०८] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १४. पुणो सम्मामिच्छाइटि-अवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सम्मामिच्छाइहिरासिपमाणं पावेदि। पुणो एकारसगुणहाणरासिणा सम्मामिच्छाइहिरासिदव्यमोवट्टिय तत्थ लद्धसंखेज्जरूवाणि विरलेऊण उवरिमविरलणपढमरूवधरिदसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एक्कारसगुणहाणदव्वपमाणं पावेदि । तं घेत्तूण उवरिमविरलणाए उवरि हिदसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वस्सुवरि परिवाडीए , दिण्णे रूवाहियहेहिमविरलणमेतद्धाणं गंतूग हेडिमविरलणमेत्तरासी समप्पदि, उवीरमविरलणाए एगरूवपरिहाणी च हवदि । तत्थेगरूवं पडि वारसगुणट्ठाणमेत्तरासी च हवदि । पुणो उपरिमतदणंतर एगरूवधरिदसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं हेटिमविरलणाए
२०४८ २०४८ २०४८ अधस्तन विरलन ३३५३ में १ और १ १ १ ३२ वार;
र मिला देने पर जो जोड़ हो उतने २०४८ : ५१४ = ३६५३, स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें
१ अंककी हानि होती है तो उपरिम १ १ १ २५३ विरलनमात्र ३२ स्थान जाकर कितनी
२६ हानि होगी, इसप्रकार राशिक करने ६५५३६ : २५.९४३ - २५६२. पण
पर ६१२८ लब्ध आते हैं। इसे उप५९३६ ५ २५ १२८१ = २५६२. रिम विरलन ३२ मेंसे घटा देने पर २५४५४३ रहते हैं। यही उक्त ११ गुणस्थानवर्ती राशिके लानेके लिये अवहारकाल है।
अनन्तर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर पल्योपमको समान खण्ड करके देयरू पसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर पूर्वोक्त ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानवर्ती राशिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यको भाजित करके वहां जो संख्यात अंक लब्ध आवें उन्हें विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनके पहले अंकके ऊपर रक्खे हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि दश) गुणस्थानवर्ती द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । उसको लेकर उपरिम विरलनके ऊपर स्थित सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर परिपाटीसे देने पर उपरिम विरलनके एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर अधस्तन विरलनमात्र राशि समाप्त हो जाती है और उपरिम विरलनमें एक अंककी हानि होती है। तथा उपरिम विरलनमें जहां तक अधस्तन बिरलनके प्रति प्राप्त राशि दी गई है वहां तक प्रत्येक एकके प्रति बारह (सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतादि दश ) गुणस्थानवर्ती जीवराशि होती है। अनन्तर उपरिम विरलनमें, जिस स्थान तक ग्यारह गुणस्थानोंकी जीवराशि मिलाई हो उसके, अनन्तरके विरलित एक अंकपर स्थित सम्यग्मिथ्यादृष्टिके
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१, २, १४.] दव्यपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं
[ १०९ समखंडं करिय दिण्णे रुवं पडि एक्कारसगुणटाणमेत्तरासी पावदि । तमेकारसगुणहाणरासिं सुण्णट्ठाणं मोत्तूण उवरि णिरंतरं दिण्णे रूवं पडि वारसगुणद्वाणरासी हवदि । हेहिमविरलणाए रूवाहियं गंतूण एगरूवस्स परिहाणी च हवदि । एवं पुणो पुणो ताव कायव्यं जाव खयपरिसुद्धा उवरिमविरलणा वारसगुणट्ठाणदव्यस्स अवहारकालं पत्ता त्ति । एत्थ परिहीणरूवाणं पमाणमाणिजदे । तं जहा, रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सब्धिस्से उवरिमविरलणाए केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति तेरासियं काऊग रूवाहियहेटिमविरलणाए सम्मामिच्छाइटि-अवहारकालमोवाट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे वारसगुणहाणाणं दव्वस्त अवहारकालो हवदि । पुणो तेण अवहारकालेण पलिदोवमे भागे हिदे वारसगुणहाणदव्यमागच्छांदे । द्रव्यको अधरतन विरलनमें समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशि प्राप्त होती है। उस ग्यारह गुणस्थानसंबन्धी राशिको शून्यस्थानको (जिस अंकके ऊपरकी राशिको अधस्तन विरलनमें समान खण्ड करके दी है उस स्थानको) छोड़कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर निरन्तर देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति बारह ( सासादन, मिश्र और संयतासंयतादिदश) गुणस्थानसंबन्धी राशि प्राप्त होती है। तथा उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर एककी हानि होती हैं। इसप्रकार जबतक उपरिम विरलनका प्रमाण हानिरूप स्थानोंसे रहित होकर उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी द्रव्यके अवहारकालको प्राप्त होवे तबतक पुनः पुनः यही विधि करते जाना चाहिये । अब यहां पर हानिको प्राप्त हुए स्थानोंका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है
घेक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एककी हानि होती है तो संपूर्ण उपराि विरलनमें कितने अंकोंकी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधरतन विरलनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालमेंसे घटा देने पर उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी द्रव्यका अवहारकाल होता है। पुनः इस अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल १६; द्रव्य ४०९६;
अधस्तन विरलन १३५३४ में एक और मिलाकर जो हो उतने स्थान जाकर यदि उप
रिम विरलनमें १कीहानि होती १५३४ १५३४.
है तो उपरिम विरलनमात्र १६ २५६२'
स्थान जाकर कितनी हानि २८०७
होगी, इसप्रकार त्रैराशिक ६५५३६ : ९१३२९ = ६६५८.
करने पर ३२४४६६ लब्ध भाते
४०९६ ४०९६ ४०९५ १४ वा
अधस्तनपान
.. ४०९६ : २५६२ = ११५३४,
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११.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १४. पुणो असंजदसम्माइटि-अवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि असंजदसम्माइद्विरासिपमाणं पावदि । पुणो वारसगुणटाणरासिणा असंजदसम्माइट्ठिदव्वमोवट्टिय लद्धमावलियाए असंखेजदिभागं हेट्ठा विरलेऊग असंजदसम्माइट्ठिदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि वारसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि । पुणो उवरिमसुण्णहाणं मोत्तूण सेसुवरिमरूवधरिद असंजदसम्माइदिव्यस्सुवरि हेटिमविरलणाए रूवं पडि हिदवारसगुणट्ठाणरासिं पक्खित्ते रूवं पडि तेरसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि, हटिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूण एगरूत्रपरिहाणी च लब्भदि । पुणो वि तदणंतरएगरूवधरिद-असंजदसम्माइटिदव्यं हेट्टिमविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे वारसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि । पुणो तं घेत्तूण उवरिमविरलगाए उवरि हिद-असंजदसम्माइटिदव्वस्सुवरि सुण्णहाणं वोलिय पक्खित्ते रूवं पडि तेरसगुणहाणरासिपमाणं पावेदि
हैं । इसे उपरिम विरलन १६ मेंसे घटा देने पर ९३६२५ आते हैं। यही उक्त १२ गुणस्थानोंका अवहारकाल है । इस अवहारकालका भाग पल्योपम ६५५३६ में देने पर उक्त बारह गुणस्थानोंके द्रव्यका प्रमाण ६६५८ आता है।
___ अनन्तर असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर पूर्वोक्त बारह (सासादन, मिश्र और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानवर्ती राशिसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणको भाजित करके जो आवलीका असंख्यातवां भाग लब्ध आवे उसे पूर्व विरलनके नीचे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उपरिम विरलनके प्रथम शून्यस्थानको छोड़कर शेष उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यप्रमाणमें अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त बारह गणस्थानसंबन्धी द्रव्यको मिला देने पर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति तेरह गुणस्थानसंबन्धी (सासादनादि १३) जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। और एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर एककी हानि प्राप्त होती है। पुनः जिस स्थानतक अधरतन विरलनके प्रति प्राप्त राशि मिलाई हो उसके आगेके एक विरलनके प्रति प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणको अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त बारह गुणस्थानसंबन्धी राशिको ग्रहण करके उपरिम विरलनमें शून्यस्थानको, अर्थात् जिस स्थानकी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवराशि अधस्तन विरलनमें दी है उसे, छोड़कर शेष विरलनोंपर स्थित
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१, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं
[ १११ एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं पुणो पुणो कायव्वं जा उवरिमविरलणा खयपरिसुद्धा तेरसगुणट्ठाण-अवहारकालमत्तं पत्ता त्ति । पुणो एत्थ अवणयणरूवपमाणमाणिज्जदे । तं जहा, ख्वाहियहेटिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सबिस्से उपरिमविरलणाए केवडियाणि परिहाणिरूवाणि लभामो त्ति तेरासियं करिय रूवाहियहेट्ठिमविरलणाए असंजदसम्माइडि-अवहारकाले ओवट्टिदे आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि परिहाणिरूवाणि लब्भंति । कुदो णबदे ? सव्वगुणट्ठाणेसु पविहसव्वगुणगारसंवग्गादो असंजदसम्माइट्ठि-अवहारकालो असंखेज्जगुणो त्ति एदम्हादो परमगुरूवदेसादो।
असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिमें मिला देने पर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति उपर्युक्त तेरह गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है और एककी हानि होती है। इसत्रकार जबतक उपरिम विरलनका प्रमाण, क्षयको प्राप्त हुए स्थानोंसे रहित होकर, उपर्युक्त तेरह गुणस्थानसंबन्धी अवहारकालके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक पुनः पुनः यही विधि करते जाना जाहिये। अब यहां हानिको प्राप्त हुए स्थानोंका प्रमाण लाते हैं । वह इसप्रकार है
___एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एक स्थानकी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितने हानिरूप अंक प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनके प्रमाणसे असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको भाजित करने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र हानिरूप स्थान प्राप्त होते हैं। उदाहरण-असंयतसम्यदृष्टि अवहारकाल ४; द्रव्य १६३८४, । १६३८४ १६३८४ १६३८४ १६३८४ अधस्तन विरळ. २१५३४ में
१ और मिलाकर जो हो उतने १५३४
स्थान जाकर यदि उपरिम
विरलनमें १ स्थानकी हानि ६६५८
१५३४ होती है तो उपरिम विरलन
३३२९ मात्र ४ स्थान जाकर कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर ११७३२ हानिरूप स्थानांक आते हैं। इसे उपरिम विरलन ४ मेंसे घटा देने पर २२२५३६ आते हैं । यही उक्त तेरह गुणस्थानोंका अवहारकाल है। इस अवहारकालका भाग पल्योपम ६५५३६ में देने पर सासादनादि १३ गुणस्थानराशिका प्रमाण २३०४२ होता है।
शंका- आवलीके असंख्यातवें भाग हानिरूप स्थान प्राप्त होते हैं, यह कैसे जाना जाता है।
समाधान-'संपूर्ण गुणस्थामोंमें प्राप्त संपूर्ण गुणकारोंके संवर्गसे असंयत. सम्यग्दृष्टिका अवहारकाल असंख्यातगुणा है' इस परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि
१६३८४ : ६६५८ = २३३२९
६५८
१८
६६५८
३०६८
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११२)
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १४. पुणो सम्मामिच्छाइद्विपमुहरासिणा असंजदसम्माइट्ठिरासिमावट्टिय रूवाहियकदरासिस्स असंजदसम्माइहिपमुहरासिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि वार सगुणट्ठाणरासिपमाणं पावदि । तत्थ बहुभागा असंजदसम्माइद्विरासिपमाणं होदि। पुणो एक्कारसगुणट्ठाणरासिणा सम्मामिच्छाइद्विरासिमोवट्टिय लद्धं रूवाहियं विरलेऊण चारसगुणहाणरासिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एकारसगुणहाणरासिपमाणं पावदि । तत्थ बहुभागा सम्मामिच्छाइद्विरासिपमाणं होदि। पुणो दसगुणट्ठारासिणा सासणसम्माइट्ठि
यहां आवलीके असंख्यातवें भाग हानिरूप स्थान प्राप्त होते हैं।
पुनः सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि बारह (सम्याग्मिथ्यादृष्टि, सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानवर्ती राशिसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसमें एक मिला देने पर जो राशि हो उसके प्रत्येक एकके प्रति असंयतसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवर्ती राशिको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि बारह (सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। उसमें बहुभाग असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है।
D54
उदाहरण-१६३८४६६५८% २
-३३२९
+१
२३३२९ ६६५८ ६६५८ ६६५८ ३०६८ इसमें बहुभाग १६३८४ प्रमाण १ १ १ १५३४.
३३२९' असंयतसम्यग्दृष्टि राशि हैं। अनन्तर ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादिक १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसमें एक और मिलाकर उसका विरलन करके विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति बारह (सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि१०) गणस्थान. संबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। वहां बहुभाग सम्यग्मियादृष्टि जीवराशिका प्रमाण है।
.१५३४... .१५३४. उदाहरण-४०९६:२०
२५६२ २५६२ १५३४ इसमें बहुभाग ४०९६ प्रमाण सम्य
२५६२' मिथ्याद्दीष्ट राशि है। अनन्तर दश (संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिसे सासादनसम्यग्दृष्टि द्रव्यको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसमें एक और मिलाकर कुल राशिका विरलन
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१, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपख्वणं
[ ११३ दव्यमोवहिय रूवाहियं करिय विरलेऊण एकारसगुणट्ठाणरासिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि । तत्थ बहुभागा सासणसम्माइद्विरासिपमाणं होदि । पुणो णवगुणट्ठाणरासिणा संजदासंजदरासिमोवट्टिय रूवाहियं करिय विरलेऊण दसगुणहाणरासिं समखंडं करिय दिण्णे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविरलणरूवं पडि णवगुणट्ठाणरासिपमाणं पावदि । तत्थ बहुभागा संजदासंजदरासिपमाणं होदि । सेसं संखेज्जभागे कदे तत्थ बहुभागा पमत्तसंजदरासिपमाणं होदि । सेसं संखेजखंडे कए तत्थ बहुभागा अप्पमत्तसंजदरासिपमाणं होदि । सेसं संखेज्जभागे कदे तत्थ बहुभागा सजोगिरासिपमाणं होदि । सेसं संखेज्जभागे कदे तत्थ बहुभागा पंच-खवगपमाणं होदि। सेसेगभागो चउण्हमुवसामगाणं होदि। एवं भागभागो समत्तो।
करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति दश (संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है।
उदाहरण–२०४८ : ५१४ = ३२५३+ १ = ४३५७
२५३
२५३.
५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५०६ यहां पर बहुभाग २०४८ प्रमाण
- २५७ सासादनसम्यग्दृष्टि राशि है।
अनन्तर नौ (प्रमत्तसंयतादि ९) गुणस्थानसंबन्धी राशिसे संयतासंयत राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे रूपाधिक करके और उसका विरलन करके विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति दश (संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र विरलनके प्रति नौ (संयतादि ९) गुणस्थानसंबन्धी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर बहुभाग संयतासंयत जीवराशिका प्रमाण है। उदाहरण-५१२२ = २५६ +१ = २५७; २ २ २ २ २
यहां पर बहुभाग ५१२ संयता१ १ १ १ १ २५७ वार संयत राशि है। शेष राशिके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग प्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण है। शेष राशिके संख्यात खण्ड करने पर उनमेंसे बहुभाग अप्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण है। शेषके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग सयोगिकेवली जीवराशिका प्रमाण है। शेषके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग पांचों क्षपकोंका प्रमाण है । शेष एक भाग चारों उपशमकोंका प्रमाण है । इसप्रकार भागभाग समाप्त हुआ।
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११४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १४.
संपहि अवगदसव्वपमाणस्स सिस्सस्स एत्थेव रासीणमप्पबहुत्तं भणिस्सामोअमे अणियोगद्दारे एदं सुत्तगारो भणिस्सदि त्ति पुणरुत्तदोसो भवदिति णासंकणिज्जं, तस्स पडिबुद्ध सिस्स विसयत्तादो । अप्पडिबुद्धसिस्से अस्सिऊण सदवारपरूवणं पिण दोसकारणं भवदि । तत्थ अप्पा बहुगं दुविहं, सत्थाणप्पा बहुगं सव्वपरस्थाण पाहु चेदि । एत्थ मिच्छाइडिस्स सत्थाणप्पाबहुगं णत्थि । किं कारणं ? जेण मिच्छाट्ठिरासीदो ध्रुवरासी अब्भहिओ जादो । तत्थ ताव सासणसम्माइ डिस्स सत्याणप्पा बहुअं वत्तइस्लामो । तं जहा, सव्वत्थोवो अवहारकालो तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं को गुणगारो ? सगदव्वस्त असंखेजदिभागो । को पडिभागो १ सग - अवहारकालो । अधवा गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो असंखेजाणि पलिदोवमपदमवरगमूलाणि । को पडिभागो ? सगअवहारकालवग्गो । एत्थ पडिभागणिमित्तं दुगुणादिकरणं
अब जिसने संपूर्ण जीवराशिके प्रमाणको जान लिया है ऐसे शिष्य के लिये यहीं पर जीवराशिका अल्पबहुत्व बतलाते हैं
शंका- सूत्रकार आठवें अनुयोगद्वार में इसका कथन करेंगे ही, इसलिये यहां पर उसका कथन करने से पुनरुक्त दोष होता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, वह पुनरुक्तिदोषविचार प्रतिबुद्ध शिष्यका ही विषय है । किन्तु जो शिष्य अप्रतिबुद्ध है उसकी अपेक्षा सौवार प्ररूपण करना भी दोषका कारण नहीं है ।
अल्पबहुत्व दो प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व | ओघप्ररूपणा में मिथ्यादृष्टि जीवराशिका स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता । शंका- इसका क्या कारण है ?
समाधान - क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे ध्रुवराशि बड़ी है । अब पहले सासादनसम्यग्दृष्टि राशिका स्वस्थान अल्पबहुत्व बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल सबसे स्तोक है । उसीका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने (सासादन संबन्धी ) द्रव्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? अपना ( सासादनसंबन्धी ) अवहारकाल प्रतिभाग है । अर्थात् अवहारकालका सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी द्रव्यमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसको अवहारकालसे गुणित करने पर सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है । अथवा, गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है ।
उदाहरण - सासादन द्रव्य २०४८, अवहारकाल ३२, २०४८ : ३२ = ६४ गुणकार, प्रतिभाग ३२, पल्योपम ६५५३६, अवहारकालका वर्ग ३२× ३२ = १०२४ प्रतिभाग; ६५५३६ ÷ १०२४ = ६४ गुणकार
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१, २, १४. दव्वपमाणाणुगमे ओघ-अप्पबहुत्तपरूवणं
[११५ कादव्वं । तं जहा, वत्तइस्सामो- सगअवहारकालेण पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । विगुणिदअवहारकालेण पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइडिरासिस्स दुभागो आगच्छदि । तिगुणिदअवहारकालेण पलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइट्ठिरासिस्स तिभागो आगच्छदि। एवं ताव दुगुणादिकरणं कादव्यं जाव सासणसम्माइटिअवहारकालस्स अद्धच्छेदणयमेत्तवारा गदा ति । तत्थ अंतिमवियप्पं वत्तइस्सामो । सासणसम्माइहि-अवहारकालस्स अद्धच्छेदणए विरलेऊण विगं करिय अण्णोण्णब्भासे कदे सासणसम्माइद्विरासिस्स अवहारकालो होदि । तेण अवहारकालेण सासणसम्माइहि. रासिस्स अवहारकाले गुणिदे गुणगारपडिभागो होदि । सासणसम्माइट्ठिदव्वादो पलिदोवममसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सग-अवहारकालो । एवं सम्मामिच्छाइहि असंजदसम्माइटि-संजदासंजदाणं च अप्पाबहुगं वत्तव्यं । पमत्तसंजदादीणं सत्थाणप्पाबहुगं णत्थि, तेसिमवहारकालाभावादो।
यहां पर प्रतिभागका प्रमाण निकालनेके लिये द्विगुणादिकरण विधि करना चाहिये। वह जिसप्रकार है आगे उसीको बतलाते हैं- अपने अवहारकालसे पल्योपमको भाजित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है (६५५३६ : ३२ = २०४८ सा.) द्विगुणित अवहारकालसे पल्योपमको भाजित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका दूसरा भाग आता है (६५५३६ : ६४ = १०२४)। त्रिगुणित अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका तीसरा भाग आता है (६५५३६ : ९६ = ६८२३ )। इसप्रकार जबतक सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालके अर्धच्छेदोंका जितना प्रमाण हो उतनेवार द्विगुणादिकरण विधि हो जावे तबतक यह विधि करते जाना चाहिये। वहां अब अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं- सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिसंबन्धी अवहारकालके अर्धच्छेदोंको विरलित करके और उसको दो रूप करके परस्पर गुणा करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिके अवहारकालका प्रमाण होता है। इस अवहारकालसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिके अपहारकालको गुणित करने पर गुणकारप्रतिभागका प्रमाण आता है। उदाहरण-सासादनसम्यग्दृष्टि अपहारकाल ३२, अर्धच्छेद ५,
२ २ २ २= ३२, ३२४३२ % १०२४ गुणकार प्रतिभाग.
सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यसे पल्योपम असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल गुणकार है (२०४८४३२ = ६५५३६ पल्योपम)।
इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । प्रमत्तसंयत आदिका स्वस्थान अल्पबद्दुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, उनका अवहारकाल नहीं है।
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १४. सव्वपरत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा- सव्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा। पंच खवगा संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? अड्डाइज्ज रूवाणि । सजोगिकेवलिदव्वं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जसमया वा। अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया वा। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेजसमया वा । सव्वत्थ हेहिमरासिणोवरिमरासिम्हि भागे हिदे जो भागलद्धो सो गुणगारो। पमत्तसंजददव्वादो असंजदसम्माइट्ठि-अवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सग-अवहारकालस्स संखेजदिभागो। को पडिभागो ? पमत्तसंजददव्यं । सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सग-अवहारकालस्स असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? असंजदसम्माइटि-अवहारकालो । सासणसम्माइटि-अवहारकालो संखेज्ज
अब सर्वपरस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- चारों उपशामक (उपशम श्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती जीव) सबसे स्तोक हैं । पांचों क्षपक (क्षपक श्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती और अयोगिकेवली जीव ) उपशमकोंसे संख्यातगुणे हैं। यहां गुणकार क्या है ? ढाई अंक गुणकार है।
उदाहरण—चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक १२१६, १२१६४३ =३०४० पांचोंक्षपक।
सयोगिकेवलियोंका द्रव्यप्रमाण पांचों क्षपकोंसे संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। अप्रमत्तसंयत सयोगिकेवलियोंके प्रमाणसे संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयतोंके प्रमाणसे संख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। यहां सर्वत्र नीचेकी राशिसे उपरिम राशिके भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे वह वहां गुणकार होता है। उदाहरण-सयोगिकेवली ८९८५०२; अप्रमत्त २९६९९१०३, प्रमत्त ५९३९८२०६;
४८५३७ इससे सयोगी राशिको गुणित २९६९९१०३ : ८९८५०२ = ३३८९८५०२ करने पर अप्रमत्त राशि आती है। ५९३९८२०६ : २९६९९१०३ = २ इस गुणकारसे अप्रमत्त राशिको गुणित
करने पर प्रमत्तसंयत राशि आती है। प्रमत्तसंयतके द्रव्यसे असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने अवहारकालका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? प्रमत्तसंयतका द्रव्यप्राण प्रतिभाग है। उदाहरण-प्रमत्तसंयत ५९३९८२०६ % २, असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकाल ४;
४२२ गुणकार; २४२ = ४ अवहारकाल । असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालसे सम्यग्मिथ्याष्टिका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने अवहारकालका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है? असंयतसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल प्रतिभाग है।
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१, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे ओघ-अप्पबहुत्तपरूवणं
[ ११७ गुणो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया वा। को पडिभागो ? सम्मामिच्छाइटि-अवहारकालो। संजदासंजद अवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सग-अवहारस्स असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? सासणसम्माइटि-अवहारकालो । तदो संजदासंजददव्यं असंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगदव्यस्स असंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? सग-अवहारकालो । अहवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सग अवहारकालवग्गो। संजदासंजददव्यस्सुवरि सासणसम्माइट्ठिदव्यं असंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगदव्वस्स असंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? संजदासंजददव्यमवहारकालो । अहवा सासणसम्माइहि-अवहारकालेण
उदाहरण-सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल १६, १६ : ४ = ४ गुणकार; ४४४ = १६
सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल। सम्यग्मिथ्याष्ट्रिके अवहारकालसे सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय । प्रतिभाग क्या है ? सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अवहारकाल प्रतिभाग है। उदाहरण-सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकाल ३२, ३२:१६%२ गुणकार; १६४२= ३२
सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकाल । सासादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालसे संयतासंयतका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने अवहारकालका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल प्रतिभाग है। उदाहरण-संयतासंयत अवहारकाल १२८; १२८:३२ = ४ गुणकार; ३२४ ४ = १२८
संयतासंयत अवहारकाल। संयतासंयतके अवहारकालसे संयतासंयत द्रव्यप्रमाण असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपने द्रव्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपना (संयतासंयतका) अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? अपने (संयतासंयतके) अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है। उदाहरण-संयतासंयत द्रव्य ५१२. ५१२ : १२८ = ४ गुणकार; १२८४४ =५१२
संयतासंयत द्रव्य । अथवा, १२८४१२८ = १६३८४,६५५३६१६३८४
= ४ गुणकार। संयतासंयतके प्रमाणके ऊपर सासादनसम्यग्दृष्टिका द्रव्यप्रमाण संयतासंयतके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपने (सासादनके) द्रव्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? संयतासंयतके द्रव्यप्रमाणका अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, सासादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालसे संयतासंयतके अवहारकालको भाजित करने पर
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११८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २,१४. संजदासजद-अवहारकाले भागे हिदे गुणगारो रासी आगच्छदि । अहवा उवरिमरासिअवहारकालेण हेहिमरासिं गुणेऊण पलिदोवमे भागे हिदे गुणगाररासी आगच्छदि। एत्थ विगुणादिकरणं कादव्वं । तं जहा- संजदासंजदरासिपमाणेण पलिदोवमे भागे हिदे संजदासंजद-अवहारकालो आगच्छदि । विउणिदसंजदासंजददव्यपमाणेण पलिदोवमे भागे हिदे संजदासंजद-अवहारकालस्स दुभागो आगच्छदि । तिगुणिदसंजदासंजदरासिमा पलिदोवमे भागे हिदे तस्सेव अवहारकालस्स तिभागो आगच्छदि । एदेण कमेण णेदव्यं जाव संजदासंजदरासिस्स गुणगारो सासणसम्माइट्टि अवहारकालमत्तं पत्तो ति । तदा सासणसम्माइट्टि-अवहारकालो' संजदासंजद-अवहारकालस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि। एदेण पुव्वुत्तगुणगारो साहेयव्वो। संजदासंजदगुणस्स उक्कस्सकालो संखेज्जाणि वस्साणि । सासणसम्माइटिगुणस्स उक्कस्सकालो छ आवलियाओ। एदेसिमुवक्कमणकालादी अप्पप्पणो गुणकालपडिरूवा हवंति ति सासणसम्माइट्ठिदव्यादो संजदासंजददव्वेण संखेज्जगुणेण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, जदि वि सासणसम्माइट्ठि-उवक्क
गुणकार राशिका प्रमाण आता है। अथवा, उपरिम राशिके अवहारकालसे अधस्तन राशिको गणित करके जो लब्ध आवे उससे पल्योपमके भाजित करने पर गुणकार राशि आती है। उदाहरण-सासादन द्रव्य २०४८, २०४८ १२८ =१६ गुणकार, १२८४१६/२०४८
सासादन द्रव्यप्रमाण। अथवा, १२८:३२ =४ गुणकार, ५१२४४%२०४८ सा. । अथवा, ५१२४३२%१६३८४, ६५५३६:१६३८४ =४ गुणकार,
५१२४४ =२०४८ सा. । यहां पर द्विगुणादिकरण विधि करना चाहिये । वह इसप्रकार है-संयतासंयत राशिके प्रमाणसे पल्योपमके भाजित करने पर संयतासंयतका अवहारकाल आता है (६५५३६:५१२% १२८)। द्विगुणित संयतासंयत द्रव्यके प्रमाणसे पल्योपमके भाई पर संयतासंयतके अवहारकालका दूसरा भाग आता है (६५५३६ : १०२४ = ६४)। त्रिगुणित संयतासंयत राशिसे पल्योपमके भाजित करने पर संयतासंयतके अवहारकालका तीसरा भाग आता है (६५५३६ १५३६ = ४२५१२ )। इसी क्रमसे तबतक ले जाना चाहिये जबतक संयतासंयत राशिका गुणकार सासादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालके प्रमाणको प्राप्त हो जावे । उस समय सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल संयतासंयतके अवहारकालका असंख्यातवां भाग आता है। इससे पूर्वोक्त गुणकार साध लेना चाहिये (१२८ : ३२ = ४ गुणकार)।
शंका-संयतासंयत गुणस्थानका उत्कृष्टकाल संख्यात वर्ष है और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्टकाल छह आवली है। अतः इनके उपक्रमणकाल आदिक अपने अपने गुणस्थानके कालके अनुसार होते हैं, इसलिये सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रमाणसे संयता. संयत द्रव्यप्रमाण संख्यातगुणा होना चाहिये?
१ प्रतिषु कालमत्त ' इति पाठः।
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१, २, १४.] दवपमाणाणुगमे ओघ-अप्पबहुत्तपरूवणं
[११९ मणकालादो संजदासंजद-उवक्कमणकालो संखेज्जगुणो हवदि तो वि संजदासंजददव्वादो सासणसम्माइहिदव्यमसंखेज्जगुणमेव । कुदो ? सम्मत्त-चारित्तविरोहिसासणगुणपरिणामेहिंतो समयं पडि असंखेज्जगुणाए सेढीए कम्मणिज्जरणहेउभूदसंजमासंजमपरिणामो अइदुल्लहो त्ति काऊण समयं पडि संजमासंजमं पडिवज्जमाणरासीदो समयं पडि सासणगुणं पडिवज्जमाणरासी असंखेज्जगुणो हवदि त्ति । सासणसम्माइद्विरासीदो सम्मामिच्छाइदिव्वं संखेज्जगुणं, सासणसम्मादिहि-छ-आवलि-अब्भंतर-उवक्कमणकालादो अंतोमुहुत्तमेत्त-सम्मामिच्छाइटि-उवक्कमणकालस्स संखेज्जगुणत्तादो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया वा । एत्थ वि रासिणा रासिं भागे हिंदे गुणगाररासी आगच्छदि । अवहारकालेण अवहारकाले भागे हिदे गुणगाररासी आगच्छदि । उवरिमरासि-अवहारकालण हेहिमरासिं गुणेऊण पलिदोवमे भागे हिदे गुणगाररासी आगच्छदि । सम्मामिच्छाइट्टिदव्वस्सुवरि असंजदसम्माइटिदव्वमसंखेज्जगुणं । कुदो ? सम्मामिच्छाइट्ठि-उवक्कमण
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टिके उपक्रमण कालसे संयतासंयतका उपक्रमणकाल संख्यातगुणा है, तो भी संयतासंयत द्रव्यप्रमाणसे सासादनसम्यग्दृष्टि द्रव्यप्रमाण असंख्यातगुणा ही है, क्योंकि, सम्यक्त्व और चारित्रके विरोधी सासादनगुणस्थानसंबन्धी परिणामोंसे प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे कर्मनिर्जराके कारणभूत संयमासंयमरूप परिणाम अत्यन्त दुर्लभ हैं, इसलिये प्रत्येक समयमें संयमासंयमको प्राप्त होनेवाली जीवराशिकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होनेवाली जीवराशि असंख्यातगुणी है।
सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण संख्यातगुणा है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टिके छह आवलीके भीतर होनेवाले उपक्रमण कालसे । दृष्टि गुणस्थानका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपक्रमण काल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? संख्यात समय गुणकार है। यहां भी एक राशिका दूसरी राशिमें भाग देने पर गुणकार राशि आ जाती है। अथवा, अवहारकालसे अवहारकालके भाजित करने पर गुणकार राशि आ जाती है। अथवा, उपरिम राशिके अवहारकालसे अधस्तन राशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका पल्योपममें भाग देने पर गुणकार राशि आ जाती है। * उदाहरण-सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्य ४०९६, ४०९६ : ३२% १२८ गुणकार; ३२४ १२८
=४०९६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्य । अथवा, ४०९६:२०४८-२ गुणकार, २०४८४२४०९६ सम्य. द्रव्य । अथवा, ३२१६२ गुणकार। २०४८ x २ = ४०९६ । अथवा, २०४८४ १६ = ३२७६८, ६५५३६ :
३२७६८ =२ गुणकार, २०४८x२= ४०९६। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यके ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टिका द्रव्य उससे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उपक्रमण कालसे असंख्यात आवलियोंके भीतर होनेवाला असंयत
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१२०] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १४. कालादो असंखेज्जावलियम्भंतर-असंजदसम्माइटि-उवक्कमणकालस्स असंखेज्जगुणत्तादो। अहवा दोण्हं पि गुणट्ठाणाणमुक्क्कमणकालमणवेक्खिय असंखेज्जगुणत्तस्स कारणमण्णहा वुच्चदे । तं जहा, समयं पडि सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासीदो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जमाणरासी असंखेज्जगुणो। जेण वेदगसम्माइट्ठीणमसंखेज्जदिभागो मिच्छत्तं गच्छदि । तस्स वि असंखेजदिभागो सम्मामिच्छत्तं गच्छदि । 'सव्वकालमवविदरासीण क्याणुसारिणा आएण होदव्वं ' इदि णायादो असंजदसम्माइटिरासीदो णिप्फिडिदमेत्ता चेव अट्ठवीससंतकम्मिया मिच्छाइटिणो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जति । तम्हा सम्मामिच्छाइट्ठिदव्वादो असंजदसम्माइटिदबमसंखेज्जगुणमिदि सिद्धं । एदं वक्खाणमेत्थ पधाणमिदि गेण्हिदव्यं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एत्थ वि तीहि पयारेहि गुणगारो साहेयव्यो। पलिदोवममसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सग-अवहार
सम्यग्दृष्टिका उपक्रमण काल असंख्यातगुणा है। अथवा, पूर्वोक्त दोनों ही गुणस्थानोंके उपक्रमण कालकी अपेक्षा न करके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, इसका कारण दूसरे प्रकारसे कहते हैं। वह इसप्रकार है- प्रत्येक समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाली राशिसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाली राशि असंख्यातगुणी है । तथा जिस कारणसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंका असंख्यातवां भाग मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और उसका भी असंख्यातवां भाग सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है। तथा 'सर्वदा अवस्थित राशियोंके व्ययके अनुसार ही आय होना चाहिये' इस न्यायके अनुसार मोहनीयके अट्ठावीस कर्मोकी सत्ता रखनेवाले जितने जीव असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिमेंसे निकलकर मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उतने ही मिथ्यादृष्टि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं, इसलिये सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यसे असंयतसम्यग्दृष्टिका द्रव्य असंख्यातगुणा है, यह सिद्ध हो जाता है। यह व्याख्यान यहां पर प्रधान है ऐसा समझना चाहिये । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । यहां पर भी पूर्वोक्त तीनों प्रकारोंसे गुणकार साध लेना चाहिये। उदाहरण-असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य १६३८४, १६३८४ : १६ = १०२४ गुणकार
१६४१०२४ =१६३८४ असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य । अथवा, १६३८४४०९६ = ४ गुणकार; ४०९६४४ % १६३८४ असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य । अथवा, १६ ४ = ४ गुणकार; ४०९६४ ४ = १६३८४ असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य । अथवा, ४०९६x४ = १६३८४, ६५५३६ १६३८४ = ४ गणकार,
४०९६४४ = १६३८४ असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य । असंयतसम्यग्दृष्टिके द्रव्यसे पल्योपम असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपना (असंयतसम्यग्दृष्टिका) अवहारकाल गुणकार है।
उदाहरण–१६३८४४४ - ६५५३६ पस्योपम ।
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१, २, १५.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१२१ कालो । तस्सुवरि सिद्धाणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणो सिद्धाणमसंखेज्जदिभागो । मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि वि अणंतगुणो सिद्धेहि वि अणंतगुणो भवसिद्धियाणमणंताभागस्स अणंतिमभागो।
एवमोघे चोदसगुणहाणपरूवणा समत्ता । दवट्टियमवलंबिय द्विदसिस्साणमणुग्गहणटुं सामण्णेण चोद्दसगुणहाणपमाणपरूवणं करिय पज्जवट्ठियणयमवलंबिय ठियसिसाणमणुग्गहणट्ठमाह
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ १५ ॥
आदेसेण पज्जवणयावलंबणेण गुणहाणाणं पमाणपरूवणं कीरदे । एत्थ इत्यंभावलक्खणो तदियाणिदेसो त्ति दट्टयो । गदियाणुवादेण । सा च भेदपरूवणा चोदसमग्गणढाणाणि अस्सिऊण द्विदा । तेहि अक्कमेण परूवणा ण संभवदीदि अपगदमग्गणट्ठाणाणि अवणिय पयदमग्गणवाणजाणावणटुं गदिग्गहणं। आदेसमस्सिऊण जा गुणहाणाणं पमाण
पल्योपमके ऊपर सिद्ध उससे अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा या सिद्धोंके असंख्यातवां भाग गुणकार है। सिद्धोंसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे भी अनन्तगुणा, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा और भव्यसिद्धोंके अनन्त बहुभागोंका अनन्तवां भाग गुणकार है।
इसप्रकार ओघमें चौदह गुणस्थान प्ररूपणा समाप्त हुई। द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके स्थित हुए शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिये सामान्यसे चौदहों गुणस्थानों के द्रव्यप्रमाणका प्ररूपण करके अब पयोयार्थिक नयका अवलम्बन करके स्थित शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
__ आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवाइसे नरकगतिगत नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। १५॥
आदेशसे अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा गुणस्थानोंके प्रमाणका प्ररूपण करते हैं। यहां 'आदेसेण' इस पदमें तृतीया विभक्तिका निर्देश इत्थंभावलक्षण है, ऐसा समझना चाहिये । अब 'गदियाणुवादेण' इस पदका स्पष्टीकरण करते हैं। ऊपर जो भेदप्ररूपणाकी प्रतिक्षा की है वह भेदप्ररूपणा चौदहों मार्गणाओंका आश्रय लेकर स्थित है। परंतु उनके द्वारा अक्रमसे अर्थात् युगपत् प्ररूपणा नहीं हो सकती है, इसलिये अविवक्षित मार्गणास्थानोंको छोड़कर प्रकृत मार्गणास्थानके ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें गति पदका ग्रहण किया है। आदेशका आश्रय करके जो गुणस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की जाती है वह आचार्य परंपराके द्वारा
१ असंखेज्जा रदया। अनु. सूत्र १४१, पृ. १७९. २ इत्थंभूतलक्षणे ( तृतीया)। पाणिनि, २, ३, २०.
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१२२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १५.
परूवणा सा आइरियपरंपराए अणाइणिहणत्तणेण आगदा त्ति जाणावण अणुवादरगहणं । सेसगदिणिवारणडं णिरयगदिग्गहणं कदं । सेसगदीओ मोत्तूण पुव्त्रं णिरयगदी चेव किमहं बुच्चदे ? ण णेरइयदंसणेण समुप्पण्णसज्झसस्स भवियस्स दसलक्खणे धम्मेणिश्चलसरुवेण बुद्धी चिट्ठदित्ति काऊण पुव्वं तप्परूवणादो । रइएस त्ति किमहं ? ण, तत्थतणखेत्तकालप डिसेहफलत्तादो । मिच्छाइट्टिग्गहणं किमहं ? सेसगुणड्डाणणियत्तणङ्कं । दव्वपमाणेणेत्ति किमहं ? खेत्तकालणिवारणङ्कं । केवडिया इदि पुच्छा किंफला ? जिणाणमत्थकत्तारत्तपदुप्पायणमुहण अप्पणो कत्तारत्तपडिसेहफला । एवं गोदमसामिणा पुच्छिदे महावीरभयवंतेण केवलणाणेणावगदतिकालगोयरासेसपयत्थेण असंखेजा इदि तेसिं प्रमाणं परूविदं । एवमुत्ते संखेज्जाणताणं पडिणियत्ती । तं पुण असंखेञ्जमणेयवियप्पं । तं जहाअनादिनिधनरूपसे आई हुई है, इसका ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें अनुवाद पदका ग्रहण किया है। शेष गतियोंका निराकरण करनेके लिये सूत्रमें नरकगति पदका ग्रहण किया है । शंका- शेष गतियोंके कथनको छोड़कर पहले नरकगतिका ही वर्णन क्यों किया जा रहा है ?
समाधान
--
- नहीं, क्योंकि, नारकियोंके स्वरूपका ज्ञान हो जानेसे जिसे भय उत्पन्न हो गया है ऐसे भव्य जीवको दशलक्षण धर्ममें निश्चलरूपसे बुद्धि स्थिर हो जाती है, ऐसा समझकर पहले नरकगतिका वर्णन किया ।
शंका- सूत्र में ' णेरइपसु ' यह पद किसलिये दिया गया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, नरकगतिसंबन्धी क्षेत्र और कालका प्रतिषेध करना उक्त पदका फल है ।
शंका- सूत्रमें 'मिच्छाइट्ठी ' इस पदका ग्रहण किसलिये किया है ?
समाधान - शेष गुणस्थानोंके निवारण के लिये मिथ्यादृष्टि पदकां ग्रहण किया है । शंका – सूत्र में 'द्रव्यप्रमाणसे' ऐसा पद क्यों दिया है ?
समाधान - क्षेत्र और कालका प्रतिषेध करनेके लिये ग्रहण किया है ।
शंका- कितने हैं ' इस पृच्छाका क्या फल है ?
समाधान - जिनेन्द्रदेव ही अर्थकर्ता हैं, इस बातके प्रतिपादन द्वारा अपने (भूतबलिके) कर्तापनका निषेध करना उक्त पृच्छाका फल है । नरकगतिमें मिथ्यादृष्टि नारकी कितने हैं, इसप्रकार गौतमस्वामीके द्वारा पूछने पर जिन्होंने केवलज्ञानके द्वारा त्रिकालके विषयभूत समस्त पदार्थोंको जान लिया है, ऐसे भगवान् महावीरने 'असंख्यात है' इसप्रकार नारकियों के प्रमाणका प्ररूपण किया ।
'नरक में मिथ्यादृष्टि नारकी असंख्यात है' इसप्रकार कथन करने पर संख्यात और अनतकी निवृत्ति हो जाती है । वह असंख्यात अनेक प्रकारका है । आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं
' द्रव्यप्रमाणसे' पदका
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१, २, १५. दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१२३ पाम ठवणा दवियं सस्सद गणणापदेसियमसंखं ।
एयं उभयादेसो वित्थारो सव्व-भावा य ॥ ५७ ॥ तत्थ णामासंखेज्जयं णाम जीवाजीवमिस्ससरूवेण हिदअभंगासंखेजाणं कारणणिरवेक्खा सण्णा । जं तं दुवणासंखेजयं तं कहकम्मादिसु सब्भावासम्भावट्ठवणाए ठविदं असंखेजमिदि । जं तं दव्यासंखेजयं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमो गंथो सिद्धतो सुदणाणं पवयणमिदि एयट्ठो।
(पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहतेः ।
द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ॥ ५ ॥ आगमादण्णो णोआगमो । तत्थ असंखेज्जपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदो दव्यासंखेज्जयं । किं कारणं ? खवोवसमविसिहजीवदव्यस्स कथंचि खवोवसमादो अव्व. दिरित्तस्स आगमववदेसाविरोहादो । जं तं णोआगमदो दव्यासंखेज्जयं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्यासंखेजयं भवियदव्वासंखेज्जयं जाणुगसरीरभवियवदिरित्तदव्यासंखेज्जयं चेदि। तत्थ जं तं जाणुगसरीरदव्यासंखेज्जयं तं असंखेज्जपाहुडजाणुगस्स सरीरं भवियवद्रमाणसमुज्जादत्तणेण तिभेदमावणं । कधमणागमस्स सरीरस्स असंखेज्जववएसो ? ण एस दोसो,
नाम, स्थापना, द्रव्य, शाश्वत, गणना, अप्रदेशिक, एक, उभय, बिस्तार, सर्व और भाव इसप्रकार असंख्यात ग्यारह प्रकारका है ॥ ५७ ॥
उनमेंसे जीव, अजीव और मिश्ररूपसे स्थित असंख्यात पदार्थोके भेदोंकी कारणके विना असंख्यात ऐसी संशा रखना नाम असंख्यात है । काष्ठकर्मादिकमें साकार और निराकार. रूपसे यह असंख्यात है, इसप्रकारकी स्थापना करना स्थापना असंख्यात है। द्रव्य असंख्यात आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। आगम, ग्रन्थ, सिद्धान्त, श्रुतज्ञान और प्रवचन, ये एकार्थवाची नाम हैं।
पूर्वापर विरुद्धादि दोषोंके समूहसे रहित और संपूर्ण पदार्थोके द्योतक आप्तवचनको आगम कहते हैं ॥५८॥
आगमसे अन्यको नोआगम कहते हैं। जो असंख्यातविषयक प्राभृतका ज्ञाता है परंतु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है, उसे आगमद्रव्यासंख्यात कहते हैं, क्योंकि, क्षयोपशमयुक्त जीवद्रव्य क्षयोपशमसे कथंचित् अभिन्न है, इसलिये उसे आगम यह संज्ञा देने में कोई विरोध नहीं आता है।
नोआगमद्रव्यासंख्यात तीन प्रकारका है, शायकशरिद्रव्यासंख्यात, भव्यद्रव्यासंख्यात, और शायकशरीर तथा भव्य इन दोनोंसे भिन्न तद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात। असंख्यात. विषयक शास्त्रको जाननेवालेके भावी, वर्तमान और अतीतरूपसे तीन भेदको प्राप्त हुए शरीरको बायकशरीरद्रव्यासंख्यात कहते हैं।
शंका-आगमसे भिन्न शरीरको असंख्यात, यह संशा कैसे दी जा सकती है?
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१२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १५. आधारे आधेयोवयारदसणादो । जहा असिसदं धावदि इदि । एत्थ ण घदकुंभदिलंतो जुज्जदे, कुंभस्स घदववएसादसणादो। घदमिदं चिढदि ति वट्टमाणकाले घदववएसो कुंभस्स उवलब्भदे ? चे ण, अदीदाणागदकालेसु कुंभस्स घदववएसदसणादो । जं तं भवियासंखेज्जयं तं भविस्सकाले असंखेज्जपाहुडजाणुगजीवो । ण च एस आगमदो दव्यासंखेज्जयम्हि णिवददि, संपहि एत्थ खोवसमलक्खणदव्योव-, ओगाभावादो। जे तं तव्यदिरित्तदव्यासंखेज्जयं तं दुविहं, कम्मासंखेज्जयं णोकम्मासंखेज्जयं चेदि । तत्थ अट्ठ कम्माणि ट्ठिदिं पडुच कम्मासंखेजयं । दीवसमुद्दादि णोकम्मासंखेजयं । धम्मत्थियं अधम्मत्थियं दव्यपदेसगणणं पडुञ्च एगसरूवेण अवविदमिदि कट्ट सस्सदासंखेजयं । जं तं गणणासंखेजयं तं परियम्मे वुत्तं । जं तं अपदेसासंखेजयं तं जोगविभागे पलिच्छेदे पडुच्च एगो जीवपदेसो। अथवा सुण्णोयं भंगो, असंखेज
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आधारमें आधेयका उपचार देखा जाता है। जैसे, सौ तरवारे (सौतरवारवाले) दौड़ती हैं। तात्पर्य यह है कि सौ तरवारोंके आधारभूत पुरुषों में आधेयभूत तरवारोंका उपचार करके जैसे सौ तरवारें दौड़ती हैं यह कहा गया है उसीप्रकार प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये।
प्रकृतमें घृतकुम्भका दृष्टान्त लागू नहीं होता है, क्योंकि, कुम्भकी घृत संज्ञा ध्यवहारमें नहीं देखी जाती है।
शंका--यह घृत रक्खा है, इसप्रकार वर्तमानकालमें कुम्भकी घृत संज्ञा पायी जाती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अतीत और अनागत कालमें कुम्भकी घृत यह संज्ञा देखी जाती है।
जो जीव भविष्यकालमें असंख्यातविषयक प्राभृतका जाननेवाला होगा उसे भावि. द्रव्यासंख्यात कहते हैं। इसका आगमद्रव्यासंख्यातमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि, धर्तमानमें इसमें (भाविद्रव्यासंख्यातमें ) क्षयोपशमलक्षण द्रव्य उपयोगका अभाव है।
तद्वयतिरिक्त द्रव्यासंख्यात दो प्रकारका है, कर्मतद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात और नोकर्मतद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात । उनमें आठों कर्म स्थितिकी अपेक्षा कर्मतद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात हैं। अर्थात् आठों कौकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात समय पड़ती है, इसलिये वे स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातरूप हैं। द्वीप और समुद्रादि नोकर्मतव्यतिरिक्तद्रव्यासंख्यात हैं।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशोंकी गणनाके प्रति सर्वदा एकरूपले अवस्थित हैं, इसलिये वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात हैं। गणनासंख्यातका स्वरूप परिकर्ममें कहा गया है । योगविभागमें जो अविभागप्रतिच्छेद बतलाये हैं, उनकी अपेक्षा जीवका एक प्रदेश अप्रदेशासंख्यात है। अथवा, असंख्यातमें उसका यह भेद शून्यरूप है, क्योंकि, असंख्यात पर्यायोंके आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्यका अभाव है। कुछ आत्माका एक प्रदेश
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१, २, १५.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १२५ पज्जायाणमाहारभूद-अप्पएसएगदव्याभावादो। ण च एगो जीवपदेसो दव्वं, तस्स जीवदव्यावयवत्तादो। पजवणए पुण अवलंबिजमाणे जीवस्स एगपदेसो वि दव्वं तत्तो वदिरित्तसमुदायाभावादो । जं तं एयासंखेजयं तं लोयायासस्स एगदिसा । कुदो ? सेढिआगारेण लोयस्स एगदिसं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखातीदादो । जं तं उभयासंखेजयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ पेक्त्रमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। जं तं सव्यासंखेञ्जयं तं घणलोगो। कुदो ? घणागारेण लोगं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो । जं तं वित्थारासंखेजयं तं लोगागासपदरं, लोगपदरागारपदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो । जं तं भावासंखेञ्जयं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमदो भावासंखेज्जयं असंखेजपाहुडजाणगो उपजुत्तो । णोआगमदो भावासंखेजयं ओहिणाणपरिणदो जीवो । एदेसु असंखेजेसु गणणासंखेजेण पयंदं । जदि गणणासंखेज्जेण पयदं तो सेसदसविह-असंखेजपरूवणं किमढें कीरदे ? अपगदमवणिय पयदपरूवणहूँ । वुत्तं च
द्रव्य तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, एक प्रदेश जीवद्रव्यका अवयव है। पर्यायाथिक नयका अवलम्बन करने पर जीवका एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योंकि, अवयवोंसे भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है।
लोकाकाशकी एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एकासंख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशोंकी श्रेणीरूपसे लोकाकाशकी एक दिशा देखने पर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती है । लोकाकाशकी उभय दिशाएं अर्थात् दो दिशाओं में स्थित प्रदेशपंक्ति उभयासंख्यात है, क्योंकि, लोकाकाशके दो ओर देखने पर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। घनलोक सर्वासंख्यात है, क्योंकि, घनरूपसे लोकके देखने पर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। प्रतररूप लोकाकाश विस्तारासंख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाशके प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।
भावासंख्यात आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। असंख्यातविषयक प्राभृतको जाननेवाले और वर्तमान में उसके उपयोगसे युक्त जीवको आगमभावासंख्यात कहते हैं । अवधिज्ञानसे परिणत जीवको नोआगमभावासंख्यात कहते हैं। इन ग्यारह प्रकारके असंख्यातों से प्रकृतमें गणनासंख्यातसे प्रयोजन है।
शंका- यदि प्रकृतमें गणनासंख्यातसे ही प्रयोजन है तो शेष दश प्रकारके असंख्यातोंका वर्णन क्यों किया गया?
समाधान-अप्रकृत विषयका निवारण करके प्रकृत विषयका प्ररूपण करनेके लिये, यहां सभी असंख्यातोंका वर्णन किया है। कहा भी है
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१२६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १५. अपगयणिवारणळ पयदस्स परूवणाणिमित्तं च ।।
संसयविणासणहूँ तच्चट्ठवहारणटुं च ॥ ५९॥ वुत्तं ज पुव्वाइरिएहि
जत्थ जहा जाणेज्जो अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा।
जत्थ बहुवं ण जाणदि चउहवो तत्थ णिक्खेवो ॥ ६० ॥ इदि । - अधवा णिक्खेवविसिटमेदं भणिज्जमाणं वत्तारस्सुप्पत्थोत्थाणं कुज्जा इदि णिक्खेवो कीरदे । तथा चोक्तम्
प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽयों नाभिसमीक्ष्यते ।
__ युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ ६१ ॥ जं तं गणणासंखेजयं तं तिविहं, परित्तासंखेजयं जुत्तासंखेजयं असंखेज्जासंखेजयं चेदि वियप्पदो एकेकं तिविहं । तत्थ इमं होदि ति णिच्छओ उप्पाइज्जदे ।
अप्रकृत विषयका निवारण करनेके लिये, प्रकृत विषयका प्ररूपण करनेके लिये, संशयका विनाश करनेके लिये और तत्त्वार्थका निश्चय करनेके लिये यहां सभी असंख्यातोंका कथन किया है॥ ५९॥
पूर्वाचार्योंने भी कहा है
जहां पदार्थों के विषयमें यथावस्थित जाने वहां पर नियमसे अपरिमित निक्षेप करना चाहिये । पर जहां पर बहुत न जाने वहां पर चार निक्षेप अवश्य करना चाहिये ॥ ६०॥
अथवा, निक्षेपके विना वर्ण्यमान विषय कदाचित् वक्ताको उत्पथमें ले जावे, इसलिये सभीका निक्षेप किया है। उसीप्रकार कहा भी है
प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा जिसका सूक्ष्म विचार नहीं किया जाता है वह युक्त होते हए भी कभी अयक्तसा प्रतीत होता है और अयक्त होते हुए भी कभी होता है॥ ६१॥
गणनासंख्यात तीन प्रकारका है, परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात । ये तीनों भी प्रत्येक उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन तीन प्रकारके हैं। उक्त तीनों असंख्यातों से प्रकृतमें यह असंख्यात लिया है, आगे इसीका निश्चय कराते हैं
तसा प्रतीत
१जं तं असंखेज्जयं तं तिविधं, परित्तासंखेज्जयं जुत्तासंखेज्जयमसंखासखेज्जयं चेदि। जं तं परिचासंखेजयं तं तिविधं, जहण्णपरिचासखेज्जयं अजहण्णमणुक्कस्सपरितासंखेज्जयं उक्कस्तपरिचासंखेज्जयं चेदि । जंतं जुत्तासंखेज्जयं तं तिविधं, जहण्णजुत्तासंखेज्जयं अजहण्णमणुक्कस्सजुत्तासंखेज्जयं उक्कस्सजुत्तासंखेज्जयं चेदि । जं तं असंखेज्जासंखेज्जयं तं तिविधं जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जयं अजहण्णमणुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जय उक्कस्सअसंखेज्जा. संखेज्जयं चेदि । ति. प. पत्र. ५२. संखेज्जमसंखणंतमिदि तिविहं । संखं तिल्लदु तिविहं परित्त जुत्तं ति दुगवारं ॥ त्रि.सा. १३. संखिज्जेगमसंखं परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं । क. मं. ४, ७१.
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१, २, १५.] दव्वपमाणाणुगमे णिस्यगदिपमाणपरूवणं
[१२० परित्तासंखेजयं ण भवदि, जुत्तासंखेजयं पि ण भवदि, असंखेज्जासंखेज्जस्सेवं गहणं, असंखेज्जा इदि बहुवयणणिदेसादो । पाइए दोसु वि बहुवयणोवलंभादो वत्तिमुहेण सव्वेसु असंखेज्जबहुत्तविरोहाभावादो वा अणेयंतिओ हेदुरिदि चेत्तरिहि ' असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण' इत्ति पुरदो भण्णमाणसुत्तादो असंखेज्जासंखेज्जस्स उवलद्धी हवदि । तं पि तिविहं जहण्णमुक्कस्सं अजहण्णमुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयं चेदि । तत्थ वि जहण्णमसंखेज्जासंखेज्जयं ण भवदि उकस्समसंखेज्जासंखेज्जयं पि ण भवदि अजहण्णमणुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जस्सेव गहणं । कुदो ? 'जम्हि जम्हि असंखेज्जासंखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्णमणुकस्स-असंखेज्जासंखेज्जस्सेव गहणं भवदि'' इदि परियम्मवयणादो ।
तं पि अजहण्णमणुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयमसंखेज्जवियप्पमिदि इमं होदि त्ति ण जाणिज्जदे ? जहण्ण-असंखेज्जासंखेज्जादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि
प्रकृतमें परीतासंख्यात विवक्षित नहीं है और युक्तासंख्यात भी नहीं लिया गया है, अतः यहां असंख्यातासंख्यातका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, सूत्रमें ' असंखेज्जा' इसप्रकार बहुवचनरूप निर्देश किया है।
शंका-प्राकृतमें द्विवचनके स्थानमें भी बहुवचन पाया जाता है। अथवा, वृत्तिमुखसे सभी असंख्यातों में असंख्यातके बहुत्वके स्वीकार कर लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है, इसलिये प्रकृतमें असंख्यातासंख्यातके ग्रहण करनेके लिये जो ' असंखेज्जा' यह बहुवचनरूप हेतु दिया है वह अनैकान्तिक है।
समाधान-यदि ऐसा है तो ' असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ' इसप्रकार आगे कहे जानेवाले सूत्रसे असंख्यातासंख्यातका ग्रहण हो जाता है।
वह असंख्यातासंख्यात भी तीन प्रकारका है, जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात । इन तीनों में भी प्रकृतमें जघन्य असंख्यातासंख्यात नहीं है और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात भी नहीं है, किंतु प्रकृतमें अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका ही ग्रहण है, क्योंकि, 'जहां जहां असंख्यातासंख्यात देखा जाता है वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम असंख्यातासंख्यातका ही ग्रहण होता है,' ऐसा परिकर्मका वचन है।
“शंका-वह मध्यम असंख्यातासंख्यात भी असंख्यात विकल्परूप है, इसलिये यहां यह भेद लिया है, यह नहीं जाना जाता है ?
समाधान-जघन्य असंख्यातासंख्यातसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र वर्गस्थान ऊपर जाकर और जघन्य परीतानन्तसे असंख्यात लोकमात्र वर्गस्थान नीचे आकर दोनोंके
१ ति. प. पत्र ५२
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१२८] छकावंडागमे जीवाणं
[ १, २, १५. वग्गट्ठाणाणि उवरि अब्भुस्सरिदूण जहण्णपरित्ताणंतादो असंखेज्जलोगमेत्तवग्गट्ठाणाणि हेहा ओसरिऊण दोण्हमंतरे जिणदिवभावरासी घेत्तव्यो। अधवा तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासीदो असंखेज्जगुणो छदव्यपक्खित्तरासीदो असंखेजगुणहीणो । को तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासी को वा छदव्यपक्खित्तरासि त्ति वुत्ते बुच्चदे- जहण्णमसंखेजासंखेज्जं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स जहण्णमसंखेज्जासंखेजयं दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय पुणो उप्पण्णरासिं दुप्पडिरासिं करिय एगरासिं विरलेऊण एक्केक्कस्स रूवस्स उप्पण्णमहारासिं दाऊण अण्णोण्णभत्थं करिय पुणो उप्पण्णरासिं दुप्पडिरासिं करिय एगरासिं विरलेऊण एक्केक्कस्स रुवस्स उप्पण्णमहारासिं दाऊण अण्णोण्णब्भत्थे कदे तिण्णिवारवग्गिदसंबग्गिदरासी हवदि। एसा तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो ? जेणेदस्स वग्गसलागाणं वग्गसलागाओ जहण्णपरित्तासंखेज्जस्स उवरिमवग्गमपावेऊणुप्पण्णाओ पलिदोवमवग्गसलागाणं पुण वग्ग
मध्यमें जिनेद्रदेवने जो राशि देखी है उसका यहां ग्रहण करना चाहिये। अथवा, तीनवार वर्गितसंवर्गित राशिसे असंख्यातगुणी और छह द्रव्यप्रक्षिप्त राशिसे असंख्यातगुणी हीन राशि प्रकृतमें लेना चाहिये।
शंका-तीनवार वर्गितसंवर्गित राशि कौनसी है और छह द्रव्यप्रक्षिप्त राशि कौनसी है ? इसप्रकार पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं
समाधान - जघन्य असंख्यातासंख्यातका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर जघन्य असंख्यातासंख्यातको देयरूपसे दे कर उनका परस्पर गणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसकी फिरसे दो पंक्तियां करनी चाहिये। उनमेंसे एक राशिका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर दूसरी पंक्तिमें स्थित महाराशिको देयरूपसे देकर परस्पर गुणा करनेसे जो महाराशि उत्पन्न हो, उसकी फिरसे दो पंक्तिया करनी चाहिये। उनमें से एकका विरलन करके और उस विरलित राशिके ऊपर दूसरी पंक्तिमें स्थित उत्पन्न हुई महाराशिको देयरूपसे देकर परस्पर गुणा करने पर तीनवार वर्गितसंवर्गित राशि उत्पन्न होती है । (पृष्ठ २३ पर तीनवार वर्गितसंवर्गितराशिका बीजगणितसे उदाहरण दिया है उसीप्रकार यहां समझना चाहिये।)
यह तीनवार वार्गितसंवर्गित राशि पल्योपमके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि, इसकी वर्गशलाकाओंकी वर्गशलाकाएं जघन्य परीतासंख्यातंके उपरिम वर्गको नहीं प्राप्त होकर,
१ ति. प. पत ५२. त्रि. सा. ३८.४१. बितिच उपंचमगुणणे कमा सगासंख पढमच उसत्ता । णता ते रूवजुआ मज्झा रूवूण गुरु पच्छा ॥ इअ सुत्तत्तं अन्ने वग्गिअमिकसि च उत्थयमसंख । होइ असंखासंखं लहु रूवजुअं तु तं ममं ॥ रूवणमाइमं गुरु तिवम्गि तस्थिमे दसक्खवे ॥ क.ग्र. ४, ७९.८१.
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१, २, १६.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १२९ सलागाओ पदरावलियादो उवरि गंतूणुप्पण्णाओ, तम्हा तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासीदो णेरइयमिच्छाइहिरासी असंखेज्जगुणो । को छदवपक्खित्तरासी ?
धम्माधम्मा लोयायासा पत्तेयसरीर-एगजीवपदेसा ।
बादरपदिहिदा वि य छप्पेदेऽसंखपक्खेवा' ॥ ६२॥ एदाणि छ दव्वाणि पुव्वुत्तरासिम्हि पक्खित्ते छदव्बपक्खित्तरासी होदि । एवं विहाणेण भणिदअजहण्णमणुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयस्स जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तो णेरइयमिच्छाइट्ठिरासी होदि । एवं दवपमाणं समत्तं ।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्तप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥१६॥
किमर्से मिच्छाइट्टिरासी कालेण परूविजदे ? ण, असंखेज्जरासी सव्वा णिहदि
अर्थात् जघन्य परीतासंख्यातके ऊपर और उसके उपरिम वर्गके नीचे उत्पन्न हुई हैं और पल्योपमकी वर्गशलाकाओंकी वर्गशलाकाए प्रतरावलीके ऊपर जाकर उत्पन्न हुई हैं। इससे प्रतीत होता है कि तीनवार वर्गितसंवर्गित असंख्यातासंख्यात राशिसे नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि असंख्यातगुणी है।
शंका-छह द्रव्य प्राक्षिप्त राशि कौनसी है ?
समाधान-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, लोकाकाश, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, एक जीवके प्रदेश और बादर प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति ये छह असंख्यात राशियां तीनवार वर्गितसंवर्गित राशिमें मिला देना चाहिये ॥ ६२॥
इन छह राशियोंको पूर्वोक्त राशिमें प्रक्षिप्त करने पर छह द्रव्य प्रक्षिप्त राशि होती है।
इस विधिसे कहे गये मध्यम असंख्यातासंख्यातका जितना प्रमाण हो उतनी नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि है।
__इसप्रकार द्रव्यप्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ। कालकी अपेक्षा नारक मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अपसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत हो जाते हैं ॥ १६ ॥
शंका-नारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका कालकी अपेक्षा किसलिये प्ररूपण किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, संपूर्ण असंख्यात जीवराशि समाप्त हो जाती है, इस
१ धम्माधम्मा लोगागासा एगजीवपदेसा चत्तारि वि लोगागासमेत्ता पत्तेगसरीरवादरपदिट्ठिय एदे। ति. प. ५२. धम्माधम्मिगिजीवगलोगागासप्पदेसपत्तेया। तत्तो असंखगुणिदा पदिद्विदा छप्पि रासीओ ॥ त्रि. सा. ४२.
२ असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ। अनु. सू. १४२. पृ. १८४,
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१३० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १६. त्ति पण्णवण्णद्वत्तादो। किमढे खेत्तपमाणमइकम्म कालपमाणं वुच्चदे ? ण एस दोसो, 'जदप्पवण्णणीयं तं पुयमेव भाणियव्यं' इदि वयणादो । कथं कालादो खेतं बहुवण्णणिज्जं ? ण, तम्हि सेढि-जगपदर-विक्खंभसूचिपरूवणाणमत्थितादो। के वि आइरिया जं बहुवं तं सुहुममिदि भणंति
सुहुमो य हवदि कालो तत्तो सुहुमं खु जायद खेत्तं ।
अंगुल-असंखभागे हवंति कप्पा असंखेज्जा ॥ ६३ ॥ एदं ण घडदे । कुदो ? दयादो थूलं खेत्तं छडिय दव्यस्स परूवणाण्णहाणुववत्तीदो । कधं दव्वादो खेत्तं थूलं ? वुच्चदे
सुहुमं तु हवदि खेत्तं तत्तो सुहुमं खु जायदे दव्यं ।
दव्वंगुलम्हि एक्के हवंति खेत्तंगुलाणंता ॥ ६४ ॥ दव्व-खेत्तंगुले परमाणुपदेसा आगासपदेसा च सरिसा ति णेदं घडदे ? चे ण,
बातका शान कराना कालकी अपेक्षा प्ररूपण करनेका प्रयोजन है।
शंका-क्षेत्रप्रमाणका उल्लंघन करके पहले कालप्रमाणका प्ररूपण किसलिये किया जा रहा है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, 'जो अल्पवर्णनीय होता है उसका पहले वर्णन करना जाहिये' इस वचनके अनुसार पहले कालप्रमाणका प्ररूपण किया है।
शंका-कालसे क्षेत्र बहुवर्णनीय कैसे है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षेत्रमें जगश्रेणी, जगप्रतर और विष्कम्भसूचीकी प्ररूपणा पाई जाती है, इसलिये कालसे क्षेत्र बहुवर्णनीय है।
कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि जो बहुत अर्थात् बहुत प्रदेशोंसे उपचित होता है वह सूक्ष्म होता है । यथा
काल सूक्ष्म होता है और क्षेत्र उससे भी सूक्ष्म होता है, क्योंकि, एक अंगुलके असंख्यातवें भागमें असंख्यात कल्पकाल आ जाते हैं । अर्थात् एक अंगुलके असंख्यातवें भागके जितने प्रदेश होते हैं असंख्यात कल्पकालके उतने समय होते हैं ॥ ६३ ॥
परंतु उन आचार्योंका यह व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, द्रव्यसे क्षेत्र स्थूल है, इस बातको छोड़कर ही पहले द्रव्यप्रमाणको प्ररूपणा बन सकती है, अन्यथा क्षेत्रप्रमाणके प्ररूपणके पहले द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है।
शंका-द्रव्यसे क्षेत्र स्थूल कैसे है ?
समाधान-क्षेत्र सूक्ष्म होता है और उससे भी सूक्ष्म द्रव्य होता है, क्योंकि, एक द्रव्यांगुलमें (गणनाकी अपेक्षा) अनन्त क्षेत्रांगुल पाये जाते हैं ॥ ६४॥
शंका-एक द्रव्यांगुल और एक क्षेत्रांगुलमें परमाणुप्रदेश और आकाश-प्रदेश समान होते हैं, इसलिये पूर्वोक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है ?
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १३१ एकम्हि खेत्तंगुले ओगाहे अणंतदव्वंगुलदसणादो। असंखेज्जासंखेज्जाणं ओसप्पिणिउस्सप्पिणीणं समए सलागभूदे ठवेऊण णेरइयमिच्छाइद्विरासी च ठवेऊण सलागादो एगो समओ अवहिरिज्जदि, णेरइयमिच्छाइद्विरासीदो एगो जीवो अवहिरिज्जदि। एवं पुणो पुणो अवहिरिज्जमाणे सलागरासी रइयमिच्छाइट्ठी च जुगवं णिलुति । अधवा ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ दो वि मिलिदाओ कप्पो हवदि, तेण कप्पेण णेरइयमिच्छाइटिरासिम्हि भागे हिदे जं भागलद्धं तत्तियमेता कप्पा हवंति । एवं कालपमाणं समत्तं ।
खेत्तेण असंखेज्जाओ सेढीओ जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । तासिं सेढीणं विक्खंभसूची अंगुलवग्गमूलं विदियवग्गमूलगुणिदेण ॥१७॥
समाधान -- नहीं, क्योंकि, एक क्षेत्रांगुलमें अवगाहनाकी अपेक्षा अनन्त द्रव्यांगुल देखे जाते हैं।
असंख्यातासंख्यात अपसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके समय शलाकारूपसे एक ओर स्थापित करके और दूसरी ओर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिको स्थापित करके शलाका राशिमेंसे एक समय कम करना चाहिये और नारक मिथ्याधि जीवराशिमेंसे एक जीव कम करना चाहिये । इसप्रकार शलाकाराशि और नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिमेंसे पुनः पुनः एक एक कम करने पर शलाकाराशि और नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि युगपत् समाप्त हो जाती हैं।
अथवा, अपसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दोनों मिलकर एक कल्पकाल होता है । उस कल्पका नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतने कल्पकाल नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी गणनामें पाये जाते हैं।
इसप्रकार कालप्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ। क्षेत्रकी अपेक्षा जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। उन जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसीके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित करने पर जितना लब्ध आवे, उतनी है ॥ १७ ॥
विशेषार्थ- खुद्दाबन्धमें सामान्य नारकियोंके प्रमाण लानेके लिये विष्कंभसूचीका
१ सूचिः एकप्रदेशिका पंक्तिः । पञ्चसं. २, १४ स्वी. टी.
२ सामण्णा णेरइया धणअंगुलबिदियमूलगुणसेढी । गो, जी. १४२. खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभमूई अंगुलपदमवग्गमूलं बिहअवग्गमूलपडप्पणं । अहव णं अंगुलबिइअवग्गमूलघणपमाणमेचाओ सेटीओ। अनु. सू. १४२. पृ. १८४. एत्थ (खुद्दाबंधे) सामण्णणेरइयाणं वुत्तविक्खंभसूची
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१३२] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १७. संखेज्जाणताणं णिवारणट्ठमसंखेजवयणं । असंखेज्जाओ सेढीओ इदि सामण्णवयणेण सव्वागाससेढीए गहणं किण्ण पावदे ? ण, तस्स
पल्लो सायर-सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी ।
लोगपदरो य लोगो अझ दु माणां मुणेयव्वा ॥६५॥ इदि पमाणडगम्मतरे अप्पिदत्तादो। ण च पमाणे परूविज्जमाणे अप्पमाणस्सपवेसो अस्थि, अइप्पसंगादो । अधवा 'मिच्छाइट्ठी दबपमाणेण असंखेजा' इदि बिल्लवयणादो जाणिज्जदे जहा अणंताए सव्यागाससेढीए गहणं णत्थि त्ति । जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो इदि किमहूँ ? ण, जगपदरस्स संखेज्जदिभागप्पहुडि उवरिमसव्वसंखा
प्रमाण पूर्वोक्त ही बतलाया है। अब यदि सामान्य नारकियोंकी और मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्कभसूची एक मान ली जाती है तो नरकमें गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका अभाव प्राप्त हो जाता है जो संगत नहीं है। अतएव यहां पर मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी जो विष्कंभसूची बतलाई है, यह सामान्य कथन है। विशेषरूपसे विचार करने पर सूच्यंगुलके प्रथम धर्गमूलका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा कर देने पर जो नारक सामान्य विष्कंभसूची आवे उसे किंचित् न्यून कर देने पर मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्कंभसूची होती है।
संख्यात और अनन्तके निवारण करने के लिये सूत्र में 'असंख्यात' यह वचन दिया है।
शंका-सूत्रमें 'असंख्यात जगश्रेणियां' ऐसा सामान्य वचन दिया है, इसलिये उससे संपूर्ण आकाश-श्रेणियोंका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वह श्रेणीप्रमाण
पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, लोकप्रतर और लोक, इसप्रकार ये आठ उपमाप्रमाण जानना चाहिये ॥ ६५ ॥
इसप्रकार इन आठ प्रमाणोंके भीतर आ जाता है। और जिसका प्रमाणके भीतर प्ररूपण किया गया है उसमें अप्रमाणका प्रवेश नहीं हो सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा।
। अथवा, 'नारक मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा असंख्यात हैं' इस पूर्वोक्त वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें संपूर्ण आकाशकी अनन्त जगश्रेणियोंका ग्रहण नहीं है।
शंका-सूत्रमें 'जगप्रतरका असंख्यातवें भागप्रमाण' यह वचन किसलिये दिया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जगप्रतरके संख्यातवें भागको आदि लेकर उपरिम
चेव णेरड्यमिच्छाइट्ठीणं जीवट्ठाणे परविदा, कधं तेणेदे ण विरम्झदे ? आलावभेदाभावाद।। अस्थदो पूण भेदो अस्थि चेव, सामपणविसंसविक्खंभसूचीणं समाणत्तविरोहादो |xx तम्हा एत्थतणविक्खंभसूची पुण किंचूणघणंगुलविदियवग्गमूलमेत्ता त्ति घेत्तव्वं । धवला (खुद्दाबंध) पत्र ५१८., अ.
१ प्रतिषु ' दुवृणा ' इति पाठः । २पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी। लोयपदरो य लोगो उवमपमा एवमढविहा॥ त्रि. सा.९२.
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१, २, १७.] दवपमाणाणुगमे णित्यगदिपमाणपरूवणं
[१३३ पडिसेहफलत्तादो । किमर्से विक्खं भसूई परूविज्जदे ? ण, पदरस्स असंखेजदिभागो इदि सामण्णेण वुत्ते तस्स पमाणं किं संखेज्जा सेढीओ भवदि, किमसंज्खजा सेढीओ भवदि इदि जादसंदेहस्स सिस्सस्स णिच्छ यजणणटुं सेढीणं विखंभसूईए पमाणं वुत्तं ।।
दव्य-खेत्त-कालपमाणाणं सव्येसि विक्खं भसूईदो चेव णिच्छओ होदि त्ति काऊण ताव विक्खंभसूईपमाणपरूवणं कस्तामो। अंगुलबग्गमूले विक्खंभसूई हवदि । तं किं भूदमिदि वुत्ते विदियवग्गमूलगुणणेण उबलक्खियं । तं कधं जाणिजदे ? इत्थंभावलक्खणतइयाणिसादो। जहा जो जडाहि सो भुंजदित्ति । अंगुलबग्गमूलमिदि वुत्ते
....................................
संपूर्ण संख्याका प्रतिषेध करना सूत्रमें दिये गये उक्त वचनका फल है।
शंका- यहां पर विष्कंभसूचीका प्ररूपण किसलिये किया गया है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, 'प्रतरका असंख्यातवां भाग' ऐसा सामान्यरूपसे कहने पर उसका प्रमाण क्या संख्यात जगश्रेणियां है, अथवा असंख्यात जगश्रेणियां है, इसप्रकार जिस शिष्यको संदेह हो गया है उसको निश्चय करानेके लिये जगणियोंकी विष्कंभसूचीका प्रमाण कहा है।
विष्कंभसूचीके कथनसे ही द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण, इन सबका निश्चय हो जाता है, ऐसा समझकर पहले विष्कंभसूचीके प्रमाणका प्ररूपण करते हैं
___ सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलमें, अर्थात् सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका आश्रय लेकर, विष्कभसूची होती है । वह सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल किसरूप है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके गुणासे उपलक्षित है। अर्थात् सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसीके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित कर देने पर सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची होती है।
उदाहरण-सच्यंगुल २४२, विष्कंभसूची २, सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल २, सूच्यं.
गुलका द्वितीय वर्गमूल २, २४२ = २ विष्कंभसूची। शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'विदियवग्गमूलगुणिदेण' सूत्रके इस पदमें आये हुए इत्थंभावलक्षण तृतीया विभक्तिके निर्देशसे यह जाना जाता है कि यहां पर सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे
१ गुणिदेणेत्ति णेदं तदियाए एगवयणं किं तु सत्तमीए एगवयणेण पदमाए वयणेण वा होदव्वमण्णहा सुत्तसंबंधाभावादो । धवला (खुद्दाबंध) पत्र ५१८. अ.
२ इत्थंभूतलक्षणे । २।३।२१ पाणिनि । कंचित्प्रकारं प्राप्तस्य लक्षणे तृतीया स्यात् । जटाभिस्तापसः। जटाशाप्यतापसत्वविशिष्ट इत्यर्थः । वृत्तिः ।
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१३४ ] छक्वंडागमे जीवाणं
[ १, २, १७. पदरंगुलस्स घणंगुलस्स वा वग्गमूलस्स गहणं कधं णो पावदे ? ण, 'अट्ठरूवं वग्गिज्जमाणे वग्गिज्जमाणे असंखेज्जाणि वग्गट्ठाणाणि गंतूण सोहम्मीसाणविक्खभसूई उप्पज्जदि। सा सई वग्गिदा जेरइयविक्खंभसूई हवदि। सा सई वग्गिदा भवणवासियविक्खंभमूई हवदि । सा सई वग्गिदा घणंगुलो हवदि ' त्ति परियम्मवयणादो णव्वदे घण-पदरंगुलाणं वग्गमूलस्स गहणं ण हवदि किंतु सूचि अंगुलबग्गमूलस्लेव गहणं होदि त्ति, अण्णही घणंगुलविदियवग्गमूलस्स अणुप्पत्तीदो। संपहि सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं भागहार
गुणित प्रथम वर्गमूल लिया है। जैसे, 'जो जटाओंसे युक्त है वह तपस्वी भोजन करता है। यहां पर इत्थंभावलक्षण तृतीया निर्देश होनेसे जटाओंवाला यह अर्थ निकल आता है, उसीप्रकार प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये।
शंका-'अंगुलका वर्गमूल' ऐसा सामान्य कथन करने पर उससे प्रतरांगुलके वर्गमूल अथवा घनांगुलके वर्गमूलका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'आठका उत्तरोत्तर वर्ग करते हुए असंख्यात वर्गस्थान जाकर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (सौधर्मद्विकसंबन्धी विष्कंभसूचीका) उसीसे वर्ग करने पर नारक सामान्यसंबन्धी विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (नारकसंबन्धी विष्कंभसूचीका ) उसीसे वर्ग करने पर भवनवासी देवासंबन्धी विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (भवनवासिविष्भसूचीका) उसीसे वर्ग करने पर घनांगुल प्राप्त होता है। इस परिकर्मके वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें घनांगुल और प्रतरांगुलके वर्गमूलका ग्रहण नहीं किया है, किन्तु सूच्यंगुलके वर्गमूलका ही ग्रहण किया है। यदि ऐसा न माना जाय तो सामान्य नारक विष्कंभसूचीको जो घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण कहा है वह नहीं बन सकता है।
विशेषार्थ-ऊपर जो परिकर्मका उद्धरण दिया है उससे स्पष्ट पता लग जाता है कि सामान्य नारकविष्कंभसूची धनांगुलके द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है। अब यदि सूत्रमें अंगुल सामान्यका उल्लेख होनेसे उससे हम सूच्यंगुलका ग्रहण न करके प्रतरांगुल या घनांगुलका ग्रहण करें तो पूर्वोक्त सूत्रके अभिप्रायका परिकर्मके वचनके साथ विरोध आ जाता है, क्योंकि, उक्त सूत्रका अर्थ करते हुए, यदि हम घनांगुलके प्रथम वर्गमूलका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा करने पर सामान्य नारक विष्भसूचीका प्रमाण होता है, ऐसा अर्थ करते हैं तो परिकर्मके उक्त वचनके साथ विरोध है ही। अंगुलका अर्थ प्रतरांगुल करने पर भी यही आपत्ति आती है। हां, अंगुलका अर्थ सूच्यंगुल ले लिया जाता है तो कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा करने पर जो प्रमाण आता है वह घनांगुलके द्वितीय वर्गमूल प्रमाण ही होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रमें अंगुलसे सूच्यंगुलका ही ग्रहण करना चाहिये ।
अब सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको भागहार करके और सूच्यंगुलको भाजक करके
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[ १३५
१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं काऊण सूचिअंगुलं विहज्जमाणमिदि कद्द विक्खंभसूचिपरूवणं वग्गट्ठाणे खंडिद-भाजिद. विरलिद-अवहिद पमाण-कारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि वत्तइस्सामो । तत्थ खंडिदादिचउक्कं सुगमं । तस्स पमाणं केत्तियं? सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि । केण कारणेण ? सूचिअंगुलपढमवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलपढमवग्गमूलमागच्छदि । सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स दुभागेण सूचिअंगुले भागे हिदे दोणि पढमवग्गमूलाणि आगच्छंति । पुणो पढमवग्गमूलस्स तिभागेण सूचिअंगुले भागे हिदे तिणि पढमवग्गमूलाणि आगच्छति । एवं पढमवग्गमूलस्स अखंसेज्जदिभागभूदसूचिअंगुलविदियवग्गमूलेण पढमवगमूले भागे हिदे लद्धेण सूचिअंगुले भागे हिदे
वर्गस्थानमें खंडित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति, और विकल्पके द्वारा विकभसूचीका प्रतिपादन करते हैं। उनमें प्रारंभके खण्डित आदि चारका कथन सुगम है । ( इन चारोंका सामान्य मिथ्यादृष्टि राशिके सम्बंध उदाहरण सहित कथन पृष्ठ ४१ और ४२ में किया है, उसीप्रकार यहां भी समझना चाहिये ।)
शंका-विष्कंभसूचीका प्रमाण कितना है ?
समाधान-सूच्यंगुलके असंख्यातवां भाग विष्कंभसूचीका प्रमाण है जो सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है।
शंका--किस कारणसे सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण विष्कंभसूची होती है?
समाधान- सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका सूच्यंगुलमें भाग देने पर सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल आता है (२४२३)। सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके द्वितीय भागका
सूच्यंगुलमें भाग देने पर सूच्यंगुलके दो प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं (२;
अन्य आते हैं (५४३.२४५)। पुन
सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके तीसरे भागका सूच्यंगुलमें भाग देने पर सूच्यंगुलके तीन प्रथम
।। इसीप्रकार सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके असं.
लब्ध आते हैं
४२
ANT
ख्यातवें भागरूप सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर जो लब्ध
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१३६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १७. असंखेज्जाणि सूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि आगच्छंति त्ति ण संदेहो । कारणं गई । णिरुत्तिं वत्तइस्सामो । अंगुलविदियवग्गमूलेण पढमवग्गमूले भागे हिदे भागलद्धम्हि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि घेत्तूण विक्खंभसूई हवदि । अधवा विदियवग्गमूलस्स जत्तियाणि रूवाणि तत्तिएहि पढमवग्गमूलेहि विक्खं भसूची होदि त्ति वत्तव्वं । णिरुत्ती गदा।
वियप्पो दुविहो हेडिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि। तत्थ वेरूवे हेट्ठिमवियप्पं वत्तइस्सामो । सूचिअंगुलविदियवग्गमूलेण सूचिअंगुलपढमवग्गमूलमोवट्टिय लद्धेण पढमवग्गमूले गुणिदे विक्खंभसूई हवदि । अधवा विदियवग्गमलेण पढमवग्गमूले गुणिदे
आवे उससे सूच्यगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं, इसमें संदेह नहीं है । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ।
.
उदाहरण–२ = २, २४२ = २ सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण
३
विष्कंभसूची।
अब निरुक्तिका कथन करते हैं- सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर भागमें जितनी संख्या लब्ध आवे उतने प्रथम वर्गमूल ग्रहण करके विष्कंभ. सूची उत्पन्न होती है। अथवा, द्वितीय वर्गमूलका जितना प्रमाण है उतने प्रथम वर्गमूलोंसे (द्वितीय वर्गमूल प्रमाण प्रथम वर्गमूलोंको जोड़ देने पर) विष्कंभसूची होती है । इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ।
३३ द्वितीय वर्गमूल प्रमाण प्रथम वर्गमूलोंका जोड़, द्वितीय उदाहरण-२४२ = २ वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलको गुणाकर देने पर जितना होता
है, उतना ही आता है। विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमें पहले द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं-- सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर विष्कभसूचीका प्रमाण होता है। अथवा, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण होता है।
२४२ %3D२वि. अथवा, २४२-२वि.
उदाहरण
عالم الصراع م
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१३७ विक्खंभसूई हवदि । अट्ठरूवे वत्तइस्सामो । अंगुलविदियवग्गमूलेण पढमवग्गमूलं गुणेऊण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । केण कारणेण ? अंगुलपढमवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे सूचिअंगुलो आगच्छदि। पुणो तमंगुलविदियवग्गमूलेण भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि। एत्थ विउणादिकरणं वत्तइस्सामो । अंगुलपढमवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे सूचिअंगुलो आगच्छदि । विगुणिदपढमवग्गमूलण धणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे सूचिअंगुलस्स दुभागो आगच्छदि । तिगुणिदपढमवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे सूचिअंगुलस्स तिभागो आगच्छदि ।
अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं- सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे धनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है, क्योंकि, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सूच्यंगुलका प्रमाण आता है। पुनः उसे सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे भाजित करने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है।
उदाहरण—सूच्यंगुलका घन (६) = २, धनांगुलका प्रथम वर्गमूल २' ।
२ = २ विष्कंभसूची.
२x२
अब यहां द्विगुणादिकरण विधिको बतलाते हैं- सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे घना
गुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है
द्विगुणित
सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे धनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सूच्यंगुलका दूसरा
२२४२ भाग आता है (
३ २ ) । त्रिगुणित सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे घनांगुलके प्रथम
२x२
२
.
X३
वर्गमूलके भाजित करने पर सूच्यंगुलका तीसरा भाग आता है।
आता है। (-२४२)।
२४३
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१३८ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १७. एदेण कमेण दव्वं जाव सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स गुणगारो विदियवग्गमूलमेत्तं पत्ता त्ति । पुणो तेण सूचिअंगुलविदियवग्गमूलेण गुणिदपढमवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे विदियवग्गमूलोवट्टियसूचिअंगुलो आगच्छदि । सो चेव विक्खंभसूची । घणाघणे वत्तइस्समो । अंगुलविदियवग्गमूलेण पढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणंगुलविदियवज्गमूलं गुणेऊण तेण घणाघणविदियवग्गमूले भागे हिदे विक्खभसूई आगच्छदि । केण कारणेण ? घणगुलविदियवग्गमूलेण घणाघणंगुलविदियवग्गमूले भागे हिदे घणंगुलपढमवग्गमूलमागच्छदि ।
वि सूचि अंगुल पढमवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे सूचिअंगुलो आगच्छदि । पुणो वि विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । एवमागच्छदित्ति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । एवं हैट्ठिमवियप्पो समत्तो ।
उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ
इसप्रकार जबतक सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका गुणकार द्वितीय वर्गमूलके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक इसी क्रमसे ले जाना चाहिये । पुनः उस सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूल से सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुल के प्रथम वर्गमूलके भाजित करने परसूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे भाजित सूच्यंगुल आता है, और वही विष्कंभसूची है ।
उदाहरण -
१
२x२
=
२x२
२
= २ विष्कंभसूची.
अब घनाघनमें अघस्तन विकल्प बतलाते हैं- सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनांगुलके द्वितीय वर्गमूल में भाग देने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है, क्योंकि, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलका antaries द्वतीय वर्गमूल में भाग देने पर घनांगुलका प्रथम वर्गमूल आता है । पुनः सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका घनांगुलके प्रथम वर्गमूलमें भाग देने पर सूच्यंगुल आता है । पुनः सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलका सूच्यंगुलमें भाग देने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है । इसप्रकार विष्कंभसूची आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया । इसप्रकार अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ ।
उदाहरण – सूच्यंगुलका घनाघन ( २ ) = २१ २३
सूच्यंगुलके घनाघनका द्वितीय
२ विष्कंभसूची.
वर्गमूल २ = २
२x२x२
उपरम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकार । उनमें
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१३९ गहिदं वत्तइस्सामो । विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि विक्खंभसूची आगच्छदि । अधवा विदियवगमूलेण सूचिअंगुलं गुणेऊण पदरंगुले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । केण कारणेण ? सूचिअंगुलेण पदरंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलो आगच्छदि । पुणो वि विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कटु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे विक्खंभसूची आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेदव्वं । एत्थ
पहले गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलका सूच्यंगुलमें भाग देने पर विष्कंभसूची आती है।
उदाहरण-२४.२ = २ विष्कंभसूची.
क
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी विष्कंभसूची आती है।
उदाहरण–२ के क अर्धच्छेद होते हैं । २ के क अर्धच्छेद किये जायं तो अंतिम
ख-क राशि २ होगी। सूच्यंगुलके द्वितीय वगमूलमें क = ३ है, और सूच्यंगुलमें ख = ३ है; इसलिये २ x २ = २ के अर्धच्छेद २ के अर्धच्छेदोंके बराबर करने पर २ = २' अर्थात् २ आ जाता है जो विष्कंभसूचीका प्रमाण है।
अथवा, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरांगुलमें भाग देने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है, क्योंकि, सूच्यंगुलसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है। पुनः सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर विष्कंभसूची आती है । इसप्रकार विष्कंभसूची आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया।
उदाहरण--
= २ विष्कभसूची. २x२x२ २ उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में ले
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१५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, २, १७. अद्धच्छेदणयमेत्तमेलावणविहाणं जाणिऊण वत्तव्यं । अहरूवे वत्तइस्सामो। विदियवग्गमूलेण पदरंगुलं गुणेऊण तेण घणंगुले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । केण कारणेण ? पदरंगुलेण घणंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलमागच्छदि । पुणो वि विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विखंभसूची आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि विक्खंभसूची आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । घणाघणे वसइस्सामो । विदियवग्गमूलेण पदरंगुलं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा घणंगुलउवरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणाघणे भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । केण
जाना चाहिये। यहां पर समस्त अर्धच्छेदोंके मिलाने की विधिको जानकर कथन करना चाहिये।
उदाहरण-२ के अर्धच्छेद ५ होते हैं, अतः इतनीवार २ के अर्धच्छेद करने पर
२ -२ = २ प्रमाण विष्कंभसूची आ जाती है।
अब अष्टरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे प्रतरांगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके भाजित करने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है, क्योंकि, प्रतरांगुलसे घनांगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है । पुनः सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है। इसप्रकार विष्कंभसूची आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया।
उदाहरण- २ = २ विष्कंभसूची.
२४२ उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी विष्कंभसूचीका प्रमाण आ जाता है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में ले जाना चाहिये।
उदाहरण–२ के अर्धच्छेद ३ होते हैं, अतः इतनीवार २' के अर्धच्छेद करने पर २ = २ = २ प्रमाण विष्कभसूची आ जाती है।
अब धनाधनमें गृहीत उपरिम विकल्प बतलाते हैं-- सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे प्रतरांगुलको गुणित करके जो गुणित राशि लब्ध आवे उससे घनांगुलके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनाघनांगुलके भाजित करने पर विष्कंभसूचीका
.
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १४१ कारणेण ? घण-उवरिमवग्गेण घणाघणे भागे हिदे घणंगुलो आगच्छदि । पुणो वि पदरंगुलेण घणंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलो आगच्छदि । पुणो वि विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विक्खंभसूची आगच्छदि । एवमागच्छदि ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं। तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि विक्खंभसूची आगच्छदि। गहिदो गदो। सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण घणंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागेण 'घणाघणविदियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागेण च विक्खंभसूचिपमाणेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च पुत्वं व वत्तव्यो।
संपहि णेरइयामिच्छाइद्विरासिस्त भागहारुप्पायणविहिं वत्तइस्सामो । सुत्ते अवुत्तो भागहारो कधमुप्पाइज्जदे ? ण, सुत्तवुत्तविक्खंभसूईदो तदुप्पत्तिसिद्धीदो। तं जहाप्रमाण आता है, क्योंकि, घनांगुलके उपरिम वर्गसे घनाघनांगुलके भाजित करने पर घनांगुल आता है। पुनः प्रतरांगुलसे घनांगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है। पुनः सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुल के भाजित करने पर विष्कंभसूची आती है । इसप्रकार विष्कंभसूची आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। उदाहरण-(२१-२२२३८-३० = २ विष्कंभसूची.
२x२x२० उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है। इसप्रकार गृहीत उपरिम विकल्पका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण-२१ के अर्धच्छेद ११ होते हैं; अतः इतनीवार २१२ के अर्धच्छेद करने पर
२ = २ = २ प्रमाण विष्कंभसूची आ जाती है।
सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण विष्कंभसूचीसे, घनांगुलके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण विष्कंभसूचीसे और घनाधनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण विष्कंभसूचीसे गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन पहलेके समान करना चाहिये। , अब नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिके भागहारके उत्पन्न करनेकी विधिको बतलाते हैं
शंका-भागहारका कथन सूत्र में नहीं किया है, फिर यहां वह कैसे उत्पन्न किया जा रहा है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, सूत्रोक्त विष्कंभसूचीसे उक्त भागहारकी उत्पत्ति बन जाती है। वह इसप्रकार है
१ प्रतिषु 'पुणो घण-' इति पाठः ।
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११२] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १७. जगसेढीए जगपदरे भागे हिदे एगसेढी आगच्छदि । जगसेढीदुभागेण जगपदरे भागे हिदे दोणि सेढीओ आगच्छंति । जगसेढितिभागेण जगपदरे भागे हिदे तिणि सेढीओ आगच्छति । एवमेगादि-एगुत्तरकमेण सेढीए भागहारो वड्वावेयव्यो जाव णेरइयविक्खभसूचिमेत्तं पत्तो त्ति । पुणो ताए विक्खंभसूचीए सेढिमोवट्टिय लद्धेण जगपदरे भागे हिदे विक्खंभसूचीमेत्तसेढीओ आगच्छति । एवमण्णत्थ वि विक्खंभसूईदो अवहारकालो साधेयव्यो। एदेण भागहारेण सेढीए उवरि खंडिदादिवियप्पा वत्तव्या । तत्थ ताव वग्गहाणे पमाण-कारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि अवहारकालं वत्तइस्सामो। तस्स पमाणं केत्तियं ? सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । पमाणं गदं । केण कारणेण ? सेढिपढमवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे सेढिपढमवग्गमूलो आग
जगश्रेणीसे जगप्रतरके भाजित करने पर एक जगश्रेणीका प्रमाण आता है (४२९४९६७२९६: ६५५३६ = ६५५३६)। जगश्रेणीके द्वितीय भागका जगप्रतरमें भाग देने पर दो जगणियां लब्ध आती हैं (४२९४९६७२९६ : ३२७६८ = १३१०७२)। जगश्रेणीके तृतीय भागसे जगप्रतरके भाजित करने पर तीन जगणियां आती हैं (४२९४९६७२९६ २१८४५१ = १९६६०८)। इसप्रकार भागहार बढ़ाते हुए जबतक वह नारक विष्कंभसूचीके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक उसे बढ़ाते जाना चाहिये। अनन्तर उस विष्भसूचीसे जगश्रेणीको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे जगप्रतरके भाजित करने पर जितना विष्कभसूचीका प्रमाण है उतनी जगश्रेणियां लब्ध आती हैं। इसीप्रकार अन्यत्र भी विष्कंभसूचीसे अवहारकाल साध लेना चाहिये। उदाहरण-जगश्रेणी ६५५३६, जगप्रतर ४२९४९६७२९६, ६५५३६२%D३२७६८,
४२९४९६७२९६:३२७६८% १३१०७२. नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि. अब इस भागहारका आश्रय करके जगश्रेणीके ऊपर खण्डित आदि विकल्पका कथन करना चाहिये। उनमेंसे पहले वर्गस्थानमें प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पके द्वारा अवहारकालका प्रमाण बतलाते हैं
शंका-सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिके लानेके लिये जो भागहार कहा है उसका प्रमाण कितना है?
समाधान-उक्त भागहारका प्रमाण जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग है, जो जंगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ। उदाहरण-अवहारकाल ३२७६८, जगश्रेणीका प्रथम वर्गमूल २५६, ३२७६८ : २५६
= १२८ (यहां १२८ को असंख्यात मान कर उतनेवार प्रथम वर्गमूल २५६
का जोड़ ३२७६८ होता है) शंका--जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण अवहारकाल किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि, जगश्रेणीके प्रथम वर्गमलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १४३ च्छदि । सेढिविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे विदियवग्गमूलस्स जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि आगच्छति । सेढितदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे सेढिविदिय-तदियवग्गमूलाणं अण्णोण्णभागे कदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि आगच्छति । अणेण विहाणेण पलिदोवमवग्गसलागाणं असंखेजदिभागमेत्तवग्गहाणाणि हेट्ठा ओसरिऊण घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेदिम्हि भागे हिदे असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि आगच्छति त्ति ण संदेहं कायव्यं । कारणं गदं । णिरुत्तिं वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिपढमवग्गमूले भागे हिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि । अधवा तेणेव भागहारेण सेढिविदियवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदेण तम्हि चेव गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । अधवा तेणेव भागहारेण सेढितदियवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदेण तं चेव गुणेऊण तदो तेण विदियवग्गमूले गुणिदे तत्थ जत्तियाणि
जगश्रेणीका प्रथम वर्गमूल आता है (६५५३६ २५६ = २५६)। जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर द्वितीय वर्गमूलका जितना प्रमाण होता है उतने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं (६५५३६ : १६ = ४०९६ = १६ x २५६)। जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर, श्रेणीके द्वितीय और तृतीय वर्गमूलके परस्पर गुणा करने पर वहां जितनी संख्या उत्पन्न हो उतने प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं (६५५३६
४ = १६३८४ = १६४४४ २५६)। इसी विधिसे पल्पोपमकी वर्गशलाकाओंके असं. ख्यातवें भागमात्र वर्गस्थान नीचे जाकर घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिये । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ ।
उदाहरण-घनांगुलका द्वितीय वर्गमूल २, ६५५३६ २= ३२७६८ अव.
अब निरुक्तिका कथन करते हैं- घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने प्रथम वर्गमूल सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालमें होते हैं।
उदाहरण-२५६ २१२८ (इतने प्रथम वर्गमूल अवहारकालमें होते हैं)।
*अथवा, उसी घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलरूप भागहारसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आवे उससे उसी द्वितीय वर्गमूलके गुणित कर देने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आधे उतने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल सामान्य अवहारकालमें लब्ध आते हैं।
उदाहरण-१६:२=८; १६४८ = १२८.
अथवा, उसी घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलरूप भागहारसे जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण आवे उससे उसी तृतीय वर्गमूलको गुणित करके
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१४४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १७. रूवाणि तत्तियाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । अणेण विहाणेण असंखेज्जाणि वग्गट्ठाणाणि हेहा ओसरिऊण घणंगुलविदियवग्गमूलेण तस्सुवरिमवग्गमवहारिय लद्धेण घणंगुलपढमवग्गमूलं गुणिय तेण च गुणियरासिणा घणंगुलो गुणेयव्यो । एदेण कमेण उवरि उवरि अवहिदवग्गहाणाणि सेढिविदियवग्गमूलंताणि सव्वाणि गुगेयवाणि । तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि हवंति । एवं णिरुत्ती गदा ।
वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । वेरूवे हेट्ठिमवियप्पो णत्थि, जगसेढिसमाणवेरूववग्गस्स पढमवग्गमूलं केण वि भागहारेण अवहिरिजंते अवहारकालस्स अणुप्पत्तीदो। ण च जगसेढिसमाणवेरूववग्गं अस्सिऊण अवहारकालुप्पत्ती वोत्तुं सक्किन्जदे, हेट्ठिम-उवरिमवियप्पेसु णिरुद्धेसु मज्झिमवियप्पस्स असंभवादो । अट्ठरूवे हेट्ठिमवियप्पो णत्थि, विहज्जमाणसे ढिपढमवग्गमूलादो अवहारकालस्स
......
तदनन्तर उस लध्धसे द्वितीय वर्गमूलके गुणित करने पर वहां जितना प्रमाण आवे उतने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल सामान्य अवहारकालमें लब्ध आते हैं।
उदाहरण-४२ =२; ४४२ = ८; १६४८% १२८.
इसी विधिसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे उसके उपरिम वर्गको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो गुणित राशि लब्ध आवे उससे घनांगुलको गुणित करना चाहिये । इसी क्रमसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूल पर्यन्त ऊपर ऊपर अवस्थित संपूर्ण वर्गस्थानोंको गुणित करना चाहिये । इसप्रकार गुणा करनेसे वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने प्रथम वर्गमूल सामान्य मिथ्यादृष्टि नारक अवहारकालमें होते हैं । इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण-४२= २, ४४२ = ८; १६४८ = १२८.
विशेषार्थ-यहां दृष्टांतके स्पष्ट करनेके लिये जो अंकसंदृष्टि ली है उसमें अगश्रेणीका द्वितीय वर्गमूल और घनांगुलका प्रमाण एक पड़ जाता है जो १६ है। अतः निरुक्तिका कथन करते हुए जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलतक ऊपर ऊपर वर्गस्थानोंका उत्तरोत्तर गुणा करते जाना चाहिये । इस कथनके अनुसार अंकसंदृष्टिमें वहीं तक (१६ तक) गुणा बढ़ानेसे वह संख्या लब्ध आ जाती है जितने जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल सामान्य मिथ्यादृष्टि नारक अवहारकालमें पाये जाते हैं।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे यहां प्रकृतमें द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प संभव नहीं है, क्योंकि, जगश्रेणीके समान द्विरूप वर्गके प्रथम वर्गमूलको किसी भी भागहारसे अपहृत करने पर अवहारकाल नहीं उत्पन्न हो सकता है। यदि जगश्रेणीके समान द्विरूपवर्गका आश्रय करके अवहारकालकी उत्पत्ति कही जावे सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, विकल्पके अधस्तन और उपरिम विकल्पसे निरुद्ध हो जाने पर मभ्यम विकल्प नहीं बन सकता है। यहां अष्टरूपमें भी अधस्तन विकल्प नहीं पाया जाता है,
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१४५ बहुत्तुवलंभादो । अहवा अवहारकालागमणणिमित्तभागहारेण णिरुद्धरासीदो हेट्ठा जं वा तं वा वग्गमूलमोवट्टिय णिरुद्धरासिस्स हेट्टिमवग्गमूलाणि एकवारं गुणिदे जत्थ इच्छिदरासी उप्पज्जदि तत्थ वि हेट्ठिमवियप्पो अत्थि त्ति भणताणमभिप्पाएण अट्ठरूवे हेट्ठिमवियप्पं वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिपढमवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदलद्धेण सेढिपढमवग्गमूले गुणिदे अवहारकालो होदि । अहवा तेणेव भागहारेण सेढिविदियवग्गमूलमवहारिय तत्थागदेण लद्धेण तं चेव विदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण पढमवग्गमूलं गुणिदे अवहारकालो होदि । अहवा घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढितदियवग्गमूलमवहरिय तत्थ लरेण तं चेव तदियवग्गमूलं गुणेऊण तेण विदियवग्गमूलं गुणिय तेण सेढिपढमवग्गमूलं गुणिदे अवहारकालो होदि । अणेण विहाणेण पलिदोवमवग्गसलागाणमसंखेजदिभागमेत्तवग्गहाणाणं पुध णिरुंभणं करिय अवहारगुणणकिरियं काऊण अवहारकालो
क्योंकि, विभज्यमान राशि जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे अवहारकालका प्रमाण बहुत अधिक पाया जाता है । अथवा, अवहारकालके लानेके लिये निमित्तभूत भागहारसे निरुद्धराशि जगश्रेणीसे नीचे किसी भी वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे निरुद्धराशिके अधस्तन वर्गमूलोंको एकवार गुणित करने पर जहां पर इच्छित राशि उत्पन्न होती है वहां पर भी अधस्तन विकल्प पाया जाता है, इसप्रकार प्रतिपादन करनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे अष्टरूपमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं
घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके गुणित कर देने पर अघहारकालका प्रमाण होता है।
उदाहरण-२५६ २= १२८, २५६४ १२८ = ३२७६८ अव.
अथवा, उसी भागहारसे अर्थात् घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको भाजित करके वहां जो लब्ध आवे उससे उसी जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है।
उदाहरण-१६ २= ८,१६४८ = १२८, २५६४ १२८ % ३२७६८ अव.
अथवा, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलको भाजित करके वहां जो लब्ध आवे उससे उसी तृतीय वर्गमूलको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है।
उदाहरण-४२२, ४४२ = ८; १६४८ = १२८, २५६ ४ १२८ = ३२७६८ अव.
इसी विधिसे पल्योपमकी वर्गशलकाओंके असंख्यातवें भागमात्र वर्गस्थानोंको पृथक्. रूपसे रोककर और घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण भागहारसे अंतिम आदि स्थानोंको
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छक्खंडागमे जीवक्षणं
[१, २, १७. साधेयव्यो । तत्थ अंतिमवियप्पं वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे तत्थागदेण तं चेव घणंगुलपढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण गुणिदरासिणा घणंगुलं गुणेऊण एवमुवरि उवरि अवहिदाणि वग्गट्ठाणाणि सेढिपढमवग्गमूलपच्छिमाणि णिरंतरं गुणेयवाणि । एवं गुणिदे णेरइयमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । एस अत्थो जदि वि पुव्वं परूविदो तो वि हेट्ठिमवियप्पसंबंधेण मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहढे पुणरवि परूविदो ।
__ घणाघणे वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिपढमवग्गमूलं गुणेऊण घणलोगपढमवग्गमूले भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । तं कधं ? सेढिपढमवग्गमूलेण घणलोगपढमवग्गमूले भागे हिदे सेढी आगच्छदि । पुणो घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेटिं भागे हिदे अवहारकालो होदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं। अहवा एत्थ दुगुणादिकमण अवहारकालो साहेयव्यो। अहवा घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिपढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणलोगविदियवग्गमूलमवहारिय तं चेव गुणिदे अवहार
भाजित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलपर्यंत गुणनक्रिया करके अवहारकाल साध लेना चाहिये । उनमेंसे अंतिम विकल्पको बतलाते हैं
घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर वहां आये हुए लब्धसे उसी घनांगलके प्रथम वर्गमलको गुणित करके जो गुणित राशि आवे उससे घनांगुलको गुणित करके पुनः जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलपर्यंत ऊपर उपर स्थित वर्गस्थानोंको निरन्तर गुणित करना चाहिये । इसप्रकार पूर्व पूर्व गुणित राशिसे उत्तरोत्तर वर्गस्थानके गुणित करते जाने पर नारक मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालका प्रमाण आता है। इस अर्थका प्ररूपण यद्यपि पहले कर आये हैं तो भी मन्दबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिये अधस्तन विकल्पके संबन्धसे इसका फिरसे प्ररूपण किया है।
___ अब घनाघनमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं-घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनलोकके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है, क्योंकि, जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे घनलोकके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर जगश्रेणीका प्रमाण आता है, पुनः घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। इसप्रकार अवहारकालका प्रमाण आता है ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया।
उदाहरण-धनलोकका प्रथम वर्गमूल २५६', २५६४२ = ५१२४६९३ = ३२७६८ अव.
अथवा, यहां पर द्विगुणादि क्रमसे अवहारकाल साध लेना चाहिये । अथवा, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनलोकके द्वितीय वर्गमूलको अपहृत करके जो लब्ध आवे उससे उसी घनलोकके द्वितीय
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[११७ कालो होदि । एवं हेट्ठा वि जाणिऊण वत्तव्यं । हेट्ठिमवियप्पो गदो ।
। उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ गहिंद वत्तइस्सामो। घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिसमाणवेरूववग्गं गुणेऊण तेण तव्वग्गवग्गे भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । तं कधं ? सेढिसमाणवेरूववग्गेण तव्वग्गवग्गे भागे हिदे सेढी आगच्छदि । पुणो वि घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिंदे अवहारकालो होदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । अहवा अवहार. कालो विगुणादिकमेण वढावेयव्यो। तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे अवहारकालो आगच्छदि । तस्सद्धच्छेदणयसलागा केत्तिया १ घणं. गुलविदियवग्गमूलस्स अद्धच्छेदणयसहियसेढिसमाणवेरूववग्गस्स अद्धच्छेदणयमेत्ता ।
वर्गमूलको गुणित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। इसीप्रकार नीचेक स्थानों में भी जानकर कथन करना चाहिये । इस प्रकार अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ। उदाहरण-धनलोकका द्वितीय वर्गमूल १६, २५६ ४ २ = ५१२, १६३ : ५१२ - ८
१६३४८ = ३२७६८ अव. उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकार । उनमेसे पहले गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके समान द्विरूपवर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका उसी जगश्रेणीके समान विरूपवर्गके वर्गमें भाग देने पर अवहारकालका प्रमाण आता है, क्योंकि, जगश्रेणीके समान द्विरूपवर्गका उसीके उपरिम वर्गमें भाग देने पर जगश्रेणीका प्रमाण आता है, पुनः घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलका जगश्रेणीमें भाग देने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। अवहारकालका प्रमाण इसप्रकार आता है ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। अथवा, द्विगुणादिकरण विधिसे अवहारकाल बढ़ा लेना चाहिये।
उदाहरण-६५५३६x२-१३१०७२, ६५५३६१३१०७२%3D३२७६८ अवं.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी अवहारकालका प्रमाण आता है।
उदाहरण-उक्त भागहारके १६ + १ = १७ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी अवहारकालका प्रमाण आता है।
शंका-उक्त भागद्वारकी अर्धच्छेद शलाकाएं कितनी होती हैं ?
समाधान-जगश्रेणीके समान द्विरूपवर्गकी अर्धच्छेद शलाकाओं में धनांगुलके द्वितीय वर्गमूलकी अर्धच्छेद शलाकाएं मिला देने पर उक्त भागहारकी अर्धच्छेद शलाकाओंका प्रमाण होता है।
उदाहरण-जगश्रेणी समान द्विरूपवर्ग ६५५३६ के अर्धच्छेद १६, धनांगुलके द्वितीय धर्गमूल २ के अर्धच्छेद १, १६ + १ = १७ अ. ।
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१९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १७. उवरि सव्वत्थ चडिदद्घाणवग्गसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थरासिणा तिरूवूणेण सेढिसमाणवेरूववग्गस्स अद्धच्छेदणए गुणिय घणंगुलविदियवग्गमूलस्स अद्धच्छेदणयपक्खित्तमेत्ता भवंति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु वग्गट्ठाणेसु णेयव्यं । वेरुवपरूवणा गदा । अट्ठरूवे वत्तइस्सामो । घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छे दणए कदे वि अवहारकालो आगच्छदि । अहवा घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिं गुणेऊण जगपदरे भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । केण कारणेण ? जगसेढीए जगपदरे भागे हिदे सेढी आगच्छदि । पुणो वि घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । अहवा अवहारकालो विउणादिकरणेण वड्ढावेयव्यो । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स
ऊपर सर्वत्र जितने वर्गस्थान ऊपर जावें उनकी वर्गशलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे तीन कम करके शेष रही हुई राशिसे जगश्रेणीके समान द्विरूप वर्गकी अर्धच्छेद शलाकाओंको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेद मिला देने पर जो जोड़ हो उतने विवक्षित भागहारके अर्धच्छेद होते हैं। इसीप्रकार संख्यात, असं. ख्यात और अनन्त वर्गस्थानोंमें ले जाना चाहिये । इसप्रकार द्विरूप प्ररूपणा समाप्त हुई।
- अब अष्टरूपमें बतलाते है-घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है।
उदाहरण-६५५३६२% ३२७६८ अव.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी अवहारकालका प्रमाण आता है।
उदाहरण-उक्त भागहारका १ अर्धच्छेद है, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी ३२७६८ प्रमाण अवहारकाल आता है।
अथवा, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका जगप्रतरमें भाग देने पर अवहारकालका प्रमाण आता है, क्योंकि, जगश्रेणीसे जगप्रतरके भाजित करने पर जगश्रेणीका प्रमाण आता है, पुनः घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणीके भाजित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है । इसप्रकार अवहारकालका प्रमाण आता है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। अथवा द्विगुणादिकरण विधिसे अघहारकाल बढ़ा लेना चाहिये।
उदाहरण-६५५३६ ४२ = १३१०७२, ४२९४९६७२९६ : १३१०७२% ३२७६८ अव.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी अवहारकालका प्रमाण आता है।
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१, २, १७. ]
toryमाणागमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १४९
अच्छे कदेवि अवहारकालो आगच्छदि । एत्थ चडिदद्धाणसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णव्भत्थरासिणा रूवूणेण जगसेढिअद्धच्छेदणए गुणिय घगुलविदियवग्गमूलस्स अद्धच्छेदणए पक्खित्ते भागहारस्स अद्धच्छेदणया हवंति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु वग्गट्ठाणेसु णेयव्वं । अट्ठरूवपरूवणा गदा | घणाघणे वत्तइस्लामो ।
गुलविदियवग्गमूलेण जगपदरं गुणेऊण घणलोगे भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । केण कारणेण ? जगपदरेण घणलोगे भागे हिदे सेढी आगच्छदि । पुणो घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । एवमागच्छदित्ति क गुणेऊण भागग्गहणं कदं । अहवा घणंगुलविदियवग्गमूलेण जगपदरं गुणेऊण तेण घणलोगं गुणेऊण घणलोगउवरिमवग्गे भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । केण कारणेण ? घणलोगेण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे घणलोगो आगच्छदि । पुणो वि जगपदरेण घणलोगे भागे हिदे सेढी आगच्छदि । पुणो घणंगुलविदियवग्गमूलेण सेढिम्हि
उदाहरण – उक्त भागहार के १६ + १ = १७ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशि के अर्धच्छेद करने पर ३२७६८ प्रमाण अवहारकालराशि आती है ।
यहां पर जितने स्थान ऊपर गये हों उतनी शलाकाओं का विरलन करके और उस राशिके प्रत्येक एकको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे एक कम करके शेष राशिसे जगश्रेणी के अर्धच्छेदोंको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेदों को मिला देने पर विवक्षित भागद्दारके अर्धच्छेदों का प्रमाण होता है । इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानोंमें ले जाना चाहिये । इसप्रकार अनुरूप प्ररूपणा समाप्त हुई ।
अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं - घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगप्रतरको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनलोकके भाजित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है, क्योंकि, जगप्रतरसे घनलोकके भाजित करने पर जगश्रेणीका प्रमाण आता है, पुनः घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगश्रेणी के भाजित करने पर अवहारकालका प्रमाण आता है । इसप्रकार अवहारकाल आता है ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया ।
६५५३६३ ÷ ८५८९९३४५४२ =
उदाहरण -- ६५५३६' x २ = ८५८९९३४५९२१ ३२७६८ अच.
अथवा, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे जगप्रतरको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनलोकको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनलोकके उपरिम वर्गमें भाग देने पर अव द्वारकालका प्रमाण आता है, क्योंकि, घनलोकका उसके उपरिम वर्गमें भाग देने पर घनलोक आता है, पुनः जगप्रतरका घनलोक में भाग देने पर जगश्रेणी आती है, पुनः धनगुलके द्वितीय वर्गमूलका जगश्रेणीमें भाग देने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। इसप्रकार
र
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१५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १७. भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । एवमागच्छदि ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि अवहारकालो आग च्छदि । एत्थ भागहारस्स अद्धच्छेदणयसलागाणमाणयणविही वुच्चदे- चडिदद्घाणवग्गसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थरासिणा तिगुणरूवूणेण सेढि अद्धच्छेदणए गुणिय घणंगुलविदियवग्गमूलस्स अद्धच्छेदणए पक्खित्ते भागहारस्स अद्धच्छेदणया हवंति । एवं संखेज्जासंखेजाणतेसु णेयव्यं । गहिदपरूवणा गदा । सेढिसमाणवेरूववग्गवग्गस्स असंखेजदिभागेण सेढीए असंखेजदिभागेण घणलोगपढमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागेण अवहारकालेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च वत्तव्यो । एवमवहारकालपरूवणा समत्ता।
एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे णेरइयमिच्छाइट्टिरासी आगच्छदि ।
अवहारकालका प्रमाण आता है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया।
उदाहरण- ६५५३६५
६५५३६२४ ६५५३६२४२ = ३२७६८ अव.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी अवहारकालका प्रमाण आता है।
उदाहरण-उक्त भागहारके ८१ अर्धच्छेद होते हैं अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी ३२७६८ प्रमाण अवहारकालका प्रमाण आता है।
अब यहां भागद्वारकी अर्धच्छेद शलाकाओंके लानेकी विधि कहते हैं- जितने स्थान ऊपर गये हों उतनी वर्गशलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दारूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे तीनसे गुणा करके लब्ध राशिमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उसे जगश्रेणीके अर्धच्छेदोंसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेद मिला देने पर विवक्षित अवहारकालके अर्धच्छेद होते हैं। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीतप्ररूपणा समाप्त हुई। उदाहरण-एक स्थान ऊपर गये इसलिये २ = २४ ३ = ६-१ = ५४ १६ % ८० + १
= ८१ अर्ध.। जगश्रेणीके समान द्विरूपवर्गका जो उपरिम वर्ग हो उसके असंख्यातवें भागरूप, अगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप और धनलोकके प्रथम धर्ममूलके असंख्यातवें भागरूप अवहारकालके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन करना चाहिये । इसप्रकार अवहारकाल प्ररूपणा समाप्त हुई।
इस अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रामण आता है (४२९४९६७२९६ : ३२७६८ = १३१०७२)। यहां पर खण्डित, भाजित,
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवर्ण
[ १५१ एत्थ खंडिद-भाजिद-विरलिद-अवहिदपरूवणाओ पुव्वं व परवेदव्याओ । तत्थ पमाणं वत्तइस्सामो। तं जधा- जगपदरस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाओ सेढीओ। पमाणं गई। केण कारणेण ? सेढीए जगपदरे भागे हिदे सेढी आगच्छदि । सेढिदुभागेण जगपदरे भागे हिदे दोणि सेढीओ आगच्छति । सेढितिभागेण जगपदरे भागे हिदे तिणि सेढीओ आगच्छंति । एवं गंतूग विक्खंभसूचीभजिदसेढीए जगपदरे भागे हिदे असंखेज्जाओ सेढीओ आगच्छंति ति वुत्तं । कारणं गदं । णिरुतिं वत्तइस्सामो। सेढीए असंखेजदिभागेण सेढिम्हि भागे हिदे तत्थागदाणि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाओ सेढीओ। अहवा विक्खंभसूईरूवमेत्ताओ । णिरुत्ती ग़दा ।
वियप्पो दुविहो, हेद्विमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेहिमवियप्पं वत्तइस्सामो । वेरूवे हेद्विमवियप्पो णत्थि । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । अदुरूवे हेहिमवियप्पं
विरलित और अपहृतकी प्ररूपणा पहले के समान करना चाहिये (देखो पृष्ठ ४१, ४२)। अब नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
मारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण जगप्रतरके असंख्यातवें भाग है जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण-४२९४९६७२९६ ३२७६८ = १३१०७२ = असंख्यातरूप २ जगश्रेणियोंके।
शंका-नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण जो जगप्रतरके असंख्यातवें भाग कहा है वह असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण किस कारण से है ?
समाधान-जगश्रेणीसे जगप्रतरके भाजित करने पर जगश्रेणी आती है (४२९४९६७२९६६५५३६ = ६५५३६) जगश्रेणीके द्वितीय भागसे जगप्रतरके भाजित करने पर दो जगश्रेणियां आती हैं (४२९४९६७२९६ : ३२७६८ = १३१०७२)। जगश्रेणीके तीसरे भागसे जगप्रतरके भाजित करने पर तीन जगश्रेणियां आती हैं (४२९४९६७२९६ : २१८४५३ = १९६६०८)। इसप्रकार उत्तरोत्तर जाकर विष्कंभसूचीसे भाजित जगश्रेणीका जगप्रतरमें भाग देने पर असंख्यात जगश्रेणियां लब्ध आती हैं, ऐसा कहा है। इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ।
उदाहरण-६५५३६ : २= ३२७६८, ४२९४९६७२९६ : ३२७६८ = १३१०७२ बराबर असंख्यात जगश्रेणियोंके।
- अब निरुक्तिका कथन करते हैं-जगश्रेणीके असंख्यातवें भागसे जगश्रेणीके भाजित करने पर वहां जो प्रमाण लब्ध आवे उतनी जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागमें ली हैं। अथवा, विष्कंभसूचीका जितना प्रमाण है उतनी जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागमें ली है। इसप्रकार निरुक्तिका कथन समाप्त हुआ।
उदाहरण-जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग ३२७६८, ६५५३६-३२७६८ = २ जगश्रोणियां । अथवा, विष्कंभसूची २, अतएव विष्कंभसूची २ प्रमाण जगणियां ।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे पहले
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१५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १७. वत्तइस्सामो । सेढीए असंखेजदिभागभूदअवहारकालेण सेढिम्हि भागे हिदे तत्थागदेण सेढिम्हि गुणिदे मिच्छाइहिरासी होदि । अधवा विक्खंभसूचीरूवेहि सेढिम्हि गुणिदे मिच्छाइद्विरासी होदि । अहवा अवहारकालेण सेढिविदियवग्गमूलमवहरिय लद्धेण तं चेव गुणिदे तेण सेढिपढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण सेढिम्हि गुणिदे वि मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । अहवा अवहारकालेण सेढितदियवग्गमूलमवहरिय लद्धेण तं चेव गुणिय तेण सेढिविदियवग्गमूलं गुणिय तेण पढमवग्गमूलं गुणिय तेण गुणिदरासिणा सेढिम्हि गुणिदे मिच्छाइहिरासी होदि । एवं हेहा वि जाणिऊण वत्तव्यं । घणाघणे वत्तइस्सामो ।
अधस्तन विकल्पको बतलाते है- प्रकृतमें द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प संभव नहीं है। यहां कारणका कथन पहलेके समान कहना चाहिये।
विशेषार्थ-यदि जगश्रेणीके किसी भी वर्गमूलमें अवहारकालका भाग दिया जाता है तो नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि उत्पन्न नहीं हो सकती है, इसलिये यहां द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प संभव नहीं है यह कहा ।
___अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं- जगश्रेणीके असंख्यातवें भागभूत अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण आवे उससे जगश्रेणीके गुणित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण–६५५३६ : ३२७६८ = २, ६५५३६४ २ = १३१०७२ ।
अथवा, विष्कंभसूचीके प्रमाणसे जगश्रेणीके गुणित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-६५५३६४२% १३१०७२।
अथवा, अवहारकालके प्रमाणसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे उसी द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके गुणित करने पर भी नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण-१६ : ३२७६८ = १. १६४१-२.. २५६४ १३८ = २,
६५५३६४२ = १३१०७२। अथवा, अवहारकालके प्रमाणसे जगश्रेणीके तीसरे वर्गमूलको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे उसी तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके गुणित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। इसप्रकार नीचे भी जानकर कथन करना चाहिये।
उदाहरण-४’ ३२७६८ = १. ४४८११२-२०४८. १६४२०४८ - १२८
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं सेढीए असंखेजदिमागेण अवहारकालेण सेढिं गुणेऊण तेण घणलोगे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । तं कधं ? सेढिणा घणलोगे भागे हिदे जगपदरमागच्छदि । पुणो वि भागहारेण जगपदरे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । अहवा अवहारकालेण सेढिं गुणेऊण घणलोगपढमवग्गमूलमवहरिय तेण तं चेव गुणिदे मिच्छाइहिरासी होदि । एवं हेट्ठा जाणिऊण वत्तव्यं । हेहिमवियप्पो गदो ।
उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ गहिदं वत्तइस्तामो। णेरइयमिच्छाइहिरासिअवहारकालेण जगपदरसमाणवेरूववग्गं गुणेऊण देण तव्वग्गवग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । तं कधं ? जगपदरसमाणवेस्ववग्गेण तव्यग्गवग्गे भागे हिदे जगपदरमागच्छदि । पुणो वि अवहारकालेण जगपदरे
उदाहरण-
६५५३६३
२५६४ . २, ६५५३६ ४२ = १३१०७२ सा. ना. मि. अब घनाघनमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं- जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप अवहारकालसे जगश्रेणीको गुणित करके जो लन्ध आवे उससे घनलोकके भाजित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, क्योंकि, जगश्रेणीसे घनलोकके भाजित करने पर जगप्रतर आता है। पुनः भागहारसे जगप्रतरके भाजित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। ६५५३६४३२७६८
= १३१०७२ सा. ना. मि. अथवा, अवहारकालसे जगश्रेणीको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनलोकके प्रथम वर्गमलको अपहत करके जो प्रमाण आवे उससे उसी घनलोकके प्रथम वर्गमूलको गुणित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। इसीप्रकार नीचेके स्थानों में जानकर कथन करना चाहिये । इसप्रकार अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ। उदाहरण- २५६३
'६५५३६४३२ १ २८, २५६४१२८ % १३१०७२ सा. ना. मि. उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकार । उनमेंसे पहले गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिसंबन्धी अवाहारकालसे जगप्रतरके समान द्विरूपवर्गको गणित करके जो लब्ध आवे उससे उस द्विरूपवर्गके वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, क्योंकि, जगप्रतरके समान द्विरूपवर्गका उसके वर्गमें भाग देने पर जगप्रतरका प्रमाण आता है, पुनः अवहारकालका जगमतरमें भाग देने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण- ४२९४९६७२९६२
= १३१०७२ सा. ना. मि. ४२९४९६७२९६४३२७६८
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१५४] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १७. भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । एदस्स अद्धच्छेदणया केत्तिया ? अवहारद्धच्छेदणयसहिदजगपदरसमाणवेरूववग्गच्छेदणयमेत्ता । उपरि अद्धच्छेदणयमेलावणविहाणं जाणिऊण वत्तव्यं । वेरुवपरूवणा गदा । अट्ठरूवे वत्तइस्सामो । अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि। घणंगुलविदियवग्गमूलद्धच्छेदणएहि ऊणसेढिअद्धच्छेदणयमेत्ते जगपदरस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । अहवा अवहारकालेण जगपदरं गुणेऊण तेण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । तं जहा- जगपदरेण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे जगपदरमागच्छदि । पुणो वि अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । एदस्स भागहारस्स
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके ४७ अर्धच्छेद हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर १३१०७२ प्रमाण नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
शंका-उक्त भागहारके अर्धच्छेद कितने हैं ?
समाधान- जगप्रतरके समान द्विरूपवर्गके जितने अर्धच्छेद हों उनमें अवहारकालके अर्धच्छेद मिला देने पर उक्त भागहारके अर्धच्छेदोंका प्रमाण होता है।
उदाहरण-जगप्रतरसमान द्विरूपवर्ग ४२९४९६७२९६ के अर्धच्छेद ३२, ३२७६८ के १५, अतएव ३२ + १५ = ४७ अ.।
. ऊपरके स्थानों में भी अर्धच्छेदोंके मिलानेकी विधि जानकर कहना चाहिये । इसप्रकार द्विरूपप्ररूपणा समाप्त हुई।
अब अष्टरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-४२९४९६७२९६ : ३२७६८ = १३१०७२ सा. ना. मि.
अथवा, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेदोंको जगश्रेणीके अर्धच्छेदोंमेंसे कम करके जो प्रमाण शेष रहे उतनीवार जगप्रतरके अर्धच्छेद करने पर भी नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
. उदाहरण-६५५३६ प्रमाण जगश्रेणीके अर्धच्छेद १६ मेंसे घनांगुलके द्वितीय वर्गमूल २के अर्धच्छेद १ कम करने पर १५ शेष रहते हैं, अतः १५ वार ४२९४९६७२९६ प्रमाण जगप्रतरके अर्धच्छेद करने पर १३१०७२ प्रमाण नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
- अथवा, अवहारकालसे जगप्रतरको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका जगप्रतरके उपरिम वर्गमें भाग देने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-जगप्रतरका उसके उपरिम वर्गमें भाग देने पर जगप्रतर आता है। पुनः
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१, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१५५ अद्धच्छेदणयमेते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । एत्थ अद्धच्छेदणयमेलावणविहाणं पुव्वं व वत्तव्यं । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । अहरूव. परूवणा गदा। घणाघणे वत्तइस्सामो। अवहारकालगुणिदजगपदरउवरिमवग्गेण घणलोगउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? जगपदरउपरिमवग्गेण घणलोगुवरिमवग्गे भागे हिदे जगपदरमागच्छदि। पुणो वि अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे मिच्छाइट्ठिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । एत्थ अद्धच्छेदणयमेलावण. विहाणं पुव्वं व वत्तव्यं । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्यं । गहिदपरूवणा गदा ।
अवहारकाल का जगप्रतरमें भाग देने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण- ४२९४९६७२९६२ ४२९४९६७२९६४३२७६८
= १३१०७२ सा. ना. मि. इस भागद्वारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके ३२ + १५ = ४७ अर्धच्छेद हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर १३१०७२ प्रमाण नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
यहां पर अर्धच्छेदोंके मिलानेकी विधिका पहलेके समान कथन करना चाहिये। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में ले जाना चाहिये । इसप्रकार अष्टरूप प्ररूपणा समाप्त हुई।
__अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्प बतलाते है- जगप्रतरके उपरिम वर्गको अवहारकालसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनलोकके उपरिम वर्गमें भाग देने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, क्योंकि, जगप्रतरके उपरिम वर्गका घनलोकके उपरिम वर्गमें भाग देने पर जगप्रतरका प्रमाण आता है । पुनः अवहारकालका जगप्रतरमें भाग देने पर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण
४२९४९६७२९६२३२७ - १३१०७२ सा. ना. मि. उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।
उदाहरण-उक्त भागहारके ७९ अर्धच्छेद होते हैं, अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर १३१०७२ प्रमाण नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है।।
____ यहां पर अर्धच्छेदोंके मिलानेकी विधिका पहलेके समान कथन करना चाहिये। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्तस्थानों में भी ले जाना चाहिये। इसप्रकार गृहीत उपरिम विकल्प प्ररूपणा समाप्त हुई।
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१५६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १८.
जगपदरस माणवे रूव वग्गवग्गस्स
असंखेअदिभागेण
जगपदरस्त
असंखेञ्जदिभागेण
लोगस्स असंखेज्जदिभागेण च णेरइयमिच्छाइडिरासिणा गहिदगहिदो गहिद गुणगारो च बत्तव्वो । मिच्छाइद्विरासिपरूवणा समत्ता ।
सासणसम्माइट्टि पहुड जाव असंजदसम्माइड त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १८ ॥
ओघम्मि वृत्ततिष्णिगुणद्वाणरासी सव्वा वि णेरइयाणं तिष्णिगुणद्वाणरासिमेत चेव होदिति बुत्ते सेसगदीसु तिण्हं गुणट्ठाणाणमभावो पसज्जदे ? ण एस दोसो, रइयाणं तिहं गुणट्ठाणाणं पमाणस्स ओघतिगुणहाणपमाणेण पलिदोवमस्स असंखेअदिभागतं पडि विसेसाभावादो एयत्ताविरोहा । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्ज माणे भेदो दोहमत्थि चेव, सेसतिगदितिन्हं गुणद्वाणाणं पमाणपरूवणाणमुवरि उच्चमाणसुत्ताणं
जगप्रतरके समान द्विरूपवर्गका जितना उपरिम वर्ग हो उसके असंख्यातवें भागरूप, जगप्रतरके असंख्यातवें भागरूप और घनलोकके असंख्यातवें भागरूप नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन करना चाहिये ।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टिराशिकी प्ररूपणा समाप्त हुई ।
सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में नारकी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? गुणस्थान प्ररूपणा समान हैं ॥ १८ ॥
शंका- गुणस्थानों में कही गई तीन गुणस्थानसंबन्धी जीवराशि संपूर्ण नारकियोंके तीन गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिके बराबर ही होती है, ऐसा कहने पर शेष तीन गतियों में तीनों गुणस्थानोंका अभाव प्राप्त होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नारकियोंके तीन गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिके प्रमाणकी सामान्य से कही गई तीन गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिके प्रमाणके साथ पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वके प्रति कोई विशेषता नहीं है, इसलिये इन दोनोंको समान मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने पर दोनों में भेद है ही । यदि ऐसा न माना जाय तो शेषकी तीन गतिसंबन्धी सासादनादि तीन गुणस्थानों की जीवराशिके प्रमाणके प्ररूपण करनेके लिये कहे गये सूत्रोंकी सफलता नहीं बन सकती है । अब
पस्योपमासंख्येयभाग
१ सर्वासु पृथिवीसु सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यङ्मिथ्यादृष्टयोऽसंयत सम्यग्दृष्टयश्व शमिताः । स. सि. १,८०
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१, २, १८.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१५. सफलत्तण्णहाणुववत्तीदो । तस्स भेदस्स परूवणटं सासणसम्माइडिआदिगुणपडिवण्णाणं अवहारकाले वत्तइस्सामो । तं जहा
ओघअसंजदसम्माइडिअवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे एकेकस्स रूवस्स असंजदसम्माइट्ठिदवपमाणं पावेदि । देवगई मोत्तूण सेसतिगदिअसंजदसम्माइद्विरासी सामण्णअसंजदसम्माइहिरासिस्स असंखेजदिभागो। तस्स को पडि भागो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । ओघअसंजदसम्माइहिरासिस्स असंखेज्जा भागा देवाणमसंजदसम्माइडिरासी होदि । कुदो ? देवेसु बहूर्ण सम्मत्तुप्पत्तिकारणाणमुवलंभादो। देवाणं सम्मत्तुप्पत्तिकारणाणि काणि चे ? जिणर्विविद्धिमहिमादसण-जाइस्सरण-महिद्धिंदादिदंसण-जिणपायमूलधम्मसवणादीणि' । तिरिक्खणेरइया पुण गरुवपाव
उक्त भेदके प्ररूपण करनेके लिये सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका प्रमाण लानेके लिये अवहारकालोंको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
सामान्यसे कहे गये असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर पल्योपमको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है।
उदाहरण- १ उदाहरण_१६३८४ १६३८४ १६३८४ १६३८४ एक विरलनके प्रति प्राप्त असं
१ १ १ यतसम्यग्दृष्टि जीवराशि। इसमें देवगतिसंवन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको छोड़कर शेष तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
शंका- शेष तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप लानेके लिये प्रतिभागका प्रमाण क्या है ?
समाधान-आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभागका प्रमाण है।
सामान्यसे कही गई असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिका असंख्यात बहुभागप्रमाण देवोंसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है, क्योंकि, देवों में सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बहुतसे कारण पाये जाते हैं।
शंका- देवों में सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारण कौनसे हैं ?
समाधान-जिनबिम्बसंबन्धी अतिशयके माहात्म्यका दर्शन, जातिस्मरणका होना, महर्धिक इन्द्रादिकका दर्शन और जिनदेवके पादमूलमें धर्मका श्रवण आदि देवोंमें सम्क्त्वोत्पत्तिके कारण हैं। परंतु तिर्यंच और नारकी गुरुतर पापोंके भारसे नथे और बंधे होनेसे, अतिशय
.............
१ देवाना केषाचिज्जातिस्मरणं, केषांचिद्धर्म श्रवणं, केषांचिज्जिनमहिमदर्शन, केषाचिदेवर्थिदर्शनम् । स.सि. १,५.
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१५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १८. भारेण णत्थणद्धत्तादो संकिलिधरत्तादो मंदबुद्धित्तादो बहूणं सम्मनुप्पत्तिकारणाणमभावादो च सम्माइट्ठिणो थोवा हवंति । तदो तिगदिअसंजदसम्माइहिरासिणा उवरिमेगरूवधारदं ओघासंजदसम्माइट्ठिदव्यमवहरिय तत्थागदमावलियाए असंखेजदिमागं विरलेऊण ओघासंजदसम्माइट्ठिदव्वं समखंडं करिय दिण्णे हेट्ठिमविरलणरूवं पडि सेसतिगदिअसंजदसम्माइहिरासिपमाणं पावदि । तप्पमाणं उवरिमविरलणाए उपरिमरूवं पडि द्विदओघासंजदसम्माइहिदधम्हि अवणेयव्वं । एवमवणिदे उवरिमविरलणमेता चेव देव असंजदसम्माइद्विरासीओ तिगदिअसंजदसम्माइद्विरासीओ च भवंति । पुगो उवरिमविरलणमेत्ततिगदिअसंजदसम्माइट्ठिरासि देव असंजदसम्माइट्ठिरासिपमाणेण कस्सामो। तं जहा
रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तेसु तिगदिअसंजदसम्माइट्ठिदव्बेसु उवरिमविरलणम्हि ट्टिदेसु समुदिदेसु एगं देवअसंजदसम्माइद्विरासिपमाणं लब्भदि, अवहारकालम्हि एगा संक्लिष्ट परिणामी होनेसे, मन्दबुद्धि होनेसे और उनमें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बहुतसे कारणोंका अभाव होनेसे सम्यग्दृष्टि थोड़े होते हैं।
तदनन्तर उपरिम विरलनके एकके प्रति रक्खी हुई सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिसे भाजित करके वहां जो आवलीका असंख्यातवां भाग लब्ध आवे उसका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रांत तीन गांतसंबन्धा असयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि प्राप्त होता है। इस प्रमाणको उपरिम विरलनके उपरिम एकके प्रति प्राप्त सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यमेंसे निकाल देना चाहिये। इसप्रकार निकाल देने पर उपरिम विरलनमात्र देवगतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशियां और तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशियां होती है। उदाहरण-तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि ४०९६ः
४०९६ ४०९६४०९६ ४०९६ १६३८४४०९६% ४ १
१ १ १ इस ४०९६ को उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त १६३८४ में घटा देने पर १२२८८ आते हैं। यही देवगतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि
जीवराशि है, और४०९६ तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। अब आगे उपरिम विरलनमात्र अर्थात् उपरिम विरलनगुणित तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको देव असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणसे करके बतलाते हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है
एक कम अधस्तन विरलनमात्र अर्थात् एक कम अधस्तन विरलनगुणित उपरिम विरलनमें स्थित तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यको समुदित कर देने पर एक देव
१ प्रतिषु ' णत्थद्धत्तादो संकिलिहदरतादो' इति पाठः ।
४१
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१, २, १८. ]
दव्यमाणागमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १५९
चैव पक्खेव सलागा । पुणो वि एत्तियमेत्तेसु चेत्र उवरिमविरल गम्हि तिगदिअसंजदसम्माइट्ठिदव्वे समुदिदेसु देव असंजदसम्माइदिव्त्रं लव्भदि, अवहारकालम्हि विदिया च पक्खे सलागा । एवं पुणो पुणो कीरमाणे आवलियाए असंखेज्जदि भागमेताओ अवहारकालपक्खेव सलागाओ लब्भंति, हेडिमविरलणादो उवरिमविरलणाए असंखेजगुणत्ता । एदासिमवहारकाल पक्खेव सलागाणमेगवारेण आगमणविहिं वत्तइस्लामो | मिविरल रूवूणमेततिगदिअसंजदसम्माइट्ठिदव्त्रेसु जदि एगा अवहारकालपक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तेसु तिगदिअसंजदसम्माइदिव्येसु केत्तियाओ पक्खेव सलागाओ लभामो त्ति रूवूणहेट्टिमविरलणाए उवरि विरलिदओघ असंजदसम्माइस अवहारकाले भागे हिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ अवहारकालपक्खेवसलागाओ लब्भंति । ताओ ओघअसंजदसम्माइट्ठि अवहारकालम्हि पक्खित्ते देवअसंजदसम्म इडिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे देवसम्मामिच्छाविहार कालो होदि, असंजदसम्माइविक्कमणकालादो सम्मामिच्छाइट्टिउवकमणकालस्स असंखेज्जगुणहीणत्ता । तं संखेज्जरूवेहिं गुणिदे देवसासणसम्माइडिअवहार कालो असंयत सम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है और अवहारकाल में एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है । फिर भी एक कम अधस्तन विरलनमात्र उपरिम विरलनमें स्थित तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य के समुदित कर देने पर देव असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और अवहारकालमें दूसरी प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है । इसीप्रकार पुनः पुनः करने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होती हैं, क्योंकि, अधस्तन विरलनसे उपरिम विरलन असंख्यातगुणा है । अब इन अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाओं एकवारमें लाने की विधिको बतलाते हैं- एक कम अधस्तन विरलनमात्र तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य में यदि एक अवहारकाल प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है। तो उपरम विरलनमात्र अर्थात् उपरिम विरलनगुणित तीनगतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यों में कितनी प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होंगी, इसप्रकार ( त्रैराशिक करके ) एक कम अधस्तन विरलनका ऊपर विरलित ओघ असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकाल में भाग देने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होती हैं । उन प्रक्षेपशलाकाओं को ओघ असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालमें मिला देने पर देव असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है ।
उदाहरण - एक कम अधस्तन विरलन ३ उपरिम विरलन ४ः ४ : ३ =
४ + = ६; ६५५३६ ÷ १६ = १२२८८ देव असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य | १६३८४ - १२२८८ = ४०९६ तीन गतिसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्य । देव असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिसंबन्धी अवहारकाल होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टिके उपक्रमण कालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा हीन है । देव
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छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, २, १८. होदि, तदो संखेज्जगुणहीण-उवक्कमणकालत्तादो । सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासिस्स संखेजदिभागमेत्ता उवसमसम्माइट्ठिणो सासणगुणं पडिवज्जति तिवा। तमावलियाए असंखेजदिमागेण गुणिदे तिरिक्खअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेअदिभागेण गुणिदे तिरिक्खसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूवेहि गुणिदे तिरिक्खसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे तिरिक्खसंजदासंजदअवहारकालो होदि, अपच्चक्खाणावरणाणमुदयाभावस्स अइदुल्लहत्तादो। तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे णेरइयअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे णेरइयसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि। तं संखेजस्वेहि गुणिदे णेरइयसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे अप्पप्पणो दव्यमागच्छदि ।
सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिसंबन्धी भवहारकाल प्राप्त होता है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्याष्टिके उपक्रमणकालसे सासादनसम्यग्दृष्टिका उपक्रमणकाल संख्यातगुणा हीन है। अथवा, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेवाली जीवराशिके संख्यातवें भागमात्र उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होते हैं, इसलिये भी देव सम्यग्मिथ्याष्टिके भवहारकालसे देव सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल संख्यातगुणा है। देव सासादनसम्यग्दृ. टिसंबन्धी अवहारकालको आपलीके असंख्यातवें भागसे गणित करने पर तिथं सम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तिर्यच सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है । तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तिर्यंच संयतासंयतसंबन्धी अवहारकाल होता है, क्योंकि, अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदयाभाव अत्यंत दुर्लभ है। तिर्यंच संयतासंयतसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नारक असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। नारक असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी भवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नारक सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। नारक सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर नारक सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। इन उपर्युक्त अवहारकालोसे पत्योपमके भाजित करने पर अपना अपना द्रव्यका प्रमाण आता है।
१ ओघासंजदमिस्सयसासणसम्माण भागहारा जे। रूवणावलियासं खेज्जेणिह भाजिय तत्थ णिक्खित्ते ॥ देवाणं अवहारा होति xxगो . जी. ६३४, ६३५.
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१, २, १९.] दख्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपसवणं
[ १६१ एवं पढमाए पुढवीए णेरइया ॥ १९ ॥ ___णं पुव्वं सामण्णणेरइयमिच्छाइटिआदिरासिस्स पमाणपरूवणा परूविदा, पढमविदियपुढविआदिविसेसाभावादो। पुणो जदि पुवपरूविदसव्वरासी पढमाए पुढवीए भवदि तो विदियादिपुढासु जीवाभावो पसजदे । ण च एवं, 'विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया' इच्चादिसुत्तेहि सह विरोहादो, तम्हा सामण्णणेरइयमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई पढमपुढविमिच्छाइट्ठीणं विक्खंभसूई ण हवदि । तदो सामण्णपरूविदअवहारकालो वि पढमपुढविणेरइयाणं ण भवदि। एवं सेसगुणपडिवण्णाणं पि अवहारकालवड्डी वत्तव्वा । तम्हा एवं पढमाए पुढवीए णेयव्वमिदि णेदं घडदे ? ण एस दोसो, असंखेजसेढित्तणेण पदरस्स असंखेजदिभागत्तणेण विदियवग्गमूलगुणिदअंगुलवग्गमूलमेत्तविक्खंभसूचित्तणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तणेण च पढमपुढवि
सामान्य नारकियोंके द्रव्यप्रमाणके समान पहली पृथिवीमें नारक जीवराशि है ॥ १९॥
शंका-पहले सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि आदि जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपण किया, क्योंकि, सामान्य प्ररूपणमें पहली पृथिवी, दूसरी पृथिवी आदिके विशेषप्ररूपणका अभाव है। फिर यदि पहले प्ररूपण की हुई संपूर्ण जीवरांशि पहली पृथिवीमें ही होती है तो द्वितीयादि पृथिवियोंमें जीवोंका अभाव प्राप्त होता है। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर 'दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक मिथ्याडष्टि नारकी द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ' इत्यादि सूत्रोंके साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध प्राप्त होता है। इसलिये सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची प्रथम पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची नहीं हो सकती है। और इसीलिये सामान्यसे कहा गया अवहारकाल भी प्रथम पृथिवीके नारकियोंका अवहारकाल नहीं हो सकता है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीके शेष गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंको भी अवहारकालकी वृद्धिका कथन करना चाहिये । इसलिये इसीप्रकार पहली पृथिवीमें ले जाना चाहिये यह सूत्रार्थ घटित नहीं
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, असंख्यात जगश्रेणियोंकी अपेक्षा, जगप्रतरके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित प्रथम वर्गमूलप्रमाण विष्कंभसूचीकी अपेक्षा और पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा प्रथम पृथिवीसंबन्धी
१ नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्या नारका मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः। स.सि. १, ८. हेट्ठिमछप्पुढवीण रासिविहीणो दु सव्वरासी दु । पढमावणिम्हि रासी र इयाणं तु णिहिट्ठो । गो. जी. १५४. सेदीएक्केक्कपएसाइयसू ईणमंगुलप्पमियं । धम्माए xx| पञ्चसं. २, १७. अहवंगुलप्पएसा समूलगुणिया उ नेरइयसूई । पञ्चसं. २, १९. भवणवासीणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ। इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरहया असंखेज्जगणा। पञ्चसं. २, १६ स्वो. टी. (महादण्डक).
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१६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १९ परूवणाए सामण्णणेरइयपरूवणादो विसेसाभावादो । पुणो पज्जवडियणए अवलंबिजमाणे विसेसो अत्थि चेव, अण्णहा विदियादिपुढवीसु जीवाभावप्पसंगादो। तं विसेसं वत्तइस्सामो । तं जहा- पढमपुढविणेरइयाणं दव्य-कालपमाणेसु भण्णमाणेसु ओघदव्य कालपमाणाणि चेव असंखेजदिभागहीणाणि हवंति । तहा खेत्तपमाणं पि ओघखेत्तपमाणादो असंखेजदिभागूणं भवदि । तं कधं जाणिज्जदे ? 'विदियादि जाव सत्तमाए पुढकीए णेरइया खेतेण सेढीए असंखेजदिभागो' इदि पुरदो वुच्चमाणसुत्तादो णव्वदे जहा ओघणेरइयमिच्छाइडिदव्वादो पढमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठिदवं सेढीए असंखेजदिभागेण हीणमिदि । एदं सुत्तमवलंबिय पढमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं विक्खंभसूई उप्पाइस्सामो । तं जहा- ओघणेरइयमिच्छाइद्विरासीदो एगसेढिअवणयणं पडि जदि विक्खंभमचिम्हि एगसलागाए अवणयणं लब्भदि तो किंचूणवारसवग्गमूलभजिदसेढिम्हि किं लभामो त्ति सेढीए फलगुणिदिच्छामोवट्टिदे किंचूणवारसवग्गमूलभजिदेगरूपमागच्छदि । एदं
प्ररूपणामें सामान्य नारकियोंकी प्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सामान्य प्ररूपणासे प्रथम पृथिवीसंबन्धी प्ररूपणामें विशेषता है ही। यदि ऐसा न माना जाय तो द्वितीयादि पृथिवियोंमें जीवोंके अभावका प्रसंग आ जायगा। आगे उसी विशेषताको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
पहली पृथिवीके नारकियोंके द्रव्य और कालकी अपेक्षा प्रमाणका कथन करने पर सामान्यसे कहे गये द्रव्यप्रमाण और कालप्रमाणको असंख्यातवें भाग न्यून कर देने पर पहली पृथिवीके नारकियोंका द्रव्य और कालकी अपेक्षा प्रमाण होता है। उसीप्रकार पहली पृथिवीके नारकियोंका क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण भी सामान्यसे कहे गये क्षेत्रप्रमाणसे असंख्यातवां भाग न्यून है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक नारकी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग हैं' इसप्रकार आगे कहे जानेवाले सूत्रसे जाना जाता है कि नारक सामान्य मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यप्रमाणसे पहली पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका द्रव्यप्रमाण जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग हीन है।
___अब आगे इस द्वितीयादि पृथिवियों के प्रमाणके प्ररूपण करनेवाले सूत्रका अवलंबन लेकर पहली पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची उत्पन्न करते हैं। वह इसप्रकार है-जब कि सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिमेंसे एक जगश्रेणी कम करने पर विष्कमसूची में एक शलाका कम होती है, तो कुछ कम अपने बारहवें वर्गमूलसे भाजित जगश्रेणीमें कितना प्रमाण प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके इच्छराशि अपने कुछ कम बारहवें वर्ग. मूलसे भाजित जगश्रेणीको फलराशि एकसे गुणित करके जगश्रेणीसे अपवर्तित करने पर, एकमें जगश्रेणीके कुछ कम बारहवें वर्गमूलका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना आता है।
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१६३ सामण्णणेरइयमिच्छाइटिविक्खंभसूचिम्हि अवणिदे पढमपुढविणेरइयमिच्छाइहिरासिस्स विक्खंभसूई होदि। एदीए विक्खंभसूईए जगसेढिम्हि भागे हिदे पढमपुढविणेरइयमिच्छाइटिअवहारकालो होदि ।
६३
उदाहरण-बारहवां वर्गमूल ४; किंचित् ऊन बारहवां वर्गमूल १२८,
६:५३६ : १३६ = ३२२५६, ३२२५६ ४ १ = ३२२५६६
३२२५६ : ६५१३६ = ६३ = १ : १२८, इस किंचित् ऊन बारहवें वर्गमूलभाजित एकरूपको सामान्य नारक मिथ्यादृष्टिसंबन्धी विकभसूचीमेंसे घटा देने पर प्रथम पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि राशिकी विष्कंभसूची होती है। इस विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके भाजित करने पर प्रथम पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है।
। ६३ _ १९३, ६५५३६ . १९३ = ८३८८६०८, प्र. प्र. मि. अव.। उदाहरण-२-.
१२८ १२८ १ १२८ १९३ विशेषार्थ-जगश्रेणीके बारहवें, दशवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूलका जगश्रेणी में भाग देने पर जमसे द्वितीयादि पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि नारकियोंका द्रव्य आता है। और इन छहों नरकोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंका जितना प्रमाण हो उसे सामान्य मिथ्यादृष्टि राशिमेसे घटा देने पर प्रथम पृथिबीके मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण होता है। पहले सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंका प्रमाण बतलाते समय उनकी विष्कंभसूची घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण बतलाई है, अर्थात् घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलका जितना प्रमाण हो उतनी जगश्रेणियोंको एकत्रित करने पर उनके प्रदेशप्रमाण सामान्य मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है। अब यदि प्रथम नरकके नारकियोंके प्रमाण लाने के लिये विष्कंभसूची लाना हो तो द्वितीयादि नरकके मिथ्यादृष्टि नारकियोंके प्रमाणमें जगश्रेणीका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे सामान्य विष्कभसूची से घटा देने पर प्रथम नरककी विष्कभसूची आ जाती है। उदाहरणार्थ-दूसरे नरकका १६३८४, तीसरेका ८१९२, चौथेका ४०९६, पांचवेंका २०४८, छठेका १०२४ और सातवेंका ५१२ द्रव्य मान लेने पर इनमें जगश्रेणी ६५५३६ का भाग देने पर क्रमसे ,,, १५और १८ आता है, जिनका जोड़ ६३ होता है। इसे सामान्य विष्कभसूची २ मेंसे घटा देने पर १२३ प्रमाण प्रथम पृथिवीकी विष्कभसूची होती है। इसी व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर ऊपर यह कहा गया है कि किंचित् ऊन बारहवें वर्गमूल भाजित एकरूपको सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीमेंसे घटा देने पर प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि नारकियोंका प्रमाण
१ तम्हा पुत्रिलविक्खंभसूची ( सासण्णणेरइयविक्खंभसूची) एगरूपस्स असंखेजदिभागेणूणा पढमपुरविणेरायाणं विक्खंभसूची होदि । धवला; पत्र. ५१८ अ.
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१६४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १९.
अहवा अवरेण पयारेण अवहारकालो उप्पाइज्जदे । तं जहा- सामण्णअवहारकालं विरलेऊण रूवं पडि जगपदरं समखंड करिय दिण्णे एकेकस्स रूवस्स सामण्णणेरइयमिच्छाइडि सिपमाणं पावेदि । पुणो तत्थ एगरूवधरिदसामण्णणेरइयमिच्छाइद्विरासिम्हि छपुढविमिच्छाइट्टि सिणा भागे हिदे किंचूणवारसवग्गमूलगुणिदस | मण्णणेरइयमिच्छाइडिविक्खभसूची आगच्छदि । एदं पुब्वविरलणाए हेट्ठा विलिय उवरि एगरूवधरिसामण्णणेरइयमिच्छाइट्ठिदव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि छप्पूढविमिच्छाइट्टि सिपमाणं पावेदि । तं उवरिमविरलगाए दिसामण्णणेरइयमिच्छाइट्ठि सिम्हि पुध पुध अवणिदे उवरिमविरलणमेत्ता पढमपुढविमिच्छाइट्ठिरासीओ भवंति । छप्पुढविमिच्छाइट्टि सीओ वि तावदिया चेव ।
लामेके लिये विष्कंभसूची होती है । यहां किंचित् ऊन बारहवें वर्गमूलसे द्वितीयादि नरकों के मिथ्यादृष्टि राशिका सम्मिलित अवहारकाल अभिप्रेत है।
अथवा, दूसरे प्रकारसे प्रथम पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल उत्पन्न करते हैं । वह इसप्रकार है- सामान्य अवहारकालका विरलन करके और विरलित राशि के प्रत्येक एकके प्रति जगप्रतरको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः उस विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिमें द्वितीयादि छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका भाग देने पर कुछ कम बारहवें वर्गमूल से गुणित सामान्य नारक मिध्यादृष्टि जीवराशिकी विष्कंभसूची आती है । इसे पूर्व विरलन के नीचे विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उपरिम विरलन के एकके प्रति प्राप्त सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खंड करके देयरूपले दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति द्वितीयादि छह पृथिवीसंबन्धी नारक मिथ्यादष्ट द्रव्यका प्रमाण आ जाता है । उसे उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यमेंसे पृथक् पृथक् निकाल देने पर उपरिम विरलनका जितना प्रमाण है उतनी प्रथम पृथिवीगत नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशियां होती हैं । द्वितीयादि छह पृथिवीगत नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशियां भी उतनी ही होती हैं ।
1
उदाहरण - छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि राशि ३२२५६६
१३१०७२ १
१३१०७२ १
३२७६८ वार;
१२८,
=२x
६३
१३१०७२ : ३२२५६ =
२५६ ६३ ३२२५६ ३२२५६ ३२२५६ १ १
१
इस ३२२५६ को उप
रिम विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त
६३
१३१०७२ मेंसे घटा देने पर ९८८१६ प्रमाण प्रथम पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्य राशियां होती है। और शेष ३२२५६ प्रमाण द्वितीयादि छद्द पृथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि द्रव्य राशियां होती है ।
३२२५६
१
२०४८
४
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[ १६५
१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
पुणो उवरिमविरलणमेत्तछप्पुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पढमपुढविमिच्छाइद्विदयपमाणेण कस्सामो । तं जहा- रूवूणहटिमविरलणमेत्तछप्पुढविदव्येसु उवरिमविरलणम्हि समुदिदेसु पढमपुढविमिच्छाइट्टिपमाणं होदि । तत्थ एगा अवहारकालसलागा लब्भइ । पुणो वि उवरिमविरलणम्हि तत्तिएसु चेव छप्पुढविदव्वेमु समुदिदेसु अवरेगं पढमपुढविमिच्छाइद्विपमाणं होदि, विदिया च अवहारकालपक्खेवसलागा लब्भइ । एवं पुणो पुणो कीरमाणे रूवूणहेटिमविरलणादो उवरिमविरलणा असंखेज्जगुणा ति कट्ट सेढीए असंखेजदिभागमेत्ताओ अवहारकालपक्खेवसलागाओ लब्भंति । तासिमेगवारेणाणयणविही वुच्चदे । तं जहा-रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्तछप्पुढविदधस्स जदि एगा अवहारकालपक्खेवसलागा लब्भदि, तो सामण्णणेरड्यमिच्छाइटिअवहारकालमत्तछप्पुढविमिच्छाइद्विदव्यस्स केत्तियाओ लभामो त्ति सरिसमवणिय रूवूणहेट्टिमविरलणाए सामण्णअवहारकालम्हि भागे हिदे अवहारकालपक्खेवसलागाओ आगच्छति । ताओ सरिसच्छेदं काऊण सामण्णणेरइयमिच्छाइटिअवहारकालम्हि पक्खित्ते पढमपुढविमिच्छाइटिअवहार
अब उपरिम विरलनमात्र छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यको प्रथम पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणरूप करते हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- उपरिम विरलनमें एक कम अधस्तन विरलनमात्र छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यके समुदित करने पर प्रथम पृथिवीगत मिथ्याहाष्ट द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और वहां एक अवहारकाल प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है। पुनः उपरिम विरलनमें उतने ही अर्थात् एक कम अधस्तन विरलनमात्र छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यके समुदित करने पर दूसरीवार प्रथम पृथिवीगत मिथ्यारष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और दूसरी अवहारकाल प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है। इसीप्रकार पुनः पुनः करने पर एक कम अधस्तन विरलनसे उपरिम चिरलन असंख्यातगुणा है, इसलिये जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होती हैं। आगे उन अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाओंकी एकवार लानेकी विधिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
एक कम अधस्तन विरलनमात्र अर्थात् एक कम अधस्तन विरलनगुणित छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यके प्रति यदि एक अवहारकाल प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो सामान्य नारक मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य नारक अवहारकालगुणित छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यके प्रति कितनी अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होंगी, इसप्रकार त्रैराशिकमें सहशका अपनयन करके एक कम अधस्तन विरलनसे सामान्य अवहारकालको भाजित करने पर अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं आ जाती हैं। इनको समान छेद करके सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालमें मिला देने पर प्रथम पृथिवीसंबन्धी नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकाल
१ प्रतिधु ‘मागे हिदे पनिखचे' इति पाठः ।
.
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१६६] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १९. कालो होदि । एदाओ अवहारकालपक्खेवसलागाओ सामण्णणेरइयमिच्छाइटिअवहारकालमेत्तछप्पुढविमिच्छाइट्ठिदव्यमस्सिऊण उप्पण्णाओ ।
पुणो एदाओ चेव अवहारकालपक्खेवसलागाओ विक्खंभसूचिम्हि अवणयणरूवपमाणं च पुढविं पुढविं पडि एत्तियं एत्तियं होदि त्ति परूविज्जदे । तत्थ ताव विक्खंभसूचिम्हि अवणिज्जमाणरूवाणं पमाणं वुच्चदे। तं जहा- एगसढिवणयणं पडि जैदि सामण्णणेरइयविक्खं भसूचिम्हि एगरूवस्स अवणयणं लब्भदि तो विदियपुढविदव्यस्त अवणयणं पडि किं लभामो त्ति सरिसमवणिय सेढिवारसवग्गमूलेण एगरूवं खंडिदे विदियपुढविमस्सिऊण विक्खंभसूचिम्हि अवणयणपमाणमागच्छदि । तं च एवं ३ । एवं सेसपुढवीणं पि तेरासियकमेण विक्खंभसूचिम्हि अवणिज्जमाणरूवपमाणमाणेयव्वं । तेसिं
होता है। ये अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालगुणित छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यका आश्रय लेकर उत्पन्न हुई हैं।
उदाहरण-उपरिम विरलन ३२७६८, अधस्तन विरलन १५५,
३२७६८ . . १९३ - २०६४३८४ अव. प्रक्षेपशलाकाएं ।
१९३
३२७६८ + २०६४३८४ - ८३८८६०८ ..
१९३ २ ९३ पृ. पृ. अव.।
अब प्रत्येक पृथिवीके प्रति अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाओंका प्रमाण और विष्कभसूरी में अपनयनरूप संख्याका प्रमाण इतना इतना होता है, इसका प्ररूपण करते हैं। उसमें भी पहले विष्कंभसूची में अपनीयमान संख्याका प्रमाण कहते हैं। वह इसप्रकार है-एक जगश्रेणीके अपनयनके प्रति यदि सामान्य नारक विष्कंभसूचीमें एक संख्या कम होती है तो द्वितीय पृथिवीके द्रव्यके घटानेके प्रति कितनी संख्या प्राप्त होगी, इसप्रकार सदृशका अपनयन करके (अर्थात दसरी पृथिवीके द्रव्यको जगश्रेणीसे अपनयन करके अर्थात् भाजित करके) जर श्रेणीके बारहवें वर्गमूलसे एकको खंडित करने पर दूसरी पृथिवीका आश्रय करके विष्कंभसूचीमें अपमयनरूप संख्याका प्रमाण आ जाता है। वह यह १३ है। उदाहरण-१४ १६३८४ = १६३८४, १६३८४ ५ ६५५३६ % , अपनयनरूप ।
अथवा, १४-१(-:-) इसीप्रकार शेष पृथिवियोंका भी त्रैराशिक क्रमसे विष्कंभसूचीमें अपनीयमान संख्याका प्रमाण ले भाना चाहिये । प्रत्येक पृथिवीके प्रति उन अपनीयमान संख्याओंका
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिस्यगदिपमाणपरूवणं पमाणं सेढिदसम-अट्ठ-छट्ठ-तदिय-विदियवग्गमूलेहि पुध पुध एगरूवं खंडिदे तत्थ एगभागं होदि । विदियादिपुढवीणं एदे अवहारकाला होति त्ति कधं णवदे ?
वारस दस अट्ठेव य मूला छत्तिय दुगं च णिरएसु ।
एक्कारस णव सत्त य पण य चउक्कं च देवेसु ॥ ६६॥ पदम्हादो आरिसादो णव्वदे। तेसिमंकवणा एसा १२
१ १३। सेढिवारस
प्रमाण क्रमसे जगश्रेणीके दशवें, आठवें, छठवें, तीसरे और दूसरे वर्गमूलोंसे पृथक् पृथक् एक संख्याको खंडित करने पर यहां जो एक भाग लब्ध आवे उतना होता है। उदाहरण-दशवां वर्गमूल ८, आठवां वर्गमूल १६, छठा वर्गमूल ३२, तीसरा वर्ग
मूल ६४, दूसरा वर्गमूल १२८, १ : ८ = ? तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा । १६ १६ = चौथी पृथिवीकी अपेक्षा । १ : ३२३ पांचवी पृथिवीको अपेक्षा । १ : ६४ = १. छठी पृथिवीकी अपेक्षा । १२ १२८ = १
सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा अपनीयमान संख्याका प्रमाण । शंका- जगश्रेणीका बारहवां वर्गमूल, दशवां वर्गमूल आदि ये सब द्वितीयादि पृथिवियोंके अवहारकाल होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? ।
समाधान-नरकमें द्वितीयादि पृथिवीसंबन्धी द्रव्य लानेके लिये जगश्रेणीका बारहवां, दशवां, आठवां, छठा, तीसरा और दूसरा वर्गमूल क्रमसे अवहारकाल होता है। तथा देवों में (सानत्कुमार आदि पांच कल्पयुगलोंका प्रमाण लानेके लिये) जगश्रेणीका ग्यारहवां, नौवां, सातवां, पांचवां और चौथा वर्गमूल क्रमसे अवहारकाल होता है ॥६६॥
इस आर्ष वचनसे जाना जाता है कि उपर्युक्त वर्गमूल द्वितीयादि पृथिवियोंके द्रव्य लाने के लिये अवहारकाल होते हैं।
उन अपनीयमान अंकोंकी स्थापना क्रमसे १३, १०, ११, ३, इसप्रकार है। विशेषार्थ- यहां पर जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूल आदिका शान करनेके लिये हरके
१ प्रतिषु ' दुपंच ' इति पाठः ।
२ सणक्कुमार जाव सदरसहस्सारकापवासियदेवा सत्तमपुढवीमंगो। कुदो ? सेदीए असंखेजभागक्षण एदेसि तत्तो भेदाभावादो। विसेसदो पुण मेदो अत्थि, सेढीए एकारस-णवम-सत्तम-पंचम-चउत्थवग्गमूलाणं जहाकमेण सेढीमागहाराणमेत्थुवलंभादो । धवला. पत्र ५२२. अ.। सौधर्मद्वये किंचिदूना घनांगुलतृतीयमूलजगणिः । सनत्कुमारद्वयादिपंचयुग्मेषु किंचिदूना क्रमशो निजैकादशम-नवम-सप्तम-पंचम चर्तुथमूलभक्तजगश्रेणिः । ऊनता चात्र हाराधिका शेया। गो. जी., जी. प्र., टी ६४१.
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१६८ ]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १९.
स्थानमें अंकरूपसे १२, १० आदि संख्याओंका ग्रहण किया है । तथा अंशके स्थानमें १ अंक ग्रहण करके यह बतलाया है कि १ में बारहवें आदि वर्गमूलोंका भाग देनेसे सामान्य विष्कंभसूचीमें अपनीयमान संख्या आ जाती है। पर इससे यहां बारह वर्गमूलका प्रमाण १२ और दशवें वर्गमूलका प्रमाण १० आदि नहीं लेना चाहिये। ये १२, १० आदि अंक तो केवल अनुरूप संख्यांकोंके द्वारा उक्त वर्गमूलोंका शान करानेके लिये संकेतमात्र हैं । इसीप्रकार इसी प्रकरणमें प्रकृत विषयके स्पष्ट करने के लिये अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा जगश्रेणीका प्रमाण ६५५३६ लिया है, उसके भी ये १२, १० आदि अंक बारहवें और दशवें आदि वर्गमूल नहीं हैं, जो द्वितीयादि पृथिधियोंके अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा दिये गये अवहारकालोंसे स्पष्ट समझमें आ जाता है । यद्यपि ६५५३६ के पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्गमूलको छोड़कर शेष सभी वर्गमूल करणीगत होते हैं, फिर भी वीरसेनस्वामीने वर्गमूलोंके परस्परके तारतम्यको ग्रहण न करके द्वितीयादि नरकोंमें नारक जीवोंकी उत्तरोत्तर हीन संख्याका परिज्ञान करानेके लिये बारहवें वर्गमूलके स्थानमें ४, दशवेंके स्थानमें ८, आठवेंके स्थानमें १६, छठवेंके स्थानमें ३२, तीसरेके स्थानमें ६४ और दूसरेके स्थानमें १२८ लिया है । इस प्रकरणमें उदाहरण देकर जीवराशि आदिकी जो संख्या निकाली है वह पूर्वोक्त आधार पर ही निकाली गई है । इससे बारहवें वर्गमूल आदिमें परस्पर जितना तारतम्य है वह उक्त संकेतरूप संख्यांकों में नहीं रहता है, और इसलिये कहीं कहीं दृष्टान्त और दार्टीतमें अन्तर प्रतीत होता है । जैसे, आगे चलकर छठी और सातवीं पृथिवीका मिला हुआ जो भागहार निकाला है उस प्रकरणमें उपरिम विरलन भी जगश्रेणीका तृतीय वर्गमूलप्रमाण है और अधस्तन विरलन भी उतना ही है। पर वर्गमूलोंके उक्त संख्यांकोंके अनुसार वहां उपरिम विरलन ६४ प्रमाण और अधस्तन विरलन २ संख्याप्रमाण ही आता है, क्योंकि, अंकों के द्वारा मानी हुई सातवी पृथिवीकी जीवराशि ५१२ रूप प्रमाणका छठी पृथिवीके द्रव्य १०२४ में भाग देने पर २ ही लब्ध आते हैं। वर्गमूलों में परस्पर जो तारतम्य है वह इन संकेतोंमें नहीं रहनेसे ही यहां दृष्टान्त और दार्टान्तमें इसप्रकारका वैषम्य दिखाई देता है। पर यदि हम वर्गमूलोंके तारतम्यको लेकर अंकसंदृष्टि जमावे तो मुख्यार्थसे दृष्टान्तमें कोई अन्तर नहीं पड़ सकता है। फिर भी दृष्टान्त एकदेश होता है इसी न्यायके अनुसार ही यहां अंकसंदृष्टिसे दान्तिको समझना चाहिये। इससे जहां कहीं दृष्टान्तसे दार्टान्तका साम्य नहीं मिलता होगा वहां दृष्टान्तमें ग्रहण किये गये अंकोंमें अपेक्षित तारतम्यका अभाव ही कारण है, दार्टान्तमें कोई दोष नहीं। यह बात निम्नकोष्ठकसे अतिशीघ्र समझमें आ जायगी
६५५३६ के वर्गमूल बारहवां दशवां आठवां छठा तीसरा दूसरा विष्कंभसूची धवलाकार द्वारा माने १२८ । ६४ ३२ १६ ८ ४
गये संकेतांक ६५५३६ % २१६ के
___ बारहवें वर्गमूलसे निश्चित वर्गमूल
नीचे जाकर
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१६९ वग्गमूलभजिदएगरूवं विक्खंभसूचिम्हि अवाणय सेढिं गुणिदे विदियपुढविदव्वेण विणा सेसछप्पुढविदव्यमागच्छदि । पुणो ताए चेव ऊणविक्खंभसूचीए जगसेढिम्हि भागे हिदे विदिय पुढविवादिरित्तछपुढविमिच्छाइडिदव्यस्स अवहारकालो होदि । पुणो तम्हि चेव छप्पुढविविक्खंभमूचिम्हि एगरूवं सेढिदसमवग्गमूलेण खंडिय तत्थ एगखंडमवणीए विदिय-तदियपुढविवदिरित्तसेसपंचपुढविमिच्छाइढिदव्वस्स विक्खंभसूची होदि । पुणो ताए चेव विक्खं भसूचीए जगसेडिम्हि भागे हिदे पंचपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वस्स अवहारकालो होदि । पुणो तम्हि चेव पंचपुढविविक्खंभसूचिम्हि एगरूवं सेढिअहमवग्गमूलेण खंडिय एगखंडमवणिदे विदिय-तदिय-चउत्थपुढविवदिरित्तचत्तारिपुढविमिच्छाइदिव्यस्स विक्खंभसूई होदि । पुणो ताए विखंभसूईए जगसेढिम्हि भागे हिदे चउण्डं पुढवाणं मिच्छा
जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलसे एक संख्याको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे विष्कंभसूची से घटाकर शेष प्रमाणसे जगश्रेणीके गुणित करने पर द्वितीय पृथिवीगत द्रव्यके विना शेष छह पृधिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। तथा उसी ऊन विष्कभसूचीसे जगश्रेणीको भाजित करने पर दूसरी पृथिवीके अवहारकालके विना शेष छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल आता है। उदाहरण-१४ = १,२-.-; ६५५३६४* = ११४६८८ दूसरी पृथिवीके द्रव्यके
विना शेष छह पृथिवियों का मिथ्यादृष्टि द्रव्य । ६५५३६ : ७ = २६२१४४
दूसरी पृथिवीके अवहारकालके विना शेष छह पृथिवियोंका अवहारकाल। अनन्तर जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलसे एक रूपको खण्डित करके जो एक खण्ड लब्ध आवे उसे पूर्वोक्त उसी छह पृथिवीसंबन्धी विष्कंभसूची से घटा देने पर दूसरी और तीसरी पृथिवीके विना शेष पांच पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी विष्कंभसूची होती है। पुनः उसी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके भाजित करने पर (दूसरी और तीसरीके विना) पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है। __ उदाहरण-१ : ८= १ - १ - १३ दूसरी और तीसरीके विना शेष पांच
पृथिवियोंकी विष्कंभसूची । ६५५३६ : १३ – ५२४२८८ दूसरी और तीसरीके _ विना शेष पांच पृथिवियोंका अवहारकाल। अनन्तर जगश्रेणीके आठवें वर्गमूलसे एक रूपको खण्डित करके जो एक खण्ड लब्ध आवे उसे पूर्वोक्त उसी पांच पृथिवीसंबन्धी विष्कंभसूचीमेंसे घटा देने पर दूसरी, तीसरी और चौथी पृथिवीको छोड़कर शेष चार पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी विष्कंभसूची होती
८१२
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१७० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १९.
दिव्यस्स अवहारकालो होदि । पुणो तम्हि चेव चउपुढविमिच्छाइट्ठिविक्ख मसूचिहि एगरूवं सेढिछवग्गमूलेण खंडिऊण तत्थ एगखंडमवणिदे विदिय-तदिय-चउत्थ-पंचमपुढविवदिरित्त से सतिपुढविमिच्छाइदिव्यस्स विक्खंभसूई होदि । पुणो ताए विक्खंभसूईए जगसेढिम्हि भागे हिदे तिपुढविमिच्छाइदिव्वस्त अवहारकालो होदि । पुणो सेटि - तदियवग्गमूलेण एगरूवं खंडिय तत्थ एगं खंडं तिन्हं पुढवीणं विक्खंभसूचिहि अवणिर्दे पढम-सत्तम पुढवीणं मिच्छाइदिव्यस्स विक्खंभसूई आगच्छदि । पुणो ताए विक्खंभसूईए जगसेढिम्हि भागे हिदे पढम-सत्तम पुढवीणं मिच्छाइदिव्यस्स अवहारकालो आगच्छदि ।
है । अनन्तर उस विष्कंभसूचीका जगश्रेणी में भाग देने पर पूर्वोक्त चार पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है ।
उदाहरण - १ : १६ =
१. १३ १ २५ १६ ८ १६ १६ विना शेष चार पृथिवियोंकी विष्कंभसूची । ६५५३६÷ पूर्वोक्त चार पृथिवियोंका अवहारकाल |
अनन्तर जगश्रेणी के छठे वर्गमूलसे एक रूपको खण्डित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे उन्हीं पूर्वोक्त चार पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीमेंसे घटा देने पर दूसरी, तीसरी, चौथी और पांचवी पृथिवीको छोड़कर शेष तीन पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी विष्कंभसूची होती है । अनन्तर उस विष्कंभसूचीका जगश्रेणीमें भाग देने पर पूर्वोक्त तीन पृथिवी संबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है ।
उदाहरण-१ : ३२ =
पहली, छठी और सातवीं पृथिवी
१ २५ १ ४९ ३२ १६ ३२ ३२ संबन्धी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची । ६५५३६ ÷
पूर्वोक्त
उदाहरण - १ : ६४ =
तीन पृथिवियोंका अवहारकाल ।
अनन्तर जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलसे एकरूपको खंडित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे पूर्वोक्त तीन पृथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीमेंसे घटा देने पर पहली और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी विष्कंभसूची आती है। अनन्तर उस विष्कंभसूचीका जगश्रेणीमें भाग देने पर पहली और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल भाता है ।
दूसरी, तीसरी और चौथी पृथिवीके २५ १०४८५७६ १६ २५
=
१ ४९ १ ६४ ३२ ક
९७ ६४
=
दृष्टिविष्कंभसूची | ६५५३६ ÷
४९ २०९७१५२ ३२ ४९
पहली और सातवीं पृथिवीकी मिथ्या
९७ ३९९४३०४
पहली और सातवीं
ક
९७
=
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१७१ पुणो दोपुढविविक्खंभसूचिम्हि सेढिविदियवग्गमूलेण एगरूवं खंडिय तत्थ एगखंडमवणिदे पढमपुढविमिच्छाइट्टिदबस्स विक्खंभसूची होदि । पुणो ताए विक्खंभसईए जगसेढिम्हि भागे हिदे वि पढमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वस्स अवहारकालो आगच्छदि ।
पुणो संपहि सामण्णअवहारकालमेत्तछप्पुढविदव्यमस्सिऊण पुढवि पडि अवहारकालपक्खेवसलागाओ आणिज्जंति । तत्थ तार विदियपुढविमस्सिऊण उप्पण्णअवहारकालपक्खेवसलागाओ भणिस्सामो । तं जहा- विदियपुढविमिच्छाइडिदव्वेण पढमपुढविमिच्छाइविदव्वमवहरिय लद्धमत्तेसु विदियपुढविमिच्छाइविदव्बेसु सामण्णअवहारकालमत्तविदियपुढविदव्वम्मि समुदिदेसु एगं पढमपुढविमिच्छाइहिदव्यपमाणं लगभइ, एगा अवहारकालपक्खेवसलागा। पुणो वि एत्तियमेत्तेसु विदियपुढविमिच्छाइट्टिदव्येसु समुदिदेसु पढमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं लब्भइ, विदिया अवहारकालपक्खेवसलागा च । एवं पुणो पुणो कीरमाणे सेढीए असंखेज्जभागमेत्ताओ अवहारकालपक्खेवसलागाओ
१२८
पृथिवीका अवहारकाल । ___ अनन्तर जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलसे एकरूपको खंडित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे पूर्वोक्त दो पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि विष्भसूचीमेंसे घटा देने पर पहली पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी विष्भसूची होती है। अनन्तर उस विष्भसूचीका जगश्रेणी में भाग देने पर पहली पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल आता है। उदाहरण-११२८ = १ १२८ ६४ १२८ १२८ ।
= १९२ पहली पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची । ६५५३६ : १९२ = ८३८८६०८ पहली पृथिवीका मिथ्यादृष्टि
अवहारकाल। अब सामान्य अवहारकालका जितना प्रमाण है उतनीवार छह पृथिवियों के द्रव्यका आश्रय लेकर प्रत्येक पृथिवीके प्रति प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाएं लाते हैं। उनमें पहले दूसरी पृथिवीका आश्रय लेकर उत्पन्न हुई अघहारकाल प्रक्षेपशलाकाओंका कथन करते हैं । वह इसप्रकार है-दूसरी पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे पहली पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यको अपहृत करके जो लब्ध आवे तन्मात्र स्थानों पर स्थापित दूसरी पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यको सामान्य अवहारकालमात्र (सामान्य अवहारकालका जितना प्रमाण है उतनी वार स्थापित ) दुसरी पृथिवीसंबन्धी द्रव्यमेंसे समुदित करने पर पहलीवार प्रथम पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है, और अवहारकालमें एक प्रक्षेपशलाका उत्पन्न होती है। फिर भी इतनेमात्र दूसरी पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यके समुदित कर देने पर दूसरीवार प्रथम पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है, और अवहारकालमें दूसरी प्रक्षेपशालाका प्राप्त होती है। इसीप्रकार पुनःपुनः करने पर जगश्रेणीके
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१७२]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १९.
लब्भंति । तं जहा - सेढिवारसवग्गमूलगुणिद पढम पुढविधिक वंभसूचिमेतद्वाणं गंतून जदि एगा अवहारकालपक्खेवसलागा लब्भदि तो सामण्णअवहारकालम्हि केत्तियाओ लभामो त्ति पढमढविविक्खंभसूचिगुणिद से ढिवारसवग्गमूलेण सामण्णअवहारकालम्हि भागे हिदे विदिय पुढविदव्वमस्ति ऊणुप्पण्णपक्खेव सलागाओ सच्चाओ आगच्छंति । एदाओ पुत्र सामण्णअवहारकालस्स पक्खे विरलिय सामण्णअवहारकालमे त्तविदिय पुढविदव्वे समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पढमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं होऊण पावदि । एवं चेव सामण्णअवहारकालमेत्ततदियादिपंचपुढविदव्वाणि अस्सिऊण तासं तासिं पुढवीणं
असंख्यातवें भागमात्र अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होती हैं। जैसे— जगश्रेणी के बारहवें वर्गमूल से प्रथम पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीको गुणित करके जो लब्ध आवे तन्मात्र स्थान जाकर यदि एक अवहारकाल प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो सामान्य अवहारकालमें कितनी प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होंगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके प्रथम पृथिवी - संबन्धी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची से गुणित जगश्रेणी के बारहवें वर्गमूलका सामान्य अवहारकालमें भाग देने पर दूसरी पृथिवीका आश्रय करके उत्पन्न हुई संपूर्ण प्रक्षेप शलाकाएं भा जाती है ।
दूसरी
पृथिवीके
इन अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाओंको पृथक् रूपसे सामान्य अवहारकालके पास में विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् जितना सामान्य अवहारकालका प्रमाण हो उतनीवार स्थापित दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशि प्रत्येक एकके प्रति प्रथम पृथिवीके मिध्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है ।
=
÷
१९३ _ १९३, ३२७६८ १९३ १०४८५७६ उदाहरण - ४x १२८ ३२ १ ३२ १९३ आश्रय से उत्पन्न हुई प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाएं ।
उदाहरण - ऊपर जो ५४३३३ प्रक्षेप अवहारकाल आया है उसका विरलन करके विरलित राशि के प्रत्येक एकके प्रति सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अवहार कालगुणित द्वितीय पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यको देवरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति प्रथम पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्य प्राप्त होता है, जो सामान्य अवहारकालगुणित द्वितीय पृथिवीके द्रव्य में उक्त प्रक्षेप अवहारकालका भाग देने पर भी आ जाता है । यथा१०४८५७६ ३२७६८ x १६३८४ = ५३६८७०९१२; १९३
५३६८७०९१२ ÷
= ९८८१६ प्र. पू. मि. द्रव्य.
इसीप्रकार सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् जितना सामान्य अवहारकालका प्रमाण हो उतनीवार तीसरी आदि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका आश्रय लेकर उन उन
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १७३ पक्खेवअवहारकालसलागाओ आणेयव्याओ। णवरि विसेसो सेढिदसमवग्गमूलगुणिदपढमपुढविविक्खंभसूईए सामण्णवहारकालम्हि भागे हिदे तदियपुढविअवहारकालपक्खेवसलागाओ आगच्छति । एदाओ पुबिल्लदोण्हं विरलणाणं पस्ते विरलिय सामण्णअवहारकालमेत्ततदियपुढविदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पढमपुढविदव्यपमाणं पावदि । पढमगुढविविक्खंभसूचिगुणिदसढिअट्ठमवग्गमूलेण सामण्णवहारकालम्हि भागे हिदे चउत्थपुढविअवहारकालपक्वेवसलागाओ आगच्छंति । ताओ वि पुचिल्लतिण्हं विरलणाणं पस्से विरलिय सामण्णअवहारकालमेतचउत्थपुढविमिच्छाइद्विदव्यं समखंड
पृथिवियों की अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं ले आना चाहिये। केवल इतनी विशेषता है कि जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलसे प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सामान्य अवहारकालमें भाग देने पर तीसरी पृथिवीका आश्रय करके अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं आ जाती हैं। उदाहरण-८४ १९३ = १९३, ३२७६८ १९३ = ५२४२८८ तीसरी पृथिवीके
आश्रयसे उत्पन्न हुई प्र. अ. श.। इन प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाओंको पूर्वोक्त दोनों विरलनोंके पासमें विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अव
काल गुणित तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रथम पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-३२७६८४ ८१९२ = २६८४३५४५६;
२६८४३५४५६ : ५२४२००= ९८८१६ प्र. पृ. मि. द्रव्य. प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके अष्टम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सामान्य अवहारकालमें भाग देने पर चौथी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं आ जाती हैं। , उदाहरण-१६४ १९३ = १९३, ३२७६८ : १९३ = २६२१४४ चौथी पृथिवीके
आश्रयसे उत्पन्न हुई प्रक्षेप अकहारकाल शलाकाएं । चौथी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई उन प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाओंको पूर्वोक्त तीन विरलनोंके पासमें विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर सामान्य अघहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अवहारकालगुणित चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रथम पृथिवीके
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१७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १९. करिय दिण्णे रूवं पडि एदं पढमपुढविदव्यपमाणं होदि । पुणो पढमपुढविविक्खभसूचिगुणिदसेढिछट्टमवग्गमूलेण सामण्ण अवहारकालम्हि भागे हिदे पंचमपुढविपक्खेवअवहारकालो आगच्छदि। तं पुव्विल्लचउण्हं विरलणाणं पस्से विरलिय सामण्णअवहारकालमेत्तपंचमपुढविदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पढमपुढविमिच्छाइढिदव्वं पावदि । पुणो पढमपुढविविक्खंभमूचिगुणिदसेढितदियवग्गमूलेण सामण्णअवहारकालम्हि भागे हिदे छट्टपुढविपक्खेवअवहारकालो आगच्छदि । एदं पि पुव्विल्लपंचण्हं विरलणाणं पासे विरलिय सामण्णअव
१३४२१७७२८ : २६२१४४ . .
१९३
मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है। उदाहरण-३२७६८४४०९६ = १३४२१७७२८;
१७ = ९८८१६ प्र. पृ. मि. द्रव्य. अनन्तर प्रथम पृथिवीकी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके छठे वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सामान्य अवहारकालमें भाग देने पर पांचवी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाएं आती हैं। उदाहरण–३२४ १९३ - १९.३, ३२७६८ : १९३ = १३१९७२ पांचवी पृथिवीका
आश्रय करके उत्पन्न हुई प्रक्षेप अवहारशलाकाएं । पांचवी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई उन प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाओंको पूर्वोक्त चारों चिरलनोंके पासमें विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अवहार कालगुणित पांचवी पृथिवीके द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-३२७६८४ २०४८ = ६७१०८८६४;
६७१०८८६४ : १३९०७२ ९८८१६ प्र. पृ. मि. द्रव्य. अनन्तर प्रथम पृथिवीकी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सामान्य अवहारकालमें भाग देने पर छठी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाएं आती हैं। उदाहरण–६४ ४ १९३ = १९३, ३२७६८ : १९३ = ६५५३६ छठी पृथिवीके
___आश्रयसे उत्पन्न हुई प्रक्षेप अघहारकाल शकालाएं।
छठी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई इन प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाओंको पूर्वोक्त पांच विरलनोंके पास में विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अवहारकाल गुणित छठी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१७५ हारकालमत्तछट्ठपुढविदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एदं पि पढमपुढविमिच्छाइटिदव्वपमाणेण पावदि। पुणो पढमपुढविमिच्छाइहिविक्खंभसूचिगुणिदसेढिविदियवग्गमूलेण सामण्णअवहारकालम्हि भागे हिदे सत्तमपुढविपक्खेव अवहारकालो आगच्छदि । तं पुचिल्लछण्हं विरलणाणं पासे विरलिय सामण्णअवहारकाल मेत्तसत्तमपुढविमिच्छाइहिदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पढमपुढविमिच्छाइढिदव्यपमाणेण पावदि। एदाओ सत्त वि विरलणाओ घेत्तूण पढमपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो होदि ।।
तेसिं सत्तण्हं पि अवहारकालाणं मेलावणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- सत्तमपुढविपक्खेवअवहारकालो सगपमाणेण एको हवदि । सत्तमपुढविपक्खेववहारकालपमाणेण छट्ठपुढविपक्खेवअवहारकालो सेढितदियवग्गमूलमेत्तो हवदि । पंचमपुढविपक्खेवअवहार
समान खंड करके देयरूपसे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है।
उदाहरण-३२७६८४१०२४ = ३३५५४४३२;
__३३५५४४३२ : ६५५३६ = ९८८१६ प्र. पृ. मि. द्र अनन्तर प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके दूसरे वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सामान्य अवहारकालमें भाग देने पर सातवीं पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाएं आती हैं। उदाहरण-१२८४ १९३ = १९३, ३२७६८ : १९३ = ३२७६८ सातवीं पृथिवीके
आश्रयसे उत्पन्न हुई प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाएं । सातवी पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुई इन प्रक्षेप अवहारकाल शलाकाओंको पूर्वोक्त छहाँ विरलनोंके पासमें विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अवहारकाल गुणित सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-३२७६८४५१२ = १६७७७२१६,
१६७७७२१६ : ३२७६८ = ९८८१६ प्र. पृ. मि. द्र. इन सातों विरलनोंको ग्रहण करके भी प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है। आगे उन्हीं सातों अवहारकालोंके मिलाने की विधिका कथन करते हैं । वह इसप्रकार है
__ सातवीं पृथिवीके आश्रयसे उत्पन्न हुआ प्रक्षेप अवहारकाल अपने प्रमाणसे एक है (३३९६८ = १ पिंडरूप) सातवीं पृथिवीके प्रक्षेपरूप अवहारकालकी अपेक्षा छठी पृथिवीका
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१७६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १९. कालो सत्तमपुढविपक्खेवअवहारकालपमाणेण सेढितदियवग्गमूलमादि काऊण जाव छहमवग्गमूलो त्ति चउण्हं वग्गाणं अण्णोण्णभासेणुप्पण्णरासिमेत्तो हवदि । चउत्थपुढविपक्खेवअवहारकालो सत्तमपुढविपक्खेवअवहारपमाणेण सेढितदियवग्गमूलमादि काऊण जाव अट्ठमवग्गमूलो त्ति ताव छण्णं वग्गाणं अण्णोण्णब्भासेणुप्पण्णरासिमेत्तो हवदि । तदियपुढविपक्खेवअवहारकालो सत्तमपुढविपक्ववअवहारपमाणेण सेढितदिय. वग्गमूलमादि काऊण जाव दसमवग्गमलो ति ताव अट्ठण्हं वग्गाणं अण्णोण्णब्भासेणुप्पण्णरासिमेत्तो हवदि । विदियपुढविपक्खेवअवहारकालो सत्तमपुढविपक्खेवअवहारपमाणेण सेढितदियवग्गमूलप्पहुडि दसण्हं वग्गाणमण्णोण्णब्भासेणुप्पण्णरासिमेत्तो हवदि । सामण्णअवहारकालो सत्तमपुढविपक्खेवअवहारकालपमाणेण पढमपुढविविक्खंभसूचिगुणिदसेढिविदियवग्गमूलमेत्तो हवादि । पुणो एदाओ सव्यसलागाओ एगई करिय सत्तमपुढविपक्खेवअवहारकालं गुणिदे पढमपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो होदि ।
अवहारकाल जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलमात्र होता है ( ६५५३६ =२) पांचवीं पृथिवीका प्रक्षेप अघहारकाल सातवीं पृथिवीके प्रक्षेपरूप अवहारकालकी अपेक्षा जगश्रेणीके तीसरे वर्गमूलसे लेकर छठे वर्गमूलपर्यन्त चार वर्गौके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो तन्मात्र है ( १३१९९३ = ४ ) चौथी पृथिवीका प्रक्षेप अवहारकाल सातवीं पृथिवीके प्रक्षेपरूप अवहार. कालकी अपेक्षा जणश्रेणीके तीसरे वर्गमूलसे लेकर आठवें वर्गमूलपर्यंत छह वर्गौके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो तन्मात्र है ( २६२१४४ = ८)। तीसरी पृथिवीका प्रक्षेप अवहारकाल सातवीं पृथिवीके प्रक्षेपरूप अवहारकालकी अपेक्षा जगश्रेणी के तीसरे वर्गमूलसे लेकर दशवें वर्गमूलपर्यन्त आठ वर्गौके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो तन्मात्र है (५२१३८८ = १६)। दुसरी पृथिवीका प्रक्षेप अवहारकाल सातवीं पृथिवीके प्रक्षेपरूप अवहारकालकी अपेक्षा जगश्रेणीके तीसरे वर्गमूलसे लेकर दश वर्गौके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो तन्मात्र है ( १०४६५७६ = ३२)। सामान्य अवहारकाल सातवीं पृथिवीके प्रक्षेपरूप अवहारकालके प्रमाणकी अपेक्षा प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उतना है (१२८४ १९४ = १९३)।
अनन्तर इन सर्व शलाकाओंको एकत्रित करके उससे सातवीं पृथिवीके प्रक्षेप अवहारकालके गुणित करने पर पहली पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अहहारकाल आता है। उदाहरण-१+२+४+ ८+ १६ + ३२ + १९३ = २५६;
३२७६८.. .८३८८६०८ प्र. प. मि. अव.
३२७६८ ४ २५६ =
१९३
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१७७ ____ अहवा ताहि चेव सलागाहि समुदिदाहि पढमपुढविसामण्णविक्खंभसूचीहि अण्णोण्णभत्थाहि गुणिदसेढिविदियवग्गमूलमोवाट्टिय सेढिम्हि भागे हिदे पढमपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । अहवा छहं पुढवीणं सत्तमपुढविपक्खेवअवहारकालपमाणेण कयसव्वसलागाहि सेढिविदियवग्गमूलमोवट्टिय अण्णोण्णब्भत्थपढमपुढविसामण्णणेरइयविक्खंभसूईहि गुणिय जगसेढिम्हि भागे हिदे सव्वत्थुप्पण्णपक्खेवअवहारकालो आगच्छदि । तेण सव्वत्थुप्पण्णअवहारकालेण सामण्णणेरइयअवहारकालम्हि भागे हिदे जं भागलद्धं तेण सामण्णणेरइयविक्खंभसूई गुणिदे पुणो तं रासिं तेणेव गुणगारेण, रूवाहिएणोवट्टिय जगसेढिम्हि भागे हिदे पढमपुढविअवहारकालो आगच्छदि ।
__ अथवा, प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कभसूची और सामान्य नारक मिथ्याडष्टि विष्कंभसूची इन दोनोंके परस्पर गुणा करनेसे जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके द्वितीय वर्ग. मूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे एकत्रित की हुई पूर्वोक्त शलाकाओंसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर पहली पृथिवीका मिथ्यादृष्टि जीव राशिसंबन्धी अवहारकाल आता है। उदाहरण-१९३४ २ १९३, १२८४ १९३ = ३८६॥ ३८६ : २५६ = १९३,
६५९३६. १९३ ८३८८६०८ प्र. प. मि. अ.
११२५ १२८- १९३ . अथवा, सातवीं पृथिवीके प्रक्षेप अवहारकालके प्रमाणकी अपेक्षा छह पृथिवियोंके आश्रयसे उत्पन्न हुए प्रक्षेप अवहारकालकी जो सर्व शलाकाएं की गई उनसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसको प्रथम पृथिवी और सामान्य नारकियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचियोंके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशिसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर सर्वत्र उत्पन्न हुए प्रक्षेप अवहारकालका प्रमाण आता है। सर्वत्र उत्पन्न हुए उस प्रक्षेप अवहारसे सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंके अवहारकालके भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उससे सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्भसूचीके गणित करने पर अनन्तर उस गणित राशिको एक अधिक उसी पूर्वोक्त गुणकारसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर प्रथम पृथिवीका मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकाल आता है। उदाहरण-१२८
१९३.३८६ ६३ = . ६५५३६ . ३८६ २०६४३८४ प्रक्षेप अवहारकाल । १ ६३ १९३
२८५ २८६
१२८ १२८
६३
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१७८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, १९. अहवा पढमपुढविविक्खंभसूईए सामण्णणेरइयविक्खंभमूइमोवट्टिदे एगरूवमेगरूवस्स असंखेजदिभागो आगच्छदि । तस्स एगरूवासंखेजदिभागस्स को पडिभागो ? किंचूणसढिवारसवग्गमूलगुणिदपढमपुढविविक्खंभसूची पडिभागो। पुणो एदाओ दो रासीओ पुध मज्झे द्वविय तेरासियं कायव्वं । तं जहा- सामण्णणेरइयरासिम्हि जदि एगरूवं एगरूवस्स असंखेजदिभागो च पढमपुढविमिच्छाइडिअवहारकालो लब्भदि तो सामण्णणेरइयअवहारकालमेत्तसामण्णणेरइयमिच्छाइट्ठिरासिम्हि किं लभामो त्ति सरिसमवणिय सामण्णणेरइयमिच्छाइटिअवहारकालेण एगरूवमेगरूवस्स असंखेजदिभागं गुणिदे पढमपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि ।
२५६
१९३
३८६ - २५६ = ३८६, ६५५३६ : ३८६ - ८३८८६०८ प्र. पृ. मि. अव. अथवा, प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीके अपवर्तित करने पर एक और एकका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है।
उदाहरण . १९३.२५६ ., ६३ .
उदाहरण-२२१२४ १९३
१९
शंका-उस एकके असंख्यातवें भागके लानेके लिये प्रतिभाग क्या है ?
समाधान-जगश्रेणीके कुछ कम बारहवें वर्गमूलसे गुणित प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची एकके असंख्यातवें भागके लानेके प्रतिभाग है।
उदाहरण-१९३४ १३८ - १९३ प्रतिभाग।
अनन्तर इन दो राशियोंको पृथकरूपसे मध्यमें स्थापित करके त्रैराशिक करना चाहिये । वह इसप्रकार है- सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि राशिमें प्रथम पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि जीवोंका अवहारकाल यदि एक और एकका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है तो सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालगुणित सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि राशिमें कितना प्राप्त होगा, इसप्रकार सदृश राशि अंश और हररूप सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिका अपनयन करके सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि भवहारकालसे एक और एकके असंख्यातवें भागको गुणित करने पर प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि जीवराशिका अवहारकाल आता है।
उदाहरण-यहां १३१०७२ प्रमाण नारक मिथ्यादृष्टि राशि प्रमाणराशि है, २५६ फलराशि है और सामान्य अवहारकाल ३२७६८ गुणित सामान्य नारक राशि १३१०७२ इच्छाराशि है । इसलिये इच्छाराशि और फलराशिका गुणा करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर प्रथम पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आ जाता है । यथा
३२७६८४१३१०७२४ २५६ = ८३८८६०८ प्र. पृ. मि. अ१३१०७२४१९३
१९३
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दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१७९ अहवा पढमपुढविमिच्छाइट्टिअवहारकालो अण्णेण पयारेण आणिजदे । तं जहाछट्ठमपुढविअवहारकालं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स जगसेटिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि छट्ठमपुढविमिच्छाइद्विदव्यं पावदि । पुणो तत्थ एगरूवधरिदछट्ठपुढविदव्यं सत्तमपुढविदव्वेण भागे हिदे सेढितदियवग्गमूलमागच्छदि । तं विरलेऊण छहपुढविदव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सत्तमपुढविदव्वं पावदि । तं कमेण उवरिमविरलणछट्ठमपुढविदयस्सुवरि सुण्णट्ठाणं मोत्तूण दिण्णे रूवं पडि छट्ठ-सत्तमपुढविदव्यपमाणं पावदि हेट्ठिमविरलणरूवाहियमेत्तद्धाणं गंतूग एगरूवस्स परिहाणी च लभदि । पुणो उपरिमअणंतरछट्टपुढविदव्वं हेटिमविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सत्तम. पुढविदव्यपमाणं पावदि । तं घेत्तूण उवरि सुगट्ठाणं मोत्तूण छट्ठमपुढविदव्वस्सुवरि दिणे हेद्विमविरलणमेत्तरूवं पडि छह-सत्तमपुढविदव्यपमाणं होदि हेडिमविरलणरूवाहिय
हर और अंशरूप सदृशका अपनयन करने पर उक्त उदारणका निम्नरूप होता है
२५६४ ३२७६८ = ८३८८६०८ प्र. पू. मि. अ,
अथवा, प्रथम पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अवहारकाल दूसरे प्रकारसे लाते हैं। वह इसप्रकार है-छठवीं पृथिवीके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जगश्रेणीको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति छठवीं पृथिवीके मिथ्या दृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर वहां एक विरलनके प्रति प्राप्त छठवीं पृथिवीके द्रव्यको सातवीं पृथिवीके द्रव्यसे भाजित करने पर जगश्रेणीका तीसरा वर्गमूल लब्ध आता है। आगे उस लब्ध राशिका विरलन करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति छठवीं पृथिबीके द्रब्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति सातवीं पृथिवीका द्रव्य प्राप्त होता है। उस अधस्तन विरलनके प्रति प्राप्त सातवीं पृथिवीके द्रव्यको उपरिम विरलनमें छठवीं पृथिवीके द्रव्यके ऊपर शून्य स्थानको (उपरिम विरलनके जिस स्थानका द्रव्य अधस्तन विरलनमें दिया है उसे) छोड़कर क्रमसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति छठवीं और सातवीं पथिवीके द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर एककी हानि प्राप्त होती है। पुनः उपरिम विरलनके अनन्तर स्थान (जहां तक सातवीं पृथिवीका द्रव्य दिया है उसके आगेके स्थान) के प्रति प्राप्त छठवीं पृथिवीके द्रव्यको अधस्तन विरलनमें समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति सातवीं पृथिवीके द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। उसे लेकर उपरिम विरलनमें शून्यस्थानको (जिस स्थानका द्रव्य अधस्तन विरलनमें दिया है उसे ) छोड़कर छठवीं पृथिवीके द्रव्यके ऊपर देने पर उपरिम विरलनके अधस्तन विरलनमात्र स्थानोंके प्रति छठवीं और सातवीं पृथिवीके द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और उपरिम विरलनमें एक अधिक
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१८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १९. मेसद्धाणं गंतूण एगरूवस्स परिहाणी च लब्भदि । एवं पुणो पुणो काय जाव उवरिमविरलणा परिसमत्तेत्ति । एत्थ पुण' हेट्ठिम-उवरिमविरलणाओ सरिसाओ त्ति एगमवि रूवं ण परिहायदि । पुणो एत्थ एत्तियं परिहायदि त्ति वुच्चदे । तं जहा- हेटिमविरलण रूवाहियमेतद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि किं परिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियसेढितदियवगमूलेण सेढितदियवग्गमूले भागे हिदे एगस्वस्स असंखेज्जभागा आगच्छंति त्ति किंचूणेगरूवं सरिसच्छेदं काऊण तदियवग्गमूलम्हि अवणिदे सेढिविदियवग्गमूलं रूवाहियसेढितदियवग्गमूलेग भजिदएगभागो छह-सत्तमपुढवीमिच्छाइट्ठिदव्याणं भागहारो होदि । तेण जगसेदिम्हि भागे हिदे छट्ठसत्तमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि ।
पुणो सेढिछट्टमवग्गमूलं विरलिय जगसेढिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि
और उपरि
अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर एककी हानि होती है। इसप्रकार जब तक उपरिम विरलन समाप्त होवे तब तक पुनः पुनः यही विधि करते जाना चाहिये। परंतु यहां अधस्तन
परिम बिरलन समान हैं, इसलिये एक भी विरलनांककी हानि नहीं होती है। फिर भी यहां इतनी हानि होती है आगे उसीको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके जगश्रेणीके एक अधिक तृतीय धर्गमूलसे जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूलके भाजित करने पर एकके असंख्यात बहुभाग प्राप्त होते हैं, इसलिये कुछ कम एक.को समान छेद करके तृतीय वर्गमूलमेंसे घटा देने पर जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको जगश्रेणीके एक अधिक तृतीय वर्गमूलसे भाजित करके जो एक भाग लब्ध आवे वह छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका भागहार होता है। उक्त भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है। उदाहरण-१०२४ १०२४. यदि १ अधिक अधस्तन विरलनमात्र अर्थात्
१ ६४ वार: १०२४:५१२ =२
' ३ स्थान जाकर उपरिम विरलनमें एककी ५१२ ५१२ हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विर.
लनोंमें कितने विरलनोंकी हानि प्राप्त होगी, ६५५३६ : १२ = १५३६. इसप्रकार त्रैराशिक करने पर २१३ की हानि प्राप्त होती है । इसे उपरिम विरलन ६४ मेंसे घटा देने पर ४२३ आते हैं । इसका जग. श्रेणीमें भाग देने पर १०२४+५१२=१५३६ प्रमाण छठी और सातवीं पृथिवीका द्रव्य आता है।
अनन्तर जगश्रेणीके छठे वर्गमूलको विरलित करके और विरलित राशिके प्रत्येक १ प्रतिषु ' गुण ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' जगभागो' इति पाठः ।
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१८१ पंचमपुढविमिच्छाइविदव्यपमाणं पावेदि । पुणो छट्ठ-सत्तमपुढविमिच्छाइहिदव्वेहि पंचमपुढविमिच्छाइविदव्वम्हि भागे हिदे सेढितदियवग्गमूलादीणं हेट्ठा चउण्हं वग्गाणं अण्णोण्ण भासेणुप्पण्णरासिं रूवाहियसेढितदियवग्गमूलेण खंडिदेयखंडमागच्छदि । पुणो वि तं विश्लेऊण उरिमविरलणेगरूवधरिदपंचमपुढविदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि छट्ठ-सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं पावेदि । पुणो तमुवरिमविरलणम्हि सुण्णट्ठाणं मोनूण पंचमपुढविमिच्छाइटिदव्यस्सुवरि परिवाडीए पक्खित्ते हेट्टिमविरलगमेत्तउवरिमविरलणरूवेसु पंचम छट्ठ-सत्तमपुढविमिन्छाइहिदव्यपमाणं पावेदि एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । पुणो तदणंतरउवरिमरूबोवरिदिपंचमपुढविमिच्छाइद्विदव्वं हेहिमविरलणाए समखंडं करिय दिपणे भवं पडि छट्ठ-सत्तमयुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि । पुणो तमुवंरिमविरलणाए सुण्णट्ठाणं मोत्तूण हेट्ठिमविरलणमेत्तपंचमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्याम्हि पक्खित्ते रूवं पडि पंचम-छह-सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि विदियरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं पुणो पुणो कायव्यं जाव उवरिमविरलणा परिसमत्तेत्ति । एत्थ परिहीणरूवपमाण
एकके ऊपर जगश्रेणीको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यमें भाग देने पर, जग वर्गमूलसे लेकर नाँचेके चार वर्गौके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे जगश्रेणीके एक अधिक तृतीय वर्गमूलसे खंडित करने पर एक खंड आता है। पुनः उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनके एकके प्रति प्राप्त पांचवी पृथिवीके द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति छठी और सातवीं पृथिवीके द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्तर उपरिम विरलनमें उस शून्यस्थानको (जिसके द्रव्यको अधस्तन विरलनमें वांटा है उसे) छोड़कर पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर अधस्तन विरलनप्रमाण उपरिम विरलनके अंकों पर पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और एककी हानि प्राप्त होती है। पुनः तदनन्तर उपरिम विरलनके एक अंक पर स्थित पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्याष्टि व्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उपरिम विरलनमें उस शून्यस्थानको ( जिसके द्रव्यको अधस्तन विरलनमें वांटा है उसे ) छोड़कर अधस्तन विरलनप्रमाण छठी और सातवीं पृथिवीके द्रव्यको पांचवी पृथिवीके द्रव्यमें मिला देने पर प्रत्येक एकके प्रति पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और दूसरे अंककी हानि भी प्राप्त होती है। इसप्रकार जबतक उपरिम घिरलन समाप्त होवे तबतक पुनः पुनः करना चाहिये। अब यहां पर हानिरूप विरलनोंका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है-उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन
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१८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[ १, २, १९. माणिजदे । तं जहा- हेट्टिमविरलणरूवाहियमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियहेट्ठिमविरलणाए जगसेढिछट्ठवग्गमूलमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे सेढिविदियवग्गमूलं तदियादिचउण्हं वग्गाणमण्णोण्णब्भासेणुप्पण्णरासिम्हि रूवाहियसेढितदियवग्गमूलं पक्खिविय अवहिदएगभागो तिण्हं पुढवीणं अवहारकालो होदि । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचमादितिण्हं हेट्ठिमपुढवीणं मिच्छाइट्ठिदव्वमागच्छदि।
पुणो जगमेढिम्हि अट्ठमवग्गमूलं विरलेऊग जगसेटिं समखंडं करिय दिण्णे रू पडि चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि । पुणो चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं पंचमादिहेहिमतिपुढविमिच्छाइदिव्वेहि ओवट्टिय लद्धं हेट्ठा विरलिय च उत्थपुढविदव्वं उवरिमविरलणाए पढमरूबोवरि हिदं समखंडं करिय दिण्णे पंचमादिहेट्ठिमतिपुढविमिच्छाइटिविरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनों में कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनसे जगश्रेणीके छठे वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे उसी जगश्रेणीके छठे वर्गमूलमेंसे घटा देने पर जो आता है वह जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूल आदि चार वर्गों के परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक अधिक तृतीय वर्गमूलको मिलाकर जो जोड़ आवे उससे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना होता है और यही पूर्वोक्त तीन पृथिवियोंका अवहारकाल है। उक्त अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर पांचवीं आदि तीन पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-२०४८ २०४८
अधस्तन विरलन १३ में १ जोड़कर २१ होते १ ३२ वार; हैं। यदि इतने स्थान जाकर उपरिम विर
लनमें १ की हानि होती है तो संपूर्ण उपरिम २०४८:१५३६
विरलनमें कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर ९६ हानिरूप अंक आते हैं । इसे उपरिम विरलन ३२ मेंसे घटा देने पर १२८ आते हैं। इसका जगश्रेणीमें भाग पर ३५८४ प्रमाण पांचवी आदि तीन प्रथि
वियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। अनन्तर जगश्रेणीके आठवें वर्गमूलको बिरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जगश्रेणीको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। पुन: चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको पांचवी आदि नीचेके तीन पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे नीचे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम बिरलनके प्रथम एक पर स्थित चौथी पृथिवीके द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर
१५३६
१२८
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१, २, १९.] दवपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[१८३ दव्वं पावेदि । एत्थ पुव्वं व समकरणं कादव्यं । एत्थ परिहीणरूवाणं पमाणमाणिज्जदे । तं जहा- हेट्ठिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूण जदि उवरिमविरलणम्हि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियहेट्ठिमविरलणाए जगसेढिअट्ठमवग्गमूलमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवाणदे चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमपुढवीणं सत्तमपुढविमिच्छाइडिसलागाहि जगसेढिविदियवग्गमूलमोवाट्टिय चउत्थपुढविआदिहेडिममिच्छाइविदधस्स अवहारकालो होदि । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे चउण्डं पुढवीणं मिच्छाइद्विदव्यमागच्छदि।।
पुणो जगसेढिदसमवग्गमूलं विरलेऊण जगसेढिं समखंडं करिय दिण्णे रूपं पडि
प्रत्येक एक पर पांचवी आदि नीचेकी तीन पथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर समीकरण पहले के समान कर लेना चाहिये। अब यहां पर हानिरूप अंकोंका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है- उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनसे जग. श्रेणीके आठवें वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे उसी जगश्रेणीके आठवें वर्गमूल. मेंसे घटा देने पर जो आता है वह चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीकी सातवी पृथिवीकी अपेक्षा की गई मिथ्यादृष्टि शलाकाओंसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आता है उतना होता है। और यही चौथी आदि नीचेकी चार पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल है। उक्त अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर चार प्रथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-४०९६ ४०९६
अधस्तन विरलन १३ में १ जोड़ने पर २१ १ १६ वार होते हैं। यदि इतने स्था ४०९६ : ३५८४ = दु
विरलनमें १ की हानि होती है तो संपूर्ण
उपरिम विरलन १६ में कितनी हानि होगी, ३५८४ ५१२
इसप्रकार त्रैराशिक करने पर १६६२ हानिरूप अंक आते हैं। इसे उपरिम विरलन १६ मेंसे
घटा देने पर १२८ होता है जो सातवीं ६५५३६ : १२. = ७६८०, पृथिवीकी अपेक्षा की गई चौथी आदि चार पृथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि शलाकाओं १+२+४+८= १५ से जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूल १२८ को अपवर्तित करने पर जितना आता है उतनेके बराबर होता है। इससे ६५५३६ प्रमाण जगश्रेणीके भाजित करने पर ७६८० प्रमाण चौथी आदि चार पृथिवियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है।
अनन्तर जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर जगश्रेणीको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति
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१८४ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १९.
तदिय पुढविमिच्छाइट्ठिदव्वपमाणं पावेदि । पुणो तं तदिय पुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं हेट्ठिमचउत्थ पुढविमिच्छाइदिव्त्रेण ओवट्टिय लद्धं विरलेऊण तदियपुढविदव्यमुवरिमविरलणपढमवोवरि द्विदं घेतूण समखंड करिय दिण्णे चउत्थपुढविमिच्छाइदिव्यं रूवं पडि पावेदि । पुणो एदं उचरिमविरलणदितदियढदिव्य म्हि दाऊण पुव्यं व समकरणं करिय परि हाणिरुवाणि आणयव्त्राणि । तं जहा - हेट्टिमविरलरूवाहियमेतद्भाणं गंतून जदि एगरूपपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणिं पेच्छामो त्ति रूवाहियमिरिणाए सेदिसमवग्गमूलमोवट्टिय लद्धुं तम्हि चेव सरिसच्छेदं काऊ अवणिदे तदियादिपंच पुढविमिच्छाइट्ठि अवहारकालो होदि । तस्स पमाणं केत्तियं ९ तदियादि - पंचपुढवीणं सत्तमपुढविदव्वस्स सलागाहि सेदिविदियवग्गमूलम्हि ओट्टिदे जं लद्धं
तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः उस तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको नीचेकी चार पृथिवियों के मिध्यादृष्टि द्रव्य के प्रमाणसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका विरलन करके उस विरलित राशि के प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलन के प्रथम अंकके ऊपर स्थित तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको ग्रहण करके और समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति चौथी आदि चार पृथिवियों के मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इस अधस्तन विरलन के प्रति प्राप्त द्रव्यको परम विरलन के प्रति प्राप्त तीसरी पृथिवीके द्रव्यके ऊपर देकर पहले के समान समीकरण करके हानिरूप विरलन अंक ले आना चाहिये। जैसे- उपरिम विरलन में एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनसे जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे समान छेद करके जगश्रेणीके उसी दशवें वर्गमूलमेंसे अपनयन करने पर तीसरी आदि पांच पृथिवियोंके मिध्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है ।
उदाहरण – ८१९२ ८१९२
१
१ ८ वार;
८१९२ ÷ ७६८० =
७६८० १
उपरम विरलन ८ मेंसे घटा देने पर
१६.
१५
५१२
१
१५
.
अधस्तन विरलन १५ में १ मिला देने पर २ होते हैं | यदि इतने स्थान जाकर उपरिम विरलन में १ की हानि प्राप्त होती है तो उपरम विरलनमात्र ८ स्थान जाने पर कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर की हानि आ जाती है । इसे शेष रहते हैं ।
१२० ३ श्
शंका - तृतीयादि पांच पृथिवियोंके उक्त भागहारका प्रमाण कितना है ?
समाधान - तृतीयादि पांच पृथिवियोंकी सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको अपेक्षा की गई शलाकाओं से जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलके अपवर्तित करने पर जितना लब्ध आवे
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १८५ तत्तियमेतं । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचपुढविमिच्छाइद्विदधमागच्छदि । पुणो सेढिवारसवग्गमूलं विरलेऊण जगसेढिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि विदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि । हेहिमपंचपुढविदव्वेण तमोवट्टिय लद्धं विरलिय उवरिमविरलणपढमरूवोवरि हिदविदियपुढविमिच्छाइद्विदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि तदियादिपंचपुढविमिच्छाइदिव्यं पावेदि । तमुवरिमविरलकोवरि द्विदविदियपुढविमिच्छाइद्विदच्चस्सुवरि पक्खिविय समकरणं करिय परिहाणिरूवाणि आणेयव्याणि । तेसिं पमाणमेगवारेणाणिजदे । तं जहा-रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लम्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणि पेच्छामो ति रूवाहियहेहिम विरलणाए सेडिवारसवग्गमूलमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव सरिसच्छेदं काऊण अवणिदे
तन्मात्र उक्त भागहारका प्रमाण है । उक्त भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर तृतीयादि पांच पृथिधियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-१६ + ८+ ४ +२+ १ = ३१, १२८ : ३१ =
६५५३६ : १२८ = १५८७२ तृतीयादि पांच पृथिवियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य । अनन्तर जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जगश्रेणीको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उस दूसरी पृथिवीके द्रव्यको नीचेकी तीसरी आदि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उपरिम विरलनके प्रथम अंक पर स्थित दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खण्ड करके दे देने पर अधस्तन विरलनराशिके प्रत्येक एकके प्रति तीसरी आदि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इस अधस्तन विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यको उपरिम विरलनके प्रति प्राप्त दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर प्राक्षिप्त करके पहलेके समान समीकरण करके हानिरूप अंक ले आना चाहिये। आगे उन्हीं हानिरूप अंकोंका एकवारमें प्रमाण लाते हैं। जैसे
उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनके प्रमाणसे जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे समान छेद करके उसी जणश्रणीके बारहवें वर्गमूलमेंसे घटा देने पर द्वितीयादि छह पृथिषियोंका अवहारकाल प्राप्त होता है।
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१८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १९. विदियादिछप्पुढविअवहारकालो होदि । तस्स पमाणं केत्तियं ? विदियादिछप्पुढवीणं सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठिसलागाहि जगसेढिविदियवगमूलमवहिदएगभागो हवदि । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे छप्पुढविमिच्छाइद्विदव्यमागच्छदि। तं जगसेढिणा खंडेऊणेगखंडं सामण्णणेरइयविक्खंभसूचिम्हि अवणिय सेसेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पढमपुढविअवहारकालो आगच्छदि । अहवा पुबमाणिदछप्पुढविदव्वेण सामण्णणेरइयअवहारकालं गुणेऊण तम्हि
उदाहरण-१६३८४ १६३८४
___ अधस्तन विरलन १३ में १ मिला देने १४ वार पर २१ होता है। यदि इतने स्थान १६३८४ : १५८७२ -३२
जाकर उपरिम विरलनमें १ की हानि होती है तो उपरिम विरलनमात्र ४ स्थान जाकर
कितनी हानि प्राप्त होगी? इसप्रकार त्रैराशिक
३ करने पर १२ हानिरूप अंक आ जाते हैं। इसे उपरिम विरलन ४ मेंसे घटा देने पर १३६ प्रमाण द्वितीयादि छह पृथिवियोंका अवहारकाल होता है।
शंका-द्वितीयादि छह पृथिवियोंके उक्त भागहारका प्रमाण कितना है ?
समाधान-सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी अपेक्षा की गई द्वितीयादि छह पथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि शलाकाओसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमलके भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आता है उतना द्वितीयादि छह पृथिवियोंका अवहारकाल है । उक्त भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर द्वितीयादि छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-३२ + १६ + ८+४+२+ १ = ६३, १२८ : ६३ = द्वितीयादि छह
पृथिवियोंका अवहारकाल ।
६५५३६ : १२८ = ३२२५६ द्वितीयादि छह पृथिवियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य । उक्त छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको जगश्रेणीसे खण्डित करके जो एक खण्ड लब्ध आवे उसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची से घटा कर जो शेष रहे उससे जगश्रेणीको भाजित करने पर पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल आता है। उदाहरण–३२२५६ ’ ६५५३६ = ६३, २-,
१२८' १२८ १२८ ___६५५३६ : १९३ = ८३८६६०८ प्र. पृ. मि. अव.
अथवा, पहले लाये हुए छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके प्रमाणसे सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंके अवहारकालको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें पहली पृथिवीके
६३
३
.
६३ - १९३.
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१, २, १९. ]
दव्यमाणागमे निरयगादिपमाणपरूवणं
[ १८७
पढमढविदव्वेण भागे हिदे सव्वत्थुष्पष्णपक्खेव अवहारकालो आगच्छदि । तं सरिसच्छेदं काऊण सामण्णअवहारकालम्हि पक्खित्ते पढमपुढविमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि ।
एत्थ परिहाणिपक्खेवाणं सुहावगमणडं संदिट्ठि वत्तइस्साम । तं जहा - सोलस वाणि विरलिय वेदछप्पण्णं रूवं पडि समखंड करिय दिण्णे एक्केक्स्स रूवस्स सोलस सोलस रूपाणि पावेंति । एत्थ तिन्हं रूवाणं वड्डिमिच्छामो त्ति वड्डरूवेहि एगरूवधरिदमोट्टिदे पंचरूवाणि सतिभागाणि आगच्छति । ताणि हेट्ठा विरलिय एगरूवधरिदसोलसरुवाणि समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि तिण्णि तिष्णि रुवाणि पावेंति । एगरूवतिभागस्स एगरूवं पावेदि । तं कथं ? सकलेगरूवस्स जदि तिष्णि रुवाणि लब्भंति तो एगरूवतिभागस्स किं लभामो ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेण भागे हिदे एगमेव
मिथ्यादृष्टि द्रव्य के प्रमाणका भाग देने पर सब जगह उत्पन्न हुआ प्रक्षेप अवहारकाल आता है । उस प्रक्षेप अवहारकालको समान छेद करके सामान्य अवहारकालमें मिला देने पर पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है ।
उदाहरण
प्र. अव.
३२७६८ x ३२२५६ २०६४३८४ ९८८१६ १९३ २०६४३८४ ८३८८६०८ ३२७६८ + १९३ १९३ अब यहां पर हानिरूप और प्रक्षेपरूप अंकोंके सरलतासे ज्ञान कराने के लिये संदृष्टि बतलाते हैं । वह इसप्रकार है
प्र. पू. मि. अव.
सोलह अंकोंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति दोसौ छप्पन अंकों को समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सोलह सोलह संख्या प्राप्त होती है। यहां पर हम तीन संख्याकी वृद्धि करना चाहते हैं, इस लिये वृद्धिरूप संख्या तीनसे एक विरलनके प्रति प्राप्त सोलहको अपवर्तित करने पर एक तृतीय भाग सहित पांव पूर्णांक लब्ध आते हैं। इसे पूर्व विरलन के नीचे विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एकके प्रति एक विरलन के प्रति प्राप्त सोलहको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलनराशि के प्रत्येक एकके प्रति तीन संख्या प्राप्त होती है । तथा एक तृतीयांश प्रति एक संख्या प्राप्त होती है, क्योंकि, पूर्णांकरूप एक विरलनके प्रति यदि तीन संख्या प्राप्त होती है तो एक तृतीयांशके प्रति क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फल राशि तीन से इच्छाराशि एक तृतीयांशको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि एकका भाग देने पर एक संख्या ही प्राप्त होती है ।
उदाहरण-- विरलन १६, देय २५६, वृद्धिरूप अंक ३
1=1
=
१६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
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१८८ ]
छक्खडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १९.
रूवं लब्भदित्ति । पुणो ताणि तिष्णि रुवाणि घेत्तूण उवरिमविरलणपंचरूवोवरि दिपंचसु सोलसेसु परिवाडीए पक्खित्ते रूवं पडि एक्कुणवीसरुवाणि हवंति । पुणो सत्तमरूवं तिणि भागे करिय तेसिं तिभागाणं सोलसरूवाणि समखंड करिय दिणे एक्स् तिभागस्स सतिभागपंचरूवाणि पावेंति । पुणो एगरूवतिभागधरिदसतिभागं पंचरूवं तत्थेव विय सेस-वे-तिभागे अप्पणो धरिदरासि सहिदं पुध हविय पुगो सट्टाहिदएगरूवतिभागेण धरिदसतिभागपंचरूवेसु हेट्टिमविरलणाए तिभागरूवोवरि हिद- एगरूवं पक्खिते तत्थ सतिभाग छ- रुवाणि हवंति, एत्थ एगरूवपरिहाणी लद्धा । पुणो तदनंतर रूवधरिद - सोलसरुवाणि हेट्टिमविरलणाए समखंड करिय दिष्णे पुब्वं व रूवं पडि तिण्णि तिणि रुवाणि पावेंति । पुणो तत्थ सकलपंचख्वोवरि द्विद-तिष्णि रुवाणि घेत्तूण सुण्णद्वाणं वंचिय उवरिमविरलण- पंचरूवोवरि द्विद-पंचसु सोलसेसु परिवाडीए पक्खितेसु रूवं पडि एगूणवीसरूवाणि हवंति । पुणो पुत्रमाणेऊण पुध विद-वे
१
३
१
३
पुनः नीचेके विरलन के प्रति प्राप्त उन तीन ( द्वितीयादि) पांच विरलन अंकों पर स्थित पांच
तीन अंकोंको लेकर उपरिम विरलनके सोलह अंकोंके ऊपर परिपाटी क्रमसे
दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति उन्नीस अंक प्राप्त होते हैं । पुनः सप्तम विरलनरूप एक अंकके तीन भाग करके उन तीन भागोंके ऊपर सोलहको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एक त्रिभाग के प्रति एक त्रिभागसहित पांच अंक प्राप्त होते हैं । अनन्तर एक त्रिभागके प्रति प्राप्त एक त्रिभागसहित पांच अंकों को वहीं पर रखकर और शेष दो त्रिभागों को अपने ऊपर रखी हुई राशि के साथ अलग स्थापित करके अनन्तर अपने स्थान पर स्थित एक त्रिभाग के प्रति प्राप्त एक त्रिभागसहित पांच अंकों में अधस्तन विरलन के एक विभाग के ऊपर स्थित एकको मिला देने पर वहां एक त्रिभागसहित छह अंक आ जाते हैं। इसप्रकार यहां एक विरलन अंककी हानि प्राप्त हुई । पुनः उसके अर्थात् सातवें विरलन के अनन्तर एक विरलन अंक पर स्थित सोलहको अधस्तन विरलन के प्रत्येक एक के प्रति समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर पहले के समान अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति तीन तीन अंक प्राप्त होते हैं । अनन्तर वहां पूर्णांक पांच विरलनरूप अंकोंके ऊपर स्थित तीन संख्याको ग्रहण करके शून्यस्थानको ( जिस आठवें स्थानके १६ को अधस्तन विरलन में वांटा है उसे ) छोड़कर उपरिम विरलनके पांच विरलन अंकोंके ऊपर स्थित पांच सोलह अंकोंके ऊपर क्रमसे प्रक्षिप्त कर देने पर उपरिम विरलन के प्रत्येक एकके प्रति उन्नीस अंक प्राप्त होते हैं । अनन्तर पहले लाकर अलग स्थापित दो त्रिभागों में से एक विभागके ऊपर रक्खे हुए
1 प्रतिषु ' सरुवाणि ' इति पाठः ।
१६÷३=५
३ ३
१
१
३ ३
१
१
३
१
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १८९ तिभागेसु एगतिभागधरिदसतिभागपंचरूवमाणेऊण तदणंतरखेत्तं दृविय' एगरूवतिभागधरिदएगरूवं तत्थ पक्खित्ते एत्थ वि सतिभाग-छ-रूवाणि हवंति, विदियरूवपरिहाणी च लब्भदि । पुणो तदणंतररूवोवरि द्विद-सोलसरूवाणि घेत्तूण हेट्टिमविरलणाए समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि तिण्णि तिण्णि रूवाणि पावेंति । तत्थ वेरुवधरिदतिण्णि रूवाणि घेत्तूण तदणंतरवेरूवधरिदसोलसरूवेसु पक्खित्तेसु एगूणवीसरूवाणि हवंति । ताणं दोण्हं रूवाणमंते पुधमवणिदएगरूवतिभागधरिदसतिभागपंचरूवमाणेऊण द्वविय तत्थ हेटिमविरलणाए एगरूवतिभागोवरिट्टिदएगरूवं पक्खिते सतिभाग-छ-रूवाणि हवंति। सेसाणि तिण्णिरूवधरिदणवरूवाणि तहा चेव अवचिट्ठते। तेसिं विरलणरूवमुप्पा......... एक त्रिभागसहित पांच अंकोंको लाकर पहले रक्खे हुए एक त्रिभागसहित छह के अनन्तर स्थापित करके और उसमें अधस्तन विरलनके एक त्रिभागके प्रति प्राप्त एकको मिला देने पर यहां भी एक त्रिभागसहित छह अंक हो जाते हैं और दूसरे विरलन अंककी हानि प्राप्त होती है । पुनः उसके ( जहांतक उपरिम विरलनमें तीन अंक दिये गये हैं उसके) अनन्तरके विरलन अंकके ऊपर स्थित सोलह संख्याको ग्रहण करके और अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति समान खंड करके दे देने पर अधस्तन विरलनके प्रत्येक तीन तीन अंक प्राप्त होते हैं। उनमेंसे दो विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन अंकोंको ग्रहण करके उन्हें उपरिम विरलनमें पहले जहांतक तीन अंक दिये जा चुके हैं उसके अनन्तरके दो उपरिम विरलनीके प्रति प्राप्त सोलह संख्यामें मिला देने पर प्रत्येक एकके प्रति उन्नीस संख्या प्राप्त होती है। तथा पहले निकाले हुए एक त्रिभागके प्रति प्राप्त एक त्रिभागसहित पांच संख्याको उन दो अंकोंके अन्तमें लाकर स्थापित करके उसमें अधस्तन विरलनके एक विभाग प्रति प्राप्त एक संख्याको मिला देने पर एक त्रिभागसहित छह होते हैं। अधस्तन विरलनके शेष तीन अंकोंके प्रति प्राप्त नौ अंक उसीप्रकार स्थित रहते हैं।
उदाहरण- ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३
७३ + १ = ६३
५३ + १ = ६३
५३ + १ = ६५=१९
यहां सातवें विरलनके तीन भाग किये और उस पर १६ को वांटा तब ५१ प्राप्त हुआ। अनन्तर अधस्तन विरलनके ३ के प्रति प्राप्त एक जोड़ा तब ६३ हुआ। तीसरीवार अधस्तन विरलन १ १ १ १ १ १.
. ३ ३ ३९ शेष रहे। (जिन अंकों पर x ऐसा चिन्ह है उनका द्रव्य अधस्तन विरलनमें बांटा गया है। तथा जिस पर * ऐसा चिन्ह है उसके तीन भाग करके उसका द्रव्य उन तीनों भागोंमें वांटा है।)
१ अ-आ-प्रत्योः तदणंतरखेत्तविय' इति पाठः ।
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१९०] छक्खंडागमे जीवट्टाणं
[१, २, १९. इज्जदे । तं जहा- एगूणवीसरूवाणं जदि एगं विरलणरूवं लब्भदे तो णवण्हं रूवाणं किं लभामो त्ति एगूणवीसेहि फलगुणिदिच्छाए भागे हिदे एगरूवं' एगूणवीस खंडाणि काऊण तत्थ णव खंडाणि आगच्छति । अवणिदसेसाणि रूवाणि एगहे कदे तेरहरूवाणि एगरूवं एगूणवसिखंडाणि कदे णव खंडाणि च हवंति । संपहि परिहाणिरूवाणि आणिज्जते । तं जहा- हेट्ठिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सतिभागतिण्हं रूवाणं किं लभामो त्ति फलगुणिदइच्छम्हि पमाणेण भागे हिदे एगरूवं एगूणवीसखंडाणि कदे तत्थ दस खंडाणि लब्भंति । पुबलद्ध-दो-रूवाणि तत्थ पक्खित्ते परिहाणिरूवाणि हवंति । अहवा सव्वहीणरूवाणि एगवारेणाणिज्जते । तं जहा- हेहिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिम
अब उन अवशिष्ट नौ अंकोंका विरलन कितना होगा यह उत्पन्न करके बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- उन्नीस अंकोंके प्रति यदि एक विरलन प्राप्त होता है तो नौ अंकों के प्रति कितना प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि नौको गणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि उन्नीसका भाग देने पर एकके उन्नीस खंड करके उनसे ९ खंड लब्ध आते हैं । इसप्रकार उपरिम विरनलमेंसे जितनी संख्या घट जाती है उससे शेष रहे हुए सभी अंकोंको एकत्रित करने पर पूर्णीक तेरह और एक अंकके उन्नीस खंड करके उनमेंसे नौ खंड होते हैं। उदाहरण-प्रमाणराशि १९, फलराशि १; इच्छाराशि ९ः
९x१ = ९,९ : १९ - १९ नौके प्रति विरलनरूपका प्रमाण ।
१६ - २१९ = १३१९ कुल विरलनरूप अंकोंका प्रमाण । अब हानिरूप अंक लाते हैं। जैसे- एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो एक त्रिभागसहित तीन विरलनस्थानोंके प्रति क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि एक त्रिभागसहित तीन विरलनको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि एक अधिक अधस्तन विरलनका भाग देने पर एकके उन्नीस खंड करने पर उनमें दश खंड लब्ध आते हैं। पुनः पहले लब्ध आये हुए दोको उसमें मिला देने पर संपूर्ण हानिरूप अंक हो जाते हैं।
उदाहरण-प्रमाणराशि १९, फलराशि १, इच्छाराशि १५
११- १ = १०, १० : १९ - १९, १०+२= २६० हानि अंक ।
अथवा, संपूर्ण हानिरूप विरलनस्थान एकवारमें लाते हैं। जैसे-एक आधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें
१ अ. प्रतौ । एवरूवं ', आ. का. प्रत्योः ‘णवरूवं ' इति पाठः ।
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १९१ विरलणम्हि किं लभामो त्ति रूवाहियहेटिमविरलणाए फलगुणिदिच्छाए भागे हिदाए सव्वपरिहीणरूवाणि आगच्छंति । ताणि उवरिमविरलणरूवेसु अवणिदे अवहारकालो होदि । एवं सव्वत्थ समकरणविहाणं जाणिऊण वत्तव्यं ।
___ संपहि रासिपरिहाणिविहाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- तत्थ ताव तिण्हं रूवाणं परिहाणि उच्चदे- उवरिमविरलणरूवधरिदसोलसरूवेसु हेटिमविरलणाए सगलेगरूवधरिदतिण्णि रूवाणि रूवं पडि अवणिय पुध हवेयव्वाणि । संपहि उवरिमविरलणमेत्ततिण्णि रूवाणि अवणिदसेसपमाणेण कस्सामो। तं जहा- उवरिमविरलणचउरूवधरिदतिणि तिण्णि रूवाणि एगटुं करिय पुणो पंचमरूबधरिदतिण्हं रूवाणं तिभागं घेतूण तत्थ पक्खिते अवणिदसेसपमाणं होदि । हेट्टिमविरलणाए अंते एगरूवं विरलिय अणंतरुप्पण्ण
१९
कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार राशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि सोलहको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र इच्छाराशिका भाग देने पर संपूर्ण हानिरूप विरलनस्थान आ जाते हैं। इन्हें उपरिम विरलनकी संख्या से घटा देने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। इसीप्रकार सर्वत्र समीकरण विधानको जानकर कथन करना चाहिये। उदाहरण-प्रमाणराशि ६३; फलराशि १; इच्छाराशि १६.
१६४ १ = १६ १६:१९ - २१० हानिरूप अंक ।
१६ - २१० = १३,९ अवहारकाल । अब राशिके हानिरूपविधानको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-उस विषयमें तीन अंकोंकी हानिका कथन किया जाता है- उपरिम विरलनके प्रत्येक विरलनके प्रति प्राप्त सोलहमेंसे अधस्तन विरलनके सकल एक विरलनके प्रति प्राप्त तीन संख्याको घटा कर पृथक स्थापित कर देना चाहिये । अब उपरिम विरलनमात्र अर्थात् सोलहवार स्थापित तीन तीन अंकोंको, उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त सोलहमेंसे तीन घटा देने पर जो शेष रहता है, उसके प्रमाणसे करते हैं । जैसे-उपरिम विरलनके चार विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन तीन अंकोंको एकत्रित करके पुनः पांचवें विरलनके ऊपर रखे हुए तीनके त्रिभागको ग्रहण करके मिला देने पर सोलहमेंसे तीनको घटा कर जो शेष रहता है उसका प्रमाण होता है। इस अभी उत्पन्न हुए तीनको घटा कर शेष रहे हुए प्रमाणको अधस्तन विरलनके अन्तमें एकका विरलन करके उसके ऊपर दे देना चाहिये । पुनः उपरिम विरलनके चार विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन तीन संख्याको
१ प्रतिषु · अवणिदे सेसरूवाणं' इति पाठः ।
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१९२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १९. अवणिदसेसरूवपमाणं दादव्वं । पुणो उवरिमविरलणम्हि चउरूवधरिदतिण्णि तिण्णि रूवाणि एगई करिय पुवहविदवेतिभागम्हि' एग तिभागं घेत्तूण पक्खित्ते एदमवि अवणिदसेसपमाणं होदि । एदस्स कारणेण पुवविरलिदएगरूवस्स पासे अवरमेगरूवं विरलिय तस्सुवरि सो संपहि वुप्पण्णअवणिदसेसरासी दादव्यो । पुणो वि उवरिम. विरलणचउरूवधारदतिण्णि तिण्णि रूवाणि मेलाविय पुध दृविय तिभागं तत्थ पक्खित्त एदमवि अवणिदसेसपमाणं होदि। एदस्स कारणेण पुव्यविरलिददोण्हं रूवाणं पासे अण्णेगं रूवं विरलिय तस्सुवरि सो रासी ठवेयव्यो । पुणो अवसेसाणि तिरूवधरिदतिण्णि तिण्णि रूवाणि णव भवंति । एदाणं विरलणरूवाणं पमाणमुप्पाइज्जदे। रूखूणहेद्विमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगअवहारपक्खेवरूवं लब्भदि तो तिण्हं रूवाणं किं लभामो त्ति रूवूण
एकत्रित करके पहले अलग स्थापित हुए तीनके दो विभागों से एक त्रिभागको ग्रहण करके मिला देने पर यह भी तीनको घटाकर जो शेष रहे उसका प्रमाण होता है। इसलिये पहले विरलन किये हुए एक विरलनके पासमें दूसरे एकको विरलित करके उसके ऊपर यह अभी उत्पन्न हुए तीनको घटाकर शेष रही राशि दे देना चाहिये। फिर भी उपरिम विरलनके चार विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन तीन संख्याको मिला कर अलग स्थापित करके तीनका त्रिभाग उसमें मिला देने पर यह भी तीन घटा कर शेष रही राशिका प्रमाण होता है। इसलिये पहले विरलन किये हुए दो विरलनोंके पास में और एकका विरलन करके उसके ऊपर यह राशि स्थापित कर देना चाहिये । पुनः उपरिम विरलनके अवशिष्ट तीन विरलमोंके प्रति प्राप्त अवशेष तीन तीन अंक मिल कर नौ होते हैं। . उदाहरण-उपरिम विरलनके प्रत्येक १६ मेंसे ३ निकाल देने पर १३ रहते हैं । यथा
१३ १३ १३ १३१३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३
अब १६ जगह जो ३ हैं उनको १३ रूप करनेके लिये इसप्रकार जोड़ो
३+३+३+३+१%१३,३+३+३+३+१=१३, ३+३+३+३+१= १३,
३+३+३=९ इसप्रकार उपरिम विरलनके १६ स्थानोंमें ये ३ और मिला देने पर कुल १९ स्थान होते हैं जिनमें प्रत्येक पर १३ प्राप्त हैं। बाकी ९ रहते हैं जिसके लिये १३ विरलन प्राप्त होगा। इसप्रकार १९६३ कुल विरलन अंक आते हैं । २५६ में भाग देकर १३ लब्ध लानेके लिये यही १९९३ भागहार है।
अब इन तीन विरलनके प्रति प्राप्त नौ अंकोंका विरलन प्रमाण उत्पन्न करते हैं-एक कम अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एक अपहारप्रक्षेपशलाका उत्पन्न होती है तो तीनके
२ प्रतिषु ‘जेत्तियाभागम्हि ' इति पाठः ।
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१, २, १९. ]
दव्यमाणागमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १९३
मिविरलणाए तिणि रुवाणि ओवट्टिदे एगरूवं तेरहखंडाणि कदे तत्थ णव खंडाणि हवंति । एदं पुव्विलतिन्हं रूवाणं पासे विरलिय एदस्सुवरि णव रुवाणि दादव्वाणि । अहवा सव्वपक्खेवरूवाणि एगवारेण आणिज्जंते । तं जहा- रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तद्वाणं गंतूण जदि एगा अवहारपक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केत्तियाओ अवहारपक्खेव सलागाओ लभामो त्ति पमाणेण इच्छाए ओवट्टिदाए सव्वाओ पक्खेव - सलागाओ लब्भ॑ति । एदाओ उवरिमविरलणम्हि पक्खित्ते इच्छिदअवहारकालो होदि । एवं सव्वत्थ रासिपरिहाणिम्हि जाणिऊण समकरणं कायव्वं ।
अहवा सामण्णअवहारकालं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्त जगपदरं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि सामण्णणेरइयमिच्छाइदिव्त्रं पावेदि । तत्थ एगरूवधरिदसामण्णणेरइय
प्रति क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक कम अधस्तन विरलनसे तीनको अपवर्तित करने पर एकके तेरह खंड करने पर उनमें से नौ खण्ड लब्ध आते हैं। इसे पूर्वोक्त तीन विरलन अंकों के पासमें विरलित करके इसके ऊपर नौ अंक दे देना चाहिये ।
१
उदाहरण - ५. - १=४ प्रमाणराशि; १ फलराशि; ३ इच्छाराशि ।
३
१३ ९ ३४१=३÷ =
तीन विरलनोंके प्रति तीन तीन रूपसे दिये हुए ३ १३ ९ अंकोंका अवहारकाल ।
अथवा, संपूर्ण प्रक्षेपरूप अवहारकालको एकवारमें लाते हैं । जैसे- एक कम अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एक अवहारकाल प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें कितनी प्रक्षेपशलाकाएं प्राप्त होंगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि उपरिम विरलनको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें एक कम अधस्तन विरलन. मात्र प्रमाण शिका भाग देने पर संपूर्ण अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं आ जाती हैं । इनको उपरि विरलन में मिला देने पर इच्छित अवहारकाल होता है । इसीप्रकार सर्वत्र राशिकी हानिमें जानकर समीकरण करना चाहिये ।
उदाहरण - प्रमाणराशि ४
१ ३
; फलराशि १; इच्छाराशि १६;
१६ × १ = १६, १६ ÷
१३ ३
४८
= प्रक्षेप अवहारकाल | १३
४८
९
१६+ = १९ इच्छित अवहारकाल ।
१३
'१३
अथवा, सामान्य अवहारकालका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जगप्रतरको समान खंड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि प्राप्त होती है ।
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१९४ ]
[ १, २, १९.
मिच्छाइट्ठिदव्वं सत्तमपुढविमिच्छाइदिव्यपमाणेण कस्सामो । तं जहा - सेडिविदियवग्गमूलभजिदजगसेढीए जदि एकं सत्तमपुंढविमिच्छाइदिव्यपमाणं लब्भदि तो सामण्णरइयमिच्छादिव्यहि केत्तियं लभामो त्ति फलेग इच्छं गुणिय पमाणेण भागे हिदे विक्खंभसूचिगुणिदसेदिविदियवग्गमूलमेत्ताणि सत्तमपुढविमिच्छाइट्टिदव्त्रखंडाणि आग - च्छंति । एवं सामण्णणेरइय अवहारकालरूवाणमुवरि ट्ठिदसामण्णणेरइयशसी पत्तेयं पत्र्त्तेय सत्तमपुढविमिच्छाइदिव्त्रपमाणेण कायव्यो । पुणो तत्थ एगरूवधरिदखंडेसु सत्तमपुढविमिच्छाइदिच्च पमाणं' एगखंडपमाणं होदि । छट्ठपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं सेढितदियवग्गमूलमेत्तखंडाणि घेत्तूण भवदि । पुणो पंचम पुढविमिच्छाइदिव्यं सेढितदियवग्गमूलादिचउवग्गमूलाणि गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रुवाणि तत्तियमेत्तखंडाणि घेत्तूण हवदि ।
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
उदाहरण १३१०७२ १३१०७२ सा. ना. मि. रा.
१
१ ३२७६८ वार.
अब एक विरलन के प्रति प्राप्त सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यको सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके प्रमाणरूपसे करके बतलाते हैं । जैसे— जगश्रेणी के द्वितीय वर्गमूलका जगश्रेणीमें भाग देने पर यदि एकवार सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है तो सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यमें कितना प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशि से इच्छाराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जगश्रेणी के द्वितीय वर्गमूलको विष्कंभसूचीसे गुणित करके जो लब्ध आवे उतने सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके खंड होते हैं ।
उदाहरण - प्रमाणराशि ६५५३६, फलराशि १; इच्छा राशि १३१०७२,
१२८ १३१०७२x१ = १३१०७२, १३१०७२÷
= २५६ = १२८ x २ खंड.
इसीप्रकार सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालकी संख्याके ऊपर स्थित प्रत्येक सामान्य नारक मिध्यादृष्टि जीवराशिको सातवीं पृथिवीके मिध्यादृष्टि द्रव्यके प्रमाणरूप से कर लेना चाहिये । परंतु वहां पर एक विरलन के प्रति प्राप्त खंडोंमें सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण एक खंड प्रमाण होता है। छठी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य जगश्रेणी के तृतीय वर्गमूलमात्र सातवीं पृथिवीके द्रव्य-खंडोंको लेकर होता है । पुनः पांचवीं पृथिवीका मिध्यादृष्टि द्रव्य जगश्रेणी के तीसरे वर्गमूल से लेकर चार वर्गमूलों के परस्पर गुणा करने पर वहां जितना प्रमाण आवे तन्मात्र सातवीं पृथिवीके द्रव्य-खंडों को लेकर होता है ।
१ प्रतिषु पमाणाणं ' इति पाठः ।
६५५३६ १२८
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१, २, १९. ]
दव्यमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १९५
चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्त्रं सेढितदियवग्गमूलादिछव्वग्गमूलाणि गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तखंडाणि घेत्तूण हवदि । तदियपुढविमिच्छाइद्विदव्वं सेढितदियवग्गमूलादिअहवग्गमूलाणि अण्णोष्णं गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रुवाणि तत्तियमेत्तखंडाणि तूण पावदि । विदियपुढविमिच्छाइद्विदव्वं तदियवग्गमूलादिदसवग्गमूलाणि अण्णोष्णत्थाणि कदे तत्थ जत्तियाणि रुवाणि तत्तियमेत्तखंडाणि घेत्तूण हवदि । पुणो एदाओ छपुढविमिच्छाइट्ठिखंड सलागाओ विवखंभसूचीगुणिद से डिविदियवग्गमूलादो सोधिदे' पढमपुढविमिच्छाइट्ठिखंडपमाणसालागा हवंति । एवं सामण्णअवहारकालमेत्तसामण्णणेरइयमिच्छाइदिव्त्रम्हि खंडसलागाओ पुध पुत्र करिय दरिसेदव्वाओ । पुणो एवं ठविय पढमपुढविअवहारकालो उप्पाइज्जदे । तं जहा - पढमपुढविमिच्छाइडिखंडसलागा
चौथी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य जगश्रेणी के तीसरे वर्गमूलसे लेकर छह वर्गमूलों के परस्पर गुणा करने पर वहां जितना प्रमाण उत्पन्न होवे तन्मात्र सातवीं पृथिवीके द्रव्य खंडों को लेकर होता है । तीसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य जगश्रेणीके तीसरे वर्गमूलसे लेकर आठ वर्गमूलों के परस्पर गुणा करने पर वहां जितना प्रमाण आवे तन्मात्र सातवीं पृथिवीके द्रव्यखंडों को लेकर प्राप्त होता है। दूसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य जगश्रेणी के तीसरे वर्गमूल से लेकर दश वर्गमूलों के परस्पर गुणा करने पर वहां जितना प्रमाण आवे तन्मात्र सातवीं पृथिवीके द्रव्य-खंडोंको लेकर होता है ।
उदाहरण --- सामान्य अवहारकालके एक विरलन के प्रति प्राप्त सामान्य राशि १३१०७२ के सातवीं पृथिवीके द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा खंड करने पर २५६ खंड हुए। उनमें से एक खंड प्रमाण सातवीं पृथिवीका द्रव्य है । दो खण्ड प्रमाण छठीका, चार खण्ड प्रमाण पांचवीका, आठ खण्ड प्रमाण चौथीका १६ खण्ड प्रमाण तीसरीका और बत्तीस खण्ड प्रमाण दूसरीका द्रव्य है । इसप्रकार ये खण्डशलाकाएं ६३ होती हैं । यदि वर्गमूलों के अपेक्षित तारतम्यसे खण्डशलाकाएं की जाये तो जो मूलमें कहा है तदनुसार खण्डशलाकाएं आवेंगी ।
पुनः इन छह पृथिवीसंबन्धी मिथ्यादृष्टि खण्डशलाकाओंको विष्कंभसूची गुणित जगश्रेणी के द्वितीय वर्गमूलमेंसे घटा देने पर प्रथम पृथिवी संबन्धी मिथ्यादृष्टि द्रव्यके खंडों का जितना प्रमाण हो उतनी खंड शलाकाएं लब्ध आती हैं ।
उदाहरण - १२८ x २ = २५६, २५६ - ६३ = १९३;
इसीप्रकार सामान्य अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य अवहारकाल गुणित सामान्य नारक मिध्यादृष्टि द्रव्यमें खण्डशलाकाएं पृथक् पृथक् निकाल करके दिखलाना चाहिये । पुनः इसप्रकार खण्डशलाकाएं स्थापित करके प्रथम पृथिवीका अवहारकाल उत्पन्न करते हैं । वह इसप्रकार है- प्रथम पृथिवी संबन्धी मिथ्यादृष्टि खंडशलाकाओंसे यदि एक अवहारकालशलाका
१ अ. आ. प्रत्योः ' सोविदे ' इति पाठः ।
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१९५] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १९. हिंतो जदि एगा अवहारकालसलागा लब्भदि तो सामण्णअवहारकालमेत्तसामण्णणेरइयखंडसलागाणं किं लभामो त्ति पमाणेण इच्छाए ओवट्टिदाए पढमपुढविमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । अहवा पढमपुढविमिच्छाइट्ठिखंडसलागाहि सामण्णअवहारकालमोवट्टिय लद्धेण छपुढविखंडसलागा गुणिदे पक्खेवअवहारकालो होदि । अहवा लद्धं छप्पडिरासिं काऊण छण्हं पुढवीणं सग-सगखंडसलागाहि गुणिदे सग-सगपक्खेवअर्व
..........
प्राप्त होती है तो सामान्य अवहारकालमात्र नारक मिथ्यादृष्टि खंडशलाकाओंकी कितनी खंडशलाकाएं प्राप्त होंगी, इसप्रकार राशिक करके प्रमाणराशि प्रथम पृथिवीसंबन्धी खण्डशलाकाओंसे इच्छाराशि सामान्य मिथ्यादृष्टि अवहारकालगुणित सामान्य नारक मिथ्याष्टि खण्डशलाकाओंको अपवर्तित करने पर प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है। उदाहरण-प्रमाणराशि १९३, फलराशि १, इच्छाराशि ३२७६८ x २५६;
३२७६८ x २५६ - ८३८८६०८ प्र. पृ. मि. अ.
१९३ १९३ । अथवा, प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि खंडशलाकाओंसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे छह पृथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि खंडशलाकाओंके गुणित करने पर प्रक्षेप अवहारकाल होता है। उदाहरण-३२७६८ : १९३ - ३२७६८, ३२७६८ ४६३ = २०६४३८४ प्र. अ. का. - १९३' १९३५
१९३ अथवा, प्रथम पृथिवी मिथ्यादृष्टि खंडशलाकाओंसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालको अपवर्तित करके जो लध्ध आया उसकी छह प्रतिराशियां करके छह पृथिवियोंकी अपनी अपनी शलाकाओंसे गुणित करने पर अपना अपना प्रक्षेप अवहारकाल होता है।
उदाहरण-३२७६८ x १ = ३२७६८ . सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा,
१९३
३२७६८४८%
३२७६८ - २ = ६५५३६ छठी पृथिवीकी अपेक्षा,
१९३ ३२७६८ . १३१०७२
- पांचवीं पृथिवीकी अपेक्षा, १९३
१९३
२६२१४४ चौथी पृथिवीकी अपेक्षा, ३२७६८. ५२४२८८ x
सरी पृथिवीकी अपेक्षा,
१९३ ३२७६८.
७६ दूसरी पृथिवीकी अपेक्षा प्र. अवहारकाल. १९३
१९३ x ३२ - १०४८५७६
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१, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १९७ हारकालो होदि । एवं विहाणेणुप्पण्णपक्खेवअवहारकालं सामण्णवहारकालम्हि पक्खित्ते पढमपुढविमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एदमत्थपदमवहारिय अण्णत्थ वि डहररासिपमाणेण महल्लरासीओ काऊण पक्खेवअवहारकालो साधेयव्यो । एत्थ णिरयगईए संदिट्ठी६५५३६ एदं जगसेढिपमाणं । एदं पि जगपदरपमाणं ४२९४९६७२१६ । सामण्णणेरइयमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई एसा २ । सामण्णअवहारकालो ३२७६८ । दव्वं १३१०७२ । पक्खेवअवहारकालो २०६५३८४ । पढमपुढविमिच्छाइट्टिअवहारकालो ८३६६६०८ । लद्धपमाणं ९८८१६ । विदियपुढविमिच्छाइट्ठिअवहारकालो ४, दव्यं १६३८४ । तदियपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो (८, दव्यं ८१२२ । चउत्थपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो) १६, दव्वं ४०९६ । पंचमढविमिच्छाइटिअवहारकालो ३२, दव्वं २०४८ । छट्टमपुढविमिच्छाइट्ठिअवहारकालो ६४, दव्यं १०२४। सत्तमपुढविमिच्छाइहिअवहारकालो
इस विधिसे जो प्रक्षेप अवहार काल उत्पन्न हो उसे सामान्य अवहारकालमें मिला देने पर प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अपहारकाल होता है। उदाहरण_३२७६८.६५५३६.१३१०७२ ..२६२१४४.५२४२८८ १०४८५७६
१९३ ' १९३ - १९३ १९३ - १९३ १९३
२०६४३८४ प्र. अ. का.
३२७६८ + २०६४
. २०६४३८४ - ८३८८६०८ प्र. पृ. का. अव. इसप्रकार इस अर्थपदका अवधारण करके अन्यत्र भी बड़ी राशिको छोटी राशिके प्रमाणसे करके प्रक्षेप अवहारकाल साध लेना चाहिये। अब यहां नरकगतिकी संदृष्टि दी जाती है
६५५३६ जगश्रेणीका प्रमाण है। ४२९४९६७२९६ यह जगप्रतरका प्रमाण है । सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीका प्रमाण २ है। सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण ३२७६८ है। सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्य १३१०७२ है। प्रक्षेप अवहारकाल २०६१३८४ है। प्रथम पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्यसंबन्धी अवहारकाल ८३१६६०८ है । प्रथम पृथिवीमें लब्धराशि मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण ९८८१६ है। दूसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अपहारकाल ४ और द्रब्य १६३८४ है। तीसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अवहारकाल ८ और द्रव्य ८१९२ है। चौथी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अवहारकाल १६ और द्रव्य ४०९६ है। पांचवी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अवहारकाल ३२ और द्रव्य २०४८ है। छठी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि भवहारकाल ६४ और द्रव्य १०२४ है। सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि अघहारकाल १२८ और
१ प्रतिघु एसा १२।' इति पाठः ।
२ कोष्ठकान्तर्गतपाठः प्रतिषु नास्ति ।
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१९८ ] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, २०. १२८, दव्वं ५१२ । विदियादिछप्पुढविमिच्छाइट्ठिदव्वसमूहो ३२२५६ । ।
विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ २० ॥
पदस्स सुत्तस्स आदेसोघदव्यपरूवयसुत्तस्सेव वक्खाणं कायव्वं ।
असंखेज्जासंखेनाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥२१॥
एदस्स वि सुत्तस्स आदेसोधकालपमाणपरूवयसुत्तस्सेव वक्खाणं कायव्यं । एदाओ दबकालपरूवणाओ थूलाओ। कुदो ? सोदाराणं णिण्णयाणुप्पायणादो । दबपरूवणादो कालपरूवणा सुहुमा, असंखेज्जासंखेजसंखाविससिददव्वणिरूवणादो। इदाणिं दव्वकालपरूवणाहितो सुहुमखेत्तपरूवणहूँ सुत्तमाह
द्रव्य ५१२ है । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका समूह ३२२५६ है।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक प्रत्येक पृथिवीमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ २० ॥
___ आदेशसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्ररूपण करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके समान इस सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये।
कालप्रमाणकी अपेक्षा दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक प्रत्येक पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अपसर्पिणियों और उत्सर्विणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ २१ ॥
आदेशसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्ररूपण करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके समान इस सूत्रका भी व्याख्यान करना चाहिये। यहां यह जो द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा और कालप्रमाणकी अपेक्षा द्वितीयादि छह पृथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी प्ररूपणा की है यह स्थूल है, क्योंकि, श्रोताओं को इस प्ररूपणासे निर्णय नहीं हो सकता है। फिर भी द्रव्य प्ररूपणासे कालप्ररूपणा सूक्ष्म है, क्योंकि, कालप्ररूपणाके द्वारा असंख्यातासंख्यात संख्या विशिष्ट द्रव्यका प्ररूपण किया गया है। अब द्रव्य और काल इन दोनों ही प्ररूपणाओंसे सूक्ष्म क्षेत्रप्रमाणके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
१प्रतिषु । ५०१' इति पाठः।
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१, २, २२.1 दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १९९ खेत्तेण सेढीए असंखेज्जदिभागो। तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ पढमादियाणं सेढिवग्गमूलाणं संखेज्जाणं अण्णोण्णभासेण ॥ २२ ॥
___ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-दव्यकालपमाणसुत्तहि विदियादिछप्पुढविमिच्छाइटिजीवाणं पमाणं परूविदमसंखेजमिदि। तं च असंखेज्ज पल्ल-सायरंगुलजगसेढि-पदर-लोगादिभेदेण अणेयवियप्पमिदि इमं होदि ति ण जाणिजदे, तदो सेढिजगपदरादिउवरिमसंखाणियत्तावणमिदमाह ' सेढीए असंखेज्जदिभागो' त्ति । सेढीए असंखेज्जदिभागो वि पल्ल-सायर-कप्पंगुलादिभेएण अणेयवियप्पो त्ति सूइअंगुलादिहेट्ठिमवियप्पपडिसेहटुं 'तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ' त्ति वुत्तं । सेढीए असंखेज्जदिभागो त्ति पुरिसलिंगणिदेसो तिस्से त्ति त्थीलिंगणिद्दसे, तदो दोण्हं
क्षेत्रकी अपेक्षा द्वितीयादि छह पृथिवियोंमें प्रत्येक पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि जीव जणश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। उस जगश्रेणके असंख्यातवें भागकी जो श्रेणी है उसका आयाम असंख्यात कोटि योजन है, जिस असंख्यात कोटि योजनका प्रमाण, जगश्रेणीके संख्यात प्रथमादि वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जितना प्रमाण उत्पन्न हो, उतना है ॥ २२॥
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-द्रव्यप्रमाण और कालप्रमाणके प्ररूपण करनेवाले सूत्रद्वारा द्वितीयादि छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण ' असंख्यात है ' ऐसा कह आये हैं। परंतु वह असंख्यात पल्य, सागर, अंगुल, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, इसलिये इनमें से यहां यह असंख्यात लिया गया है, यह कुछ नहीं जाना जाता है। अतः जगश्रेणी और जगप्रतर आदि उपरिम संख्याका नियंत्रण अर्थात् निवारण करनेके लिये 'द्वितीयादि छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि नारकी जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग हैं ' यह कहा । जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग भी पल्य, सागर, कल्प और अंगुल आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, इसलिये सूच्यंगल आदि अधस विकल्पोंका निषेध करनेके लिये 'उस श्रेणीका आयाम असंख्यात कोटि योजन है' यह कहा।
शंका-' सेढीए असंखेज्जदिभागो' इसमें पुल्लिंग निर्देश है और 'तिस्से ' यह
१ द्वितीयादिप्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टयः श्रेण्यसंख्येयभागपमिताः। स चासंख्येयभागः असंख्येया योजन कोट्यः । स. सि. १, ८. विदियादिबारदसअडछत्तिदुणिजपदहिदा सेढी। गो. जी. १५३. सेटिअसंह सेसासु जहोत्तरं तह य । पञ्चसं. २, १३.
२ प्रतिषु · अब्मासो' इति पाठः। किंतु पुरतः टकिाय अन्भासेणेत्ति' लभ्यते ।
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२००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २२. समाणमहियरणं णत्थि ति सुत्तमिदमसंबद्धमिदि ? ण एस दोसो, तिस्से सेढीए असंखेज्जदिमागस्स सेढीए वा आयामो त्ति णेवं वत्तव्यं, भिण्णाहियरणता विसेसणस्स फलाभावादो च । किंतु सेढीए असंखेज्जदिभागस्स जा सेढी पंती तिस्से सेढीए आयामो त्ति वत्तव्यमिदि । असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ वि पदरंगुल-घणंगुलादिभेदेण असंखेज्जवियप्पाओ त्ति सेढिपढमवग्गमूलादिहेटिमसंखापडिसेहटुं 'पढमादियाणं सेढिवग्गमूमणं संखेज्जाणं अण्णोण्णब्भासेण' ति वुत्तं । तत्थ सेढिपढमवग्गमूलमादिं काऊण हेहा वारसण्हं वग्गमूलाणं अण्णोण्णब्भासो विदियपुढविणेरइयमिच्छाइद्विदयपमाणं होदि । तं चेव आदि करिय हेट्ठा दसण्हं वग्गमूलाणं अण्णोण्णभासे कदे तदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं हवदि । तं चेव आदि करिय अट्टण्हं वग्गमूलाणं संवग्गो चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं हवदि । छण्हं सेढिवग्गमूलाणं संवग्गो पंचमपुढविदव्वं होदि। तिण्हं संवग्गो छट्ठमपुढविदव्वं होदि । दोण्हं संवग्गो सत्तमपुढविदव्वं होदि । एत्तियाणं वग्गमूलाणं
स्त्रीलिंग निर्देश है। अतः इन दोनों पदोंका समान अधिकरण नहीं है, इसलिये यह पूर्वोक्त सूत्र असंबद्ध है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहां पर 'तिस्से सेढीए ' इस पदका श्रेणीके असंख्यातवें भागका आयाम अथवा जगश्रेणीका आयाम ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिये, क्योंकि, इससे भिन्नाधिकरणत्व प्राप्त हो जाता है और विशेषणकी कोई सार्थकता नहीं रहती है । किंतु प्रकृतमें 'जगश्रेणीके असंख्यातवें भागकी जो श्रेणी अर्थात् पंक्ति है उस श्रेणीका आयाम' ऐसा अर्थ करना चाहिये । असंख्यात कोटि योजन भी प्रतरांगुल और घनांगुल आदिके भेदसे असंख्यात प्रकारका है, इसलिये जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल, द्वितीय वर्गमूल आदि नीचेकी संख्याका प्रतिषेध करनेके लिये सूत्र में · जगश्रेणीके प्रथमादि संख्यात वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे' इतना पद कहा है। उनमेंसे यहां जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे लेकर नीचेके बारह वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जितनी संख्या उत्पन्न हो उतना दूसरी पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण है। तथा जगश्रेणीके उसी पहले वर्गमूलसे लेकर दश वर्गमूलेोके परस्पर गुणा करने पर तीसरी पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है। तथा जगश्रेणीके उसी प्रथम वर्गमूलसे लेकर आठ वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करने पर जो राशि आवे उतना चौथी पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है। तथा जगश्रेणीके प्रथमादि छह वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है । तथा जगश्रेणीके प्रथमादि तीन वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना छठी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है। तथा पहले और दूसरे वर्गमूलके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है।
शंका- इतने इतने वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करने पर द्वितीयादि पृथिवियोंके मिथ्या
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१, २, २२.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[२०१ संवग्गं कदे विदियादिपुढविमिच्छाइट्ठीणं दव्वपमाणं होदि त्ति कधं जाणिजदे ? आइ. रियपरंपरागय-अविरुद्धोवदेसादो जाणिजदि ।
वारस दस अट्ठेव य मूला छत्तिय दुगं च' णिरएसु ।
'एक्कारस णव सत्त य पण य चउक्कं च देवेसु ।। ६७ ॥ एदासिं अवहारकालपरूवयगाहासुत्तादो वा परियम्मपमाणादो वा जाणिजदे ।
एदासिं पुढवीणं दव्यमाहप्पजाणावणहूँ किंचि अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहाविदियपुढविमिच्छाइदिव्यं तदियपुढविमिच्छाइहिदव्वादो ताव उप्पाइज्जदे । वारस
दृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- आचार्य परंपरासे आये हुए अविरुद्ध उपदेशसे जाना जाता है कि इतने इतने वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करने पर द्वितीयादि पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है। अथवा
___ नारकियोंमें द्वितीयादि पृथिवियोंका द्रव्य लानेके लिये जगश्रेणीका बारहवां, दशवां, आठवां, छठा, तीसरा और दूसरा वर्गमूल अवहारकाल है और देवोंमें सानत्कुमार आदि पांच कल्पयुगलोंका द्रव्य लानेके लिये जगश्रेणीका ग्यारहवां, नौवां, सातवां, पांचवां और चौथा वर्गमूल अवहारकाल है ॥ ६७ ॥
___ इन अवहारकालोंके प्ररूपण करनेवाले इस गाथा सूत्रसे जाना जाता है। अथवा, परिकर्मके वचनसे जाना जाता है कि जगश्रेणीके प्रथमादि इतने इतने वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे द्वितीयादि पृथिवियोंका द्रव्य आता है।
विशेषार्थ- एक वर्गात्मक राशिके प्रथम आदि जितने वर्गमूल होंगे उनमेंसे जिस वर्गमूलका उक्त वर्गात्मक राशिमें भाग देनेसे जो लब्ध आयगा वह, जिस वर्गमूलका भाग दिया उस वर्गमूलतक प्रथमादि वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न होगी, उतना ही होगा । उदाहरणार्थ ६५५३६ में उसके चौथे वर्गमूल २ का भाग देनेसे ३२७६८ लब्ध आते हैं। अब यदि प्रथमादि चार वर्गमूलोंका परस्पर गुणा किया तो भी ३२७६८ प्रमाण ही राशि उत्पन्न होगी। ६५५३६ का पहला वर्गमूल २५६, दूसरा १६, तीसरा ४ और चौथा २ है। अब इनके परस्पर गुणा करनेसे २५६ ४ १६४४४२ = ३२७६८ ही आते हैं। पर नरकोंमें जो अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा राशियां बतलाई हैं उनके निकालने में कल्पित वर्गमूल लिये गये हैं, इसलिये ही वहां यह नियम नहीं घटाया जा सकता है।
अब इन पृथिवियोंके द्रव्यके महत्त्वका ज्ञान करानेके लिये किंचित् अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इसप्रकार है- उसमें भी पहले दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको तीसरी पृथिवीके
१ प्रतिषु 'दु पंच' इति पाठः । इयं गाथा पूर्वमपि ६६ क्रमाङ्कनागता। २ तत्तो (देवेषु ) एगार-णव-सग-पण-चउणियमूलभाजिदा सेदी। गो. जी. १६२.
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२०२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, २२.
वग्गमूलेण एकारसवग्गमूलं गुणिय तदियपुढविमिच्छाइडिदव्य म्हि गुणिदे विदियपुढवि मिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । तस्स गुणगारस्स अद्धच्छेदणयमेत्तवारं तदियपुढविमिच्छाइदिव्वं दुगुणिदे' विदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । अहवा गुणगारद्वच्छेदणय सलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्मत्थरासिणा तदिय पुढविमिच्छाइदिव्वम्हि गुणिदे विदिय पुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । जहा तीहि पयारेहि तदियपुढविदव्वादो विदियपुढविदव्वमुप्पादं तहा सेसचउपुढविदव्बेर्हितो तीहि तीहि पयारेहि विदिय पुढविदन्त्रमुप्पादेदव्वं । एवमुप्पादिदे पण्णारस भंगा लद्धा भवंति ।
मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे उत्पन्न करते हैं- जगश्रेणी के बारहवें वर्गमूलसे जगश्रेणी के ग्यारहवें वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके गुणित करने पर दूसरी पृथिवीके मिध्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है । अथवा, उक्त गुणकारके (बारहवें वर्गमूल से ग्यारहवें वर्गमूलको गुणा करनेसे जो लब्ध आया उसके ) जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके द्विगुणित करने पर भी दूसरी पृथिवीके मिध्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है । अथवा, उक्त गुणकारकी अर्धच्छेद शलाकाओंका विरलन करके और उनको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके गुणित कर देने पर भी दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है । यहां जिसप्रकार उक्त तीन प्रकारसे तीसरी पृथिवीके द्रव्य से दूसरी पृथिवीका द्रव्य उत्पन्न किया है, उसीप्रकार चौथी आदि शेष चार पृथिवियोंके द्रव्यसे उक्त तीन तीन प्रकारसे दूसरी पृथिवीका द्रव्य उत्पन्न कर लेना चाहिये । इसप्रकार उत्पन्न करने पर पंद्रह भंग प्राप्त होते हैं ।
विशेषार्थ - चौथी पृथिवीकी अपेक्षा दूसरी पृथिवीका द्रव्य उत्पन्न करते समय जगश्रेणीके नौवें वर्गमूलसे बारहवें वर्गमूलतक चार वर्गमूलों के परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे चौथी पृथिवीके द्रव्यको गुणित करने पर दूसरी पृथिवीका द्रव्य आता है। पांचवी पृथिवीकी अपेक्षा जगश्रेणीके सातवें वर्गमूलसे लेकर बारहवें वर्गमूलतक छह वर्गमूलों के परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे पांचवी पृथिवीके द्रव्यको गुणित करने पर दूसरी पृथिवीका द्रव्य आता है । छठी पृथिवीकी अपेक्षा जगश्रेणीके चौथे वर्गमूलसे लेकर बारहवें वर्गमूलतक नौ वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे छठी पृथिवीके द्रव्यको गुणित करने पर दूसरी पृथिवीका द्रव्य आता है। सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा जगश्रेणी के तीसरे वर्गमूलसे लेकर बारहवें वर्गमूलतक दश वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे सातवीं पृथिवीके द्रव्यके गुणित करने पर दूसरी पृथिवीका द्रव्य आता है । गुणकार राशिके अर्धच्छेदों का विरलनादि करते समय
१ क प्रतौ ' गुणिदे ' इति पाठः ।
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१, २, २२.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[२०३ संपहि पढमपुढविमिच्छाइदिव्वादो विदियपुढविमिच्छाइढिदव्वस्स उप्पादणविहाणं वुच्चदे- पढमपुढविविक्खंभसूचिगुणिदसेढिवारसवग्गमूलेण पढमपुढविमिच्छाइटिदव्वम्हि भागे हिदे विदियपुढविमिच्छाइहिदव्यमागच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते पढमपुढविदव्वस्स अद्धच्छेदणए कदे वि विदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वमागच्छदि । सेढिवारसवग्गमूलस्स अद्धच्छेदणाओ पढमपुढविविक्खंभसूचीअद्धच्छेदणयसहिदाओ विरालय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा पढमपुढविमिच्छाइद्विदव्वम्हि भागे हिदे विदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वमागच्छदि । एदे तिण्णि भंगा पुबिल्लपण्णारसभंगेसु पक्खित्ते विदियपुढवीए अट्ठारस भंगा हवंति । एवं सव्वासिं पुढवीणं पत्तेगं पत्तेगं अट्ठारस भंगा उप्पाएदव्या । सव्वभंगसमासो सदं छव्वीसुत्तरं ।
भी जहां जितने वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करके जो राशि लाई गई हो उसी राशिके अर्धच्छेदोंका विरलन करके और उस विरलित राशिको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो लब्ध आवे उससे उस उस पृथिवीके द्रव्यको गुणित करना चाहिये। अथवा, इसी क्रमसे अर्धच्छेद लाकर उतनीवार उस उस पृथिवीके द्रव्यको द्विगुणित करना चाहिये । इसप्रकार करनेसे दूसरी पृथिवीके द्रव्यका प्रमाण आता है।
अब पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके उत्पन्न करने की विधि बतलाते हैं- पहली पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके भाजित करने पर दूसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है।
उदाहरण–४४ १९३ - ३९३, ९८८१६ : ३९३ = १६३८४ द्वि. पृ. मि. द्र.
उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार भज्यमान राशि प्रथम पृथिवीके द्रव्यके अर्धच्छेद करने पर भी दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है।
अथवा, जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलके अर्धच्छेदों में पहली पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीके अर्धच्छेद मिला देने पर जितना योग हो उतनी राशिका विरलन करके और उसे दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके भाजित करने पर दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। इन तीन भंगोंको पूर्वोक्त पन्द्रह भंगोंमें मिला देने पर दूसरी पृथिवीके अठारह भंग होते हैं। इसीप्रकार
भी पृथिवियोंमें प्रत्येक पृथिवीके अठारह अठारह भंग उत्पन्न कर लेना चाहिये । इन सब भंगोंका जोड़ एकसौ छव्वीस होता है।
विशेषार्थ-प्रथमादि पृथिवियों के द्रव्यकी अपेक्षा दूसरी पृथिवीका द्रव्य किसप्रकार
१ प्रतिषु 'सेदं छब्बीसुत्तरा' इति पाठः ।
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२०४]
छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २२.
आता है, इसका थोडासा विवेचन मूलमें ही किया है। और वहां यह भी कहा है कि इसीप्रकार तृतीयादि पृथिवियोंके द्रव्यके उत्पन्न करनेसे कुल १२६ भंग होते हैं। उनमेंसे जिन १८ भंगोंसे दूसरी पृथिवीका द्रव्य आता है उन १८ भंगोंको १२६ मेंसे कम कर देने पर शेष १०८ भंग रहते हैं । इसलिये आगे उन्हीं १०८ भंगोंका स्पष्टीकरण किया जाता । द्वितीयादि छह पृथिवियोंकी अपेक्षा पहली पृथिवीका द्रव्य उत्पन्न करते समय दुसरी पृथिवीकी अपेक्षा बारहवें वर्गमूलसे, तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा दशवें वर्गमलसे. चौथी पथिवीकी अपेक्षा आठवें वर्गमलसे, पांचवी पृथिवीकी अपेक्षा छठे वर्गमलते. छठी पथिवीकी अपेक्षा तीसरे वर्गमूलसे और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा दूसरे वर्गमूलसे पहले नरककी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीके गुणित करने पर जो लब्ध आवे उससे द्वितीयादि पृथिवियोंके मिथ्यावृष्टि द्रव्यके पृथक् पृथक् गुणित करने पर क्रमशः द्वितीयादि पृथिवियोंकी अपेक्षा पहली पृथिवीका द्रव्य आता है। पहली पृथिवीके द्रव्यकी अपेक्षा तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीका द्रव्य लाते समय पहली पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कभसूचीसे पृथक् पृथक् दशवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूलको गुणित करके जो जो लब्ध आवे उस उससे पहली पृथिवीके द्रव्यके भाजित करने पर पहली पृथिवीकी अपेक्षा क्रमशः तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीका द्रव्य होता है। दूसरी पृथिवीकी अपेक्षा तीसरी पृथिवीकां द्रव्य लाते समय ग्यारहवें और बारहवें वर्गमूलका, चौथी पृथिवीका द्रव्य लाते समय नौवेसे लेकर बारहवें तक चार वर्गमूलोंका, पांचवी पृथिवीका द्रव्य लाते समय सातवेंसे लेकर बारहवे तक छह वर्गमूलोंका, छठी पृथिवीका द्रव्य लाते समय चौथेसे लेकर बारहवें तक नौ वर्गमूलोंका,सातवीं पृथिवीका द्रव्य लाते समय तीसरेसे लेकर बारहवें तक दश वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि आवे उस उसका भाग दूसरी पृथिवीके द्रव्यमें देने पर क्रमशः दूसरी पृथिवीकी अपेक्षा तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीका द्रव्य आता है। तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा चौथी पृथिवीका द्रव्य लाते समय नौवें और दशवें वर्गमूलका, पांचवी पृथिवीका द्रव्य लाते समय सातवेंसे लेकर दशवें तक चार वर्गमूलोंका, छठीका द्रव्य लाते समय चौथेसे लेकर दशर्वे तक सात वर्गमूलोंका और सातवीं पृथिवीका द्रव्य लाते समय तीसरेसे लेकर दशवें तक आठ वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि उत्पन्न हो उस उससे तीसरी पृथिवीके द्रव्यके भाजित करने पर क्रमशः चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी अपेक्षा पांचवी पृथिवीका द्रव्य लाते समय सातवें और आठवें वर्गमूलका, छठी पृथिवीका द्रव्य लाते समय चौथेसे लेकर आठवें तक पांच वर्गमूलौका, सातवीं पृथिवीका द्रव्य लाते समय तीसरेसे लेकर आठवें तक छह वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि उत्पन्न हो उस उससे चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके भाजित करने पर क्रमशः पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य उत्पन्न होता है । पांचवी पृथिवीकी अपेक्षा छठी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य लाते समय चौथे, पांचवे और छठे वर्गमूलका तथा सासवीं
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१, २, २२.]
दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[२०५
पृथिवीका द्रव्य लाते समय तीसरेसे लेकर छठे तक चार वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि उत्पन्न हो उस उससे पांचवी पृथिवीके द्रव्यके भाजित करने पर क्रमशः छठी और सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। छठी पृथिवीकी अपेक्षा सातवीं पृथिवीका द्रव्य लाते समय तीसरे वर्गमूलसे छठी पृथिवीके द्रव्यके भाजित करने पर सातवीं पृथिवीका द्रव्य आता है। चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा तीसरी पृथिवीका द्रव्य लाते समय चौथीकी अपेक्षा नौवें और दशवें वर्गमूलका, पांचवीकी अपेक्षा सातवेंसे लेकर दश तक चार वर्गमूलोंका, छठीकी अपेक्षा चौथेसे लेकर दशवेंतक सात वर्गमूलोंका और सातवींकी अपेक्षा तीसरेसे लेकर दशतक आठ वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि उत्पन्न हो उस उससे चौथी, पांचवी, छठी और सातवींके द्रव्यके गुणित कर देने पर क्रमशः चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा तीसरी पृथिवीका द्रव्य आता है। पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा चौथी पृथिवीका द्रव्य लाते समय पांचवीकी अपेक्षा सातवें और आठवें वर्गमूलोंका, छठीकी अपेक्षा चौथेसे लेकर आठवें तक पांच वर्गमूलोंका, सातवींकी अपेक्षा तीसरेसे लेकर आठवेंतक छह वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करके जो जो राशि आवे उस उससे पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीके द्रव्यके गुणित करने पर क्रमशः पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी अपेक्षा चौथी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। छठी और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा पांचवी पृथिवीका द्रव्य लाते समय छठीकी अपेक्षा चौथेसे लेकर छठेतक तीन वर्गमूलोंका और सातवींकी अपेक्षा तीसरेसे लेकर छठेतक चार वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करके जो जो राशि आवे उस उससे छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके गुणित करने पर क्रमशः छठी और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा पांचवी पृथिवीका मिथ्याटष्टि द्रव्य आता है। तथा सातवीं पृथिवीके द्रव्यको तीसरे वर्गमूलसे गुणित करने पर सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी अपेक्षा छठी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। पहले जहां ऊपरकी पृथिवियोंसे नीचेकी पृथिवियोंका द्रव्य उत्पन्न करते समय जो जो भागहार कह आये हैं उस उसके अर्धच्छेद करके तत्प्रमाण भाज्य राशिके आधे आधे करने पर भी नीचेकी पृथिवियोंका द्रव्य आ जाता है। अथवा, अर्धच्छेदप्रमाण दो रखकर उनके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि आवे उसका भाज्य राशिमें भाग देने पर भी नीचेकी पृथिवियोंका द्रव्य आ जाता है। उसीप्रकार नीचेकी पृथिवियोंसे ऊपरकी पृथिवियोंका द्रव्य लाते समय जहां जो गुणकार हो उसके अर्धच्छेदोंका जितना प्रमाण हो उतनीवार गुण्य राशिके दूने दूने करने पर ऊपरकी पृथिवियोंका द्रव्य आता है। अथवा उक्त अर्धच्छेदप्रमाण दो रखकर उनके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि हो उससे गुण्य राशिके गुणित कर देने पर भी ऊपरकी पृथिवियोंका द्रव्य आ जाता है। इसप्रकार ये कुल भंग १०८ हुए इनमें दूसरी पृथिवीके १८ भंग मिला देने पर सातों पृथिवियोंके द्रव्य निकालनेके १२६ भंग होते हैं।
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२०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २३. सासणसम्माइहिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइटित्ति ओघ ॥२३॥
पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तं पडि विसेसाभावादो विदियादिपुढविगुणपडिवण्णाणं परूवणा ओघमिदि वुत्ता दव्वट्ठियसिस्साणुग्गहढें। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे विसेसो अस्थि चेव, अण्णहा एगपुढविगुणपडिवण्णाणं सत्तपमाणाणवत्था च दुप्पडिसेज्झा पसज्जदे। तं (गुणपडिवण्णजीवविसेसं पुव्वाइरियाणमविरुद्धोवएसेण आइरियपरंपरागदेण वत्तइस्सामो)। तें जहा- पुवमुप्पाइयसामण्णणेरड्यअसंजदसम्माइट्टिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पढम
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें द्वितीयादि छह पृथिवियोंमेंसे प्रत्येक पृथिवीके नारकी जीव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ २३ ॥
विशेषार्थ-इस सूत्रमें 'दद्वपमाणेण केवडिया' अर्थात् द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ऐसा पृच्छावाक्य नहीं पाया जाता जिससे सूत्रसंख्या २ की टीकामें जो उक्त पृच्छावाक्यका फल स्वकर्तृत्वनिराकरणपूर्वक आप्तकर्तृत्वप्रतिपादन बतलाया है उसकी यहां आकांक्षा रह जाती है। तथापि सूत्र सदैव संक्षेपार्थ हुआ करते हैं और उनमें यह सार्वत्रिक नियम है कि 'सूत्रेष्वदृष्टं पदं सूत्रान्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र' अर्थात् जो अपेक्षित पद प्रस्तुत सूत्रमें न पाया जाय उसकी अन्य सूत्रोंसे अनुवृत्ति सदैव कर लेना चाहिये । इसप्रकार प्रस्तुत सूत्रमें भी उक्त पृच्छापदकी अनुवृत्ति हो जाती है। आगे भी जहां कहीं उक्त पद न पाया जाय वहां इसी नियमका अधिकार समझ लेना चाहिये ।
द्वितीयादि गुणस्थानोंकी सामान्य संख्या और द्वितीयादि पृथिवियों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी संख्या, ये राशियां पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वके प्रति समान हैं, इसलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा रखनेवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिये द्वितीयादि पृथिवियोंके गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी संख्या सामान्य प्ररूपणाके समान है, ऐसा कहा । पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने पर तो गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य नारकी जीवोंकी संख्या और द्वितीयादि पृथिवियोंके गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी संख्या, इन दोनों में विशेष है ही। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो एक पृथिवीके गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंकी संख्या और सातों पृथिवियोंके गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंकी संख्या एकसी हो जायगी जिसके निषेधके दुष्कर होनेका प्रसंग आ जाता है। अब गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंके उस विशेषको आचार्य-परंपरासे आये हुए पूर्वोचार्योंके अविरुद्ध उपदेशके अनुसार बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
____सामान्य नारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल जो पहले उत्पन्न करके बतला आये हैं, उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी नारक सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें ही मिला देने पर प्रथम पृथिवीके असंयत.
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१, २, २३.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिभागाभागपरूवणं
[२०७ पुढविअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे पढमपुढविसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहिं गुणिदे सासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे विदियाए असंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे' सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइहिअवहारकालो होदि । एवं तदियादि जाव सत्तमपुढवि तिअवहारकाला परिवाडीए उप्पाएदव्या । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमस्सुवरि खंडिदादीणं ओघभंगो ।
भागाभाग दवपमाणविसयणिण्णयजणणहं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिस्स अणंतेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा तिरिक्खा होति । सेसस्स अर्णतेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा सिद्धा होति । सेसस्स असंखेज्जेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा देवा होति । सेसस्स असंखेज्जेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा णेरड्या होति । सेसेगभागो मणुसा हवंति। पुणो णेरइयरासिस्स असंखेज्जेसु खंडेसु कदेसु तत्थ बहुभागा पढमपुढवि
सम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल होता है। उस पहली पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर प्रथम पृथिवीके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अवहारकाल होता है। उस पहली पृथिवीके सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर प्रथम नरकका सासादनसम्यग्दष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। पहले नरकके सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर दूसरी पृथिवीका असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। दूसरी पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर दूसरी पृथिवीका सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। उस दूसरी पृथिवीके सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर दूसरी पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसीप्रकार तीसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक अवहारकाल परिपाटी-क्रमसे उत्पन्न कर लेना चाहिये । इन अवहारकालोंके द्वारा पल्योपमके ऊपर खंडित आदिकका कथन सामान्य प्ररूपणाके समान है।
अब द्रव्यप्रमाणविषयक निर्णयका ज्ञान करानेके लिये भागाभागको बतलाते हैंसंपूर्ण जीवराशिके अनन्त भाग करने पर उनमें से बहभाग तिर्यच होते हैं। शेष। अनन्त भाग करने पर उनसे बहुभागप्रमाण सिद्ध होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण देव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण नारकी होते हैं। शेष एक भागप्रमाण मनुष्य होते हैं। पुनः नारक जीवराशिके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके मिथ्याइष्टि जीव
१ प्रतिषु · गुणिदे तम्हि चेव सम्मा-' इति पाठः ।
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२०८] छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१, २, २३. मिच्छाइटी होति । सेसस्स असंखेज्जेसु खंडेसु कदेसु तत्थ बहुभागा विदियपुढविमिच्छाइट्टी होति । एवं तदिय-चउत्थ-पंचम-छह-ससमपुढवीणं अव्यामोहेण भागभागो कायव्यो । पुणो सेसस्स असंखेज्जेमु भागेसु कदेसु तत्थ बहुमागा पढमाए पुढवीए असंजदसम्माइट्टिणो हवंति । सेसस्स असंखेज्जेसु भागेसु कदेमु तत्थ बहुभागा पढमपुढविसम्मामिच्छाइट्ठिणो हवंति । सेसस्स संखेज्जेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुमागा पढमपुढविसासणसम्माइट्ठिणो हवंति । सेसस्स असंखेज्जेमु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा विदियपुढविअसंजदसम्माइट्टिणो हवंति । सेसस्स असंखेजेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुखंडा तत्थतणसम्मामिच्छाइट्ठिणो हवंति । सेसस्स संखेज्जेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा तत्थतणसासणसम्माइट्ठिणो हवंति । एवं तदियादि जाव सत्तमपुढवि त्ति गुणपडिवण्णाणं भागाभागो कायव्यो । एवं भागाभागो समत्तो।
अप्पाबहुगं तिविहं, सत्थाणं परत्थाणं सव्यपरत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणप्पाबहुगं वुच्चदे । सव्वत्थोवा सामण्णणेरइयमिच्छाइटिविक्खंभसूची। अवहारकालो असंखेजगुणो । को गुणगारो ? अवहारकालस्स असंखेजदिभागो । को पडिभागो ? सगविक्खंभ
होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। इसीप्रकार तीसरी, चौथी, पांचवी छठी और सातवीं पृथिवीकी जीवराशिका सावधानीसे भागाभाग कर लेना चाहिये । पुनः सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके सासादनसम्यग्दष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनसे बहुभागप्रमाण दूसरी प्रथिवीके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात भाग करने पर उनसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं । इसीप्रकार तीसरी पृथिवासे लेकर सातवीं पृथिवीतक गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका भागाभाग करना चाहिये।
इसप्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुव, परस्थान अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व । उनमेंसे पहले स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते हैं- सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची सबसे स्तोक है । सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विकभसूचीसे असंख्यातगुणा है। गुणकार १ प्रतिषु — संखेज्जेसु ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' असंखेजेसु ' इति पाठः ।
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१, २, २३.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिअप्पाबहुगपरूवणं
[२०९ सूची। अहवा सेढीए असंखेजदिभागो, असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सगविक्खभसूचीवग्गो घणंगुलपढमवग्गमूलं वा । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूई । दबमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई। पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो। लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढी। सासणसम्माइटि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठीणमोघसस्थाणभंगो । एवं चेव पढमाए पुढवीए । विदियाए पुढवीए सव्वत्थोवो मिच्छाइट्ठिअवहारकालो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगदव्वस्स असंखेजदिभागो। को पडिभागो ? सग. अवहारकालो। अहवा सेढीए असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सगअवहारकालवग्गो सेढिएक्कारसवग्गमूलं वा । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सेढिवारसवग्गमूलं । पदरो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सेढी । लोगो
क्या है ? अपने अवहारकालका असंख्यातवां भाग है। प्रतिभाग क्या है ? अपनी विष्कंभसूची प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका वर्ग प्रतिभाग है । अथवा, घनांगुलका प्रथम वर्गमूल प्रतिभाग है। सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है। जगश्रेणीसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कभसूची गुणकार है। सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे घनलोक असंख्यातगुणा है ? गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है। सामान्य नारक सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्य. ग्मिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व सामान्य स्वस्थान अल्पबहत्वक समान जानना चाहिये । इसीप्रकार पहली पृथिवीमें स्वस्थान अल्पबहुत्व है। दूसरी पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि अवहारकाल सबसे स्तोक है। दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपने द्रव्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है? अपने अवहारकालका (बारहवें वर्गमूलका) वर्ग अथवा जगश्रेणीका ग्यारहवां वर्गमूल प्रतिभाग है। दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? जगश्रेणीका बारहवां वर्गमूल गुणकार है । जगश्रेणीसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है । जगप्रतरसे घनलोक असंख्यातगुणा है। गुणकार
१ प्रतिषु । पढम० ' (अ), 'पढम ' (आ.), 'पढम ' (क.) इति पाठः।
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२१० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, २३.
असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढी । सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठि-असं जदसम्माइणमोघसत्थाणभंगो | तदियादि जाव सत्तमपुढवित्ति एवं चैव सत्थाणप्पा बहुगं वत्तव्वं । णवरि अप्पप्पणी अवहारकाले जाणिऊण भाणिदव्वं ।
परत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामा । सव्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । एवं जाव पलिदोवमो त्ति दव्वं । पलिदोवमादो उवरि सामण्णणेरइयमिच्छाइद्विविक्खभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? विक्खंभसूईए असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? पलिदोवमं । अहवा सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? पलिदोवमगुणिदसूइअंगुलविदियवग्गमूलं । उवरि सत्थाणभंगो । एवं चैव पढमाए पुढवीए । विदियाए पुढवीए सव्वत्थोवो असंजदसम्माइडिअवहारकालो | एवं जाव पलिदोवमो त्ति णेदव्वो । तदो मिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखे जगुणो । को गुणगारो ? वारसवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? पलिदोषमं । उवरि सत्थाणभंगो । एवं तदियादि जाव सत्तमपुढवित्ति परत्थाणप्पाबहुगं वतव्वं । णवरि
क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है । दूसरी पृथिवी के सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व सामान्य स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है । तीसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक स्वस्थान अल्पवद्दुत्वका कथन इसीप्रकार करना चाहिये । विशेष यह है कि प्रत्येक पृथिवीका स्वस्थान अल्पबहुत्व कहते समय अपने अपने अवहारकालको जानकर उसका कथन करना चाहिये ।
अब परस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं- असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकाल सबसे स्तोक है। उससे सम्यग्मिथ्यादृष्टिका, उससे सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल, इसप्रकार अल्पबहुत्व कहते हुए पल्योपम तक ले जाना चाहिये । पल्योपमके ऊपर सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है । अथवा, सूच्यंगुलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? पल्योपमसे सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना प्रतिभाग है । इस विष्कंभसूचीके ऊपर परस्थान अल्पबहुत्व स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार पहली पृथिवीमें परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये ।
दूसरी पृथिवीमें असंयत सम्यग्दृष्टिका अवहारकाल सबसे स्तोक है । इसीप्रकार उत्तरोत्तर अल्पबहुत्व कहते हुए पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है । इसके ऊपर अल्पबहुत्व स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार तीसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । इतना
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१, २, २३.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिअप्पाबहुगपरूवणं [ २११ अप्पप्पणो अवहारकाले जाणिऊण वत्तव्वं ।।
सबपरत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। सव्वत्थोवो पढमपुढविअसंजदसम्माइडि अवहारकालो। सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो? आवलियाए असंखेजदिभागो। सासणसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो। को गुणगारो ? संखेज्जा समया। तदो विदियपुढविअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो असंखेजगुणो । सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । एवं जाव सत्तमाए पुढवीए सासणसम्माइट्टिअवहारकालो त्ति णेयव्वो। तस्सेव दव्बमसंखेज्जगुणं । सम्मामिच्छाइहिदव्वं संखेजगुणं । असंजदसम्माइहिदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिमागो। एवं पडिलोमेण णेदव्वं जाव पढमपुढविअसंजदसम्माइढिदव्वं पत्तमिदि। तदो पलिदोवममसंखेज्जगुणं । तदो पढमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठिविक्खंभसई असंखेज्जगुणा । सामण्णणेरइयमिच्छाइटिविक्खंभसूई विसेसाहिया। तदो विदियपुढविमिच्छाइडिअवहार
विशेष है कि अपना अपना अवहारकाल जानकर ही कथन करना चाहिये।
__ अब सर्व परस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं -पहली पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। उससे पहली पृथिवीके सम्यग्मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे पहली पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। पहली पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे दुसरी पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। दूसरी पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे वहींके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे वहींके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । इसीप्रकार सातवीं पृथिवीतक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालतक ले जाना चाहिये। सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे उन्हींका द्रव्य असंख्यातगुणा है।
म्यग्दृष्टियोंके द्रव्यसे वहींके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य संख्यातगुणा है। सम्यमिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे वहींके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इसीप्रकार उत्तरोत्तर प्रतिलोम पद्धतिसे जब पहली पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य प्राप्त होवे तब तक ले जाना चाहिये। पहली पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंके द्रव्यसे पल्योपम असंख्यातगुणा है। पल्योपमसे पहली पृथिवीके मिथ्याष्टिनारकियोंकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। उक्त विष्कंभसचीसे सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्कंभसूची विशेष अधिक है । सामान्य मिथ्याष्टि नारकियोंकी विष्कंभसूचीसे दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा
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२१२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, २३.
कालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? वारसवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो असंखे आणि तेरसवग्गमूलाणि । तस्स को पडिभागो ! घणंगुलविदियवग्गमूलं । तदिय पुढविमिच्छाविहार कालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो १ दसमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि एक्कारसवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सेढिवारसवग्गमूलं । चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? अट्ठमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि णवमवग्गमूलाणि । को पडिभागो १ दसमवग्गमूलं । पंचमढवि मिच्छाअिवहार कालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? छट्ठवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सत्तमवग्गमूलाणि । तस्स को पडिभागो ? अट्टमवग्गमूलं । छट्ठपुढविमिच्छाइट्ठिअवहार कालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? तदियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि चउत्थवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? छढवग्गमूलं । सत्तमपुढविमिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? तदियवग्गमूलं । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सेढिपढमवग्गमूलं । छट्ठपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं
है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी के बारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणी के असंख्यात तेरहवें वर्गमूलप्रमाण है । उसका प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका द्वितीय वर्गमूल प्रतिभाग है । दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि अवहारकाल से तीसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है ? गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात ग्यारहवें वर्गमूलप्रमाण है । प्रति भाग क्या है ? जगश्रेणीका बारहवां वर्गमूल प्रतिभाग है । तीसरी पृथिवीके मिध्यादृष्टि अवद्वारकालसे चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आठवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात नौवें वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? दशवां वर्गमूल प्रतिभाग है । चौथी पृथिवीके मिध्यादृष्टि अवहारकालसे पांचवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी के छठवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग है जो असंख्यात सातवें वर्गमूलप्रमाण है । उसका प्रतिभाग क्या है ? जगश्रेणीका आठवा वर्गमूल प्रतिभाग है। पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे छठी पृथिवीके मिध्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणी के तीसरे वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है । जो जगश्रेणी के असंख्यात चौथे वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? जगश्रेणीका छठा वर्गमूल प्रतिभाग है । छठवीं पृथिवीके मिध्यादृष्टि अवहारकालसे सातवीं पृथिवीके मिध्यादृष्टियों का अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका तीसरा वर्गमूल गुणकार है । सातवीं पृथिव अवहारकालसे उसीका मिध्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? श्रेणीका प्रथम वर्गमूल गुणकार है। सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे छठवीं पृथिवीका
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१, २, २३.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिअप्पाबहुगपरूवणं
[२१३ असंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? तदियवग्गमूलं। पंचमपुढविमिच्छाइदिवं असंखेजगुणं । को गुणगारो? च उत्थ-पंचम छट्टवग्गाणि अण्णोण्णगुणिदाणि । अहवा सेढितदियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाणि सेढिचउत्थवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? छट्ठमवग्गमूलं । चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्बमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अण्णो णगुणिदसेढिसत्तम-अट्ठमंवग्गमूलाणि । अहवा छट्टमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेजाणि सत्तमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? अट्ठमवग्गमूलं । तदियपुढविमिच्छाइट्टिदबमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अण्णोण्णगुणिदसेढिणवम-दसमवग्गमूलाणि। अहवा अट्टमवग्गमूलस्स असंखेजदि. भागो असंखेज्जाणि णवमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? दसमवग्गमूलं । विदियपुढवि. मिच्छाइट्टिदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अण्णोण्णब्भत्थेक्कारस-वारसवग्गमूलाणि । अहवा दसमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि एकारसवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? वारसवग्गमूलं । सामण्णणेरइयमिच्छाइहि अवहारकालो असंखेज्जगुणो । को
मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका तीसरा वर्गमूल गुणकार है। छठवींके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे पांचवी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके चौथे, पांचवे और छठवे वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना गुणकार है । अथवा, जगश्रेणीके तीसरे वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात चौथे वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? जगश्रेणीका छठा वर्गमूल प्रतिभाग है। पांचवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे चौथी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके सातवें और आठवें वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना गुणकार है। अथवा, जगश्रेणीके छठवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात सप्तम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? जगश्रेणीका आठवां वर्गमूल प्रतिभाग है। दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे तीसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके नौवें
और दशवें वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना गुणकार है। अथवा, जगश्रेणीके आठवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात नौवें वर्गमूल प्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? जगश्रेणीका दशवां वर्गमूल प्रतिभाग है। तीसरीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे दूसरी पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके ग्यारहवें और बारहवें वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो तस्प्रमाण गुणकार है। अथवा, जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगणीके असंख्यात ग्यारहवें वर्गमलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है? जगश्रेणीका बारहवां वर्गमूल प्रतिभाग है। दूसरी पृथिवीके मिथ्याडष्टि द्रव्यसे सामान्य नारकियोंका मिथ्यादृष्टि
१ प्रतिषु अह' इति पाठः ।
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२१४ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, २३.
गुणगारो ? वारसवग्ग मूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि तेरसवग्गमूलाणि डिभागो ! घणंगुलविदियवग्गमूलं । पढमपुढविमिच्छाइट्टि अवहारकालो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? सामण्ण अवहारकालस्स असंखेज्जदि भाग भूदपक्खेव अवहारकालमेतेण । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पढमपुढविमिच्छाइट्ठिविक्खं मसूई । पढमपुढविमिच्छाइदिव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? पढमपुढविमिच्छाइट्टिविक्खंभसूई । सामण्णणेरइयमिच्छाइद्विदव्वं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? सामण्णणेरइयमिच्छा इडिदव्वमसंखेज्जभाग भूदविदियादिछपुढविमिच्छाइदिव्यमेत्तेण । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो | लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढी । एवं णिरयगई समत्ता ।
1
अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी के बारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात तेरहवें वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? गुलका द्वितीय वर्गमूल प्रतिभाग है। सामान्य नारकियोंके मिध्यादृष्टि अवहारकाल से पहली पृथिवीके नारकियों का मिथ्यादृष्टि अवहारकाल विशेष अधिक है । कितनेमात्र विशेष से अधिक है ? सामान्य अवहारकालके असंख्यातवें भागरूप प्रक्षेप अवहारकालरूप विशेषसे अधिक है । पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? पहली पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची गुणकार है । जगश्रेणीसे पहली पृथिवीके मिध्यादृष्टियों का द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पहली पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची गुणकार है । पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्य विशेष अधिक है । कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यके असंख्यातवें भागरूप दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टियों का जितना प्रमाण है तन्मात्रसे विशेष अधिक है । सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यात गुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है |
विशेषार्थ - सर्व परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते समय ऊपर गुणस्थानप्रतिपन्न भसंयतसम्यग्दृष्टि आदि सामान्य नारकियोंका अल्पबहुत्व नहीं कहा गया है । यदि इनके
१ प्रतिषु • सेठी असंखेज्जगुणगारो ' इति पाठः ।
२ दिसावाएणं सध्वत्थोत्रा अहे सत्तमापुढवीनेरइया पुरच्छिमपच्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा । दाहिणेहिंतो अहे सत्तमापुढवीनेरइए हिंतो छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरहया पुरच्छिमपञ्च्चत्थिमउत्तरेणं दाहिणेणं असंखेज्जगुणा । दाहिणिहिंतो तमाए पुढवीनेरइए हिंतो पंचमाए धूमप्पमाए पुढवीए नेरहया पुरच्छिम पच्चत्थिमउतरेणं असंखेज्जगुणा दाहिणेणं असंखेज्जगुणा । दाहिणिहिंतो धूमप्पभापुढवीनेरह एहिंतो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए मेरइया पुरच्छिमपच्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा । दाहिणिल्लेहिंतो पंकप्पभापुढवीनेरइएहिंतो तहयाए वालुयष्पभाए पुढवीए नेरहया पुरच्छिमपच्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा । दाहिणिले हिंतो
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१, २, २४.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२१५ तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ओघं ॥२४॥
एदस्स सुत्तस्स अत्यो उच्चदे । तं जहा- अणंतत्तणेण तिरिक्खगदिमिच्छाइट्ठीणं ओघमिच्छाइट्ठिजीवहिंतो विसेसाभावादो तिरिक्खगइमिच्छाइट्ठीणं दध-खेत्त-काले अस्सिऊण जा ओघमिच्छाइद्विपरूवणा सा सव्वा संभवदि । गुणपडिवण्णागं पि असंखेजत्तणेण ओघपडिवण्णेहि समाणाणं जा ओघपडिवण्णपरूवणा सा सव्या संभवदि । तम्हा दव्वट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे तिरिक्खोघस्स परूषणा ओघववदेस लब्भदे । पञ्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे पुण ओघपरूवणा ण भवदि, तिरिकावगइवदिरित्ततिगदीणमत्थित्तस्स
अल्पबहुत्वको मिलाकर कथन किया जाता तो प्रारंभमें जो प्रथम नरकके असंयतसम्यग्दृष्टियोका अवहारकाल सबसे स्तोक कहा है उसके स्थानमें 'नारक सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है और इससे विशेष अधिक प्रथम पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल है, इत्यादि कहा जाता। पर यहां पर इस सब कथनको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया है, यह बतलाना कठिन है।
इसप्रकार नरकगतिका वर्णन समाप्त हुआ। तियंच गतिका आश्रय करके तिर्यचोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिथंच सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ २४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-तिर्यंचगतिके मिथ्याष्टियों में ओघ मिथ्यादृष्टि जीवोंसे अनन्तत्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिये द्रव्य, क्षेत्र और कालप्रमाणका आश्रय करके जो ओघ मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा है वह संपूर्ण तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके संभव है। उसीप्रकार गुणस्थानप्रतिपन्न तियंच भी असंख्यातत्वकी अपेक्षा सामान्य गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके समान हैं, इसलिये गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य जीवोंकी जो प्ररूपणा है वह संपूर्ण गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यंचोंके संभव है। अतएव द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सामान्य तिर्यंचोंकी प्ररूपणा ओघ व्यपदेशको प्राप्त होती है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सामान्य प्ररूपणा तिर्योंके नहीं पाई जाती है, क्योंकि, यदि ऐसा नहीं माना जाय तो तिर्यंच गतिके अतिरिक्त शेष तीन गतियोंका अस्तित्व ही नहीं
वालुयप्पभापुढवीनेरइएहिंतो दोच्चाए सक्करप्पभाए पुटवीए नेरइया पुरच्छिमपच्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। दाहिणिल्हहिंतो सकरप्पमापुटवीनेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पढवीए नेरहया पुरच्छिमपच्चस्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। प्र, सू. ३, १. पृ. ३४८-३५०.
१ तिर्यग्गतौ तिरश्वां मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । सासादनसम्यग्दृष्टयः संयतासंयतान्ताः पल्योपमासंख्येय. मागप्रमिताः । स. सि. १, ८. संसारीxx तिगदिहीणयाxx सामण्णाxx तेरिक्खा। गो. जी. १५५.
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२१६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, २४.
हाणुववत्तदो । तदो पज्जवडियणए अवलंबिज्जमाणे ओघपरूवणादो तिरिक्खगदिपरूवणाए णाणत्तं वत्तइस्सामो । सव्वजीवरासिस्सुवरि सगुणपडिवण्णसिद्धतिगदिरासि पक्खिविय पुणो तेसिं चेव वग्गं तिरिक्खमिच्छाइडिरासिभजिदं च पक्खित्ते तिरिक्खामिच्छाsahi वरासी होदि । एसो मिच्छाइट्ठिपरूवणम्हि विसेसो ? गुणपडिवण्णपरूवणाए विसेसं वत्तस्सामा । तं जहा - देवसासणसम्म इडिअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभार्गेण गुणिदे तिरिक्खअसजद सम्माइडिअवहारकालो होदि । सो आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे तिरिक्खसम्मामिच्छाइट्ठि अवहारकालो होदि । सो संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माविहार कालो हो । सो आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे तिरिक्खसंजदासंजदअवहार कालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे तिरिक्खगदिगुणपडिवण्णाणं रासीओ हवंति' । एसो गुणपडिवण्णपरूवणाए विसेसो, णत्थि अण्णहि कहि वि ।
बन सकता है । अतः पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर ओघ प्ररूपणासे तिर्यच गतिकी प्ररूपणा में भेद है । आगे इसी बात को बतलाते हैं
संपूर्ण जीवराशि गुणस्थानप्रतिपन्न तीन गतिसंबन्धी जीवराशि और सिद्धराशिको मिलाकर पुनः गुणस्थानप्रतिपन्न तीन गतिसंबन्धी जीवराशि और सिद्धराशिके वर्गको तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवराशि से भाजित करके जो लब्ध आवे उसे भी पूर्वोक्त राशिमें मिला देने पर तिर्यच मिथ्यादृष्टियों की ध्रुवराशि होती है । तिर्यच मिथ्यादृष्टियों की प्ररूपणा में इतना विशेष है ।
विशेषार्थ - यहां पर ध्रुवराशिरूपसे जो तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवराशिके उत्पन्न करने के लिये भागहार उत्पन्न करके बतलाया है, इसका भाग संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें देने से तिथंच मिध्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण आता है ।
अब आगे गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी प्ररूपणामें विशेषताको बतलाते हैं । वह इसप्रकार है— देव सासादन सम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलकेि असंख्यातवें भाग गुणित करने पर तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल होता है । तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तिर्यच सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल होता है । तिर्यच सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल होता है । तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तिर्यच संयतासंयतों का अवहारकाल होता है । इन अवहारकालोंसे पल्योपमके भाजित करने पर गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यचोंकी राशियां होती हैं । यही गुणस्थानप्रतिपन्न प्ररूपणाकी विशेषता | अन्य कथनमें कहीं भी कोई विशेषता नहीं है ।
१ प्रतिषु ' हवदि ' इति पाठः ।
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१, २, २६.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२१५ संपहि अणंतरासीसु दव्वपरूवणादो कालपरूवणा सुहुमा भवदु णाम, तत्थ अणताणतस्स पुन्वमणुवलद्धस्स उवलद्धीदो अदीदकालादो अणंतगुणतुवलंभादो च । ण कालपरूवणादो खेत्तपरूवणा सुहुमा, अधिगोवलद्धीए अणिमित्तत्तादो। तदो परूवणपरिवाडी ण घडदे इदि ? ण, अणंतलोगमेत्ताणं एगलोगम्मि अवगासो अस्थि त्ति विसेसुवलंभादो कालादो खेत्तस्स सुहुमत्तं पडि विरोहाभावादो ।
(पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ २५ ॥)
एदस्स सुत्तस्स णिरओघदव्यपरूवणासुत्तस्सेव वक्खाणं कायव्वं । एवं कए दवपरूवणा गदा भवदि ।
(असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरति कालेण ॥ २६ ॥)
शंका- अनन्तप्रमाण राशियोंमें द्रव्यप्ररूपणासे कालप्ररूपणा सूक्ष्म रही भाभो, क्योंकि, कालप्ररूपणामें पहले नहीं उपलब्ध हुए अनन्तानन्तकी उपलब्धि पाई जाती है, और अतीतकालसे अनन्तगुणत्व पाया जाता है। परंतु कालप्ररूपणाले क्षेत्रप्ररूपणा सूक्ष्म नहीं हो सकती है, क्योंकि, क्षेत्रप्ररूपणामें अधिक उपलब्धिका कोई निमित्त नहीं पाया जाता है। इसलिये द्रव्यप्ररूपणाके अनन्तर कालप्ररूपणा और कालप्ररूपणाके अनन्तर क्षेत्रप्ररूपणा, इसप्रकार प्ररूपणाकी परिपाटी नहीं बन सकती है?
__ समाधान-नहीं, अनन्त लोकमात्र द्रव्योंका एक लोकमें अवकाश पाया जाता है, इसप्रकारकी विशेषताकी उपलब्धि होनेसे कालकी अपेक्षा क्षेत्र सूक्ष्म है, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
__ पंचेन्द्रिय तियंच मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ २५॥
___ सामान्य नारकियोंके द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा प्ररूपण करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके समान ही इस सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये (देखो सूत्र १५)। इसप्रकार व्याख्यान करने पर द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा समाप्त होती है।
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ २६ ॥
१ संसारी पंचक्खा तप्पुण्णा तिगदिहीणया कमसो। सामण्णा पंचिंदी पंचिंदियपुण्णतेरिक्खा ॥ गो.बी.१५५.
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२१८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २६. एदस्स सुत्तस्स वि दोहि पयारेहि अवदार' परूविय णिरओघकालपरूवणासुत्तस्सेव वक्खाणं कायव्वं । एत्थ मिच्छाइट्ठिणिदेसो किमहूँ ण कदो १ ण, अणंतरादीदसुत्तादो मिच्छाइट्टि त्ति अणुवट्टमाणसादो।
अध सिया असंखेज्जासंखेज्जासु ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीसु अदिकंतासु तिरिक्खगईए पंचिंदियतिरिक्खाणं वोच्छेदो हवदि, पंचिंदियतिरिक्खट्ठिदीए उवरि तत्थ अवट्ठाणाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, एइंदिय-विगलिंदिएहितो देव-णेरइय-मणुस्सेहिंतो च पंचिंदियतिरिक्खेसुप्पज्जमाणजीवसंभवादो। आयविरहिय-सव्वयरासीए वोच्छेदो हवदि । एसा पुण सव्वया आयसहिया चेदि ण वोच्छिज्जदे । सम्मामिच्छाइद्विरासीव किं ण भवदीदि चेण्ण, तत्थ गुणहिदिकालादो अंतरकालस्स बहुत्तुवलंमादो। ण च एत्थ पंचिंदियतिरिक्खेसु भवद्विदिकालादो विरहकालस्स बहुत्तणमत्थि, अंतरकालस्स अंतो
इस सूत्रका भी दोनों प्रकारसे अवतारका प्ररूपण करके सामान्य नारकियोंके काल प्रमाणकी अपेक्षा प्ररूपण करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके समान व्याख्यान करना चाहिये (देखो सूत्र १६)।
शंका-इस सूत्रमें मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अनन्तर पूर्ववर्ती सूत्रसे 'मिथ्याष्टि' इस पदकी अनुवृत्ति चली आ रही है।
शंका-कदाचित् असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके निकल जाने पर तिर्येचगतिके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका विच्छेद हो जायगा, क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यचकी स्थितिके ऊपर तिर्यंचगतिमें उनका अवस्थान नहीं रह सकता है ? ।
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमेंसे तथा देव, नारकी और मनुष्योंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यों में उत्पन्न होनेवाले जीव संभव हैं। जो राशि व्ययसहित और आयरहित होती है उसका ही सर्वथा विच्छेद होता है। परंतु यह पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि राशि तो व्यय और आय इन दोनों सहित है, इसलिये इसका विच्छेद नहीं होता है
शंका-जिसप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशि कदाचित् विच्छिन्न हो जाती है, उसीप्रकार यह राशि भी क्यों नहीं होती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां पर गुणस्थानके कालसे अन्तरकाल बड़ा है, इसलिये सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशिका कदाचित् विच्छेद हो जाता है। परंतु यहां पंचेन्द्रिय तिर्यों में भवस्थितिके कालसे विरहकाल बड़ा नहीं है, क्योंकि, आगममें पंचेन्द्रिय तिर्योंके अन्तर
१ अप्रतौ अवहारं ' इति पाठ।
२ प्रतिषु ' सव्वरासीए ' इति पाठः।
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१, २, २७.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवर्ण [२१९ मुहुत्तुवएसादो। भवढिदिकालस्स' सादिरेयतिण्णिपलिदोवमोवदेसादो । 'णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा' त्ति सुत्तादो वा विरहाभावो णबदे । एवं कालपरूवणा गदा ।
खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणकालेण ॥ २७ ॥
__ असिद्धण देवअवहारकालेण कधं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो साहिज्जदे ? ण एस दोसो, अणाइणिहणस्स आगमस्स असिद्धत्ताणुववत्तीदो। अणवगमो असिद्धत्तणमिदि चे ण, वक्खाणादो तदवगमसिद्धीदो। संपहि वेसय-छप्पण्णंगुलवग्गमावलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि। अहवा आवलियाए असंखेज्जदिभागेण वेसय-छप्पण्णमेत्तसूचिअंगुलेसु भागे हिदेसु तत्थ ज लद्धं तं वग्गिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । अहवा पुचिल्ल. मावलियाए असंखेज्जदिभागं वग्गेऊण पण्णहिसहस्स-पंचसय-छत्तीसमेत्तपदरंगुलेसु भागे
कालका अन्तर्मुहर्तमात्र उपदेश पाया जाता है; और भवस्थिति कालका कुछ आधिक तीन पल्योपमका उपदेश दिया है। इसलिये पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि राशिका विच्छेद नहीं होता है । अथवा, 'नाना जीवोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीव सर्व काल रहते हैं। इस सूत्रसे भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका विरहाभाव जाना जाता है। इसप्रकार काल. प्ररूपणा समाप्त हुई।
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा देवोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणे हीन कालसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ २७॥
शंका -देवोंका प्रमाण लानेके लिये जो अवहारकाल कहा है वह असिद्ध है, इसलिये असिद्ध देव अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल कैसे साधा जाता है ?
समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अनादिनिधन आगम असिद्ध नहीं हो सकता है।
शंका-आगमका ज्ञान नहीं होना ही आगमका आसिद्धत्व है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, व्याख्यानसे आगमके ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है।
अब बतलाते हैं कि दोसौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। अथवा, आपलीके असंख्यातवें भागसे दोसौ छप्पन सूच्यंगुलोंके भाजित करने पर वहां जो लब्ध आवे उसका वर्ग कर देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अपहारकाल होता है । अथवा, पहले स्थापित आवलीके असंख्यातवें भागको वर्गित करके जो प्रमाण आवे उससे पेंसठ हजार पांचसो
१ प्रतिषु । अव द्विदिकालस्स' इति पाठः।
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२२०] छक्खडागमे जीवठाणं
[ १, २, २७. हिदेसु पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि। अहवा पण्णट्ठिसहस्स-पंचसय-छत्तीसरूवोवट्टिदआवलियाए असंखेज्जदिमागस्त वग्गेण पदरंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि।
एत्थ खंडिदादिविहिं वत्तइस्सामो । तं जहा- पदरंगुले असंखेज्जे खंडे कए एवं खंडं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि । खंडिदं गदं । आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पदरंगुले भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । भाजिदं गदं । आवलियाए असंखेज्जदिभागं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स पदरंगुलं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगखंडं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि । विरलिदं गदं । तमवहारकालं सलागभूदं ठवेऊण पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्टिअवहारकालपमाणेण पदरंगुलादो अवहिरिज्जदि सलागाहिंतो एगरूवमवणिज्जदि । एवं पुणो पुणो अवणिज्जमाणे सलागाओ पदरंगुलं च जुगवं णिद्विदं । तत्थ आदीए वा अंते वा मज्झे वा एगवारमवहिदपमाणं पंचिंदियतिरिक्ख.
छत्तीसमात्र प्रतरांगुलोंके भाजित करने पर पंचेन्दिय तियंच मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। अथवा, पेंसठ हजार पांचसौ छत्तीससे आवलीके असंख्यातवें भागके वर्गको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तियंच मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकाल आता है। अब यहां खंडित आदिककी विधिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
प्रतरांगुलके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे एक खंडप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसप्रकार खंडितका वर्णन समाप्त हुआ। आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ। आवलीके असंख्यातवें भागको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रतरांगलको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर उनमेंसे एक विरलनके प्रति प्राप्त एक खंडप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ। उस आवलीके असंख्यातवें भागरूप अवहारकालको शलाकारूपसे स्थापित करके अनन्तर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालके प्रमाणको प्रतरांगुलमेसे घटा देना चाहिये। एकबार घटाया इसलिये शलाकाराशिमेंसे एक कम कर देना चाहिये। इसप्रकार पुनः पुनः प्रतरांगुलमेंसे आवलीके असंख्यातवें भागको और शलाकाराशिमेंसे एकको उत्तरोत्तर कम करते जानेपर शलाकाराशि और प्रतरांगुल एक साथ समाप्त होते हैं । यहां पर आदिमें अथवा मध्यमें अथवा अन्तमें एकवार जितना प्रमाण घटाया उतना पंचेन्द्रिय तिर्यव मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इसप्रकार
अ-प्रती होदि', आ-प्रतौ होदि आगच्छदि' इति पाठः । २ प्रतिषु ‘णिदिटुं' इति पाठः।
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१, २, २७. ]
दव्यमाणागमे तिक्खिगदिपमाणपरूवणं
[ २२१
मिच्छाइडिअवहार कालो होदि । अवहिदं गदं । तस्स पमाणं पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाणि सूचिअंगुलाणि । पमाणं गदं । केण कारणेण ? सूचि अंगुलेण पदरंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलमागच्छदि । सूविअंगुलपढमवग्गमूलेण पदरंगुले मागे हिदे सूचिअंगुल - पढमवग्गमूलम्हि जत्तियाणि रुवाणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि लब्भंति । एवमसंखेज्जाणि गणाणि ट्ठा ओसरिऊण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पदरंगुले भागे हिदे असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि आगच्छंति । कारणं गदं । आवलियाए असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धम्मि जत्तियाणि रूत्राणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि । अहवा आवलियाए असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुलपढमवग्गमूलमवहरिय लद्वेण सूचिअंगुल - पढमवग्गमूलं चेव गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रुवाणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एवं गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण आलिया भागे हिदाए लद्वेण आवलियं गुणियं तदो पदरावलियं गुणिय एवं जाव सूचिअंगुलपढमवग्गमूलं ति निरंतरं सयलबग्गाणं अण्णोष्णवभत्ये कदे तत्थ जत्तियाणि
अपहृत का कथन समाप्त हुआ। उस पंचेन्द्रिय तिर्येच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण प्रतरांगुलके असंख्यातवें भाग है जो असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण होता है । इसप्रकार प्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ ।
शंका - पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिध्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण असंख्यात सूच्यंगुल किस कारण से है ?
समाधान - सूच्यंगुलसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर एक सूच्यंगुलका प्रमाण आता | सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका जितना प्रमाण हो उतने सूच्यंगुल लब्ध आते हैं । इसीप्रकार असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर आवली के असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुल के भाजित करने पर असंख्यात सूच्यंगुल लब्ध आते हैं । इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ ।
आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने सूच्यंगुलप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिध्यादृष्टि अवहारकाल है । अथवा, आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको अपहृत करके जो लब्ध भावे उससे सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने सूच्यंगुलप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिध्यादृष्टि अवहारकाल है । इसीप्रकार असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर आवलीके असंख्यातवें भागसे आवलीके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे आवलीको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिले प्रतरावलीको गुणित करके इसीप्रकार सूच्यंगुल के प्रथम वर्गमूलपर्यंत संपूर्ण वर्गोंके निरन्तर परस्पर गुणित करने पर यहां जितना प्रमाण लब्ध आवे उतने सूच्यंगुल आते हैं और यही पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल
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२२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २७. रूवाणि तत्तियाणि सूचिअंगुलाणि हवंति । णिरुत्ती गदा ।
वियप्पो दुविहो, हट्टिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेट्टिमवियप्पं वत्तइस्सामो। आवलियाए असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धेण तं चेव गुणिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । अहवा तेणेव भागहारेण सूचिअंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे लद्रेण तं चेव गुणेऊण तेण सूचिअंगुले गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एवमसंखेज्जाणि वग्गट्ठाणाणि हेट्ठा ओसरिऊण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण आवलियाए भागे हिदाए जं लद्धं तेण तं चेव गुणिय तस्सुवरिमवग्गं गुणिय एवं जाव सूचिअंगुलेत्ति णिरंतरं सबवग्गाणं अण्णोण्णब्भासे कए पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । वेलवे हेट्ठिमवियप्पो गदो। अट्ठरूवे वत्तइस्सामो। आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदसूचिअंगुलेण घणंगुले भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तं जहा-सूचिअंगुलेण' घणंगुले भागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पुणो आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि। घणाघणे हेट्ठिमवियप्पं वत्तइस्सामो। आवलियाए
है। इसप्रकार निरुक्तिका वर्णन समाप्त हुआ।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे उसी सूच्यंगुलके गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण होता है । अथवा, उसी आवलीके असंख्यातवें भागरूप भागहारसे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसीप्रकार असंख्यात वर्गस्थान नीचे जाकर आवलीके असंख्यातवें भागसे आवलीके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे उसी आवलीको गुणित करके पुनः उस गुणित राशिसे उस आवलीके उपरिम वर्गको गुणित करके इसीप्रकार गुणित करते हुए सूच्यंगुलपर्यंत संपूर्ण वर्गोंके निरन्तर परस्पर गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसप्रकार द्विरूपमें अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ।
अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे धनांगुल के भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-सूच्यंगुलका घनांगुलमें भाग देने पर प्रतरांगुल आता है। पुनः आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पवेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है।
१ अ-आ-प्रत्योः । अंगुलस्स' क-प्रती · अंगुल' इति पाठः ।
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१, २, २७.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपख्वणं
[२२३ असंखेज्जदिभागेण गुणिदसूचिअंगुलेण घणंगुलपढमवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणाघणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तं जहाघणंगुलपढमवग्गमूलेण घणाघणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिंदे घणंगुलमागच्छदि । पुणो सूचिअंगुलेण घणंगुले भागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पुणो आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरंगुले भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एवं हेडिमवियप्पो गदो। __उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ वेरूवे गहिदं वत्तइस्सामो। आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पदरंगुलं भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो आगच्छदि। तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स छेदणए कदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एसो मज्झिम. वियप्पो, एदमवेक्खिय हेठिम-उवरिमववएससंभवादो। एसो उवयारेण उवरिमवियप्पो
अब घनाघनमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे धनाधनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- घनांगल के प्रथम वगेमलसे घनाघनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर घनांगुलका प्रमाण आता है। पुनः सूच्यंगुलसे घनांगुलके भाजित करने पर प्रतरांगुलका प्रमाण आता है। पुनः आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इसप्रकार अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ।
___ उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकार । उनमेंसे द्विरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । वास्तव में यह मध्यम विकल्प है और इसीकी अपेक्षा करके ही अधस्तन और उपरिम संशा संभव है, इसलिये उपचारसे यह उपरिम विकल्प कहा जाता है।
विशेषार्थ-विवक्षित भाजकका किसी विवक्षित भाज्यमें भाग देनेसे जो लब्ध आता है वही लब्ध जब उस विवक्षित भाज्य और भाजकसे नीचेकी संख्याओंका आश्रय लेकर निकाला जाता है, तब वह अधस्तन विकल्प कहलाता है; और जब वही लब्ध उस विवक्षित भाज्य और भाजकसे ऊपरकी संख्याओंका आश्रय लेकर निकाला जाता है, तब उसे उपरिम विकल्प कहते हैं। इस नियमके अनुसार प्रकृतमें भाजक आवलीका असंख्यातवां भाग और भाज्य प्रतरांगुल, इन दोनोंसे नीचेकी संख्याओंका आश्रय लेकर जब पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल
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२२४ ]
छक्खडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, २७.
तिच्चदे | संपहि अणुवयारेण उवरिमवियप्पं वत्तहस्सामा । तं जहा - आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदपदरंगुलेण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाविहार कालो होदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहार कालो होदि । एत्थ अद्धच्छेदणयमेलावणविहाणं चिंतिय वतव्वं । एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु णेयव्वं । अहरूवे वत्तइस्सामो । आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरंगुल उवरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहार कालो होदि । तं जहा - - पदरंगुलउवरिमवग्गेण घणंगुलवरिमवग्गे मागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पुणो आवलियाए असंखेजदिभाएणेपदरंगुले भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छा इडिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइड
लाया जायगा, तब इस प्रक्रियाको अधस्तन विकल्प कहेंगे; और जब उक्त दोनों संख्याओंसे ऊपर की संख्याओं का आश्रय लेकर उक्त अवहारकाल लाया जायगा, तब उसे उपरिम विकल्प कहेंगे । आवली असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलको भाजित करके पंचेन्द्रिय तिर्यच अवहारकालके लाने की जो प्रक्रिया है वही वास्तव में अधस्तन या उपरिम विकल्प नहीं कहीं जा सकती है, क्योंकि, अधस्तन और उपरिम विकल्पके निश्चित करनेके लिये यहां वही आधार है | अतः वास्तव में वह मध्यम विकल्प ही है, उपरिम नहीं |
अब अनुपचारसे उपरिम विकल्पको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण होता है । उक्त भागद्दार के जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण होता है । यहां पर अर्धच्छेदों के मिलाने की विधिका विचार कर कथन करना चाहिये । इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्तस्थानों में भी ले जाना चाहिये ।
अब अष्टरूपमें उपरिम विकल्प बतलाते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुल के उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके उपरिम वर्ग के भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्येच मिध्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है । वह इसप्रकार
- प्रतरांगुलके उपरिम वर्गसे घनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर प्रतरांगुल आता है । पुनः आवलीके असंख्यातवें भागले प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्याद्दष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है । उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल
१ प्रतिषु ' असंखेज्जासंखेज्जदिमाएण ' इति पाठः ।
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१, २, २७.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२२५ अवहारकालो आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेजाणतेसु णेयव्वं । घणाघणे वत्तइस्लामो । आवलियाए असंखेजदिभाएण पदरंगुलउवरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणंगुलउपरिमवग्गस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण घणाघणंगुल उवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि। तं जहा- घणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमग्गेण घणाघणंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे घणंगुलउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलउवरिमवग्गेण घणंगुल उवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पुणो आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदग्गुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिअवहारकालो आगच्छदि। पदरंगुलस्स घणंगुलस्स घणाघणंगुलपढमवग्गमूलस्स चासंखेज्जदिभागेण पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो वत्तव्यो । एदेण अवहारकालेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विविक्खंभसई आगच्छदि । जहा जेरइयमिच्छाइडिअवहारकालस्स खंडिदादिपरूवणा कदा तहा एदिस्से विक्खंभसूईए खंडिदादिपरूवणा कायव्वा । एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइदिन्धमागच्छदि । एत्थ खंडिद
आता है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्तस्थानों में ले जाना चाहिये।
अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्प बनलाते हैं-आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके उपरिम धर्मके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनाघनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- धनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गसे घनाघनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर घनांगुलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके उपरिम वर्गसे घनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर प्रतगंगुल आता है। पुनः आवलीके असंख्यातवें भागने प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि भवहारकालका प्रमाण आता है। प्रतरांगुलके असंख्यात भागरूप, घनांगुलके असंख्यातवें भागरूप और घनाघनांगुलके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन (पहलेके समान) करना चाहिये। इस अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है। पहले जिसप्रकार नारक मिथ्यारष्टि विष्कभसूचीके खंडित आदिककी प्ररूपणा कर आये हैं, उसीप्रकार इस विष्कभसूचीके खंडित आदिकका प्ररूपण करना चाहिये।
पूर्वोक्त भवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्याधि
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२२६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, २८.
भाजिद - विरलिद - अवहिद- पमाण-कारण- णिरुत्ति - वियप्पा जहा णेरइयमिच्छाइट्ठिदव्वपरूवणाए परूविदा तहा परूवेयव्वा ।
सास सम्माइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति तिरिक्खोघं ॥ २८ ॥
एदस्य सुत्तस्स जहा तिरिक्खोघगुण पडिवण्णपमाणपरूवणसुत्तस्स वक्खाणं कदं तहा कायव्वं । तिरिक्खेसु पंचिदिए मोत्तूण अण्णत्थ गुणपडिवण्णजीवाणं संभवाभावादो । एवं पंचिदियतिरिक्खपरूवणा समत्ता ।
संपहि पज्जत्तणामकम्मोदय पंचिंदियतिरिक्ख पमाणपरूवणं हवदिपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा' ॥ २९ ॥
एत्थ पंचिदियहणं एइंदिय - विगलिंदियबुदासङ्कं । तिरिक्खणिद्देसो देव-रइयमणुसवुदासो । पज्जत्तणिद्देसो अपज्जत्तबुदासट्टो । मिच्छाइट्टिणिद्देसेण सेसगुणड्डाण -
द्रव्यका प्रमाण आता है । खंडित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पका प्ररूपण जिसप्रकार नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी प्ररूपणा के समय कर आये हैं उसीप्रकार यहां पर उन सबका प्ररूपण करना चाहिये ।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक पंचेन्द्रिय तिर्यच प्रत्येक गुणस्थानमें सामान्य तिर्यंचों के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ २८ ॥ जिसप्रकार सामान्य तिर्यचोंमें गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रमाणके प्ररूपण करनेवाले सूत्रका व्याख्यान कर आये हैं उसीप्रकार इस सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यचोंमें पंचेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर दूसरे तिर्यंचों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीव संभव नहीं हैं । इसप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्येच प्ररूपणा समाप्त हुई ।
अब जिनके पर्याप्त नामकर्मका उदय पाया जाता है ऐसे पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके प्रमाणका प्ररूपण करते हैं
पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ २९ ॥
सूत्रमें एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके निराकरण करनेके लिये पंचेन्द्रिय पदका ग्रहण किया है । देव, नारकी और मनुष्योंके निराकरण करनेके लिये तिर्यच पदका निर्देश किया है। अपर्याप्त जीवोंके निराकरण करनेके लिये पर्याप्त पदका निर्देश किया है । सूत्रमें मिथ्यादृष्टि १xx पुण्णा तिगदिहीणया XX पंचिंदियपुण्णतेरिक्खा । गो. जी. १५४.
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१, २, ३०.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवर्ण [२२७ वुदासो कदो हवदि । दयपमाणेणेत्ति णिदेसेण खेत्त-कालवुदासो कदो हवदि । केवडिया इदि पुच्छासुत्तणिदेसेण छदुमत्थाणं कत्तारत्तमवणिदं हवदि । असंखेज्जा इदि णिद्देसेण संखेज्जाणताणं वुदासो कदो। किमहं दव्वपमाणमेव पढमं परूविजदि ? ण एस दोसो, अदीवथूलत्तादो दव्यपरूवणा पढमं परूविजदे। कधमेदिस्से थूलत्तणं ? असंखेजमेत्तविसेसिदजीवोवलंभणिमित्तादो। खेत्त-कालहितो दव्यं थोवेत्ति वा पुव्वं परूविज्जदे । दव्यथोवत्तणं कधं जाणिजदे ? 'वड्डीद जीव-पोग्गल-कालागासा अणंतगुणा' एदम्हादो गाहासुत्तादो णव्वदे । सेसपरूवणा जहा जेरइयमिच्छाइहिदवपमाणपरूवणसुत्तस्स उत्ता तहा वत्तव्वा । ___असंखेनासंखेनाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ३०॥
पदके निर्देशसे शेष गुणस्थानोंका निराकरण हो जाता है। 'द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा' इसप्रकारके निर्देशसे क्षेत्र और कालप्रमाणका निराकरण हो जाता है। कितने हैं ' इसप्रकार पृच्छारूप सूत्रके निर्देशसे छद्मस्थकर्तृकत्वका निराकरण हो जाता है। ' असंख्यात हैं' इसप्रकारके निर्देशसे संख्यात और अनन्तका निराकरण हो जाता है।
शंका- पहले द्रव्यप्रमाणका ही प्ररूपण क्यों किया जा रहा है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यप्ररूपणा अतीव स्थूल है, इसलिये उसका पहले प्ररूपण किया जाता है।
शंका-यह द्रव्यप्ररूपणा स्थूल कैसे है?
समाधान-क्योंकि, यह द्रव्यप्ररूपणा केवल असंख्यात विशेषणसे युक्त जीवोंके ग्रहण करने में निमित्त है, इसलिये स्थूल है।
अथवा, क्षेत्र और कालसे द्रव्य स्तोक है, इसलिये उक्त दोनों प्ररूपणाओंके पहले द्रव्यप्ररूपणाका कथन किया जाता है।।
शंका-क्षेत्र और कालसे द्रव्य स्तोक है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'वृद्धिकी अपेक्षा जीव, पुद्गल, काल और आकाश उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं' इस गाथासूत्रसे जाना जाता है कि काल और क्षेत्रसे द्रव्य स्तोक है।
शेष प्ररूपणा जिसप्रकार नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यके प्रमाणके प्ररूपण करनेवाले सूत्रकी कह आये हैं उसप्रकार कहना चाहिये।
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ३० ॥
प्रतिषु · अक्षीद ' इति पाठः ।
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२२८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, ३१. एत्थ असंखेज्जासंखेजणिद्देसो सेस-असंखेज्जाणं वुदासडो । ओसप्पिणि-उस्सपिणीणिद्देसो कप्पमाणपरूवणहो। कालेणेत्ति णिदेसो खेत्तादिणियत्तणट्ठो। कधं दव्यपरूवणादो कालपरूवणा सुहुमा ? असंखेज्जासंखेज्जोवलंभणिमित्तादो पल्ल-सायर-कप्पाणमुवरिमसंखाविसेसिदजीवोवलंभणिमित्तत्तादो च । संपहि सुहुमदरपरूवणहूँ सुत्तमाह
खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो संखेज्जगुणहीणेण कालेण ॥ ३१॥
____एत्थ पदरगहणेण जगपदरस्स गहणं, ण पदग्गुलस्स, 'देवअवहारकालादो संखेज्जगुणहीणेण कालेण' इदि वयणण्णहाणुववत्तीदो । देवाणमवहारकाले संखेज्जरूवेहि भागे हिदे जो भागलद्धो सो पदरंगुलम्स संखेजदिभागो होदि । तं कधं जाणिजदे ? संविग्गगीदत्थ-आइरियाणमविरुद्धवयणादो णव्वदे । एसो पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि । अहवा संखेज्जरूवेहि सूचि अंगुले भागे हिदे लद्धे वग्गिदे
शेष असंख्यातोंके निराकरण करनेके लिये यहां सूत्रमें असंख्यातासंख्यात पदका ग्रहण किया है । कल्पके प्रमाणके प्ररूपण करनेके लिये अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी पदका ग्रहण किया है। क्षेत्रादि प्रमाणों के निराकरण करनेके लिये 'कालकी अपेक्षा' इस पदका ग्रहण किया है।
शंका-द्रव्यप्ररूपणासे कालप्ररूपणा सूक्ष्म कैसे है ?
समाधान-असंख्यातासंख्यातके ग्रहण करनेका निमित्त कालप्ररूपणा है। अथवा, कालप्ररूपणा पल्य, सागर और कल्पले ऊपरकी संख्यासे विशिष्ट जीवोंके ग्रहण कराने में निमित्त है, इसलिये द्रव्यप्ररूपणाले कालप्ररूपणा सक्षम है।
अब अत्यंत सूक्ष्मप्ररूपणाके प्ररूपण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों द्वारा देव अवहारकालसे संख्यातगुणे हीन कालसे जगप्रतर अपहत होता है ॥ ३१ ॥
यहां सूत्रमें प्रतर पदके ग्रहण करनेसे जगप्रतरका ग्रहण किया है, प्रतरांगुल का नहीं, क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय तो 'देव अवहारकालकी अपेक्षा संख्यातगुणे हीन कालसे, यह बचन नहीं बन सकता है । देवोंके अवहारकालमें संख्यातका भाग देने पर जो लब्ध आवे वह प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग होता है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है?
समाधान-संविग्न होकर जिन्होंने पदार्थीका निरूपण किया है ऐसे आचार्योंके भविरुद्ध उपदेशसे जाना जाता है कि देवोंके अवहारकालमें संख्यातका भाग देने पर प्रतरांगुलका संख्यतावां भाग लब्ध आता है। और यही पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल है। अथवा, संख्यातसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर जो लब्ध आधे उसका वर्ग कर देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल होता
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१, २, ३३.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२२९ पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि । अहवा तप्पाओग्गसंखेज्जावे वग्गिऊण पदरंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि । एदस्स खंडिदादओ जाणिय भाणियव्या । एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइहिदव्वं होदि । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइटिदव्वपरूवणा गदा।
सासणसम्माइट्टिप्पडि जाव संजदासंजदा ति ओघं ॥३२॥
एदस्स सुत्तस्स जहा तिरिक्खगुणपडिवण्णाणं सुत्तस्स वक्वाणं कदं तहा कायव्वं, विसेसाभावादो । एवं पंचिंदियतिरिक्ख परूवणा समत्ता ।
पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छाइट्ठी दव्यपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ३३ ॥
___ एत्थ पंचिंदियणिदेसो सेसिंदियवुदासट्ठो। तिरिक्खणिद्दे सो सेसगदिवुदासट्ठो। जोणिणीणिद्देसो पुरिस-णqसयलिंगवुदासहो । मिच्छाइद्विणिद्देसो सेसगुणपडिवण्णवुदासट्ठो।
है। अथवा, तद्योग्य संख्यातका वर्ग करके और उस वर्गित राशिका प्रतरांगुलमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस अवहारकालके खंडित आदिकको समझकर कथन करना चाहिये।
इस अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्याष्टियोंका द्रव्य होता है । इलाकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंकी द्रव्यप्ररूपणा समाप्त हुई।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीव ओघप्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ३२ ॥
जिसप्रकार तिर्यचों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका व्याख्यान कर आये हैं, उसीप्रकार इस सूत्रका भी व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि, उस सूत्रके व्याख्यानसे इस सूत्रके व्याख्यानमें कोई विशेषता नहीं है। इसप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्ररूपणा समाप्त हुई।
- पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। ३३ ॥
सूत्रमें पंचेन्द्रिय पदका निर्देश शेष इन्द्रियोंके निवारण करनेके लिये किया है। तिर्यंच पदका निर्देश शेष गतियोंके निवारण करनेके लिये किया है। योनिमती पदका निर्देश पुरुषलिंग और नपुंसकलिंगके निवारण करनेके लिये किया है। मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश
१ असंखिज्जा पंचिंदियतिरिक्खजोणिआ। अनु. सू. १४१ पृ. १७९.
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२३० ] छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ३१. केवडिया इदि पुच्छाणिदेसो मुत्तम पमाणपडिवायणट्ठो। असंखेज्जा इदि णिदेसो संखेज्जाणताणं पडिसेहफलो । सेसं पुव्वं व परूवेदव्वं ।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसाप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरति कालेण ॥ ३४॥
एत्थ पुवसत्तादो मिच्छाइट्ठि त्ति अणुवट्टावेयव्वं, अण्णहा सुत्तत्थाणुववत्तीदो । सेसं पंचिदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइटिकालपरूवणसुत्तम्हि वुत्तविहाणेण वत्तव्वं ।
(खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिमिच्छाइट्टीहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो संखेज्जगुणेण कालेण ॥३५॥
एदस्स मुत्तस्स वक्खाणं कारदे । तं जहा- तिण्णिसयसहस्स-चउवीससहस्सकोडिरूवेहि देवअवहारकालं गुणिदे तदो संखेज्जगुणो पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो होदि। अहवा छज्जोयणसदमंगुलं काऊण वग्गिदे इगवीसकोडाकोडिसयाणि तेवीसकोडाकोडीओ छत्तीसकोडिसयसहस्साणि चउसडिकोडिसहस्साणि पदरगुलाणि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । अहवा इगवीसकोडा
शेष गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके निवारण करनेके लिये किया है। 'कितने हैं' इसप्रकार पृच्छारूप पदका निर्देश सूत्रकी प्रमाणताके प्रतिपादन करने के लिये किया है । 'असंख्यात' इस पदके निर्देश करनेका फल संख्यात और अनन्तका प्रतिषेध करना है। शेष व्याख्यान पहलेके समान करना चाहिये।
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ३४ ॥
___ यहां पहलेके सूत्रसे मिथ्यादृष्टि इस पदकी अनुवृत्ति कर लेना चाहिये, अन्यथा सूत्रार्थ नहीं बन सकता है। शेष कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणका कालकी अपेक्षा प्ररूपण करनेवाले सूत्रके अनुसार करना चाहिये।
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा देवोंके अवहारकालसे संख्यातगुणे अवहारकालसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥३५॥
आगे इस सुत्रका व्याख्यान करते हैं। वह इसप्रकार है- तीन लाख चौवीस हजार करोड़ संख्यासे देवोंके अवहारकालके गुणित करने पर जो लब्ध आवे उससे भी संख्यातगुणा पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकाल है । अथवा, छहसौ योजनके अंगुल करके वर्ग करने पर इकवीससौ कोडाकोड़ी, तेवीस कोडाकोड़ी, छत्तीस कोड़ी लाख और चौसठ कोड़ी हजार प्रतरांगुल प्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता
१ छस्सयजोयणकदिहिदजगपदरं जोणिणीण परिमाणं । गो. जी. १५६.
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१, २, ३५.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[ २३१ कोडिसद-तेवीसकोडाकोडि-छत्तीसकोडिलक्ख-चउसडिकोडिसहस्सरूवेहि पदरंगुलमोवढेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । एदं केसिंचि आइरियवक्खाणं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिजोणिणीअवहारकालपडिबद्धं ण घडदे । कुदो ? पुरदो वाणवेंतरदेवाणं तिण्णिजोयणसदअंगुलवग्गमेत्तअवहारकालो होदि त्ति वक्वाणदंमणादो । इदं वक्खागं असचं वाणवेंतरअवहारकालपमाणवक्खाणं सच्चमिदि कधं जाणिजदे ? णत्थि एत्थ अम्हाणमेयंतो, किंतु दोण्हं वक्खाणाणं मज्झे एकेण वक्खाणेण असच्चेण होदव्यं । अहवा दोण्णि वि वक्खाणाणि असच्चाणि, एसा अम्हाणं पइजा ।कधमेदं जाणिजदे ? 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीहिंतो वाण-तरदेवा संखेजगुणा,
है। अथवा इकवीससौ कोड़ाकोड़ी, तेवीस कोड़ाकोड़ी, छत्तीस कोड़ी लाख, और चौसठ कोड़ी हजार प्रमाण संख्यासे प्रतरांगुलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है।
विशेषार्थ--एक योजनके चार कोस, एक कोसके दो हजार धनुष, एक धनुषके चार हाथ और एक हाथके चौवीस अंगुल होते हैं, इसलिये एक योजनके अंगुल करने पर १४४४ २०००४४४२४ = ७६८००० प्रमाण अंगुल आते हैं। ७६८००० को ६०० से गुणा कर देने पर ६०० योजनके ४६,०८,००००० प्रमाण अंगुल हो जाते हैं। ४६०८००००० संख्यातका वर्ग कर लेने पर २१,२३,३६,६४,०००००००००० प्रमाण प्रतरांगुल होते हैं। इनका भाग जरप्रतरमें देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्याधियोंका प्रमाण आता है।
पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंके अवहारकालसे संबन्ध रखनेवाला यह कितने ही आचार्योंका व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, तीनसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्गमात्र व्यंतर देवोंका अवहारकाल होता है, ऐसा आगे व्याख्यान देखा जाता है।
शंका-यह पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंके अवहारकालका व्याख्यान असत्य है और वाणव्यंतर देवोंके अवहारकालके प्रमाणका व्याख्यान सत्य है, यह कैसे जाना जाता है?
समाधान-इस विषयमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीसंबन्धी अवहारकालका व्याख्यान असत्य ही है और व्यन्तर देवोंके अवहारकालका व्याख्यान सत्य ही है, ऐसा कुछ हमारा एकान्त मत नहीं है, किंतु हमारा इतना ही कहना है कि उक्त दोनों व्याख्यानोंमेंसे कोई एक व्याख्यान असत्य होना चाहिये। अथवा, उक्त दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हमारी प्रतिज्ञा है।
शंका-उक्त दोनों व्याख्यान असत्य हैं, अथवा, उक्त दोनों व्याख्यानों से एक
छहिं अंगुलेहि वादो वेवादेहिं विहत्थिणामा य । दीणि विहत्थी हत्या वेहत्थेहिं हवे रिक्कू ॥ रिक्कृहिं दंडो दंडसमा जुगधगृणि मुसलं वा। तस्स तहा णाली दोदंडसहस्सयं कोसं ॥ चउकोसेहिं जोयण xx| ति. प. पत्र ५।
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२३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ३५. तत्थेव देवीओ संखेजगुणाओ' एदम्हादो खुदाबंधसुत्तादो जाणिजदे । ण च सुत्तमप्पमाणं काऊण वक्खाणं पमाणमिदि वोत्तुं सकिञ्जदे, अइप्पसंगादो। ण च एकेकस्स देवस्स एक्का चेव देवी होदि ति जुत्ती अत्थि, भवणादियाणं' भूओदेवीणमागमेणोवलंभादो देवेहितो देवीओ वत्तीसगुणाओं त्ति वक्खाणदंसणादो च । तम्हा जदि वाण-तरदेवअवहारकालो तिणिजोयणसदअंगुलबग्गमेतो ति णिच्छ ओ अस्थि तो जोणिणीअवहारकालमुप्पायणटुं तिण्णिजोयणसदअंगुलवग्गम्हि वत्तीसोत्तरसदपहुडि जिणदिभावो गुणगारो पवेसेयव्यो । अध जोणिणीअवहारकालो छज्जोयणसदगुलवग्गमेत्तो त्ति णिण्णओ अत्थि तो वाणवेंतरअवहारकालमुप्पायणटुं छज्जोयणंसदंगुलवग्गो तेत्तीसपहुडि जिणदिट्ठभावसंखेज्जरूवेहि ओवट्टेयव्वं । अहवा उभयत्थ वि पदरंगुलस्स तप्पाओग्गो गुणगारो दादव्यो।
____एत्थ खंडिदादिविहिं वत्तइस्सामो। तं जहा- पदरंगुलउवरिमवग्गे पदरंगुलस्स व्याख्यान तो असत्य है ही, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंसे वाणव्यन्तर देव संख्यातगुणे है और उनकी देवियां वाणव्यन्तर देवोंसे संख्यातगुणी हैं। इस खुदाबंधके सूत्रसे उक्त अभिप्राय जाना जाता है। सूत्रको अप्रमाण करके उक्त व्याख्यान प्रमाण है, ऐसा तो कहा नहीं जा सकता है, अन्यथा, अतिप्रसंग दोष आ जायगा। यदि एक एक देवके एक एक ही देवी होती है, यह युक्ति दी जाय सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, भवनवासी आदि देवोंके बहुतसी देवियोंका आगममें उप देश पाया जाता है। और 'देवोंसे देवियां बत्तीसगुणी होती हैं। ऐसा व्याख्यान भी देखा जाता है। इसलिये वाणव्यन्तरदेवोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके अंगलोंका वर्गमात्र है, यदि ऐसा निश्चय है तो पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंके अवहारकालके उत्पन्न करनेके लिये तीनसो योजनके अंगुलोंके वर्गमें जो राशि जिनदेवने देखी हो तदनुसार वत्तीस अधिक सौ आदि रूप गुणकारका प्रवेश कराना चाहिये । अथवा, 'पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंका अवहारकाल छहसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्गमात्र है। यदि ऐसा निश्चय है तो वाणव्यंतर देवोंका अवहार. काल उत्पन्न करनेके लिये तेतीस आदि जो संख्या जिनेन्द्रदेवने देखी हो उससे छहसौ योजनोंके अंगुलोंके वर्गको अपवर्तित करना चाहिये। अथवा, वाणव्यन्तर और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, इन दोनोंके अवहारकालोंके लिये दोनों स्थानों में भी प्रतरांगुलके उसके योग्य गुणकार दे देना चाहिये।
अब यहां खंडित आदिककी विधिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके प्रतरांगुलके संख्यातवें भागमात्र संड करने पर उनसे एक खंड प्रमाण
१ प्रतिषु 'अणादियादीण' इति पाठः । २ इगिपुरिसे बत्तीसं देवी। गो. जी. २७८. ३ प्रतिषु तिण्णिजोयण' इति पाठः ।
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१, २, ३५.] दव्यपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपख्वणं
[२३३ संखेजदिभागमेत्तखंडे कए तत्थेयखंडं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइडिअवहारकालो होदि। खंडिदं गदं । पदरंगुलस्स संखेजदिभाएण पदरंगुलुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि । भाजिदं गदं । पदरंगुलस्ससंखेजदिभागं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स पदरंगुलस्सुवरिमवग्गं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । विरलिदं गदं । पदरंगुलस्स संखेजदिभागं सलागभूदं ठवेऊण पदरंगुलउवरिमवग्गादो पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालपमाणमवणिय सलागादो एगरूवमवणेयव्वं । एवं पुणो पुणो अवहिरिज्जमाणे पदरंगुलउवरिमवग्गो सलागाओ च जुगवं णिट्ठिदाओ । तत्थ आदीए अंते मज्झे वा एयवारमवहिदपमाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिअवहार कालो होदि । अवहिदं गदं । तस्स पमाणं पदरंगुल उवरिमवग्गस्स असंखेजदिभागो संखेज्जाणि पदरंगुलाणि । तं जहा- पदरंगुलेण पदरंगुल उवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पदरंगुलस्स दुभाएण पदरंगुलउपरिमवग्गे भागे हिदे दोण्णि पदरंगुलाणि आगच्छति । पदरंगुलस्स तिभाएण पदरंगुल उवरिमवग्गे भागे हिदे तिण्णि पदरंगुलाणि
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसप्रकार खंडितका वर्णन समाप्त हुआ। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्याहियोंका अवहारकाल होता है। इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रतरांगुलके उपरिम वर्गको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां एक खंडमात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागको शलाकारूप स्थापित करके प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल घटा देना चाहिये। एकवार घटाया, इसलिये शलाकाराशिसे एक कम कर देना चाहिये । इसप्रकार प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमेसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोका अवहारकाल और शलाकाराशिमेंसे एक पुनः पुनः घटाते जाने पर प्रतरांगुलका उपरिम वर्ग और शलाकाएं एकसाथ समाप्त हो जाती हैं। वहां आदिमें, अन्तमें अथवा मध्यमें एकवार जितना प्रमाण घटाया जाय उतना पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसप्रकार अपहृतका वर्णन समाप्त हुआ। उस पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण प्रतरांगुलके उपरिम वर्गका असंख्यातवां भाग है जो संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- प्रतरांगुलका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर एक प्रतरांगुल आता है। प्रतरांगुलके दूसरे भागका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर दो प्रतरांगुल लब्ध आते हैं। प्रतरांगुलके तीसरे भागका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर तीन प्रतरांगुल लब्ध आते हैं। इसीप्रकार क्रमसे आगे जाकर
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२३१] छक्खंडागमे जीवठाणं
[१, २, ३५. आगच्छति । एवं कमेण गंतूण पदरंगुलस्स संखेजदिभागेण पदरंगुलुवरिमवग्गे भागे हिदे संखेज्जाणि पदरंगुलाणि आगच्छति। पमाण-कारणाणि गदाणि । तस्स का णिरुत्ती? पदरंगुलस्स संखेजदिभागेण पदरंगुले भागे हिदे लद्धम्हि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पदरंगुलाणि हवंति । णिरुत्ती गदा।
वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेट्ठिमविर्यप्पं वत्तइस्सामो। पदरंगुलस्स संखेजदिभागेण पदरंगुले भागे हिदे लद्वेण तं चेव गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । अहवा वेरूवे हेद्विमवियप्पो णत्थि, विहज्जमाणरासीदो हेट्ठिमपदरंगुलं पेक्खिय पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालस्स बहुत्तुवलंभादो । ण च थोवरासिमवहरिय तत्तो बहुवरासी उप्पादेदुं सक्किजदे, विरोहा। अट्ठरूवे वत्तइस्सामो। पदरंगुलस्स संखेजदिमागेण पदरंगुलं गुणेऊण पदरंगुलघणे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तं जहापदरंगुलेण पदरंगुलघणे भागे हिदे पदरंगुल उवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलस्स संखेजदिमागेण पदरंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिप्रतरांगुलके संख्यातवें भागका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गमें भाग देने पर संख्यात प्रतरांगुल लब्ध आते हैं । इसप्रकार प्रमाण और कारणका वर्णन समाप्त हुआ।
शंका- इसकी क्या निरुक्ति है ?
समाधान-प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर लब्धमें जो प्रमाण आवे उतने प्रतरांगुल योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकालमें होते हैं। इसप्रकार निरुक्तिका कथन समाप्त हुआ।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं-प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उससे उसीके अर्थात् प्रतरांगुलके गुणित कर देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल होता है । अथवा, यहां द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प नहीं बनता है, क्योंकि, भज्यमान राशिकी अपेक्षा अधस्तन प्रतरांगुलको देखते हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल बहुत बड़ा है। कुछ स्तोक राशिको अपहृत करके उससे बड़ी राशि नहीं उत्पन्न की जा सकती है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है।
___ अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं-प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरां. गुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरांगुलके घनके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार हैप्रतरांगुलसे प्रतरांगुलके घनके भाजित करने पर प्रतरांगुलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच
१ प्रतिषु · विरोहाभावादो' इति पाठ ।।
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१, २, ३५.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२३५ अवहारकालो आगच्छदि । अहवरूवणा गदा । घणाघणे वत्तइस्सामो। पदरंगुलस्स संखेजदिभाएण पदरंगुलं गुणेऊण तेण पदरंगुलघणस्स पढमवग्गमूलं गुणिय घणाघणंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि । तं जहाघणंगुलेण घणाघणंगुले भागे हिदे घणंगुलउवरिमवग्गो आगच्छदि। पुणो पदरंगुलेण घणंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलुवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलस्स संखेजदिभागेण पदरंगुलुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअव: हारकालो आगच्छदि। हेट्ठिमवियप्पो गदो।
___ गहिदादिभेएण उवरिमवियप्पो तिविहो । तत्थ वेरूवे गहिदं वत्तइस्सामो । पदरंगुलस्स संखेजदिभाएण पदरंगुलुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । एसो मज्झिमवियप्पो उवरिमवियप्पणिण्णयजणणटुं संभाविदो। पदरंगुलस्स संखेजदिभाएण पदरंगुलउवरिमवग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी
योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आता है। इसप्रकार अष्टरूप प्ररूपणा समाप्त हुई।
___ अब घनाघनमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं-प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरांगुलके घनके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनांगुलमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आता है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- धनांगुलसे घना घनांगुलके भाजित करने पर घनांगुलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलसे घनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर प्रतरांगुलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आता है । इसप्रकार अधस्तन विकल्प समाप्त हुआ।
गृहीत आदिके भेदसे उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है। उनमेंसे द्विरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। यह मध्यम विकल्प है जो उपरिम विकल्पका निर्णय करानेके लिये बतलाया गया है। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। इसीप्रकार
१ प्रतिषु संभवाविदो' इति पाठः ।
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२३६ ] छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ३५. मिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । एवमुवरि जाणिऊण वत्तव्यं ।
अट्ठरूवे वत्तइस्सामो । पदरंगुलस्स संखेज्जदिभाएण पदरंगुल उवरिमवग्गस्सु. वरिमवग्गं गुणेऊण घणंगुल उवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिअवहारकालो आगच्छदि। तं जहा- पदरंगुलउवरिमवग्गस्मुवरिमवग्गेण घणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलउपरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण पदरंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइहि अवहारकालो आगच्छदि । घणाघणे वत्तइस्सामो । पदरंगुलस्स संखेज्जदिभाएण पदरंगुल उवरिमवग्गस्सुपरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणंगुल उवरिमवग्गस्स तव्वग्गवग्गं गुणेऊण घणाघणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिअवहारकालो आगच्छदि । तं जहा- घणंगुल उवरिमवग्गस्स तव्यग्गवग्गेण घणाघणंगुलउपरिमवग्गस्सु. परिमवग्गे भागे हिदे घणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गो आगच्छदि। पुणो पदरंगुलपरिम
ऊपर जानकर भी कथन करना चाहिये ।।
अब अष्टरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर प्रतरांगुलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्याटष्टि अवहारकाल आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीयार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है।
___अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं--प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके उपरिम वर्गके वर्गके वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- घनांगुलके उपरिम वर्गके वर्गके वर्गका घनाघनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर घनांगुलके उपरिम वर्गका उपरिम वर्ग आता है। पुनः
१ प्रतिपु ' तत्तस्स वगं' इति पाठः ।
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१, २, ३६.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२३७ वग्गस्सुवरिमवग्गेण घणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभाएण पदरंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्टि अवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । एवमुवरि जाणिऊण णेयव्वं । पदरंगुलउवरिमवग्गस्स घणंगुलउवरिमवग्गस्स घणाघणंगुलस्स च असंखेज्जदिभावण पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च साहेयव्यो। एदेण अवहारकालेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई आगच्छदि । तेणेव जगपदरे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिदधमागच्छदि ।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघं ॥३६॥
दवट्टियणयमस्सिऊण ओघपरूवणा हवदि । पज्जवट्टियणए पुण अवलंबिजमाणे तिरिक्खोघपरूवणाए पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तोषपरूवणाए वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीगुणपडिवण्णपरूवणा समाणा ण हवदि, तिवेदरासीदो इत्थिवेदेगरासिस्स समाणत्ताणुवप्रतरांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर प्रतरांगलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भन्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। इसीप्रकार ऊपर जानकर ले जाना चाहिये। प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके असंख्यातवें भागरूप, घनांगुलके उपरिम वर्गके असंख्यातवें भागरूप और घनाघनांगुलके असंख्यातवें भागरूप पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकालके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारको साध लेना चाहिये । इस अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची आती है। और उसी अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है।
___ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीव तियंच-सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ३६॥
द्रव्यार्थिक नयका आश्रय लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंच सामान्य प्ररूपणाके समान है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्ब करने पर तिर्यंच सामान्य प्ररूपणा अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त सामान्य प्ररूपणाके समान पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी प्ररूपणा नहीं होती है, क्योंकि, तीन वेदवाली राशिसे एक स्त्रीवेदी जीवराशिकी समानता नहीं बन
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२३८] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ३६. वत्तीए, तम्हा विसेसेण होदव्वं । तं विसेसं पुव्वाइरियाविरुद्धोवएसेण वत्तइस्सामो । तं जहा- पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तअसंजदसम्माइद्विअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूवेहिं गुणिदे तत्थेव सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि खंडिदादओ ओघभंगो । पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तेसु पुरिसवेदासंजदसम्माइद्विरासीदो तत्थेव इत्थिवेदासंजदसम्माइद्विरासी किमट्ठमसंखेज्जगुणहीणा ? पुरिसवेदादो सुट्ट अप्पसस्थित्थिवेदोदएण पउरं देसणमोहणीयखओवसमाभावादो। जदि एवं तो तत्थतणइत्थिवेदअसंजदसम्माइट्ठिरासीदो तत्तो अप्पसत्थतणणqसगवेदअसंजदसम्माइद्विरासिस्स असंखेज्जगुणहीणत्तं पसज्जदे ? भवदु णाम अविरुद्धत्तादो। पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ततिवेद. सम्मामिच्छाइद्विरासीदो पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीअसंजदसम्माइद्विरासी किं समो किं
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सकती है। इसलिये सामान्य प्ररूपणासे यह प्ररूपणा विशेष होना चाहिये। आगे उस विशेषको पूर्व आचार्योंके अविरुद्ध उपदेशके अनुसार बतलाते हैं। वह इसप्रकार हैपंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गणित करने पर पंचन्द्रिय तिर्यंच योनिमती असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकाल होता है। उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । उसे संख्यातसे गुणित करने पर वहीं पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती संयतासंयत अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोके द्वारा खंडित आदिकका कथन सामान्य तिर्यंचोंके खंडित आदिकके कथनके समान है।
शंका-पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तोंमें पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिसे वहीं पर स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि असंख्यातगुणी हीन किस कारणसे है? ।
समाधान-पुरुषवेदकी अपेक्षा अप्रशस्त स्त्रीवेदके उदयके साथ प्रचुररूपसे दर्शनमोहनीयके क्षयोपशमका अभाव है।
शंका-यदि ऐसा है तो उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिसे स्त्रीवेदियोंसे भी अप्रशस्त नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके असंख्यातगुणी हीनता प्राप्त हो जाती है ?
समाधान-स्त्रीवेदियोंसे नपुंसकवेदियोंके असंख्यातगुणी हीनता प्राप्त होती है तो हो जाओ, क्योंकि, ऐसा स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त तीनों वेदवाली सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि क्या समान है, या संख्यातगुणी है, या असंख्यातगुणी
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१, २, ३९.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपख्वणं . [२१९ संखेज्जगुणो किमसंखेज्जगुणो किं संखेज्जगुणहीणो किमसंखेज्जगुणहीणो किं विसेसाहिओ विसेसहीणो वा त्ति णत्थि संपहियकाले उवएसो ।
पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ३७॥
___ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहिं अवहिरंति कालेण ॥ ३८ ॥
____एदाणि दोण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । किंतु एत्थ अपज्जत्ता इदि वुत्ते अपज्जत्तणामकम्मोदयपंचिंदियतिरिक्खा घेत्तव्वा । पज्जत्तणामकम्मस्स उदए अपजत्तो वि पज्जत्तो चेव, णोकम्मणिव्वत्तिअवेक्खाभावादो।
खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणेण कालेण ॥ ३९ ॥
पण्णद्विसहस्स-पंचसय-छत्तीसपदरंगुलमेत्तदेवअवहारकालमावलियाए असंखेअदिभाएण भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तअवहारकालो होदि । अवसेसा खंडिदादिवियप्पा पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठीणं व भाणेदव्वा । है, या संख्यातगुणी हीन है, या असंख्यातगुणी हीन है, या विशेषाधिक है, या विशेष हीन है, इत्यादिरूपसे इस कालमें कोई उपदेश नहीं पाया जाता है।
पंचेद्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ३७॥
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ३८॥ __ये दोनों भी सूत्र सुगम हैं। किंतु यहां पर अपर्याप्त ऐसा कथन करने पर अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका ग्रहण करना चाहिये । तथा जिसके पर्याप्त नामकर्मका उदय है वह (शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होने तक) अपर्याप्त होता हुआ भी पर्याप्त ही है, क्योंकि, यहां पर नोकर्मकी निर्वृतिकी अपेक्षा नहीं है।
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके द्वारा देवोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणे हीन कालसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ ३९ ॥
___ पेंसठ हजार पांचसौ छत्तीस प्रतरांगुलमात्र देवोंके अवहारकालमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त अवहारकाल होता है। अवशिष्ट खंडित आदि विकल्पोंका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके खंडित आदिके कथनके समान करना चाहिये।
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ३९.
1
भागाभागं वत्तइस्सामा । तिरिक्खरासिमणंत खंडे कदे तत्थ बहुखंडा एइंदियवियलिंदिया होंति । सेसं संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडा पंचिदियतिरिक्खलद्धि अपजत्ता होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा पंचिदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छादिट्ठी होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा पंचिदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठी होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा पंचिदियतिरिक्खतिवेदअसंजदसम्माइद्विदव्वं होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा पंचिदियतिरिक्खतिवेदसम्मामिच्छाइट्टिदव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा पंचिदियतिरिक्खतिवेदसासणसम्माइट्ठिदव्वं होदि । सेसे गखंडा संजदासंजदा होंति ।
२४० ]
अप्पाबहुअं तिविहं सत्थाणं परत्थाणं सव्वपरत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणे भण्णमाणे तिरिक्खमिच्छा इडीणं सत्थाणं णत्थि रासीदो ध्रुवरासिस्स बहुत्तुवलंभादो । सासणादणिं सत्याणमोघं । पंचिदियतिरिक्खमिच्छाहहीणं सत्थाणप्पा बहुगं बुच्चदे | सव्वत्थोवो पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहार कालो । तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूईए असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? सगअवहारकालो ।
अब भागाभागको बतलाते हैं- तिर्यच राशिके अनन्त खंड करने पर उनमें से बहुखंडप्रमाण एकेन्द्रिय और विक्लेन्द्रिय जीव हैं। शेषके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तक जीव हैं। शेषके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेषके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेषके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभाग पंचेन्द्रिय तिर्यंच तीन वेदवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य है । शेषके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग पंचेन्द्रिय तिर्यंच तीन वेदवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य है । शेषके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग पंचेन्द्रिय तिर्यच तीन वेदवाले सासादनसम्यग्दृष्टियों का द्रव्य है । शेष एक खंडप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यच तीन वेदवाले संयतासंयत है ।
अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुत्व, परस्थान अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व । उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करने पर तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों का स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवराशि से ध्रुवराशिका प्रमाण बड़ा है । सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व सामान्य प्ररूपणा के समान है। अब पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व बतलाते हैं - पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल सबसे थोड़ा है । उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टिर्योकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है । अथवा,
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१, २, ३९. ]
माणागमे तिरिक्खगदिअप्पा बहुगपरूवणं
[ २४१
अहवा सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सगअवहारकालवग्गो | अहवा असंखेज्जाणि घणंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि १ सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगअवहारकालो । दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूई । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगअवहारकालो | लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो १ सेढी । एवं चैव पंचिदियतिरिक्खपज्जतमिच्छाइट्ठीणं पि । णवरि जम्हि सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि घणांगुलाणि त्ति वृत्तं तम्हि सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि ति वत्तव्यं । एवं चैव पंचिदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठीणं हि । गवरि जम्हि सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति वृत्तं तम्हि संखेज्जसूचिअंगुलमेत्ताणि त्ति वत्तव्वं । पंचिदियेतिरिक्खा पज्जत्तसत्थाणप्पा बहुगं पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइ द्विसत्थाणमंगो । पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोगिणीगुणपडिवण्णाणं सत्थाणं तिरिक्खगुण
पडवण्णसत्थाणभंगो ।
परत्थाणे पयदं । असंजदसम्माइद्विअवहारकालादो जाव पलिदोषमेति
जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है । अथवा, असंख्यात घनांगुल गुणकार है । वे कितने हैं ? सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र हैं। विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है | गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगश्रेणीसे पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है | पंचेन्द्रिय तिर्येच मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगणी गुणकार है । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यच पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों का भी स्वस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । पर इतना विशेष है कि जहां पर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहा है वहां पर सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहना चाहिये । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व होता है। इतना विशेष है कि जहां पर सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहा है वहां पर संख्यात सूच्यंगुलमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों के स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व तिर्यच गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है ।
अब परस्थानमें अल्पबहुत्वका कथन प्रकृत है— असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालले
१ प्रतिषु ' सूचि-' इति पाठः ।
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२५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ३९. ओघपरत्थाणभंगो। तदो मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । को गुणगारो ? तिरिक्खमिच्छाइट्ठिणqसगसंखेञ्जदिभागो । पंचिंदियतिरिक्खेसु असंजदस्स अवहारकालादो जाव पलिदोवमेत्ति ओघपरत्थाणभंगो। तदो मिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? पदरंगुलस्त असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि । को पडिभागो ? असंखेज्जाणि पलिदोवमाणि । उवरि सत्थाणभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ताणं पि वत्तव्यं । णवरि जम्हि असंखेज्जाणि पलिदोवमाणि त्ति वुत्तं तम्हि संखेज्जाणि पलिदोवमाणि त्ति वत्तव्वं । एवं जोणिणीणं पि । णवरि जम्हि संखेज्जाणि पलिदोवमाणि त्ति वुत्तं तम्हि पलिदोवमस्स संखेजदिभागो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तपरत्थाणं सगसत्थाणतुल्लं ।
____सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवो असंजदसम्माइडिअवहारकालो । एवं जाव पलिदोवमोत्ति णेयव्वं । तदो पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो। पुव्वभणिदो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदएयखंडमेत्तेण । पंचिंदियतिरिक्ख
लेकर पल्योपमतक ओघ परस्थान अल्पबहुत्वके कथनके समान कथन जानना चाहिये । पल्योपमसे मिथ्यादृष्टि द्रव्य अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? तिर्यंच मिथ्यादृष्टि नपुंसकवेदियोंका संख्यातवां भाग गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें असंयतोंके अवहारकालसे लेकर पल्योपमतक ओघ परस्थानके कथनके समान कथन जानना चाहिये । पल्योपमसे मिथ्यादृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है? असंख्यात पल्योपमोंका प्रमाण प्रतिभाग है। इसके ऊपर स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान कथन जानना चाहिये। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तोंके अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिये । इतना विशेष है कि जहां पर असंख्यात पल्योपम हैं ऐसा कहा है वहां पर संख्यात पल्यापम हैं ऐसा कथन करना चाहिये। इसीप्रकार योनिमतियोंके अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिये। इतना विशेष है कि जहां पर संख्यात पल्योपम हैं ऐसा कहा है वहां पर पल्योपमका संख्यातवां भाग है ऐसा कथन करना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंका परस्थान अल्पबहुत्व अपने स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है।
अब सर्व परस्थानमें अल्पबहत्वका कथन प्रकृत है- असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पूर्व कथित प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। कितने मात्र विशेषसे अधिक है? पंचन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके
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१, २, ३९.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिअप्पाबहुगपरूवर्ण [२४१ पज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागस्स संखेज्जदिभागो। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो। को गुणगारो ? संखेज्जा समया। तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पुवमणिदो । पचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइद्विविखंभसूई संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेजगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिविक्खभसूई विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण विसेसो? आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदमेत्तो। सेढी असंखेजगुणा । को गुणगारो ? अवहारकालो। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइद्विदव्वमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? सगविक्खंभमुई। पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिपज्जत्तदव्वं संखेजगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जा समया। पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जमागो। पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्टि
जो एक खंड लन्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके अवहार. कालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है? गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका भवहारकाल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। उन्हीं पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कभसूची उन्हींके अवहारकालसे असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? पहले कह आये हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कभसूचीसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कमसूची संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूचीसे पंचन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तीकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची विशेष आधिक है। कितनेमात्रसे अधिक है ? पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंकी विष्फभसूचीको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करने पर जितना लब्ध आवे तन्मात्र अधिक है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है। जगश्रेणीसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि पर्याप्तोंका द्रव्य संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि पर्याप्तोंके द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तीका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य
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२५४] छक्खंडागमे जीवठाणं
[१, २, ४०. दव्वं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागखंडिदमेत्तेण । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो । लोगो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सेढी। तिरिक्खमिच्छाइट्ठिदव्यमणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धेहि वि अणंतगुणो भवसिद्धियजीवाणमणताभागस्स असंखेज्जदिभागो ।
मणुसगईए मणुस्सेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ४०॥
___ एत्थ मणुसगइगहणेण सेसगइपडिसेहो कदो । मणुस्सेसु त्ति वयणेण तत्थ द्विदसेसजीवादिदध्वपडिसेहो कओ । मिच्छाइट्टि त्ति वयणेण सेसगुणट्ठाणपडिसेहो कदो । खेत्त-कालपमाणवुदासढुं दव्वगहणं । सुत्तस्स पमाणपरूवणटुं केवडियगहणं । संखेजाणताणं घुदासढे असंखेज्जगहणं । अइथूलपरूवर्ण परुविय सुहुमट्टपरूवण8 उत्तरसुत्तं भणदि
विशेष अधिक है। कितनेमात्रसे अधिक है ? पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे तन्मात्रसे अधिक है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? जगश्रेणी गुणकार है। लोकसे तियेच मिथ्याटि द्रव्य अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा या भव्यसिद्ध जीवोंके अनन्त बहुभागोंका असंख्यातवां भाग गुणकार है।
मनुष्यगतिप्रतिपन्न मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥४०॥
इस सूत्रमें 'मनुष्यगति' इस पदके ग्रहण करनेसे शेष गतियोंका प्रतिषेध कर दिया गया है। मनुष्योंमें' इसप्रकारके धचनसे वहां पर स्थित शेष जीवादि द्रव्योंका प्रतिषेध कर दिया है । 'मिथ्यादृष्टि' इस वचनसे शेष गुणस्थानोंका प्रतिषेध कर दिया है। क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणका निराकरण करनेके लिये द्रव्य पदका ग्रहण किया है। सूत्रकी प्रमाणताका प्ररूपण करनेके लिये 'कितने हैं। इस पदका ग्रहण किया है। संख्यात और अनन्तका निराकरण करनेके लिये असंख्यात पदका ग्रहण किया है। अब अतिस्थूल प्ररूपणाका प्ररूपण करके सूक्ष्म प्ररूपणाका प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
१ प्रतिषु ' -भाए ' इति पाठः । २ असंखिज्जा मणुस्सा । अनु. सू. १४१ पृ. १७९.
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१, २, ४२.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवणं
[ २४५ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंतिकालेण ॥ ४१ ॥
दव्वपमाणमवेक्खिय कालपमाणस्स महत्तोवलंभादो असंखेजासंखेजदिओसप्पिणि-उस्सप्पिणिविसेससंखापरूवणादो वा कालपमाणस्स सुहुमत्तणं वत्तव्यं । सेसपरूवणा पुव्वं व परूवेयव्या।
खेतेण सेढीए असंखेज्जदिभागो । तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जदिजोयणकोडीओ । मणुसमिच्छाइट्ठीहि रूवा पक्खित्तएहि सेढी अवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ४२ ॥
सेढीए असंखेज्जदिभागो इदि सामण्णवयणेण संखेजजायणप्पहुडि हेहिमसंखावियप्पाणं सव्वेसिं गहणे संपत्ते तप्पडिसेहढं असंखेजजोयणकोडीओ त्ति वुत्तं । तिस्से सेढीए असंखेज्जदिभागस्स सेढीए पंतीए आयामो दीहत्तणमिदि संबंधेयव्वं । असंखेज्जदि
___ कालकी अपेक्षा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहत होते हैं ॥४१॥
द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कालप्रमाणकी महत्ता पाई जानेके कारण अथवा, कालप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीरूप विशेष संख्याका प्ररूपण करनेवाला होनेसे उसकी (कालप्रमाणकी) सूक्ष्मताका कथन करना चाहिये। शेष प्ररूपणाका कथन पहलेके समान करना चाहिये।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। उस श्रेणीका आयाम (अर्थात् जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम) असंख्यात करोड़ योजन है। सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको सूच्यगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसे शलाकारूपसे स्थापित करके रूपाधिक (अर्थात् एकाधिक तेरह गुणस्थानवर्ती राशिसे अधिक) मनुष्य मिथ्यादृष्टि राशिके द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ॥४२॥
सत्र में जगश्रेणीके असंख्यातवे भागप्रमाण' इसप्रकार सामान्य वचन देनेसे संख्यात योजन आदि अधस्तन संपूर्ण संख्याका ग्रहण प्राप्त होता है, अतः उसका प्रतिषेध करनेके लिये ' असंख्यात करोड़ योजन' पदका ग्रहण किया। सूत्रमें आये हुए 'उस श्रेणीका आयाम' इस पदसे उस श्रेणीके असंख्यात भागकी पंक्तिका आयाम अर्थात् दीर्घता ऐसा संबन्ध
१ मनुष्यगतौ मनुप्या मिथ्यादृष्टयः श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिताः। स चासंख्येयभागः असंख्येया योजनकोव्यः । स. सि. १,८. सेटी सूईअंगुल आदिमत दियपदभाजिदेगूणा । सामण्णमणुसरासी । गो. जी. १५७. उनकोसपए मणुया सेटी रूवाहिया अवहरति । तइयमूलाइएहिं अंगुलमूलप्पएसेहिं । पंचस. २,२१.
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२५६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, ४२. जोयणकोडीओ त्ति वयणे पदरंगुल-घणंगुलादीणं गहणे पत्ते तप्पडिसेहट्ट अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेणेत्ति' वयणं । अंगुलवग्गमूलमिदि वुत्ते सूचिअंगुलपढमवग्गमूलं गहेयव्वं । तदियवग्गमूलमिदि वुत्ते सूचिअंगुलतदियवग्गमूलस्स गहणं । कुदो ? सूचिअंगुलसहचारादो अणुवट्टणादो वा। सूचिअंगुलतदियवग्गमूलेण तस्सेव पढमवग्गमूलं गुणिदे मणुसमिच्छाइट्ठीण अवहारकालो होदि । अहवा सूचिअंगुलविदियवग्गमूलेण तदियवग्गमूलं गुणिय सूचिअंगुले भागे हिदे मणुसमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स खंडिद-भाजिद-विरलिद-अवहिदाणि जाणिऊण वत्तव्याणि । तस्स पमाणं सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि मूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि । तं जहा- सूचिअंगुलपढमवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे पढमवगमूलमेव लभामहे । विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विदियवग्गमूलम्हि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि लठभंति । विदिय-तदियवग्गमूलमणोण्णभत्थं करिय सूचिअंगुले भागे हिदे असंखेज्जाणि सचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि लभंति त्ति ण संदेहो। तस्स णिरुत्ती तदियवग्गमूलेण
करना चाहिये । 'असंख्यात करोड़ योजन' इसप्रकारका वचन रहने पर प्रतरांगुल और धनांगुल आदिका ग्रहण प्राप्त होता है, अतः उसका प्रतिषेध करनेके लिये सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल तृतीय वर्गमूलसे गुणित' इसप्रकारका वचन दिया है। यहां पर 'अंगुलका वर्गमूल' ऐसा कथन करने पर उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका ग्रहण करना चाहिये। 'तृतीय वर्गमूल ' ऐसा कथन करने पर उससे सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलका ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि, यहां पर सूच्यंगुलका साहचर्य संबन्ध है। अथवा, ऊपरसे उसीकी अनुवृत्ति है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे उसी सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । अथवा, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सूच्यंगुलमें भाग देने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आता है । इस अवहारकालके खंडित, भाजित, विरलित और अपहृतको जानकर उनका कथन करना चाहिये। उस मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल ही प्राप्त होता है । सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर सूध्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलमें जितनी संख्या हो उतने सूच्यं. गुलके प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं । इसीप्रकार सूच्यंगुलके दूसरे और तीसरे वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं, इसमें संदेह नहीं । उसी मनुष्य मिथ्यादृष्टि
१ प्रतिषु — गणिवे ति ' इति पाठः ।
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१, २, ४२.] दवपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवणं
[२७ विदियवग्गमूले भागे हिदे लद्धस्स जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि ।
वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेडिमवियप्पं वत्तइस्सामो । विदिय-तदियवग्गमूले अण्णोण्णगुणे करिय पढमवग्गमूले भागे हिदे लद्वेण तं चेव गुणिदे अवहारकालो होदि। अहवा वेरूवे हेड्रिमवियप्पो णत्थि, सूचिअंगुलपढमवग्गमूलादो अवहारकालस्स बहुत्तादो। अट्ठरूवे वत्तइस्सामो। सूचिअंगुलविदियवग्गमूलगुणिदतदियवग्गमूलेण पढमवग्गमूलं गुणेऊण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे अवहारकालो होदि । तं जहा- सूचिअंगुलपढमवग्गमूलेण घणंगुलपढमवग्गमूले भागे हिदे सूचिअंगुलमागच्छदि । विदियवग्गमूलगुणिदतदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । घणाघणे वत्तइस्सामो । विदियवग्गमूलगुणिदतदियवग्गमूलेण अंगुलवग्गमूलं गुणेऊण तेण घणंगुलविदियत्रग्गमूलं गुणिय घणाघणंगुलविदियवग्गमूले भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि। तं जहा- घणंगुलविदियवग्गमूलेण घणाघणंगुल
अवहारकालकी निरुक्ति इसप्रकार है-सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके भाजित करने पर लब्ध राशिका जितना प्रमाण हो उतने सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूल मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकालमें होते हैं।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनसे अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं- सूच्यंगुलके दूसरे और तीसरे वर्गमूलका परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उसका सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमलमें भाग देने पर जो लब्ध आया सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। अथवा, यहां द्विरूपधारामें अधस्तन विकल्प नहीं बनता है, क्योंकि, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल बहुत बड़ा है।
___ अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं-सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके लब्ध राशिका घनांगुलके प्रथम वर्गमूलमें भाग देने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । जैसे, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है। पुनः सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके भाजित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है।
अब घनाघनमें अधस्तन विकल्प बतलाते हैं-सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलको गुणित करके आई हुई लब्ध राशिसे घनाघनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके भाजित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। जैसे, घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे घनाघनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके भाजित करने पर
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२९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ४२. विदियवग्गमूले भागे हिदे घणंगुलपढमवग्गमूलमागच्छदि । पुणो सूचिअंगुलपढमबग्गमूलेण (घणंगुलपढमवग्गमूले ) भागे हिदे सूचिअंगुलमागच्छदि । पुणो अण्णोण्णगुणिदविदिय-तदियवग्गमूलेण (सूचिअंगुले ) आगे हिदे अवहारकालो आगच्छदि ।
__गहिदादिभेएण उवरिमवियप्पो तिविहो । तत्थ गहिदं वत्तइस्सामो । तेणेव भागहारेण सूचिअंगुलं गुणिय पदरंगुले भागे हिदे मणुसमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि । तं जहा- सूचिअंगुलेण पदरंगुले भागे हिदे सूचिअंगुलमागच्छदि । पुणो पुवभागहारेण सूचिअंगुले भागे हिदे अवहारकालो आगच्छदि । अट्टरूवे वत्तइस्सामो । सूचिअंगुलविदिय-तदियवग्गमूलं अण्णोणं गुणिय तेण पदरंगुलं गुणिय घणंगुले भागे हिदे मणुस्सअवहारकालो आगच्छदि। एसो मज्झिमवियप्पे किण्ण पददि त्ति वुत्ते ण, सूचिअंगुलादो अहियरासिमवलंबिय उप्पाइज्जमाणे उवरिमवियप्पत्तं पडि विरोहाभावादो । घणाघणे वत्तइस्सामो । विदिय-तदियवग्गमूलेहि पदरंगुलं गुणिय तेण घणंगुलउवरिमवग्गं गुणिय तेण घणाघणंगुले भागे हिदे मणुसमिच्छाइटिअवहारकालो
घनांगुलका प्रथम वर्गमूल आता है । पुनः सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे घनांगुलके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है । पुनः सूच्यंगुलके दूसरे और तीसरे वर्गमूलका परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे सूच्यंगुलके भाजित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है।
गृहीत आदिके भेदसे उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है। उनमेंसे गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-उसी भागहारसे अर्थात् सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूल गुणित तृतीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलको गुणित करके जो लब्ध आये उससे प्रतरांगुलके भाजित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है । जैसे, सूच्यंगुलसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुल आता है । पुनः पूर्वोक्त भागहारसे अर्थात् सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूल गुणित तृतीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है।
अब अष्टरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- सूच्यंगुलके दूसरे और तीसरे वर्गमूलको परस्पर गुणित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरांगुलको गुणित करके आई हुई लब्ध राशिसे घनांगुलके भाजित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है।
शंका-प्रस्तुत विकल्प मध्यम विकल्पमें समाविष्ट क्यों नहीं होता है ? - समाधान-नहीं, क्योंकि, सूच्यंगुलसे बड़ी राशिका अवलम्बन करके मनुष्य मिथ्यादृष्टि भवहारकालके उत्पन्न करने पर इसे उपरिम विकल्पके होने में कोई विरोध नहीं आता है।
____ अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- परस्पर गुणित सूच्यंगुलके दूसरे और तीसरे वर्गमूलसे प्रतरांगुलको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके उपरिम वर्गको गुणित करके लब्ध राशिका घनाघनांगुलमें भाग देने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि अव
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१,२, ४२. ]
दव्यमाणागमे मणुसगदिपमाणपरूवणं
[ २४९
आगच्छदि । तस्स भागहारस्त अद्धच्छेरणयमेत्ते घणाघगंगुलरूप अद्धच्छेदगए कदे वि मणुसमिच्छाइट्ठिअवहारकालो आगच्छदि । सूचि अंगुल -घणंगुल पढ मवग्गमूल-घणाघणंगुलविदियवग्गमूलाणं असंखे जदिभाएण भागहारेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च साहेयव्वो । एदेण भागहारेण जगसेढिम्हि भाग हिदे रूत्राहिओ मणुसरासी आगच्छदि । तं कथं जाणिअदिति बुत्ते ' मणुसगईए मणुमेहि रूवं पक्खितएहि सेढी अवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण' इदि खुद्द बंधसुत्तादो। एत्थ रासी दुविहा भवदि, ओजं जुम्म चेदि । ओजं दुहिं, तेजोजं कलिओजं चेदि । तं जहा - जम्हि रासिम्हि चदुहि अवहिरिज्जमाणे तिणि ट्ठांति सो तेजोजं । चदुहि अवहिरिज्जमाणे जम्हि एगं ठादि सं कलिओजं । जुम्मं दुविहं, कदजुम्मं बादरजुम्मं चेदि । तं जहा- चदुहि अवहिरिज्जमाणे जम्हि सिम्हि चत्तारि द्वांति तं कदजुम्मं । जम्हि रासिम्हि दोण्णि हांति तं बादरजुम्मं । जम्हा मणुस्सरासी तेजोजं तम्हा लद्धम्हि कदजुम्मम्हि एगरूवमवणेयव्वं । अवसेसिद
I
हारकाल आता है । उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशि घनाघनांगुलके अर्धच्छेद करने पर भी मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है । सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागरूप, घनांगुल के प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप और घनाघनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप भागहारले गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारको साध लेना चाहिये ।
उक्त भागद्दारले जगश्रेणीके भाजित करने पर एक अधिक मनुष्यराशि आती है । यह कैसे जाना जाता है, ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि 'मनुष्यगतिमें सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे शलाकाराशि करके एक अधिक मनुष्य जीवोंके द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है, अर्थात् एक अधिक मनुष्यराशिको जगश्रेणी में से घटाते जाना चाहिये और शलाकाराशिमेंसे उत्तरोत्तर एक कम करते जाना चाहिये। इसप्रकार करने से शलाकाराशिके साथ जगश्रेणी समाप्त हो जाती है'। इस खुदाबंधके सूत्रसे जाना जाता है कि उक्त भागहारसे जगश्रेणीके अपहृत करने पर एक अधिक मनुष्य राशि लब्ध आती है ।
राशि दो प्रकारकी है, ओजराशि और युग्मराशि । उनमेंसे ओजराशि दो प्रकारकी है, तेजोज और कलिओज । आगे इन्हींका स्पष्टीकरण करते हैं- जिस राशिको खारसे भाजित करने पर तीन शेष रहते हैं वह तेजोजराशि है । जिस राशिको चारसे भाजित करने पर एक शेष रहता है वह कलिओजराशि है । युग्मराशि दो प्रकारकी है, कृतयुग्म और बादरयुग्म । आगे उसी युग्मराशिके भेदोंका स्पष्टीकरण करते हैं- जिस राशिको चार से भजित करने पर चार शेष रहते हैं अर्थात् जिसमें चारका पूरा भाग जाता है वह कृतयुग्मराशि है । तथा चारले. भाजित करने पर जिस राशिमें दो शेष रहते हैं वह बादरयुग्मराशि है । प्रकृतमें क्योंकि मनुष्यराशि तेजोजरूप है, इसलिये जगश्रेणीमें सूच्यंगुलके प्रथम
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२५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ४२. मगुसससिपरूवणादो जुत्तं खुद्दाबंधम्हि भागलद्धादो एयरूवस्स अवणयणं, एत्थ पुण जीवाणम्हि मिच्छत्तविससिदजीवपमाणपरूवणे कीरमाणे रूवाहियतेरसगुणट्ठाणमेत्तेण अवणयणरासिणा होदव्यामिदि । तं कधं जाणिजदे ? ' मणुसमिच्छाइट्टीहि रूवा पक्खिचएहि सेढी अवहिरिजदि 'त्ति सुत्तम्हि रूवा इदि बहुवयणणिदेसादो। अहवा रूवपक्खिसरहिं ति बहुवीहिसमासेण लक्खणविसेसेण कयपुव्वणिवाएण अवणिदबहुवयणादो बहुतोवलद्धी होज्ज । रूवं पक्खित्तएहि त्ति एगवयणमपि कहिं दिस्सदे तो वि ण दोसो, बरगं जीवाणं जादिदुवारेण एयत्तदसणादों। का एत्थ जाई णाम ? चेदणादिसमाणपरिणामो । तदो भागलद्धादो रूवाहियतेरसगुणट्ठाणपमाणे अवणिदे मणुसमिच्छाइटि.
और तृतीय वर्गमूलके गुणनफलरूप भागहारका भाग देनेसे जो राशि लब्ध आयगी वह कृतयुग्मरूप होनेसे उसमें से एक कम कर देना चाहिये।
खुद्दाबंधमें मिथ्यादष्ठि इत्यादि विशेषणसे रहित सामान्य मनुष्यराशिका प्ररूपण होनेसे वहां पर सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलोंके परस्पर गुणफलरूप भागहारका जगश्रेणी में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसमेंसे एक संख्याका कम करना युक्त है। परंतु यहां जीवस्थानमें तो मिथ्यात्व विशेषणसे युक्त जीवोंके प्रमाणका प्ररूपण किया गया है, अतएव मिथ्यादृष्टि मनुष्यराशि लानेके लिये उत्त. भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर जोलब्ध आवे उसमेंसे एक अधिक तेरह गुणस्थानवर्ती मनुष्यराशि अपनयनराशि होना चाहिये। . शंका-यह कैसे जाना जाता है?
समाधान-'रूपाधिक मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशिके द्वारा जगश्रेणी अपहृत शेती है। इस सूत्रमें · रूवा' यह बहुवचन निर्देश पाया जाता है, जिससे जाना जाता है कि या पर उक्त भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसमेंसे एक अधिक तेहगुणस्थानवी जीवराशि अपनयनराशि है । अथवा, 'रूवपक्खित्तपहिं ' इस पदमें नियमविशेषसे जिसमें पूर्वनिपात हो गया है ऐसा बहुव्रीहि समास होनेके कारण रूप पदके बहु. पचनसे रहित होनेके कारण भी उससे बहुत्वकी उपलब्धि हो जाती है। कहीं पर 'रूवं पतिपहि'इसप्रकार एकवचन भी कहीं देखा जाता है.तोभी कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि. बन जीवोंका जातिद्वारा एकत्व देखने में आता है। - शंका-यहां पर जातिसे क्या अर्थ अभिप्रेत है?
समाधान- यहां पर चेतना आदि समान परिणाम जातिसे अभिप्रेत है।
इसलिये उक्त भागहारका जगश्रेणी में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसमेंसे एक अधिक तेरह गुणस्थानवी जीवारशिके प्रमाणके कम कर देने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि
१'जायाख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम्' १, २, ५८. पाणिनि । एकोऽप्यों
वा बहुत्ववद्
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१, २, ४३.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवर्ण
[२५१ रासी होदि त्ति सिद्धं । एदस्स खंडिदादओ विदियपुढविमिच्छाइट्ठीणं जहा वुत्ता सही वत्तव्या । णवरि एत्थ अंगुलवग्गमूलेण तदियवग्गमूलं गुणिले अवहारकालो होदि । सव्वत्थ रूवाहियतेरसगुणटाणपमाणमवणेयव्यं ।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ ४३ ॥
__ एत्थ पहुडिसहो आदिसहत्थे वदे । तेण सासणसम्माइद्विमादि करिय जाव संजदासजदा एदेसु गुणट्ठाणेसु मणुसरासी संखेज्जा चेव होदि त्ति जं वुत्तं होदि । संखेज्जा इदि सामण्णेण वुत्ते वावण्णकोडिमेत्ता सासणसम्माइट्ठिणो हवंति । तत्तो दुगुणा सम्मामिच्छाइटिणा हवंति । सत्तसयकोडिमेत्ता असंजदसम्माइट्ठिणो हवंति । (संजदा
जीवराशिका प्रमाण होता है, यह सिद्ध हो गया।
विशेषार्थ-सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलका परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर एक अधिक सामान्य मनुण्यराशिका प्रमाण आता है। अतएव लब्धमें एक कम कर देने पर सामान्य मनुष्यराशिका प्रमाण होता है। परंत प्रक्रतमें मिथ्यादृष्टि मनुष्यराशि लाना है, अतएव उक्त सामान्य मनुष्यराशिमें से सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी मनुष्यराशिके प्रमाणको और कम कर देना चाहिये, तब मिथ्याष्टि मनुष्यराशिका प्रमाण होगा।
जिसप्रकार दृसरी पृथिवीके मिश्यादृष्टियोंके खंडित आदिका कथन कर आये हैं उसीप्रकार इस मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशिके खंडित आदिकका कथन करना चाहिये । इतना विशेष है, कि यहां पर सून्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे तृतीय वर्गमूलके गुणित करने पर अवहारकालका प्रमाण होता है । तथा मनुष्य मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण लानेके लिये सर्वत्र एक अधिक तेरह गुणस्थानवी जीवराशिका प्रमाण घटा देना चाहिये।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।। ४३ ॥
___ यहां पर प्रभृति शब्द आदि शब्दके अर्थमें आया है, इसलिये सासादनसम्यग्दृष्टिसे प्रारंभ करके संयतासंयत गुणस्थानतक इन चार गुणस्थानों में प्रत्येक गुणस्थानवी मनुष्यराशि संख्यात ही होती है, यह इस सूत्रका अभिप्राय है। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमेंसे प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्यराशि संख्यात है, ऐसा सामान्यरूपसे कथन करने पर सासादनलम्यग्दृष्टि मनुष्य बावन करोड़ है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के प्रमाणले दूने हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सातसौ करोड़ प्रमाण हैं। संयतासंयतोंका प्रमाण तेरह
१ सासादनसम्यग्दृष्ट्यादयः संयतासंयतान्ताः संख्येयाः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु अतः परं ' तत्तो दुगुणा सम्माइट्टिणी हवंति' इत्यधिकः पाठः।
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२५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ४४. संजदाणं पमाणं तेरहकोडीओ के वि आइरिया सासणसम्माइणिं पमाणं पण्णारस कोडीओ हवंति सम्मामिच्छाई ?पमाणं तत्तो दुगुणमिदि भणंति । पुबिल्लपमाणमैत्थ बेत्तव्वं । किं कारणं ? आइरियपरंपरागदादो । वुत्तं च
तेरह कोडी देसे बावणं सासणे तु यया ।
मिस्से वि य तदुगुणा असंजदे सत्तकोडिसया ॥ ६८ ॥ अहवा---
तेरह कोडी देसे पण्णासं सासणे मुणेयव्वा ।
मिस्से वि य तदुगुणा असंजदे सत्तकोडिसया ॥ ६९ ।) पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥४४॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं परूविदो त्ति इह ण बुच्चदे । कुदो ? मणुसगदिवदिरित्तसेसगईसु पमत्तादिगुण हाणाणमसंभवादो। मणुसेसु पमत्तादीणं ओघपरूवणा चेव ।
करोड़ है। कितने ही आचार्य सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका प्रमाण पचास करोड़ कहते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के प्रमाणसे दुना कहते हैं । परंतु यहां पर पूर्वोक्त प्रमाणका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, पूर्वात प्रमाण आचार्य परंपरासे आया हुआ है। कहा भी है
संयतासंयतमें तेरह करोड़, सासादनमें बावन करोड़, मिश्रमें सासादनके प्रमाणसे दूने और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सातसौ करोड़ मनुष्य जानना चाहिये ॥ ३८ ॥
अथवा
संयतासंयतमें तेरह करोड़, सासादनमें पचास करोड़, मिश्रमें सासादनके प्रमाणसे दृने और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सातलौ करोड मनुष्य जानना चाहिये । ६९ ॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें मनुष्य सामान्य प्ररूपणाके समान संख्यात हैं ॥ ४४ ॥
इस सूखका अर्थ पहले कह आये हैं, इसलिये यहां नहीं कहा जाता है, क्योंकि, मनुष्य गतिको छोड़कर शेष तीन गतियों में प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानोंका होना असंभव है। अतः मनुष्यों में प्रमत्तसंयत आदिका प्रमाणप्ररूपण सामान्य प्ररूपणाके समान ही है।
१गो . जी. ६४२. स. सि. १,८,टि.। २ प्रतिषु तदुउणा' इति पाठः । ३ प्रमत्तावीना सामान्योता संख्या । स. सि...
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१, २, ४५.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसंगदिअप्पाबहुगपखवणं
[२५३ मणुसपज्जत्तेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेटुदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेहदों ॥ ४५ ॥
छट्ठवग्गस्स उवरि सत्तमवग्गस्स हेट्ठदो त्ति वुत्ते अत्थवत्ती ण जादेत्ति अत्थवत्तीकरणहूँ कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो त्ति वुत्तं । एदस्स मणुसपज्जतमिच्छाइट्ठिरासिस्स पमाणपत्रणमाइरियोवएसेण बुच्चदे । वेरुवस्स पंचमवग्गेण छट्टमवग्गं गुणिदे मणुसपज्जत्तरासी होदि । सत्तमवग्गे संखेज्जखंडे कए एगखंड मणुसपज्जत्तरासी होदि । खंडिदं गदं । पंचमवग्गेण सत्तमवग्गे भागे हिदे मणुसपजत्तरासी होदि । भाजिदं गदं । विरलिदं अवहिदं च चिंतिय वत्तव्यं । पमाणं सत्तमवग्गस्स
मनुष्य पर्याप्तोंमें मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? कोड़ाकोड़ाकोड़िके ऊपर और कोडाकोड़ाकोड़ाकोड़िके नीचे छह वर्गोंके ऊपर और सात वर्गाके नीचे अर्थात् छठवें और सातवें वर्गके बीचकी संख्याप्रमाण मनुष्यपर्याप्त होते हैं ॥ ४५ ॥
_ 'छठ वर्गके उपर और सातवें वर्गके नीचे ' ऐसा कहने पर अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं होती है, इसलिये अर्थकी प्रतिपत्ति करनेके लिये 'कोड़ाकोड़ाकोड़िके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़िके नीचे ' ऐसा कहा। अब इस मनुष्य पर्याप्त मिश्यादृष्टि राशिके प्रमाणका प्ररूपण अन्य आचार्योंके उपदेशानुसार कहते हैं
द्विरूपके पांचवें वर्गसे उसीके छठवें वर्गके गुणित करने पर मनुष्य पर्याप्त राशि होती है। द्विरूपके सातवें वर्गके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे एक खंडप्रमाण मनुष्य पर्याप्त राशि होती है। इसप्रकार खंडितका कथन समाप्त हुआ। द्विरूपके पांचवें वर्गसे उसीके सातवें वर्गके भाजित करने पर मनुष्य पर्याप्त राशि होती है। इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ। इसीप्रकार विचार कर विरलित और अपहृतका कथन कर लेना चाहिये। मनुष्य
एकं दस सयं सहरसं दमसहस्म लक्खं दलक्खं कोडिं दहकोडि कोडिमयं कोडिसहस्सं दसकोडिसहस्स कोडिलक्ख दहकोडिलक्खं कोडाकोडी दहकोडाकोडी कोडाकोडिसयं कोडाकोडिसहस्सं दहकोडाकोडिसहस्सं कोडाकोडिलक्ख दहकाडाकाडिलक्खं कोडाकोडिकोडी दहकोडाकोडिकोडी कोडाकोडिकोडिसय कोडाकाडिकोडसहस्सं दहकोडाकोडिकोडिसहस्स कोडाकोडिकोडिलक्ख दहकोडाकोडकाडिलक्खं कोडाकोडिकाडिकोड। इत्यायकवाचनप्रकारः। लो. प्र. सर्ग ७. पत्र १०८.
सामण्णमणुसरासी पंचमकदिघणसमा पुण्णा ।। गो. जी. १५७. गर्भजाना मनुष्याणामथ मानं निरूप्यते । एकोनत्रिंशता कैस्ते मिता जघन्यतोऽपि हि ॥ लो प्र.सर्ग ७.पत्र १०७. संख्या च तेषां जघन्यतोऽपि पचमवर्गगुणितषष्ठवर्गप्रमाणा द्रष्टव्या । अयं च राशिरेकोनत्रिंशदकस्थानो न कोटाकोब्यादिप्रकारेणाभिधातुं कथमपि शक्यते । xx एष च राशिः पूर्वसूरिमिनियमलपदादृवं चतुर्यमलपदस्याधस्तादित्युपवर्यते । पश्चसं. २, २१ टीका.
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२५४] छक्खंडागमे जीवडाणं
[१, २, ४५. संखेअदिभागो संखेज्जाणि छद्रुषग्गाणि । तं जहा- छहमवग्गेण सत्तमवग्गे भागे हिदे छट्ठवग्गो आगच्छदि। पंचमवग्गेण सत्तमनग्गे भागे हिदे संखेज्जा छहवग्गा आगच्छति । कारणं गदं । णिरुत्ती वियप्पो य चिंतिय वत्तव्यो । एदम्हादो मणुसपञ्जत्तरासीदो
तेरस कोडी देसे वावण्णं सासणे मुणेयव्वा ।
मिस्से वि य तदुगुणा असंजदे सत्तकोडिसया ॥ ७० ॥ एदीए गाहाए वुत्तगुणपडिवण्णरासीओ एयत्तं करिय पमत्तादि-णव-संजदरासिं च तत्थेव पक्खिविय अवणिदे मणुसपज्जत्तमिच्छाइद्विरासी होदि।
पंचमवग्गं चदुहि रूवेहि गुणिदे दुवेदमणुसपज्जत्तअवहारकालो होदि । तेण सत्तमबग्गे भागे हिदे मणु१पज्जत्तदुवेदरासी आगच्छदि। मणुसपज्जत्ता चायालवग्गस्स घण
पर्याप्त मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण द्विरूपके सातवें वर्गका संख्यातवां भाग है जो संख्यात छठवें वर्गप्रमाण है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं-द्विरूपके छठवें वर्गका उसीके सातवें वर्गमें भाग देने पर छठवां वर्ग आता है। पांचवें वर्गसे सातवें वर्गके भाजित करने पर संख्यात छठवें वर्ग आते हैं। इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ। निरुक्ति और विकल्पका विचार कर कथन करना चाहिये । इस मनुष्य पर्याप्त राशिसे
___ संयतासंयतमें तेरह करोड़, सासादनमें बावन करोड़, मिश्री सासादनके प्रमाणसे दुने और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सातसौ करोड़ मनुष्य होते हैं ॥ ७० ॥
____ इस गाथाके द्वारा कही गई गुणस्थानप्रतिपन्न राशिको एकत्रित करके और प्रमत्तसंयत आदि नौ संयतराशिको उसी पूर्वोक्त एकत्र की हुई राशिमें मिलाकर जो जोड़ हो उसके घटा देने पर मनुष्य पर्याप्त मिथ्या दृष्टि जीवराशि होती है।
द्विरूपके पांचवें वर्गको चारसे गुणित करने पर दो वेवाले मनुष्य पर्याप्तोंका अवहारकाल होता है। उस अवहारकालसे सातवें वर्गके भाजित करने पर मनुष्य पर्याप्त दो वेदवाले जीवोंकी राशि आती है।
विशेषार्थ-किसी भी विवक्षित वर्गात्मक राशिको चारसे गुणित करके लब्धका उस वर्गात्मक राशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर उस विवक्षित वर्ग राशिके घनका चौथा भाग लब्ध आता है। तदनुसार प्रकृतमें द्विरूपके पांचवें वर्गको चारसे गुणित करके उसका सातवीं वर्गराशिमें भाग देने पर पांचवें वर्गके घनत्रमाण पर्याप्त मनुप्य राशिका चौथा भाग लग्ध आता है । स्त्रीवेदियोको छोड़कर द्विवेदी मनुष्योंका यही प्रमाण है।
१ प्रतिषु ' अढवग्गा' इति पाठः।
चउ अg पंच सतह णव य पंच? तिद य अट्ठ णवा ति चउकट्ठणहाई छ छक पंचट्ट दुग छक्ख वउकाणम सत्त गयण अढ णव एकं पजत्तरासिपरिमाणं ॥ १९८०७०४०६२८५६६०८४३९८३८५९८७५८४. ति. प. १६. पत्र..
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१, २, ४५.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवणं
[२५५ मेत्ता त्ति जं वक्खाणे भणिदं जुत्तीए जोइज्जमाणे तं ण घडदे, 'कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो ' त्ति सुत्तेण सह विरोधत्तादो । तं कधं जाणिजदे ! एगुणतीसट्ठाणेसु ढिदवायालवग्गघणस्स एगुणत्तीसटाणेहिंतो ऊणत्तविरोहादो। किं च जदि वायालवग्गधणमेत्तो मणुसपज्जत्तरासी होज्ज तो माणुसखेत्ते ६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० ।*
गयणट्ठ-णय-कसाया चउसहि-मियंक-वसु-खरा-दव्वा । छायाल-वसु-णभाचल-पयत्थ-चंदो रिदू कमसो ॥ ७१ ।।
'मनुष्य पर्याप्त जीवराशि बादालके घनमात्र है' यह जो ऊपर व्याख्यान करते समय कह आये हैं, युक्तिसे विचार करने पर वह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, 'कोड़ाकोड़ाकोड़ीके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ाके नीचे मनुष्य पर्याप्त राशि है' इस सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध आता है।
शंका--यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, उनतीस स्थानोंमें स्थित बादालरूप वर्गके घनको उनतीस स्थानोंसे कम अंकरूप माननेमें विरोध आता है।
विशेषार्थ-ऊपर सूत्रद्वारा पर्याप्त मनुष्य राशिका प्रमाण कोड़ाकोडाकोड़ीके ऊपर और कोडाकोड़ा कोडाकोडके नीचे बीचकी कोई संख्या बतलाई जा चुकी है । जब कि एक अंकके ऊपर २१ शून्य रखनेसे बाईस अंकप्रमाण कोड़ाकोड़ाकोड़ी होती है और एक अंकके ऊपर २८ शून्य रखनेसे उनतीस अंकप्रमाण कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी होती है, तब यह निश्चित हो जाता है कि सूत्रानुसार पर्याप्त मनुष्य राशिका प्रमाण उनतीस अंकके नीचे और बावीस अंकके ऊपर बीचकी कोई संख्या होना चाहिये । अब यदि द्विरूपके पांचवें वर्गके घनप्रमाण पर्याप्त मनुष्य राशि मानी जाय तो पूर्वोक्त सूत्रके कथनके साथ इस कथनका विरोध आ जाता है, क्योंकि द्विरूपके पांचवें वर्गके घनका प्रमाण उनतीस अंकप्रमाण होते हुए भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीके प्रमाणके ऊपर है, इसलिये द्विरूपके पांचवें वर्गके घनका प्रमाण उनतीस अंकसे नीचेकी संख्या नहीं हो सकती है। पर सत्रानुसार पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण उनतीस अंकसे नीचेकी संख्या विवक्षित है. इसलिये 'पंचमकदिघणसमा पुण्णा' इत्यादि रूपसे जो पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण पाया जाता है, वह सूत्रानुसार नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है।
दूसरे, यदि बादालरूप वर्गके धनप्रमाण मनुष्य पर्याप्त राशि होवे तो वह राशि मनुष्य-क्षेत्र में ६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० अर्थात्
क्रमशः आठ शून्य, नय अर्थात् दो, कषाय अर्थात् सोलह, चौसठ, मृगांक अर्थात् एक,
* प्रतिषु अष्टानां शून्याना प्राक् '६२ ' इति स्थाने केवलं ६ ' इति पाठ ।।
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
एत्तियमेत्तपदरंगुलेण सम्माएज्ज । मणुसखेत्तपदरंगुले आणिज्जमाणे
C
सत्त णव सुण्ण पंच छट्ठ णव चदु एक्कं च पंच सुष्णं च । जंबूदीवस्सेदं गणिदफलं होदि णादव्वा ॥ ७२ ॥
७९०५६९४१५० एदम्हि तेरसंगुलं च किंचूणअर्द्धगुलं च पक्खिविय आणे-यव्वं । किंचूणपमाणं -
२५६ ]
सत्तसहस्सडसीदेहि खंडिदे पंचवण्णखंडाणि ।
अर्द्धगुलस्स हीणं करेह अद्धंगुलं शियदं ॥ ७३ ॥
३ एदाणि जंबूदीवपदरजोयणाणि माणुसखे तजंबूदीवसलागाहि दो समुद्दसलागूणाहि गुणिय पदरंगुलाणि कायव्वाणि ।
आठ, खर अर्थात् छह, द्रव्य अर्थात् छह, छ्यालीस, आठ, शून्य, अचल अर्थात् सात, पदार्थ अर्थात् नौ, चन्द्र अर्थात् एक, और ऋतु अर्थात् छह,— ॥ ७१ ॥
इतने प्रतरांगुलोंके द्वारा समा जाना चाहिये । मनुष्यक्षेत्र में प्रतरांगुलोंके लाने पर
सात, नौ, शून्य, पांच, छह, नौ, चार, एक, पांच, शून्य, अर्थात् सात अरब नव्वे करोड़ छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन, यह जम्बूद्वीपका गणितफल अर्थात् क्षेत्रफल है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ७२ ॥
७९०५६९४१५० इस संख्या में तेरह अंगुल और कुछ कम आधा अंगुल मिलाकर मनुष्य क्षेत्र के प्रतरांगुल ले आना चाहिये। आधे अंगुल में कुछ कमका प्रमाण
अर्धागुलके पचवन खंडों को अर्थात् ५५ को सात हजार अठासीसे खंडित अर्थात् भाजित करने पर जो लब्ध आवे उतना हीन अर्धागुल निश्चित करना चाहिये ॥ ७३ ॥
१ ५५ यथा ७०८८
X
१
उदाहरण
ही अर्धागुल.
२
जम्बूद्वीपसंबन्धी इन प्रतर योजनोंको लवण और कालोद समुद्रकी शलाकाओं से न्यून मनुष्यक्षेत्र की जम्बूद्वीप प्रमाणसे की गई शलाकाओंके द्वारा गुणित करके पुनः प्रतरांगुल कर लेना चाहिये |
-
१
२
का
५५
७०८८)
=
[ १,२, ४५.
१
५५
७०३३
२ १४१७६ = १४१७६
-
१ जम्बूद्वीपस्य गणितपदं वक्ष्येऽथ तत्त्वतः ॥ ३५ ॥ शतानि सप्तकोटीन नवतिः कोटयः पराः । लक्षाणि सप्तपंचाशत् षट्सहस्रोनितानि च ॥ ३६ ॥ सार्द्ध शतं योजनानां पादोन कोशयामलम् । धनूंषि पंचदश च सार्द्धं करद्वयं तथा ॥ ३७ ॥ अंकतोऽपि यो. ७९०५६९४१५० को. १ धनुः १५१५ कर २ अं. १२ लो. प्र. सर्ग १५, पत्र_ १६५.
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१, २, ४५.]
दव्यपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवर्ण
विशेषार्थ-यद्यपि 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होदि' अर्थात् किसी वृत्त क्षेत्रकी परिधि लानेके लिये पहले उस क्षेत्रका जितना विस्तार हो उसका वर्ग कर ले। अनन्तर उस घर्गित राशिको दशसे गणित करके उसका वर्गमल निकाल ले। इसप्रकार जो वर्गमूलका प्रमाण होगा वही उस गोल क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण होगा। इस नियमके अनुसार एक लाख विस्तारवाले जम्बूद्वीपकी परिधिका प्रमाण तीन लाख सोलह हजार दोसौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एकसौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुलसे कुछ अधिक आता है। परंतु धयलाकारने साढ़े तेरह अंगुलसे कुछ अधिकके स्थानमें साढ़े तेरह अंगुलसे कुछ कम ग्रहण किया है। उन्होंने कुछ कमका प्रमाण ३५ मेंसे ३ ४ ५८ कम बतलाया प्रतीत होता है । यद्यपि इसका निश्चित कारण प्रतीत नहीं होता है, फिर भी इसे ग्रहण करके उक्त परिधिके प्रमाणके ऊपरसे जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल लानेके लिये 'वासचउत्थाहदो दु खेत्तफलं' अर्थात् परिधिके प्रमाणको व्यासकी चौथाईरूप प्रमाणसे गुणित कर देने पर क्षेत्रफलका प्रमाण होता है, इस नियमके अनुसार पच्चीस हजारसे गुणित कर देने पर जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल आ जाता है। यहां सर्व क्षेत्रफल योजनों में लाने के लिये यथायोग्य प्रक्रिया कर लेना चाहिये। अब यहां पर दो समुद्रोंके क्षेत्रफलको छोड़कर जम्बूद्वीप, धातकीखंडद्वीप और पुष्करार्धद्वीपका सम्मिलित क्षेत्रफल लाना है, अतएव 'बाहिरसूईवगं' इत्यादि करणसूत्रसे ढाई द्वीपके जम्बूद्वीपप्रमाण खंड लाने पर वे १३२९ होते हैं। इनसे उपर्युक्त क्षेत्रफलके गुणित करने पर दो समुद्रोंके क्षेत्रफलके विना ढाई द्वीपका क्षेत्रफल योजनोंमें आता है। इसके प्रतरांगुल बनानेके लिये एक योजनके चार कोस, एक कोसके दो हजार धनुष, एक धनुषके चार हाथ और एक हाथके चौवीस अंगुलोंके वर्गसे गुणा कर देना चाहिये, क्योंकि, पूर्वोक्त राशि वर्गात्मक है अतएव वर्गात्मक राशिके गुणकार और भागहार भी वर्गात्मक ही होना चाहिये। इस प्रक्रियासे दो समुद्रोंके क्षेत्रफलके विना ढाई द्वीपका क्षेत्रफल प्रमाणप्रतरांगुलोंमें आ जाता है। आगे गणितद्वारा उसीका स्पष्टीकरण किया गया है। यहांधवलाके उपलभ्य पाठमें जो संशोधनकी कल्पना पादटिप्पणमें व्यक्त की गई है, उसीके अनुसार अर्थ किया गया है क्योंकि मूलकी अंकसंदृष्टि की सार्थकता तभी सिद्ध होती है जो कि निम्न उदाहरणसे स्पष्ट हैउदाहरण–३१६२२७ यो., ३ को., १२८ ध,, और कुछ कम १३% अंगुल जो श्री धव
लके अनुसार २७-१४ १५ अंगुल होते हैं। यह जम्बूद्वीपकी परिधि है। जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल लानेके लिये उपयुक्त प्रमाणमें जम्बूद्वीपके व्यासके चतुर्थाश अर्थात् पच्चीस हजारसे गुणा करना चाहिये जिससे जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल आया
८६०७०६२०३७२४५०२२५ प्रतर योजन
१०८८७१६८
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२५८ ] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ४५. ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपदरंगुलेहि गुणिदे माणुसखेत्तादो संखेज्जगुणत्तप्पसंगा। माणुसलोगखेत्तफलपमाणपदरंगुलेसु संखेज्जुस्सेहंगुलमेत्तोगाहणो मणुसपज्जत्तरासी सम्मादि त्ति णासंकणिज्ज, सव्वुक्कस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपमाणपदरंगुलमेत्तोगाहणगुणगारमुहवित्थारुवलंभादो। सबट्ठसिद्धिदेवाणं पि मणुसपज्जत्तरासीदो संखेज्जगुणाणं ण सव्वसिद्धिविमाणे जंबूदीवपमाणे ओगाहो अत्थि, तत्तो संखेज्जगुणोगाहणाणं तत्थावट्ठाणविरोहादो। तम्हा मणुसपज्जत्तरासी एयकोडाकोडाकोडीओ सादिरेया चि घेत्तच्चा।
इसे दो समुद्रोंके विना ढाईद्वीपकी जम्मृद्वीपप्रमाण की गई खंडशलाकाओं अर्थात् १३२९ से गुणित कर देने पर दो समुद्रोंके बिना ढाईद्वीपका क्षेत्रफल आया११४३८७८५४४७४९८६३४९०२५
जना
१०८८७१६८
-प्रमाण प्रतर योजन
इसके प्रमाणप्रतरांगुल बनानेके लिये पूर्वोक्त मापके प्रमाणानुसार ४४२०००°४४°४२४ से गुणित करने पर इष्ट क्षेत्रफल आया
६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० प्रमाण प्रतर अंगुल.
अब यदि ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ इतनी मनुष्य पर्याप्त राशिको संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणा किया जाय तो उस प्रमाणको मनुष्य क्षेत्रसे संख्यातगुणेका प्रसंग आ जायगा। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि मनुष्यलोकका क्षेत्रफल जो प्रमाण प्रतरांगुलोंसे लाया गया है उसमें संख्यात उत्सेधांगुलमात्र अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायगी, सो ठीक नहीं है, क्योंकि, सबसे उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त सशिमें संख्यात प्रमाण-प्रतरांगुलमात्र अवगाहनाके गुणकारका मुख विस्तार पाया जाता है। उसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त राशिसे संख्यातगुणे सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी भी जम्बूद्वीपप्रमाण सर्वार्थसिद्धिके विमानमें अवगाहना नहीं बन सकती है, क्योंकि, सर्वार्थसिद्धि विमानके क्षेत्र फलसे संख्यातगुणी अवगाहनासे युक्त देवाका वहां पर अवस्थान मानने में विरोध आता इसलिये मनुष्य पर्याप्त राशि एक कोड़ाकोड़ाकोड़ीसे अधिक है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
विशेषार्थ- मनुष्योंका निवास क्षेत्र ढाई द्वीप है, जिसका व्यास पैंतालीस लाख योजन है। इसका क्षेत्रफल १६००९०३०६५४६०१३९ योजनप्रमाण होता है। इसके प्रतरांगुल ९४४२५१०४९६८१९४३४००००००००० होते हैं, परंतु ढाई द्वीपके क्षेत्रफलमेंसे दो समुद्रोंका
१ तललीनमधूगविमलं धूमसिलागाविचोरभयमेरू । तटहरिखझसा होति हु माणुसपज्जत्तसंखंका ॥ गो. जी. १५८. छ ति ति ख पण नव तिग चउ पण बिग नव पंच सग तिग चउरो। छ दु चउ इग पण दु छ इग अड दुदु नव सग जहन नरा ॥लो. प्र. सर्ग ७. पत्र १०८.
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१, २, ४६.] दव्वपमाणाणुगमे मशुसमदिपमाणपरूवणं [ २५९
___ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ ४६॥
क्षेत्रफल घटा देने पर शेष क्षेत्रफल ६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुलप्रमाण रहता है, क्योंकि, दोनों समुद्रोंमें अन्तीपज मनुष्य होते हुए भी उनका प्रमाण अत्यल्प होनेसे उनके क्षेत्रफलकी यहां विवक्षा नहीं की गई है। एक मनुष्यका निवास क्षेत्र संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है, इसलिये ऊपर जो प्रतरांगुलोंकी संख्या बतलाई है मनुष्यराशि उससे कम ही होना चाहिये । पर मनुष्यराशिको २९ अंकप्रमाण मान लेने पर २५ अंकप्रमाण क्षेत्रफलवाले क्षेत्रमें उनका रहना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। कारण कि ढाई द्वीपका क्षेत्रफल २५ अंकप्रमाण ही है । कदाचित् यह कहा जाय कि ऊपर जो २५ अंक प्रतरांगुल. प्रमाण क्षेत्रफल कहा है वह प्रमाणांगुलकी अपेक्षा कहा गया है। यदि इसके उत्सेधांगुल कर लिये जाय तो इसमें २९ अंकप्रमाण मनुष्यराशि समा जायगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अवगाहनाकी अपेक्षा २९ अंकप्रमाण मनुष्यराशिका उक्त क्षेत्र में समा जाना अशक्य है। आकाशकी अवगाहनाकी विचित्रतासे यह कोई दोष नहीं रहता है, ऐसा कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि, अवगाह्यमान पदार्थोंका संयोगरूप अन्योन्य प्रवेशरूप संबन्ध ही अल्प क्षेत्रमें बहुत पदार्थों के अधिष्ठानके लिये कारण है। परंतु मनुष्यों में परस्पर इसप्रकारका संबन्ध गर्भादि अवस्थाको छोड़कर प्रायः नहीं पाया जाता है, इसलिये सूत्र में जो कोडाकोडाकोड़ा कोड़ीसे नीचेकी और कोडाकोड़ाकोड़ीसे ऊपरकी संख्या मनुष्योंका प्रमाण कहा है वही युक्तियुक्त है। दूसरे यदि उनतीस अंकप्रमाण मनुष्यराशि मान ली जाय, तो मनुष्यनियोंसे तिगुणे अथवा, सातगुणे जो सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण कहा है वह नहीं बन सकता है, क्योंकि, एक लाख योजनप्रमाण सर्वार्थसिद्धिके विमान में इतने देवोंका रहना अशक्य है। इसका कारण यह है कि एक लाख योजनके क्षेत्रफलके उत्सेधरूप प्रतरांगुल करने पर भी उनका प्रमाण अट्ठाईस अंकप्रमाण आता है और सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण मनुष्यराशिको २९ अंकप्रमाण मान लेने पर ३० अंकप्रमाण होता है। यह तो निश्चित है कि एक देव संख्यात प्रतरांगुलोंमें रहता है, परंतु यहां क्षेत्रफलके प्रतरांगुल देवोंके प्रमाणसे कम हैं, इसलिये ३० अंकप्रमाण देवोंका २८ अंकप्रमाण क्षेत्रफलवाले क्षेत्रमें रहना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि सूत्रमें पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण जो कोडाकोड़ाकोडाकोड़ीके नीचे और कोडाकोडाकोड़ीके ऊपर कहा है वही ठीक है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पर्याप्त मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ४६॥
१ एतेभ्यः पर्याप्तमनुष्याणां संख्यातगुणत्वेऽपि आकाशस्यावगाहशक्तिवैचिध्यात्संशतिनं कर्तव्या । गी. जी. १५९ टीका.
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२६०] छक्खंडागमे जीवठाणं
[ १, २, ४७. एदम्हि सुत्तम्हि मणुसोघे जं चउण्हं गुगट्ठाणाणं पमाणं वुत्तं तं चेव पमाणं वत्तव्वं, संगहिदतिवेदत्तणेण पज्जत्तभावेण च दोहं विसेसाभावादो ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगकेवलि त्ति ओघं ॥ ४७ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं परूविदो त्ति ण वुच्चदे ।
मणुसिणीसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया ? कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेट्टदो ॥४८॥
एदस्स सुत्तस्स वक्खाणं मणुसपज्जत्तसुत्तवक्खाणेण तुलं । णवरि पंचमवग्गस्स तिभागे पंचमवग्गम्हि चेव पक्खित्ते मणुसिणीणमवहारकालो होदि । तेण सत्तमवग्गे भागे हिदे मणुसणीणं दधमागच्छदि । लद्धादो सगतेरसगुणट्ठाणपमाणे अवणिदे मणुसिणीमिच्छाइदिव्वं होदि ।
सामान्य मनुष्य राशिका प्रमाण कहते समय सासादनादि चार गुणस्थानवर्ती राशिका जो प्रमाण कह आये हैं, इस सूत्रका व्याख्यान करते समय उसी प्रमाणका व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि, संगृहीत त्रिवेदत्यकी अपेक्षा और पर्याप्तपनेकी अपेक्षा उक्त दोनों राशियों में कोई विशेषता नहीं है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पर्याप्त मनुष्य सामान्य प्ररूपणाके समान संख्यात हैं ॥ ४७ ।।
इस सूत्रका अर्थ पहले कह आये हैं, इसलिये यहां नहीं कहा जाता है ।
मनुष्यनियोंमें मिथ्याहृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? कोड़ाकोड़ाकोड़ीके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीके नीचे छठवें वर्गके ऊपर और सातवें वर्गके नीचे मध्यकी संख्याप्रमाण हैं ॥ ४८ ॥
इस सूत्रका व्याख्यान मनुष्य पर्याप्तकी संख्याके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके तुल्य है । इतनी विशेषता है कि पांचवें वर्गके त्रिभागको पांचवें वर्गमें प्रक्षिप्त कर देने पर मनुष्यनियोंके प्रमाण लानेके लिये अवहारकाल होता है। उस अवहारकालसे सातवें वर्गके भाजित करने पर मनुष्यनियोंके द्रव्यका प्रमाण आता है। इसप्रकार जो मनुष्यनियोंकी संख्या लब्ध आवे उसमेंसे अपने तेरह गुणस्थानके प्रमाणके घटा देने पर मनुष्यनी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है।
१दो पण सग दुग छण्णव सग पण इगि पंच णवा एधे । तिय पण दुग अड छपण अह एक दुगमेकं । इगि दुग चउ णव पंच य मणुसिणिरासिस्स परिमाणं । ५९४२११२१८८५६९८२५३१९५१५७९९२७५२ ति. पं. १६० पत्र. पज्जचमणुस्साणं तिच उत्थो माणुसीण परिमाणं ॥ गो. जी. १५९.
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१, २, ४९.] दवपमाणाणुगमे मणुसर्गादपमाणपरूवर्ण
[२६१ मणुसिणीसु सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा ॥४९॥
मणुस्सोधे वुत्तसासणादीणं संखेजदिभागो सासणादीणं गुणपडिवण्णाणं पमाणं मणुसिणीसु हवदि । कुदो ? अप्पसत्थवेदोदएण सह पउरं सम्मइंसणलंभाभावादो । तं कधं जाणिजदे ? ' सव्वत्थोवा णवंसयवेदअसंजदसम्मादिट्ठिणो । इत्थिवेदअसंजदसम्माइट्ठिणो असंखेज्जगुणा । पुरिसवेदअसंजदसम्माइट्ठिणो असंखेज्जगुणा' इदि अप्पाबहुअसुत्तादो कारणस्स थोवत्तणं जाणिजदे। तदो सासणसम्माइट्ठिादीणं पि थोवत्तणं सिद्धं
विशेपार्थ-किसी भी विवक्षित वर्गमें उसीके विभाग को जोड़कर उसका उसके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर उस विवक्षित वर्गके घनका तीन चतुर्थांश लब्ध आता है । तदनुसार पांचवें वर्गमें उसीका त्रिभाग जोड़कर सातवें वर्गमें भाग देने पर पांचवें वर्गके घनरूप मनुस्य राशिका तीन चतुर्थांश लब्ध आता है। यही मनुष्य योनिमतियों का प्रमाण है। इसमेंसे सासादन आदि तेरह गुणस्थानवी राशिका प्रमाण घटा देने पर मिथ्यादृष्टि स्त्रियोंका प्रमाण होता है. यह जो मलमें कहा है इससे प्रतीत होता है कि उपर्यक्त प्रमाण सिका भाववेदकी प्रधानतासे कहा गया है। यदि यह प्रमाण द्रव्यस्त्रियोंका होता तो मूलमें 'इसमेंसे सासादनादि तेरह गुणस्थानराशिका प्रमाण घटाने पर मिथ्यादृष्टि मनुष्य योनिमतियोंका प्रमाण होता है। ऐसा न कह कर केवल इतना ही कहा जाता कि इस प्रमाणमेंसे सासादनादि चार गुणस्थानवर्ती राशिका प्रमाण घटाने पर मिथ्यादृष्टि योनिमतियोंका प्रमाण होता है। परंतु गोम्मटसारकी टीकामें यह प्रमाण द्रव्यवेदकी अपेक्षा बतलाया है।
____मनुष्यनियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥४९ ।।
___ सामान्य मनुष्योंमें सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी जो संख्या कही गई है उसके संख्यातवें भाग मनुष्यनियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका प्रमाण है, क्योंकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ प्रचुर जीवोंको सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होता है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-' नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं । स्त्रीवेदी असं. यतसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। और पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं।' इस अल्पबहुत्वके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे स्त्रीवेदियोंके अल्प होनेके कारणका स्तोकपना जाना जाता है । और इसीसे सासादनसम्यग्दृष्टि आदिकके भी स्तोकपना सिद्ध हो
१ पर्याप्तमनुष्यराशेः त्रिचतुर्भागो मानुषणि द्रव्यत्रीणां परिमाणं भवति । गो. जी. १५९ टीका,
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२६२) छक्खडागमे जीवाणं
[१, २, ५०. हवदि । णवरि एत्तियं तेसि पमाणमिदि ण णवदे, संपहि उवएसाभावादो ।
मणुसअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेना ॥५०॥
एत्थ णिव्यत्ति-अपजत्ते मोत्तूण लद्धि-अपज्जत्ताणं गहणं कायव्वं । कुदो ? एत्थ गुणपडिवण्णपमाणपरूवणाभावण्णहाणुववत्तीदो। सामण्णेण अवगद-असंखेज्जसविसेसपरूवणमुत्तरसुत्तमाह
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ५१॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं बहुसो परूविदो त्ति पुणो ण वुच्चदे पुणरुत्तभएण ।
खेत्तेण सेढीए असंखेजदिभागो। तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ। मणुस-अपउजत्तेहि रूवा पक्खित्तेहि सेढिमवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥५२॥ इदि
एदं वयणं ण घडदे, फलाभावा । संते संभवे वियहिचारे च विसेसणमत्थवंतं
आता है। परंतु इतनी विशेषता है कि उन सासादनसम्यग्दृष्टि आदि योनिमतियों का प्रमाण इतना है, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि, इस काल में इसप्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है।
लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ५० ॥
यहां पर निर्वृत्यपर्याप्तकोंको ग्रहण न करके लब्ध्यपर्याप्तकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रमाणके प्ररूपणका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता है ।
अपर्याप्त मनुष्य राशि असंख्यातरूप है यह बात सामान्यरूपसे तो जान ली, पर विशेषरूपसे उसका ज्ञान नहीं हुआ, अतः उस असंख्यातके विशेषरूपसे प्ररूपण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
कालकी अपेक्षा लब्धपर्याप्त मनुष्य असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहत होते हैं ॥५१॥
इस सूत्रका अर्थ पहले अनेकवार कह आये हैं, अतः पुनरुक्त दोषके भयसे पुनः नहीं कहते हैं।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण लब्धपर्याप्त मनुष्य हैं । उस जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम असंख्यात करोड़ योजन है। सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूल गुणित प्रथम वर्गमूलको शलाकारूपसे स्थापित करके रूपाधिक लब्धपर्याप्तक मनुष्योंके द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ॥ ५२ ॥
शंका-~~यह सूत्र-वचन घटित नहीं होता है, क्योंकि, इस वचनका कोई फल नहीं
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१, २, ५२. ]
दव्यमाणागमे मणुगदिपमाणपरूवणं
[ २६३
भवदि । एत्थ पुण संभवो णेव इदि । परिहारो बुच्चदे | सुत्तेण विणा सेढी असंखेअजोयणकोडियमाणो होदि त्तिण जाणिजदे, तदो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढिपमाणमिदि जाणावणट्टमिदं वयणं । परियम्मादो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढीए पमाणमवगदमिदि चे ण, एदस्स सुत्तस्स बलेण परियम्मपत्तदो । अहवा सेढीए असंखेदिभागो वि सेठी बुच्चदे, अवयविणामस्स अवयवे पवृत्तिदंसणादो । जहा गामेगदे से दद्धे गामो दद्ध इदि | अहवा एवं संबंधो कायव्वो । तिस्से सेठीए असंखेजदिभागस्स आयामो दत्तणं असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ होदि ति । अपज्जत्तएहि रूपक्खित्तएहि रूवा पक्खिएहि रूवं पक्खित्तएहिं तितिसु वि पादेसु रूवाहियपज्जत्तरासी पक्खिविदव्वो । पुणो हि वाहियमणुसपज्जत्तरासिमवणिदे मणुस्सापज्जत्ता होंति । अंगुलवग्गमूलं च तं तदियवग्गमूलगुणिदं च अंगुलवग्गमूलतादियवग्गमूलगुणिदं तेण सलागभूदेण सेढी अवहिरिज्जदित्ति जं वृत्तं होदि ।
है । व्यभिचारकी संभावना होने पर ही विशेषण फलवाला होता है । परंतु यहां पर तो उसकी संभावना ही नहीं है ?
समाधान – आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं । सूत्रके विना 'जगश्रेणी के असंख्यातवें भागरूप श्रेणी असंख्यात करोड़ योजनप्रमाण है ' यह नहीं जाना जाता है, अतः जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका प्रमाण असंख्यात करोड़ योजन है, इसका ज्ञान करानेके लिये उक्त वचन दिया है ।
शंका- जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम असंख्यात करोड़ योजन है, यह परिकर्म से जाना जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इस सूत्र के बलसे परिकर्म की प्रवृत्ति हुई है ।
अथवा, जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग को भी श्रेणी कहते हैं, क्योंकि, अवयवी के नामकी अवयव में प्रवृत्ति देखी जाती है । जैसे, ग्रामके एक भागके दग्ध होने पर ग्राम जल गया ऐसा कहा जाता है । अथवा, इसप्रकारका संबन्ध कर लेना चाहिये कि उस श्रेणीके असंख्यातवें aisi आयाम अर्थात् लंबाई असंख्यात करोड़ योजन है । ' अपज्जत्तरहि रुवपक्खित्तएहि रूवा पक्खित्तएहि रूवं पविखत्तएहि ' इन तीनों भी स्थानों में किसी भी वचनसे रूपाधिक पर्याप्त मनुष्य राशिका प्रक्षेप करना चाहिये । पुनः लब्धमैसे रूपाधिक पर्याप्त मनुष्य राशि घटा देने पर लब्धपर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण होता है । सूच्यं प्रथ वर्गमूलको तृतीय वर्गमूल से गुणित करके जो लब्ध आवे शलाकारूप उस राशिसे जगश्रेणी अपहृत होती है, यह इस सूत्रका अभिप्राय है ।
विशेषार्थ - 1- सामान्य मनुष्यराशिके प्रमाण मेंसे पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण घटा देने पर लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण शेष रहता है। सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि आवे उससे जगश्रेणीको भाजित करके लब्ध
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२६. छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, ५२. भागाभागं वत्तइस्सामो। मणुसरासिमसंखेजखंडे कए बहुखंडा मणुस-अपजत्ता होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मणुसिणीमिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा मणुसपज्जत्तमिच्छाइट्ठी होति । (सेसं संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा असंजदसम्माइद्विणो होति।) सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइटिणो होति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइट्टिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा संजदासजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पमत्तसंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा अपमत्तसंजदा होंति । उवरि ओघ । ।
अप्पाबहुगं तिविहं, सत्थाणं परस्थाणं सवपरत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणं वत्तइस्सामो । सव्वत्थोवो मणुसमिच्छाइडिअवहारकालो । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । के गुणगारो ? सगदव्वस्स असंखेजदिभागो । को पडिभागो ? सगअवहारकालो । अहवा सेढीए असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो? सगअवहार
राशिमेंसे एक कम कर देने पर सामान्य मनुष्यराशिका प्रमाण आता है और इसमेंसे पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण घटा देने पर लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण आता है।
अब भागाभागको बतलाते है- मनुध्यराशिके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण अपर्याप्त मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य है। शेष एक भागके संख्यात भाग
र उनसे बहुभागप्रमाण सालादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण संयतासंयत मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण प्रमत्तसंयत मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण अप्रमत्तसंयत मनुष्य हैं। इसके ऊपर सामान्य प्ररूपणाके समान भागाभाग जानना चाहिये।
अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुत्व, परस्थान अल्पबहुत्व और सर्व परस्थान अल्पबहुत्व । उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं- मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल सबसे स्तोक है । उन्हीं मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने द्रब्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है। अथवा, प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग
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१, २, ५२.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसगदिअप्पाबहुगपरूवणं [२६५ कालवग्गो। अहवा पदरंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि । केतियमेत्ताणि ? विदियवग्गमूलमत्ताणि । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? सगअवहारकालो। एवं मणुसअपज्जत्ताणं पि सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्यं । सासणादीणं सत्थाणं णत्थि । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं पि णत्थि सत्थाणप्पाबहुगं ।।
परत्थाणे पयदं- सव्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा। पंच खवगा संखेज्जगुणा। सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । संजदासजदा संखेज्जगुणा। सासणसम्माइट्ठी संखेजगुणा। सम्मामिच्छाइट्ठी संखेजगुणा। असंजदसम्माइट्ठी संखेज्जगुणा । तदो मिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सगअवहारकालस्स संखेजदिभागो । को पडिभागो ? असंजदसम्माइट्टिणो । तस्सेव दवमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? पुवमणिदो। सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पुत्वं भणिदो। मणुसपज्जत्तेसु सम्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा । पंच खवगा संखेज्जगुणा । एवं जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति । तदो मिच्छाइट्ठिदव्वं संखेज्जगुणं । को
गुणकार है जो प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण है। असंख्यात सूच्यंगुलोंका प्रमाण कितना है? सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण है। मनुष्यमिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है। इसीप्रकार मनुष्य लब्धपर्याप्तोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवर्ती मनुष्योंका स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं है। उसीप्रकार पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियोका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं है।
अब परस्थान अल्पबहुत्वका आश्रय लेकर प्रकृत विषयका वर्णन करते है-चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक सबसे स्तोक हैं। पांचों गुणस्थानवर्ती क्षपक संख्यातगुणे हैं। सयोगिकेवली क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। संयतासंयत मनुष्य प्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य संयतासंयत मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के प्रमाणसे मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने अवहारकालका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका प्रमाण प्रतिभाग है । उन्हीं मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका द्रव्यप्रमाण अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पहले कह आये है। मनुष्य मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? पहले कह आये हैं। मनुष्य पर्याप्तकोंमें चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक सबसे थोडे हैं। पांचों गुणस्थानवर्ती क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार उत्तरोत्तर असंयतसम्यग्दृष्टि तक अल्पबहुत्व समझना चाहिये। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंके प्रमाणसे
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२६६ ] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, ५३. गुणगारो ? संखेज्जा समया । एवं चेव मणुसिणीसु वि परत्थाणं वत्तव्वं ।
सव्वपरत्थाणे पयदं- सव्वत्थोवा अजोगिकेवलिणो। चत्तारि उवसामगा संखेजगुणा । चत्तारि खवगा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । संजदासंजदा संखेज्जगुणा। सासणसम्माइट्ठिणो संखेज्जगुणा । सम्मामिच्छाइद्विणो संखेजगुणा । असंजदसम्माइट्ठिणो संखेजगुणा। मणुसपज्जत्तमिच्छाइट्ठिणो संखेज्जगुणा । मणुसिणीमिच्छाइट्ठिणो संखेज्जगुणा । मणुसअपजत्तअवहारकालो असंखेजगुणो। मणुसअपजत्तदव्यमसंखेजगुणं । उवरि जाव लोगो ति ताव जाणिऊण वत्तव्यं । मणुसिणीगुणपडिवण्णाणं पमाणमेत्तियमिदि णावहारिदं, तम्हा सव्वपरत्थाणप्पाबहुए तेसिं परूवणा ण कदा।
एवं मणुसगई समत्ता। देवगईए देवेसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ५३॥
मिथ्यादृष्टि पर्याप्त मनुष्योंका द्रव्यप्रमाण संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इसीप्रकार मनुष्यनियों में भी परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। . अब सर्व परस्थानमें अल्पबहुत्वका कथन प्रकृत है- अयोगिकेवली मनुष्य सबसे स्तोक हैं। चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक अयोगियोंसे संख्यातगुणे हैं। चारों गुणस्थानवर्ती क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। सयोगिकेवली क्षपोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत मनुष्य सयोगियोंसे संख्यातगुणे हैं । प्रमत्तसंयत मनुष्य अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । संयतासंयत मनुष्य प्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य संयतासंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यग्मिथ्याष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं । मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं। मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि जीव पर्याप्त मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। मनुष्य अपर्याप्त अवहारकाल मनुष्यनी मिथ्यादृष्टियोंसे असंख्यातगुणा है। मनुष्य अपर्याप्तोंका द्रव्य उन्हींके अवहारकालसे असंख्यात गुणा है । इसके ऊपर लोक तक जानकर अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। गुणस्थानप्रतिपन्न मनष्यनियोंका प्रमाण इतना है. यह निश्चित नहीं है, इसलिये सर्व परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते समय गुणस्थानप्रतिपन्न उनके प्रमाणकी प्ररूपणा नहीं की।
इसप्रकार मनुष्यगतिका कथन समाप्त हुआ। देवगतिप्रतिपन्न देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ५३॥
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१, २, ५३ ] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपखवणं
[२६७ एत्थ देवगइगहणेण सेसगइपडिसेहो कदो हवदि । देवेसु त्ति क्यणेण तत्थ द्विददव्वपडिसेहो कदो हवदि। मिच्छाइट्टि त्ति वयणेण सेसगुणहाणपडिसेहो कदो हवदि। दव्यपमाणेणेत्ति वयणेण खेत्तादिपडिसेहो कदो हवदि । केवडिया इदि वयणेण सुत्तस्स पमाणत्तं सूचिदं हवदि। असंखेज्जा इदि वयणेण संखेजाणताणं पडिणियत्ती कदो हवदि।
किमसंखेज णाम ? जो रासी एगेगरूवे अवणिजमाणे णिहादि सो असंखेजो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो । जदि एवं तो वयसहिदसक्खयअद्धपोग्गलपरियट्टकालो वि असंखेजो जायदे ? होदु णाम । कथं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरियदृस्स अणंतववएसो ? इदि चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो। तं जहा- अणंतस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गलपरियकालो वि अणंतो होदि । केवलणाणविसयत्तं पडि विसेसाभावा सव्वसंखाणाणमणंतत्तणं जायदे ? चे ण, ओहिणाणविसयवदिरित्तसंखाणे अणण्णविसयत्तणेण तदुवयारपवुत्तीदो। अहवा जं संखाणं पंचिंदियविसओ तं संखेज्ज
सूत्रमें देवगति पदके ग्रहण करनेसे शेष गतियोंका प्रतिषेध हो जाता है। 'देवोंमें ' ऐसा वचन देनेसे देवलोक में स्थित अन्य द्रव्योंका प्रतिषेध हो जाता है । 'मिथ्यादृष्टि' इस वचनसे अन्य गुणस्थानोंका प्रतिषेध हो जाता है। 'द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा ' इस वचनसे क्षेत्र आदि प्रमाणों का प्रतिषेध हो जाता है । 'कितने हैं ' इस पचनसे सूत्रकी प्रमाणता सूचित हो जाती है। ' असंख्यात हैं' इस पचनसे संख्यात और अनन्त संख्याकी निवृत्ति हो जाती है।
शंका- असंख्यात किसे कहते हैं, अर्थात् अनन्तसे असंख्यातमें क्या भेद है ?
समाधान- एक एक संख्याके घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है।
शंका - यदि ऐसा है तो व्ययसहित होनेसे नाशको प्राप्त होनेवाला अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी असंख्यातरूप हो जायगा ?
समाधान-हो जाओ। शंका-तो फिर उस अर्धपुद्गल परिवर्तनरूप कालको अनन्त संशा कैसे दी गई है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अर्धपुद्गल परिवर्तनरूप कालको जो अनन्त संज्ञा दी गई है वह उपचारनिमित्तक है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं- अनन्तरूप केवलज्ञानका विषय होनेसे अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल भी अनन्त है, ऐसा कहा जाता है।
- शंका-केवलज्ञानके विषयत्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी संख्याओंको अनन्तत्व प्राप्त हो जायगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जो संख्याएं अवधिज्ञानका विषय हो सकती है उनसे अतिरिक्त ऊपरकी संख्याएं केवलज्ञानको छोड़कर दूसरे और किसी भी ज्ञानका विषय नहीं हो सकती हैं, अतएव ऐसी संख्याओं में अनन्तत्वके उपचारकी प्रवृत्ति हो जाती है। अथवा, जो संख्या पांचों इन्द्रियोंका विषय है वह संख्यात है। उसके ऊपर जो संख्या अवधिशामका विषय
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[ २६८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५४.
णाम | तदो उवरि जमोहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम । तदो उवरि जं केवलणाणस्सेव विसओ तमर्णतं णाम । संपहि सुहुमदरपरूवणडुमुत्तरसुत्तमाह
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ५४ ॥ नादत्थमिदं सुतं ।
खेत्ते पदरस्स वेळप्पण्णंगुलस्यवग्गपडिभागेणं ॥ ५५ ॥ देवमिच्छाइट्ठि त्ति अणुवट्टदे | अंगुलमिदि बुत्ते एत्थ सूचिअंगुलं घेत्तव्वं । सद
है वह असंख्यात है । उसके ऊपर जो केवलज्ञानके विषयभाव को ही प्राप्त होती है वह अनन्त है । अब अतिसूक्ष्म प्ररूपणा के प्ररूपण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंकालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणियों और उत्सपिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ५४ ॥
इस सूत्र का अर्थ पहले बतलाया जा चुका है ।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगत के दोसौ छप्पन अंगुलोंके वर्गरूप प्रतिभाग से देव मिथ्याराशि आती है, अर्थात् दोसौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गरूप भागहारका जगप्रतर में भाग देने पर देव मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है ॥ ५५ ॥
विशेषार्थ - यद्यपि दोसौ छप्पन सूच्यंगुलों के वर्गका भाग जगप्रतर में देने से ज्योतिषी देवोंकी संख्या आती है, फिर भी व्यन्तर आदि शेष देवोंका प्रमाण ज्योतिषी देवोंके संख्यातवें भागमात्र है, इसलिये यहां पर द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा संपूर्ण देवराशिका प्रमाण पूर्वोक्त कहा है । विशेषरूपसे विचार करने पर तो दोसौ छप्पन सूच्यंगुलों के वर्गका जगप्रतर में भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे कुछ अधिक संपूर्ण देवोंका प्रमाण है, ऐसा समझना चाहिये । साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि यहां जीवद्वाणमें चौदह मार्गणाओं में मिध्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंकी अपेक्षा पृथक् पृथक् संख्या बतलाई है । इसलिये उस उस मार्गणा में सामान्य संख्या के प्रमाणसे मिध्यादृष्टिके प्रमाणको कुछ कम कहना चाहिये था । परंतु वैसा न कह कर सामान्य संख्याका प्रमाण ही यहां प्रायः कर मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण कहा है सो यह कथन भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे ही सर्वत्र समझना चाहिये । विशेषरूपसे विचार करने पर तो सामान्य संख्या के प्रमाणमेंसे गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रमाणको घटा देने पर ही मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण होगा ।
यहां पर देव मिध्यादृष्टि पदकी अनुवृत्ति हुई है। सूत्र में ' अंगुल ' ऐसा सामान्य पद
१ देवगतौ देवा मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयमागप्रमिताः । स. सि. १, ८.
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१, २, ५६.] दव्यपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपख्वणं
[ २६९ सद्दो वेण्हं विसेसणं हवदि, ण छप्पण्णस्स । वेहि विसेसिदछप्पण्णसदस्स गहणं पसज्जदि त्ति ण च एवं, अणिद्वत्तादो । पडिभागो भागहारो । तदो वेसयछप्पण्णंगुलवग्गेण जगपदरे खंडिदे तत्थ एगखंडेण तुल्ला देवमिच्छाइट्ठी होति त्ति जं वुत्तं होदि । पण्णद्विसहस्सपंचसय-छत्तीसपदरंगुलाणि भागहार कट्ट जगपदरस्सुवरि खंडिदादओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठीणं वत्तव्या।
सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठीणं ओघं
एदेसिं देवगुणपडिवण्णाणं परूवणा सामण्णेण ओघगुणपडिवण्णदव्वपमाणपरूवणमणुहरदि त्ति ओघेणेत्ति भणिदं । पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो, अण्णहा सेसगइगुणपडिवण्णाणमभावप्पसंगा। तं विसेसं वत्तइस्सामो। तं जहाआवलियाए असंखेज्जदिभाएण ओघअसंजदसम्माइटिअवहारकालं खंडेऊण लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते देवअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असं
कहने पर यहां उससे सूच्यंगुलका ग्रहण करना चाहिये। शत शब्द दोका विशेषण है, छप्पनका नहीं। यदि कोई कहे कि दो विशिष्ट छप्पनसौका ग्रहण हो जाना चाहिये सो बात नहीं है, क्योकि, ऐसा मानना इष्ट नहीं है। प्रतिभागका अर्थ भागहार है, अतः यह अभिप्राय हुआ कि दोसौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गसे जगप्रतरके खंडित करने पर उनमें से एक खंडके बराबर देव मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। पेंसठ हजार पांचसौ छत्तीस प्रतरांगुलोंको भागहार करके जगप्रतरके ऊपर खंडित आदिको पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंके खंडित आदिकके समान कहना चाहिये।
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य देवोंका द्रव्यप्रमाण ओघ प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ ५६ ॥
इन गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंकी संख्या-प्ररूपणा सामान्यरूपसे गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य जीवोंकी संख्या प्ररूपणाका अनुकरण करती है, अतएव 'ओघसे ऐसा कहा है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो विशेषता है ही, अन्यथा शेष गतिसंबन्धी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अभावका प्रसंग आ जाता है। आगे उसी विशेषताको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
___आपलीके असंख्यातवें भागसे सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालमें मिला देने पर देव भसंयतसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल होता है। उस देव असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको
२ सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यग्मिध्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयः पत्योपमासंख्येयभागप्रमिताः स. सि. १.८.
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२७०) छक्खडागमे जीवहाणं
[१, २, ५७. खेजदिभाएण गुणिदे देवसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूवेहि गुणिदे देवसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमस्सुवरि खंडि. दादओ पुव्वं व वत्तव्वा ।
भवणवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥५७॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरति कालेण ॥२८॥
एदस्स वि अत्थो सुगमो चेव ।
खेत्तेण असंखेजाओ सेढीओ पदरस्स असंखेज्जदिभागो। तेसिं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलं अंगुलवगमूलगुणिदेण ॥ ५९॥
एदस्स अइसुहुमसुत्तस्स विवरणं वुच्चदे । असंखेज्जासंखेज्जमणेयवियप्पं । तत्थ आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर देव सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। उस देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर देव सासा. दनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोंके द्वारा पल्योपमके ऊपर खंडित आदिकका कथन पहलेके समान कहना चाहिये।
भवनवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ५७॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ५८ ॥
इस सूत्रका भी अर्थ सुगम ही है।
क्षेत्रकी अपेक्षा भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो असंख्यात जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलको सून्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे, उतनी है ॥ ५९॥
अत्यन्त सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनेवाले इस सूत्रका विवरण लिखा जाता है१ असंखेम्जा असुरकुमारा जाव असंखेज्जा थणियकुमारा। अनु. द्वा. सू. १४१, पृ. १७९. २ प्रतिषु 'संखेज्जासंखेज्जाहि ' इति पाठः । ३ घणअंगुलपदमपदंxx सोटिसंगुणं xx। भवणेxx देवाणं होदि परिमाणं । गो. जी. १६१.
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१, २, ६०.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२७१ असंखेज्जाओ सेढीओ इदि वुत्तं जगपदरमाई काऊण उवरिम-असंखेज्जासंखेज्जवियप्पपडिसेहटुं । पदरस्स असंखेजदिभागो वि अणेयवियप्पो इदि कट्ट तं णिण्णयह सेढीणं विक्खंभमूई उत्ता। तिस्से पमाणं वुच्चदे। अंगुलं अंगुलबग्गमूलगुणिदं भवणवासिय मिच्छाइद्विविक्खंभसई हवदि त्ति संबंधेयव्वं । घणंगुलपढमवग्गमूलमिदि जं वुत्तं होदि । अंगुलवग्गमूलगुणिदेणेत्ति तइयाणिदेसो कधं घडदे ? पढमाविहत्तीए अढे एसो तइयाणिदेसो दट्ठवो। अण्णत्थ ण एवं दिस्सदीदि चे ण, 'वेछप्पण्णंगुलसदवग्गपडिभागेण' इच्चादिसु सुत्तेसुवलंभा । अहवा णिमित्ते एसा तइयाविहत्ती दडव्या । अंगुलवग्गमूलगुणणकारणेण जमुप्पण्णंगुलं सा विक्खंभसूई होदि त्ति जं वुत्तं होदि । एदाए विक्खंभसूईए जगसेढिं गुणिदे भवणवासियमिच्छाइद्विपमाणं होदि ।
. सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइटि--असंजदसम्माइहिपरूवणा ओघं ॥६०॥
असंख्यातासंख्यात अनेक प्रकारका है, इसलिये जगप्रतरको आदि करके उपरिम असंख्यातासंख्यातके विकल्पोंका प्रतिषेध करने के लिये भवनवासी मिथ्यादष्टि देवोंका प्रमाण असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण कहा है। वह जगप्रतरका असंख्यातवां भाग भी अनेक प्रकारका है ऐसा समझकर उसका निर्णय करनेके लिये उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची कही। आगे उस विष्कंभसूचीका प्रमाण कहते हैं- सूच्यंगुलको सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे इतनी भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची है, ऐसा इस कथनका संबन्ध करना चाहिये। जो विष्कभंसूची घनांगुलके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है, यह इस कथनका अभिप्राय है।
शंका-'अंगुलवग्गमूलगुणिदेण' इसप्रकार यहां तृतीया विभक्तिका निर्देश कैसे बन सकता है?
समाधान-प्रथमा विभक्तिके अर्थमें यह तृतीया विभक्तिका निर्देश जानना चाहिये । शंका- दूसरी जगह ऐसा नहीं देखा जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'वेछप्पण्णंगुलसदवग्गपडिभागेण ' इत्यादिक सूत्रोंमें प्रथमा विभक्तिके अर्थमें तृतीया विभक्ति देखी जाती है । अथवा निमित्तरूप अर्थमें यह तृतीया विभक्ति जानना चाहिये। जिससे यह अभिप्राय हुआ कि अंगुलके वर्गमूलके गुणनकारणसे जो अंगुल उत्पन्न हो तत्प्रमाण भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची है। इस विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके गुणित करने पर भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनवासी जीवोंकी प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणाके समान है ॥६॥
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२७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ६१. दव्वट्टियणए अवलंबिज्जमाणे ओघेण सह एगत्तदंसणादो । पञ्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो तं पुरदो भणिस्सामो ।
वाणवेंतरदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा
एदस्स थूलत्थस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो।।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ६२॥
एदस्स वि सुहुमत्थसुत्तस्स अत्थो णव्वदे । खेत्तेण पदरस्स संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएण ॥ ६३ ॥
एदस्स अइसुहुमपरूवणट्ठमागदसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। पदरस्सेदि विहज्जमाणरासिणिद्देसो । संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएणेत्ति लद्धणिद्देसो । पदरस्स संखेज्जजोयण
द्रव्यार्थिक नयका अवलम्ब करने पर ओघ प्ररूपणाके साथ गुणस्थानप्रतिपन्न भवनवासी प्ररूपणाकी एकता अर्थात् समानता देखी जाती है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो उक्त दोनों प्ररूपणाओं में विशेषता है ही। उस विशेषताको आगे बतलावेंगे।
_वानव्यन्तर देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात
स्थूल अर्थका प्रतिपादन करनेवाले इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कालकी अपेक्षा वानव्यन्तर देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ६२ ॥
सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनेवाले इस सूत्रका भी अर्थ ज्ञात है।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगप्रतरके संख्यातसौ योजनोंके वर्गरूप प्रतिभागसे वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि राशि आती है, अर्थात् संख्यातसो योजनोंके वर्गरूप भागहारका जगप्रतरमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देव हैं ॥ ६३ ॥
अति सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनेके लिये आये हुए इस सूत्रका अर्थ कहते हैंसूत्रमें 'पदरस्स' इस पदसे अपह्रियमाण राशिका निर्देश किया है। ‘संखेज्जजोयणसदवग्गपडिभाएण' इस पदसे भागहार राशिके प्रतिपादनपूर्वक लब्ध राशिका निर्देश किया है।
१ असखिज्जा वाणमंतरा। अनु, द्वा. सू. १४१ पत्र १७९.
२ तिण्णिसयजोयणाणं xx| कदिहिदपदरं वेंतरपरिमाणं ॥ गो. जी. १६०. संखेज्जजायणाणं सूहपएसे हिं माइओ पयरो। वंतरसुरेहिं हीरह एवं एकेकमेए ण ॥ पश्चसं. २, १४.
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१, २, ६३.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२७३ सयवग्गपडिभागो वाणवेंतरमिच्छाइट्ठिदव्वपमाणं होदि । पडिभागो इदि किं वुत्तं हवदि ? संखेज्जजोयणसयवग्गमेत्तजगपदरस्स भागेसु एगभागो पडिभागो णाम । पडिभागसद्दो भागहारम्मि वट्टमाणो कज्जे कारणोवयारेण लद्धम्मि वट्टदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ पढमाए विहत्तीए अढे तदिया दट्टया । अहवा एस णिदेसो पढमाविहत्ती चेव जहा हवदि तहा साहेयव्यो । संखेजजोयणेत्ति वुत्ते तिण्णिजोयणसयमंगुलं काऊण वग्गिदे जो उप्पज्जदि रासी सो घेत्तव्यो । तस्स पमाणं पंच कोडाकोडिसयाणि तीसकोडाकोडीओ चउरासीदिकोडिसयसहस्साणि सोलसकोडिसहस्साणि च भवदि । जदि जोणिणीणमवहारकालो तप्पाओग्गसंखेज्जरूवगुणिदछज्जोयणसयमंगुलवग्गमेत्तो हवदि तो वाणवेंतरमिच्छाइट्ठीणं पि अवहारकालो एत्तियपदरंगुलमेत्तो हवदि । अध जदि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो छज्जोयणसयअंगुलवग्गमेत्तो चेव तो वाणवेंतरमिच्छाइडिअवहारकालेण' तिण्णिजोयणसयंगुलवग्गस्स संखेजदिभाएण होदव्वं, अण्णहा अप्पाबहुगसुत्तेण सह विरोहादो । एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे
इसका यह तात्पर्य हुआ कि जगप्रतरमें संख्यातसौ योजनोंके वर्गका भाग देने पर जो प्रतिभाग आवे उतना वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देवोंका प्रमाण है।
शंका-प्रतिभाग इस पदसे यहां क्या कहा गया है ?
समाधान - संख्यातसौ योजनोंके वर्गका जितना प्रमाण हो उतने जगप्रतरके भाग करने पर उनमेंसे एक भागरूप प्रतिभाग है। अर्थात् प्रतिभाग शब्दसे यहां लब्धरूप अर्थ लिया गया है। यद्यपि प्रतिभाग शब्द भागहाररूप अर्थमें रहता है तो भी कार्यमें कारणके उपचारसे यहां लब्धमें उसका ग्रहण करना चाहिये।
यहां प्रथमा विभाक्तिके अर्थमें तृतीया विभाक्ति जानना चाहिये । अथवा, '-पडिभापण' यह निर्देश प्रथमा विभक्तिरूप जिसप्रकार होवे उसप्रकार सिद्ध कर लेना चाहिये। सूत्रमें 'संख्यात योजन' ऐसा कहने पर तीनसौ योजनोंके अंगुल करके वर्गित करने पर जो राशि उत्पन्न हो वह राशि लेना चाहिये। उन अंगुलोंका प्रमाण पांचसौ कोडाकोड़ी, तीस कोड़ाकोड़ी, चौरासी लाख कोड़ी और सोलह हजार कोड़ी ५३०८४१६०००००००००० है। यदि तिर्यंच योनिमतियोंका अवहारकाल तद्योग्य संख्यात गुणित छहसौ योजनोंके अंगुलोका वर्गमात्र हो तो वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका भी अवहारकाल इतने अर्थात् तीनसौ योजनोंके अंगुलोंके वर्गरूप प्रतरांगुलप्रमाण हो सकता है। और यदि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल छहसौ योजनोंके अंगुलोंके वर्गमात्र ही है तो वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके किये गये अंगुलोंके वर्गके संख्यातवें भाग होना चाहिये, अन्यथा अल्पबहुत्वके सूत्रके साथ इस कथनका विरोध आता है।
१ प्रतिषु ' अवहारकालो ' इति पाठः ।
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२७४ ]
वाणवैतरमिच्छा इद्विपमाणमागच्छदि ।
छक्खंडागमे जीवाणं
सासणसम्माइड - सम्मामिच्छाइट्टि - असंजदसम्माइट्ठी ओघं
[ १, २, ६४.
॥ ६४ ॥
दव्वडियणए अवलंबिज्जमाणे केण वि अंसेण विसेसाभावादो ओघत्तमिदि बुच्चदे । पज्जवडियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो । तं विसेसं पुरदो भणिस्सामा |
उक्त अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण आता है । विशेषार्थ- - वाणव्यन्तर देवोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्ग है और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंका अवहारकाल छहसौ योजनों के अंगुलोंका वर्ग है । तीन सौ योजनोंके प्रतरांगुल ५३०८४१६०००००००००० होते हैं और छहसौ योजनोंके प्रतरांगुल २१२३३६६४०००००००००० होते हैं। किसी विवक्षित राशि के वर्गसे उस राशिसे दूनी राशिका वर्ग चौगुना होता है। जैसे ४ के वर्ग १६ से, ४ के दूने ८ का वर्ग ६४ चौगुना है। तथा किसी एक भाज्यमें ८ के वर्ग ६४ का भाग देनेसे जो लब्ध आयगा, ४ के वर्ग १६ का भाग देनेसे पूर्वोक लब्धसे चौगुना ही लब्ध आयगा । इसीप्रकार यहां तीनसौ योजनों के प्रतरांगुलोंसे छदसौ योजन प्रतरांगुल चौगुने होते हैं, अतएव छहसौ योजनोंके प्रतरांगुलोंका जगप्रतर में भाग देनेसे तिर्यच योनिमतियों का जितना प्रमाण लब्ध आयगा, उससे, तीनसौ योजनोंके प्रतरांगुलोंका उसी जगप्रतर में भाग देने पर वाणव्यन्तर देवोंका प्रमाण, चौगुना ही लघ्ध आता है पर अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में तिथंच योनिमतियोंसे वाणव्यन्तर देव संख्यातगुणे कहे हैं और उन्हींकी देवीयां देवोंसे संख्यातगुणी कही हैं । देवगतिमें निकृष्ट देवके भी बस देवियां होती हैं । इसप्रकार आगमानुसार तिर्यच योनिमतियोंके प्रमाणसे वाणव्यन्तर देवोंका प्रमाण १+३२ = ३३ गुणेसे अधिक ही होना चाहिये पर पूर्वोक्त भागहार के अनुसार चौगुना ही आता है। इससे प्रतीत होता है कि उक्त दोनों भागद्दारोंमेंसे कोई एक भागहार असत्य है । यदि वाणव्यन्तरोंका भागद्दार सत्य है ऐसा मान लिया जाता है तो योनिमतियोंका भागहार छहसौ योजन के प्रतरांगुलोंसे संख्यातगुणा होना चाहिये और यदि तिर्यंच योनिमतियों का भागहार सत्य मान लिया जाय तो वाणव्यन्तरोंका भागहार तीनसौ योजनोंके प्रतरांगुलोंका संख्यातवां भाग होना चाहिये ।
I
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वाणव्यन्तर देव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ६४ ॥
द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर किसी भी प्रकारसे गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य प्ररूपणा और गुणप्रतिपन्न वाणव्यन्तरोंकी प्ररूपणा में विशेषता न होनेसे गुणस्थानप्रतिपन्न वाणव्यन्तरोंकी प्ररूपणा गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य प्ररूपणा के समान कही । पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो विशेषता है ही । उस विशेषताका कथन आगे करेंगे ।
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१, २, ६५. ]
दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[ २७५
किमहं सव्वत्थ दव्वट्ठिय-पज्जवट्ठियण यद्दयमवलंबिय परूवणा कीरदे १ ण एस दोसो, संगह- वित्थररुचिसत्ताणुग्गहवावदत्तादो । अण्णहा असमाणदापसंगादो ।
जोइसियदेवा देवगणं भंगो ॥ ६५ ॥
देव गईणमिदि बहुवयणणिदेसो ण घडदे, एक्काए देवगईए बहुत्ताभावादो इदि १ ण एस दोसो, संगहिदाणेयत्ते एयत्ते बहुत्ताविरोहादो । जोइसेियदेवा इदि गुणाविसिदेवरगहणादो जोइसियदेवेसु चदुण्हं गुणट्ठाणाणं पमाणपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला | एसो दव्वट्ठियणयमवलंबिय णिद्देसो कओ । पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेस । तं जहा - तत्थ ताव मिच्छाइट्ठीसु विसेसो बुच्चदे | वाणवें तरादिसेस सव्वे देवा जोइसियदेवाणं संखेजदिभागमेत्ता हवंति । तेहि सामण्णदेवरासिमोवट्टिदे संखेज्ज
शंका - सर्वत्र द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयोंका अवलम्बन करके प्रमाणप्ररूपणा क्यों की जा रही है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संग्रहरुचि और विस्तररुचि शिष्यों के अनुग्रहके लिये इन दोनों नयोंका व्यापार हुआ है। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो असमानताका प्रसंग आ जाता है । देवगतिप्रतिपन्न
सामान्य देवोंकी संख्या जितनी कही है ज्योतिषी देव
उतने हैं ॥ ६५ ॥
शंका- सूत्र में आये हुए ' देवगईणं' यह बहुवचन निर्देश घटित नहीं होता है, क्योंकि, देवगति एक है, अतः उसे बहुत्व प्राप्त नहीं हो सकता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिसमें बहुत्व संगृहीत है ऐसे एकत्वमें बहुत्वके रहने में विरोध नहीं आता है ।
"
'जोइसियदेवा' इसप्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणोंकी विशेषता से रहित सामान्य ज्योतिषी देवोंका ग्रहण करनेसे ज्योतिषी देवोंमें चारों गुणस्थानोंकी संख्या प्ररूपणा सामान्य देवगतिसंबन्धी संख्या प्ररूपणा के समान है, ऐसा सिद्ध होता है । यह कथन द्रव्यार्थिक नयका आश्रय लेकर किया है । परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है ही । वह इसप्रकार है । उसमें भी पहले मिध्यादृष्टियों में विशेषता को बतलाते हैं- चाणव्यन्तर आदि शेष संपूर्ण देव ज्योतिषी देवोंके संख्यातवें भाग हैं। उनसे सामान्य देवराशिके अपवर्तित करने पर
१ असंखिज्जा जोइसिआ । अनु. द्वा. १४१ सू० १७९ पत्र. XX पदरं xx जोइसियाणं च परिमाणं ॥ गो. जी. १६० छप्पन्न दोस गंगुलसूइपएसि साणे त्थीय संखगुणा । पञ्चसं. २, १५.
२ प्रतिषु ' संगहिदो यत्ते ' इति पाठः । ३ प्रतिषु परूवण दिवोध ' इति पाठः ।
6
सदछप्पण्ण अंगुलाणं च । कदिहिदभाइओ पयरो । जोइसिएहिं हीरह
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२७६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ६६.
रुवाणि आगच्छंति । ताणि विरलिय दव्वमिच्छाइट्ठिसि समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि वाणवेंतरप्पमुहमिच्छाइट्ठिरासी पावेदि । तमुवरिमरूवधरिदसामण्णदेवमिच्छाइट्ठिसिम्हि अवणिदे जोइसियदेवमिच्छाइट्ठिरासी होदि । एवं समकरणं करिय रूवूणमिविरलणाए देवअवहारकाले भागे हिदे पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । तं देव - अवहारकालम्हि पक्खित्ते जोइसियदेवमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । सेसं देवमिच्छाइभिंगो | सासणादिगुणड्डाणगदविसेसं पुरदो वत्तइस्लामो | सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवेषु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ६६ ॥
एदस्त सुत्तस्स अत्थो अवगदो त्ति पुणो ण बुच्चदे 1 असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ६७ ॥
एदस्स सुत्तस्सत्थो सुगमो चेय । सव्वत्थ सुहुम - सुदुमदर - सुहमतमभेष्ण तिविहा परूवणा किमहं परुविज्जदे ? ण एस दोसो, तिब्ब मंद- मज्झिमसत्ताणुग्गहद्वत्तादो । अण्णा
संख्यात लब्ध आते हैं। उनका (संख्यातका) विरलन करके सामान्य देव मिध्यादृष्टि राशिको समान खंड करके दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति वाणव्यन्तर आदि मिथ्यादृष्टि देवराशि प्राप्त होती है । उसे उपरिम एकके प्रति प्राप्त सामान्य देव मिध्यादृष्टि राशिमेंसे घटा देने पर ज्योतिषी मिध्यादृष्टिराशि आती है । इसप्रकार समीकरण करके एक कम अधस्तन विरलनसे देव अवहारकालके भाजित करने पर प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग लब्ध आता है । उसे देव अवहारकालमें मिला देने पर ज्योतिषी देव मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। शेष कथन देव मिध्यादृष्टि प्ररूपणा के समान है । सासादन आदि गुणस्थानगत विशेषताको आगे बतलायेंगे |
सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवों में मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ६६ ॥
इस सूत्र का अर्थ अवगत है, इसलिये फिरसे नहीं कहते हैं ।
कलकी अपेक्षा सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ।। ६७ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम ही है ।
शंका- सब जगह सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम के भेदसे तीन प्रकारकी प्ररूपणा किसलिये कही जा रही है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीव्र बुद्धिवाले, मंद बुद्धिवाले और मध्यम बुद्धिवाले जीवोंके अनुग्रहके लिये तीन प्रकार की प्ररूपणा कही है। यदि ऐसा न माना जाय तो
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१, २, ६८.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२०७ जिणाणं सव्वसत्तसमाणत्तविरोहो । ण पुणरुत्तदोसो वि जिणवयणे संभवइ, मंदबुद्धिसत्ताणुग्गहट्ठदा एदस्स साफल्लादो ।
खेत्तेण असंखेज्जाओ सेढीओ पदरस्स असंखेज्जदिभागो । तासिं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ६८ ॥
___ पदरस्स असंखेजदिभागो इदि णिदेसो जगपदरादिउवरिमवियप्पणियत्तावणहो । असंखेज्जाओ सेढीओ इदि णिदेसो जगसेढीदो हेट्ठिमअसंखेज्जासंखेजवियप्पणियत्तावणहो । तासि सेढीणं पमाणपरिच्छेदं काउं अंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण इदि विक्खंभसूई वुत्ता। गुणिदेणेत्ति पढमाणिद्देसो दट्टयो । सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलेण गुणिदं सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई होइ। अहवा सूचिअंगुलतदियवग्गमूलेण पढमवग्गमूले भागे हिदे सोहम्मीसाणदेवमिच्छाइटिविक्खंभसई होदि । एदिस्से विक्खंभसूईए खंडिदादओ जहा णेरड्यविक्खंभसूईए तहा वत्तव्या ।
जिनदेव सर्व जीवों में समान परिणामी होते हैं इस कथनमें विरोध आ जायगा। जिनवचनमें पुनरुक्त दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, जिनवचन मंदबुद्धि शिष्योंका भी अनुग्रह करनेवाला होनेसे पुनः पुनः कथन करनेकी सफलता है।
क्षेत्रकी अपेक्षा सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो असंख्यात जगश्रेणियोंका प्रमाण जगप्रतरके असंख्यातवें भाग है। उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर जितना लब्ध आवे, उतनी है ॥ ६८॥
सूत्रमें 'जगप्रतरका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश जगप्रतर आदि उपरिम विकल्पोंके निराकरण करनेके लिये दिया है। ' असंख्यात जगश्रेणियां' इसप्रकारका निर्देश जगश्रेणीसे जीचेके असंख्यातासंख्यात विकल्पोंकी निवृत्तिके लिये दिया है। उन श्रेणियोंके प्रमाणका ज्ञान कराने के लिये सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको उसीके तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर जो लब्ध आवे उतनी उन श्रेणियोंकी विष्कंभसूची कही। 'गुणिदेण' यह पद प्रथमा विभक्तिरूप जानना चाहिये, जिससे यह तात्पर्य हुआ कि सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको तृतीय धर्गमूलसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवोंकी विष्कंभसूची होती है । अथवा, सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंकी मिथ्यादृष्टि विष्भसूची होती है। ऊपर जिसप्रकार नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीके खंडित आदिकका कथन कर आये हैं उसीप्रकार इस विष्कंभ. सूचीके खंडित आदिकका कथन करना चाहिये ।
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२७८
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ६८. संपहि खुद्दाबंधेण सामण्णेण जीवपमाणपरूवएण जाओ विक्खंभसूईओ णेरइय-सोहासाणभवणवासियदेवाणं वुत्ताओ ताओ चेव विक्खंभसूईओ एत्थ वि जीवट्ठाणे मिच्छाइद्विपरूवणाए अण्णूणाहियाओ वुत्ताओ । तं जहाअंगुलस्स वग्गमूलं विदियवग्गमूलगुणिदेण इदि एसा खुद्दाबंधे णेरइयविक्खंभसूई उत्ता । तासिं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलं अंगुलवग्गमूलगुणिदेण इदि - एसा भवणवासियविक्खंभमूई खुद्दाबंधे उत्ता । तासिं सेढीण विक्खंभसूई अंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण इदि एसा सोहम्मीसाणदेवविक्खंभसूई खुद्दाबंधे वुत्ता । एत्थ वि गेरइय-भवणवासिय-सोहम्मीसाणमिच्छाइहीणं विक्खंभसूईओ एदाओ चेव वुत्ताओ । एदं च ण घडदे, सामण्णविसेसपरूवणाणमेगत्तविरोहादो। तम्हा एत्थ वृत्तविक्खंभसूईहि ऊणियाहि खुद्दाबंधवुत्तविक्खंभसूईहि वा अधियाहि होदव्वमिदि चोदगो भणदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे । जीवटाणवुत्तविखंभसईओ संपुण्णाओ खुद्दाबंधम्हि वुत्तविक्खंभसूईओ
शंका-सामान्यसे जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपण करनेवाले खुद्दाबंधके द्वारा नारकी, सौधर्म-ऐशान और भवनवासी देवोंकी जो विष्भसूचियां कही हैं, न्यूनता और अधिकतासे रहित वे ही विष्कंभसूचियां यहां जीवट्ठाण में भी नारकी, सौधर्म ऐशान और भवनवासी देवोंसंबन्धी मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी प्ररूपणामें कहीं हैं। आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं- सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको द्वितीय वर्गमूलसे गुणित करने पर जितना लब्ध आवे उतनी खुद्दाबंधमें सामान्य नारकियोंकी विष्कंभसूची कही है। भवनवासियोंके प्रमाणरूपसे जो असंख्यात जगश्रेणियां बतलाई हैं उन जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको द्वितीय वर्गमूलसे गुणित करने पर जितना लब्ध आवे उतनी है, यह भवनवासियोंकी विष्कंभसूची खुद्दाबंधमें कही है। सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंके प्रमाणरूपसे जो असंख्यात जगश्रेणियां बतलाई हैं उन जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको तृतीय वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे, उतनी है, यह सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंकी विष्कंभसूची खुदाबंधमें कही है। यहां जीवट्ठाणमें भी नारकी, भवनवासी और सौधर्म-ऐशान मिथ्यादृष्टि जीवोंकी विष्कंभसूचियां ये ही (खुद्दाबंधमें कही हुई) कही है। परंतु यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, सामान्य प्ररूपणा और विशेष प्ररूपणा इन दोनोंको एक मानने में विरोध आता है। अतएव जीवट्ठाणमें ओ विष्कंभसूचियां कही गई हैं वे खुद्दाबंधमें कही गई विष्कंभसूचियोंसे न्यून होनी चाहिये या खुदाबंधमें कही गई विष्कंभसूचियां यहां जीवट्ठाणमें कही गई विष्कंभसूचियोंसे अधिक होनी चाहिये, ऐसा शंकाकारका कहना है ?
समाधान- आगे इस शंकाका परिहार करते हैं- जीवट्ठाणमें जो विष्कंभसूचियां कही गई है वे संपूर्ण हैं और खुद्दाबंधमें कही गई विष्कंभसूचियां जीवट्ठाणमें कही गई विकभसूचियोंसे साधिक हैं।
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१, २, ६८.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२७९ साधियाओ । तं कधं जाणिज्जदे ? अण्णहा वग्गट्टाणे हेहिम-उवरिमवियप्पाणुववत्तीदो । खुद्दाबंधम्हि वुत्तविक्खंभसईओ संपुण्णाओ किण्ण होति ति चे ण, तहाविधगुरुवदेसाभावा । अहवा एत्थ वुत्तविक्खंभसूईओ देसूणाओ खुद्दाबंधम्हि वुत्तविक्खंभईओ संपुण्णाओ। कुदो १ अट्ठरूवे वग्गिज्जमाणे सोहम्मीसाणविक्खभसूचि पावदि, सा सई वग्गिदा णेरइयविक्खंभसूई पावदि, सा सई वग्गिदा भवणवासियविक्खंभसूचिं पावदि त्ति परियम्मे वग्गसमुट्ठिदसामण्णविक्खंभसूचिपादादो खुद्दाबंधे वि घणधारुप्पण्णविक्खंभसूईणं पादोवलंभादो वा । जीवट्ठाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूचिपादो वि खुद्दाबंधसामण्णविक्खंभसूचिपादेण समाणो उवलंभदे चे ण, दव्वट्ठियणयदो समाणत्वलंभा । पज्जवट्टियणए पुण अवलंबिज्जमाणे णियमेण तत्थ अस्थि विसेसो। खुद्दाबंधुवसंहारजीवट्ठाणस्स मिच्छाइट्टिविक्खंभसूईए सामग्णविक्खंभसूचिसमाणत्तविरोहा । एवं खुद्दा. बंधम्हि वृत्तसव्वअवहारकाला जीवट्ठाणे सादिरेया वत्तव्या । एदं वक्खाणमेत्थ पधाणमिदि गेण्हिदव्यं ण पुचिल्लं ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-यदि ऐसा न माना जाय तो वर्गस्थानमें अधस्तन और उपरिम विकल्प नहीं बन सकता है।
शंका- खुद्दाबंधमें कही गई विष्कभसूचियां संपूर्ण क्यों नहीं होती हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इसप्रकारका गुरुका उपदेश नहीं पाया जाता है।
अथवा, यहां जीवट्ठाणमें कही गई विष्कंभसूचियां कुछ कम हैं और खुदाबंधमें कही गई विष्कभसूचियां संपूर्ण हैं, क्योंकि, अष्टरूपके उत्तरोत्तर वर्ग करने पर सौधर्म और ऐशान देवोंकी विष्कंभसूचीका प्रमाण प्राप्त होता है। उसका (सौधर्मद्विकसंबन्धी विष्कंभ सूचीका) उसीसे वर्ग करने पर नारक विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (नारक विष्भसूचीका) उसीसे वर्ग करने पर भवनवासी देवोंकी विष्कंभसूची प्राप्त होती है, इसप्रकार परिकर्ममें वर्गस्थान प्रकरणमें कही गई सामान्य विष्कंभसूचियोंके अभिप्रायसे अथवा खुद्दाबंधमें भी धनधारामें उत्पन्न हुई विष्कंभसूचियोंके अभिप्रायके पाये जानेसे यह जाना जाता है कि खुद्दाबंधमें कही गई विष्कभसूचियां संपूर्ण हैं।
शंका-जीवट्ठाणमें कहे गये मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूचियोंके अभिप्रायसे खुहाबंधमें कहा गया सामान्य विष्कंभसूचियोंका अभिप्राय समान पाया जाता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, इन दोनों कथनोंमें द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा समानता पाई जाती है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो नियमसे उन दोनों कथनों में विशेषता है ही, क्योंकि, खुद्दाबंधके उपसंहाररूपसे जीवट्ठाणमें कही गई मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचियोंसे सामान्य विष्कंभसूचियोंके समान मानने में विरोध आता है। इसीप्रकार खुदाबंध कहे गये संपूर्ण अवहारकाल जीवट्ठाणमें कुछ अधिक जान लेना चाहिये। यह व्याख्यान यहां पर प्रधान है, इसलिये इसका ग्रहण करना चाहिये, पहलेके व्याख्यानका नहीं।
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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ६९.
सासणसम्माइट्टि - सम्मामिच्छाइट्टि - असंजदसम्माइट्ठी ओघं
॥ ६९ ॥
२८० ]
सोहम्मीसाणकष्पवासियदेवेसु देवगईए इदि च दुवयणमणुवट्टदे | एसा दव्वद्वियणयमस्सिऊण परूवणा उत्ता । पज्जवट्ठियणयमस्तिऊण एदेसिं परूवण पुरदो भणिस्सामा |
सण कुमार पहुडि जाव सदार- सहस्सार कप्पवासियदेवेसु जहा सत्तमाए पुढवीए णेरइयाणं भंगो ॥ ७० ॥
एत्थ जहा इदि बुत्ते तं जहा इदि एदस्स अत्थो ण वत्तव्वो किंतु उवमत्थे जहा सो घेत्तव्वो । जहा सत्तमाए पुढवीए णेरइयाणं पमाणं परूविदं तहा सणक्कुमारादिदेवाणं पमाणं परूवेदव्वं (णवरि आइरिय परंपरागदोवदेसेण वसव
तं जहा
सण कुमार माहिंदे जगसेढीए भागहारो सेढीए हेडा एक्कारसवग्गमूलं । बम्ह-बम्होतरकप्पे वमवग्गमूलं । लांव- कापिडकप्पे सत्तमवग्गमूलं । सुक्क महासुक्ककप्पे पंचमवग्ग
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सौधर्म-ऐशान कल्पवासी देव सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ६९ ॥
' सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवेस देवगईए' इन दो शब्दोंकी यहां अनुवृत्ति होती है । यहां द्रव्यार्थिक नयका आश्रय करके यह प्ररूपणा कही है। पर्यार्थिक नयका आश्रय करके इनकी प्ररूपणा आगे कहेंगे ।
जिसप्रकार सातवीं पृथिवीमें नारकियोंकी प्ररूपणा कही गई है उसीप्रकार सनत्कुमारसे लेकर शतार और सहस्रार तक कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि देवोंकी प्ररूपणा है ॥ ७० ॥
सूत्रमें 'जहा' इसप्रकार कहने पर 'तं जहा ' इसका अर्थ नहीं कहना चाहिये, किंतु यहां उपमारूप अर्थमें 'जहा' शब्दका ग्रहण करना चाहिये । इससे यह अभिप्राय हुआ कि जिसप्रकार सातवीं पृथिवीमें नारकियोंका प्रमाण कहा गया है उसीप्रकार सानत्कुमार आदि देवोंके प्रमाणका कथन करना चाहिये | अब आगे आचार्य परंपरा से आये हुए उपदेश के अनुसार विशेष प्ररूपणा करते हैं । वह इसप्रकार है
सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें जगश्रेणीका भागहार जगश्रेणीके नीचे ग्यारहवां वर्गमूल है। ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पमें जगश्रेणीका भागहार जगश्रेणीका नौवां वर्गमूल है। लांच और कापिष्ठ कल्प में जगश्रेणीका भागहार जगश्रेणीका सातवां वर्गमूल है। शुक्र और महाशुक्र कल्पमें
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१, २, ७२. ]
दव्यमाणागमे देवगदिपमाणपरूवणं
[ २८१
मूलं । सदार- सहस्सारकप्पे चउत्थवग्गमूलं भागहारो हवदि । सासणदीणं पमाणपरूवणा वि सत्तम पुढविपरूवणाए समाणा । विसेसपरूवणं पुरदो वत्तइस्तामो ।
आद-पाद जाव णवगेवेज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जादिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहत्तेण ॥ ७१ ॥
मुहुत्तसद्दो कालवाची चेव, तेण पुध कालग्गहणं ण कदं । दव्त्रपमाणपरूवणाए चेव अत्थणिच्छओ जादो ति एत्थ खेत- कालेहि परूवणा ण कदा | 'पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो' इदि सामण्णेण वृत्ते दव्त्रपमाणेण सुड्डु णिच्छओ ण जादो त्ति तत्थ णिच्छयउपायण 'एदेहि पलिदोष ममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण' त्ति भागहारपरूवणा विहजमाणपरूवणा च कदा । एत्थ आइरिओवएसमस्सिऊण विसेसवक्खाणं पुरदो भणिस्सामा । अणुद्दिस जाव अवराइदविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्माहट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्ते ॥ ७२ ॥
जगश्रेणीका भागहार जगश्रेणीका पांचवां वर्गमूल है । शतार और सहस्रार कल्पमें जगश्रेणीका भागद्दार जगश्रेणीका चौथा वर्गमूल है । सानत्कुमारसे लेकर सहस्रारतक सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवर्ती देवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा भी सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा के समान है। विशेष प्ररूपणाको आगे बतलावेंगे ।
आनत और प्राणतसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं । इन उपर्युक्त जीवराशियों के द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम अपहृत होता है ।। ७१ ।।
मुहूर्त शब्द कालवाची ही है, इसलिये सूत्रमें पृथक्रूपसे काल पदका ग्रहण नहीं किया । प्रकृत में द्रव्यप्रमाणके प्ररूपण करनेसे ही अर्थका निश्चय हो जाता है, इसलिये यहां पर क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके द्वारा प्ररूपणा नहीं की । ' पल्योपमके असंख्यातवें भाग है इसप्रकार सामान्य से कहने पर द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अच्छी तरह निश्चय नहीं हो पाता है, इसलिये इस विषय में निश्चयके उत्पन्न करानेके लिये ' इन जीवराशियोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है' इसप्रकार भागहारप्ररूपणा और विभाज्यमाणराशिकी प्ररूपणा की । इस विषय में आचार्योंके उपदेशका आश्रय करके विशेष व्याख्यान आगे कहेंगे
अनुदिश विमानसे लेकर अपराजित विमानतक उनमें रहनेवाले असंयतसम्य
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२८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ७२. एत्थ असंजदसम्माइट्ठिदव्वपरूवणं सेसगुणट्ठाणाणं तत्थाभावं सूचेदि । ण च संतं ण परूवेति जिणा, तेसिमजिणत्तप्पसंगादो । एत्थ आइरिओवएसेण सव्वदेवगुणपडिवण्णाणं विसेसपरूवणं भणिस्सामो । तं जहा- देवअसंजदसम्माइटिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभाएण खंडिय तत्थेगखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । कुदो ? उवक्कमणकालभेदादो। तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। कुदो ? उवकमणकालभेदादो उभयगुणं पडिवज्जमाणरासिविसेसदो वा। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे सणक्कुमार-माहिंदअसंजदसम्माइट्टिअवहारकालो होदि । कुदो ? सुहकम्माहियजीवबहुत्ताभावादो । एवं णेयव्वं जाव सदार-सहस्सारो त्ति । तस्स सासणसम्माइडिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे जोइसियदेव असंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि ।
ग्दृष्टि देव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। इन उपर्युक्त जीवराशियोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है ॥ ७२ ॥
इन अनुदिश आदि विमानोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिकी प्ररूपणा वहां पर शेष गुणस्थानोंके अभावको सूचित करती है। यदि कोई कहे कि यहां पर शेष गुणस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा नहीं की होगी सो बात नहीं हैं, क्योंकि, जिनदेव विद्यमान अर्थका प्ररूपण नहीं करते हैं ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर उन्हें अजिनपनेका प्रसंग आ जाता है । अब यहां आचार्योंके उपदेशानुसार संपूर्ण गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंकी विशेष प्ररूपणाको कहते हैं। वह इसप्रकार है-देव असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके उनमेंसे एक खंडको उसी देव असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालमें मिला देने पर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी सम्यमिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंके उपक्रमण कालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमण कालमें भेद है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमण कालसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंके उपक्रमण कालमें भेद है। अथवा, उक्त दोनों गुणस्थानोंको प्राप्त होनेवाली राशियोंमें विशेषता है। सौधर्म और ऐशान सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सानत्कुमार और माहेंद्र असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, ऊपर शुभ कर्मोकी बहुलता होनेसे बहुत जीव नहीं पाये जाते हैं । इसीप्रकार शतार सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये। उन शतार-सहस्रार कल्पके सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर ज्योतिषी असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि,
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१, २, ७२. ]
दव्वपमाणानुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[ २८३
कुदो ? तत्थ वोग्गाहिदादिमिच्छत्तेण सह उप्पण्णदेवेसु जिणसासणपडिकूलेसु बहूणं सम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवाणमसंभवादो । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइट्टिीअवहार कालो होदि । एत्थ कारणं पुत्रं व वत्तव्त्रं । एवं वाणवेंतर- भवणवासिय देवेसु यं । कुदो ! मिच्छत्तोच्छा इददिट्ठीसु भूओसम्मर्द्दसणुप्पत्तिसंभवाभावादो। भवणवासियसासणसम्माइट्ठिअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे आणद- पाणदअसंजद सम्माविहार कालो होदि । कुदो ? सुहकम्माणं दीहाऊणं बहूणमसंभवा । तहि संखेज्जहि गुणदे आरणच्चदअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । कारणं उवरिमउवरिमकप्पे उपज्जमाण सुहकम्माहियदीहाउवजीवेहिंतो हेडिमहेट्टिमकप्पेसु थोत्रपुण्णेण हरभवट्ठिदी उपज्जमाणजीवाणं बहुत्तोवलंभादो । होता वि असंखेज्जगुणा चेय | कारणं सबीजीभूदमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जत्तुवलंभादो । एवं यन्त्रं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जअ संजदसम्माइदिअवहारकालो त्ति । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे आणद
वहां पर व्युद्ग्राहित आदि मिध्यात्वके साथ उत्पन्न हुए और जिन शासनके प्रतिकूल देवोंमें सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले बहुत जीवों का अभाव है । उन असंयतसम्यग्दृष्टि ज्योतिषी देवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि ज्योतिषियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टि ज्योतिषियों का अवहारकाल होता है । यहां पर उत्तरोत्तर संख्याहानि या अवहारकालकी वृद्धिके कारणका कथन पहले के समान कर लेना चाहिये । इसीप्रकार वाणव्यन्तर और भवनवासी देवोंमें क्रमसे अवहारकाल ले जाना चाहिये, क्योंकि, जिनकी दृष्टि मिथ्यात्वसे आच्छादित है उनमें बहुत सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति संभव नहीं है । भवनवासी सासादन सम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवली असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर आनत और प्राणतकल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल होता है, क्योंकि, शुभ कर्मवाले दीर्घायु जीव बहुत नहीं होते हैं । इस असंयतसम्यग्दृष्टि संबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर आरण और अच्युत कल्पवासी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, उपरिम उपरिम कल्पों में उत्पन्न होनेवाले शुभ कर्मोंकी अधिकतासे दीर्घायुवाले जीवोंसे नीचे नीचेके कल्पोंमें स्तोक पुण्य से स्तोक भवस्थितिमें उत्पन्न होनेवाले जीव अधिक पाये जाते हैं। नीचे नीचे अधिक जीव होते हुए भी वे असंख्यातगुणे ही होते हैं, क्योंकि, बारहवें कल्पसे लेकर ऊपरके कल्पों में जीव मनुष्य राशिसे आकर ही उत्पन्न होते हैं । इसलिये ऊपर के कल्पोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके लिये मनुष्यराशि बीजीभूत है और मनुष्य राशि संख्यात ही होती है, अतः ऊपर ऊपर के कल्पोंसे नीचेके कल्पों में जीव असंख्यातगुणे हैं । यही क्रम उपरिम उपरिम ग्रैवेयक के असंयतसम्यग्दृष्टि अघहारकाल तक ले जाना चाहिये । उपरिम उपरिम ग्रैवेयकके असंयतसम्यग्दृष्टि भवद्दारकालको संख्यातसे गुणित करने पर आनत और प्राणतके मिथ्यादृष्टियों का
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२८१] छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ७२. पाणदमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । कुदो ? जिणलिंगं घेत्तूण दव्वसंजमेण द्विदसंजदाणं बर्ण मणुसेसु अणुवलंभादो । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे आरणच्चुदमिच्छाइटिअबहारकालो होदि । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । एवं णेयव्यं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जमिच्छाइडिअवहारकालो त्ति । तम्हि संखेज्जस्वेहि गुणिदे णवाणुद्दिसअसंजदसम्माइटि. अवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे अणुत्तरविजय-वइजयंत-जंयत-अवराइदविमाणवासियअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि। तमावलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे आणद-पाणदसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । कुदो ? उवक्कमणजीवाणं थोवत्तादो । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे आरणच्चुदसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । एवं णेयव्यं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो त्ति । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे आणद-पाणदसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । कुदो ? थोबुवक मणकालत्तादो । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे आरणच्चुदसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । एवं णेयव्यं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जसासणसम्माइटिअवहारकालो ति। एदेहि अवहारकालेहि खंडि
अवहारकाल होता है, क्योंकि, जिनलिंगको स्वीकार करके द्रव्यसंयमके साथ स्थित हुए बहुतसे संयतोंका मनुष्योंमें सद्भाव नहीं पाया जाता है। आनत और प्राणतसंबन्धी मिथ्यादृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर आरण और अच्युतके मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल होता है। यहां कारण पहलेके समान कहना चाहिये, अर्थात् जिनलिंगको स्वीकार करके द्रव्यसंयमके साथ बहुतसे मनुष्य नहीं होते हैं, इसलिये आरण और अच्युत में कम मिथ्यावाष्टि पाये जाते हैं । इसीप्रकार उपरिम उपरिम वेयकके मिथ्यादृष्टि अवहारकाल तक ले जाना चाहिये। उपरिम उपरिम प्रैवेयकके मिथ्याटि अवहारकाल को संख्यातसे गुणित करने पर नौ अनुदिशोके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानवासी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आघलोके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर आनत और प्राणतके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, यहां पर सम्यग्मिथ्यात्वके साथ उत्पन्न होनेवाले जीव थोड़े हैं। आनत और प्राणतके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातले गुणित करने पर आरण और अच्युतके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसीप्रकार उपरिम उपरिम प्रैवेयकके सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालतक ले जाना जाहिये। उपरिम उपरिम प्रैवेयकके सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालको संख्यातले गुणित करने पर आनत और प्राणतके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उपक्रमणकाल स्तोक है। आनत और प्राणतके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर आरण भौर अच्युतके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसीप्रकार उपरिम उपरिम
१देवाणं अवहारा होति असंखेण ताणि अवहरिय । तत्व य पक्खित्ते सोहम्मीसाण अवहारा॥ सोहम्म.
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१, २, ७२.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२८५ दादओ जाणिय वत्तव्या। सव्वदेवगुणपडिवण्णाणं ओघमंगो इदि भणिय आणदादिउपरिमगुणपडिवण्णाणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण' इदि विसेसिय किमटुं वुच्चदे ? एवं भणंतस्स अहिप्पाओ परूविज्जदे । तं जहा- ओघभंगो इच्चेदेण आणद्धत्तादो सुत्तमिदमणस्थयं । अणत्थयं च जाणावयं होदि । किमदेण जाणाविजदि ? सोहम्मअसंजदसम्माइडिअवहारकालो आवलियाए असंखेजदिभागो। तत्थतणखइयसम्माइट्ठीणमवहारकालो संखेज्जावलियमेत्तो। एदे दो वि अवहारकाले मोत्तूण अवसेसगुणपडिवण्णाणं सव्वे अवहारकाला असंखेज्जावलिमेत्ता विउलत्तवाइणो अंतोमुहुत्तसदेण वुचंति त्ति जाणाविदं, तदो णाणत्थयमिदं सुत्तं ।
ग्रैधेयकके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालतक ले जाना चाहिये। इन अवहार कालोंके द्वारा खंडित आदिकका कथन जान कर करना चाहिये ।
सर्व गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंका प्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान है ऐसा कथन करके 'गुणस्थानप्रतिपन्न इन आनत आदि देवोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालसे पल्योपम अपहत होता है' इतनेसे विशेषित करके गुणस्थानप्रतिपन्न आनतादि देवोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण किसलिये कहा। आगे ऐसा कथन करनेवालेके अभिप्रायका प्ररूपण करते हैं। वह इसप्रकार है
सर्व गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंका प्रमाण 'सामान्य प्ररूपणाके समान है' इतनेमात्रसे संबन्धित होने के कारण यह सूत्र अनर्थक है, फिर भी जो सूत्र अनर्थक होता है वह किसी स्वतन्त्र नियमका ज्ञापक होता है।
शंका-इससे क्या ज्ञापन होता है ?
समाधान-सौधर्म असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें भाग है। वहींके क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल संख्यात आवलीमात्र है। इन दो अवहार. कालोंको छोड़कर शेष गुणस्थानप्रतिपन्नोंके संपूर्ण अवदारकाल असंख्यात आवलीमात्र हैं, अवहारकालकी विपुलताको माननेवाले आचार्य अन्तर्मुहूर्त शब्दसे ऐसा कहते हैं, यह इस सूत्रसे झापित होता है, इसलिये यह सूत्र अनर्थक नहीं है।
साणहारमसंखेण य संखरूवसंगुणिदे । उवरि असंजद-मिस्सय-सासणसम्माण अवहारा॥ सोहम्मादासारं जोहसि-वण. भवण तिरिय पुढवीसु । अविरद-मिस्से संखं संखाखगुण सासणे देसे ॥ चरमधरासाणहरा आणदसम्माण आरणप्पहुदि। अंतिमगेवेझंत सम्माणमसंखसंखगुणहारा ॥ तत्तो ताणुत्ताणं बामाणमणुहिसाण विजयादि । सम्माणं संखगुणी आणदामिस्से असंखगुणो ॥ तत्तो संखेज्जगुणो सासणसम्माण होदि संखगुणो। उत्तट्ठाणे कमसो पणछस्सत्तश्चदुरसंदिट्ठी॥ गो. जी. ६६५-६७०.
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२८६ ]
सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा दव्वपमाणेण
संखेज्जा ॥ ७३ ॥
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
मणुसिणीरासीदो तिउणमेत्ता हवंति ।
भागाभागं वत्तइस्सामा । सव्वदेवरासिमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा जोइसियदेवमिच्छाइट्ठी होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा वाणवेंतरमिच्छाइट्ठी होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठी होंति । एवं जाव सदार - सहस्सारमिच्छाइट्टि ति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सोहम्मी साणअसंजदसम्माइट्ठी होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुभागा सम्मामिच्छाइट्टिण होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सासणसम्माइट्टिणो होंति । एवं सणक्कुमार- माहिंद पहुडि जा सहस्सारो ति यव्त्रं । तदो जोइसिय- वाणवेंतर- भवणवासिएत्ति यव्वं । पुणो सेसस्स संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आणद-पाणदअसंजदसम्माइट्टिणी होंति । सेसस्स संखेजखंडे कए बहुखंडा आरणच्चुदअसंजदसम्माइट्टिणो होंति । एवं यव्वं
[ १, २, ७३.
केवडिया,
सर्वाधसिद्धि विमानवासी देव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ७३ ॥
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव मनुष्यनियों के प्रमाणसे तिगुणे हैं ।
आगे भागाभागको बतलाते हैं- सर्व देवराशि के असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहु भागप्रमाण ज्योतिषी मिध्यादृष्टि देव है । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग वाणव्यन्तर मिध्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं । इसीप्रकार शतार और सहस्रार कल्पके मिध्यादृष्टि देवों तक ले जाना चाहिये । शतार और सहस्रारके मिथ्यादृष्टि प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण
धर्म और ऐशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण वहींके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण वहींके सासादनसम्यग्दष्टि देव हैं। इसीप्रकार सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये । सहस्रार कल्पसे आगे ज्योतिषी, वाणव्यन्तर और भवनवासी देवों तक यही क्रम ले जाना चाहिये । पुनः भवनवासी सासादन सम्यग्दृष्टियों के प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं।
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१, २, ७३. ]
toryमाणागमे देवगदि भागाभाग परूवणं
[ २८७
जावुवरिमउवरिमगेवज्जो त्ति । सेसस्स संखेज्जखंडे कए बहुभागा आणंद-पाणदमिच्छाइट्ठो होंति । सेसस्स संखेज्जखंडे कए बहुभागा आरणच्चदमिच्छाइड्डिणो होंति । एवं यव्वं जानुवरिमउवरिमगेवज्जो ति । सेसस्स संखेज्जखंडे कए बहुभागा अणुद्दिसअसंजदसम्माइट्टिणो होंति । सेसम संखेज्जखंडे कए बहुभागा अणुत्तरविजय- वइजयंत जयंतअवराइदअसंद सम्माइद्विणो होंति । सेस संखेज्जखंडे कए बहुभागा आणद- पाणदसम्मामिच्छाइद्विणो होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुभागा आरणच्चुदसम्मामिच्छाइट्टिणो होंति । एवं यव्वं जावुवरिमउवरिमवज्जो त्ति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुभागा आणद- पाणदसासन सम्माइट्टिणो होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुभागा आरणच्चुदसासणसम्माइद्विणो होंति । एवं यव्त्रं जावुवरिममज्झिमगेषज्जसासणसम्माडिति । समसंखेज्जखंडे कए बहुभागा उवरिमउवरिमगेवज्जसासणसम्माइहिणो होंति । एयखंड सन्त्रसिद्धिअसंजदसम्माइडी होंति । एवं भागाभागं समत्तं ।
इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयक तक ले जाना चाहिये । उपरिम उपरिम ग्रैवेयक के असंयतसम्यग्दृष्टियों के प्रमाण आनेके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके मिध्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग आरण और अच्युतके मिथ्यादृष्टि देव हैं। इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयकत्तक ले जाना चाहिये । उपरिम उपरिम ग्रैवेयकके मिध्यादृष्टिप्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुदिश के असंयतसम्यग्दृष्टि होते हैं। शेषके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेषके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भाग संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव हैं । इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयक तक ले जाना चाहिये । उपरिम उपरिम ग्रैवेयक के सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के प्रमाण के अनन्तर जो एकभाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण आनत और प्राणत के सासादन सम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके सासादन सम्यग्दृष्टि देव हैं । इसीप्रकार उपरिम मध्यम ग्रैवेयक के सासादनसम्यग्दृष्टियों के प्रमाण आने तक ले जाना चाहिये । उपरिम मध्यम ग्रैवेयक के सासादन सम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण उपरिम उपरिम ग्रैवेयकके सासादन सम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक खंडप्रमाण सर्वार्थसिद्धि के असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। इसप्रकार भागाभाग समाप्त हुआ ।
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२८८] छक्खंडागमे जीवड्डाणं
[ १, २, ७३. ___ अप्पाबहुअंतिविहं, सत्थाणं परत्थाणं सबपरत्थाणं चेदि । सत्थाणे पयदं । सम्वत्थोवो देवमिच्छाइद्विअवहारकालो । विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? विक्खंभसूईए असंखेजदिभागो। को पडिभागो ? सगअवहारकालो। अहवा सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? अवहारकालवम्गो। अहवा असंखेज्जाणि घणंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? पण्णहिसहस्स-पंचसयछत्तीसवग्गसूचिअंगुलमेत्ताणि । सेढी असंखेज्जगुणा। को गुणगारो ? अवहारकालो । दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूई । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगअवहारकालो। लोगो असंखेजगुणो। को गुणगारो ? सेढी । सासणादीणं मूलोघभंगो। एवं जोइसिय-वाणवेंतराणं पि जेयव्वं । भवणवासियाणं सत्थाणे सव्वत्थोवा मिच्छाइटिविक्खंभसूई । अवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सगअवहारकालस्स असंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? विक्भसूई। अहवा सेढीए असंखेजदिभागो असंखेजाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो। विक्खंभसूचिवग्गो। अहवा घणंगुलं । सेढी
___ अल्पबहुत्य तीन प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुत्व, परस्थान अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व । इनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्व में प्रकृत विषयका निरूपण करते हैंदेव मिथ्यादृष्टि अवहारकाल सबसे स्तोक है । उन्हींकी विष्कभसूची अवहाकालसे असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है? अवहारकालका घर्ग प्रतिभाग है। अथवा, असंख्यात घनांगुल गुणकार है। वे कितने हैं ? पेंसठ हजार पांचसौ छत्तीसके वर्गरूप सूच्यंगुलप्रमाण हैं। देव विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? अपना अघहारकाल गुणकार है। जगश्रेणीसे मिथ्यादृष्टि देवोंका प्रमाण असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है। देव मिथ्यादृष्टि द्रन्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे घनलोक असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है। देव सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व सामान्य प्ररूपणाके समान है। इसीप्रकार ज्योतिषी और वाणव्यन्तरोंका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व ले जाना चाहिये। भवनवासियोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वमें सबसे स्तोक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची है। उससे अवहारकाल असंख्यातगुणा
क्या है? अपने अवहारकालका असंख्यातवां भाग गुणकार है प्रतिभाग क्या है ? विष्कंभसूची प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका वर्ग प्रतिभाग है। अथवा घनांगुल गुणकार है। जणश्रेणी अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिअप्पाबहुगपरूवणं [ २८९ असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खभसई । दव्बमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसई । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो । लोगो असंखेजगुणो । को गुणगारो ? सेढी । सासणादीणं मूलोघभंगो। सोहम्मादि जाव उवरिमगेवज्जो ति सत्थाणप्पाबहुगं जाणिय णेयव्वं ।।
परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवो असंजदसम्माइडिअवहारकालो । एवं णेयव्वं जाव पलिदोवमो त्ति । तदो उवरि मिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सगअवहारकालस्स असंखेज्जदिभागो। को पडिभागो ? पलिदोवमो । अहवा पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । को पडिभागो ? पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । उवरि सत्थाणभंगो । भवणवासियाण सव्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । एवं णेयष्वं जाव पलिदोवमो ति । तदो उवरि भवणवासियमिच्छाइटिविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? सगविक्खंभसूईए असंखेजदिभागो। को पडिभागो ? पलिदोवमो । अहवा पदरंगुलस्स असंखेजदिभागो। असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि । को पडिभागो ? पलिदोवमो । उवरि
है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है । उन्हींका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? विष्कंभसूची गुणकार है। द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है । सासादनसम्यग्दृष्टि आदिका मूलोघके समान स्वस्थान अल्पबहुत्व है। सौधर्मसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकतक स्वस्थान अल्पबहुत्व जान कर ले जाना चाहिये।
___अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमके ऊपर मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपने अवहारकालका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है। अथवा, प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण है। असंख्यात सूच्यंगुलोंका प्रमाण कितना है ? सूच्यंगुलका असंख्यातवां भाग उनका प्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? पल्योपमका संख्यातवां भाग प्रतिभाग है। इसके ऊपर अपने स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है। भवनवासियोंके परस्थानका कथन करने पर असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये। पल्योपमके ऊपर भवनवासी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है। अथवा, प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण है। वे कितने हैं? सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। प्रतिभाग क्या है? पल्योपम प्रतिभाग है। इसके ऊपर वाणव्यन्तरोंसे लेकर उपरिम उपरिम अवेयकतक अपने
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२९.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ७३. सगसत्थाणभंगो (वाण-तरादि जाव उपरिमउवरिमगेवजो त्ति ।) उवरि परत्थाणं णस्थि, तत्थ सेसगुणहाणाणमभावादो। सव्वहे सत्थाणं पि णत्थि एगपदत्थादो।
सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा । सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागस्त संखेज्जदिभागो। को पडिभागो? सव्वट्ठसिद्धिदेवसम्मादिट्टि त्ति । तत्थेव सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । तदो सणकुमार-माहिंदअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। एवं णेयव्वं जाव सदरसहस्सारेत्ति । तदो जोइसिय-वाणवेंतर-भवणवासियाणं पि कमेण णेयव्यं । भवणवासिय
स्वस्थानके समान है । उपरिम उपरिम अवेयकके ऊपर परस्थान अल्पवहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वहां पर शेष गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं। सर्वार्थसिद्धिमें एक पदार्थ होनेसे स्वस्थान अल्पबहुत्व भी नहीं है।
विशेषार्थ-प्रतियों में देवोंके स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्वके पाठ गड़बड़ और कुछ छूटे हुए प्रतीत होते हैं। बहुत कुछ विचारके पश्चात् दूसरे प्रकरणों के अल्पबहुत्वके विभागानुसार यहां भी उन्हें व्यवस्थित करनेका प्रयत्न किया गया है। प्रतियों में पहले सामान्य देवोंका स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व कहकर अनन्तर इसी प्रकार वाणव्यन्तर और ज्योतिषियोंका है, ऐसा कहा है। तदनन्तर भवनवासियोंका स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व कह कर सौधर्मादि उपरिम उपरिम ग्रैवेयकतक स्वस्थान अल्पबहुत्वको समझकर लगा लेनेकी सूचना की है। अनन्तर अनुदिशादिमें परस्थानके अभावका कारण और सर्वार्थसिद्धिमें दोनोके अभावका कारण बतलाया है।
इन अल्पबहुत्वोंको व्यवस्थित कर देने पर भी सौधर्मादि उपरिम उपरिम अवेयकतक परस्थानकी कोई व्यवस्था नहीं पाई जाती है। अनुदिशादिमें परस्थानके अभावका कारण बतलाया है, पर स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। इसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यहां कुछ पाठ भी छूट गया है।
अब सर्व परस्थान अल्पबहुत्वमें प्रकृत विषयको बतलाते हैं- सर्वासिद्धि विमानवासी देव सबसे स्तोक हैं। उनसे सौधर्म और ऐशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? सर्वार्थसिद्धिके सम्यग्दृष्टि देवोंका प्रमाण प्रतिभाग है। वहीं पर सम्यग्मिथ्यादृष्ठियोंका अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । सौधर्म और ऐशान कल्पके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार शतार और सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये। शतार और सहस्रार कल्पके आगे ज्योतिषी, वाणव्यन्तर और भवनवासियोंका भी क्रमसे ले जाना चाहिये।
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिअप्पाबहुगपरूवणं
[२९१ सासणाण अवहारकालादो आणद-पाणदअसंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तदो आरणच्चुदअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो। एवं णेयव्वं जाव उपरिमउवरिमगेवज्जअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो त्ति । तदो आणद-पाणदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । तदो आरणच्चुदमिच्छाइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । एवं णेयव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवजो त्ति। तदो अणुदिसअसंजदसम्माइटिअवहारकालो संखेजगुणो। तदो अणुत्तरविजय-वइजयंत-जयंत-अवराइदअसंजदसम्माइट्टि अवहारकालो संखेजज्जगुणो । तदो आणद-पाणदसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तदो आरणच्चुदसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । एवं णेयव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जो त्ति । तदो आणद पाणदसासणसम्माइटिअवहारकालो संखेजगुणो। तदो आरणच्चुदसासणसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो। एवं णेयव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जो त्ति । तदो उवरि तस्सेव दव्यमसंखेज्जगुणं । उवरिममज्झिमसासणसम्माइट्ठिदव्वं संखेज्जगुणं । तदो उवरिमहेट्ठिमसासणसम्माइविदव्वं संखेज्जगुणं । एवं णेयव्वं
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भवनवासी सासादनसम्यग्राष्ट्रियोंके अवहारकालसे आनत और प्राणतके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। उससे आरण और अच्युतके असंयतसम्यग्दृटियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । इसीप्रकार उपरिम उपरिम प्रैवेयकके असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालतक ले जाना चाहिये। उपरिम उपरिम अवेयकके असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे आनत और प्राणतके मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। इससे आरण और अच्युतके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयकतक ले जाना चाहिये। उपरिम उपरिम अवेयकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे अनुदिशोंके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । इससे विजय, वैजयन्त, जयन्त
और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानवासी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यात. गुणा है । इससे आनत और प्राणतके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इससे आरण और अच्युतके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। इसीप्रकार उपरिम उपरिम अवेयकतक ले जाना चाहिये। उपरिम उपरिम अवेयकके सम्यग्मिथ्याष्टि अवहारकालसे आनत और प्राणतके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। इससे आरण और अच्युतके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। इसीप्रकार उपरिम उपरिम अवेयकतक ले जाना चाहिये । तदनन्तर उपरिम उपरिम अवेयकके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालके ऊपर उसी उपरिम उपरिम अवेयकका सासादनसम्यग्दृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे उपरिम मध्यम प्रैवेयकके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य संख्यातगुणा है। इससे उपरिम अधस्तन ग्रैवेयकके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य संख्यातगुणा है। इसीप्रकार अवहारकालके प्रतिलोमरूपसे जबतक सौधर्म और ऐशान कल्पके असंयत
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२९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ७३. अवहारकालपडिलोमेण जाव सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइट्ठिदव्यं पत्तं ति । तदो पलि. दोवममसंखेज्जगुणं । तदो उवरि सोहम्मीसाणविक्खंभसूची असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसईए असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? पलिदोवमपडिभागो। अहवा सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि विदियवग्गमूलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? तदियवग्गमूलस्स असंखेजदिभाणमेत्ताणि । को पडिभागो ? पलि. दोवमपडिभागो। भवणवासियमिच्छाइद्विविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? तदियवग्गमूलमत्ताणि । को पडिभागो ? सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई व । मिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागो संखेज्जाणि सूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? भवणवासियमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई पडिभागो। जोइसियदेवमिच्छाइट्ठिअवहारकालो विसेसाहिओ । केवडिओ विसेसो ? पदरंगुलस्स संखेजदिभागो। वाणवेंतरमिच्छाइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो? संखेज्जा समया। सणक्कुमार-माहिदमिच्छाइटिअवहारकालो असंखेजगुणो।
सम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य प्राप्त होवे तबतक ले जाना चाहिये। सौधर्म और ऐशान कल्पके भसंयतसम्यग्दृष्टियोंके द्रव्यसे पल्योपम असंख्यातगुणा है। पल्योपमके ऊपर सौधर्म और पशान कल्पकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है। अथवा, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो सूच्यंगुलके असंख्यात द्वितीय वर्गमूलप्रमाण है। सूच्यंगुलके उन असंख्यात द्वितीय वर्गमूलोंका प्रमाण कितना है ? तीसरे वर्गमूलके असंख्यातवें भाग है । प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है । सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूचीसे भवनवासी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? प्रतरांगुलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण है। उन असंख्यात सूच्यंगुलोंका प्रमाण कितना है ? तृतीय वर्गमूलमात्र है। प्रतिभाग क्या है ? सौधर्म और ऐशान कल्पकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीके प्रतिभागके समान प्रतिभाग है। सामान्य देव मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गुणकार है जो सूच्यंगुलके संख्यात प्रथम धर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? भवनवासियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्भसूची प्रतिभाग है। इस देव मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे ज्योतिषी देवोंके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। कितना विशेष है ? प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग विशेष है। ज्योतिषियों के मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे वाणव्यन्तरोंके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? संख्यात समय गुणकार है । वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिअप्पाबहुगपरूवणं
[२९३ को गुणगारो ? सेढिएक्कारसवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि वारसवग्गमूलाणि। को पडिभागो ? वाणवेंतरमिच्छाइट्ठिअवहारकालो पडि भागो । तस्सुवरि बम्ह-बम्होत्तरमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सेढिणवमवग्गमूलस्स असंखे. जदिभागो असंखेज्जाणि दसमवग्गमूलाणि । लांतव-काविहमिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सत्तमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेजाणि अट्ठमवग्गमूलाणि । सुक्क-महासुकमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पंचमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि छट्टमवग्गमूलाणि । सदार-सहस्सारमिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? पंचमवग्गमूलं । तदो सदारसहस्सारदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगदव्यस्स असंखेजदिभागो। को पडिभागो? सगअवहारकालपडिभागो । एवं णेयव्वं पडिलोमेण जाव सणक्कुमार माहिदमिच्छाइविदव्यमिदि । तस्सुवरि वाणवेंतरमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई असंखेजगुणा । को गुणगारो ? तस्सेव विक्खंभसूईए असंखेजदिभागो एक्कारसवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि
क्या है ? जगश्रेणीके ग्यारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात बारहवें वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल प्रतिभाग है। सानत्कुमार और माहेन्द्रके मिथ्यादृष्टि अवहारकालके ऊपर ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके नौवें वर्गमूलका असंख्यतवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात दशम वर्गमूलप्रमाण है। ब्रह्मद्विकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे लान्तव और कापिष्ठके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके सातवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात आठवें वर्गमूलप्रमाण है। लान्तवद्विकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे शुक्र और महाशुक्रके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके पांचवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात छठवें वर्गमूलप्रमाण है। शुक्रद्विकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे शतार और सहस्रारके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका पांचवां वर्गमूल गुणकार है। शतारद्विकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे शतार और सहस्रारका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपने द्रव्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है। इसीप्रकार प्रतिलोमक्रमसे सानत्कुमार
और माहेन्द्र कल्पके मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाण आने तक ले जाना चाहिये। सानत्कुमारद्विकके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? उन्हीं वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। अथवा, जगश्रेणीके ग्यारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके
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२९४ ]
छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ७३. वारसवग्गमूलाणि वा। को पडिभागो ? सणक्कुमार-माहिदमिच्छाइट्ठिदव्यपडिभागो । जोइसियमिच्छाइटिविक्खंभसूई संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। देव. मिच्छाइटिविक्खंभसूई विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जरूवखंडिदएयखंडमेत्तेण । भवणवासिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पुव्वं भणिदो। सोहम्मीसाणमिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? पुव्वं भणिदो । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? विक्खंभसूई । तस्सेव दवमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगविक्खंभई । भवणवासियमिच्छाइहिदम्बमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? पुवं भणिदो । वाणवेंतरमिच्छाइहिदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? भवणवासिविक्खंभसूचिगुणिदसगअवहारकालपडिभागो । जोइसियमिच्छाइद्विदव्वं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। देवमिच्छाइहिदव्यं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जरूवखंडिदएयखंडमेत्तेण । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो। लोगो
असंख्यात बारहवें वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण प्रतिभाग है। वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे ज्योतिषियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । ज्योतिषी मिथ्यादृष्टिविष्कभसूचीसे देव मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची विशेष अधिक है। कितनेमात्रसे अधिक है। ज्योतिषी मिथ्यादृष्टि विष्भसूचीको संख्यातसे खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है । देव मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे भवनवासी मिथ्यादृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पहले कह आये हैं । भवनवासी मिथ्याहाष्टि अवहारकालसे सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पहले कह आये हैं । सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? विष्कंभसूची गुणकार है। जगश्रेणीसे उन्हीं सौधर्म कल्पके मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है । सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे भवनवासियोंका मिथ्याडष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पहले कह आये हैं । भवनवासी मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे घाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? पहले कह आये हैं जो अगश्रेणीके असंख्यातवें भाग है। जिस अगश्रेणीके असंख्यातवें भागका प्रमाण जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूल है । प्रतिभाग क्या है ? भवनवासी मिथ्याडष्टि विष्कंभसचीसे अपने भवहारकालको गुणित करके जो लब्ध आवे उतना प्रतिभाग है। वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। ज्योतिषी मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे देव मिथ्याडष्टि द्रव्य विशेष अधिक है। कितनेमात्रसे भधिक है ? संख्यातसे ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणके खंडित करने पर उनमेंसे एक खंड
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे चउग्गइभागाभागपख्वणं
[२९५ असंखेज्जगुणो ? को गुणगारो ? सेढी ।
चउग्गइभागाभागं वत्तइस्सामो । तं जहा- सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए तत्थ बहुखंडा एइंदिय-विगलिंदिया होति । सेसमणतखंडे कए बहुखंडा सिद्धा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत्ता होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा जोइसियमिच्छाइद्विणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा भवणवासियमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा पढमपुढविमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा मणुसअपज्जत्ता होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा विदियपुढविमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सणक्कुमार-माहिंदमिच्छाइट्ठी होति । एवं तदियपुढवि-बम्हबम्होत्तर-चउत्थपुढवि-लांतवकाविट्ठ-पंचमपुढवि-सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सार-छट्टपुढविसत्तमपुढविमिच्छाइट्टि त्ति णेयव्वं । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सोहम्मीसाणअसंजद
मात्र विशेषसे अधिक है । देव मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? जगश्रेणी गुणकार है।
अब चतुर्गतिसंबन्धी भागाभागको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमेसे बहुभागप्रमाण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभागप्रमाण सिद्ध हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण ज्योतिषी मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण मनुष्य अपर्याप्त है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं। इसीप्रकार तीसरी पृथिवी, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर, चौथी पृथिवी, लांतव
और कापिष्ठ, पांचवी पृथिवी, शुक्र और महाशुक्र, शतार और सहस्रार, छठवी पृथिवी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये । सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण आनेके अनन्तर शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुखंडप्रमाण सौधर्म और पेशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण है। शेष एक भागके
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२९६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ७३. सम्माइद्विणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा तस्सेव सम्मामिच्छाइद्विणो होति । सेसं असंखेजखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइट्ठिणो होति । एवं णेयव्वं जाव सदार सहस्सारो ति । तदो जोइसिय-वाण-तर-भवणवासिय-तिरिक्ख-पढमादि जाव सत्तमपुढवि त्ति णेयव्वं । सेसं संज्जखंडे कए बहुखंडा आणद-पाणदअसंजदसम्माइट्ठिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आरणच्चुदअसंजदसम्माइद्विणो होति । एवं णेयव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जअसंजदसम्माइहि त्ति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा आणद-पाणदमिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आरणच्चुदमिच्छाइट्ठी होति । एवं
यव्वं जाव उपरिमुवरिमगेवजमिच्छाइडि ति। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा अणु दिसअसंजदसम्माइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा अणुत्तरविजय-वइजयंत-जयंत-अवराइदअसंजदसम्माइट्टी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आणदपाणदसम्मामिच्छाइट्टी होति। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आरणच्चुदसम्मामिच्छाइट्ठी होति । एवं णेयव्यं जाव उपरिमुवरिमगेवज्जसम्मामिच्छाइहि ति। सेसं संखेज्जखंडे कए
संख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण उन्हीं सौधर्म और ऐशान कल्पके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सौधर्म और ऐशान कल्पके सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इसप्रकार शतार और सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये। इसके आगे ज्योतिषी, वाणव्यन्तर, भवनवासी, तिर्यंच और प्रथमादि सातों पृथिवियोंतक ले जाना चाहिये। सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इसीप्रकार उपरिम उपरिम प्रैवेयकके असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आणत और प्राणतके मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण आरण और अच्युत कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं। इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयकके मिथ्यादृष्टि देवोंके प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये । शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण अनुदिशके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित इन जार अनुत्तरोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके सम्यमिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव हैं। इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयकके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये। उपरिम उपरिम अवेयकके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके प्रमाणके अनन्तर शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे चउग्गइअप्पाबहुगपरूवणं
[२९७ बहुखंडा आणद-पाणदसासणसम्माइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा आरणच्चुदसासणसम्माइट्ठी होति । एवं णेयव्यं जाव उवरिममज्झिमसासणेत्ति । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा उवरिमउवरिमसासणसम्माइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मणुसिणीमिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मणुसपज्जत्तमिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा मणुसअसंजदसम्माइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइट्ठी होति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा संजदासंजदा हति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पमत्तसंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा अपमत्तसंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सजोगित्ति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा चउण्हं खवगा । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा चउण्हमुवसामगा। सेसेगखंडं अजोगिकेवली होति । एवं चउग्गइभागाभागं समत्तं ।
। एत्तो चउग्गइअप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा । सव्वत्थोवो अजोगिकेवलिरासी ।
.........................
बहुभागप्रमाण आनत और प्राणतके सासादनसम्यग्दृष्टि देव है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण आरण और अच्युतके सासादनसम्यग्दृष्टि देव हैं। इसीप्रकार उपरिम मध्यम अवेयकके सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण उपरिम उपरिम प्रैवेयकके सासादनसम्यग्दृष्टि देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेसे बहुभागप्रमाण मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण संयतासंयत मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण प्रमत्तसंयत मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण अप्रमत्तसंयत मनुष्य हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सयोगिकेवली जिन हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहभागप्रमाण चारों गुणस्थानके क्षपक हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण चारों गुणस्थानोंके उपशामक हैं । शेष एक खंडप्रमाण अयोगिकेवली जिन हैं।
इसप्रकार चारों गतिसंबन्धी भागाभाग समाप्त हुआ। अब इसके आगे चारों गतिसंबन्धी अल्पबहुत्वको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
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२९८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ७३. चउण्हमुवसामगा संखेज्जगुणा । चउण्हं खवगा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । मणुससंजदासजदा संखेजगुणा । मणुससासणा संखेज्जगुणा। सम्मामिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा। असंजदसम्माइट्ठी संखेजगुणा। . मणुसपज्जत्तमिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा । मणुसिणीमिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा । सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा तिउणा सत्तगुणा वा। सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? सव्वट्ठसिद्धिदेवपडिभागो । सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । सासणसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो? संखेज्जसमया । एवं णेयव्यं जाव सदार-सहस्सारो त्ति । तदो जोइसिय-वाणवेंतरभवणवासियदेवि त्ति णेयव्वं । तदो तिरिक्खअसंजदसम्माइट्ठि अवहारकालो असंखेजगुणो । सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो ।
अयोगिकेवली जीवराशि सबसे स्तोक है। इससे चारों गुणस्थानोंके उपशामक संख्यातगुणे हैं । चारों गुणस्थानोंके क्षपक उपशामकोंसे संख्यागुणे हैं। सयोगिकेवली क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं । प्रमत्तसंयत जीव अमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। मनुष्य संयतासंयत प्रमत्तसंयतसे संख्यातगुणे हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य संयतासंयत मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। मिथ्यादृष्टि मनुष्यनी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं। सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव मिथ्यादृष्टि मनुष्यनियों से तिगुणे अथवा सातगुणे हैं। सौधर्म और ऐशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सर्वार्थसिद्धिके देवोंसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है? सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण प्रतिभाग है। सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंका सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल उन्हींके असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उन्हींके सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल उन्हींके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इसीप्रकार शतार और सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये । शतार और सहस्रार कल्पके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे ज्योतिषी, वाणव्यन्तर और भवनवासी टेवियों तक ले जाना चाहिये।भवनवासी देवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे तिर्यचोंका असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इससे उन्हींका सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इससे उन्हींका सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकाल संख्यातगुणा
१ तिगुणा ससगुणा वा सव्वट्ठा माणुसीपमाणादो । गो. जी. १६३.
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे चउग्गइअप्पाबहुगपरूवणं [२९९ संजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तदो पढमपुढविअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । एवं णेयव्वं विदियादि जाव सत्तमपुढवि त्ति । तदो आणद-पाणदअसंजदसम्माइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुण।। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । आरणच्चुदअसंजदसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो। को गुणगारो ? संखेज्जसमया । एवं णेयव्यं जाव उपरिमउवरिमगेवजो त्ति । तदो आणद-पाणदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । आरणच्चुदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो संखेजगुणो। को गुणगारो ? संखेज्जसमया। एवं णेयव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवजो ति । तदो अणुदिसअसंजदसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । अणुत्तरविजय-बइजयंत-जयंत-अपराजिद-असंजदसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । तदो आणद-पाणदसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। आरणच्चुदसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो
है। इससे उन्हींका संयतासंयत अवहारकाल असंख्यातगुणा है । तिर्यंच संयतासंयतोंके अवहारकालसे प्रथम पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इससे उन्हींका सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इससे उन्हींका सासादन. सम्यग्दृष्टि अवहारकाल संख्यातगुणा है । इसीप्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक ले जाना चाहिये। सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे आनत और प्राणतके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इससे आरण और अच्युतके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इसीप्रकार उपरिम उपरिम अवेयकतक ले जाना जाहिये। उपरिम उपरिम प्रैवेयकके असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे आनत और प्राणतके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सख्यात समय गुणकार है । इससे आरण और अच्युतके मिथ्यावष्टियोंका अपहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इसीप्रकार उपरिम उपरिम येयकतक ले जाना चाहिये। उपरिम उपरिम अवेयकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे अनुदिशके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। अनुदिशोंके असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन अनुत्तरवासी देवोंका असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकाल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इससे आनत और प्राणतके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इससे आरण और अच्युतके सम्यग्मिथ्याडष्टियोंका अघहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इसीप्रकार
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३०० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ७३.
संगुण | को गुणगारो ? संखेज्जसमया । एवं यव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवज्जो त्ति । तदो आणद- पाणदसासणसम्म इडिअवहारकालो संखेजगुणो । को गुणगारो ? संखेजसमया । आरणच्चु दस सणसम्म इडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । एवं णेयव्वं जाव उवरिमउवरिमगेवजो ति । तस्सेव दव्यमसंखेज्जगुणं । उचरिममज्झिमसासणसम्माइदिव्वं संखेज्जगुणं । एवमवहारकालपडिलोमेण णेयव्वं जाव सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइदिव्वं त्ति । तदो पलिदोवममसंखे जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो । सोहम्मीसाणविक्खंभसूई असंखेज्जगुगा । को गुणगारो ? सूचिअंगुलपढम वग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेजाणि विदियवग्गमूलाणि । केत्तियमेत्ताणि ? तदियवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । को पडिभागो ? पलिदोवमपडिभागो । मणुसअपज्जतअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं । णेरइयमिच्छाइ डिविक्खभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो : सूचिअंगुलतदियवग्गमूलं । भवणवासिय मिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? णेरइयमिच्छाइ डिविक्खंभसूई | पंचिदिय
उपरिम उपरिम ग्रैवेयकतक ले जाना चाहिये । उपरिम उपरिम ग्रैवेयकके सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अबहारकालसे आनत और प्राणत के सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इससे आरण और अच्युत के सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इसीप्रकार उपरिम उपरिम ग्रैवेयकतक ले जाना चाहिये । उपरिम उपरिम ग्रैवेयक के सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे उन्हींका द्रव्यप्रमाण असंख्यातगुणा है । इससे उपरिम मध्यम ग्रैवेयक के सासादनसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य संख्यातगुणा है । इसप्रकार अवहारकालके प्रतिलोम क्रमसे जब सौधर्म और ऐशान कल्पके असंयतसम्यग्हष्टियोंका द्रव्य आवे तबतक ले जाना चाहिये । सौधर्मद्विकके असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यसे पल्योपम असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । पत्योपमसे सौधर्म और ऐशानकल्पके मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो सूचयंगुलके असंख्यात द्वितीय वर्गप्रमाण है । वे असंख्यात द्वितीय वर्गमूल कितने हैं ? सूच्यं गुलके तृतीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागमात्र हैं । प्रतिभाग क्या है ? पल्योपम प्रतिभाग है। सौधर्मद्विककी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची ले मनुष्य अपर्याप्त अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलका द्वितीय वर्गमूल गुणकार है। मनुष्य अपर्याप्त अवहारकालसे नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभ सूची असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलका तृतीय वर्गमूल गुणकार है । नारक मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची से भवनवासियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? नारक
१ प्रतिषु ' पलिदोवम संखे जगुणं ' इति पाठः ।
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे चउग्गइअप्पाबहुगपरूवणं
[ ३०१ तिरिक्खमिच्छाइटुिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ। केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदमेत्तेण । पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो' । देवमिच्छाइटिअवहारकालो संखेजगुणो । को गुणगारे। ? संखेज्जसमया । जोइसियमिच्छाइटिअवहारकालो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जरूवेहि खंडिदएयखंडमेत्तेण । वाणवेंतरमिच्छाइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । को गुणगारो ? संखेजसमया । विदिय पुढविभिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? बारहवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेजाणि तेरसवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? जोणिणीअव
.......
मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची गुणकार है । भवनवासी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त अवहारकालसे देव मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । देव मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? देव मिथ्याटियोंके अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंके अव. हारकालसे दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात तेरहवें वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? योनिमतियोंका अपहारकाल प्रतिभाग
१ प्रतिषु ' संखेज्ज. असंखेज्ज.' इति पाठः।
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३०२
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ७३. हारकालपडिभागो। तदो सणक्कुमारमाहिंद-तदियपुढवि-ब्रम्हब्रम्होत्तर-चउत्थपुढवि-लांतवकाविट्ठ-पंचमपुढवि-सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सार-छट्ठ-सत्तमपुढवीणं मिच्छाइट्ठिअवहारकालो कमेण असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढिवारसमेकारसम-दसम-णवम-अट्ठम-सत्तम-छट्ठमपंचम-चउत्थ-तदियवग्गमूलाणि जहाकमेण गुणगारा । तदो सत्तमपुढविअवहारकालस्सुवरि तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? पढमवग्गमूलं । तदो छट्ठपुढवि-सदारसहस्सार-सुक्कमहासुक्क-पंचमपुढवि-लांतवकाविट्ठ-चउत्थपुढवि-बम्हबम्होत्तर-तइयपुढवि-सणक्कुमारमाहिंदविदियपुढवीणं मिच्छाइट्ठिदव्वं कमेण असंखेजगुणं । को गुणगारो ? सेढितदिय-चउत्थपंचम-छट्ठ-सत्तम-अट्ठम-णवम-दसम-एकारसम-बारसमवग्गमूलाणि जहाकमेण गुणगारा ? तदो विदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वस्सुवरि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिविक्खंभई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? वारसमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि तेरसवग्गमूलाणि । वाणवेंतरमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई संखेजगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । जोइसियमिच्छाइट्ठिविवखंभसूई संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । देवमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जसमय
है। दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे सानत्कुमार-माहेन्द्र, तीसरी पृथिवी, ब्रह्मब्रह्मोत्तर, चौथी पृथिवी, लान्तव-कापिष्ठ, पांचवीं पृथिवी, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार छठवीं और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल क्रमसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? जगश्रेणीका बारहवां, ग्यारहवां, दशवां, नौवां, आठवां, सातवां, छठा, पांचवां, चौथा तीसरा वर्गमूल क्रमसे गुणकार है। तदनन्तर सातवीं पृथिवीके अवहारकालके ऊपर उसीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका प्रथम वर्गमूल गुणकार है। इससे छठी पृथिवी, शतार-सहस्रार, शुक्र-महाशुक्र, पांचवी पृथिवी, लावत-कापिष्ठ, चौथी पृथिवी, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, तीसरी पृथिवी, सानत्कुमार-माहेन्द्र और दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य क्रमसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका तीसरा, चौथा, पांचवां, छठा, सातवां, आठवां, नौवां, दशवां, ग्यारहवां और बारहवां वर्गमूल क्रमसे गुणकार हैं। अनन्तर दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्याष्टियोंकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात तेरहवें वर्गमूलप्रमाण है। इससे वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इससे ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इससे देव मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है। संण्यात समयोंसे ज्योतिषी मिथ्याग्दृष्टियोंकी विष्कंभसूचीको खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। इससे पंचेन्द्रिय
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१, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे चउग्गइअप्पाबहुगपरूवणं
[३०३ खंडिदएयखंडमेत्तेण । पंचिदियतिरिक्खपजत्तमिच्छाइविविक्खंभसूई संखेजगुणा । को गुणगारो ? संखेजसमया । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तविक्खंभमूई असंखेजगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्त संखेज्जदिभागो । पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइहिविक्खंभसूई विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदएयखंडमेत्तेण । भवणवासियमिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सूचिअंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । पढमपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो असंखेजगुणो । को गुणगारो? णेरइयविक्खंभसूई। मणुसअपजत्तदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो? सूचिअंगुलतदियवग्गमूलं । सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं । सेढी असंखेजगुणा । को गुणगारो ? विक्खंभसूई । सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठिदव्बमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई । पढमपुढविमिच्छाइद्विदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सोहम्मीसाणविक्खंभसई । भवणवासियमिच्छाइट्ठिदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? णेरइयमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइद्विदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखे
तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इससे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। इससे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है? आवलीके असंख्यातवें भागसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीको खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है । इससे भवनवासियोंका मिथ्याष्टि अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इससे पहली पृथिवीके मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? नारकियोंकी मिथ्याढाष्ट विष्कंभसूची गुणकार है। पहली पृथिवीके मिथ्याष्टि अवहारकालसे मनुष्य अपर्याप्तोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलका तृतीय वर्गमूल गुणकार है। मनुष्य अपर्याप्तोंके द्रव्यसे सौधर्म और ऐशानके मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? सूच्यंगुलका द्वितीय वर्गमूल गुणकार है। सौधर्मद्विकके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? विष्कंभसूची गुणकार है । जगश्रेणीसे सौधर्म और ऐशानके मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण असंख्यात. गुणा है । गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है । सौधर्मद्विकके मिथ्यादृष्टि द्रन्यसे पहली पृथिवीका मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? सौधर्म और ऐशानकी मिथ्यादृष्टि विष्कभसूची गुणकार है। पहली प्रथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? नारकियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची गुणकार है। भवनवासी मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि द्रव्य
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३०४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ७३.
ज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? असंखेज्जाणि घर्णगुलाणि पडिभागो । केत्तियमेताणि ? संखेज्जसूईपढमवग्गमूलमेताणि । वाणवेंतर मिच्छाइदिव्वं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । जोइसियमिच्छाइदिव्यं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । देवमिच्छाइदिव्त्रं विसेसाहियं । के त्तियमेतेण ? संखेज्जरूवखंडिदमे तेण । पंचिदियतिरिक्खपज्जत्तदव्त्रं संखेज्जगुणं । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तदव्त्रम संखेञ्जगुणं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिदव्यं विसेसाहियं । केत्तियमेतेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागखंडिदमेत्तेण । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगअवहारकालो | लोगमसंखेज्जगुणं. को गुणगारो ? सेठी । सिद्धा अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमसंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? लोगपडिभागो । एइंदिय - विगलिंदिया अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धेहिं वि अनंतगुणो जीववग्गमूलस्स
असंख्यातगुणा है | गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात घनांगुल प्रतिभाग है। उन असंख्यात घनांगुलोंका प्रमाण कितना है ? सूच्यंगुलके संख्यात प्रथम वर्गमूलका जितना प्रमाण हो उतना है । पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य संख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे ज्योतिषी मिध्यादृष्टियों का द्रव्य संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे देव मिथ्यादृष्टि द्रव्य विशेष अधिक है । कितनेमात्र विशेषले अधिक है ? संख्यात से ज्योतिषी मिथ्यादृष्टियों के प्रमाणको खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है । देव मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों का द्रव्य संख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । तिर्यच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि द्रव्य असंख्यातगुणा है | गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि द्रव्य विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेष से अधिक है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि द्रव्यको खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है लोकसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धों का असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? लोक प्रतिभाग है । सिद्धोंसे एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनतगुणा, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा, जीवराशिके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा और भव्यसिद्ध जीवोंके अनन्त
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१, २, ७४.] दव्वपमाणाणुगमे एइंदियपमाणपख्वणं
[३०५ वि अणंतगुणो भवसिद्धियजीवाणमणंताभागस्स अणंतिमभागो। को पडिभागो ? सिद्धपडिभागो । एवं चदुगदिअप्पाबहुगं समत्तं ।।
एवं गइमम्गणा समत्ता । इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता ॥ ७४ ॥
एत्थ एइंदियगहणेण सेसिंदियाणं पडिसेहो कदो भवदि । सुहुमपडिसेहढे बादरग्गहणं । बादरपडिसेहफलो सुहमणिदेसो । अपज्जत्तपडिसेहफलो पञ्जत्तणिदेसो । पज्जत्तपडिसेहफलो अपज्जत्तणिद्देसो । एइंदिया बादरेइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता अपज्जचा च एदे णव वि रासीओ दव्वपमाणेण केवडिया इदि पुच्छिदं होदि किमहं सव्वत्थ पण्हपुव्वं परिमाणं वुच्चदे? ण एस दोसो, मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहणद्वत्तादो। अर्णता इदि परिमाणणिदेसो संखज्ज असंखेजपरिमाणपडिसेहफलौ । सेसं जहा मूलोघसुत्ते वुत्तं तहा वत्तव्यं ।
बहुभागोंका अनन्तयां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? सिद्धराशि प्रतिभाग है। इसप्रकार चारों गतिसंबन्धी अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। .
इसप्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। , इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ ७४॥
इस सूत्रमें एकेन्द्रिय पदके ग्रहण करनेसे शेषेन्द्रिय जीवोंका निषेध किया है । सूक्ष्म जीवोंका प्रतिषेध करनेके लिये बादर पदका ग्रहण किया है। बादर जीवोंका निषेध करनेके लिये सूक्ष्म पदका ग्रहण किया है। अपर्याप्त जीवोंका निषेध करनेके लिये पर्याप्त पदका ग्रहण किया है। और पर्याप्त जीवोंका निषेध करनेके लिये अपर्याप्त पदका ग्रहण किया है। एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय जीव और सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव ये तीन राशियां तथा ये तीनों पर्याप्त और तीनों अपर्याप्त, इसप्रकार कुल नौ जीवराशियां द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितनी हैं, यहां ऐसा पूंछनेका अभिप्राय है।
शंका-सर्वत्र प्रश्नपूर्वक परिमाण (संख्या) किसलिये कहा जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मन्दबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिये ऐसा कहा गया है।
संख्यात और असंख्यातका निषेध करनेके लिये सूत्रमें अनन्तरूप परिमाणका निर्देश
१ एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । स. सि. १, ८. तसहीणो संसारी एयक्खा ताण संखगा भागा। पुण्णाणं परिमाणं संखेन्जदिमं अपुण्णाणं ॥ गो. जी. १७६.
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२०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ७५. अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिति कालेण ॥७५॥
अदीदकालो ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिपमाणेण कीरमाणो अणतोसप्पिणि-उस्सप्पिणिपमाणं होदि । तेण तारिसेण वि अदीदकालेण एदे णव वि रासीओ ण अवहिरिजंति । एइंदिएहिंतो एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण पदररस असंखेजदिभागमेसा जीवा तसकाइएसुप्पजंति । तसकाइया वि एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता एईदिएसुप्पजंति । बादरेइंदिया विसयं पडि अणंता सुहुमेइंदिएसुप्पजति । सुहमेइंदिया वि तत्तिया चेव बादरेइंदिएसुप्पज्जति । एवं चेव सव्वेसि पज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च वत्तव्यं । तदो सरिसाय-व्ययत्तादो एदेसिं णवण्हं रासीणं वोच्छेदो तिसु वि कालेसु णत्थि त्ति अणुत्तसिद्धीदो एदं सुत्तं णादरेदधमिदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहाएदेसि णवण्हं रासीणं जदि आय-व्यया सरिसा हवंति तो एदं सुत्तं णादरेदव्यं भवदि । किं तु आयादो वओ अब्भहिओ। कुदो ? तत्तो णिप्फदिऊण तसेसुप्पज्जिय सम्मत्तं घेत्तूण किया है । शेष कथन जिसप्रकार मूलोघ सूत्रमें कह आये हैं उसप्रकार जानना चाहिये ।
कालप्रमाणकी अपेक्षा पूर्वोक्त एकेन्द्रिय जीव आदि नौ राशियां अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहत नहीं होती हैं ॥ ७५॥
अतीत कालको अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके प्रमाणसे करने पर अनन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीप्रमाण अतीत काल होता है। इसप्रकारके भी उस अतीत कालके द्वारा ये नौ राशियां अपहृत नहीं होती हैं।
शंका-एकेन्द्रियोंमेंसे एक जीवको आदि करके उत्कृष्टरूपसे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव त्रसकायिकोंमें उत्पन्न होते हैं और त्रसकायिक भी एक जीवको आदि करके उत्कृष्टरूपसे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं । विषयकी अपेक्षा अनन्त बादर एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं और सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भी उतने ही बादर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं । इसीप्रकार सभी पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भी कथन करना चाहिये । इसप्रकार समान आय और व्यय होनेसे इन नौ राशियोंका विच्छेद तीनों भी कालोंमें नहीं होता है, इसलिये यह कथन अनुक्तसिद्ध होनेसे यह सूत्र ग्रहण करने योग्य नहीं है ?
समाधान-आगे पूर्वोक्त कथनका परिहार किया जाता है। वह इसप्रकार है- इन पूर्वोक्त नौ राशियोंका आय और व्यय यदि समान हो तो यह सूत्र ग्रहण करने योग्य नहीं होते। किन्तु इन राशियोंका आयसे व्यय अधिक है, क्योंकि, पूर्वोक्त नौ राशियों में से निकल कर और त्रसोंमें उत्पन्न होकर तथा सम्यक्त्वको ग्रहण करके जिन संसारी जीवोंने एकेन्द्रिय
१अ प्रतौ णादव्वेदव्वं ' आ-क-प्रत्योः । णादवेदव्वं ' इति पाठः ।
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१, २, ७६.] दव्वपमाणाणुगमे एइदियपमाणपरूवणं
[३०७ विणासिदएइंदिय-वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदिय-णेरइय-तिरिक्ख-भवणवासियवाण-तर-जोइसिय-इत्थि-णqसय-हय-गय गंधव्य-णागादि-संसारिजीवाणं पुणो तेसु पवेसाभावादो। तदो एदे णव वि रासीओ वयसहिया णिच्छएण हवंति । एवं हि वए संते वि एदे णव वि रासीओ ण वोच्छेज्जति' सरागसरूवेण विदअदीदकालत्तादो। सव्वजीवरासीदो अदीदकाले अणंतगुणे संते अदीदकालेण सव्वजीवा अवहिरिजंति । ण च एवं, तधा अणुवलंभादो । जं तेण कालेण सव्यजीवाणं वोच्छेदो किण्ण होदि त्ति भणिदे ण, अभव्वपडिवक्खवोच्छेदे अभव्यत्तस्स विधिणासप्पसंगादो (सेसं वक्खाणं जहा ओघकालसुत्तम्हि भणिदं तहा वत्तव्यं ।)
खेत्तेण अणंताणता लोगा ॥ ७६ ॥ ___ एदस्स सुत्तस्स वक्खाणे भण्णमाणे जहा मूलोघखेत्तसुत्तस्स भणिदं तहा भाणिदव्यं । णवरि एत्थ धुवरासी एवमुप्पाएदव्यो । तं जहा- बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदिय
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंहीपंचेन्द्रिय, नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, घोड़ा, हाथी, गंधर्व और नाग आदि पर्यायोंका नाश कर दिया है वे पुनः उन पर्यायों में प्रवेश नहीं करते हैं, इसलिये ये नौ राशियां नियमसे व्ययसहित हैं । इसप्रकार इन नौ राशियोंके व्ययसहित होने पर भी ये नौ राशियां कभी भी विच्छिन्न नहीं होती हैं, क्योंकि, अतीतकालसे वे अपने सरागस्वरूपसे स्थित हैं । यदि संपूर्ण जीवराशिसे अतीतकाल अनन्तगुणा होता तो अतीतकालसे संपूर्ण जीवराशि अपहृत होती; परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि, इसप्रकारकी उपलब्धि नहीं होती है।
शंका-उस अतीत कालके द्वारा संपूर्ण जीवराशिका विच्छेद क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अभव्यशाशकी प्रतिपक्षभूत भव्यराशिका विच्छेद मान लेने पर अभव्यत्वकी सत्ताके नाशका प्रसंग आ जाता है।
शेष व्याख्यान ओघप्ररूपणाके कालसूत्रमें जिसप्रकार कर आये हैं उसप्रकार उसका कथन करना चाहिये।
क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा पूर्वोक्त एकेन्द्रियादि नौ जीवराशियां अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ७६ ॥
इस सूत्रका व्याख्यान करने पर जिसप्रकार मूलोघ प्ररूपणाके समय क्षेत्रसूत्रका अर्थ कह आये हैं उसप्रकार कथन करना चाहिये। परंतु यहां पर भुवराशि इसप्रकार उत्पन्न करना चाहिये । वह इसप्रकार है
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीवोंकी राशिको संपूर्ण जीव १ प्रतिषु 'वोच्छेज्जतो ' इति पाठः ।
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३०८]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ७६.
अनिंदियाणं रासिं सव्यजीवरा सिस्सुवरि पक्खिविय तस्स चैव वग्गं एइंदियभाजिदं तत्थेव पक्खित्ते एइंदियधुवरासी होदि । तं संखेज्जरूवेहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते एवं दियपज्जत्तधुवरास ( होदि । एइंदियधुवरासिं संखेज्जरूवेहि गुणिदे एइंदियअपज्जत्तवसी होदि । पुणो इंदियधुवरासिमसंखेज्जलोएण गुणिदे बादरेइंदियध्रुवरासी होदि । तमसंखेज्जलोएण गुणिदे बादरेइंदियपज्जत्ताणं ध्रुवरासी होदि । तमसंखेज्जलोएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते बादरेइंदियअपज्जत्ताणं धुवरासी होदि । सामण्णे इंदियध्रुवरासिम संखेअलोएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते सुहुमेइंदियधुवरासी होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चैव पक्खिते सुहुमेइंदियपजत्तबुवरासी होदि । सामण्णसुहुमईदियधुवरासिं संखेज्जरूवेहि गुणिदे मुहुमेइंदियअपज्जत्तधुरासी होदि । सगसगधुवरासीहि सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे खंडिदादओ ओघमिच्छाइडीणं व वत्तव्या । वरि पमाणं भणमाणे एइंदियाणं ओघभंगो । एइंदियपज्जत्ता सव्वजीवरासिस्स संखेज्जा भागा । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं पमाणं सव्वजीवरासिस्स संखेज्जदिभागो । बादरेइंदियाणं
राशिमें ऊपर प्रक्षिप्त करके और उन्हीं द्वीन्द्रियादि जीवोंके प्रमाणके वर्गको एकेन्द्रिय जीवराशि से भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी पूर्वोक्त राशि में प्रक्षिप्त करने पर एकेन्द्रिय जीवराशिसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । इसे संख्यातसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी पूर्वोक्त ध्रुवराशिमें मिला देने पर एकेन्द्रिय पर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । एकेन्द्रिय जीवंसबन्धी ध्रुवराशिको संख्यात से गुणित करने पर एकेन्द्रिय अपर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती
। पुनः एकेन्द्रिय जीवसंबन्धी ध्रुवराशिको असंख्यात लोकसे गुणा करने पर बादर एकेन्द्रिय जीवसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । इसे असंख्यात लोकोंसे गुणित करने पर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त संबन्धी ध्रुवराशि होती है। इसमें असंख्यात लोकोंका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । सामान्य एकेन्द्रियसंबन्धी ध्रुवराशिमें असंख्यात लोकों का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसको उसी में मिला देने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की ध्रुवराशि होती है। इसे संख्यातसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे इसी सूक्ष्म एकेन्द्रिय ध्रुवराशिमें मिला देने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती है। सामान्य सूक्ष्म एकेन्द्रियसंबन्धी ध्रुवराशिको संख्यात से गुणित करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त संवन्धी ध्रुवराशि होती है। इन अपनी अपनी ध्रुवराशियोंके द्वारा संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके ऊपर खंडित आदिकका कथन ओघ मिथ्यादृष्टियों के खंडित आदिकके कथन के समान करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि प्रमाणका कथन करते समय एकेन्द्रियों का प्रमाण सामान्य प्ररूपणा के समान कहना चाहिये । एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव संपूर्ण जीवराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। उन्हीं एकेन्द्रिय अपर्याप्तों का प्रमाण संपूर्ण जीवराशि के संख्यातवें भाग हैं । बादर एकेन्द्रिय तथा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त
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१, २, ७६.] दन्वपमाणाणुगमे एइदियपमाणपरूवणं
[ ३०९ तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं पमाणं सबजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागो। सुहुमेइंदिया सव्वजीवरासिस्स असंखेज्जा भागा। सुहुमेइंदियपज्जत्ता सधजीवरासिस्स संखेज्जा भागा। सुहुमेइंदियापजत्ता सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागो । कारणमेइंदियाणं ताव वुच्चदे । सेसिंदियाणिदिएहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे लद्धं विरलेऊण एकेक्कस्स रुवस्स सव्वजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेयखंडं सेसिंदियाणिदिया च हति । सेसबहुखंडा एइंदिया हवंति । सेसिंदियाणिदिय-एइंदियापज्जत्तेहि य सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे लद्धं संखेज्जरूवाणि विरलिय सव्वजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडा एइंदियपज्जत्ता होति । एइंदियअपज्जत्तेहि चेव सधजीवरासिम्हि भागे हिदे संखेज्जरूवाणि लब्भंति । ताणि विरलिय सव्वजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं एइंदियअपज्जत्ता होति । सेसिंदिय-अणिदिय बादरेंइदिएहि य सयजीवरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धअसंखेजदिलोगरासिं विरलिय सधजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडा सुहुमेइंदिया होति । वि-ति चदु पंचाणिदिर-चादरेंइदियसहिदसुहुमेइंदिअपज्जत्तएहि सव्वजीवरासिम्हि
और अपर्याप्तीका प्रमाण संपूर्ण जीवराशिके असंख्यातवें भाग है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव संपूर्ण जीवराशिके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सर्व जीवराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सर्व जीवराशिके संख्यातवें भाग हैं। अब एकेन्द्रियोंके प्रमाणका कारण कहते हैं- शेषेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रियादि जीव और अनिन्द्रिय जीव इनके प्रमाणसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके दे देने पर उनमेंसे एक खंडप्रमाण द्वीन्द्रियादि शेष इन्द्रियवाले और अनिन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है। शेष बहुभागप्रमाण एकेन्द्रिय जीव हैं। द्वीन्द्रियादि शेष इन्द्रियवाले, अनिन्द्रिय और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर जो संख्यात लब्ध आवे उसका विरलन करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां बहुभागप्रमाण एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव होते हैं। एकेन्द्रिय अपर्याप्तों के प्रमाणसे भी सर्व जीवराशिके भाजित करने पर संख्यात लब्ध आते हैं। उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां एक खंडप्रमाण एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव होते हैं। द्वीन्द्रियादि शेष इन्द्रियवाले, अनिन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय जीवोंके प्रमाणसे सर्व जीव. शिके भाजित करने पर वहा जो असख्यात लोकप्रमाण राशि लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां बहुभागप्रमाण सूक्ष्म एकोन्द्रिय जीव होते हैं। दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अनिन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे युक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर संख्यात लब्ध आते हैं । उसका
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३१०]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ७७. भागे हिदे संखेज्जरूवाणि आगच्छति । ताणि विरलिय सधजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडा सुहुमेइंदियपज्जता हाँति । सुहुमेइंदियअपज्जत्तेहि सव्यजीवरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवाणि विरलिय सयजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगखंडं सुहुमेइंदियअपज्जत्ता हाँति । बादरेइंदिएहि सधजीवरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धअसंखेज्जलोगे विरलिय सधजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगरूवधारदं बादरेइंदिया हाँति । बादरेइंदियअपज्जत्तेहि सधजीवरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धअसंखज्जलोगे विरलिय सव्वजीवरासिं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगरूवधरिदं बादरेइंदियअपज्जत्ता होति । एवं बादरेइंदियपज्जत्ताणं पि वत्तव्यं । एसा चेव णिरुत्ती हवदि । कुदो ? एत्थ कारणादो णिरुत्तीए भेदाणुवलंभादो ।
वेइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ७७ ॥
विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां बहुभागप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव प्राप्त होते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर वहां जो संख्यात अंक लब्ध आवें उनका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां एक खंड प्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव होते हैं। बादर एकेन्द्रिय जीवोंके प्रमाणसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर वहां जो असंख्यात लोक लब्ध आवें उन्हें विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां एक विरलनके प्रति जितना प्रमाण प्राप्त हो उतने बादर एकेन्द्रिय जीव होते हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर वहां जो असंख्यात लोकप्रमाण राशि लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिक प्रत्येक एकके प्रति सर्व जीवराशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर वहां एक विरलनके प्रति जितना प्रमाण प्राप्त हो उतने बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव होते हैं। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंका भी कथन करना चाहिये । और यही निरुक्ति है, क्योंकि, यहां पर कारणसे निरुक्तिमें भेद नहीं पाया जाता है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात है ॥ ७७ ॥
थावरसंखपिपीलियभमर xx आदिगा समेदा जे । जुगवारमसंखेज्जा॥ गो. जी. १७५. असंखेज्जा बेइंदिआ जाव असंखिज्जा चउरिदिया। अनु. द्वा. सू. १४१ पत्र १७९.
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१, २, ७७.] दव्वपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
बहूणं वीइंदियादीणं तस्सेवेत्ति एगवयणणिदेसो कधं घडदे ? ण एस दोसो, बहूणं पि जादीए एयत्तविरोहाभावादो । एत्थ अपञ्जतवयणेण अपज्जत्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तव्या । अण्णहा पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदणिबत्तिअपजत्ताणं पि अपज्जत्तवयणेण गहणप्पसंगादो। एवं पज्जत्ता इदि वुत्ते पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तया । अण्णहा पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदणिव्यत्तिअपज्जत्ताणं गहणाणुववतीदो। वि-ति-चउरिदिए त्ति वुत्ते वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादिणामकम्मोदयसहिदजीवाणं गहणं । वेण्णि इंदियाणि जेसिं ते वेइंदिया इदि घेप्पमाणे को दोसो १ चे ण, अपज्जत्तकाले वट्टमाणजीवाणमिंदियाभावेण तेसिमगहणप्पसंगादो। खओवसमो इंदियं ण दबिदियमिंदियमिदि चे ण, सजोगिकेवलिस्स पणखओवसमस्स अणिंदियत्तप्पसंगादो । होदु ? चे ण, सुत्तस्स पंचिंदियत्तपदुप्पायणादो। कम्हि तं सुत्तमिदि चे एत्थेव । तं
शंका-द्वीन्द्रियादिक जीव बहुत हैं, अतएव उनके लिये ' तस्सेव' इसप्रकार एक वचन निर्देश कैसे बन सकता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बहुतके भी जातिसे एकत्वके प्रति कोई विरोध नहीं आता है।
___ यहां सूत्र में अपर्याप्त पदसे अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदयसे युक्त निर्वृत्यपर्याप्त जीवोंका भी अपर्याप्त इस वयनसे ग्रहण प्राप्त हो जायगा। इसीप्रकार पर्याप्त ऐसा कहने पर पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त नित्यपर्याप्त जीवोंका ग्रहण नहीं होगा। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, ऐसा कहने पर द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिये।
शंका-'जिन जीवोंके दो इन्द्रियां पाई जाती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव हैं ' ऐसा ग्रहण करने में क्या दोष आता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उपर्युक्त अर्थके ग्रहण करने पर अपर्याप्त कालमें विद्यमान जीवोंके इन्द्रियां नहीं पाई जानेसे उनके नहीं ग्रहण होनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा।
शंका-क्षयोपशमको इन्द्रिय कहते हैं, द्रव्येन्द्रियको इन्द्रिय नहीं कहते हैं। इसलिये अपर्याप्त कालमें द्रव्येन्द्रियोंके नहीं रहने पर भी द्वीन्द्रियादि पदोंके द्वारा उन जीवोंका ग्रहण हो जायगा?
समाधान नहीं, क्योंकि, यदि इन्द्रियका अर्थ क्षयोपशम किया जाय तो जिनका क्षयोपशम नष्ट हो गया है ऐसे सयोगिकेवलीको अनिन्द्रियपनेका प्रसंग आ जाता है।
शंका- आ जाने दो? समाधान- नहीं, क्योंकि, सूत्र सयोगिकेवलीको पंचेन्द्रियरूपसे प्रतिपादन करता है।
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३१२] छक्खंडागमे जीववाणं
[ १, २, ७८. जहा-पंचिंदिया सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति दव्यपमाणेण केवडिया, ओघमिदि।
सुहुमट्टपरूवणटुं सुत्तमाहअसंखेजाहि ओसाप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंत कालेण ॥७८॥
एदस्म सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुच्चदे। एदाओ रासीओ सयकालमायाणु रूववयसहिदाओ त्ति ण वोच्छेदमुवढुक्कते तदो असंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति त्ति कधमेदं घडदे ? सच्चं, ण वोच्छिज्जति चेव किं तु एदासिमाएण विणा जदि वओ चेव भवदि तो णिच्छएण वोच्छिज्जति । अण्णहा असंखेज्जत्ताणुववत्तादो । एदस्सत्थस्स अवबोहणहूँ अवहिरंति त्ति वुत्तं ।
शंका- वह सूत्र कहां पर है ?
समाधान-यहीं आगे है । यथा- 'पंचेन्द्रिय जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? सामान्य प्ररूपणाके समान पांचवें गुणस्थानतक पल्योपमके असंख्यातवें भाग और छठवेसे संख्यात हैं।
अब सूक्ष्म अर्थका प्ररूपण करने के लिये सूत्र कहते हैं
कालकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव असंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सपिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ।। ७८॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं।
शंका-ये द्वीन्द्रियादि सर्व जीवराशियां सर्व काल आयके अनुरूप व्ययसे युक्त हैं, इसलिये यदि विच्छेदको प्राप्त नहीं होती है तो ' असंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होती हैं, यह कथन कैसे घटित हो सकता है ?
समाधान-यह सत्य है कि उपर्युक्त द्वीन्द्रियादिक जीवराशियां विच्छिन्न नहीं होती हैं, किन्तु इन राशियोंका आयके विना यदि व्यय ही होता तो निश्चयसे विच्छिन्न हो जातीं। यदि ऐसा न माना जाय तो 'द्वीन्द्रियादि राशियां असंख्यात हैं' यह कथन नहीं बन सकता है । इसी अर्थका ज्ञान करानेके लिये 'अवहिरंति' ऐसा कहा।
विशेषार्थ-यहां सूत्रमें ' असंखेजाहि' पाठ है, किन्तु अर्थसंदर्भकी दृष्टि से वहां 'असंखेजासंखेजाहि' ऐसा पाठ प्रतीत होता है। खुद्दाबंध खंडके इसी प्रकरणमें इन्हीं जीवोंकी सामान्य संख्या बतलाते हुए यह सूत्र पाया जाता है- 'असंखेज्जासंखेन्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ।' किन्तु यहां टीकमें भी 'असंखेज्जाहि' पद होनेसे उसी पाठकी रक्षा की गई।
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१, २, ७९.] दवपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
[ ३१३ खेत्तेण वेइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय तस्सेव पज्जत्त-अपजत्तेहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखेज्जदि भागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभाएण॥७९॥
___ एदस्स सुत्तस्स अत्था बुच्चदे । तं जहा- 'जहा उद्देसो तहा णिहेसो ' ति णायादो पुव्वुद्दिढवि-ति-चउरिंदियाणं पमाणं पुव्वुद्दिट्टमेव भवदि। मज्झिल्लं मज्झम्हिःसमुद्दिट्ठपज्जताणं भवदि । अंतिल्लं पि अंतुद्दिटुं तेसिमपज्जत्ताणं हवदि । एदेहि सामण्णविगलिंदिएहि तेसिं चेव पजत्तेहि विगलिंदियअपज्जत्तएहि जगपदरमवहिरदि । अंगुलस्स सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागो सूचिअंगुलमावलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदेयभागो। तस्स वग्गो तारिसेण अवरेण गुणिदरासी पडिभागो अवहारकालो। एवं चेव अपज्जत्तसुत्तं पि विवरेयव्वं । एवं चेव पज्जत्तमुत्तं पि वक्खाणेयव्वं । णवरि सूचिअंगुलस्स संखेजदिभाए
. क्षेत्रकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है । तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके द्वारा क्रमशः सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ ७९ ॥
___अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है- 'उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है । इस न्यायके अनुसार सर्व प्रथम कहे गये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंका प्रमाण सर्व प्रथम कहा गया ही है। मध्य में कह गये पर्याप्तोंका प्रमाण गया है । और अन्तमें कहा गया प्रमाण भी अन्त में कहे गये उन्हींके अपर्याप्तकोंका है। इनके द्वारा अर्थात् सामान्य विकलत्रयोंके द्वारा, उन्हींके पर्याप्तकोंके द्वारा और विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके द्वारा जगप्रतर अपहृत होता है । यहां पर अंगुलसे तात्पर्य सूच्यंगुलका और उसके असंख्यातवें भागसे तात्पर्य सूच्यंगुलको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे उससे है। उस सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका वर्ग इसका यह तात्पर्य हुआ कि उस सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको तत्प्रमाण दूसरी राशिसे गुणित कर दो। ऐसा करने पर जो राशि उत्पन्न होगी वह यहां पर प्रतिभाग अर्थात् अवहारकाल है। इसीप्रकार अपर्याप्त-सूत्रका भी स्पष्टीकरण करना चाहिये और इसीप्रकार पर्याप्त-सूत्रका भी व्याख्यान करना चाहिये। इतना विशेष है कि सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गित करने पर
. १ द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १, ८. पज्जत्तापज्जता वितिचउ xx अवहरंति । अंगुलसंख x x पएसभइयं पुढो पयरं ॥ पश्चसं. २, १२..
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३१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८०. वग्गिदे पज्जत्ताणमवहारकालो होदि । तेण पडिभाएण । पदरंगुलस्स असंखेजदिभाग सलागनंद ठविय विगलिंदियअपज्जत्तेहि जगपदरे अवहिरिज्जमाणे सलागाहि सह जगपदरं समप्पदि । पदरंगुलस्स संखेलदिभागं सलागभूदं ठविय विगलिंदियपज्जत्तेहि जगपदरे अवहिरिज्जमाणे सलागाहि सह जगपदरं समप्पदि त्ति जं वुत्तं होदि।
पंचिंदिय-पांचंदियपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेजा ॥८०॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुच्चदे।
असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरांत कालेण ॥ ८१॥
एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुच्चदे । .
खेत्तेण पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण॥ ८२॥ पर्याप्तीका अवहारकाल होता है। इस प्रतिभागसे । प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागको शलाकारूपसे स्थापित करके विकलेन्द्रिय अपर्याप्तोंके द्वारा जगप्रतरके पुनः पुनः अपहृत करने पर अर्थात् घटाने पर शलाकाओंके साथ जगप्रतर समाप्त होता है । तथा प्रतरांगुलके संख्यातवें भागको शलाकारूपसे स्थापित करके विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंके द्वारा जगप्रतरके पुनः पुनः अपहृत करने पर शलाकाओंके साथ जगप्रतर समाप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ८ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं।
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ८१ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं।
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ।। ८२ ॥
१४४ मणुस्सादिगा सभेदा जे । जुगवारमसंखेज्जा ॥ गो. जी. १७५.
२ पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्ययभागप्रमिताः । स. सि. १, ८, प्रतिषु 'संखे. ज्जदिभायपडिभाएण' इति पाठः।
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१, २, ८२.] दव्वपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
[३१५ 'जहा उद्देस तहा णिद्देसो' त्ति णायादो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागस्स वग्गो पंचिंदियाणं जगपदरस्स पडिभागो होदि । सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागस्स वग्गो जगपदरस्स पडिभागो होदि पंचिंदियपज्जत्ताणं । पडिभागो भागहारो त्ति एयट्ठो। विगलिंदियसुत्तेण सह पंचिंदियसुत्तं किमिदि ण वुत्तं ? ण एस दोसो, उवरिमगुणपडिवण्णसुत्तस्स पंचिंदियत्ताणुवट्ठावणकृत्तादो पुध पंचिंदियसुत्तं वुच्चदे । तत्थ ट्ठियपंचिंदियणिद्देसो किमिदि णाणुवट्टाविज्जदे ? ण, एगजोगणिहिट्ठाणमेगदेसस्स अणुवट्टणाभावादो।
__संपहि उवरि वुच्चमाणअप्पाबहुगअणियोगद्दारसुत्तबलेण पुवाइरिओवएसबलेण च एदेण सुत्तेण सूचिदविगल-सयलिंदियाणमवहारकालविसेसे भणिस्सामो। तं जहा-आवलियाए असंखेज्जदिभाएण सूचिअंगुले भागे हिदे तत्थ जं लद्धं तं वग्गिदे वेइंदियाणमवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेइंदियअपजत्तअवहारकालो होदि । तं आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव
'उद्देशके अनुसार निर्देश होता है। इस न्यायके अनुसार अंगुलके असंख्यातवें भागका वर्ग पंचेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण लानेके लिये जगप्रतरका प्रतिभाग है, और सूच्यंगुलके संख्यातवें भागका वर्ग पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण लानेके लिये जगप्रतरका प्रतिभाग है । प्रतिभाग और भागहार ये दोनों एकार्थवाची शब्द हैं।
शंका-विकलेन्द्रियों के प्रमाणके प्रतिपादक सूत्रके साथ पंचेन्द्रियोंके प्रमाणका प्रतिपादक सूत्र क्यों नहीं कहा ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आगे कहे जानेवाले गुणप्रतिपन्न जीवोंके सूत्र में पंचेन्द्रियत्वकी अनुवृत्ति करनेके लिये पृथक्पसे पंचेन्द्रियोंके प्रमाणका प्रतिपादक सूत्र कहा।
शंका-विकलेन्द्रियोंके प्रमाणके प्रतिपादक सूत्रके साथ पंचेन्द्रियोंके प्रमाणके प्रतिपादक सूत्रके एकत्र कर देने पर वहां स्थित पंचेन्द्रिय पदके निर्देशकी अनुवृत्ति क्यों नहीं होती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, एक योगरूपसे निर्दिष्ट अनेक पदों से एक देशकी अनुवृत्ति नहीं होती है। ___ अब आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके सूत्रके बलसे और पूर्वाचार्योंके उपदेशके बलसे इस सूत्रके द्वारा सूचित विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीवोंके अवहारकाल विशेषोंको कहते हैं। वे इसप्रकार हैं- आवलीके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसको वर्गित करने पर द्वीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल होता है। द्वीन्द्रियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी दीन्द्रियोंके अपहारकालमें मिला देने पर द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंको अवहारकाल होता है। इस द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित
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३१६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ८२.
पक्खित्ते तेइंदियअवहारकालो होदि । पुणो तम्हि चेव आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे जं लद्धं तं तम्हि चेव पक्खिते तेइंदियअपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । एवं चउरिंदि - चउरिंदियअपज्जत्त-पंचिंदिय-पंचिदियअपज्जत्ताणं जहाकमेण आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदेयखंडेण अवहारकाला अन्भहिया कायव्वा । तदो पंचिंदिय अपज्जत्तअवहारकाले आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे पदरंगुलस्स संखेजदिभागे। तेईदियपज्जत्ताणं अवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चैव पक्खित्ते वेइंदियपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चैव पक्खिते पंचिंदियपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते चउरिंदियपज्जत्तअवहारकालो होदि । एत्थ सव्वत्थ रासिविसेसेण रासिमोवट्टाविय लद्धं रूवणं करिय भागहारभूदआवलियाए असंखेज्जदिभागो उप्पादव्वो । एदेहि अवहारकाले हि पुध पुध जगपदरे भागे हिदे अष्पष्पणो दव्त्रपमाणाणि भवति । एत्थ खंडिदादओ जाणिऊण वत्तव्या ।
करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी द्वीन्द्रिय अपर्याप्त अवहारकालमें मिला देने पर त्रीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल होता है । पुनः इस त्रीन्द्रिय जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी त्रीन्द्रिय जीवोंके अवहारकाल में मिला देने पर त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंका अवहारकाल होता है । इसीप्रकार चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके अवहारकालको क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके उत्तरोत्तर एक एक भागसे अधिक करना चाहिये । अनन्तर पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण श्रीन्दिय पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के भवहारकालमें मिला देने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी द्वीन्द्रिय पर्याप्त अवहारकालमें मिला देने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका अवहार • काल होता है । इस पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भाग भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे इसी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवहारकालमें मिला देने पर चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । यहां सर्वत्र राशि विशेष से राशिको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करके भागद्दाररूप आवलीका असंख्यातवें भाग उत्पन्न कर लेना चाहिये । इन अवहारकालोंसे पृथक् पृथक् जगप्रतर के भाजित करने पर अपने अपने द्रव्यका प्रमाण आता है । यहां पर खंडित आदिकका कथन समझ कर करना चाहिये ।
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१, २, ८५.] दव्वपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
[३१७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ ॥८३॥
पहुडिसहो किरियाविसेसणं । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि आई करिएत्ति । एत्थ पुन्वसुत्तादो पंचिंदिय इदि अणुवट्टदे । तेण सव्वे गुणपडिवण्णा पंचिंदिया चेव । सजोगिअजोगिकेवलीणं पणट्ठासेसिंदियाणं पंचिंदियववएसो कधं घडदे ? ण, पंचिंदियजादिणामकम्मोदयमवेक्खिय तेसिं पंचिंदियववएसादो। एदेसिं पमाणपरूवणा मूलोघपरूवणाए तुल्ला । कुदो ? पंचिदियवदिरित्तजादीसु गुणपडिवण्णाभावाद।।
पंचिंदियअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥८४ ॥ एदस्स सुत्तस्स सुगमो अत्यो ।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिति कालेण ॥८५॥
एदस्स वि अत्थो सुगमे।।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पंचेन्द्रिय और पंचेद्रिय पर्याप्त जीव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यतवें भाग हैं ॥ ८३॥
__ यहां पर प्रभृति शब्द क्रियाविशेषण है। जिससे सासादनसम्यग्दृष्टि प्रभृतिका अर्थ सासादनसम्याग्दृष्टिको आदि लेकर होता है। यहां पर पूर्व सूत्रसे पंचेन्द्रिय पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये संपूर्ण गुणस्थानप्रतिपन्न जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं, यह अभिप्राय निकल आता है।
शंका-सयोगिकेवली और अयोगिकेवलियोंके संपूर्ण इन्द्रियां नष्ट हो गई हैं, अतएव उनके पंचेन्द्रिय यह संज्ञा कैसे घटित होती है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रियजाति नामकर्मकी अपेक्षा सयोगिकेवली और अयोगिकेवलियोंके पंचेन्द्रिय संशा बन जाती है।
इन गुणस्थानप्रतिपन्न पंचेन्द्रिय जीवों के प्रमाणकी प्ररूपणा मूलोध प्ररूपणाके समान है, क्योंकि, पंचेन्द्रियजातिको छोड़कर दूसरी जातियों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीव नहीं पाये जाते हैं।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। ८४॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ८५॥
इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है। १ सासादनसम्यग्दृष्टयादयोऽयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८,
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३१८ ]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८६. खत्तेण पंचिंदियअपज्जत्तएहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ ८६ ॥
एदं पि सुत्तं सुगम चेव । एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि पंचिंदियअपज्जत्तपडिबद्धाणि विगलिंदियापज्जत्तसुत्तं व पंचिंदियमिच्छाइद्विसुत्तम्हि चेव किण्ण वुत्ताणि त्ति वुत्ते ण, पंचिंदियअपज्जत्तेसु गुणपडिवण्णाभावपरूवणहत्तादो पुध सुत्तारंभस्स । अपज्जत्तकाले वि पंचिंदिएसु गुणपडिवण्णा अत्थि वेउब्विय-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगेसु सम्मत्त-णाण-दसणोवलंभादो। इदि चे, होदु णाम णिव्वत्तिं पडि अपज्जत्तएसु गुणपडिवण्णाणमत्थितं, अपज्जत्तणामकम्मोदएण सह गुणाणं अवट्ठाणविरोहा।।
भागाभागं वत्तइस्साम।। सव्वजीवरासि सखेजखंडे कए तत्थ बहुखंडा सुहुमेइंदियपज्जसा होति । सेसमसंखेज्जलोगमेत्तखंडे कए तत्थ बहुखंडा सुहुमेइंदियअपज्जत्ता होति । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा बादरेइंदियअपज्जत्ता होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा
क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ ८६ ॥
यह सूत्र भी सुगम ही है। ये पूर्वोक्त तीनों भी सूत्र पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे प्रतिबद्ध हैं।
शंका-जिसप्रकार विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणका प्रतिपादक सूत्र स्वतन्त्र न होकर विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्तकोंके प्रमाणके प्रतिपादक सूत्र के साथ ही निबद्ध है, उसीप्रकार पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणके प्रतिपादक सूत्रोंमें ही, पंचन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणके प्रतिपादक सूत्र निबद्ध करके क्यों नहीं कहे ?
समाधान-ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणके प्रतिपादक सूत्रोंका पृथक्पसे आरंभ पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अभावके प्ररूपण करने के लिये किया है।
शंका- अपर्याप्त कालमें भी पंचेन्द्रियों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीव होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोगमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा दर्शनकी उपलब्धि पाई जाती है?
समाधान- यदि ऐसा है तो निवृत्तिकी अपेक्षा अपर्याप्तकों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका सद्भाव रहा आवे, परंतु अपर्याप्त नामकर्मके उदयके साथ सम्यग्दर्शन आदि गुणोंका सद्भाव मानने में विरोध आता है।
__ भय भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके संपात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात लोकप्रमाण खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त
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१, २, ८६.] दव्वपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
[३१९ बादरेइंदियपज्जत्ता होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा अणिदिया होति । सेसरासीदो पलिदोवमअसंखेज्जदिभागमवणेऊण सेसरासिमावलियाए असंखेजदिभाए ऊणेगखंडं पि पुणो पुध ढविय सेसबहुभागे घेत्तूण चत्तारि सरिसपुंजे काऊण ठवेयव्या । पुणो आवलियाए असंखेजदिभागं विरलेऊण अवणिदएगखंड समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते वेइंदिया होति । पुणो आवलियाए असंखेजदिभागं विरलेऊण दिण्णसेसेगखंडं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुभागे विदियपुंजे पक्खित्ते तेइंदिया होति । पुब्धविरलणादो संपहि विरलणा किं सरिसा, किमधिया, किमूणा त्ति पुच्छिदे णत्थि एत्थ उवएसो । पुणो वि तप्पाओग्गमावलियाए असंखेजदिभागं विरलेऊण सेसेगखंड समखंडं करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडे तदियपुंजे पक्खित्ते चउरिदिया होति । सेसेगखंडं चउत्थपुंजे पक्खित्ते पंचिंदियमिच्छाइट्ठी होति। वेइंदियरसिमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेइंदियअपज्जत्ता होति । सेसेगखंडं तेसिं पज्जत्ता होति । तेइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । पुव्वमवणिदपलिदोवमस्स असंखेजदिभागरासिमसंखेज्जखंडे कए खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण अनिन्द्रिय जीव हैं। शेष राशिमेसे पल्योपमके असंख्यातवें भागको घटा कर जो राशि अवशिष्ट रहे उसके आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण खंड करके बहु. भागमेंसे एक भागको भी पुनः पृथक् स्थापित करके शेष बहुभागको लेकर चार समान पुंज करके स्थापित कर देना चाहिये । पुनः आवलीके असंख्यातवें भ.गको विरलित करके उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर निकाल कर पृथक् रखे हुए एक खंडको समान खंड करके देयरूपसे दे देनेके पश्चात् उनमेंसे बहुभागोंको प्रथम पुंजमें प्रक्षिप्त करने पर द्वीन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है। पुनःआवलीके असंख्यातवें भागको विरलित करके उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर प्रथम पुंजमें देनेसे शेष रहे हुए एक भागको समान खंड करके देयरूपसे देनेके पश्चात् उनमेंसे बहुभागको दूसरे पुंजमें मिला देने पर त्रीन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है।
पूर्व विरलनसे यह दूसरा विरलन क्या समान है, क्या अधिक है, या क्या न्यून है ? ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि इस विषयमें उपदेश नहीं पाया जाता है। फिर भी तद्योग्य आवलीके असंख्यातवें भागको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर शेष एक खंडको समान खंड करके देयरूपसे दे देनेके अनन्तर उनमेंसे बहुभाग तीसरे पुंजमें मिला देने पर चतुरिन्द्रिय जीवों का प्रमाण होता है। शेष एक खंडको चौथे पुंजमें मिला देने पर पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण होता है। द्वीन्द्रिय जीवराशिके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीव हैं। श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंका भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये । पहले घटा कर पृथक् रक्खी ... ..प्रतिषु · पलिदोवमसंखेज्जदि- ' इति पाठः। २ गो. जी. १७८-१७९. ... ...
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३२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ८६. बहुभागा असंजदसम्माइट्ठी होति । एवं यवं जाव अजोगिकेवलि ति। अहवा एइंदियाणं भागाभागो एवं वा वत्तव्यो । सव्येइंदियरासी अद्धद्धण छेत्तव्यो जाव बादरेइंदियरासी अवचिट्टिदो त्ति । तत्थ लद्धअद्धच्छेदणयसलागा विरलेऊण विगं काऊण अण्णोण्णभासे कदे असंखेज्जलोगमेत्तरासी उप्पज्जदि । एस रासिं विरलेऊण एकेकस्स रुवस्स सव्वमेइंदियरासि समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि बादरेइंदियाणं पमाणं पावेदि । तत्थ बहुखंडा सुहुमेइंदिया एयखंडं बादरेइंदिया। पुणो सुहुमेइंदियरासी अद्धद्धेण छिदिदव्यो जाव सुहुमेइंदियअपज्जत्तरासी अवचिट्ठिदो त्ति । तत्थ अद्धच्छेदणए विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भासकरणेणुप्पण्णसंखेज्जरासिं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स सुहुमेइंदियरासिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सुहुमेइंदियअपज्जत्तरासी पावुणदि । तत्थ बहुखंडा सुहुमेइंदियपञ्जत्ता एयखंडं तेसिमपज्जत्ता होति । एवं बादरेइंदियाणं पि वत्त । एत्थ संदिट्ठी । तं जहा- एइंदियरासी वेछप्पण्णसदमेत्तो २५६ । सुहुमेइंदियरासी चालीसब्भहियवेसयमेत्तो
हुई पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप राशिके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इसीप्रकार अयोगिकेवलियोंके प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये । अथवा, एकेन्द्रियोंके भागाभागको इसप्रकार भी कहना चाहिये-बादर एकेन्द्रिय राशि प्राप्त होने तक एकोन्द्रिय राशिको आधी आधी करते जाना चाहिये । इसप्रकार अर्धा करनेसे जितनी अर्धच्छेद शलाकाएं प्राप्त होवें उनका विरलन करके और उस राशिके प्रत्येक अंकको दोरूप करके परस्पर गुणा करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि उत्पन्न होती है । इस राशिको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सर्व एकेन्द्रिय राशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति बादर एकेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । वहां बहुभागप्रमाण सुक्ष्म एकेन्द्रिय जीव और एक भागप्रमाण बादर एकेन्दिय जीव हैं । पुनः सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि प्राप्त होने तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवराशिको अर्धाधरूपसे छेदित करना चाहिये। ऐसा करनेसे वहां जितने अर्धच्छेद प्राप्त हों उनका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो असंख्यात राशि उत्पन्न होवे उसका विरलन करके और उस राशिके प्रत्येक एकके प्रति सूक्ष्म एकेन्द्रिय राशिको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक "एकके प्रति सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि प्राप्त होती है । वहां पर बहुभागप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त राशि है और एक भागप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रियोंका भी कथन करना चाहिये। यहां पर संदृष्टि देते हैं । वह इसप्रकार है
एकेन्द्रिय जीवराशि दोसौ छप्पन २५६ है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय राशि दोसौ चालीस २४० है। बादर एकेन्द्रियराशि सोलह १६ है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तराशि एकसौ अस्सी
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१, २, ८६. ]
दवमाणागमे एइंदियादिभागाभागपरूवण
[ ३२१
२४० । बादरेईदियरासी सोलसमेत १६ । सुहुमेइंदियपज्जत्तरासी असीदिसयमेत्ता १८० । तेसिमपज्जत्ता सट्ठी ६० हवंति । बादरेइंदियअपज्जत्ता वारस १२ हवंति । तेसिं पज्जचा चत्तारि ४ ।
संपहि वेईदियपज्जतरासीदो वेइंदिय-तेईदियरासीणं विसेसो किं सरिसो किमहिओ हो वा इदि वृत्ते असंखेज्जगुणो हवदि । तं जहा । वुच्चदे - तेइंदिय - चउरिंदियरासीणं विसेसादो वेदिय - तेइंदियरासिविसेस असंखेज्जगुणो । तं कथं जाणिजदे ? आइरिओवदेसादो भागाभागम्हि परूविदवक्खाणादो य जाणिज्जदे । तेइंदिय - चउरिंदियरासिविसेसो पुण तेईदियपज्जत्तरासीदो बहुगो । तं कथं णव्वदे १ तेईदियअपज्जत्तरासीदो चउरिंदियरासी विसेसहीणो ति वृत्तअप्पाबहुगसुत्तादो । तेईदियपज्जत्तरासीदो पुण वेइंदियपज्जत्तरासी विसेसहीण । तं कथं व्वदे ? एदं पि अप्पाबहुग सुत्तादो चेव णव्वदे । तदो जाणिजदे जहा वीइंदियपज्जत्तरासीदो विसेसाहियतीईदियपज्जत्तरासीदो बहुदरतीईदिय- चउरिंदिय
। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि साठ ६० है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि बारह १२ है और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त राशि चार ४ है ।
अब द्वन्द्रय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय राशियोंका विशेष अर्थात् अन्तर क्या समान है, क्या अधिक है या हीन है ? ऐसा पूछने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे असंख्यातगुणा है ऐसा समझना चाहिये । वह इसप्रकार है । आगे उसीको कहते हैं— त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय राशि के विशेषसे द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवराशिका विशेष असंख्यातगुणा है ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - आचार्योंके उपदेशसे और भागाभाग में प्ररूपण किये गये व्याख्यान से जाना जाता है ।
श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय राशिका विशेष त्रीन्द्रिय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे
अधिक है।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान — त्रीन्द्रिय अपर्याप्त राशिके प्रमाणसे चतुरिन्द्रिय राशि विशेष हीन है ऐसा अल्पबहुत्वके सूत्रमें कहा है, अतएव उससे जाना जाता है ।
श्रीन्द्रिय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त राशिका प्रमाण विशेष हीन है । शंका- - यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - यह भी अल्पबहुत्व के सूत्रसे ही जाना जाता है ।
इसलिये जाना जाता है कि जिसप्रकार द्वन्द्रिय पर्याप्त राशिसे श्रीन्द्रिय पर्याप्त राशि विशेष अधिक है और इससे त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय राशिका विशेष बड़ा है। श्रीन्द्रिय
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३२२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ८६.
रासिविसेसादो असंखेज्जगुणो वेइंदिय-तेईदियरा सिविसेसो वेईदियपज्जतेर्हितो असंखेज्ज
गुणोति ।
अप्पा बहुअं तिविहं सत्थाण- परत्थाण- सव्वपरत्थानभेएण । एत्थ ताव सत्थाणप्पा बहुअ वुच्चदे । सव्त्रत्थोवा बादरेइंदियपज्जत्ता । तेसिमपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगां । बादरइंदिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्ते ? सर्गपज्जत्तपक्खित्तमे तेण । सव्त्रत्थोवा मुहुमेईदियअपत्ता । तेसिं पज्जत्ता संखेज्जगुणा । को गुणगारो १ संखेज्जा समया । सुहुमेइंदिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तण ? सगअपज्जतमेत्तेण । सव्वत्थोवो वेईदियअवहारकालो । विक्खंभसूई असंखे जगुणा | को गुणगारो ? सगविक्खंभसूईए असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? सगअवहारकाला | अहंचा सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ?
अवहारकालवग्गो । सो वि असंखेज्जाणि घणंगुलाणि सूचिअंगुलस्त असंखेज्जदिभागमेताणि । सेठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? अवहारकालो । दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो। लोगो असंखेज
और चतुरिन्द्रिय राशिके विशेषसे द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय राशिका विशेष असंख्यातगुणा है उसीप्रकार द्वन्द्रिय पर्याप्त राशि से द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय राशिका विशेष असंख्यातगुणा है। स्वस्थान, परस्थान और सर्व परस्थान के भेद से अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है । उनमें से यहां पर पहले स्वस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंसे बादर एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? अपनी पर्याप्त राशिको प्रक्षिप्त करने रूप विशेषसे अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव उनसे संख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है । कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तम्मात्र विशेषसे अधिक है । द्वीन्द्रियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है । अवहारकालसे विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है । अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भांग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है । वह प्रतिभाग भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात घनांगुलप्रमाण है । विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगश्रेणीसे द्वीन्द्रियोंका द्रव्यप्रमाण असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार हैं । द्वीन्द्रियोंके द्रव्यले जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है । जगश्रेणी
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१, २, ८६.] दव्वपमाणाणुगमे एइंदियादिअप्पाबहुगपरूवणं
[ ३२३ गुणो। को गुणगारो ? सेढी । एवं वेइंदियअपज्जताणं पि वत्तव्यं । एवं पज्जत्ताणं पि । णवरि जम्हि सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि घणंगुलाणि त्ति वुत्तं तम्हि सूचिअंगुलस्स संखेजदिभागमेत्ताणि त्ति वत्तव्यं । ति-चदु-पंचिंदियाणं तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं पि जहाकमेण वेइंदिय-वेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं भंगो । सासणादाणं मूलाघसत्थाणभंगो।
परत्थाणे पयदं । तत्थ ताव एइंदियपरत्थाणं वुच्चदे- सव्वत्थोवा बादरेइंदिया। सुहुमेहंदिया असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। तेसिं छेदणा वि असंखेज्जा लोगा। एवं चेव विदियवियप्पो । णवरि एइंदिया विसेसाहिया। अहवा सव्वत्थोवा बादरेइंदियपज्जत्ता । तेसिमपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। सुहुमेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । तेसिं छेयणा वि असंखेज्जा लोगा। सुहुमेइंदियपजत्ता संखेजगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। चउत्थो वियप्पो एवं चेव । णवरि एइंदिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरेइंदियसहिदसुहुमेइंदियअपज्जत्तमतेण । सव्वत्थोवा बादरेइंदियपज्जत्ता। तेसिमपज्जता
गुणकार है। इसीप्रकार द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका भी अल्पबहुत्व कहना चाहिये । इसीप्रकार दीन्द्रिय पर्याप्तकोंका भी कहना चाहिये । इतना विशेष है कि जहां पर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुल कहे हैं वहां पर सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र घनांगुल कहना चाहिये । त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तथा इन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन यथाक्रमसे द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिये। इन्द्रियमाणामें सासादनसम्यग्दृष्टि आदिका स्वस्थान अल्पबहुत्व मूलोघ स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है।
..अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है। उनमेंसे पहले एकेन्द्रियोंके परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते हैं- बादर एकेन्द्रिय जीव सबसे स्तोक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव इनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। उनके अर्धच्छेद भी असं. ख्यात लोक हैं। इसीप्रकार दूसरा विकल्प है। इतना विशेष है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके प्रमाणसे एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। अथवा, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोसे असंख्यतगुणे हैं। गुणकार क्या है? असंख्यात लोक गुणकार है। उनके अर्धच्छेद भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंसे संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है? संख्यात समय गुणकार है । चौथा विकल्प भी इसीप्रकार है। इतना विशेष है कि सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके प्रमाणसे एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक है । कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणमें बादर एकेन्द्रिय जीवोंके प्रमाणको मिला देने पर जो प्रमाण हो तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव
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३२४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८६. असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। बादरेइंदिया विसेसाहिया । को विसेसो ? पुच्वं भणिदो । सुहुमेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। सुहुमेइंदियपज्जत्ता संखेज्जगुणा। को गुणगारो ? संखेज्जसमया। सुहुमेइंदिया विसेसाहिया। को विसेसो ? पुव्वं भणिदो । छट्ठो वियप्पो एवं चेव । णवरि एइंदिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरेइंदियमेत्तेण । अहवा सव्वत्थोवा बादरेइंदियपज्जत्ता । तेसिमपज्जत्ता असंखेजगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । बादरेइंदिया विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। एइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरेइंदियअपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमेइंदियपज्जता संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। एइंदियपजत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरेइंदियपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमेइंदिया विसेसाहिया । केत्तियमत्तेण ? बादरेइंदिय
बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है? असंख्यात लोक गुणकारहै । बादर एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणसे विशेष अधिक है। विशे. षका प्रमाण कितना है? पहले कहा जा चुका है अर्थात् बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका जितना प्रमाण है विशेषका प्रमाण उतना है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव बादर एकेन्द्रिय जीवोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणसे संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रमाणसे विशेष अधिक है। विशेष क्या है ? पहले कहा जा चुका है, अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका जितना प्रमाण है उतना विशेष है । छठा विकल्प इसीप्रकार है । इतना विशेष है कि एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके प्रमाणसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर एकेन्द्रियोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । अथवा, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव इनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है? असंख्यात लोक गुणकार है। बादर एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव बादर एकेन्द्रियों के प्रमाणसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं । कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव एकेन्द्रियअपर्याप्त जीवोंके प्रमाणसे संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रमाणसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकर्कोका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रियजीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? बाबर एकेन्द्रिय
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१, २, ८६.] दव्वपमाणाणुगमे एइंदियादिअप्पाबहुगपरूवणं [३२५ पज्जत्तविरहिदसुहुमेइंदियापज्जत्तमत्तेण । एवं चेव अट्ठमो वियप्पो । गवरि एइंदिया विसेसाहिया । सव्वत्थोवो वेइंदियअवहारकालो । तस्सेव अपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ । कत्तियमत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदमेत्तेण । पज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूईए असंखेजदिभाग।। को पडिभागो ? सगअवहारकालो । अहवा सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सगअवहारकालवग्गो असंखेज्जाणि घणंगुलाणि । केत्तियमेवाणि ? सूचिअंगुलस्स संखेजदिभागमत्ताणि । वेइंदियअपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेजगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेञ्जदिभागो। वेइंदियविक्खंभई विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो ? आवलियाए असखेजदिभाएण खंडिदमेत्तो । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगा। ? वेइंदियअवहारकालो । वेइंदियपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगविक्खंभसई ।
पर्याप्तकों के प्रमाणसे रहित सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे
आधिक हैं। इसीप्रकार आठवां विकल्प है। इतना विशेष है कि एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं। द्वीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। उन्हींके अपर्याप्त जीवोंका अवहारकाल पूर्वोक्त अवहारकालसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे द्वीन्द्रिय जीवोंके अवहारकालको खंडित करके जो एक भाग आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका अवहारकाल द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उन्हीं द्वन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कभसूची उन्हींके अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? अपनी विष्कभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है जो असंख्यात घनांगुलप्रमाण है। असंख्यात घनांगुल कितने हैं ? सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूची द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। द्वीन्द्रिय जीवोंकी विष्कभसूची द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूचीसे विशेष अधिक है। उस विशेषका कितना प्रमाण है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंकी विष्कंभसूचीको खंडित करके जो एक भाग आवे तन्मात्र विशेष समझमा चाहिये। द्वीन्द्रिय जीवोंकी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? द्वीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल गुणकार है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका अन्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? अपनी (द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी)
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३२६ ॥ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ८६. तस्सेव अपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागस्स संखेज्जदिभागो। वेइंदियदव्वं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तो? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदसगअपज्जत्तमेत्तो । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? वेइंदियअवहारकालो। लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारों ? सेढी । एवं ताइदिय-चउरिंदियाणं । एवं पंचिंदियाणं पि । णवरि अजोगिभगवंतमाई काऊण वत्तव्यं । । .. सव्वपरत्थाणे पयदं। सव्वत्थोवमजोगिकेवलिदव्वं । चत्तारि उवसामगा संखेज्जगुणा। चत्तारि खवगा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवलिदव्वं संखेज्जगुणं । अप्पमत्तसंजददव्वं संखेज्जगुणं । पमत्तसंजददव्वं संखेज्जगुणं । असंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । उरि पलिदोवमं ति ओघं । तदो वीईदियअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सगअवहारकालस्स संखेजदिभागो । को पडिभागो ? पलिदोवमं । अहवा पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागी असंखेज्जाणि सूचिअंगुलाणि । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदपलिदोवमं । तस्सेव अपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ ।
विष्कभसूची गुणकार है। उन्हीं द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका द्रव्य द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके द्रव्यले असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलोके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। द्वीन्द्रिय जीवोंका द्रव्य द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके द्रव्यसे विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष अधिक है ? द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रमाणको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो लब्ध आवे तन्मान विशेष अधिक है। जगप्रतर द्वीन्द्रिय जीवोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? द्वीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है। इसीप्रकार सीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंका परस्थान अल्पबहुत्व है। तथा इसीप्रकार पंचेन्द्रिय जीवोंका भी परस्थान अल्यबहुत्व है। इतना विशेष है कि पंचेन्द्रिय जीवोंका परस्थान अल्पबहुत्व कहते समय अयोगी भगवानको आदि करके उसका कथन करना चाहिये।
___अब सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व में प्रकृत विषयको कहते हैं- अयोगिकेवलियोंका द्रव्यप्रमाण सबसे स्तोक है। चारों गुणरथानोंके उपशामक अयोगिकेबलियोंसे संख्यातगुणे हैं।चारों गुणस्थानोंके क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। सयोगिकेवलियोंका द्रव्यप्रमाण क्षपकोंसे संख्यातगुणा है । अप्रमत्तसंयतोंका प्रमाण सयोगियोंके प्रमाणसे संख्यातगुणा है। प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण अप्रमत्तसंयतोंके प्रमाणसे संख्यातगुणा है । असंयतोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंके प्रसाणसे असंख्यातगुणा है। इसके ऊपर पल्योपम तक ओधके समान है। पल्योपमसे द्वीन्द्रियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणाकर क्या है ? अपने अवहारकालका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? पल्यापम प्रतिभाग है। अथवा, प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग गुणकार है जो असंख्यात सूच्यंगुलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे पल्योपमको गुणित करके जो लब्ध आवे उतना प्रतिभाग है । उन्हीं दीन्द्रियोंके अपर्याप्तक जीवोंका अवहारकाल दीन्द्रियों के
अ-क प्रत्योः ' असंखे० ' इति पाठः ।
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१, २, ८६.] दव्वपमाणाणुगमे एइंदियादिअप्पाबहुगपरूवणं
[३२७. केत्तियमेत्तो ? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदमेत्तो। एवं तेइंदिय-तेइंदियअपज्जत चउरिदिय-चउरिदियअपज्जत्त-पंचिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्ताणं अवहारकाला कमेण विसेसाहिया । तदो तीइंदियपज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो। वेइंदियपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ। केत्तियमेत्तो ? आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदतीइंदियपजत्तअवहारकालमत्तो विसेसो । पंचिंदियपज्जत्तअवहारकालो विसेसो । चउरिदियपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ । तस्सेव विक्खंभई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पुव्वं भणिदो । पंचिंदियपजत्तविक्खंभसई विसेसाहिया । वेइंदियपज्जत्तविक्खंभसई विसेसाहिआ । तेइंदियपज्जत्तविक्खंभसूई विसेसाहिया । पंचिंदियअपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो । पंचिंदियविक्खंभसूई विसेसाहिया । केत्तियमेतेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदपंचिंदियअपज्जत्तविक्खंभसूचिमत्तेण । एवं णेयर्व
अपहारकालसे विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष अधिक है ? आवलीके असंख्यातचे भागसे द्वीन्द्रियोंके अवहारकालको खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तन्मात्र विशेष अधिक है। इसीप्रकार त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके अवहारकाल भी क्रमसे विशेष अधिक हैं। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके अवहारकालसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंके अवहारकालसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष अधिक है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंके अवहारकालको खंडित करके जो भाग लब्ध आवे तन्मात्र विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंके अवहारकालसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके अवहारकालसे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंका अवहारकाल विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंके अवहारकालसे उन्हींकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? पहले कहा जा चुका है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कंभसूचीसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कभसूची विशेष अधिक है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कंभसूचीसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कभसूची विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्सकोंकी विष्कभसूचीसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कमसूची विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंकी विष्कंभसूचीसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंकी विष्कभसूची असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंकी विष्कभसूचीसे पंचेन्द्रियोंकी विष्कंभसूची विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंकी विष्कम
१ प्रतिषु 'पंचिंदिय' इति पाठो नास्ति।
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१२८] छक्खंडांगमे जीवहाणं
[१, २, ८६. जाव चउरिदियअपज्जत्त-चउरिदिय-तेइंदियअपज्जत्त-तेइंदिय-वेइंदियअपज्जत्त-वेइंदियाणं विक्खंभमईओ त्ति । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? वीइंदियअवहारकालो । चउरिदियपज्जत्तदव्वं असंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई । पंचिंदियपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । वेइंदियपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । तेइंदियपज्जत्तदव्यं विसेसाहियं । पंचिंदियअपज्जतदव्वं असंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। पंचिंदियदव्वं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदपंचिंदियअपञ्जत्तदव्यमेत्तेण । एवं चरिंदियअपज्जत्त-चउरिदिय-तेइंदियअपजत्त-तेइंदिय-वेइंदियअपज्जत्तवेइंदियाणं दव्वाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि । तदो पदरमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? वेइंदियअवहारकालो। लोगो असंखेजगुणो । को गुणगारो ? सेढी । अणिदिया अणंतगुणा। को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणतगुणो सिद्धाणमसंखेजदिभागो। को पडिभागो ? लोगो । बादरेइंदियपज्जत्ता अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणतगुणो, सिद्धेहि
सूचीको खंडित करके जो भाग लब्ध आवे तम्मात्र विशेषसे अधिक है। इसी. प्रकार चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वन्द्रिय जीवोंकी विष्कंभसूची आनेतक ले जाना चाहिये । द्वीन्द्रिय जीयोंकी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? द्वीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल गुणकार है। जगश्रेणीसे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कभसूची गुणकार है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंके द्रष्यसे पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका द्रव्य विशेष अधिक है। पंचेन्द्रिय पर्याप्त द्रव्यसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त द्रष्य विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्त द्रव्यसे त्रीन्द्रिय पर्याप्त द्रव्य विशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय पर्याप्त द्रव्यसे पंचेन्द्रियोंका अपर्याप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आपलीका असं. ख्यातवां भाग गुणकार है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्त द्रव्यसे पंचेन्द्रिय द्रव्य विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलोके असंख्यातवें भागसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त. द्रव्यको खंडित करके जो लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। इसीप्रकार चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वीन्द्रिय जीवोंका द्रव्यप्रमाण यथाक्रमसे विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय द्रव्यप्रमाणसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? द्वीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है। लोकसे अनिन्द्रिय जीवोंका प्रमाण अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्ध जीवोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? लोकका प्रमाण प्रतिभाग है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंका प्रमाण अनिन्द्रिय जीवोंके प्रमाणसे अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे भी अनन्तगुणा, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा, जीवराशिके प्रथम वर्गमूलसे भी
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपख्वणं
[३२९ वि अणंतगुणो जीववग्गमूलस्स वि अर्णतगुणो सव्वजीवरासिस्स असंखेजदिमागस्स अणंतिमभागो। को पडिभागो ? अणिदिया। तेसिमपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । बादरेइंदिया विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । एइंदियअपज्जत्ता विसेसाहिया। सुहुमेइंदियपज्जत्ता संखेजगुणा । एइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया । सुहुमेइंदिया विसेसाहिया । एइंदिया विसेसाहिया ।।
एवं इंदियमग्गणा समत्ता । कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेइउकाया वाउकाइया बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवाउकाइया बादरवणप्फइकाइया पत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइया सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहुमवाउकाइया तस्सेव पज्जत्तापज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया. असंखेज्जा लोगा॥ ८७ ॥
अनन्तगुणा और सर्व जीधराशिके असंख्यातवें भागका अनन्तवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अनिन्द्रिय जीवोंका प्रमाण प्रतिभाग है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रमाणसे उन्हींके अपर्याप्तक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे बादर एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक है । इनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। इनसे एकेन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं।
____ इसप्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। कायानुवादसे पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव तथा बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीव तथा इन्हीं पांच बादरसंबन्धी अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक जीव तथा इन्हीं चार सूक्ष्मसंबन्धी पर्याप्त जीव और अपर्याप्त जीव, ये सब प्रत्येक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात लोकप्रमाण हैं ॥ ८७॥
१ कायानुवादेन पृथिवीकायिका अप्कायिकास्तेजःकायिका वायुकायिका असंख्येयलोकाः । स.सि. १,९. आउडुरासिवारं लोगे अण्णोण्णसंगुणे तेऊ । भू-जल-वाऊ अहिया पडिभागो असंखलोगो दु॥ गो. जी. २०४. अपदिद्विदपत्तेया असंखलोगप्पमाणया होति । तत्तो पदिविदा पुण असंखलोगेण संगुणिदा ॥ गो. जी. २०५. असंखया सेसा। पंञ्चसं. २, ९. पत्तेयपज्जवणकाइयाउ पयरं हरति लोगस्स । अंगुलअसंखमागेण माइयं भूदगतणू य । आवलिवग्गो अन्तरावली य गुणिओ हु बायरा तेऊ । वाऊ य लोगसंखं सेसतिगमसंखिया लोगा ॥ पंचसं. २, १०-११..असंविध
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३३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ८७. एत्थ पुढवी काओ सरीरं जेसिं ते पुढवीकाया ति ण वत्तव्यं, विग्गहगईए वट्टमाणाणं जीवाणमकाइत्तप्पसंगादो। पुणो कधं वुच्चदे ? पुढविकाइयणामकम्मोदयवतो जीवा पुढविकाइया त्ति वुचंति । पुढविकाइयणामकम्मं ण कहिं वि वुत्तमिदि चे ण, तस्स एइंदियजादिणामकम्मतब्भूदत्तादो । एवं सदि कम्माणं संखाणियमो सुत्तसिद्धो ण घडदि ति वुत्ते वुच्चदे । ण सुत्ते कम्माणि अद्वैव अद्वेदालसयमेवेत्ति, संखंतरपडिसेहविधाययएवकाराभावादो। पुणो केत्तियाणि कम्माणि होति ? हय-गय-विय-फुल्लंधुव-सलह-मक्कुणुद्देहि-गोमिंदादीणि जत्तियाणि कम्मफलाणि लोगे उवलभते कम्माणि वि तत्तियाणि चेव । एवं सेसकाइयाणं पि वत्तव्यं । बादरणामकम्मोदयसहिदपुढविकाइयादओ बादरा । थूलसरीराणं जीवाणं बादरतं किण्ण बुच्चदे ? ण, बादरेइंदियओगाहणादो
. यहां पर पृथिवी है काय अर्थात् शरीर जिनके उन्हें पृथिवीकाय जीव कहते हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, पृथिवीकायका ऐसा अर्थ करने पर विग्रहगतिमें विद्यमान जीवोंके अकायित्वका अर्थात् पृथिवीकायित्वके अभावका प्रसंग आ जाता है।
शंका-तो फिर पृथिवीकाधिकका अर्थ कैसा कहना चाहिये?
समाधान-पृथिवीकाय नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंको पृथिवीकायिक कहते हैं, इसप्रकार पृथिवीकायिक शब्दका अर्थ करना चाहिये।
शंका-पृथिवीकायिक नामकर्म कहीं भी अर्थात् कर्मके भेदों में नहीं कहा गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पृथिवीकाय नामका कर्म एकेन्द्रिय नामक नामकर्मके भतिर अन्तर्भूत है।
शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रसिद्ध कर्मोंकी संख्याका नियम नहीं रह सकता है ?
समाधान-ऐसा प्रश्न करने पर आचार्य कहते हैं कि सूत्रमें कर्म आठ ही अथवा एकसौ अड़तालीस ही नहीं कहे हैं, क्योंकि, आठ या एकसौ अड़तालीस संख्याको छोड़कर दूसरी संख्याओंका प्रतिषेध करनेवाला 'एव' ऐसा पद सूत्रमें नहीं पाया जाता है।
शंका- तो फिर कर्म कितने हैं ?
समाधान-लोकमें घोड़ा, हाथी, वृक (भेड़िया) भ्रमर, शलभ, मत्कुण, उद्देहिका (दीमक), गोमी और इन्द्र आदि रूपसे जितने कर्मोंके फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही होते हैं।
इसीप्रकार शेष कायिक जीवोंके विषयमें भी कथन करना चाहिये। उनमें बादर नामकर्मके उदयसे युक्त पृथिवीकायिक आदि जीव बादर कहलाते हैं ।
शंका-स्थूल शरीरवाले जीवोंको बादर क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वेदनक्षेत्रविधानसे बादर एकेन्द्रियोंकी अवगाहनासे पुढवीकाइया जाव असंखिचा वाउकाइया । अनु. सू. १४१, पत्र १७९.
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१, २, ८७.] दश्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [३३१ सुहमेइंदियओगाहणाए वेदणखेत्तविहाणादो बहुत्तोवलभा । तदो पडिहम्ममाणसरीरो बादरो । अण्णेहि पोग्गलेहि अपडिहम्ममाणसरीरो जीवो सुहुमो त्ति घेत्तव्वं । एकमेकं प्रति प्रत्येकम्, प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः । एत्थ पत्तेयसरीरणिद्देसो साहारणसरीरवणप्फइकाइयपडिसेहफलो । पुढविकाइयादओ जीवा पत्तेयसरीरा चेव । तेसिं पत्तेयववएसो सुत्ते किण्ण कदो ? तत्थ पत्तेयसरीरस्स संभवो चेव असंभवो णत्थि त्ति ण तेण ते विसेसिज्जते सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति 'इति न्यायात ) सुहुमणामकम्मोदयसहिदपुढविकाइयादओ जीवा सुहुमा हवंति । थोवसरीरोगाहणाए वट्टमाणा जीवा सुहुमा त्ति ण घेप्पंति, सुहुमेइंदियओगाहणादो बादरेइंदियओगाहणाए वेदणाखेत्तविहाणसुत्तादो थोवनुवलंभा। अपजतणामकम्मोदयसहिदपुढविकाइयादओ अपजत्ता ति घेत्तव्या णाणिप्पण्णसरीरा, पज्जत्तणामकम्मोदयअणिप्पण्णसरीराणं पि गहणप्पसंगादो । तहा पन्जत्तणामकम्मोदयवंतो जीवा पज्जत्ता । अण्णहा णिप्पण्णसरीरजीवाणमेव गहणप्पा
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंकी अवगाहना बड़ी पाई जाती है, इसलिये स्थूल शरीरवाले जीवोंको बादर नहीं कह सकते हैं। अतः जिनका शरीर प्रतिघातयुक्त है वे बादर हैं और अन्य पुद्गलोंसे प्रतिघातरहित जिनका शरीर है वे सूक्ष्म जीव हैं, यह अर्थ यहां पर बादर और सूक्ष्म शब्दसे लेना चाहिये।
___ एक एक जीवके प्रति जो शरीर होता है उसे प्रत्येक कहते हैं। जिन जीवोंका प्रत्येकशरीर होता है वे प्रत्येकशरीर जीव हैं। यहां सूत्रमें प्रत्येकशरीर ' पदका निर्देश साधारणशरीर वनस्पतिकायिकके प्रतिषेधके लिये किया है । पृथिवीकायिक आदि जीव प्रत्येकशरीर ही होते हैं।
शंका- सूत्रमें पृथिवीकायिक आदि जीवोंको प्रत्येक संज्ञा क्यों नहीं दी गई है?
समाधान-उन पृथिवीकायिक आदि जीवों में प्रत्येक शरीरका संभव ही है असंभव नहीं है, इसलिये प्रत्येक पदसे उन्हें विशेषित नहीं किया गया है, क्योंकि, व्यभिचारके होने पर, अथवा उसकी संभावना होने पर, दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है। . सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे युक्त पृथिवीकायिक आदि जीव सूक्ष्म होते हैं। यहां शरीरकी स्तोक अवगाहनामें विद्यमान जीव सूक्ष्म होते हैं, ऐसा अर्थ नहीं लिया गया है, क्योंकि वेदनाक्षेत्रविधानके सूत्रसे सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी अवगाहनाकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रियोंकी अवगाहमा भी स्तोक पाई जाती है । अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त बादर पृथिवीकायिक आदि जीव अपर्याप्त हैं, ऐसा अर्थ यहां पर लेना चाहिये । किंतु जिनका शरीर अभी निष्पन्न नहीं हुमा अर्थात् जिनकी शरीर-पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है वे अपर्याप्त हैं, ऐसा अर्थ यहां नहीं लेना चाहिये, क्योंकि, ऐसा अर्थ लेने पर पर्याप्त नामकर्मका उदय रहते हुए भी जिनका शरीर पूर्ण नहीं हुआ है अपर्याप्त पदसे उनके भी ग्रहणका प्रसंग आ जाता है। उसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीव पर्याप्त हैं, प्रकृतमें पर्याप्त पदसे ऐसा अर्थ लेना चाहिये, भन्यथा जिन जीवोंका शरीर निष्पन्न हो चुका है पर्याप्त पदसे उनका ही ग्रहण होगा।
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३१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ८७. संगा। बादर-सुहुमजीवेसु पंच-चउन्भेएसु तस्सेवेत्ति एगवयणगिद्देसो कधं घडदे? ण, तेसिं जादीए एगत्तसंभवादो। . एत्थ चोदगो भणदि । विम्गहगईए वट्टमाणवणप्फइकाइया कि पत्तेयसरीरा आहो साहारणसरीरा इदि ? किं चातः ? ण पत्तेयसरीरा, कम्मइयकायजोगे वट्टमाणवणप्फइकाइया अर्णता त्ति कट्ट वणप्फइकाइयपत्तेयसरीराणमणंतत्तप्पसंगा। ण च एवं सुत्ते, तेसिं असंखेज्जलोगमेत्तपमाणपदुप्पायणादो। ण ते साहारणसरीरा वि, तत्थ
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणिदं ॥ ७४ ।। इच्चादिगाहाहि वृत्तसाहारणलक्खणाणुवलंभादो। ण च पत्तेय-साहारणसरीरवदिरित्ता घणप्फइकाइया अत्थि, तहाविहोवएसाभावादो। तस्मात्प्रत्येकं शरीरं देहो येषां ते प्रत्येक शरीरा इत्येतन्न घटत इति ?
शंका-बादर जीव पांच प्रकारके और सूक्ष्म जीव चार प्रकारके होते हैं, अतः सूत्र में 'तस्सेष' इसप्रकार एकवचन निर्देश कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उन पांच प्रकारके बादर और चार प्रकारके सूक्ष्म जीवोंके जातिकी अपेक्षा एकत्व संभव है, इसलिये एकवचन निर्देश करने में कोई विरोध नहीं आता है।
शैका-यहां पर शंकाकार कहता है कि विग्रहगतिमें विद्यमान वनस्पतिकायिक जीव क्या प्रत्येकशरीर हैं या साधारणशरीर हैं ? यदि इस प्रश्नका फल पूछा जाय तो यह है कि वे जीव इन दोनों विकल्पोंमेंसे प्रत्येकशरीर तो हो नहीं सकते, क्योंकि, कार्मणकाययोगमें रहनेवाले वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होनेसे वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके अनन्तत्वका प्रसंग आ जाता है। परंतु सूत्रमें ऐसा है नहीं, क्योंकि, सूत्रमें वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका असंख्यात लोकमात्र प्रमाण कहा है। उसीप्रकार वे जीव साधारणशरीर भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, वहां पर
साधारण जीवोंका साधारण ही तो आहार होता है और साधारण श्वासोच्छासका प्रहण होता है । इसप्रकार आगममें साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा है ॥ ७४॥
इत्यादि गाथाओंके द्वारा कहा गया साधारण जीवोंका लक्षण नहीं पाया जाता है। और प्रत्येकशरीर तथा साधारणशरीर इन दोनोंसे व्यतिरिक्त वनस्पत्तिकायिक जीव पाये नहीं जाते हैं, क्योंकि, इसप्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है । इसलिये 'जिनका देह प्रत्येक है वे प्रत्येकशरीर हैं' यह कथन घटित नहीं होता हैं ?
१ प्रतिषु ' संखेन्ज' इति पाठः। २ गो. जी. १९२.
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
एत्य परिहारो वुच्चदे। जेण जीवेण एक्केण चैव एक्कसरीरट्ठिएण सुह-दुःखमजुभवेदव्वमिदि कम्ममुवजिदं सो जीवो पत्चेयसरीरो । जेण जीवेण एगसरीरट्ठियकहहि जीवेहि सह कम्मफलमणुभवेयव्वमिदि कम्ममुवज्जिदं सो साहारणसरीरो । ण च अच्छिण्णाउअस्स तब्धवएसो, तत्र प्रत्यासत्तेरभावात् । विग्गहगईए पुण पच्चासत्ती अस्थि त्ति हवदि एसो ववएसो तम्हा ण पुव्वुत्तदोसस्स संभवो। अहवा पत्तेयसरीरणामकम्मोदयवंतो वणप्फइकाइया पत्त्यसरीरा । साहारणणामकम्मोदयवतो साहारणसरीरा त्ति वत्तव्वं । सरीरगहिदपढमसमए दोण्हं सरीराणमेगदरस्त उदओ हवदीदि विग्गहगईए वट्टमाणजीवाणं पत्तेयसाहारणसरीरववएसो ण पावदि त्ति वुत्ते, ण एस दोसो, तत्थ वि पच्चासत्ती अस्थि त्ति उवयारेण तेसिं पत्तेय-साहारणसरीरववएससंभवादो । विग्गहगईए वट्टमाणाणतजीवाण साहारणकम्मोदयपरवसाणमण्णोण्णाणुगयत्तणेण एयत्तमुवगयएयसरीरम्मि वट्टमाणत्तादो वा
समाधान - यहां पर उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं । जिस जीवने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख दुःखके अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है वह जीव प्रत्येकशरीर है। तथा जिस जीवने एक शरीरमें स्थित बहुत जीवोंके साथ सुख-दुःखरूप कर्मफलके अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है, वह जीव साधारणशरीर है। परंतु जिसकी आयु छिन्न नहीं हुई है, अर्थात् जो जीव अपनी पर्यायको छोड़कर प्रत्येक व साधारण पर्यायमें उत्पन्न नहीं हुआ है उस जीवके इसप्रकारका व्यपदेश नहीं हो सकता है, क्योंकि, वहां पर प्रत्यासत्ति नहीं पाई जाती है। विग्रहगतिमें तो प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिये वहां पर यह व्यपदेश होता है, अतएव यहां पूर्वोक्त दोष संभव नहीं है । अथवा, प्रत्येकशरीर नामकर्मके उदयसे युक्त वनस्पतिकायिक जीव प्रत्येकशरीर हैं और साधारण नामकर्मके उदयसे युक्त वनस्पतिकायिक जीव साधारणशरीर हैं, ऐसा कथन करना चाहिये।
शंका-शरीरं ग्रहण होने के प्रथम समय में दोनों शरीरों से किसी एकका उदय होता है, इसलिये विग्रहगतिमें रहनेवाले जीवोंके प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर, इन दोनों से कोई भी संज्ञा नहीं प्राप्त होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विग्रहगतिमें भी प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिये उपचारसे उन जीवोंके प्रत्येकशरीर अथवा, साधारणशरीर संक्षा संभव है। अथवा, साधारण नामकर्मके उदयके आधीन हुए और विग्रहगतिमें विद्यमान हुए अनन्त जीव परस्पर अनुगत होनेसे एकत्वको प्राप्त हुए एक शरीर में रहते हैं, इसलिये घे प्रत्येकारीर नहीं हैं।
विशेषार्थ-वर्तमान भायुके समाप्त होने पर घर्तमान शरीरको छोड़कर उत्तर शरीरके ग्रहण करनेके लिये जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं। यहां विग्रहका भर्थशरीर है, इसलिये विग्रह अर्थात् शरीरके लिये जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं। इसके युगति, पाणिमुक्तागति, लांगलिकागाति और गोमूत्रिकागति इसप्रकार धार भेद है।
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१५.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८७ ण ते पत्तेयसरीरा । एदे छब्बीसरासीओ दबपमाणेण असंखेजलोगमेत्ता हवंति। एत्थ विसेसपदुप्पायणोवायाभावादो काल-खेतेहि परूवणा ण कदा ।
(संपहि सुत्ताविरुद्धेणाइरियपरंपरागदोवएसेण तेउक्काइयरासिउप्पायणविहाणं वत्तइस्सामो ) तं जहा- एगं घणलोगं सलागभूदं ठविय अवरेगं घणलोगं विरलिय एक्केकस्स रूवस्स एकेकं घणलोग दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगरूवमवणेयव्वं । तांधे एक्का अण्णोण्णगुणगारसलागा' लद्धा हवदि । तस्सुप्पण्णरासिस्स पलिदोवमस्स
इनमेंसे प्रथम गतिको छोड़कर शेष तीन गतियां विग्रह अर्थात् मोड़ेरूप हैं। जब वनस्पतिकायिक जीव ऐसी मोड़ेवाली गतिसे न्यूतन शरीरको ग्रहण करता है तब उसके एक, दो या तीन समयतक साधारण या प्रत्येक नामकर्मका उदय नहीं होता है, क्योंकि, प्रत्येक या साधारण नामकर्मका उदय शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लगाकर होता है। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर शंकाकारने यह शंका की है कि जबतक वनस्पतिकायिक जीव विप्रहगतिमें रहता है तबतक उसके उक्त दोनों कर्मों से किसी भी कर्मका उद्य नहीं पाया जाता है, इसलिये उसकी साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर इन दोनों में किसी भी भेदमें गणना नहीं हो सकती है। इस शंकाका समाधान दो प्रकारसे किया गया है। एक तो यह कि यद्यपि विग्रह अर्थात् मोड़ेवाली गतिमें उक्त दोनों कर्मों से किसी कर्मका उदय नहीं पाया जाता है, यह ठीक है। फिर भी प्रत्यासत्तिसे ऐसे जीवको भी प्रत्येक या साधारण कह सकते हैं । अर्थात् ऐसा जीव एक दो या तीन समयके अनन्तर ही प्रत्येक या साधारण नामकर्मके उदयसे युक्त होनेवाला है, अतएव उपचारसे उसे प्रत्येक या साधारण कहने में कोई आपत्ति नहीं है। दूसरे विग्रहका अर्थ मोड़ा न लेकर शरीर ले लेने पर इषुगतिकी अपेक्षा विग्रहगतिमें अर्थात् न्यूतन शरीरके ग्रहण करनेके लिये होनेवाली गतिमें साधारण या प्रत्येक नामकर्मका उदय पाया ही जाता है, क्योंकि, इषुगतिसे उत्पन्न होनेवाला जवि आहारक ही होता है। - ये पूर्वोक्त छठवीस जीवराशियां द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण हैं। यहां पर विशेषरूपसे प्रतिपादन करनेका कोई उपाय नहीं पाया जाता है, इसलिये काल और क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा इन छवास जीवराशियोंकी प्ररूपणा नहीं की। . अब सूत्राविरूद्ध आचार्य परंपरासे आये हुए उपदेशके अनुसार तेजस्कायिक जीव. राशिक प्रमाणके उत्पन्न करनेकी विधिको बतलाते हैं। यह इसप्रकार है-एक घनलोकको शलाकारूपसे स्थापित करके और दूसरे घनलोकको विरलित करके उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जनलोकको देयरूपसे देकर और परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिमेसे एक कम कर देना चाहिये। तब एक अन्योन्य गुणकार शलाका प्राप्त होती है। परस्पर
. १ का गुणकारशलाका ? विरलनराशिमात्रतत्सर्वदयराशीनां । गुणितबाररूपा गो. नी. पृ. २४३. (पर्याप्ति अधिकार)
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [३३५ असंखेजदिभागमेत्तवग्गसलागा हवंति । तस्सद्धच्छेदणयसलागा असंखेज्जा लोगा । रासी वि असंखेज्जलोगमेत्तो जादो । पुणो उद्विदमहारासिं विरलेऊण तत्थ एक्केकस्स रूवस्स उद्विदमहारासिपमाणं दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो अवरेगं रूवमवणेयव्वं । ताधे अण्णोण्णगुणगारसलागा दोण्णि । वग्गसलागा अद्धच्छदणयसलागा रासी च असंखेजा लोगा। एवमेदेण कमेण णेदव्वं जाव लोगमेत्तसलागरासी समत्तो ति । ताधे अण्णोण्णगुणगारसलागपमाणं लोगो । सेसतिगमसंखेजा लोगा। पुणो उद्विदमहारासिं विरलेऊण तं चेव सलागभूदं ठविय विरलिय-एक्केक्कस्स रूवस्स उप्पण्णमहारासिपमाणं दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगरूवमवणेयव्यं । ताधे अण्णोण्णगुणगारसलागा लोगो रूवाहिओ । सेसतिगमसंखेज्जा लोगा। पुणो उप्पण्णरासि विरलिय एवं पडि उप्पण्णरासिमेव दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो अण्णेगरूवमवणेयव्वं । तदो अण्णोण्णगुणगारसलागाओं लोगो दुरूवाहिओ। सेसतिगमसंखेज्जा लोगा । एवमेदेण कमेण
धर्गितसंवर्गित करनेसे उत्पन्न हुई उस राशिकी वर्गशलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होती हैं, उस उत्पन्न राशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं असंख्यातलोकप्रमाण होती है और वह उत्पन्न राशि भी असंख्यात लोकप्रमाण होती है। पुनः इस उत्पन्न हुई महाराशिको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उसी उत्पन्न हुई महाराशिको देयरूपसे देकर परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिसे दूसरीवार एक कम करना चाहिये। तब अन्योन्य गुणकार शलाकाएं दो होती हैं और वर्गशलाकाएं अर्धच्छेदशलाकाएं, तथा उत्पन्नराशि असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। इसीप्रकार लोकप्रमाण शलाकाराशि समाप्त होनेतक इसी क्रमसे ले जाना चाहिये । तब अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका प्रमाण लोक होगा
और शेष तीन राशियां अर्थात् उस समय उत्पन्न हुई महाराशि और उसकी वर्गशलाकाएं तथा अर्धच्छेदशलाकाएं असंख्यात लोकप्रमाण होंगी। पुनः इसप्रकार उत्पन्न हुई महाराशिको विरलित करके और इसी राशिको शलाकारूपसे स्थापित करके विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उसी उत्पन्न हुई महाराशिके प्रमाणको देयरूपसे देकर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिमेंसे एक कम कर देना चाहिये। तब अन्योन्य गुणकार शलाकाएं एक अधिक लोकप्रमाण होती हैं। शेष तीनों राशियां अर्थात् उत्पन्न हुई महाराशि, वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेदशलाकाएं असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। पुनः उत्पन्न हुई महाराशिको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उसी उत्पन्न हुई महाराशिको देकर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिमेंसे दूसरीवार एक घटा देना चाहिये। उस समय अन्योन्य गुणकार शलाकाएं दो अधिक लोकप्रमाण होती हैं। शेष तीनों राशियां असंख्यात लोकप्रमाण
१ प्रतिषु '- सलागादो' इति पाठः ।
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२३५]
छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ८७. दुरूवूशुक्कस्ससंखेज्जमेत्तलोगसलागासु दुरूवाहियलोगम्हि पविट्ठासु चत्तारि वि असंखेजा लोमा हवंति । एवं णेयव्वं जाव विदियवारद्वविदसलागरासी समत्तो त्ति । ताधे वि चत्तारि वि असंखेजा लोगा। पुणो उद्विदरासि सलागभूदं ठविय अवरेगमुट्ठिदमहारासिपमाणं विरलेउन उद्विदमहाससिपमाणमेव रूवं पडि दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगं रूवमवणेयव्वं । ताधे चत्तारि वि असंखेज्जा लोगा। एवमेदेण कमेण णेदव्वं जाव तदियवारं ठवियसलागरासी समत्तो त्ति । ताधे चत्तारि वि असंखेजा लोगा। पुणो उद्विदमहारासिं तिप्पडिरासिं काऊण तत्थेगं सलागभूदं दृविय अण्णेगरासि विरलेऊण तत्थ एक्केक्कस्स रूपस्स एगससिपमाणं दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगरूवमवणेयव्वं । एवं पुणो पुणो करिय णेय जाव अदिक्कंतअण्णोण्णगुणगारसलागाहि ऊणचउत्थवारहिदअण्णोण्णगुणगारसलागरासी समत्तो ति । ताधे तेउकाइयरासी उडिदो हवदि । तस्स
होती हैं। इसप्रकार इसी क्रमसे दो कम उत्कृष्ट संख्यातमात्र लोकप्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकायोंके दो अधिक लोकप्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकाओं में प्रविष्ट होने पर चारों राशियां मी असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। इसीप्रकार दूसरीवार स्थापित शलाकाराशि समाप्त होनेतक इसी क्रमसे ले जाना चाहिये। तब भी चारों भी राशियां असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। पुनः अन्तमें उत्पन्न हुई महाराशिको शलाकारूपसे स्थापित करके और दूसरी उसी उत्पन्न हुई महाराशिके प्रमाणको विरलित करके और उत्पन्न हुई उसी महाराशिके प्रमाणको घिरालित राशिके प्रत्येक एकके प्रति देयरूपसे देकर परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिसे एक कम कर देना चाहिये । तब भी चारों राशियां असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। इसीप्रकार तीसरीवार स्थापित शलाकाराशि समाप्त होनेतक इसी क्रमसे ले जाना चाहिये। तब भी चायें राशियां असंख्यात लोकप्रमाण हैं। पुनः अन्तमें इस उत्पन्न दुई महाराशिको तीन प्रतिराशिरूप करके उनमेंसे एक राशिको शलाकारूपसे स्थापित करके, दूसरी एक राशिको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति एक राशिके प्रमाणको व्यरूपसे देकर परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिमेंसे एक कम कर देना चाहिये। इसप्रकार पुनः पुनः करके तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि अतिक्रान्त शलाकाओंसे अर्थात् पहली दूसरी और तीसरीवार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाओंसे न्यून चौथीवार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाराशि समाप्त होती है। तब तेजस्कायिक
एवं प्रथम-द्वितीय-तृतीयवारस्थापितशलाकाराशिन्यूनचतुर्थवारस्थापितशलाकाराशिपरिसमाप्तौ सत्या तत्रोत्पनमहाराशिः तेजस्कायिकजीवराशेः प्रमाणं भवति । गो. जी, जी.प्र; टी. २०४. पुनःतत्रोत्पन्नमहाराशिः प्राग्वत् त्रिप्रतिकं कृत्वा अतीतगुणकारशलाकाराशित्रयहीनोऽयं चतुर्थवारस्थापितशलाकाराशिनिष्ठाप्यते । गो. जी., जी. प्र., टी. पृ. २८४, (पर्याप्ति अधिकार ).
२ ति. प. पत्र १८२. गो. जी. पृ, २८२-२८४.
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवर्ण [३१७ गुणगारसलागा चउत्थवारं दृविदसलागरासिपमाणं होदि ।
(के वि आइरिया सलागरासिस्स अद्धे गदे तेउक्काइयरासी उप्पजदि ति भणति । के वि तं णेच्छंति ) कुदो ? अद्भुट्ठरासिसमुदयस्स वग्गसमुट्ठिदत्ताभावादो । तेउक्काइयअण्णोण्णगुणगारसलागा वग्गसमुद्विदा ति कधं जाणिजदे ? परियम्मवयणादो । के वि आइरिया एवं भणंति। जहा- एसो रासी तेउक्काइयरासिस्स गुणगारसलागपमाणं ण भवदि। पुणो को होदि ति वुत्ते वुच्चदे-गुणेजमाणस्स लोगस्स गुणगारसरूवेण पवेसमाणलोगाणं जाओ सलागाओ ताओ तेउक्काइयअण्णोण्णगुणगारसलागा वुच्चंति । एदाओ वग्गसमुट्टिदाओ ण पुचिल्लाओ त्ति । तम्हा अधुदुगुणगारसलागोवएसो विरुज्झदे, एसो ण विरुज्झदे इदि । एवं पि ण घडदे । कुदो ? लोगद्धछेयणएहिं तेउक्काइयरासिस्स अद्धच्छेदणए भागे हिदे जं लद्धं तं विरलिय एक्केक्कस्स रूवस्स घणलोगं दाऊणण्णोण्णब्भत्थे कदे तेउकाइयरासी उप्पज्जदि । हेडिल्लविरलिदराती वि तेउकाइयअण्णोण्णगुणगारसलागपमाणं भवदि ।
राशि उत्पन्न होती है। उस तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं चौथीवार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाराशिप्रमाण हैं।
कितने ही आचार्य चौथीवार स्थापित शलाकाराशिके आधे प्रमाणके व्यतीत होने पर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है, ऐसा कहते हैं। परंतु कितने ही आचार्य इस कथनको नहीं मानते हैं, क्योंकि, साढ़े तीनवार राशिका समुदाय वर्गधारामें उत्पन्न नहीं है।
शंका-यह ठीक है कि हूठवार (साढ़े तीनवार) राशिका समुदाय वर्गोत्पन्न नहीं है, पर तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं वर्गधारामें उत्पन्न हैं, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-उक्त आचार्योंके मतमें यह बात परिकर्मके वचनसे जानी जाती है।
कितने ही आचार्य इसप्रकार कहते हैं कि यह पूर्वोक्त राशि (इठवार राशि) तेजस्कायिक राशिकी गुणकार शलाकाराशिके प्रमाणरूप नहीं है । फिर कौनसी राशि तेजस्कायिक राशिकी गुणकार शलाकाराशिके प्रमाणरूप है, ऐसा पूछने पर वे कहते हैं कि गुण्यमान लोकके गुणकाररूपसे प्रवेशको प्राप्त होनेवाले लोकोंकी जितनी शलाकाएं हों उतनी तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं कही जाती हैं। ये अन्योन्य गुणकार शलाकाएं वर्गमें उत्पन्न हुई हैं पहलेकी अर्थात् साढ़े तीनवार राशिरूप नहीं, इसलिये हठवार राशिप्रमाण गुणकारशलाकाओंका उपदेश विरोधको प्राप्त होता है, यह उपदेश नहीं।
परंतु इसप्रकारका कथन भी घटित नहीं होता है, क्योंकि, लोकके अर्धच्छेदोंसे तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति घनलोकको देयरूपसे देकर परस्पर गुणा करने पर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है और अधस्तन विरलित राशि भी तेजस्कायिक राशिकी
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[३३८ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ८७.
वर अण्णोण्णगुणगारसलागा तेउक्काइयरारासिवग्गस लागाहिंतो असरखेज्जगुणत्तं पत्ताओ । कुदो ? तेक्वाइयरासिस्स अच् छेदणयसलागापढमवग्गमूलादो असंखेखगुणत्तादो । ण च एदमिच्छज्जदे । कुदो १ तेउक्काइयरासिवग्गस लागादो तस्स असंखेजगुणहीणत्तादो । तं कथं
वदे ? परियम्मवयणाद। । तं जहा - तेउकाइयरासिस्स अण्णोष्णगुणगारसलागा वग्गजमाणा वग्गजमाणा असंखेज्जे लोगे वग्गे हेट्ठादो उवरिमसंखेज्जगुणं गंतूण तेउक्काइयरासिस्स वग्गसलागं पावदि ति । एस विलिदरासी ण वग्गसमुट्ठिदो वि । कुदो ! लोगछेदणयच्छिणते उक्काइयरासिस्स अद्धच्छेदणयमेत तादो । विरलिद - दिण्णमासीणं समानत्तणेण ते उक्काइयरासिस्स घणाघणधारासमुप्पण्णत्तणेण च तेउक्काइयरासिस्स अद्धच्छेदणयसलागाओ ण वग्गसमुट्ठिदाओ त्ति १ ण एदं, इत्ताद। । ण च परियम्मेण सह - विरोहो, तस्स तदुद्देसपदुप्पायने वावारादो। एत्थ पुण अधुट्टवारमेत्ताओ चैव तेउका
अन्योन्य गुणकार शलाकाओंके प्रमाणरूप होती है । पर इस मतमें इतना विशेष है कि अन्योन्य गुणकार शलाकाएं तेजस्कायिक राशिकी वर्गशलाकाओंसे असंख्यातगुणी हो जाती हैं, क्योंकि, इसप्रकार जो अन्योन्य गुणकार शलाकाएं उत्पन्न होती हैं वे तेजस्कायिक राशिकी अर्धच्छेदशलाकाओंके प्रथम वर्गमूलसे असंख्यातगुणी हो जाती हैं । लेकिन यह इष्ट नहीं है, क्योंकि, तेजस्कायिक राशिकी वर्गशलाकाओंसे अन्योन्य गुणकार शलाकाराशि असंख्यातगुणी हीन है ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - परिकर्मके वचनसे जाना जाता है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार हैतेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाओंको उत्तरोत्तर वर्गित करते हुए असंख्यात लोकप्रमाण अर्थात् अधस्तन वर्गोंसे ऊपर असंख्यातगुणे जाकर तेजस्कायिकराशिकी वर्गशलाकाएं प्राप्त होती हैं ।
दूसरे यह विरलित राशि, अर्थात् गुणकाररूपसे प्रवेशको प्राप्त होनेवाले लोकोंकी जितनी शलकाएं हों वह राशि, वर्गसमुत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, वह लोकके अर्धच्छेदोंसे छिन्न तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदप्रमाण है ।
शंका - विरलितराशि और देयराशि समान होनेसे और तेजस्कायिकराशि घनाघनधारा उत्पन्न हुई होनेसे तेजस्कायिकराशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं भी तो वर्गसमुत्पन्न नहीं हैं। समाधान - पर यह कोई बात नहीं है, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है । और इसतरह परिकर्म के साथ भी विरोध नहीं आता है, क्योंकि, परिकर्मका उसके उद्देशमात्र के प्रतिपादन करनेमें व्यापार होता है । यहां पर तो केवल तेजस्कायिकराशिकी साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य
१' लोगद्धछदणयच्छेण्णं तेउ' इति पाठः ।
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१,२,८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवर्ण इयरासिअण्णोण्णगुणगारसलागाओ त्ति घेत्तव्वं, आइरियपरंपरागओवएसत्तादो । ण च वग्गसमुट्ठिदत्तं गुणगारसलागाणं णत्थि त्ति अद्भुट्ठवएसो ण भद्दओ, अद्भुट्ठवएसण्णहाणुववत्तीदो चेव तदवग्गसमुद्विदत्तस्स अवगमादो । ण परियम्मदो वग्गतसिद्धी, तस्स तेउक्काइयअद्धच्छेदणएहि अणेयंतियत्तादो ।
अहवा तेउक्काइयरासिस्स अण्णोण्णगुणगारसलागाओ सलागभूदाओ द्वविऊग
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गुणकार शलाकाएं होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, आचार्य परंपरासे इसीप्रकारका उपदेश आ रहा है। गुणकार शलाकाएं वर्गसमुत्पन्न नहीं हैं, इसलिये साढ़े तीनवारका उपदेश ठीक नहीं है, सो बात भी नहीं है, क्योंकि, साढ़े तीनवारका उपदेश अन्यथा बन नहीं सकता है, इसीसे गुणकार शलाकाएं वर्गसमुत्पन्न नहीं हैं, यह बात जानी जाती है। परिकर्मसे इनके वर्गत्वकी भी सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि, इसका तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंके साथ अनेकान्त है।
विशेषार्थ-यहां पर तेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकारशलाकाएं कितनी हैं, इस विषयमें आचार्य परंपराले आये हुए मतके अतिरिक्त दो और मतोंका उल्लेख किया गया है। घनलोकको लेकर विरलन, देय और शलाकाक्रमसे तीसरीवार शलाकाराशिके समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसमेंसे पहली, दूसरी और तीसरी शलाकाराशिके घटा देने पर शेष राशिको शलाका मान कर साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका प्रमाण आ जाता है। यह मत आचार्य-परंपरासे आया हुआ होनेसे प्रमाण है। दूसरा मत यह है कि तीसरीवार शलाकाराशिके समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसके आधे प्रमाणको शलाकारूपसे स्थापित करना चाहिये तब जाकर साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका प्रमाण होता है। पर कितने ही आचार्य इस मतका विरोध करते हैं। उनके मतसे यह साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य गुणकार शलाकाराशिका उपदेश वर्गसमुत्पन्न नहीं है, इसलिये प्रमाणभूत नहीं है। तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शला. काएं वर्गोत्पन्न हैं इस मतकी पुष्टि वे आचार्य परिकर्मके आधारसे करते हैं। कितने ही आचार्य ऐसा कथन करते हैं कि जितने लोकप्रमाणराशिके प्रत्येक एक पर लोकको स्थापित करके परस्पर गुणित करनेसे तेजस्कायिकराशि उत्पन्न होती है उतने लोकप्रमाणराशि तेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं होती हैं। इन्हें वे वर्गसमुत्पन्न भी मानते हैं। पर वीरसेनस्वामीने दूसरे मतके समान इस मतको भी प्रमाणभूत नहीं माना है, क्योंकि, इसप्रकार अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका जो प्रमाण प्राप्त होता है वह तेजस्कायिकराशिकी वर्गशलाकाराशिसे असंख्यातगुणा हो जाता है । पर क्रमानुसार अन्योन्य गुणकार शलाकाराशिसे वर्गशलाकाराशि असंख्यातगुणी होनी चाहिये।
अथवा, तेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाओंको शलाकारूपसे स्थापित
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३४० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ८७. तदुप्पत्तिणिमित्तरासीणं वग्गिदसंवग्गिदे काऊण तेउकाइयरासी उप्पाएदव्या । तेउक्काइयरासिं भागहारं काऊण तस्सुवरिमवग्गं विहज्जमाणरासिं करिय खंडिद-भाजिद-विरलिदअवहिदाणि जाणिऊण वत्तव्याणि । तस्स पमाणमुवरिमवग्गस्स असंखेञ्जदिभागो। कारणं, तेउकाइयरासिणा उवरिमवग्गे भागे हिदे तेउक्काइयरासी चेव आगच्छदि त्ति । एत्थ संदेहाभावा णिरुत्ती ण वत्तव्वा ।
वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । एत्थ हेडिमवियप्पो णत्थि, तेउक्काइयरासिस्स विहज्जमाणरासिपढमवग्गमूलमत्तत्तादो । उवरिमवियप्पो तिविहो, गहिदो गहिदगहिदो गहिदगुणगारो चेदि । तत्थ गहिदं वत्तइस्सामो। तेउक्काइयरासिणा उवरिमवग्गे भागे हिदे तेउक्काइयरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणये कदे तेउक्काइयरासी आगच्छदि । अहवा तेउक्काइयरासिणा तस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण तदुवरिमवग्गे भागे हिदे तेउक्काइयरासी आगच्छदि । तस्सद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणये कदे वि तेउक्काइयरासी आगच्छदि । अट्ठरूवे वत्तइस्सामो । तेउक्काइयरासिणा तेउक्काइयउवरिमवग्गसमाणअट्ठरूववग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गं मोत्तूण
करके और उसकी उत्पत्तिकी निमित्तभूत राशियोंको वर्गितसंवर्गित करके तेजस्कायिकराशि उत्पन्न कर लेना चाहिये । तेजस्कायिकराशिको भागहार करके और उसके उपरिम वर्गको भज्यमानराशि करके खंडित, भाजित, विरलित और अपहृतका जानकर कथन करना चाहिये। उसका प्रमाण तेजस्कायिक राशिके उपरिम वर्गका असंख्यातवां भाग है। इसका कारण यह है कि तेजस्कायिकराशिसे उसके उपरिम वर्गके भाजित करने पर तेजस्कायिक जीवराशि ही आती है। यहां पर संदेह नहीं होनेसे निरुक्तिके कथनकी आवश्यकता नहीं है।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प। परंतु यहां पर अधस्तन विकल्प नहीं पाया जाता है, क्योंकि, तेजस्कायिकराशि भज्यमान राशिके प्रथम घर्गमूलप्रमाण है।
- उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है, गृहीत, गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकार । उनमेंसे गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- तेजस्कायिक राशिसे उसके उपरिम वर्गके भाजित करने पर तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है। उक्त भागहारके अर्धच्छेदप्रमाण उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी तेजस्कायिक राशि आती है। अथवा, तेजस्कायिक राशिके प्रमाणसे उसके उपरिम वर्गको गुणित करके लब्ध राशिका उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है। उक्त भागहारके अर्धच्छे इप्रमाण उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है।
____ अब अष्टरूपमें उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-तेजस्कायिक राशिसे तेजस्कायिक राशिके उपरिम वर्गके समान घनके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका तेजस्कायिक राशिके उपरिम घर्गको छोड़कर उसके उपरिम वर्गमें भाग देने
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
[३४१ तदुवरिमवग्गे भागे हिदे तेउक्काइयरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि तेउक्काइयरासी आगच्छदि । घणाघणे' वत्तइस्सामो । तेउ. क्काइयरासिणा तेउक्काइयरासिउवरिमवग्गसमाणअट्ठरूववग्गं गुणेऊग तस्सुवरिमवग्गं मोतूण तदुवरिमवग्गसमाणवेरूववग्गं गुणेऊण तस्सुवरिमवग्गं मोत्तूण तदुवरिमवग्गे भागे हिदे तेउक्काइयरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि तेउक्काइयरासी अवचिट्ठदे। विहज्जमाणवग्गाणं असंखेजदिभाएण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च वत्तव्यो । एवं तेउक्काइयपरूवणा समत्ता।।
तेउक्काइयरासिमसंखेज्जलोगेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पुढविकाइयरासी होदि । तम्हि असंखेज्जलोगेण भागे हिंदे लद्धं तम्हि चेव पविखत्ते आउकाइयरासी होदि । तम्हि असंखेज्जलोगेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते वाउकाइयरासी होदि । एदेसिं तिणं रासीणं अवहारकालस्सुप्पायण
पर तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है।
___अब घनाघनमें उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- तेजस्कायिक राशिले तेजस्कायिक राशिके उपरिम वर्गके समान घनके उपरिम वर्गको गुणित करके पुनः तेजस्कायिक राशिके उपरिम वर्गको छोड़कर उसके उपरिम वर्गके समान द्विरूपके वर्गको गुणित करके तेजस्कायिक राशिके उपरिम धर्गके उपरिम वर्गको छोड़कर उसके उपरिम वर्गमें भाग देने पर तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी तेजस्कायिक राशिका प्रमाण आता है। विभज्यमान वर्गोंके असंख्यातवें भागरूप तेजस्कायिक राशिके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन करना चाहिये। इसप्रकार तेजस्कायिक जीवराशिकी प्ररूपणा समाप्त हुई।
तेजस्कायिक राशिको असंख्यात लोकोंके प्रमाणसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी तेजस्कायिक राशिके प्रमाणमें प्रक्षिप्त करने पर पृथिवीकायिक राशिका प्रमाण होता है । इस पृथिवीकायिक राशिको असंख्यात लोकोंके प्रमाण से भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी पृथिवीकायिक राशिमें मिला देने पर अप्कायिक राशिका प्रमाण होता है। इस अप्कायिक राशिको असंख्यात लोकोंके प्रमाणले भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अपकायिक राशिमें मिला देने पर वायुकायिक राशिका प्रमाण होता है।
अब इन तीनों राशियोंके अपहारकालके उत्पन्न करनेकी विधिको बतलाते
१ प्रतिषु · वेरूवे' इति पाठः ।
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३१२) छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, ८७. विहाणं उच्चदे । तं जहा- तेउक्काइयरासिं पुढविकाइयरासिम्हि सोहिय सेसेण तेउक्काइयरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगरासी आगच्छदि । तेण रूवाहिएण तेउक्काइयरासिमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे पुढविकाइयअवहारकालो होदि । पुणो पुढविकाइयरासिं आउकाइयरासिम्हि सोहिय सेसेण पुढविकाइयरासिम्हि भागे हिदे असंखेजलोगमेत्तरासी आगच्छदि । तेण रूवाहिएण पुढविकाइयअवहारकालमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे आउक्काइयअवहारकालो होदि । पुणो आउक्काइयरासि वाउकाइयरासिम्हि सोहिय तत्थावसिट्ठरासिणा आउकाइयरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगमेत्तरासी लब्भदि । तेण रूवाहिएण आउकाइयअवहारकाले भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव अवणिदे वाउकाइयअवहारकालो होदि । एत्थुव उजंती गाहा
रासिविसेसेणवहिदरासिम्हि य जं हिये समुवलद्धं । रूवूणहिएणवहिदहारो ऊणाहिओ तेण ॥ ७५ ॥
हैं । वह इसप्रकार है- तेजस्कायिक राशिको पृथिवीकायिक राशिमेंसे घटा कर जो शेष रहे उससे तेजस्कायिक राशिके भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि आती है। एक अधिक उस असंख्यात लोकप्रमाणराशिसे तेजस्कायिक राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी तेजस्कायिक राशिमेंसे घटा देने पर पृथिवीकायिक राशिसंबन्धी अवहारकाल होता है। पुनः पृथिवीकायिक राशिको जलकायिक राशिमेंसे घटा कर जो शेष रहे उससे पृथिवीकायिक राशिके भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाणराशि आती है। एक अधिक उस असंख्यात लोकप्रमाण राशिसे पृथिवीकायिक राशिके अवहारकालको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी पृथिवीकायिक राशिके अवहारकालमेंसे घटा देने पर जलकायिक राशिसंबन्धी अघहारकाल होता है। पुनः अप्कायिक राशिको वायुकायिक राशिमेंसे घटा कर वहां जो राशि अवशिष्ट रहे उससे अप्कायिक राशिके भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि लब्ध आती है। एक अधिक उस असंख्यात लोकप्रमाण राशिसे अपकायिक राशिके अवहारकालके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अप्कायिक राशिके अवदारकालमेंसे घटा देने पर वायुकायिक राशिसंबन्धी अवहारकाल होता है। यहां पर उपयुक्त गाथा दी जाती है
राशिविशेषले राशिके भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उसमेंसे यदि एक कम करके शेष राशिसे भागहार भाजित किया जाय तो उस लम्घको उसी भागहार में मिला देवे और यदि लब्ध राशिमें एक अधिक करके उससे भागहार भाजित किया जाय तो भागहारके भाजित करने पर जो लन्ध राशि आये उसे भागहारमेंसे घटा देना चाहिये ॥ ७॥
AuuuuN
१ प्रतिषु 'नं हिवे' इति पाठः ।
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१, २, ८७ ] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [३५१
एसा किरिया इंदिय-कसाय जोगमग्गणासु विसेसाहियरासीणं विसेसहीणरासीण च मिरवयवा कायया । एदे पुव्वुत्ते चत्तारि अवहारकाले विरलिय तेउकाइयरासिस्सुवरिमवग्गं चउण्हं विरलणाणं पुध पुध समखंडं करिय दिण्णे अप्पप्पणो रासिपमाणं पावदि । पुणो सगसगबादरजीवहिं सगसगविरलणाए एगरूबोवरि द्विदसगसगरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगमेत्तरासी आगच्छदि । तेण रूवूणेण सगसगअवहारकालेसु ओवट्टिदेसु लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते सगसगसुहुमाणं अवहारकाला भवंति । पुणो एदे चत्तारि वि सुहुमजीवअवहारकाले' पुध पुध विरलिय तेउक्काइयरासिस्सुवरिमवग्गं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सगसगसुहुमपमाणं पावेदि । पुणो सगसगविरलगाए एगरूवोवरि हिदसुहुमरासिं सगसगसुहुमअपज्जत्तएहिं भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवेहि रूवूणेहि सगसगसुहुमअवहारकाले ओवट्टिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते सगसगसुहुमपज्जताणमवहारकाला भवंति । पुवं भागलद्धसंखेज्जरूवेहिं सगसगसुहुमजीवअवहारकालेसु गुणिदेसु सगसगसुहुमअपज्जत्तअवहारकाला भवंति । चउण्हं बादराणं पुव्वुप्पादिदेहिं असंखेअलोगमेत्त
इन्द्रिय, कषाय और योग इन तीन मार्गणाओं में विशेष अधिक राशियोंके और विशेष हीन राशियोंके संबन्धमें संपूर्ण रूपसे यह क्रिया करना चाहिये। पूर्वोक्त इन चारों अवहारकालोको विरलित करके और तेजस्कायिक गशिके उपरिम वर्गको चारों विरलनोंके ऊपर पृथक्-पृथक समान खंड करके दे देने पर अपनी अपनी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः अपनी अपनी बादरकायिक जीवराशिके प्रमाणका अपने अपने विरलनके एक अंकके ऊपर स्थित अपनी अपनी राशिके प्रमाणमें भाग देने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि प्राप्त होती है। एक कम उस असंख्यात लोकप्रमाण राशिसे अपने अपने अवहारकालोंके भाजित करने पर जो जो लब्ध आवे उसे उसी अपने अपने अवहारकालमें मिला देने पर अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके प्रमाण लाने के लिये अवहारकाल होते हैं। पुनः सूक्ष्म जीवसंबन्धी इन चारों भी अवहारकालोंको पृथक् पृथक् विरलित करके और उन विरलनोंके प्रत्येक एकके ऊपर तेजस्कायिक राशिके उपरिम वर्गको समान खंड करके दे देने पर विरलनोंके प्रत्येक एकके प्रति अपने अपने सूक्ष्म जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः अपने अपने विरलनके एक विरलन-अंकके ऊपर स्थित सूक्ष्म जीवराशिके प्रमाण को अपनी अपनी सूक्ष्म अपर्याप्त जीवराशिके प्रमाणसे भाजित करने पर वहां जो संख्यात लब्ध आवें उनमेंसे एक कम करके शेष राशिसे अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके अवहारकालको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उन्हीं अवहारकालोमें मिला देने पर अपने अपने सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंके अवहारकाल होते हैं। पहले भाग देने पर जो संण्यातलब्ध आये थे उनसे अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके अपहारकालोंके गुणित करने पर अपने अपने सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके अवहारकाल होते हैं। चारों बादरोंके
१ प्रतिषु '-कालेसु' इति पाठः।
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३४.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८७. गुणगारेहिं सगसगसामण्णअवहारकालेसु गुणिदेसु सगसगबादराणमवहारकाला भवंति ।
. पुणो सुत्ताविरुद्धण आइरिओवएसेण सुत्तं व पमाणभूदेण बादराणमद्धच्छेदणए वत्तइस्सामो । तं जहा- एगसागरोवमादो एगं पलिदोवमं घेत्तूण तमावलियाए असंखेजदिभागेण खंडिय तत्थेगखंडं पुध द्वविय सेसबहुभागे तम्हि चेव पक्खित्ते बादरतेउक्काइयअद्धच्छेदणयसलागा हवंति। जं पुध दृविदेयखंडं तं पुणो वि आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिय तत्थेगखंडमवणिय बहुखंडे पुन्धरासिं दुप्पडिरासिं काऊण पक्खित्ते बादरवणप्फइपत्तेयसरीराण अद्धच्छेदणयसलागा हवंति । एवं बादरणिगोदपदिविद-बादरपुढवि-बादरआऊणं च वत्तव्यं । अंते अवणिदएगखंडं बादरआउक्काइयअद्धच्छेदणयसलागासु पक्खित्ते चादरवाउक्काइयअद्धच्छेदणयसलागा सायरोवममेत्ता जादा। बादरतेउक्काइयअद्धच्छेदणए विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे बादरतेउक्काइयरासी उप्पज्जदि । अहवा घणलोयछेयणएहिं बादरतेउक्काइयअद्धच्छेदणएसु ओवटिदेसु लद्धं विरलेऊण रूवं पडि
जो पहले असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार उत्पन्न किये थे उनसे अपने अपने सामान्य अवहारकालोंके गुणित करने पर अपने अपने बादर जीवोंके अवहारकाल होते हैं।
___अब आगे सूत्रके समान प्रमाणभूत सूत्राविरुद्ध आचार्योंके उपदेशके अनुसार बादर जीवोंके अर्धच्छेद बतलाते हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-एक सागरोपममेंसे एक पल्योपमको ग्रहण करके और उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके वहां जो एक भाग लब्ध आवे उसे पृथक् स्थापित करके शेष बहुभागको उसी राशिमें अर्थात् पल्यकम सागर में मिला देने पर बादर तेजस्कायिक राशिकी अर्धच्छेद शलाकाएं होती हैं। जो एक भाग पृथक् स्थापित किया था उसे फिर भी आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके वहां जो एक भाग लब्ध आया उसे घटा कर अवशेष बहुभागको पूर्वराशि अर्थात् बादर तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंकी दो प्रतिराशियां करके और उनमें से एकमें मिला देने पर बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंकी अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। इसीप्रकार बादर निगोदप्रतिष्ठित, बादर पृथिवीकायिक और बादर अप्कायिक जीवराशिके अर्धच्छेदोंका कथन करना चाहिये । अन्तमें अपनीत एक खंडको बादर अप्कायिक जीवोंकी अर्धच्छेद शलाकाओं में मिला देने पर सागरोपमप्रमाण बादर वायुकायिक जीवोंकी अर्धच्छेदशलाकाएं हो जाती हैं।
बादर तेजस्कायिक राशिकी अर्धच्छेदशलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है। अथवा, घनलोकके अर्धच्छेदोंसे बादर तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंके
१ अवलि असंखभागेणवहिदपल्लूणसायरद्धाछिदा । बादरतेपणिभूजलवादाणं चरिमसायरं पुण्ण ॥ गो. जी. २१३.
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
[३४५ घणलोग दाऊण अण्णोण्णभत्थे कए बादरतेउकाइयरासी उप्पज्जदि । अहवा बादरतेउअद्धच्छेदणए बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरद्धछेदणएहिंतो सोहिय अवसेसरासिं विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा बादरवणप्फइपत्तेयसरीररासिम्हि भागे हिदे बादरतेउकाइयरासी उप्पज्जदि । अहवा बादरवणप्फइपत्तेयरासिस्स अहियद्धच्छेयणयमेत्ते' अच्छेयणए कए बादरतेउकाइयरासी उप्पज्जदि । अहवा घगलोगछेदणएहि अहियद्धछेदणएसु ओवट्टिदेसु तत्थ लद्धं विरलेऊण एक्केक्कस्स रुवस्स घणलोगं दाऊण अण्णोण्णब्भत्थे कए जो रासी तेण बादरवणप्फइपत्तेयसरीररासिम्हि भागे हिदे बादरतेउकाइयरासी होदि । एवं बादरणिगोदपदिट्टिद-बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरवाउकाइयाणं अप्पप्पणो अद्धच्छेदणएहितो बादरतेउकाइयरासी उप्पादेदव्या । एवं बादरतेउकाइयरासिस्स सत्चारसविहा परूवणा कदा ।
भाजित करने पर जो लन्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति घनलोकको देकर परस्पर गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा, बादर तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंको बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंके अर्धच्छेदोंमेंसे घटाकर जो राशि शेष रहे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणित करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंकी राशिके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है । अथवा, बादर वनस्पति प्रत्येकराशिके जितने अधिक अर्धच्छेद हों उतनीवार बादर वनस्पति प्रत्येकशरि राशिके अर्धच्छेद करने पर भी बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा, घनलोकके अर्धच्छेदोंसे अधिक अर्धच्छेदोंके भाजित करने पर वहां जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति घनलोकको देयरूपसे देकर परस्पर गुणित करने पर जो राशि आवे उससे बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवराशिके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक राशि आती है। इसीप्रकार बादर निगोदप्रतिष्ठित, बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक जीवोंके अपने अपने अर्धच्छेदोंसे बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न कर लेना चाहिये। इसप्रकार बादर तेजस्कायिक राशिकी सत्रह प्रकारकी प्ररूपणा की।
विशेषार्थ-ऊपर पांच प्रकारसे तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न करके बतला आये हैं। प्रथमवार तेजस्कायिक जीवराशिके अर्धच्छेदोंका और दूसरीवार धनलोकके अर्धच्छेदोंका आश्रय लेकर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न की गई है। अन्तिम तीन प्रकारसे तेजस्कायिक जीवराशिके उत्पन्न करने में बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवराशिके अर्धच्छेदोंकी मुख्यता
१ प्रतिषु · अद्धच्छेयणयमत्ते' इति पाठः।
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८७. बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीररासिस्स अद्धच्छेदणए विरलेऊण विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे बादरवणप्फदिपत्तेयसरीररासी उप्पज्जदि । अहवा घणलोगछेदणएहि बादरवणप्फइपत्तेगसरीरअद्धछेयणएसु ओवट्टिदेसु लद्धं विरलेऊण रूवं पडि घणलोगं दाऊण अण्णोण्णभत्थे कए बादरवणप्फइपत्तेयसरीररासी उप्पज्जदि। बादरतेउकाइयरासीदो बादरवणप्फदिपत्तेगसरीररासिमुप्पाइज्जमाणे अहियद्धच्छेयणमेत्ते' बादरतेउकाइयरासिस्स दुउणगुणगारे कए बादरवणप्फइपत्तेगसरीररासी उप्पज्जदि । अहवा अन्भहिय
है। बादर तेजस्कायिक राशिसे बादर वनस्पति प्रत्येकशरीरराशि बड़ी है, अतएव तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंसे इस राशिके जितने अधिक अर्धच्छेद हों, उतनीवार दो रखकर परस्पर गुणित करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर राशिके भाजित कर देने पर, अथवा जितने अर्धच्छेद अधिक हैं उतनीवार बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर राशिके अर्धित करने पर, बादर तेजस्कायिक जीव राशि उत्पन्न होती है । बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर राशिके अर्धच्छेदोंका आश्रय करके बादर तेजस्कायिक राशिके उत्पन्न करनेके दो प्रकार तो ये हुए । तीसरे प्रकारमें घनलोकके अर्धच्छेदोंका आश्रय और ले लिया जाता है। अर्थात् धनलोकके अर्धच्छेदोंसे बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीव राशिके बादर तेज. स्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंसे अधिक अर्धच्छेदोंके भाजित कर देने पर जो लब्ध आवे उतनीवार घनलोकके परस्पर गुणित करने पर आई हुई राशिका बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवराशिमें भाग देने पर बादर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है। इन्ही तीनों प्रकारोंसे बादर निगोद प्रतिष्ठित जीवराशि, बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक राशिके अर्धच्छेदोंका आश्रय लेकर तेजस्कायिक राशिके उत्पन्न करने पर बारह प्रकारसे तेजस्कायिक राशिका प्रमाण उत्पन्न होता है। इन बारह भेदोंमें पूर्वोक्त पांच भेदोंके मिला देने पर तेजस्कायिक राशिकी प्ररूपणा सत्रह प्रकारसे हो जाती है।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवराशिके अर्धच्छेदोंको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवराशि उत्पन्न होती है। अथवा, घनलोकके अर्धच्छेदोंसे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर राशिके अर्धच्छेदोंके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति घनलोकको देयरूपसे देकर परस्पर गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जविराशि उत्पन्न होती है। बादर तेजस्कायिक राशिसे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर राशिके उत्पन्न करने पर अधिक अर्धच्छेदप्रमाण बादर तेजस्कायिक राशिके दुगुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवराशि उत्पन्न होती है। अथवा, अधिक अर्धच्छेदोंको विरलित करके और
१ प्रतिषु । अद्धच्छेयणयमेत्ते ' इति पाठः ।
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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवर्ण [३४५ च्छेयणए विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थकदरासिणा बादरतेउकाइयरासिं गुणिदे बादरवणप्फदिपत्तेगसरीररासी होइ । अहवा अहियच्छेयणए घणलोगछेयणएहि ओवट्टिय लद्धं विरलेऊण रूवं पडि घणलोगं दाऊण अण्णोण्णब्भत्थकदरासिणा बादरतेउकाइयरासिं गुणिदे बादरवणप्फइपत्तेगसरीररासी होदि । बादरणिगोदपदिद्विद-बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरवाउकाइएहिंतो बादरवणप्फइपत्तेयसरीररासिमुप्पाइज्जमाणे जहा तेउकाइयरासी उप्पाइदो तहा उप्पादेदव्या । बादरणिगोदपदिद्विद-बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरवाउकाइयाणं च एवं चेव सत्तारसविहा परूवणा परूवेदव्वा । पत्तेगसाधारणसरीरवदिरित्तो बादरणिगोदपदिह्रिदरासी ण जाणिजदि त्ति वुत्ते सच्चं, तेहिं वदिरित्तो वणप्फइकाइएसु जीवरासी णत्थि चेव, किं तु पत्तेयसरीरा दुविहा भवंति बादरणिगोदजीवाणं
उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दोरूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर तेजस्कायिक राशिके गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवराशि होती है। अथवा, अधिक अर्धच्छेदोंको घनलोकके अर्धच्छेदोंसे भाजित करके जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति घनलोकको देयरूपसे देकर परस्पर गुणित करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर तेजस्कायिक जीव. राशिके गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवराशि होती है। बादर निगोदप्रतिष्ठित, बादर पृथिवीकायिक, बादर अपकायिक और बादर वायुकायिक जीवराशिके प्रमाणसे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर राशिके उत्पन्न करने पर जिसप्रकार इन राशियोंसे तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न की गई उसीप्रकार उत्पन्न करना चाहिये । बादर निगोदप्रतिष्ठित, बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक जीवराशिका इसीप्रकार सत्रह सत्रह प्रकारकी प्ररूपणासे प्ररूपण करना चाहिये।
विशेषार्थ-जहां बड़ी राशिका आश्रय लेकर छोटी राशि उत्पन्न की जावे वहां पर छोटी राशिके अर्धच्छेदोंसे बड़ी राशिके अर्धच्छेद जितने अधिक होवें उतनीवार बड़ी राशिके आधे आधे करने पर, अथवा, उतने अर्धच्छेदप्रमाण दोके परस्पर गुणित करनेसे जो लब्ध आवे उसका बड़ी राशिमें भाग देने पर छोटी राशि आती है। तथा जहां छोटी राशिका आश्रय लेकर बड़ी राशि उत्पन्न की जावे वहां आधिक अर्धच्छेदप्रमाण छोटी राशिके द्विगुणित करने पर, अथवा, उतने अर्धच्छेदप्रमाण दोके परस्पर गुणित करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे छोटी राशिके गुणित कर देने पर बड़ी राशि आ जाती है। शेष कथन स्पष्ट ही है। इसप्रकार तेजस्कायिक राशिकी सत्रह प्रकारकी प्ररूपणाके समान प्ररूपणा करनेसे उपर्युक्त प्रत्येक राशिकी प्ररूपणा सत्रह सत्रह प्रकारकी हो जाती है।
शंका-प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर, इन दोनों जीवराशियोंको छोड़कर बादर. निगोद प्रतिधित जीवराशि क्या है, यह नहीं मालूम पड़ता है ?
समाधान-यह सत्य है कि उक्त दोनों राशियों के अतिरिक्त बनस्पतिकायिकों में भोर कोई जीवराशि नहीं है, किन्तु प्रत्येकशरि वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं, एक
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३४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ८८. जोणीभूदसरीरा तब्धिवरीदसरीरा चेदि । तत्थ जे बादरणिगोदाणं जोणीभूदसरीरपत्तेगसरीरजीवा ते वादरणिगोदपदिद्विदा भणंति। के ते ? मूलयद्ध-भल्य-सूरण-गलोई-लोगेसरपभादओ । उत्तं च
(बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा ।
जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ ७६ ॥ ___ सुत्ते बादरवणप्फदिपसेयसरीराणमेव गहणं कदं, (ण तब्भेदाणं )? ण', चादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरजीवेसु चेव तेसिमंतब्भावादो । एदेसिं बादरपज्जत्ताणं परूवमाणाण परूवणट्टमुत्तरसुत्तमाह
(बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ८८ ॥)
(एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुचदे ।) असंखेजा इदि सामण्णवयणेण तो बादरनिगोद जीवोंके योनिभूत प्रत्येकशरीर और दूसरे उनसे विपरीत शरीरवाले अर्थात् बादरनिगोद जीवोंके अयोनिभूत प्रत्येकशरीर जीव । उनमेंसे जो बादरनिगोद जीवोंके योनिभूतशरि प्रत्येकशरीर जीव हैं उन्हें धादरनिगोद प्रतिष्ठित कहते हैं।
शंका-घे बादरनिगोद जीवोंके योनिभूत प्रत्येकशरीर जीव कौन हैं ?
समाधान -मूली, अदरक (१) भल्लक (भद्रक), सूरण, गलोइ (गुडुची या गुरवेल) लोकेश्वरप्रभा ? आदि बादरनिगोद प्रतिष्ठित हैं । कहा भी है
योनिभूत बीज में वही जीव उत्पन्न होता है, अथवा दूसरा कोई जीव उत्पन्न होता है। घह और जितने भी मूली आदिक सप्रतिष्ठितप्रत्येक हैं वे प्रथम अवस्थामें प्रत्येक ही है ॥६॥
शंका-सूत्रमें बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका ही ग्रहण किया है, उनके भेदोंका क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों में ही उनका अन्तर्भाव हो जाता है।
अब इन बादर पर्याप्तोंकी प्ररूपणाके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। ८८ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं। सूत्रमें 'असंख्यात हैं' ऐसा १ आ. प्रतौ · सलोई । इति पाठः ।
२ गो. जी. १८७. बीए जोणिभूए जीवो वक्कमइ सो व अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सोऽवि य पत्ते पढमयाए । प्रज्ञापना १,४५, गा. ५१, पृ. ११९.
३ प्रतिषु 'गहणं कधं ण ' इति पाठः। ४ प्रतिषु चादरआउकाइय' इति पाठः नास्ति ।
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दव्वपमाणानुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
वहमसंखेज्जाणं गहणं पत्ते अणिच्छिदा संखेज्जपडि सेहमुत्तरसुतं भणदिअसं खेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ८९ ॥
एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो चेव । एदेण अवगद - असंखेज्जासंखेज्जस्स विसेसेण तल्लद्धिणिमित्तमुत्तरसुत्तमाह
खेत्तेण बादरपुढविकाइय- बादरआउकाइय-वादरवणफइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत एहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभागेण ॥ ९० ॥
एत्थ अंगुलमिदि उत्ते पमाणांगुलं घेत्तव्यं । तस्स असंखेजदिभागस्स जो वग्गे तेण पडिभागेण भागहारेण । एत्थ निमित्ते तइया दट्ठवा । एदेण अवहारकालेण बादरपुढ विपज्जत्तादीहि जगपदरमवहिरदि ति जं वृत्तं होदि ।
१, २, ९०.
.]
[ ३४९
सामान्य वचन देने से नौ प्रकारके असंख्यातोंका ग्रहण प्राप्त होने पर अनिच्छित असंख्यातोंके प्रतिषेध करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
कालकी अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त बादर अष्कायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ।। ८९ ।।
इस सूत्रका भी अर्थ सुगम ही है । यद्यपि इस सूत्र से असंख्याता संख्यात अवगत हो गया, फिर भी उसकी विशेषरूप से प्राप्ति करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अष्कायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर अपहृत होता है ।। ९० ॥
यहां सूत्र में अंगुल ऐसा कहने पर प्रमाणांगुलका ग्रहण करना चाहिये। उस प्रमाणां गुलके असंख्यातवें भागका जो वर्ग तद्रूप प्रतिभागसे अर्थात् भागहारसे। यहां निमित्तमें तृतीया विभक्ति जानना चाहिये। इस अवहारकालसे बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त आदि जीवोंके द्वारा जगप्रतर अपहृत होता है, यह इस सूत्रका अभिप्राय है ।
विशेषार्थ - उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुलके भेदसे अंगुल तीन प्रकारका है । आठ यवका एक उत्सेधांगुल होता है। पांचसौ उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है । १ पळासंखेज्जवह्निदपदरंगुलमाजिदे जगप्पवरे । जलभूणिपबादरया पुण्णा आवलिअसंखमजिदकमा ॥ गी. जी. २०९.
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३५० ]
छडागमे जीवाणं
[ १, २, ९१.
एत्थ सुत्तसूचिदमाइरिओवरसेण भागहाराणं विसेसं भणिस्साम । तं जहापलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुलमवहरिय लद्धं वग्गिदे बादरआउकाइयपज्जत्तअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे बादरपुढविकाइयपज्जत अवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेदिभाएण गुणिदे बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत अवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभारण गुणिदे बादरवणष्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तअवहारकालो होदि । कारणं, सगरासिबहुत्तणिबंधणत्ता । एदेसि - मवहारकालाणं खंडिदादीणं पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवंरि पदरंगुलभागहारो एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे । एदेहि अवहारका लेहि जगपदरे भागे हिदे संगसगदव्वपमाणमागच्छदि । बादरते उपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । असंखेज्जावलियवग्गो आवलियघणस्स अंतों ॥ ९१ ॥
अपने अपने अंगुलको आत्मांगुल कहते हैं । इनमें से यहां प्रमाणांगुलरूप सूच्यंगुलका ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि, द्वीप आदिकी गणना में यही अंगुल लिया गया है । इसीप्रकार द्रव्यप्रमाणानुगममें जहां अंगुलका संबन्ध आया है वहां इसी अंगुलका अभिप्राय जानना चाहिये । अब यहां पर आचार्योंके उपदेशानुसार सूत्रसे सूचित भागद्दारोंके विशेषको कहते हैं । वह इसप्रकार है- पल्योपमके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुल को भाजित करके जो लब्ध आवे उसके वर्गित करने पर बादर अकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस बादर roars पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है। यहां अवहारकालोंके उत्तरोत्तर अधिक होनेका कारण यह है कि पूर्व पूर्ववर्ती अपनी अपनी राशि बहुत बहुत पाई जाती है । इन अवहारकालोंके खंडित आदिकका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यचके खंडित आदिकके कथन के समान करना चाहिये । इतना विशेष है कि वहां पर प्रतरांगुल भागहार है और यहां पर पस्योपमका असंख्यातवां भाग भागद्दार है । इन अवहारकालोंसे जगप्रतरके भाजित करने पर अपने अपने द्रव्यका प्रमाण आता है ।
बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं । यह असंख्यातरूप प्रमाण असंख्यात आवलियों के वर्गरूप है जो आवलीके घन के भीतर आता है ।। ९१ ॥
१ विदावलिलो गाणमसंख संखं च तेउवाऊण। पञ्जत्ताणं पमार्ण... ॥ गो. जी. २१०. आवलिवग्गी अन्तरानलीय गुणिओ हु बायरा तेऊ । पञ्चसं. २, ११.
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१, २, ९१.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
[३५१ असंखेज्जा इदि सामण्णेण उत्ते णवविहस्स असंखेज्जस्स गहणं पसत्तं तप्पडिसेहट्टं असंखेज्जावलियवग्गो ति णिदेसो कदो। असंखेज्जावलियवग्गो त्ति वयणेण घणावलियादीणमुवरिमाणं गहणे पत्ते तप्पडिसेहट्ठमावलियघणस्स अंतो इदि णिदेसो कदो । घणावलियाए अब्भंतरे चेव बादरतेउपज्जत्तरासी होदि त्ति उत्तं भवदि । आइरियपरंपरागओवएसेण बादरतेउपज्जत्तरासिस्स अवहारकालं भणिस्सामो । तं जहा- आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियमवहारिय लद्धेण पदरावलियउवरिमवग्गे भागे हिदे बादरतेउकाइयपज्जत्तरासी होदि। एत्थ खंडिद-भाजिद-विरलिद-अवहिदाणि जाणिऊण भणिऊण भाणिदव्याणि । तस्स पमाणं उच्चदे। पदरावलियउवरिमवग्गस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ पदरावलियाओ। तं जहा- पदरावलियाए तदुवरिमवग्गे भागे हिदे पदरावलियं आगच्छदि । तिस्से दुभागेण भागे हिदे दोष्णि, तिष्णिभागेण भागे हिदे तिष्णि, एवं
सूत्रमें ' असंख्यात हैं' इसप्रकार सामान्यरूपसे कथन करने पर नौ प्रकारके असं. ख्यातोंका ग्रहण प्राप्त होता है, अतः उनके प्रतिषेध करनेके लिये 'वह असंख्यातरूप प्रमाण असंख्यात आवलियोंके वर्गरूप है ऐसा निर्देश किया है। ' असंख्यात आवलियोंके वर्गरूप है। इस वचनसे घनावली आदि उपरिम संख्याओंके ग्रहणके प्राप्त होने पर उसके प्रतिषेध करनेके लिये 'आवलीके घनके भीतर है' इसप्रकारका निर्देश किया। इसका अभिप्राय यह हुआ कि बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि धनावलीके भीतर ही है। अब आचार्य परंपरासे आये हुए उपदेशके अनुसार बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिका अवहारकाल कहते हैं। वह इसप्रकार है- आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरावलीके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। यहां पर खंडित, भाजित, विरलित और अपहृतोंको जानकर, कहकर, कहलवाना चाहिये।
विशेषार्थ-यद्यपि ऊपर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिके अवहारकाल लानेकी प्रतिक्षा की गई है और अन्तमें बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिका प्रमाण कितना है यह बतलाया है। फिर भी इससे ऊपरकी प्रतिक्षामें कोई विसंगति नहीं आती है, क्योंकि, 'आवलोके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीको भाजित करके जो लब्ध आवे' इस कथनके द्वारा बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिके अवहारकालका कथन हो जाता है।
आगे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिका प्रमाण कहते हैं। प्रतरावलीके उपरिम वर्गका असंख्यातवां भाग बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिका प्रमाण है, जो प्रतरावलीके उपरिम वर्गका असंख्यातवां भाग असंख्यात प्रतरावलीप्रमाण है। आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं-प्रतरावलीका उसीके उपरिम वर्गमें भाग देने पर प्रतरावलीका प्रमाण आता है । प्रतरावलीके द्वितीय भागका प्रतरावलीके उपरिम वर्गमें भाग देने पर दो प्रतरावलियां लब्ध
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३५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ९१. गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदपदरावलियाए तदुवरिमवग्गे भागे हिदे असंखेज्जाओ पदरावलियाओ लब्भंति । कारणं गदं। पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियाए ओवट्टिदाए तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाओ पदरावलियाओ हवंति । णिरुत्ती गदा ।
वियप्पो दुविहो, हेट्ठिमवियप्पो उवरिमवियप्पो चेदि । तत्थ हेट्ठिमवियप्पं वेरूवे वत्तइस्सामो। पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियमोवट्टिय लद्धेण तं चेव पदरावलियं गुणिदे बादरतेउपज्जत्तरासी होदि । अट्ठरूवे वत्तइस्सामो। पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियं गुणिय पदरावलियघणे भागे हिदे बादरतेउपज्जत्तरासी होदि । तं जहा- पदरावलियाए पदरावलियघणे भागे हिदे पदरावलियउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण तम्हि भागे हिदे बादरतेउपजत्तरासी होदि । घणाघणे वत्तइस्सामो । पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियं गुणिय तेण पदरावलियघणपढमवग्गमूलं गुणिय पदरावलियघणाघणपढमवग्गमूले भागे हिदे बादर
आती हैं। प्रतरावलोके तृतीय भागका प्रतरावलीके उपरिम वर्गमें भाग देने पर तीन प्रतरावलियां लब्ध आती हैं। इसीप्रकार नीचे जाकर आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीको खंडित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरावलोके उपरिम वर्गमें भाग देने पर असंख्यात प्रतरावलियां लब्ध आती हैं। इसप्रकार कारणका कथन समाप्त हुआ। प्रतरावलीके असख्यातवें भागसे प्रतरावलीके भाजित करने पर वहां जितना प्रमाण लब्ध आवे तत्प्रमाण प्रतरावलियां बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। इसप्रकार निरुक्तिका कथन समाप्त हुआ।
विकल्प दो प्रकारका है, अधस्तन विकल्प और उपरिम विकल्प । उनमेंसे द्विरूपमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं-प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे उसी प्रतरावलीको गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवराशि होती है।
अब अष्टरूपमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं। प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरावलीके घनके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-प्रतराव से प्रतरावलीके घनके भाजित करने पर प्रतरावलीका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे उसी प्रतरावलीके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है।
अब घनाघनमें अधस्तन विकल्पको बतलाते हैं-प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरावलीके घनके प्रथम वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरावलीके घनाघनके प्रथम वर्गमूलमें भाग देने पर बादर
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१, २, ९१.] दव्यपमाणाणुगमे पुढयिकाइयादिपमाणपरूवणं [३५१ तेउपज्जत्तरासी होदि । तं जहा- पदरावलियघणपढमवग्गमूलेण घणाघणपढमवग्गमूले भागे हिदे पदरावलियघणो आगच्छदि । पुणे। पदरावलियाए पदरावलियघणे भागे हिदे पदरावलियउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरावलियाए असंखेज्जदिभागेण तम्हि भागे हिदे बादरतेउपज्जत्तरासी आगच्छदि।
उवरिमवियप्पो तिविहो गहिदादिभेएण। वेरूवे गहिदं वत्तइस्सामो। पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियउवरिमवग्गे भागे हिदे बादरतेउपज्जत्तरासी होदि। अहवा पदरावलियाए असंखेञ्जदिभाएण पदरावलियउवरिमवग्गं गुणेऊण तदुवरिमवग्गे भागे हिदे बादरतेउपज्जत्तरासी होदि । ( एवमागच्छदि त्ति कट्ट गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि बादरतेउकाइयपज्जत्तरासी आगच्छदि।) अट्ठरूवे वत्तइस्सामो । पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण घणावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे बादरतेउपज्जत्तरासी होदि । तं जहा- पदरावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गेण घणावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पदरावलियउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि पदरावलियाए असंखेजदिभाएण तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-प्रतरावलीके घनके प्रथम वर्गमूलसे प्रतरावलीके घनाघनके प्रथम वर्गमूलके भाजित करने पर प्रतरावलीका घन आता है। पुनःप्रतरावलीसे प्रतरावलीके घनके भाजित करने पर प्रतरावलीका उपरिम वर्ग आता है । पुनः प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे उसी प्रतरावलीके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है।
. गृहीत आदिके भेदसे उपरिम विकल्प तीन प्रकारका है। उनमेंसे द्विरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। अथवा, प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका प्रतरावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। इसप्रकार भी बादर तेजस्कायक पर्याप्त राशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है।
___अब अष्टरूपमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं- प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आये उसका
वलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि होती है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- प्रतरावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गसे घनावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गके भाजित करने पर प्रतरावलीका उपरिम वर्ग आता
१ प्रतिषु 'त्ति गुणेऊण मागग्गहणं कदं ' इत्यधिकः पाठः ।
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३५४ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, ९१.
पदरावलियउवरिमवग्गे भागे हिदे: बादरते उपज्जत्तरासी आगच्छदि । एवमागच्छदिति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे बादरते उपज्जत्तरासी आगच्छदि । घणाघणे वत्तइस्लामो | पदरावलियाए असंखेजदिभागेण पदरावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण तेण पदरावलियघणउवरिमवग्गस्तुवरिमवग्गं गुणेऊण तेण गुणिदरामिणा घणाघणावलिय उवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे बादर उपज्जतरासी आगच्छदि । तं जहा - पदरावलियघण उवरिमवग्गस्तुवरिमवग्गेण घणाघणावलियउवरिमवग्गस्तुवरिमवग्गे भागे हिदे घणावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो विपदरावलियउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गेण तम्हि भागे हिदे पदरावलियवरमग्गो आगच्छदि । पुणो वि पदरावलियाए असंखेज्जदिभाएण पदरावलियउवरिमवग्गे भागे हिदे बादरते उपज्जत्तरासी आगच्छदि । एवमागच्छदिति कट्टु गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि बादरतेउपज्जत्तरासी आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । पदरावलिय उवरिमवग्गस्स घणावलियउवरिमवग्गस्स घणाघणा ( - वलियउवरिमवग्गस्स) च असंखेज्जदिहै । पुनः प्रतरावली के असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है । इसप्रकार बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। उक्त भागद्दारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है ।
अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं—- प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावली के उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरावलीके घनके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो गुणित राशि लब्ध आवे उससे घनाघनावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- प्रतरावलीके घनके उपरिम वर्ग के उपरिम वर्गसे घनाघनावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गके भाजित करने पर घनावलीके उपरिम वर्गका उपरिम वर्ग आता है। फिर भी प्रतरावलीके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गसे घनालीके उपरम वर्गके उपरिम वर्गके भाजित करने पर प्रतरावलीका उपरिम वर्ग आता है । फिर भी प्रतरावलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलीके उपरिम वर्गके भाजित करने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है । इसप्रकार बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशि आती है । इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानों में ले जाना चाहिये । प्रतरावलीके उपरिम वर्ग के असंख्यातवें भागरूप, घनावलीके उपरिम वर्गके
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१, २, ९४.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं भाएण बादरतेउपज्जत्तरासिणा गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च वत्तव्यो। एत्थ सुत्तगाहा
(आवलियाए वग्गो आवलियासंखभागगुणिदो दु ।
ताहा घणस्स अंतो बादरपज्जत्ततेऊणं ।। ७७ ॥) बादरवाउकाइयपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा॥९२॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो । असंखेजा इदि सामण्णवयणेण णवविहासंखेजस्स गहणे पत्ते अणिच्छिदासंखेज्जपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तमाह
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि--उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ९३॥
एदस्स वि सुत्तस्स अत्यो णिक्खेवादीहि पुवं व परूवेदब्यो । एदम्हादो सुत्तादो सेसअट्टविहअसंखेज्जस्स पडिसेहे जादे वि अजहण्णाणुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ घणलोगादिभेएण अणेयवियप्पाओ तदो तप्पडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण असंखेज्जाणि जगपदराणि लोगस्स संखेजदिभागों ॥१४॥ असंख्यातवें भागरूप और घनाघनावलीके उपरिम वर्गके असंख्यातवें भागरूप बादर तेज स्कायिक पर्याप्त राशिके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन करना चाहिये। यहां सूत्रगाथा दी जाती है
चूंकि आवलीके असंण्यातवें भागसे आवलीके वर्गको गुणित कर देने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिका प्रमाण होता है, इसलिये वह प्रमाण घमावलीके भीतर है ॥ ७७ ॥
बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥९२ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है। सूत्र में ' असंख्यात हैं' ऐसा सामान्य वचन देनेसे नौ प्रकारके असंख्यातोंका ग्रहण प्राप्त होने पर अनिच्छित असंख्यातोंका प्रतिषेध करनेके लिये मागेका सूत्र कहते हैं
___कालकी अपेक्षा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवससर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ९३ ॥
निक्षेप आदिके द्वारा इस सूत्रके भी अर्थका पहलेके समान प्ररूपण करना चाहिये। इस सूत्रसे शेष आठ प्रकारके असंख्यातोंके प्रतिषेध हो जाने पर भी अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियां और उत्सर्पिणियां घनलोक आदिके भेदसे अनेक प्रकारकी हैं, इसलिये उनका प्रतिषेध करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव असंख्यात जगप्रतरप्रमाण हैं, १४ लोगाणं x संखं xx वाऊणं। पज्जताण पमाणं | गो.जी. २१० वाऊ य लोगसंखं । पश्चसं.२,११
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ९५. .. असंखेजाणि ति णिदेसो जगपदरादिहेडिमअसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहफलो । घणलोगादिउवरिमसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहटुं लोगस्स संखेजदिभागवयणं । खेत्तेण इदि वयणे तइया दहव्वा । सेसं सुगमं । संखेज्जरूवेहि घणलोगे भागे हिदे बादरवाउपज्जत्तदव्वमागच्छदि त्ति वुत्तं होदि । एत्थ गाहा
( जगसेढीए वग्गो जगसेढीसंखभागगुणिदो दु ।
"तम्हा घणलोगंतो बादरपज्जत्तवाऊणं ॥ ७८ ॥ वणफइकाइया णिगोदजीवा बादरा सुहुमा पज्जत्तापज्जत्ता दव्वपमाणेण केवाडया, अणंता ॥ ९५॥ ..
वनस्पतिः कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पति
जो असंख्यात जगप्रतरप्रमाण लोकके संख्यातवें भाग है ॥ ९४ ॥
सूत्रमें 'असंख्यात' यह वचन जगप्रतर आदि अधस्तन असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधके लिये दिया है। घनलोक आदि उपरिम असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेध करनेके लिये 'लोकके संख्यातवें भागप्रमाण' यह बचन दिया है। 'खेत्तेण' इस पदमें तृतीया विभक्ति जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है। संख्यातसे घनलोकके भाजित करने पर बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका द्रव्य आता है, यह इस कथनका तात्पर्य है। यहां गाथा दी जाती है
चूंकि जगश्रेणीके वर्गको जगश्रेणीके संख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि आती है । इसलिये उक्त प्रमाण घनलोकके भीतर आता है ॥ ७८॥
वनस्पतिकायिक जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकायिक बादर जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त जीब, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर जीव, निगोद सूक्ष्म जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, प्रत्येक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ ९५ ॥
वनस्पति ही काय अर्थात् शरीर जिन जीवोंके होता है वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं।
१ तसरासिपुढविआदिचउक्कपत्तेयहीणसंसारी । साहारणजीवाणं परिमाणं होदि जिणदिह ॥ सगसगअसंखमागो बादरकायाण होदि परिमाणं । सेसा सहुमपमाणं पडिभागो पुरणिहिट्ठो। सहमेसु संखभाग संखामांगा अपण्णगा इदरा। जस्सि अपुण्णद्धादो पुणद्धा संखगुणिदकमा ॥ गो जी. २०६-२०८. साहारणबादरे असंख भाग असंखगा मागा। पुण्णाणमपुण्णाणं परिमाणं होदि अणुकमसो॥ गो. जी. २११. साहारणाण भेया चउरो अणंता । पञ्चसं. २,९.
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१, २, ९५.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
[३५७ कायिकाः । एवं सदि विग्गहगईए वट्टमाणाणं वण फइकाइयत्तं ण पावेदि ? चे, ण एस दोसो, वणप्फइकाइयसंबंधेण सुह-दुक्खाणुहवणणिमित्तकम्मेणेयत्तमुवगयजीवाणमुवयारेण वणप्फइकाइयत्ताविरोहा । वणप्फइणामकम्मोदया जीवा विग्गहगईए वट्टमाणा वि वणप्फइकाइया भवंति । जेसिमणंताणंतजीवाणमेक्कं चैव सरीरं भवदि साधारणरूवेण ते णिगोदजीवा भणंति । संखेज्जासंखेज्जपडिसेहफलो अणंतणिदेसो । सेसं सुगमं । अणंता इदि सामण्णवयणेण णवविहस्स अणंतस्स गहणे पत्ते अविवक्खिदस्स अट्टविहाणंतस्स पडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
तथा वनस्पतिकाय ही वनस्पतिकायिक कहलाते हैं।
शंका-यदि ऐसा है तो विग्रहगतिमें विद्यमान जीवोंको वनस्पतिकायिकपना नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वनस्पतिकायके संबन्धले सुख और दुःखके अनुभव करने में निमित्तभूत कर्मके साथ एकत्वको प्राप्त हुए जीवोंके उपचारसे विग्रहगतिमें वनस्पतिकायिक कहने में कोई विरोध नहीं आता है। जिन जीवोंके वनस्पति नामकर्म का उदय पाया जाता है वे विग्रहगतिमें रहते हुए भी वनस्पतिकायिक कहे जाते हैं।
विशेषार्थ-यहां पर शंकाकारका यह अभिप्राय है कि जो जीव विग्रहगतिमें रहते हैं उनके एक, दो या तीन समयतक नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण नहीं होता है, इसलिये उन्हें उस समय वनस्पतिकायिक आदि नहीं कह सकते हैं । इस शंकाका समाधान यह है कि विग्रहगतिके प्रथम समयसे ही जीवोंके स्थावरकाय या त्रसकाय नामकर्मका उदय हो जाता है। स्थावरकायके पृथिवीकायिक आदि पांच अवान्तर भेद हैं और सामान्य अपने विशेषोंको छोड़कर स्वतंत्र नहीं पाया जाता है, इसलिये पृथिवी जीवके पृथिवीकाय, वनस्पति जीवके वनस्पतिकाय नामकर्मका उदय विग्रहगतिके प्रथम समयसे ही हो जाता है, यह सिद्ध हुआ। अब यदि एक, दो या तीन समयतक उसके नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण नहीं भी होता है, तो भी वह जीव उस उस पर्यायमें सुख और दुःखके अनुभव करनेमें निमित्तभूत कर्मों के साथ एकत्वको प्राप्त हो चुका है, इसलिये उसे उपचारसे वनस्पतिकायिक आदि कहना विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
जिन अनन्तानन्त जीवोंका साधारणरूपसे एक ही शरीर होता है उन्हें निगोद जीव कहते हैं। सूत्रमें संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध करने के लिये 'अनन्त' पदका निर्देश किया हैं । शेष कथन सुगम है। सूत्र में 'अनन्त है ' ऐसा सामान्य वचन देनेसे नौ प्रकारके अनन्तोंके ग्रहणके प्राप्त होने पर अविवक्षित आठ प्रकारके अनम्तों के प्रतिषेध करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- .
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३५८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ९६. अणताणताहि ओसाप्पणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंत कालेण ॥९६॥
____ जदि पुवरासीणमणंताणंतत्तावबोहणट्ठमागदमिदं सुत्तं, तो ण अवहिरंति कालेणेत्ति वयणं णिरत्थयमिदि चे, ण एस दोसो, उभयकज्जसाहणद्वत्तादो । पुव्वरासीणमणंताणंतत्तं च सते वि वए अणतेण वि अदीदकालेण असमत्तिं च पदुप्पादेदि त्ति । अवसेसं सुगम ।
खेत्तेण अणंताणंता लोगा॥९७ ॥
अदीदकाले ओसप्पिणि उस्सपिणीपमाणेण कीरमाणे ण अणंताणंताओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ भवति । एदाहि अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्मप्पिणीहि पुव्वुत्तचोदसजीवरासीओ ण अवहिरति ति भणंतेण पुबिल्लसुत्तेण एदाणं रासीणमणताणतत्तमदीदकालादो बहुत्तं च जाणाविदं । संपहि इमेण सुत्तेण को अपुचो अत्थो जाणाविदो जेणेदस्स सुत्तस्स पारंभो सफलो होज्ज ? वुच्चदे- एदाणं रासीणमदीदकालादो बहुत्तमेत्तं पुबिल्लसुत्तेण जाणाविदं, ण तस्स विसेसो । एदेण पुण सुत्तेण तेसिं रासीणमदीदकालादो अणंत
कालकी अपेक्षा पूर्वोक्त चौदह जीवराशियां अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होती हैं । ९६ ॥
शंका- यदि पूर्वोक्त जीवराशियोंके अनन्तानन्तत्वके ज्ञान करानेके लिये यह सूत्र आया है तो ‘ण अवहिरति कालेण' यह वचन निरर्थक है ?
. समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उभय कार्योंके साधन करनेके लिये उक्त वचन दिया है । उक्त पद एक तो पूर्वोक्त राशियोंके अनन्तानन्तत्वका और दूसरे उनमें से प्रत्येक राशिके व्यय होने पर भी अनन्त अतीत कालके द्वारा भी वे समाप्त नहीं होती हैं, इसका प्रतिपादन करता है । शेष कथन सुगम है।
वे चौदह जीवराशियां क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ९७ ॥
शंका- अतीत कालको अघसर्पिणी और उत्सर्पिणीके प्रमाणसे करने पर वे अवसपिणियां और उत्सर्पिणियां अनन्तानन्त नहीं होती हैं, ऐसी अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा प्रर्वोक्त चौदह जीवराशियां अपहृत नहीं होती हैं, इसप्रकार प्रतिपादन करनेवाले इसके पहले सूत्रसे इन चौदह राशियोंके अनन्तानन्तत्वका और अतीतकालसे बहुत्यका शान हो जाता है। परंतु इस समय कहे गये इस सूत्रसे कौनसा अपूर्व अर्थ जाना जाता है, जिससे इस सूत्रका प्रारंभ सफल होवे ?
. समाधान-पूर्व अतीत सूत्रने इन चौदह राशियोंका अतीत कालसे बहुत्वका ज्ञान करा दिया, किन्तु उसकी विशेषताका शान नहीं कराया। परंतु यह सूत्र उन राशियोंका अतीत कालसे अनन्तगुणस्वका ज्ञान कराता है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं-पूर्व सूत्रमें
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१, २, ९७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [ ३५९ गुणत्तं जाणाविजदे। तं जहा-पुबिल्लसुत्ते गुणिज्जमाणरासी कप्पो, एत्थ पुण तदो असंखेज्जगुणो लोगो त्ति वुत्तो । कप्पम गुणगाररासीदो घणलोगगुणगारो अणंतगुणो । कुदो ? एदस्स सुत्तस्स अवयवभूदसोलसवडियअप्पाबहुगवयणादो जाणिजदे । तम्हा सफलो एस सुत्तारंभो त्ति घेत्तव्यं ।
__ संपहि एत्थ धुवरासी उप्पाइज्जदे । तं जहा- पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइय-तसकाइए अकाइए च, एदेसिं चेव पमाणं वग्गं वणप्फइयकाइयभाजिदं च सव्वजीवरासिम्हि पक्खित्ते वणप्फइकाइयधुवरासी होदि । वणप्फइकाइयवदिरित्तसेसरासिणा' सधजीवरासिमोवहिय लद्धरूवृणेण भजिदसव्यजीवरासिं तम्हि चेव पक्खित्ते वणप्फइकाइयधुवरासी होदि त्ति वुत्तं भवदि । एदेण धुवरसिणा सव्वजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे वणप्फइकाइयरासी आगच्छदि । वणप्फइकाइयधुवरासिमसंखेचलोगेण खंडिदेयखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते सुहुमवणप्फइकाइयधुवरासी होदि । एदेण पुवुत्तअसंखेजलोगवणप्फदिकाइयधुवरसिभागहारेण रूवाहिएण वणप्फइकाइयधुवरासिं गुणिदे बादरवणप्फइकाइयधुवरासी
गुण्यमान राशि कल्प कही गई है, परंतु इस सूत्रमें कल्पसे असंख्यातगुणा लोक गुण्यमान राशि कहा गया है । तथा कल्पकी गुणकार राशिसे घनलोकका गुणकार अनन्तगुणा है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - इस सूत्रके अवयवभूत सोलहप्रतिक अल्पबहुत्वके वचनसे यह जाना जाता है।
इसलिये इस सूत्रका आरंभ सफल है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये।
अब यहां ध्रुवराशि उत्पन्न की जाती है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, त्रसकायिक और अकायिक, इन जीवराशियोंके प्रमाणको तथा वनस्पतिकायिक जीवराशिके प्रमाणसे भाजित उक्त राशियों के प्रमाणके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशि होती है । वनस्पतिकायिक जीवराशिको छोड़कर शेष राशिके द्वारा सर्व जीवराशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे सर्व जीवराशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सर्व जीवराशिमें मिला देने पर वनस्पतिकायिक जीवराशिकी ध्रुवराशि होती है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस ध्रुवराशिसे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर वनस्पतिकायिक जीवराशि आती है। वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे उसे उसी वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिमें मिला देने पर सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवराशिकी ध्रुवराशि होती है। ऊपर जो असंख्यात लोकप्रमाण वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिका भागहार कह आये हैं उसमें एक मिला कर जो प्रमाण हो उससे वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशि होती है । पुन:
१ प्रतिषु 'सेसरासी' इति पाठः ।
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३६० ]
छक्खंड | गमे जीवाणं
[ १, २, ९८.
होदि । पुणो सुमवण फइअपज्जत्तरासिणा' सुहुमवण फइकाइयरासिम्हि भागे हिदे तत्थ जं लद्धं तं दुप्पडिरासि काऊण तत्थेगेण सुहुमवण फइकाइयधुवरासिं गुणिदे सुहुमवणफदिकाइयअपज्जत्तधुवरासी होदि । पुणो पुधट्ठवियपुव्विलसं खेज्जरूवेहि रूवृणेहि सुहुमवफादिकाइयधुवरासिंखंडिय तत्थेयखंड तम्हि चेव पक्खित्ते सुहुमवणप्फइकाइयपञ्जत्तध्रुवरासी होदि । बादरवणप्फइकाइयपज्जत्तएहि बादरवण फइकाइय सिम्हि भागे हिदे लद्धं असंखेज्जलोगं दुप्पडिरासिं काऊण तत्थेगेण बादरवणप्फइकाइयधुवरासिं गुणिदे बादरवण फइकाइयपज्जत्तधुवरासी होदि । पुध वियरासिणा रूवूणेण बादरवणप्फइकाइयध्रुवरासं खंडिय तत्थेगखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते बादरवणप्फइकाइय अपजत्तधुवरासी होदि । एवं चेव णिगोदाणं पि धुवरासी उप्पादेदव्वो । वरि पत्तेयसरीरेहि सह सत्त पक्खेवरासीओ भवति । सेसविहीणं वणष्फइकाइयभंगो ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेना ॥ ९८ ॥
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवराशिसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवराशिके भाजित करने पर वहां जो लब्ध आवे उसकी दो प्रतिराशियां करके उनमें से एक प्रतिराशिके द्वारा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके गुणित करने पर सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । पुनः पृथक् स्थापित पूर्वोक्त प्रतिराशिके संख्यात प्रमाणमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके खंडित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे उसी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिमें मिला देने पर सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त राशिके प्रमाणसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त राशिके भाजित करने पर जो असंख्यात लोक लब्ध आवें उनकी दो प्रतिराशियां करके उनमेंसे एक प्रतिराशिसे बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवराशिकी ध्रुवराशि होती है । पुनः पृथक् स्थापित प्रतिराशिमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिको खंडित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे उसी बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिमें मिला देने पर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । इसीप्रकार निगोद जीवोंकी भी ध्रुवराशि उत्पन्न कर लेना चाहिये । इतना विशेष है कि प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिकों के साथ सात प्रक्षेपराशियां होती हैं। शेष विधि वनस्पतिकायिकके कथन के समान है
कायिक और कायिक पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ९८ ॥
१ प्रतिषु ' अपज्जतरासि' इति पाठः ।
२
कायिकसंख्या पश्चेन्द्रियवत् । स. सि. १, ८.
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१, २, १००.] दव्वपमाणाणुगमे तसकाइयपमाणपरूवणं
[३६१ एदस्त सुत्तस्स अत्थो असई परूविदो ति ण वुच्चदे । असंखेजा इदि सामण्णवयणेण णवण्हमसंखेजाणं गहणे संपत्ते अविवक्खिदे अवणिय विवक्खियपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। ___ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ९९ ॥
एदस्स वि अत्था बहुसो उत्तो त्ति ण उच्चदे । तं च असंखेज्जासंखेज्जयमणेयवियप्पमिदि तस्स विसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
खेत्तेण तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभागेण अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ १०॥
एदेण सुत्तेण जगपदरादो जगसेढीदो च उवरिम-हेट्ठिमसंखेज्जवियप्पा अवणिदा भवति। 'अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभागेण' इमेण वयणेण जगपदरस्स अंतब्भूद
इस सूत्रका अर्थ कईवार कह चुके हैं, इसलिये यहां नहीं कहते हैं। सूत्रमें असं. ख्यात हैं' इस सामान्य वचनके देनेसे नौ ही प्रकारके असंख्यातोंके ग्रहणके प्राप्त होने पर अविवाक्षित असंख्यातोंका अपनयन करके विवक्षित असंख्यातके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
__कालकी अपेक्षा त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ९९ ॥
इस सूत्रका भी अर्थ अनेकवार कहा जा चुका है, इसलिये नहीं कहते हैं। वह असंख्यातासंख्यात अनेक प्रकारका है, इसलिये उसके विशेषके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
क्षेत्रकी अपेक्षा त्रसकायिकोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और त्रसकायिक पर्याप्तोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंके द्वारा सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥१०॥
इस सूत्रसे जगप्रतर और जगश्रेणीसे ऊपर और नीचेके असंख्यात विकल्प अपनीत होते हैं। 'अंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे' इस वचनसे जगप्रतरके अन्तर्भूत
१ प्रतिषु ' असंखेज्जदिभागवणप्फदिमागेण ' इति पाठः । २ प्रतिषु · असंखेज्जदिमागपडिभागेण ' इति पाठः ।
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१९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १०१. सेसघियप्पा पडिसिद्धा ति दट्ठव्या । जगपदर कदजुम्मं वग्गसमुट्ठिदं पदरंगुलं पि कदजुम्म वग्गसमुट्टिदं चेव । तेसिं विदसवभागहारा वि वग्गसमुट्टिदा कदजुम्मं चेदि जाणावण?मंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गवयणं । अण्णहा तस्स फलाणुवलंभादो। पदरंगुलस्स असंखेदिभाएण पदरंगुलस्स संखेजदिभागेण च जगपदरे भागे हिदे जहाकमेण तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता च भवंति त्ति वुत्तं भवदि ।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥१०॥
एत्थ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ता इदि पुवसुत्तादो अणुवट्टदे । कुदो ? उवरि पुध अपज्जत्तसुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो। सेसं सुगमं । । तसकाइयअपज्जत्ता पंचिंदियअपज्जत्ताण भंगो ॥ १०२ ॥ शेष विकल्प प्रतिषिद्ध हो जाते हैं, ऐसा समझना चाहिये । जगप्रतर कृतयुग्म संख्यारूप और वर्गसमुत्थित है। प्रतरांगुल भी कृतयुग्म संख्यारूप और वर्गसमुत्थित है। उसीप्रकार उनके स्थापित भागहार भी वर्गसमुत्थित और कृतयुग्मरूप हैं, इसका ज्ञान करानेके लिये 'अंगुलके असंख्यातवें भागका वर्ग' यह वचन दिया, अन्यथा उसकी दूसरी कोई सफलता नहीं पाई जाती है। प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागसे और प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे जगप्रतरके भाजित करने पर यथाक्रमसे त्रसकायिक और प्रसकायिक पर्याप्त जीव होते हैं, यह इस सूत्रका अभिप्राय है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥१.१॥
इस सूत्रमें 'सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त' इस वचनकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है, क्योंकि, आगेके लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके प्रमाणके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका आरंभ पृथकरूपसे अन्यथा बन नहीं सकता था। शेष कथन सुगम है। - विशेषार्थ-चूंकि आगे सकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके प्रमाणका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र पृथक्प से रचा गया है, इससे प्रतीत होता है कि पूर्वोत्त सूत्रमें 'सकायिक और प्रसकायिक पर्याप्त' पदकी अनुवृत्ति अपने पूर्ववर्ती सूत्रसे हुई है। इस कथनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि सामान्य त्रसकायिक जीवोंमें लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका अन्तर्भाव हो जाता है फिर भी लब्ध्यपर्याप्तक जीव गुणस्थानप्रतिपन्न नहीं होते हैं, अर्थात् मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। अतएव इस विषयका ज्ञान करानेके लिये त्रसकायिकोंके प्रमाणके अनन्तर बीचमें सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका प्रमाण कह कर अनन्तर लब्ध्यपर्याप्त त्रसकायिकोंका प्रमाण कहा ।
त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका प्रमाण पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके प्रमाणके समान है ॥ १०२॥
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाभागाभागपरूवणं
वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्तजीवे एगढे कदे तसकाइयअपजत्ता हवंति । कधं तेसिं परूवणा पंचिंदियअपज्जत्तपरूवणाए समाणा भवदि ? ण एस दोसो, उभयत्थ पदरंगुलस्स असंखेजदिभागं भागहारं पेक्खिऊण तहोवएसादो। अत्थदो पुणो तेसि विसेसो गणहरेहि वि ण वारिजदे।
भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिं संखेजखंडे कए बहुखंडा सुहुमणिगोदजीवपज्जत्ता होति । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा सुहुमणिगोदअपज्जत्ता होति । सेसमसंखेज्जखंडे कर बहुखंडा बादरणिगोदअपज्जत्ता होति । सेसं अणतखंडे कए बहुखंडा बादरणिगोदपज्जत्ता होति । सेसे अणंतखंडे कए बहुखंडा अकाइया हति । सेसरासीदो असंखेज्जलोगपमाणमवणेऊण पुध ठविय पुणो सेसरासिमसंखेज्जलोएण खंडिय एयखंडमवणेऊण तं पि पुध ठविय पुणो सेसरासिं चत्तारि समजे काऊग अवणिदएयखंडं असंखेज्जलोगेण खंडिय तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते सुहुमवाउकाइया होति । सेसेगखंडमसंखेज्जलोगेण खंडिय तत्थ बहुखंडा
शंका-जब कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लम्ध्यपर्याप्तकों को एकत्र करने पर त्रसकायिक लध्यपर्याप्त जीव होते हैं, तब फिर बसकायिक लयपर्याप्त कोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तोंकी प्ररूपणाके समान कैसे हो सकती है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उभयत्र अर्थात् पंचेन्द्रिय लध्यपर्याप्तक और प्रसकायिक लम्ध्यपर्याप्तक, इन दोनोंका प्रमाण लानेके लिये प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागरूप भागहारको देखकर इस प्रकारका उपदेश दिया। अर्थकी अपेक्षा जो उन दोनोंकी प्ररूपणामें विशेष है उसका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते हैं।
___अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीघ हैं। शेष एक भागके असंण्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुमागप्रमाण सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण बादर निगोद अपर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण बादर निगोद पर्याप्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण अकायिक जीव हैं। शेष एक भागप्रमाण राशिमेंसे असंख्यात लोकप्रमाण राशिको निकालकर पृथक् स्थापित करके पुनः शेष राशिको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित करके जो एक खंड आवे उसे निकालकर और उसे भी पृथक् स्थापित करके पुन: जो शेष बहुभाग राशि है उसके चार समान पुंज करके निकाले हुए पृथक् स्थापित एक खंडको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित करके उनमेंसे बहुभागोंको प्रथम पुंजमें मिला देने पर सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंका प्रमाण होता है । शेष एक खंडको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित
१ प्रतिषु · अपज्जत्तजीवेहितो' इति पाठः ।
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३६४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १०२.
विदियपुंजे पक्खिते सुहुमआउकाइया होंति । सेसेयखंड मसंखेज्जलोएण खंडिय बहुखंडा तदियपुंजे पक्खित्ते हुमपुढविकाइया होंति । सेसेयखंडं चउत्थपुंजे पक्खित्ते हुमउकाइया होंति । सग-सगरासिं संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडा अप्पप्पणो पज्जता होंति । एयखंडं तेसिमपज्जत्ता' । पुव्वमवणिदमसंखेज्जलोग सिमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा बादरवाउअपज्जत्ता होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा बादरआउकाइय अपज्जत्ता होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा बादरपुढविअपज्जत्ता होंति । सेसमसंखेज्जखंडे क बहुखंडा बादरणिगोदपदिट्टिदा अपज्जत्ता होंति । से समसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा बादरवणफदिकाइयअपज्जत्ता होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा बादरते उकाइयअपज्जत्ता होंति । सेसमसंखेञ्जखंडे कए बहुखंडा बादरवाउकाइयपज्जत्ता होंति । बादरआउकाइयबादरपुढविकाइय- बादरणिगोदपदिदि-बादरवणप्फइपत्तेगसरीर पज्जत्तागमेवं चैव णेयव्वं । तदो सेसे असंखेज्जखंडे कए बहुखंडा तसकाइयअपज्जत्ता' होंति । सेसमसंखेज खंडे
करके उनमें से बहुभागको दूसरे पुंजमें मिला देने पर सूक्ष्म अष्कायिक जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः शेष एक भागको असंख्यात लोकप्रमाणसे खंडित करके उनमेंसे बहुभागको तीसरे पुंजमें मिला देने पर सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः शेष एक खंडको चौथे पुंज में मिला देने पर सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवोंका प्रमाण होता है। इन चारों राशियों में से अपनी अपनी राशिके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण अपने अपने पर्याप्त जीवों का प्रमाण होता है और एक भागप्रमाण उन उनके अपर्याप्त जीव होते हैं । पुनः पहले निकाल कर पृथक् स्थापित की हुई असंख्यात लोकप्रमाण राशिके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण वादर वायुकायिक अपर्याप्त जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादर अकायिक अपर्याप्त जीव होते हैं। शेष एक भाग असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादर निगोदप्रतिष्ठित वनस्पति अपर्याप्त जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव होते हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादरवायुकायिक पर्याप्त जीव होते हैं। आगे बादर अष्कायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर निगोदप्रतिष्ठित और बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवों का भागाभाग इसीप्रकार ले जाना चाहिये | चादर प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके प्रमाणके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके
१ गो. जी. २०७.
२ प्रतिषु ' बादरणिगोदकाइया ' इति पाठः ।
३ अप्रतौ 'तसकाइ असंजदा '; आ प्रतौ 'तसकाइयअसंखेज्जा'; क प्रप्तौ 'तसकाश्यअसं.' इति पाठः ।
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१,२, १०२. ]
दव्यमाणागमे कायमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ३६५
कए बहुखंडा तसकाइयपज्जत्तमिच्छाइट्ठी होंति । सेसे असंखेज्जखंडे कए बहुखंडा असंजदसग्माइट्टिणो होंति । एवं णेयव्वं जाव संजदासजदा ति । सेसे असंखेज्ज - खंडे कए बहुखंडा बादरते उकाइयपज्जत्ता होंति । सेसे संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पमत्त संजदा होंति । एवं यव्वं जाव अजोगिकेवलि त्ति ।
अप्पा बहुगं तिविहं, सत्थाणं परत्थाणं सव्वपरत्थाणं चेदि । सत्थाणे पयदं । सव्वत्थ वा बादरपुढविकाइयपज्जत्ता । तेसिमपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । बादरपुढविकाइया विसेसाहिया । सव्वत्थोवा सुहुमपुढविकाइय अपज्जत्ता । सिं पज्जत्ता संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया । सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया । एवं आउकाइय- ते उकाइय-वाउकाइयाणं च सत्थाणं वत्तव्यं । सव्वत्थोवा बादरवण फइकाइयपज्जत्ता । तेसिमपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ! असंखेजा लोगा । बादरवण फइकाइया विसेसाहिया । सव्वत्थोवा सुहुमवण फइकाइयअपज्जत्ता । तेसिं
असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण त्रसकायिक अपर्याप्त जीव होते हैं । शेष एक भाग असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण त्रसकायिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण असंयत सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं । इसीप्रकार संयतासंयताका प्रमाण आने तक भागा - भागका कथन ले जाना चाहिये । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव हैं। शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण प्रमत्तसंयत जीव हैं । इसीप्रकार अयोगिकेवलियों के प्रमाण आनेतक भागाभागका कथन करना चाहिये ।
अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुत्व, परस्थान अल्पबहुत्व और सर्व परस्थान अल्पबहुत्व । उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वमें प्रकृत विषयको बतलाते हैं— बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । बादर पृथिवीकायिक जीव बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तों से संख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। इसीप्रकार अकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तों से असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । बादर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पति कायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक
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३६६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,२, १०२.
पज्जत्ता संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेजा समया । सुहुमवण फइकाइया विसेसाहिया । सव्वत्थोवो तसकाइयअवहारकालो । विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । सेठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगअवहारकालो | दव्त्रमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई | पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगअवहारकालो। लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेठी | एवं बादरवप्फइपज्जत्त- पत्तेयसरीरपज्जत्त- बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत- बादरपुढविपजत्त- बादरआउपज्जत-तसकाइयपज्जत्तमिच्छाइट्ठि-तसकाइय अपजत्ताणं च वत्तव्यं । सासणादण मोघसत्थाणभंगो । एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।
परत्थापय । सव्वत्थोवा बादरपुढविकाइया । सुहुमपुढविकाइया असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । सव्वत्थ वा बादरपुढविकाइया । सुहुमपुढविकाइया असंखेज्जगुणा । को गुणगा। ? असंखेज्जा लोगा | पुढविकाइया विसेसाहिया । सव्वत्थोवा बादर पुढविपज्जत्ता । तस्सेव अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ! असंखेज्जा लोगा । हुम पुढविकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा ।
अपर्याप्तों से संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। त्रसकायिक जीवोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है । उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है । जगश्रेणी विष्कंभसूची से असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है ।
कायिक जीवोंका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है । जगप्रतर जसकायिक जीवोंके द्रव्यसे असंख्यात गुणा है | गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है । इसीप्रकार बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अष्कायिक पर्याप्त, त्रसकायिक पर्याप्त मिध्यादृष्टि और त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । काय मार्गणा में सासादनसम्यग्दृष्टि आदिका स्वस्थान अल्पबहुत्व सामान्य स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है । इसप्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- बादर पृथिवीकायिक जीव सबसे स्तोक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव बादर पृथिवीकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । अथवा, बादर पृथिवीकायिक जीव सबसे स्तोक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिकों से विशेष अधिक हैं। अथवा, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ! असंख्यात लोक गुणकार है । सूक्ष्म
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [३६७ सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा । एवं चउत्थो वियप्पो । णवरि पुढविकाइया विसेसाहिया । सव्वत्थोवा बादरपुढविकाइयपज्जत्ता। तेसिमपज्जत्ता । असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । बादरपुढविकाइया विसेसाहिया। सुहुमपुढविकाइयअपजत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ता संखेजगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। सुहमपुढविकाइया विसेसाहिया । एवं चेव छट्ठो वियप्पो । णवरि पुढविकाइया विसेसाहिया । सबथोवा बादरपुढविकाइयपज्जत्ता । तेसिमपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । बादरपुढविकाइया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरपुढविकाइयपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । पुढविकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । केसियमेत्तेण ? बादरपुढविकाइयअपज्जत्तमत्तेण । सुहुमपुढविकाइयपजत्ता सखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया। पुढविकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेतेण ? बादरपुढविकाइयपजनमत्तेण । सुहुमपुढविकाइया विसे साहिया । केत्तिय
पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार चौथा विकल्प है । इतनी विशेषता है कि पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । बादर पृथिवीकायिक जीव बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव बादर पृथिवीकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे है ।गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। सूक्ष्म प्रथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं । इसीप्रकार छठवां विकल्प है। इतनी विशेषता है कि पृथिवीकाधिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिकोंसे विशेष अधिक हैं। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है। असंख्यात लोक गुणकार है। बादर पृथिवीकायिक जीव बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्रसे विशेष अधिक है ? बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव बादर पृथिवीकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितने प्रमाणसे अधिक हैं ? बादर प्रथिवीकायिक अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण है उतने प्रमाणसे अधिक हैं। पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव प्रथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। कितने प्रमाणसे अधिक हैं ? बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तीका जितना प्रमाण है
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३६८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, १०२. मेत्तेण ? बादरपुढविकाइयपज्जत्तपरिहीणसुहुमपुढविकाइयअपजत्तमेत्तेण । एवं चेव अट्ठमो वियप्पो । णवरि पुढविकाइया विसेसाहिया । एगुत्तरवड्डिकमेण एत्तिया चेव अप्पाबहुगवियप्पा । अवहारकाल-विक्खंभसूई-सेढि-पदर-लोगे कमेण पवेसिय अप्पाबहुगे कीरमाणे वि वियप्पा लब्भंति त्ति ? ण, ताणं कमप्पवेसस्स कारणाभावा । पुढविकाइयरासिस्स संगहभेयपदुप्पायणटुं पुढविकाइयरासिस्स कमेण भेदो कीरदे । ण च अवहारकालादिसु कमेण पवेसिज्जमाणेसु पुढविकाइयरासी भिजदे । तदो एत्तिया चेव एगुत्तरवड्डिवियप्पा होति त्ति द्विदं । अंतिमवियप्पं वत्तइस्सामो। सव्वत्थोवो बादरपुढविकाइयपज्जत्तअवहारकालो। तस्सेव विक्खंभमई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूईए असंखेजदिभागो। को पडिभागो ? सगअवहारकालो । अहवा सेढीए असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो । अवहारकालवग्गो । सेढी असंखेज. गुणा । को गुणगारो ? अवहारकालो । दव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? विक्खंभसूई ।
उतने प्रमाणसे अधिक हैं । सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । कितने प्रमाणसे अधिक हैं ? बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंके प्रमाणसे हीन सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण रहे उतनेसे अधिक हैं। इसप्रकार आठवां विकल्प है। इतनी विशेषता है कि पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिकोंसे विशेष अधिक है। एकोत्तर वृद्धिके क्रमले अल्पबहुत्वके इतने ही विकल्प होते हैं।
शंका - अवहारकाल, विष्कंभसूची, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक इनको क्रमसे प्रविष्ट करके अल्पबहुत्व करने पर भी विकल्प प्राप्त होते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि, इन अवहारकाल आदिकके क्रमप्रवेशका कोई कारण नहीं है। संग्रहरूप पृथिवीकायिक राशि के भेदोंके प्रतिपादन करनेके लिये पृथिवीकायिक राशिका क्रमसे भेद किया है । परंतु अवहारकालादिकके क्रमसे प्रविश्यमान होने पर पृथिवीकायिक राशि भेदको प्राप्त नहीं होती है। इसलिये एकोत्तर वृद्धिके क्रमसे विकल्प इतने ही होते हैं, यह बात निश्चित हो जाती है।
___ अब अन्तिम विकल्पको बतलाते है- बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है । उन्हीं की विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूचीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? अपना अवहारकाल प्रतिभाग है। अथवा, जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है। जगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है। उन्हींका (बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंका) द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है । जगप्रतर
१ प्रतिपु · वज्जकमेण ' इति पाठः।
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [२६९ पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो । लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढी । बादरपुढविकाइयअपज्जत्तव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। बादरपुढविकाइया विसेसाहिया। सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्ता असंखेजगुणा। को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । पुढविकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ता संखेजगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जसमया। पुढविकाइयपजत्ता विसेसाहिया। सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया । पुढविकाइया विसेसाहिया । एवं चाउ-तेउ-वाउणं परत्थाणं जाणिऊण वत्तव्यं ।
यादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणी गुणकार है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य लोकसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। बादर पृथिवीकायिक जीव बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव बादर पृथिवीकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव पथिवीकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है । पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिकोंसे विशेष अधिक हैं । इसीप्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंके परस्थान अल्पबहुत्वका समझकर कथन करना चाहिये। पृथिवीकायिक जीवोंके एकोत्तर वृद्धिक्रमसे भेदोके अल्पबहुत्वके क्रमका बतलानेवाला कोष्ठक.
बा. पृ. बा. पृ. सू. पृ. सू. पृ.
| पृ. सा.
बा. पृ. प. | वा. पृ. प. | बा. पृ. प. | बा. पृ. प. | बा. पृ. प. बा. पृ. प. बा.पृ. अप.बा. पृ. अप. बा. पृ. अप. बा. पृ. अप. बा. पृ. | बा. पृ. अ. सू.पृ.अप. सू. पृ. अप. बा. पृ. बा. पृ.
बा. . सू. पृ. प. सू. पृ. प. सू. पृ. अप. सू. पृ.अप. सू. पृ.
स. प. अ. पृ. सा. सू. पृ. प. सू. पृ.
सू. पृ. सू. पृ.
..
१ प्रतिषु 'पिज्जत्त' इति पाठः।
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३७० छखंडागमे जीवहाणं
[१, २, १०२. संपहि वणप्फइपरत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। सव्वत्थोवा बादरवणप्फइकाइया । सुहुमवणप्फइकाइया असंखेज्जगुणा। एवं विदियं पि। णवरि वणप्फइकाइया विसेसाहिया । अहवा सवत्थोवा बादरवणप्फइकाइयपज्जत्ता। बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेजगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जलोगा। सुहुमवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जलोगा । सुहुमवणप्फइकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेजसमया । एवं चउत्थं पि । णवरि वणप्फइकाइया विसेसाहिया । अहवा सव्वत्थोवा बादरवणप्फइपज्जत्ता । बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । बादरवणप्फइकाइया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? असंखेजा लोगा। सुहुमवणप्फइकाइयपज्जत्ता संखेजगुणा । सुहुमवणफइकाइया विसेसाहिया । केत्तियमेतेण ? सुहुमवणप्फइकाइयअपज्जत्तमेत्तेण । एवं छठें पि । णवरि वणप्फइकाइया विसेसाहिया । अहवा सव्वत्थोवा धादरवणप्फइ
___ अब वनस्पतिकायिक जीवोंके परस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते है-बादर वनस्पतिकायिक जीव सबसे स्तोक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार दूसरा विकल्प भी है। इतनी विशेषता है कि वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंसे विशेष अधिक हैं। अथवा, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है? असंख्यात लोक गुणकार है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। इसीप्रकार चौथा विकल्प भी है। इतनी विशेषता है कि वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं । अथवा, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव
असंख्यातगणे हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवसूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक है। इसीप्रकार छठवां विकल्प भी है। इतनी विशेषता है कि वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे विशेष अधिक हैं। अथवा, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सबके स्तोक हैं । बादर
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१, २, १०२. ]
दवमाणागमे कायमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ३७१
काइयपज्जत्ता । बादरवण फइकाइयअपज्जता असंखेजगुणा । बादरवण फइकाइया विसेसाहिया । सुहुमवण फइकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । वणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेतेण ? बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमवणप्फदिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा । वणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणफहकाइयपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमवण फइकाइया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणफइकाइयपत्तविरहिद सुहुमवण फइकाइयअपजत्तमेत्तेण । एवमट्टमं पि । णवरि वणप्फइकाइया विसेसाहिया ।
वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव वादर वनस्पतिकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं । वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तों से विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं । वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । कितनेमात्र विशेषले अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तों का जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेष से अधिक है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंके प्रमाणसे रहित सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण रहे तन्मात्र विशेष से अधिक हैं । इसीप्रकार आठवां विकल्प भी है । इसमें इतनी विशेषता है कि वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों से विशेष अधिक हैं ।
वनस्पतिकायिक जीवोंके एकोत्तर वृद्धिक्रम से भेदोंके अल्पबहुत्वके क्रमका बतलानेवाला कोष्टक.
बा. व.
सू. व.
बा. व.
सू. व. व.
बा. व. प. बा. व. अ. सू. व. अ. सू. व. प.
बा. व. प. बा. व. अ सू. व. अ. सू. व. प.
व.
बा. व. प. बा. व. अ.
बा. व.
सू. व. अ.
सू. व. प.
सू. व.
बा. व. प. बा. व. अ. बा. व.
सू. व. अ.
सू. व. प.
सू. व. व.
बा. व. प. बा. व. अ. बा. व. सू. व. अ. व. अ.
सू. व. प.
व. प. सू. व.
बा. व. प. बा. व. अ.
बा.व. सू. व. अ.
व. अ. सू. व. प. व. प. सू. व. व.
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३७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १,२, १०२. : संपहि एदेसु णवपदेसु णिगोदछपदाणि पविसिय पण्णारसपदअप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। सव्वत्थोवा बादरणिगोदपज्जत्ता। बादरवणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तेण' पदरस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । उपरि अट्ठपदाणि पुव्वं व । अहवा सब्बत्थोवा बादरणिगोदपज्जत्ता । बादरवणप्फइकाइयपज्जता विसेसाहिया। बादरणिगोदअपज्जत्ता असंखेजगुणा । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरअपज्जत्तअसंखेज्जलोगमेत्तेण । उवरि सत्तपदाणि पुव्वं व । अहवा सव्वत्थोवा वादरणिगोदपज्जत्ता। बादरवणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया। बादरणिगोदअपजत्ता । असंखेजगुणा । बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । बादरणिगोदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? यादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरअपज्जत्तेणूणवादरणिगोदपज्जत्तमेतेण । बादरघणप्फइकाइया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरमेत्तेण । उवरि
___ अब इन पूर्वोक्त नौ स्थानों में निगोदसंबन्धी छह स्थानोंका प्रवेश कराके पन्द्रह स्थानों में अल्पबहुत्वको बतलाते हैं- बादरनिगोद पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव बादरनिगोद पर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, जो कि जगप्रतरके असंख्यातवें भाग हैं, तन्मात्र विशेषसे आधिक हैं। इसके ऊपर आठ स्थान पहलेके समान हैं। अथवा, बादरनिगोद पर्याप्त जीव सबसे स्तोक है । बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव उनसे विशेष अधिक हैं। बादरनिगोद अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादरनिगोद अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, जो कि असंख्यात लोकप्रमाण हैं, तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। इसके ऊपर सात स्थान पहलेके समान हैं। अथवा, बादरनिगोद पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव उनसे विशेष अधिक हैं। बादरनिगोद अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोसे असंख्यातगुणे हैं। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादरनिगोद अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । बादरनिगोद जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंके प्रमाणसे न्यून बादरनिगोद पर्याप्तोंका जितना प्रमाण हो तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । बादर वनस्पतिकायिक जीव वादरनिगोद जीवोंसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं छप्पदाणि पुव्वं व । अहवा सव्वत्थोवा बादरणिगोदपज्जत्ता । बादरवणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । बादरणिगोदअपज्जत्ता असंखेजगुगा । बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । बादरणिगोदा विसेसाहिया । बादरवणप्फइकाइया विसेसाहिया । सुहुमवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेजगुणा । णिगोदअपज्जत्ता विसेसाहिया। वणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? असंखेज्जलागमेत्तपत्तेयसरीरमेत्तेण । उवरि चत्तारि पदाणि पुवं व । अहवा सव्वत्थोवा बादरणिगोदपज्जत्ता । बादरवणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । बादरणिगोदअपज्जत्ता असंखेजगुणा । बादरवणप्फइकाइयअपञ्जत्ता विसेसाहिया। बादरणिगोदा विसेसाहिया। बादरवणप्फइकाइया विसेसाहिया। सुहुमवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा। णिगोदअपज्जत्ता विसेसाहिया । वणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । सुहुमवणप्फइकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा । णिगोदपज्जत्ता विसेसाहिया ।
विशेषसे अधिक हैं। इसके ऊपर छह स्थान पहलेके समान हैं। अथवा बादरनिगो पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव उनसे विशेष अधिक हैं। बादर निगोद अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोसे असंख्यात गुणे हैं। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादरनिगोद अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। बादरनिगोद जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव बादरनिगोद जीवोंसे विशेष अधिक है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिकोसे असंख्यातगुणे हैं। निगोद अपर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव निगोद अपर्याप्तोसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं। असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीर जीवोसे विशेष अधिक हैं। इसके ऊपर चार स्थान पहलेके समान हैं। अथवा, बादरनिगोद पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव बादरनिगोद पर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। बादरनिगोद अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे असंख्यातगुणे है। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादरनिगोद अपर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। बादरनिगोद जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। बादर वनस्पतिकायिक जीव बावर निगोदोंसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं। निगोद अपर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव निगोद अपर्याप्तोसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं। निगोड पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेषसे अधिक है। कितनेमात्र विशेष
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३७१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १०२. केत्तियमेत्तेण ? बादरणिगोदपज्जत्तमेत्तेण । वणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पत्तेयसरीरपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमवणप्फइकाइया विसेसाहिया। वणप्फइकाइया विसेसाहिया । अहवा सव्वत्थोवा बादरणिगोदपज्जत्ता। बादरवणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया। बादरणिगोदअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा। बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया। बादरणिगोदा विसेसाहिया । बादरवणप्फइकाइया विसेसाहिया। सुहुमवण फइकाइयअपज्जत्ता असंखेजगुणा । णिगोदअपज्जत्ता विसेसाहिया । वणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । सुहुमवणप्फइकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा । णिगोदपज्जत्ता विसेसाहिया । वणण्फइकाइयपज्जता विसेसाहिया। सुहुमवणप्फइकाइया विसेसहिया । णिगोदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरणिगोदमेत्तेण । वणप्फइकाइया विमेसहिया । केत्तियमेत्तेण? पत्तेयसरीरवणप्फइकाइयमेत्तेण ।
अधिक हैं ? बादर निगोद पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। घनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव निगोद पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव घनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे विशेष अधिक है। अथवा, बादर निगोद पर्याप्त जीव सबसे स्तोक हैं। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव इनसे विशेष अधिक हैं । बादर निगोद अपर्याप्त जीष बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे असंख्यातगुणे हैं । बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर निगोद अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। बादर निगोद जीव बादर घनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। बादर वनस्पतिकायिक जीव बादर निगोदोंसे विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीष बादर वनस्पतिकायिकोंसे असंख्यातगुणे हैं । निगोद अपर्याप्त जीव सूक्ष्म घनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। घनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव निगोद अपर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म धनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव वनस्पतिकायिक अपर्याप्तासे संख्यातगुणे हैं । निगोद पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव निगोद पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म घनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। निगोद जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे विशेष अधिक हैं। किसनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर निगोदोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। वनस्पतिकायिक जीव निगोद जीवोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे भधिक हैं ? प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिकोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं।
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
[३७५ संपहि बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्त-बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरअपज्जत्त-बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीर-चादरणिगोदपदिद्विदअपज्जत्तबादरणिगोदपदिद्विदा एदाणि छप्पदाणि पुचिल्लपण्णारसपदेसु पक्खेविय एकावीसपदअप्पाबहुगं वत्तइस्सामा । तं जहा- सव्वत्थो बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तदव्वं । बादरणिगोदपज्जत्तदव्वमणतगुणं । को गुणगारो ? सगरासिस्स असंखेजदि
बा. व. प.
पूर्वोक्त नौ राशियों में निगोदकी छह राशियां मिला देने पर अल्पबहुत्वके
क्रमको बतलानेवाला कोष्ठक. बा. नि. प. बा. नि. प. बा. नि. प. बा. नि. प. बा. नि. प. बा.नि. प. बा. व. प. बा. व. प. बा. व. प. बा. व. प.
बा. व. प. बा. व. अ. बा. नि. अ. बा. नि. अ. बा. नि. अ| बा.नि. अ. बा. नि. अ. बा. व. अ. बा. व. अ. बा. व. अ. बा. व. अ. बा. व. अ. बा. नि.
नि. बा. नि. बा.व.
सू.व. अ.
ལ ༧ བ ལ མ ལ མ མ
अब बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्त और बादर निगोदप्रतिष्ठित, इन छह स्थानोंको पूर्वोक्त पन्द्रह स्थानोंमें मिलाकर इक्कीस स्थानोंमें अल्पबहुत्वको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका द्रव्य सबसे स्तोक है। बादर निगोद पर्याप्तोंका द्रव्य उससे अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अपनी राशिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग
१ प्रतिषु बादरवणप्फह. पत्तेयसरीर- बादरवणप्फह. पत्तेयसरीर.' इति आधिकः पाठः ।
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३७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १०२. भागो । को पडिभागो ? पदरस्स असंखेजदिमागमेत्तपत्तयसरीरपज्जत्तदव्वं पडिभागो । उवरि चोद्दसपदाणि पुव्वं व । अहवा सबत्थावं बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जतदव्वं । यादरणिगोदपदिहिदपज्जत्तदव्बमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो' ? आवलियाए असंखेजदि. भागो। उकरि पण्णारस पदाणि पुव्वं व । अहवा सव्वत्थोवं बादरवण प्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जचदबं । बादरणिगोदपदिहिदपज्जत्तदव्क्मसंखेज्जगुणं । बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरअपज्जतदव्यमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। को पडिभागो ? पदरस्स असंखेजदिभागमेत्तवादरणिगोदपदिहिदपजत्तदव्वपडिभागों। बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पत्तेयसरीरपञ्जत्तमेत्तण । बादरणिगोदपज्जत्ता अणंतगुणा । को गुणगारो ? सगरासिस्त असंखेजदिभागो । को पडिभागो। असंखेज्जलोगमेत्तपत्तेयसरीरदव्बपडिभागो। उवरि चौदस पदाणि पुव्वं व । अहवा सव्वत्थोवं बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तदव्वं । बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । बादरवणप्फइ
.........................................
क्या है ? जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र प्रत्येकशरीर पर्याप्त द्रव्यप्रमाण प्रतिभाग है । इसके ऊपर चौदह स्थान पहलेके समान हैं। अथवा, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका द्रव्य सबसे स्तोक है। बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तीका द्रव्य इससे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इसके ऊपर पन्द्रह स्थान पहलेके समान हैं । अथवा, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका द्रव्य सबसे स्तोक है। बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंका द्रव्य उससे असंख्यातगुणा है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त द्रव्य प्रतिभाग है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक है। बादर निगोद पर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंसे अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अपनी राशिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीर द्रव्य प्रतिभाग है। इसके ऊपर चौदह स्थान पहलेके समान हैं । अथवा, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त द्रव्य सबसे स्तोक है। बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त द्रव्य इससे असंख्यातगुणा है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर
१ क-आप्रत्योः असंखेजा लोगा । को पडिभागो ? पदरस्स असंखेजदिभाव मेत्तवादरणिगोपदिछिदपज्जत्तदब्वं पडिभागो' इत्याधिकः पाठः।
२ आ-कप्रत्योः को गुणगारो......दब्वपडिमागो' इति पाठः नास्ति ।
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१, २, १०२. ]
दवमाणानुगमे कायमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ३७७
काइयपत्तेयसरीरअपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । बादरवणफइकाइयपत्तेयसरीरा विसेसाहिया । बादरणिगोदपदिदिअपज्जत्तदव्यमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । उवरि पणारस पदाणि पुव्वं व | अहवा सव्वत्थोवं बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तदव्वं । बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्तदव्वमसंखेजगुणं । बादरवणप्फइकाइयपत्तेय सरीरअपज्जतदव्यमसंखेज्जगुणं । बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरा विसेसाहिया । बादरणिगोदपदिट्ठिदअपज्जत्तदव्वं असंखेज्जगुणं । बादरणिगोदपदिट्ठिदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरणि गोदपदिट्ठिदपज्जत्तमेत्तेण । उवरिमपणारस पदाणि पुव्त्रं व ।
1
अपर्याप्त द्रव्य बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। बादर निगोद प्रतिष्ठित अपर्याप्त द्रव्य बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर द्रव्यसे असंख्यात - गुणा है | गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । इसके ऊपर पन्द्रह स्थान पहलेके समान हैं । अथवा, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त द्रव्य सबसे स्तोक है । बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त द्रव्य उससे असंख्यातगुणा है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त द्रव्य बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं । बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्त द्रव्य बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंसे असंख्यातगुणा है । बादर निगोदप्रतिष्ठित जीव बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं । कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेष से अधिक हैं । इसके ऊपर पन्द्रह स्थान पहले के समान हैं ।
विशेषार्थ- ऊपर दिये हुए तीन कोष्ठक और आगे दिये हुए निम्न कोष्ठकसे इस बातका ज्ञान अच्छे प्रकारसे हो जाता है कि प्रथम स्थानसे दूसरे में और तीसरे आदिसे चौथे आदिमें क्या अन्तर है । यद्यपि इन कोष्ठकों में परस्पर अल्पबहुत्वको विशेषता नहीं बतलाई है, तो भी इनसे अल्पबहुत्वका क्रम अवश्य ही समझमें आ जाता है । विशेषताका ज्ञान मूलसे किया जा सकता है । वनस्पतिके पहले कोष्ठक में नौ भेदोंकी मुख्यतासे, दूसरे में उन नौ भेदोंमें ६ और मिलाकर पन्द्रह भेदोंकी मुख्यतासे और निम्न तीसरे कोष्ठक में उपर्युक्त पद्रन्ह भेदोंमें छह भेद और मिलाकर इक्कीस भेदोंकी मुख्यता से अल्पबहुत्व बतलाया है। जहां 'ऊपर सात स्थान पहलेके समान हैं, पन्द्रह स्थान पहले के समान है' इत्यादि कहा है उसका यह अभिप्राय है कि प्रारंभके जितने स्थानों में विशेषता कहनी थी वह कह दी। आगे अन्तके सात या पन्द्रह आदि स्थान पहले के कहे हुए जोड़ लेना चाहिये
।
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३७८] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १०२. संपहि बादरणिगोदपदिदिपज्जत्तअवहारकालो बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तअवहारकालो तस्सेव विक्खंभसूई बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत्तविक्खंभसूई सेढी जगपदर-लोगा इदि सत्त पदाणि एकावीसपदेसु पक्खिविय अट्ठावीसपदप्पाबहुगं वत्तइस्सामो ।
पूर्वोक्त पन्द्रह स्थानोंमें छह स्थान जोड़कर इक्कीस स्थानोंमें अल्पबहुत्वके
क्रमका ज्ञान करनेवाला कोष्टक.
बा.व. प्र. प. बा. नि. प.
व. प.
बा. व प्र. प. बा.नि.प्रति.प. बा. नि. प. बा. व. प. बा. नि. अ. बा. व. अ.
बा. व. प्र प. बा. व. प्र. प. बा.नि. प्रति.प. बा नि. प्रति.प. बा. व.प्र. अ. बा. व. प्र. अ. || बा. व. प्र. वा. व. बा. नि. प. बा.नि.प्रति.अ. बा. व. प. बा.नि. प. बा. नि. अ. बा. व. प. बा. व. अ. बा. नि. अ.
बा. व. अ.
बा. व. प्र. प. बा.नि. प्रति.प. बा. व. प्र.अ. बा. व. प्र. बा.नि.प्रति.अ. बा. नि. प्रति. बा. नि. प. बा. व. प. बा. नि. अ. बा. व. अ. बा. नि. बा. व. सू. व. अ. नि, अ. व. अ. व. प. नि. प.
सू.
व. अ.
बा. व. सू. व. अ.
नि. प.
AAAE
4.
अब बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका अवहारकाल, उसीकी विष्कंभसूची, बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंकी विष्कंभसूची, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक, इन सात स्थानोंको पूर्वोक्त इक्कीस स्थानोंमें मिलाकर अट्ठाईस स्थानोंमें अल्पबहुत्वको बतलाते हैं- यहां ये सातों स्थान एकसाथ मिला
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१, २, १०२.] दव्वंपमाणाणुगमे कायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [३७९ एदाणि सत्त वि पदाणि एकवारेण पविसिदव्याणि । कुदो ? कमप्पवेसकारणाभावा । रासिसंगहभेदपदुप्पायणटुं कमेण पवेसो कीरदे । ण च एत्थ रासिभेदो अस्थि, पत्तभिज्जमाणभेदपजतत्तादो । सव्वत्थोवो बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्तअवहारकालो। बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपजत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । सेढी असंखेज्जगुणा । बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । बादरणिगोदपदिदिपज्जत्तदव्यमसंखेजगुणं। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? बादरणिगोदपदिहिदपजत्तअवहारकालो। लोगो असंखेजगुणो। को गुणगारो ? सेढी। बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरअपज्जत्तदव्यं असंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? तस्सेव बादरवण फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तमत्तेण । बादरणिगोदपदिहिदअपज्जत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। बादरणिगोदपदिहिदा विसेसाहिया । देना चाहिये । क्योंकि, उनके क्रमसे मिलाने का कोई कारण नहीं है । संग्रहरूप राशियोंके भेदके प्रतिपादन करनेके लिये क्रमसे राशि मिलाई जाती है। परंतु यहां पर तो राशिमें कोई भेद पाया नहीं जाता है, क्योंकि, भिधमान राशियों में जितने भेद प्राप्त थे उतने भेद किये जा चुके हैं । बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका अवहारकाल पूर्वोक्त अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उन्हीं बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंकी विष्कभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंकी विष्कंभसूची पूर्वोक्त विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। जगश्रेणी उक्त विष्कभसूचीसे असंख्यातगुणी है। बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है। बादर निगोद. प्रतिष्ठित पर्याप्तोंका द्रव्य बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । जगप्रतर बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंका अवहारकाल गुणकार है। लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अगश्रेणी गुणकार है। बावर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंका द्रव्य लोकसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? उन्हींके पर्याप्तोंका अर्थात् बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्त जीव बादर घनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक
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३८.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १०२. केत्तियमेत्तेण ? बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत्तमेत्तेण । बादरणिगोदपज्जत्ता अणंतगुणा । को गुणगारो ? सगरासिस्स असंखेजदिभागो। तस्स को पडिभागो ? बादरणिगोदपदिविदा पडिभागो। बादरवणप्फइकाइयपज्जचा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवण प्फइकाइयपत्तेयसरीरपजत्तमेत्तेण । बादरणिगोदअपजत्ता असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । बादरवणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरअपजत्तमेत्तेण । बादरणिगोदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पत्तेयसरीरअपज्जत्तेणूणवादरणिगोदपज्जत्तमेत्तेण । बादरवणप्फइकाइया विसे साहिया। केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरमेत्तेण । सुहुमवणप्फइकाइयअपज्जत्ता असंखेजगुणा। को गुणगारो? असंखेज्जा लोगा । णिगोदअपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरणिगोदअपजत्तमेत्तेण । वणप्फइकाइयअपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपत्तेय
गुणकार है । बादर निगोदप्रतिष्ठित जीव बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं । कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? वादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । बादर निगोद पर्याप्त जीव बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवोंसे अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अपनी राशिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उसका प्रतिभाग क्या है ? बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवोंका प्रमाण प्रतिभाग है। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव बादर निगोद पर्याप्तोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक है। बादर निगोद अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर निगोद अपर्याप्तोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं । कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। बादर निगोद जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंसे विशेष
अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंके प्रमाणसे न्यून बादर निगोद पर्याप्तोंका जितना प्रमाण हो तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव बादर निगोद जीवोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक जीवोंसे असंण्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। निगोद अपर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव निगोद अपर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर घनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। सूक्ष्म
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [ ३८१ सरीरअपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमवणप्फदिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जा समया । णिगोदपजत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण बादरणिगोदपज्जत्तमेत्तेण । वणप्फइकाइयपज्जत्ता विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण? बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तमेत्तेण । सुहुमवणप्फदिकाइया विसेसाहिया । केतियमेत्तेण ? बादरवणफदिपज्जत्तेणूणसुहुमवणफदिअपज्जत्तमेत्तेण । णिगोदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरणिगोदमेत्तेण । वणप्फइकाइया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरमेत्तेण । एवं वणप्फइकाइयपरत्थाणप्पाबहुगं समतं । तसकाइयपरत्थाणस्स पंचिंदियपरत्थाणभंगो । एवं परत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।
. सधपरत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। सव्वत्थोवा अजेगिकेवली । चत्तारि उवसामगा संखेजगुणा । चत्तारि खवगा संखेज्जगुणा। सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । अपमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तापमत्तरासीहितो बादरवाउपज्जत्तअवहारकालो किमहिओ ऊणो त्ति ण जाणिज्जदे । कुदो ? संपहि उवएसाभावादो ।
..........................
वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे संख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। निगोद पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर निगोद पर्याप्तोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव निगोद पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तीका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक पर्याप्तोसे विशेष अधिक हैं। कितनेप्रात्र विशेषसे अधिक है ? बादर वनस्पति पर्याप्तोंके प्रमाणसे न्यून सूक्ष्म वनस्पति अपर्याप्तोंका जितना प्रमाण हो तन्मात्र विशेषसे अधिक है। निगोद जीब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंसे विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर निगोद जीवोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं। कितनेमात्र विशेषसे अधिक हैं ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेषसे अधिक हैं। इसप्रकार वनस्पतिकायिक जीवोंका पररथान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। त्रसकायिक जीवोंका परस्थान अल्पबहुत्व पंचेन्द्रिय जीवोंके परस्थान अल्पबहुत्वके समान है । इसप्रकार परस्थान अल्पहुत्व समाप्त हुआ।
अब सर्वपरस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं- अयोगिकेपली जीव सबसे थोड़े हैं। चारों गुणस्थानोंके उपशामक अयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं। चारों गुणस्थानोंके क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। सयोगिकेवली जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवराशिसे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल क्या अधिक है, या कम, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि, इस समय इस प्रकारका
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३८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १०२. तदो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। एवं जाणिऊण णेयव्वं जाव संजदासंजदअवहारकालो त्ति । तदो बादरतेउपज्जत्ता असंखेजगुणा। तदो संजदासंजददव्यमसंखेज्जगुणं । एवं जाणिऊण णेदव्यं जाव पलिदोवमो त्ति । तदो बादरआउपज्जत्तअवहारकालो असंखेजगुणो । बादर पुढविपज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। बादरवणप्फइकाइयपत्तेयपज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तसकाइयमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तसकाइयअपज्जत्तअवहारकालो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिदेगखंडेण । तसकाइयपज्जत्तअवहारकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्य संखेज्जदिभागो। तदो तसकाइयपज्जत्त
उपदेश नहीं पाया जाता है। बादर वायुकायिक पर्याप्तोंके अवहारकालसे असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार समझकर संयतासंयतोंके अवहारकालतक ले जाना चाहिये । संयतासंयतोंके अवहारकालसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त असंख्यातगुणे
ससे संयतासंयतोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार जानकर पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे बादर अप्कायिक जीवोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल बादर अप्कायिक पर्याप्त जीवोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येक जीवोंका अवहारकाल बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका अवहार काल बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्य तवां भाग गुणकार है।
सकायिक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है। त्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंका अवहारकाल त्रसकायिक मिथ्याटियोंके अवारकालसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलीके असंख्यातवें भागसे त्रसकायिक मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तन्मात्र विशेषसे अधिक है। प्रसकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल सकायिक अपर्याप्तोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । प्रसकायिक पर्याप्तोंके अबहारकालसे त्रसकायिक पर्याप्तोंकी विष्कंभसूची
१ प्रतिषु वाउ० इति पाठः।
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं
[३८३ विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । तसकाइयअपज्जत्तविक्खंभसई असंखेज्जगुणा । तसकाइयविक्खंभसूई विसेसाहिया । बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तविक्खंभसई असंखेजगुणा । बादरणिगोदपदिहिदपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । बादरपुढविकाइयपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । बादरआउकाइयपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । बादरवाउकाइयपज्जत्तविक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । सेढी संखेजगुणा । तसकाइयपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । तसकाइयअपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । तसकाइयदव्वं विसेसाहियं । बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । ( बादरपुढविकाइयपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । ) बादरआउपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । बादरवाउपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । लोगो संखेज्जगुणो। तदो बादरतेउअपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । बादरतेउव्वं विसेसाहियं ।
असंख्यातगुणी है । बसकायिक अपर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूची बसकायिक पर्याप्तोंकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। प्रसकायिक जीवोंकी विष्कंभसूची त्रसकायिक अपर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीसे विशेष अधिक है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूची त्रसकायिकोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जर्जाघों की विष्कंभसूची बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूची बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। बादर अप्कायिक पर्याप्त जीवोंकी विष्कंभसूची बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। बादर वायुकायिक पर्याप्तोंकी विष्कंभसूची वादर अप्कायिक पर्याप्तोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। जगश्रेणी बादर वायुकायिक पर्याप्तोंकी विभसूचीसे संख्यातगुणी है। त्रसकायिक पर्याप्तोंका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है। त्रसकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य त्रसकायिक पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। प्रसकायिकोंका द्रव्य प्रसकायिक अपर्याप्तोंके द्रव्यसे विशेष अधिक । है बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंका द्रव्य त्रसकायिकोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तोंका द्रव्य बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंका द्रव्य बादर निगोदप्रतिष्ठितोंसे असं. ख्यातगुणा है। बादर अप्कायिक पर्याप्तोंका द्रव्य बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। जगप्रतर बादर अकायिक पर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। बादर वायुकायिक पर्याप्तोंका द्रव्य जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है। लोक बादर वायुकायिक पर्याप्तके द्रव्यसे संख्यातगुणा है । लोकसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। बादर तेजस्कायिकोंका द्रव्य बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष
१ प्रतिषु ' बादरणिगोदविपज्जत्त - ' इति पाठः ।
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३८४ ] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, १०२. बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्जत्तदबमसंखेज्जगुणं । बादरवणप्फइपत्तेयसरीरदव्वं विसेसाहियं । बादरणिगोदपदिहिदअपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । बादरणिगोदपदिट्टिददव्वं विसेसाहियं । (बादरपुढविकाइयअपज्जत्तदव्यमसंखेज्जगुणं । बादरपुढविकाइयदव्वं विसेसाहियं ।) बादरआउअपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । बादरआउकाइयदव्वं विसेसाहियं । बादरवाउअपज्जत्तदव्वमसंखेज्जगुणं । बादरवाउकाइयदव्वं विसेसाहियं । सुहुमतेउअपज्जत्तदव्यं असंखेज्जगुणं । तेउअपज्जत्तदव्यं विसेसाहियं । सुहमपुढविअपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । पुढविअपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । (सुहुमआउअपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । ) आउअपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । सुहुमवाउअपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । (वाउअपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं ।) सुहुमतेउपज्जत्ता संखेज्जगुणा । तेउपज्जत्तदव्वं विसेसाहियं । सुहुमपुढविपज्जत्ता विसेसाहिया । पुढविपज्जत्ता विसेसाहिया। सुहुमआउपज्जत्ता विसेसाहिया । आउपज्जत्ता
अधिक है । बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर तेजस्कायिक द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंका द्रव्य बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है। बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवोंका द्रव्य बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्तोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। बादर पृथिवीकायिकोंका द्रव्य बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंके द्रव्यसे विशेष अधिक है। बादर अप्कायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर पृथिवीकायिक द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। बादर अप्कायिक जीवोंका द्रव्य बादर अप्कायिक अपर्याप्तोक द्रव्यसे विशेष अधिक है। बादर वायुकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर अप्कायिकों के द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । बादर वायुकायिकोंका द्रव्य बादर वायुकायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है । सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य बादर वायुकायिक द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। तेजस्कायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य तेजस्कायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है । पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंके द्रव्यसे विशेष अधिक है। अकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तोंके द्रव्यसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य अप्कायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है । वायुकायिक अपर्याप्तोंका द्रव्य सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है । सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त द्रव्यसे संख्यातगुणे हैं। तेजस्कायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव तेजस्कायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है।
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१, २, १०२.] दव्वपमाणाणुगमे कायग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [३८५ विसेसाहिया । सुहुमवाउपज्जत्ता विसेसाहिया। वाउपज्जत्ता विसेसाहिया। सुहुमतेउकाइया विसेसाहिया। तेउकाइया विसेसाहिया। सुहमपुडविकाइया विमेसाहिया। पुढविकाइया विसेसाहिया । सुहुमआउकाइया विमेसाहिया । आउकाइया विसेसाहिया । सुहुमवाउकाइया विसेसाहिया । वाउकाइया विसेसाहिया । अकाइया अगंतगुणा । बादरणिगोदपजत्ता' अणंतगुणा । बादरवणप्फइपज्जत्ता विसेसाहिया । बादरणिगोदअपज्जत्ता असंखेजगुणा । बादरवणप्फइअपज्जत्ता विसेसाहिया । बादरणिगोदा विसेसाहिया। बादरवणप्फइकाइया विसेसाहिया। सुहुमवणप्फइअपज्जत्ता असंखेजगुणा । णिगोदअपज्जत्ता विसेसाहिया । वणप्फइअपज्जत्ता विसेसाहिया । सुहुमवणप्फइपज्जत्ता संखेज्जगुणा । णिगोदपज्जत्ता विसेसाहिया । वणप्फइपज्जत्ता विसेसाहिया । सुहुमवणप्फइकाइया विसेसाहिया ।
सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त जीव पृथिवीकायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है । अप्कायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त जीव अप्कायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं । वायुकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव वायुकायिक पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। तेजस्कायक जीव सूक्ष्म तेजस्कायिक द्रव्यसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव तेजस्कायिक द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। पृथिवीकायिक जीव सूक्ष्म पृथिवीकायिक द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म अप्कायिक जीव पृथिवीकायिक द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। अप्कायिक जीव सूक्ष्म अप्कायिक द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म वायुकायिक जीव अकायिक द्रव्यसे विशेष अधिक है। वायुकायिक जीव सूक्ष्म वायुकायिक जीव द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। अकायिक जीव वायुकायिक द्रव्यसे अनन्तगुणे हैं । बादर निगोद पर्याप्त जीव अकायिक जीवोंसे अनन्तगुणे हैं। बादर वनस्पति पर्याप्त जीव बादर निगोद पर्याप्तोंसे विशेष अधिक हैं। बादर निगोद अपर्याप्त जीव बादर वनस्पति पर्याप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणे हैं। बादर वनस्पति अपर्याप्त जीव बादर निगोद अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं।बादर निगोद जीव बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव बादर निगोद द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव बादर वनस्पतिकायिक द्रव्यसे असंख्यातगुणे हैं। निगोद अपर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पति अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। वनस्पति अपर्याप्त जीव निगोद अपर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक है। सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्त जीव वनस्पति अपर्याप्त द्रव्यसे संख्यातगुण हैं। निगोद पर्याप्त जीव सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव निगोद पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म वनस्पति
१ प्रतिषु अपज्ज.' इति पाठः । २ आ-कप्रत्योः सुहुमवणफह. विसे..' इति अधिकः पाठः ।
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३८६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १०३. णिगोदा विसेसाहिया । वणप्फइकाइया विसेसाहिया ।
एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-तिण्णिवचिजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? देवाणं संखेज्जदिभागो ॥ १०३ ॥
___एत्थ तिण्हं चेव वचिजोगाणं संगहो किमट्ठो कदो ? ण एस दोसो। कुदो ? वचिजोग-असच्चमोसवचिजोगेहि सह एदेसिं तिण्हं वचिजोगाणं दव्यालावं पडि समाणत्ताभावादो। समाणालावाणमेगजोगो भवदि, ण भिण्णालावाणं । देवाणं जाणि दव्व-काल-खेत्तपमाणाणि पुव्वं परविदाणि तेसिं संखेजदिभागो एदेसिमट्टण्हं रासीणं पमाणं होदि । कुदो ? जदो एदे अट्ठ वि जोगा सण्णीणं चेव भवंति, णो असण्णीणं, तत्थ पडिसिद्धत्तादो। सणीसु वि पहाणा देवा चेव, सेसगदिसणीणं देवाणं संखेजदिभागत्तादो। तत्थ वि देवेसु पहाणो कायजोगरासी, मण-वचिजोगरासीदो संखेजगुणत्तादो। तं पि कधं जाणिजदे ?
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जीव वनस्पति पर्याप्त द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। निगोद जीव सूक्ष्मवनस्पतिकायिक द्रव्यसे विशेष अधिक हैं। वनस्पतिकायिक जीव निगोद जीवों से विशेष अधिक हैं।
इसप्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचा मनोयोगियों और तीन वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंके संख्यातवें भाग हैं ॥ १०३ ॥
शंका- यहां तीन ही वचनयोगियोंका संग्रह किसलिये किया है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियोंके साथ इन तीन वचनयोगियोंकी द्रव्यालापके प्रति समानता नहीं पाई जाती है । समानालापोंका ही एक योग होता है, भिन्नालापोंका नहीं । देवोंका द्रव्य, काल और क्षेत्रकी अपेक्षा जो प्रमाण पहले कह आये हैं उसके संख्यातवें भाग इन आठ राशियोंका प्रमाण है। क्योंकि, ये आठों योग संशियोंके ही होते हैं असंक्षियोंके नहीं, क्योंकि, असंशियों में ये आठों योग प्रतिषिद्ध हैं । संझियोंमें भी प्रधान देव ही हैं, क्योंकि, शेष तीन गतिके संज्ञी जीव देवोंके संख्यातवें भाग ही हैं। वहां देवों में भी प्रधान काययोगियोंकी राशि है, क्योंकि, काययोगियोंका प्रमाण मनोयोगियों और वचनयोगियोंसे संख्यातगुणा है।
शंका-यह कैसे जाना जाना है ?
१ मनोयोगिनोxxमिध्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु 'पहाणु' इति पाठः।
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१, २, १०५.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमगणापमाणपरूवणं
[ ३८७ जोगद्धप्पाबहुगादो। तं जहा- 'सव्वत्थोवा मणजोगद्धा । वचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । कायजोगद्धा संखेज्जगुणा ति ।' पुणो एदेसिमद्धाणं समास काऊण तेण तिण्हं जोगाणं सण्णिरासिमोवट्टिय अप्पप्पणो अद्धाहि पुध पुध गुणिदे मण-वचि-कायजोगरासीओ हवंति । तदो हिदमेदं एदे अट्ट वि मिच्छाइहिरासीओ देवाणं संखेजदिभागो त्ति ।
सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ति ओघं ॥१०४॥
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागत्तं पडि ओघजीवेहि सह एदेसिं समाणत्तमत्थि त्ति ओघमिदि उत्तं । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे तेहिंतो एदेसि अत्थि महतो भेदो। कुदो ? एदेसिमोघसिस्स संखेज्जदिभागत्तादो। तं पि कधं णव्वदे ? पुव्वुत्तद्धप्पाबहुगादो । सेसं सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १०५॥
समाधान-योगकालके अल्पबहुत्वसे यह जाना जाता है । वह इसप्रकार है'मनोयोगका काल सबसे स्तोक है। वचनयोगका काल उससे संख्यातगुणा है । काययोगका काल वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है।' अनन्तर इन कालोंका जोड़ करके जो फल हो उससे तीनों योगोंकी संशी जीवराशिको अपवर्तित करके जो लध्ध आवे उसे अपने अपने कालसे पृथक् पृथक् गुणित करने पर मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीवराशि होती है। इसलिये यह निश्चित हुआ कि ये आठ ही मिथ्यादृष्टि जीवराशियां देवोंके संख्यातवें भाग हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पूर्वोक्त आठ योगवाले जीवोंका प्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान पत्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ १०४॥
पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रति ओघ जीवोंके साथ इन आठ जीधराशियोंकी समानता है, इसलिये सूत्र में ' ओघ' ऐसा कहा। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने पर तो सासादनादि संयतासंयतान्त गुणस्थानप्रतिपन्न ओघप्ररूपणासे गुणस्थानप्रतिपन्न इन आठ राशियों में महान् भेद है, क्योंकि, ये राशियां ओघराशिके संख्यातवें भाग हैं।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-पूर्वोक्त योगकालके अल्पबहुत्वसे यह जाना जाता है। शेष कथन सुगम है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमै १ प्रतिषु · जोगवदप्पा' इति पाठः ।
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१८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १०६. एत्थ ओघरासिणा संखेज्जत्तं पडि एदेसि रासीणं समाणत्ते संते किमट्ठमोघमिदि ण परूविदं सुत्ते ? ण, एत्थ अवलंबिदपज्जवट्ठियणयत्तादो। सो वि एत्थ किमट्ठमवलंबिजदे ? जोगद्धप्पाबहुगमस्सिऊण रासिविसेसपदुप्पायणटुं। क, जोगद्धप्पाबहुगमिदि वुत्ते वुच्चदे- 'सव्वत्थोवा सच्चमणजोगद्धा । मोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा । सच्चमोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा । असच्चमोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा । मणजोगद्धा विसेसाहिया । सच्चवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा। मोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । सच्चमोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । असच्चमोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । वचिजोगद्धा विसेसाहिया । कायजोगद्धा संखेज्जगुणा' त्ति'।
वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ १०६॥
पूर्वोक्त आठ जीवराशियां द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितनी हैं ? संख्यात हैं ॥ १०५।।
यहां पर संख्यातत्वकी अपेक्षा प्रमत्तादि ओघराशिके साथ इन राशियोंकी समानता रहने पर सूत्र में 'ओघं' ऐसा किसलिये नहीं कहा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, यहां पर पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है, भतः सूत्रमें 'ओघं ' ऐसा नहीं कहा।।
शंका-यह पर्यायार्थिक नय भी यहां पर किसलिये ग्रहण किया गया है ?
समाधान-योगकालका आश्रय लेकर राशिविशेषका प्रतिपादन करनेके लिये यहां पर पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है।
योगकालके आश्रयसे अल्पबहुत्व किसप्रकार है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैंसत्य मनोयोगका काल सबसे स्तोक है। मृषामनोयोगका काल उससे संख्यातगुणा है। उभयमनोयोगका काल मृषामनोयोगके कालसे संख्यातगुणा है । अनुभयमनोयोगका काल उभय मनोयोगके कालसे संख्यातगुणा है। इससे मनोयोगका काल विशेष अधिक है। सत्य वचनयोगका काल मनोयोगके कालसे संख्यातगुणा है। मृषा वचनयोगका काल सत्य वचन. योगके कालसे संख्यातगुणा है। उभय वचनयोगका काल मृषा वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है । अनुभय वचनयोगका काल उभय वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है। वचनयोगका काल अनुभय वचनयोगके कालसे विशेष अधिक है । काययोगका काल वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है।
वचनयोगियों और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ १०६ ॥
१ अंतोमुहुत्तमेत्ता चउमणजोगा कमेण संखगुणा । तज्जोगो सामण्णं चउपविजोगा तदो दु संस्खगुणा ।। वग्मोगो सामण्णं काओ संखाहदो तिजोगमिदं । गो. जी. २६२.२६३.
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१, २, १०८.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमगणापमाणपरूवणं
[ ३८९ एत्थ मिच्छाइट्ठी इदि एगवयणणिदेसो, केवडिया इदि बहुवयणणिद्देसो; कधमेदाणं भिण्णाहियरणाणमेयट्ठपउत्ती ? ण, एयाणेयाणमण्णोण्णाजहवुत्तीणमेयद्वत्ताविरोहा । सेसं सुगमं । असंखेज्जा इदि सामण्णेण णवविहस्सासंखेज्जस्म गहणे पसत्ते अणिच्छिदासंखेज्जपडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥१०७॥
___ एदं सुत्तमइसुगमं । अणिच्छिदासंखेज्जासंखेजवियप्पपडिसेहणिमित्तमुत्तरसुत्तावदारो भवदि
खेत्तेण वचिचोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स संखेजदिभागवग्गपडिभागेण ॥ १०८ ॥
वचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो च वीइंदियप्पहुडीणमुवरिमाणं जीवसमासाणं भासापज्जत्तीए पज्जतयाणं भवदि, तेण वि-ति-चउरिदिय-असणिपंचिंदियपज्जत्तरासीओ
शंका-इस सूत्र में 'मिच्छाइट्ठी' यह एकवचन निर्देश है, और केवडिया' यह बहुवचन निर्देश है । अतएव भिन्न भिन्न अधिकरणवाले इन दोनोंकी एकार्थमें कैसे प्रवृत्ति हो सकती है?
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक और अनेक अन्योन्य अजहवृत्ति है, इसलिये इन दोनोंकी एकार्थमें प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है।
शेष कथन सुगम है। 'असंख्यात है' इसप्रकार सामान्य धचन देनेसे नौ प्रकारके असंख्यातोंका ग्रहण प्राप्त होता है, अतएव अनिच्छित असंख्यातोंके प्रतिषेध करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
कालकी अपेक्षा वचनयोगी और अनुभय वचनयोगी जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं । १०७॥
यह सूत्र अतिसुगम है । अनिच्छित असंख्यातासंख्यातरूप विकल्पके प्रतिषेध करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है
क्षेत्रकी अपेक्षा वचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंके द्वारा अंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ १.८॥
द्वीन्द्रियोंसे लेकर ऊपरके संपूर्ण जीवसमासोंमें भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवोंके वचनयोग और अनुभय वचनयोग पाया जाता है, इसलिये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
१ प्रतिषु ' मणदि ' इति पाठः । २ योगानुवादेन xx वाग्योगिनश्च मिण्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयमागप्रमिताः।स. सि. १,१.
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३९० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १०९. एगहुँ करिय वचिजोग-कायजोगद्धासमासेण खंडिय एगखंडं वचिजोगद्धाए गुणिय पंचिं. दियअसच्चमोसवचिजोगरासिं पक्खित्ते असच्चमोसवचिजोगरासी होदि । एत्थ सच्चादिसेसवचिजोगरासिं पक्खित्ते वचिजोगरासी होदि । अद्धासमासस्स आवलियाए गुणगारत्तेण दृविदसंखेज्जरूवेहिंतो पदरंगुलस्स हेट्टा भागहारत्तेण दृविदसंखज्जरूवाणि जेण संखेजगुणाणि तेण पदरंगुलस्स संखेजदिभागो भागहारो भवदि ।
सेसाणं मणिजोगिभंगो ॥ १०९ ॥
जधा मणजोगरासी ओघसासणादीणं संखेजदिभागो, तहा वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु सासणादओ ओघसासणादीणं संखेजदिभागो । सेसं सुगमं ।
संपहि अप्पाबहुगवलेण पुघिल्लसुत्तेसु वुत्तरासीणमवहारकाला परूविज्जते । तं जहा- संखेज्जरूवेहि सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धे वग्गिदे वचिजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो
और असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवराशिको एकत्रित करके और उसे वचनयोग और काययोगके कालके जोड़रूप प्रमाणसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे उसे वचनयोगके कालसे गुणित करके जो प्रमाण हो उसमें पंचेन्द्रिय अनुमय वचनयोगी राशि मिला देने पर अनुभय वचनयोगी जीवराशि होती है। इसमें सत्यवचनयोगी जीवराशि आदि शेष वचनयोगी जीवराशियोंके मिला देने पर वचनयोगी जीवराशि होती है। यहां पर अद्धासमासके लिये आवलीके गुणकाररूपसे स्थापित संण्यातसे प्रतरांगुलके नीचे भागहाररूपसे स्थापित संख्यात चूंकि संख्यातगुणा है, इसलिये प्रकृतमें प्रतरांगुलका संख्यातवां भाग भागहार है।
सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानवी वचनयोगी और अनुभय वचनयोगी जीव सासादनसम्यग्दृष्टि आदि मनोयोगिराशिके समान हैं ॥१०९॥
जिसप्रकार मनोयोगी जीवराशि ओघसासादनसम्यग्दृष्टि आदिके संख्यातवें भाग है, उसीप्रकार बचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियों में सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवराशि ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि आदिके संख्यातवें भाग है। शेष कथन सुगम है।
__अब अल्पवहुत्वके बलसे पूर्वोक्त सत्रोंमें कही गई राशियोंके अवहारकाल कहे जाते हैं। वे इसप्रकार हैं- संख्यातसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसके वर्गित करने पर पचनयोगियोंका अघहारकाल होता है। इसे संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे इसी वचनयोगियोंके अवहारकालमें मिला देने पर अनुभय वचनयोगियोंका अपहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर वैक्रियिक काययोगियोंका अवहारकाल
१ त्रियोगिनो सासादनसम्यग्दृष्टयादयः संयतासंवतान्ताः पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १, ६,
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१, २, १०८.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमगणापमाणपरूवणं
[३९१ होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे वेउब्धियकायजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजरूवेहि गुणिदे सच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेञ्जरूवेहि गुणिदे मोसवचिजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सच्चवचिजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे मणजोगिअवहारकालो होदि। तं हि संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सच्चमोसमणजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे मोसमणजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सच्चमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे वेउब्बियमिस्सअवहारकालो होदि। किं कारणं ? जेण अंतोमुहुत्तमेत्तवेउब्धियमिस्सुवक्कमणकालादो संखेज्जवस्साउवदेवाणमुवकमणकालो संखेजगुणो तेण देवाणं संखेज्जदिभागो वेउब्धियमिस्सरासी होदि । होतो वि सच्चमणरासिस्स संखेज्जदिभागो। कुदो ? सच्चमणजोगद्धोवट्टिदसयलद्धासमासअंतोमुहुत्तमेतद्धाए आवलियगुणगारसंखेज्जरूवेहिंतो वेउबियमिस्सद्धोवट्टिदसंखेज्जवस्सेसु संखेज्जगुणरूबोवलंभादो।
संपहि ओघअसंजदसम्माइडिअवहारकालं संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर उभय वचनयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर मृषा वचनयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर सत्यवचनयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर मनयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे इसी मनोयोगियोंके अवहारकाल में मिला दने पर अनुभय मनोयोगियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर उभय मनोयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर मृषा मनोयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर सत्यमनोयोगियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अवहारकाल होता है।
शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान-चूंकि अन्तर्मुहूर्तमात्र वैक्रियिकमिश्रके उपक्रमणकालसे संख्यात वर्षकी आयुवाले देवोंका उपक्रमणकाल संख्यातगुणा है, इससे तो यह सिद्ध हुआ कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी राशि देवोंके संख्यातवें भाग है, पर वह वैक्रियिकमिश्रकायोगियोंकी राशि देवोंके संख्यातवें भाग होते हुए भी सत्यमनोयोगियोंके प्रमाणके संख्यातवें भाग है, क्योंकि सत्यमनोयोगके कालसे सर्व कालके जोड़रूप अन्तर्मुहूर्त कालके अपवर्तित करने पर जो लब्ध आवे उसके लिये आवलीके गुणकार संख्यातसे वैक्रियिकमिश्रके कालसे अपवर्तित संख्यात वर्षों में संख्यातगुणी संख्या पाई जाती है।।
___ अब ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो
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३९२] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १०८. पक्खित्ते कायजेगिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्त वेउव्यियअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जवहि गुणिदे वचिजोगिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि.। तं हि संखेजरूबंहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्म इटिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूबेहि गुणिदे मोमवचिजोगिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सच्चवचिजोगिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे मणजोगिअवहारकालो होदि । तं हि संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खिते असच्चमोसम गजोगिअवहारकालो होदि । ( तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सच्चमोसमणजोगिअवहारकालो होदि । ) तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे मौसमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरूवहि गुणिदे सच्चमणजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालियकायजोगिलब्ध आवे उसे उसी ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इस काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर वैक्रियिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इस वैक्रियिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर अनुमय वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इस अनुभय घचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गणित करने पर उभय' वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस उभय वचनयोगी असंयतसम्य सम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मृषावचनयोगी असंयतसम्य. ग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर सत्यवचनयोगी असंयतग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस सत्यवचनयोगियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मनयोगियोंका अवहारकाल होता है। इस मनयोगियोंके अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी मनोयोगियों के अवहारकालमें मिला देने पर अनुभय मनोयोगियोंका अवहारकाल होता है। इस अनुभय मनोयोगियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर उभयमनोयोगियोंका अवहारकाल होता है। इस उभय मनोयोगियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मृषामनोयोगियोंका अवहारकाल होता है। इस मृषामनोयोगियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर सत्यमनोयोगियोंका अवहारकाल होता है । इस सत्यमनोयोगियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर औदारिक
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१, २, १०९.] दवपमाणाणुगमे जोगमगणापमाणपरूवणं
[ ३९३ असंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेञ्जदिभाएण गुणिदे वेउबियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेञ्जदिभाएण गुणिदे कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । एवं सम्मामिच्छाइट्ठिस्स । णवरि वेउवियमिस्सं कम्मइयं च छोड्डिय वत्तव्यं । ओघसासणसम्माइटिअवहारकालं संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते कायजोगिसासणसम्माईट्टिअवहारकालो होदि । तं हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेउबियकायजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे वचिजोगिसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरूवहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसवचिजोगिसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजरूवेहि गुणिदे सच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो होदि । एवं मोसवचिजोगि-सच्चवचिजोगिअवहारकालाणं जहाकमेण संखेजस्वेहि गुणेयव्वं । तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे मणजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तं हि संखेजस्वेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसमणजोगिसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । तदो सच्चमोसमण
काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गणित करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी अवहारकाल करना चाहिये। परंतु इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगको छोड़कर ही कथन करना चाहिये । ओघ सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी ओघ सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दहियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर अनुभय वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर उभय वचनयोगीसासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल होता है। इसीप्रकार मृषावचनयोगी और सत्यवचनयोगी जीवोंका अवहारकाल लाने के लिये यथाक्रमसे संख्यातसे गुणित करना चाहिये। सत्यवचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे इसी मनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें मिला देने पर अनुभय मनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसके आगे
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३९४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १०९.
जोगि - मोसम जोगि - सच्चेमणाणं जहाकमेण संखेजरूवेहिं गुणिजदि । तहि अवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालियकायजोगिसासणसम्म इडिअवहारकालो होदि । तहि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालियमिस्स सासणसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि आवलिया असंखेज्जदिभाएण गुणिदे वेउव्वियमिस्स जोगिसासणसम्माइट्ठि अवहारकालो होदि । तहि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे कम्मइयसासणसम्म इडिअवहारकालो होदि । एवं संजदासंजदाणं । णवरि ओघावहारकालं संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते ओरालियकायजोगिसंजदासंजदाणं अवहारकालो होदि । तम्ह संखेज्जरूवेहिं गुणिदे वचिजोगिसंजदासंजदअवहारकालो होदि । सेसं पुब्बं व वत्तव्धं । पमत्तादीणं बुच्चदे | मणजोग - वचिजोग-कायजो गाणं समासेण अष्पष्पणो रासिम्हि भागे हिदे लद्धं तिप्पडिरासिं काऊण पुणो अप्पप्पणो अद्धाहि गुणिदे एक्केकहि गुणट्ठाणे मण-वचि-काय जोगरासीओ हवंति । पुणो सच्चामोस - असच्चमो समणजोगद्धाणं समासेण मणजोगरासिं खंडिय लद्धं च दुप्पडिरासिं काऊण अष्पष्पणो अद्धाहि गुणिदे सच्चामोस -
उभयमनोयोगी, मृषामनोयोगी और सत्यमनोयोगी जीवोंका अवहारकाल लानेके लिये यथाक्रम से संख्या तसे गुणित करना चाहिये | सत्यमनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर कार्मणकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसीप्रकार संयतासंयत वचनयोगी, मनोयोगी और काययोगियोंका अवहारकाल जानना चाहिये। यहां इतनी विशेषता है कि संयतासंयत ओघ अवहारकालको संख्यातसे खांडत करके जो लब्ध आवे उसे उसी संयतासंयत ओघ अवहार. कालमें मिला देने पर औदारिककाययोगी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यात से गुणित करने पर वचनयोगी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। शेष कथन पहले के समान करना चाहिये | अब प्रमत्तसंयत आदिका द्रव्यप्रमाण कहते हैं- मनोयोग, वचनयोग औरं काययोगके कालके जोड़से अपने अपने गुणस्थानसंबन्धी राशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसकी तीन प्रतिराशियां करके पुनः उन्हें अपने अपने कालसे गुणित कर देने पर एक एक गुणस्थानमें मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगियोंकी राशियां होती हैं । पुनः उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोगके कालोंके जोड़से मनोयोगी जीवराशिको खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी दो प्रतिराशियां करके अपने अपने कालसे गुणित करने पर उभय
१ प्रतिषु ' सच्च मोस - ' इति पाठः ।
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१, २, १११.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपरूवणं
[ ३९५ असच्चमोसमणजोगरासीओ हवंति । एवं वचिजोगरासिस्स वि वत्तव्वं ।
कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी मूलोघं ॥११०॥
एदे दो वि रासीओ अणंता। अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण । खेत्तेण अणंताणंता लोगा इदि वुत्तं होदि । सेसं सुगमं ।
सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति जहा मणजोगिभंगो ॥ १११॥
एदं सुत्तं सुगमं । एत्थ धुवरासिविहाणं वुच्चदे। तं जहा- सगुणपडिवण्णमणजोगि-वचिजोगिरासिं सिद्ध-अजोगिरासिं च कायजोगिभजिद एदेसि वग्गं च सव्यजीवरासिम्हि पक्खित्ते कायजोगिधुवरासी होदि । तं पडिरासि काऊण तत्थेकरासिम्हि संखेजस्वेहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते ओरालियकायजोगिधुवरासी होदि ।
मनोयोगी और अनुभय मनोयोगी जीवराशियां होती हैं। इसीप्रकार वचनयोगी जीवराशिका भी कथन करना चाहिये।
काययोगियों और औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ ११०॥
उपर्युक्त ये दोनों भी राशियां अनन्त हैं । कालकी अपेक्षा काययोगी और औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होते हैं और क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं, यह इस कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक काययोगी और औदारिककाययोगी जीव मनोयोगियोंके समान हैं ॥ १११ ॥
यह सूत्र सुगम है। अब यहां पर ध्रुवराशिकी विधिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-गुणस्थानप्रतिपन्न मनोयोगिराशि, वचनयोगिराशि, सिद्धराशि और अयोगि. राशिको तथा इन चारों राशियोंके वर्गमें काययोगिराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे सर्व जीवराशिमें मिला देने पर काययोगियोंकी ध्रुवराशि होती है। अनन्तर इसकी प्रतिराशि करके उनमेंसे एक राशिमें संख्यातका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी ध्रुषराशिमें मिला देने पर औदारिककाययोगियोंकी ध्रुवराशि होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि
१ काययोगिषु मिथ्यादृष्टयोऽनन्तामन्ताः । स. सि. १, ४. प्रदूणा संसारी एक्कजोगा हु। गो. जी: २६१.
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३९६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ११२. सासणादीणं सग-सगअवहारकाले संखेज्जरूवहि' खडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते कायजोगिसासणादिगुणपडिवण्णाणं अवहारकाला भवंति । एदे अवहारकाले आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे ओरालियकायजोगिसासणादीणमवहारकाला भवंति । कुदो ? तिरिक्ख-मणुस्सगुणपडिवण्णरासीणं देवगुणपडिवण्णरासिस्स असंखेजदिभागत्तादो। संजदासंजदाणं पुण कायजोगिअवहारकालो चेव ओरालियकायजोगिअवहारकालो होदि, तत्थ तव्यदिरित्तकायजोगाभावादो।
ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी मूलोघं ॥ ११२ ॥
एदं पि सुत्तं सुगमं । एत्थ धुवरासी उच्चदे । ओरालियकायजोगिधुवरासिं पुवं परूविदं संखेज्जरूवेहिं गुणिदे ओरालियमिस्सकायजोगिधुवरासी होदि । कुदो ? सुहुमेइंदियअपज्जत्तरासाए पज्जत्तरासिस्स संखेजदिभागत्तादो। तं जहा- तिरिक्ख-मणुसअपज्जत्तद्धादो पज्जत्तद्धा संखेज्जगुणा । ताणमद्धाणं समासेण तिरिक्खरासिं खंडिय
आदि गुणस्थानोंके अपने अपने अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सामान्य अवहारकालमें मिला देने पर काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों के अवहारकाल होते हैं। इन अवहारकालोको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंके अवहारकाल होते है, क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यंच और मनुष्य राशियां गुणस्थानप्रतिपन्न देवराशिके असंख्यातवें भागमात्र हैं। औदारिककाययोगकी अपेक्षा संयतासंयतोंका अवहारकाल ही औदारिककाययोगियोंका अवहारकाल है, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थानमें औदारिककाय. योगको छोड़कर और दूसरा कोई काययोग नहीं पाया जाता है।
औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥११२॥
यह सूत्र भी सुगम है। अब यहां ध्रुवराशिका कथन करते हैं- पहले जो औदारिक काययोगियोंकी ध्रुवराशि कह आये हैं उसे संख्यातसे गुणित करने पर औदारिकमिश्रकाययोगियोंकी ध्रुवराशि होती है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि पर्याप्त राशिके संख्यातवें भागमात्र है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- तिर्यंच और मनुष्योंके अपर्याप्त कालसे पर्याप्त काल संख्यातगुणा है। पुनः उन कालोंके जोड़से तिर्यंच राशिको खंडित करके
१ प्रतिपुसंखेज्जरूवे' इति पाठः।
२ कम्मरालियमिस्सयओरालद्धासु संचिदअणंता। कम्मोरालियमिस्सयओरालि यजोगिणो जीवा । समय तयसंखाव लिसंखगुणावलिसमासहिदरासी । सगगुणगुणिदे थोवो असंखसंखाहदो कमसो॥ गो. जी. २६४-२६५.
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१, २, ११४.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपरूवणं
[३९७ लद्धमपज्जत्तद्धाए गुणिदे ओरालियमिस्सरासी हवदि । तमद्धाए गुणगारेण गुणिदे ओरालियकायजोगरासी हवदि । तेण ओरालियकायजोगरासीदो ओरालियमिस्सकायजोगरासी संखेज्जगुणहीणो ।
सासणसम्माइट्टी ओघं ॥ ११३॥
सासणसम्माइट्ठिणो देव-णेरइया जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसु उववज्जमाणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ता लम्भंति तेण एदेसि पमाणपरूवणाए ओघभंगो हवदि । एदेसिमवहारकालो वुच्चदे । तं जहा- ओरालियकायजोगिसासणअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे ओरालियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। कुदो ? देव-णेरइएहितो तिरिक्ख-मणुस्सेसु उप्पज्जमाणरासिणो पुवट्ठिदरासिस्स असंखेजदिभागत्तादो ।
असंजदसम्माइट्ठी सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया, संखेजा ॥११४ ॥
देव णेरइयसम्माइद्विणो मणुसेसु उववज्जमाणा संखेजा चेव लभंति, मणुसपज्जत्तरासिस्स अण्णहा असंखेज्जत्तप्पसंगा ( ओरालियमिस्सकायजोगम्हि सुत्ताविरुद्धण
जो लब्ध आवे उसे अपर्याप्त कालसे गुणित कर देने पर औदारिकमिश्रकाययोगी राशि होती है । इस औदारिकमिश्रकाययोगी जीवराशिको औदारिककाययोगके कालके गुणक.रसे गुणित कर देने पर औदारिककाययोगीराशि होती है । इसलिये औदारिककाययोगी जीव. राशिसे औदारिकमिश्रकाययोगी जीवराशि संख्यातगुणी हीन है, यह सिद्ध हुआ।
औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ ११३ ॥
चूंकि तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए सासादनसम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग पाये जाते हैं, इसलिये औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृषियों के प्रमाणको प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणाके समान होती है। अब इनका अवहारकाल कहते हैं । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, देव और नारकियोंमेंसे तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाली राशियां पहले स्थित राशिके असंख्यातवें भागमान होती हैं।
__ असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली औदारिकमिश्रकाययोगी जीव कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ११४ ॥
सम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीव मनुष्योंमें उत्पन्न होते हुए संख्यात ही पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो मनुष्य पर्याप्त राशिको असंख्यातपनेका प्रसंग आ जाता है।
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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ११५. आइरिओवएसेण' सजोगिकेवलिणो चत्तालीसं हवंति । तं जहा- कवाडे आरुहंता वीस २०, ओदरता वीसेत्ति २० ।
वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छाइटी दव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेजदिभागूणों ॥ ११५॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । देवाणं जो रासी अप्पप्पणो संखेजदिभाएण परिहीणो वेउव्वियकायजोगिमिच्छाइट्ठीणं पमाणं होदि । कुदो ? देव-णेरइयरासिमेगटुं करिय मण-वचिकायजोगद्धासमासेण खंडिय लद्धं तिप्पडिरासिं काऊण अप्पप्पणो अद्धाहि गुणिदे सग-सगरासीओ हवंति । जेण मण-बचिजोगरासीओ देवाणं संखेजदिभागो हवंति,
विशेषार्थ- असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औदारिकमिश्रकाययोग तिर्यंच और मनुष्य दोनों में पाया जाता है। फिर भी जो सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं वे मनुष्य ही होते हैं, अतएव ऐसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण स्वल्प ही रहेगा। तथा मनुष्यगतिसे जो जीव सम्यक्त्वके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होंगे उनका भी प्रमाण स्वल्प ही रहेगा। अब रह गई नरक और देवगतिकी बात, सो इन दोनों गतियोंसे सम्यग्दृष्टि मरकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु पर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण संख्यात ही है। अतएव नरक और देवगतिसे मरकर मनुष्यों में होनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही उत्पन्न होंगे, अधिक नहीं । इसलिये औदारिकमिश्रकाययोगी सम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण संख्यात ही होगा, अधिक नहीं, यह सिद्ध हो जाता है।
सूत्रके अविरुद्ध आचार्योंके उपदेशानुसार औदारिकमिश्रकाययोगमें सयोगिकेवली जीव चालीस होते हैं । इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- कपाट समुद्धातमें आरोहण करनेवाले औदारिकमिश्रकाययोगी वीस और उतरते हुए वीस होते हैं।
वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंके संख्यातवें भाग कम हैं ॥ ११५ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते है-अपनी अपनी राशिके संख्यातवें भागसे न्यून देवोंकी जो राशि है उतना वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है, क्योंकि, देव और नारकियोंकी राशिको एकत्रित करके मनोयोग, वचनयोग और काययोगके कालके जोड़से खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी तीन प्रतिराशियां करके अपने अपने कालसे गुणित करने पर अपनी अपनी राशियोंका प्रमाण होता है। चूंकि मनोयोगी जीवराशि और पचनयोगी जीव
१ प्रतिषु -ओवएस ' इति पाठः । २ सुरणिस्यकायजोगा वेगुब्बियकायजोगा हु॥ गो. जी. २६९. ३ प्रतिषु । रासीओ' इति पाठः ।
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१, २, ११६.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपख्वणं
[ ३९९ तेण वेउब्वियकायजोगिमिच्छाइट्ठिरासिपमाणं संखेजदिभागपरिहीणदेवरासिणा समाण भवदि।
एत्थ अवहारकालो उच्चदे। देव-णेरइयमिच्छाइद्विरासिसमासम्मि मण-वचि-वेउब्धियमिस्सकाय-कम्मइयकायजोगिदेव-णेरइयमिच्छाइट्ठिरासिसमासेण भागे हिदे संखेजरूवाणि लभंति । तेहि रूवूणेहि संखेज्जपदरंगुलमेत्तं देव-णेरइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेउब्धियकायजोगिमिच्छाइडिअवहारकालो होदि ।
सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ ११६॥
देवगुणपडिवण्णाणं रासिपमाणं अप्पप्पणो संखेज्जदिभाएण ऊणं वेउब्धियकायजोगिगुणपडिवण्णरासिपमाणं होदि । तं जहा- देव-णेरइयगुणपडिवण्णरासिम्हि अप्पप्पणो मण-वचि-वेउब्धियमिस्स-कम्मइयरासीहि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवेहि रूवणेहि देव
रइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेउनियकायजोगिगुणपडिवण्णाणमवहारकाला भवंति ।
राशि देवोंके संख्यातवें भाग है, इसलिये चैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण संख्यातवें भाग कम देवराशिके समान होता है।
अब यहां पर अवहारकालका कथन करते हैं- देव मिथ्यादृष्टिराशि और नारक मिथ्यादृष्टिराशिका जितना योग हो उसे मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी देव और नारकी मिथ्यादृष्टि राशिके योगसे भाजित करने पर संख्यात लब्ध आते हैं। एक कम उस संख्यातसे संख्यात प्रतरांगुलमान देव और नारकियोंके जोड़रूप अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उन्हीं दोनोंके जोड़रूप अवहारकालमें मिला देने पर वैक्रियिककाययोगी मियादृष्टियोंका अवहारकाल होता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिककाययोगी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ ११६ ॥
गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंकी राशिका जो प्रमाण है, अपनी अपनी उस राशिमेंसे संख्यात भाग न्यून करने पर वैक्रियिककाययोगी गुणस्थानप्रतिपन्न अपनी अपनी राशिका प्रमाण होता है। वह इसप्रकार है-गुणस्थानप्रतिपन्न देव और नारक राशिमें अपनी अपनी मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंकी राशियोंका भाग देने पर वहां जो संख्यात लब्ध आवे उसमें एक कम करके शेषसे देव और नारकियोंके योगरूप अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी देव और नारकियोंके मिले हुए अवहारकालमें मिला देने पर बैक्रियिककाययोगी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अवहारकाल होते हैं।
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४००] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ११७. वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेज्जदिभागों ॥ ११७॥
एदस्स सुत्तस्स वक्खाणं वुच्चदे । संखेज्जवस्साउअभंतरआवलियाए असंखेजदिभागमेत्तउवक्कमणकालेण' जदि देवरासिसंचओ लब्भदि, तो एदम्हादो संखेज्जगुणहीणवेउब्धियामिस्सउवक्कमणकालम्हि केत्तियमेत्तरासिसंचयं लभामो त्ति इच्छारासिणा पमाणरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवेहि देवरा सिम्हि भागे हिदे तत्थेगभागो वेउब्धियमिस्सकायजोगिमिच्छाइडिपमाणं होदि । सेसं सुगमं ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंके संख्यातवें भाग हैं ।। ११७ ॥
- अब इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं- संख्यात वर्षकी आयुके भीतर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमण कालसे यदि देवराशिका संचय प्राप्त होता है, तो इससे संख्यातगुणे हीन वैक्रियिकमिश्र उपक्रमण कालके भीतर कितनामात्र राशिका संचय प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके इच्छाराशिसे प्रमाणराशिके भाजित करने पर वहां जो संख्यात लब्ध आवेंगे उससे देवराशिके भाजित करने पर वहां एक भागप्रमाण वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है। शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ- उत्पत्तिको उपक्रमण कहते हैं, और इस सहित कालको सोपक्रमकाल कहते हैं । यह सोपक्रमकाल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र है । अर्थात् देवोंमें यदि निरन्तर जीव उत्पन्न हों तो इतने काल तक उत्पन्न होंगे। इसके पश्चात् अन्तर पड़ जायगा । वह अन्तरकाल जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट सोपक्रमकालसे संख्यातगुणा है । देवोंमें संख्यात वर्षकी आयु लेकर अधिक जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिये यहां उन्हींकी विवक्षा है। इसप्रकार संख्यात वर्षके भीतर जितने उपक्रमकाल होते हैं उनमें यदि देवराशिका संचय प्राप्त होता है तो इससे संख्यातगुणे हीन मिश्रकालमें अपर्याप्त अवस्थाके सोपक्रमकालमें) कितने जीव होंगे। इसप्रकार त्रैराशिक करने पर सर्व देवराशिके संख्यातवें भागमात्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों का प्रमाण होता है। यहां असंख्यात वर्षकी आयुवाले देवों और नारकियोंकी अपेक्षा वैक्रियकमिश्रकाययोगियों के प्रमाणके नहीं लानेका कारण यह है कि उनका अनुपक्रमकाल अधिक होनेसे उनमें वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका प्रमाण अल्प होगा, इसलिये उनकी यहां विवक्षा नहीं की है।
१ सोत्रक्कमाणुवक्कमकालो संखेन्जवासठिदिवाणे । आवलि असंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो। तहिं सव्वे सुद्धसला सोवक्कमकालदा दु संखगुणा । तत्तो संखगुणूणा अपुण्णकालम्हि सुद्धसला ॥ तं सुद्धसलागाहिदणियरासिमपुण्णकालल दाहिं । सुद्धसलागाहिं गुणे वेंतरवेगुव्वमिस्सा हु॥ तहिं सेसदेवणारयमिस्स जुदे सबमिस्सवेगुव्वं ॥ गो. जी. २६६-२६९.
२ तत्र उत्पत्तिः उपक्रमः, तत्सहितः कालः सोपक्रमकालः निरन्तरोत्पत्तिकाल: इत्यर्थः। गो.जी.२६६ टीका. ३ अ प्रतौ -कालेण गहिदे जदि' इति पाठः
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१, २, ११९.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमगणापमाणपरूवणं
[१०१ सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ ११८ ॥
तिरिक्ख-मणुससासण-असंजदसम्माइद्विणो जेण देवेसुप्पज्जमाणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ता लम्भंति तेणेदेसिं पमाणपरूवणा ओघं, ओघेण समाणा ति वुत्तं होदि । एदेसिमवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे । तं जहा- ओरालियमिस्ससासणसम्माइडिअवहारकालमावलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे वेउव्वियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइट्टिअवहारकालो होदि । ओरालियकायजोगिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे वेउव्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । किं कारणं ? तिरिक्खाणमसंखेज्जादभागस्स देवेसुप्पत्तीदो। केण कारणेण वेउब्धियमिस्सकायजोगिसासणेहिंतो ओरालियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइट्ठिणो असंखेज्जगुणा ? ण एस दोसो, कुदो ? देवेसुप्पज्जमाणतिरिक्खसासणेहिंतो तिरिक्खेसुप्पज्जमाणदेवसासणाणमसंखेज्जगुणत्तादो ।
आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, चदुवणं ॥ ११९ ॥
सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ ११८ ॥
चूंकि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य देवोंमें उत्पन्न होते हुए पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाये जाते हैं, इसलिये इनके प्रमाणकी प्ररूपणा ओघ अर्थात् ओघप्ररूपणाके तुल्य होती है, यह इसका अभिप्राय है । अब इनके अपहारकालकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है- औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिककाययोगियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, तिर्यचोंके असंख्यातवें भागप्रमाण राशि देवों में उत्पन्न होती है।
शंका-वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंसे औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणे किस कारणसे हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देवोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच सासादन. सम्यग्दृष्टि जीवोंसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेवाले देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणे पाये जाते हैं।
आहारकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? १ आहारकायजोगा चउवणं होंति एकसमयम्हि ॥ गो. जी. २७०
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४०२ ]
लक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १२०.
आहारसरीरमण्णगुणट्ठाणेसु णत्थि चि जाणावणङ्कं पमत्तगणं कदं । सेसं सुद्रु
सुमं ।
(आहारमिस्स कायजोगीसु पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १२० ॥
( एत्थ आइरियपरंपरागदोवएसेण आहारमिस्सकायजोगे सत्तावीस २७ जीवा हवंति । ) अहवा आहारमिस्सकायजोगे जिणदिट्ठभावा संखेज्जजीवा हवंति, ण सत्तावीस, सुत्ते संखेज्जणिद्देसण्ण हाणुववत्तीदो मिस्सकायजोगेहिंतो आहारकायजोगीणं संखेज्जगुणत्तादो च । णच दोहमेत्थ गहणं, अजहण्णअणुक्कस्ससंखेज्जस्स सव्वगहणादो, सव्वअपज्जतद्धाहिंतो पज्जत्तद्धाणं जहण्णाणं पि संखेज्जगुणत्तदंसणादो ।
कम्मइयकायजोगीसु मिच्छा हट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, मूलोघं
॥ १२१ ॥
चौवन हैं ॥ ११९ ॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में आहारशरीर नहीं पाया जाता है, इसका ज्ञान कराने के लिये प्रमत्तसंयत पदका ग्रहण किया। शेष कथन सुगम है. आहार मिश्रका ययोगियों में प्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १२० ॥
यहां पर आचार्य परंपरासे आये हुए उपदेशानुसार आहारमिश्रकाययोगमें सत्तावीस जीव होते हैं । अथवा, आहारमिश्रकाययोगमें जिनदेवने जितनी संख्या देखी हो उतने संख्यात जीव होते हैं, सत्तावीस नहीं, क्योंकि, सूत्रमें संख्यात, यह निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता है । तथा मिश्रयोगियोंसे आहारकाययोगी जीव संख्यातगुणे हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि आहारमिश्रकाययोगी जीव संख्यात हैं, सत्तावीस नहीं । कदाचित् कहा जाय कि दो भी तो संख्यात हैं । परंतु दो यह संख्या संख्यात होते हुए भी उसका यहां पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि, सबके द्वारा अजघन्यानुत्कृष्टरूप संख्यातका ही ग्रहण किया है । अथवा, सर्व अपर्याप्तकालसे जघन्य पर्याप्त काल भी संख्यातगुणा है, इससे भी यही प्रतीत होता है कि आहारमिश्रकाययोगी सत्तावीस नहीं लेना चाहिये ।
कार्मणकाययोगियों में मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १२१ ॥
१ आहार मिस्साजोगा सत्तावीसा दु उक्कस्सं ॥ गो. जी. २७०
२ गो. जी. २६४-२६५.
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१, २, १२२. ]
दव्यमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४०३
दो सब्जीवरासी गंगापवाहो व्व निरंतरं विग्गहं काऊणुप्पज्जदि, तेण कम्मइयरासिस्स मूलोघपरूवणा ण विरुद्धा । एदस्स सुत्तस्स धुवरासी बुच्चदे । कायजोगिधुवरासिमंतोमुहुत्तेण गुणिदे कम्मइयजोगिधुवरासी होदि । तं जहा - संखेज्जावलियमेत्तअंतोमुहुत्तकाले जदि सव्वजीवरासिस्स संचओ होदि, तो तिण्हं समयाणं केत्तियं संचयं लामो ति पमाणेण इच्छागुणिदफलमोवट्टिय अंतोमुहुत्तोवट्टियसव्वजीवरासी आगच्छदि । सासणसम्माहट्टी असंजदसम्माहट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १२२ ॥
जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्खअसंजदसम्माइट्टिणो विग्गहं काऊण देवेसुप्पज्जमाणा लब्भंति, देव-तिरिक्खसासणसम्माइट्टिणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्ख- देवेसु विग्गहं करिय उववज्जमाणा लब्भंति, तेण एदेसिं पमाणपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला । एदेसिमवहारकालुप्पत्ती बुच्चदे । असजद सम्मादिट्ठि - सासणसम्मादिट्टिवेउब्वियमिस्सअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे कम्मइयकायजोगिअ संजदसम्मादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठिअवहारकाला भवंति । कुदो ? विग्गहं करिय
चूंकि सर्व जीवराशि गंगानदी के प्रवाहके समान निरंतर विग्रह करके उत्पन्न होती है, इसलिये कार्मणकाय राशि की प्ररूपणा मूलोध प्ररूपणा के समान होती है, विरुद्ध नहीं ।
अब इस सूत्र में कहे गये कार्मणकाययोगियोंके प्रमाणकी ध्रुवराशि कहते हैंकाययोगियोंकी ध्रुवराशिको अन्तर्मुहूर्तसे गुणित करने पर कार्मणकाययोगियों की ध्रुवराशि होती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- संख्यात आवलीमात्र अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा यदि सर्व जीवराशिका संचय होता है, तो तीन समय में कितना संचय प्राप्त होगा, इसप्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे प्रमाणराशिसे भाजित करने पर अन्तर्मुहूर्त काल से भाजित सर्व जीवराशि आती है ।
सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ १२२ ॥ चूंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव विग्रह करके देवोंमें उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं । तथा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीव, और उतने ही तिर्येच सासादनसम्यग्दृष्टि जीव क्रमले तिर्यच और देवोंमें विग्रह करके उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं, इसलिये सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगियोंकी प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणा के तुल्य है । अब इनके अवहारकालकी उत्पत्तिको कहते हैं— असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्र अवहारकालको भावलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर क्रमसे कार्मणकाययोगी भसंयतसम्यग्दृष्टि और सासासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अवहारकाल होते हैं, क्योंकि, विग्रह
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४०४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
मरमाणरासी देवेसु उववज्जमाणरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तादो ।
सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १२३ ॥ ( एत्थ पुव्वाइरिओवसेण सड्डी जीवा हवंति । ) कुदो ? पदरे वीस, लोगपूरणे वीस, रवि ओदरमाणा पदरे वीस चेव भवंति त्ति ।
भागाभागं वत्तइस्सामा । सव्वजीवरासिं संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा ओरा - लियकाय जोगरासीओ। सेसमसंखेज्जखंड कए बहुखंडा ओरालिय मिस्सकायजोगरासी होदि । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायमिच्छाइट्ठिरासी होदि । सेसमणतखंडे क बहुखंडा सिद्धा होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसव चिजो गिमिच्छाइट्टिणो होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउच्चियकायजोगि मिच्छाइट्टिणो होंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिमिच्छाइट्टिणो होंति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा मोसवचिज गिमिच्छाइट्टिण होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिमिच्छाइट्टिणो होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणमिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणमिच्छाइट्ठी होंति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा मोसमणमिच्छाइट्टिण होंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणमिच्छा • करके मरनेवाली राशि देवों में उत्पन्न होनेवाली राशिके असंख्यातवें भागमात्र पाई जाती है । कार्मणका योगी सयोगिकेवली जीव कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १२३ ॥
पूर्व आचार्योंके उपदेशानुसार सयोगिकेवलियों में कार्मणकाय योगी जीव साठ होते हैं, क्योंकि, प्रतर समुद्धातमें वीस, लोकपूरण समुद्रातर्फे वीस और उतरते हुए प्रतर समुद्धात में पुनः वीस जीव होते हैं ।
[ १, २, १२३.
अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके संख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण औदारिककाययोगी जीवराशि है । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण औदारिकमिश्रकाययोगी जीवराशि है । शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर भागप्रमाण कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि राशि है । शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभागप्रमाण सिद्ध जीव हैं। शेष एक भाग असंख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहुभाग उभय वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषा वचनयोगी मिध्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्य वचनयोगी मिध्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभय मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभय मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषा मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भाग संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्य मनोयोगी
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१, २, १२३.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणाभागाभागपरूवणं
(१०५ इट्ठी होति। सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा वेउब्बियमिस्सकायजोगिमिच्छाइट्टिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंड। वेउव्वियकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्माइहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसंमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजेोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कदे बहुखंडा वेउब्धियकायजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कदे असच्चमोसवचिजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कदे बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचि
मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिकमिश्र. काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं । शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभय वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषा वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्य ववनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभय मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभय मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषा मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्य मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भाग संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभय पचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषावचनयोगी सम्यग्मिथ्याशुष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात बंड करने पर
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१०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १२३. जोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। सेसं संखेन्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि सेसं संखेञ्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। सेस संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि । ओघसासणरासीदो ओघसम्मामिच्छाइट्ठिरासी संखेजगुणो त्ति सुत्तसिद्धो । सिपहि ओघसम्मामिच्छाइट्ठिरासिस्स संखेजदिभागो सच्चमणजेगिसम्मामिच्छाइद्विरासी कधं ओघसासणरासीदो संखेज्जगुणो होदि ति उत्ते वुच्चदे- जोगद्धागुणगारादो' सम्मामिच्छाइट्ठिरासिं पडि सासणसम्माइद्विरासिस्स गुणगारो बहुगो, तेण सच्चमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी सेसस्स संखज्ज. भागों । तं कधं णव्वदे सुत्तेण विणा ? पत्थि सुत्तं वक्खाणं वा, किंतु आइरियवयणमेव केवलमत्थि ) सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउब्धियकायजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि । सेस संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि ।
बहुभाग सत्यवचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभय मनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभयमनोयोगी सस्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषामनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्यमनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिसे ओघ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि संख्यातगुणी है, यह सूत्र सिद्ध है। अब ओघ सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशिके संख्यातवें भागप्रमाण सत्यमनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिसे संख्यातगुणी कैसे है, आगे इसी विषयके पूछने पर कहते हैं-योगकाल के गुणकारसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका गुणकार बहुत है, इसलिये सत्यमनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि भागाभागमें मृषामनोयोगी सम्यग्मिध्यादष्टिका प्रमाण आनेके अनन्तर जो एक भाग शेष रहता है उसका संख्यातवां भाग है।
शंका-सूत्रके विना यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-यद्यपि इस विषयमें सूत्र या व्याख्यान नहीं पाया जाता है, किंतु आचा. पोके वचन ही केवल पाये जाते हैं, जिससे यह कथन जाना जाता है।
सत्यमनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खेड करने पर बहुभाग अनुभववचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि
१ आ प्रती 'जोगवाए गुण-' इति पाठः। १ प्रतिषु ' संखेम्जा भागो' इति पाठः ।
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१, २, १२३.] दवपमाणाणुगमे जोगमगणाभागाभागपरूवणं
[ ४०७ सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिसासणसम्माइहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच. मोसमणजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि। सेस संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसासण. सम्माइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सच्चमणजोगिसासणसम्माइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा ओरालियकायजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओरालियकायजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा ओरालियसासणसम्माइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओरालियकायजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिसंजदासजदरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिसंजदासजदरासी हेदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसहै। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभयवचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषावचनयोगी सासादन. सम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्यवचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभयमनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभयमनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषामनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्यमनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात
करने पर उनमेंसे बहभाग औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग औदारिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग औदारिककाययोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभयवचनयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभयवचनयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागकेसंख्यात खंड करने पर बहुभाग मुषावचनयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्यवचनयोगी संयतासंयत जीवराशि है ।शष एक भागक संख्यात खंड करने पर बहुभाग अनुभयमनोयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग उभयमनोयोगी संयतासंयत जीवराशि
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१०८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, १२३. मणजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि। (सुत्तेण विणा वेउव्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी तिरिक्खसम्मामिच्छाइद्विप्पहुडि तीहिं वि रासीहितो असंखेज्जगुणहीणो ति कधं णव्वदे ? आइरियवयणादो । आइरियवयणमणेयंतमिदि चे, होदु णाम, णस्थि मज्झेत्थ अग्गहो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउव्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि। सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा ओरालियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि । सेसमसंखेजखंडे कए यहुखंडा वेउब्धियमिस्सकायजोगिसासणा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिसासण सम्माइद्विरासी होदि । सेसं जाणिऊण णेयव्यं ।।
अप्पाबहुअंतिविहं सत्थाणादिभेएण । सत्थाणे पयदं । पंचमणजोगि-तिण्णिवचिजोगि
है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषामनोयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्यमनोयोगी संयतासंयत जीवराशि है।
शंका-सूत्रके विना वैक्रियिकमिश्र काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि तिर्यच सम्यमिथ्यादृष्टि जीवराशिसे लेकर तीनों राशियोंसे असंख्यातगुणी हीन है, यह कैसे जाना जाता है?
समाधान-यह कथन आचार्यों के वचनसे जाना जाता है। शंका-आचार्योंके वचनोमें अनेकान्त है, अर्थात् वे अनेक प्रकारके पाये जाते हैं ?
समाधान-यदि वे अनेक प्रकारके पाये जाते हैं तो पाये जाओ, इसमें हमारा आग्रह नहीं है।
___ सत्यमनोयोगी संयतासंयत राशिके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है । शेष कथन समझकर ले जाना चाहिये ।
___ स्वस्थान आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है। पांचों मनोयोगी, तीन वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका
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१, २, १२३.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [१०९ वेउब्विय-वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं सत्थाणस्त देवगइभंगो । वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीणं सत्थाणस्स पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो। सेसकायजोगासु मिच्छाइट्ठीणं सत्थाणं णस्थि । सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइडि-असंजदसम्माइद्वि-संजदासंजदाणं सत्थाणस्स ओघभंगो।
परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा असच्चमोसमणजोगिणो चत्तारि उवसामगा। असञ्चमोसमणजोगिणो चत्तारि खवगा संवेज्जगुणा । असच्चमोसमणजोगिणो सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । असच्चमोसमणजोगिणो अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगिणो पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा'। असच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंवेज्जगुणो । असच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइहिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। असञ्चमोसमणजोगिसासणसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । असच्चमोसमणजोगिसंजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दबमसंखेज्जगुणं । असच्चमोसमणजोगिसासणसम्माइट्ठिदव्यमसंखेज्जगुणं । असच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइट्टिदव्वं संखेजगुणं ।
स्वस्थान अल्पबहुत्व देवगतिके समान है । वचनयोगी और अनुभयवचनयोगियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है। शेष काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंके स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। उन्हींके सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघ स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है।
अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है। अनुभय मनोयोगी चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक सबसे स्तोक हैं । अनुभय मनोयोगी चार गुणस्थानवर्ती क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। अनुभय मनोयोगी सयोगिकेवली जीव उक्त क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। भनुभय मनोयोगी अप्रमत्तसंयत जीव उक्त सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं। अनुभय मनोयोगी प्रमत्त. संयत जीव उक्त अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। अनुभयमनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भव. हारकाल उक्त प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है। अनुभयमनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल उक्त असंयत अवहारकालसे असंख्यातंगुणा है। अनुभयमनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल उक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है । अनुभयमनोयोगी संयतासंयतोंका अवहारकाल उत्तः सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हीं अनुभयमनोयोगी संयतासंयतोंका द्रव्य उन्हींके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। अनुभयमनोयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य उक्त संयतासंयतोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। अनुभयमनोयोगी सम्यमिथ्याष्टियोंका द्रव्य उक्त सासादनसम्यग्दृष्टियोंके द्रव्यसे संख्यातगुणा है । अनुभयमनो.
१ प्रतिषु ' अजोगिकेवली' इति पाठः। २ प्रतिषु असंखे० गुणा' इति पाठः ।
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४१० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १२३. असच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिदव्बमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । असञ्चमोसमणजोगिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव विक्खंभई असंखेज्जगुणा । सेढी असंखेज्जगुणा । दव्बमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । एवं चत्तारिमण-पंचवचिजोगीणं परत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्यं । वेउव्यियकायजोगीसु सव्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । उवरि मणजोगपरत्थाणभंगो। वेउव्यियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवो असंजदसम्माइडिअवहारकालो। सासणसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दबमसंखेज्जगुणं । असंजदसम्माइटिदव्यमसंखेज्जगुणं । उपरि मणजोगिपरत्थाणभगो। सव्वत्थोवा कायजोगिणो उवसामगा। खवगा संवेज्जगुणा । एवं णेयव्यं जाव पलिदोवमं ति । पलिदोवमादो उवरि मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । एवं ओरालियकायजोगीणं पि वत्तव्यं । ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली । असंजदसम्माइट्ठी संखेजगुणा । सासणसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्यमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । मिच्छाइटी अणंतगुणा । आहार-आहारमिस्सेसु णत्थि सत्थाणं परत्थाणं
योगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य उक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। पल्यो. पम उक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। अनुभयमनोयोगी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल पल्योपमसे असंख्यातगुणा है। उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। जगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। उन्हीं अनुभयमनोयोगी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है। जगप्रतर द्रव्यप्रमाणसे असंख्यातगुणा है । लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार शेष चार मनोयोगी और पांचों वचनयोगियोंका परस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । वैक्रियिककाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल सबसे स्तोक है। इसके ऊपर मनोयोगके परस्थान अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यासगुणा है। उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका द्रव्य अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। असंयतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका द्रव्य सासादन द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। इसके ऊपर मनोयोगियोंके परस्थान अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिये। काययोगी उपशामक सबसे स्तोक हैं। काययोगी क्षपक काययोगी उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये। पल्योपमके ऊपर काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार औदारिककाययोगियोंका भी कथन करना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सयोगिकेवली जीव सबसे स्तोक हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंयत सम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। पल्योपम सासादनसम्यग्दृष्टि औदारिकमिश्रकाययोगियोंसे असंख्यातगुणा है। औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव पल्योपमसे
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१, २, १२३. ]
Goaमाणागमे जोगमग्गणाअप्पा बहुगपरूवणे
[ ४११
वा । कम्मइयकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिणो । असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइअिवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । असजद सम्माइद्विदव्वमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । कम्मइयकायजोगिमिच्छाअनंतगुणा ।
( सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा आहारमिस्सकायजोगिजीवा । आहारकायजोगिजीवा संखेज्जगुणा | अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । सब्वे सिमसंजदसम्मादिट्ठीणं अवहारकालो असंखेज्जगुणो । एवं यव्वं जाव पलिदोवमं ति । किमेवं जाणिजदे ? उच्चियमिस्स - ओरालिय मिस्स-कम्मइयका यजोगीसु सासणसम्माइडि - असंजदसम्माइद्विरासीणं माहं ण जाणिज्जदिति । पुत्रं किमिदं परूविदं ? ण, आइरियाणं तस्स अभिप्पायंतरदरिसणट्टत्तादो ) पलिदोवमादो उवरि वचिजोगिअवहारकालो असंखेज्जगुणो | असच्चमोसवचिजोगिअवहार कालो विसेसाहिओ । वेउब्विय कायजोगि
अनन्तगुणे हैं। आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें स्वस्थान अथवा परस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है । कार्मणकाययोगियों में सयोगिकेवली जीव सबसे स्तोक हैँ । असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सयोगियों के प्रमाणसे असंख्यातगुणा है । सासादनसम्यग्दष्टियोंका अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । असंयतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य सासादन द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । पल्योपम असंयतसम्यग्दृष्टियों के द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । कार्मणकाय योगी मिथ्यादृष्टियों का द्रव्य पल्योपमसे अनन्तगुणा है ।
।
अब सर्व परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है । आहारमिश्रकाययोगी जीव सबसे स्तोक है। आहारकाययोगी जीव आहार मिश्र जीवोंसे संख्यातगुणे हैं । अप्रमत्तसंयत जीव आहारकाययेगियास संख्यातगुणे हैं । प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतों से संख्यातगुणे हैं। सभीका असंयत' सम्यग्दृष्टि अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये ।
शंका- ऐसा किसलिये समझें ?
समाधान - वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोगियों में सासादन. सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि राशियोंका माहात्म्य अर्थात् परस्पर अल्पबहुत्व नहीं जाना जाता है, इसलिये ऐसा समझना चाहिये ।
शंका - तो फिर इनके अल्पबहुत्वका पहले प्ररूपण किसलिये किया है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि, घां दूसरे आचार्योंका अभिप्रायान्तर दिखलाना उनके अल्पबहुत्व के कथनका प्रयोजन था ।
पोपमके ऊपर वचनयोगियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । अनुभयवचनयोगिका अवहारकाल वचनयोगियोंके अवहारकालसे विशेष अधिक है। वैक्रियिककाययोगियोंका
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४१२ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १२३.
अवहारकालो संखेज्जगुणो । एवं सच्चमोसव चिजोगि-मोसवचिजोगि-सच्चवचिजोगिमणजोगीण अवहारकाला' संखेज्जगुणा । असच्चमो समणजोगीणं अवहारकालो विसेसाहिओ । सच्चमोसमणजोगिअवहारकाला संखेज्जगुणो । एवं मोसमणजोगि सच्चमणजोगि वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं अवहारकाला संखेज्जगुणा । तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । सच्चमणजोगिविक्खंभसूई संखेज्जगुणा । एवं मोसमणजोगि- सच्चमो समणजोगि-असच्चमोसमणजोगीणं । तदो मणजोगिविक्खंभसूई विसेसाहिया । सच्चवचिजोगिविक्खंभसूई संखेज्जगुणा । एवं मोसवचिजोगि - ( सच्चमो सवचिजोगि ) - वेउच्वियकायजोगि. असच्चमोसवचिजोगिविक्खंभसूचीओ संखेज्जगुणाओ । वचिजोगिविक्खंभसूई विसेसाहिया । सेढी असंखेज्जगुणा । तदो वेउव्विय मिस्स कायजोगि मिच्छाइट्ठिदव्यमसंखेजगुणं । सच्चमणजोगिदव्वं संखेज्जगुणं । एवं मोसमणजोगि- सच्च मोसमणजोगि- असच्चमोसमणजोगिदव्वाणि जहाकमेण संखेज्जगुणाणि । मणजोगिदव्वं विसेसाहियं । सच्चवचिजोगिदव्वं
अवहारकाल अनुभयवचनयोगियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है । इसीप्रकार उभयवचनयोगी, मृषावचनयोगी और सत्यवचनयोगी जीवोंका अवहारकाल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा है । अनुभयमनोयोगियोंका अघहारकाल सत्यवचनयोगियोंके अवहारकालसे विशेष अधिक है । उभयमनोयोगियोंका अवहारकाल अनुभयमनोयोगियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है । इसीप्रकार असत्यमनोयोगी, सत्यमनोयोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अवहारकाल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा है । उन्हींकी अर्थात् वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी विष्कंभसूची उन्हीं के अवहारकालसे असंख्यातगुणी है । सत्यमनोयोगियोंकी विष्कंभसूची वैक्रियिकमिश्रकाययोगि योंकी विष्कंभसूचीसे संख्यातगुणी है । इसीप्रकार मृषामनोयोगी, उभयमनोयोगी और अनुभयमनोयोगियोंकी विष्कंभसूची भी समझना चाहिये । अनुभयमनोयोगियोंकी विष्कंभसूची से मनो. योगियों की विष्कंभसूची विशेष अधिक है । सत्यवचनयोगियोंकी विष्कंभसूची मनोयोगियों की विष्कंभसूची से संख्यातगुणी है । इसीप्रकार मृषावचनयोगी, उभयवचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और अनुभवचनयोगियोंकी विष्कंभसूचीयां भी उत्तरोत्तर संख्यातगुणी हैं । वचनयोगियोंकी विष्कंभसूची अनुभयवचनयोगियोंकी विष्कंभसूचीसे विशेष अधिक है । जगश्रेणी वचनयोगियोंकी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है । जगश्रेणीसे वैक्रियिक मिश्रकाय योगियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है । सत्यमनोयोगियोंका द्रव्य वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों के द्रव्य से संख्यातगुणा है । इसीप्रकार मृषामनोयोगी, उभयमनोयोगी, अनुभयमनोयोगियोंका द्रव्य यथाक्रमले संख्यातगुणा है | मनोयोगियों का द्रव्य अनुभय मनोयोगियों के द्रव्यसे विशेष अधिक है । सत्यवचनयोगियोंका
१ प्रतिषु ' अवहारकालमेतेण ' इति पाठः ।
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१, २, १.४. ]
दव्यमाणागमे वेदमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४१३
संखेज्जगुणं । एवं मोसवचिजोगि सच्चमोसव चिजोगि वेउच्चियकाय जोगि-असच्चमोसवचिजोगिदव्वाणि जहाकमेण संखेज्जगुणाणि । तदो वचिजोगिदव्त्रं विसेसाहियं । पदरमसंखेजगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । तदो अजोइणो अगंतगुणा । कम्मइयकायजोगिणो अनंतगुणा । ओरालियमस्सकायजोगिणो असंखेज्जगुणा । ओरालियकायजोगिणो मिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा |
एवं जोगमग्गणा समत्ता ।
वेद वाण इत्थवेदसु मिच्छारट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवीहि सादिरेयं ॥ १२४ ॥
१
देवगमगणा देवणं पमाणमेत्तियं होदि त्ति सुत्तम्हि ण वृत्तं, तो कधं जाणिदे इत्थवेदरासी देवीहिंतो सादिरेगो इदि ? जदि वि एत्थ ण बुत्तो तो वि 'ईसाणकप्पवासियदेवाणमुवरि तम्हि चेव देवीओ संखेज्जगुणाओ । तदो सोहम्मकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा । तहि चैव देवीओ संखेज्जगुणाओ । पढमाए पुढवीए णेरड्या असंखेज
द्रव्य मनोयोगियोंके द्रव्यसे संख्यातगुणा है । इसीप्रकार मृषावचनयोगी, उभयवचनयोगी, वैकिकाययोगी और अनुभय वचनयोगियोंका द्रव्य यथाक्रमसे संख्यातगुणा है । अनुभय वचनयोगियोंके द्रव्यसे वचनयोगियोंका द्रव्य विशेष अधिक है । जगप्रतर वचनयोगियोंके द्रव्य से असंख्यातगुणा है । लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा हैं । लोकले अयोगी जीव अनन्तगुणे हैं। अयोगियोंसे कार्मणकाय योगी जीव अनन्तगुणे हैं । कार्मणकाययोगियोंसे औदारिकमिश्रकाययोगी जीव असंख्यातगुणे हैं । औदारिकामिश्रकाययोगियोंसे औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणे इस प्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई ।
वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवियोंसे कुछ अधिक हैं ।। १२४ ॥
शंका – देवगति मार्गणा में देवियोंका प्रमाण इतना है, यह सूत्र में नहीं कहा है, अतएव यह कैसे जाना जाता है कि स्त्रीवेदराशि देवियोंसे साधिक होती है-?
समाधान - यद्यपि यहां जीवट्टणमें यह बात नहीं कही है तो भी 'ऊपर ईशानकल्पवासी देवोंके वहीं पर देवियां उनसे संख्यातगुणी हैं। उनसे सौधर्म कल्पवासी देव संख्यातगुणे हैं और वहीं पर देवियां देवोंसे संख्यातगुणी हैं। पहली पृथिवीमें नारकी जीव सौधर्म कल्पकी देवियोंसे असंख्यातगुणे हैं । भवनवासी देव नारकियोंसे
१ वेदानुवादेन स्त्रीवेदाः X X मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येय भागमिताः । स. सि. १, ८. देवी साहिया इत्थी । गो. जी. २७९.
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११४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १२५. गुणा। भवणवासियदेवा असंखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणाओ। वाणवेंतरदेवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ । जोइसियदेवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ तिदम्हादो खुद्दाबंधसुत्तादो जाणिजदे जहा देवाणं संखेज्जा भागा देवीओ होंति तितिरिक्खजोणिणीओ देवीणं संखेजदिभागो । ताओ देवीसु पक्खित्ते इत्थिवेदरासी होदि त्ति कट्ट देवीहि सादिरेयमिदि तासिं पमाणं सुत्ते वुत्तं ।
तासिमवहारकालुप्पत्तिं वत्तइस्सामो । देवअवहारकालम्हि वत्तीसरूवेहि भागे हिंदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिविय तिरिक्ख-मणुसित्थेिवदागमणिमित्तं तत्तो एक्कस्स पदरंगुलस्स संखेजदिभाए अवणिदे इत्थिवेदअवहारकालस्स भागहारो होदि । (खत्तीसरुवाणि देवअवहारकालस्स भागहारो हति ति कधं णयदे ? तेहिंतो देवीओ वत्तीसगुणा हवंति त्ति आइरियपरंपरागयुवदेसादो णव्वदे। एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे इत्थिवेदरासी होदि।)
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघं ॥१२५॥
असंख्यातगुणे हैं। तथा यहीं पर देवियां देवोंसे संख्यातगुणी है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीप भवनवासी देवोंसे संख्यातगुणे हैं। वाणब्यन्तर देव पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंसे संख्यातगुणे हैं। तथा वहीं पर देवियां देवोंसे संख्यातगुणी हैं। ज्योतिषी देव वाणव्यन्तर देवियोंसे संख्यातगुणे हैं। तथा वहीं पर देवियां देवोंसे संख्यातगुणी हैं। इस वहाबन्धक सूत्रसे यह जाना जाता है कि देवोंके संख्यात बहुभाग देवियां होती है । तथा तिर्यंच योनिमती जीव देवियोंके संख्यातवें भाग होते हैं। अतएव इन तिर्यंच योनिमतियों के प्रमाणको देवियोंके प्रमाणमें मिला देने पर स्त्रीवेद जीवराशि होती है, ऐसा समझकर देवियोंसे कुछ अधिक इसप्रकार स्त्रीवेदी जीवोंका प्रमाण सूत्रमें कहा।
अब स्त्रीवेदियोंके अवहारकालकी उत्पत्तिको बतलाते हैं- देवोंके अवहारकालको बत्तीससे भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी देव अवहारकालमें मिला कर जो योग हो उसमेंसे, तिर्यंच और मनुष्य स्त्रीवेदी जीवोंका प्रमाण लानेके लिये, एक प्रतरांगुलके संख्यातवें भागके निकाल लेने पर स्त्रीवेदी जीवोंका अवहारकाल होता है।
शंका-देष अघहारकालका भागहार बत्तीस होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-देवोंसे देवियां बत्तीसगुणी हैं, इसप्रकार भाचार्य-परंपरासे आये हुए उपदेशसे यह जाना जाता है।
योनिमतियोंके इस पूर्वोक्त अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर स्त्रीवेद मीवराशि होती है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुण१सीवेदाःxx सासादनसम्यग्दृष्टयावयः संयतासंयतान्ता सामाग्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८.
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१, २, १२६. ]
दव्यमाणागमे वेदमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४१५
जेणेदे चदुगुणट्टाणिणो' जीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तेणेदेसिं परूवणा ओघं होदि । ओघपमाणादो ऊणइत्थिवेदगुणपडिवण्णाणं कथमोघत्तं जुञ्जदे ? ण, ओम ओघमिदि उवयारेण तिस्से औघत्तसिद्धीदो | ओघअसंजदसम्म इडिअवहारकालमावलिया असंखेजदिभाएण गुणिदे इत्थिवेदअसं जदसम्म इडिअवहारकालो होदि । कुदो ? कारिसग्गमाणइत्थवेदेण दज्झतहिययाणमित्थीणं सणिदाणाणं परं सम्मत्तपरिणामासंभवादो | तहि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइट्ठिअवहार कालो होदि । तहि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियार असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकाले हि पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासीओ भवंति ।
पमत्त संजद पहुडि जाव अणियट्टिबादर सांप इयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया संखेज्जा ॥ १२६ ॥ )
"
स्थान में स्त्रीवेदी जीव ओघप्ररूपणा के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ।। १२५ ।। चूंकि ये चार गुणस्थानवर्ती जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिये इनकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणा के समान होती है ।
शंका- गुणस्थानप्रतिपन्न ओघप्ररूपणा से न्यून गुणस्थानप्रतिपन्न स्त्रीषेदियोंके प्रमाको ओपना कैसे बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ओघके समानको भी ओघ कहा जाता है, इसलिये उपचार से स्त्रीवेदियोंकी संख्याको ओघत्व सिद्ध हो जाता है ।
ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, उपलेकी अनिके समान स्त्रीवेदसे जिनका हृदय जल रहा है और जो कामाभिलाष सहित हैं, ऐसी स्त्रियोंके प्रचुरता से सम्यक्चपरिणाम संभव नहीं है । अर्थात् स्त्रीवेदके साथ प्रचुर सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं । उस स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागले गुणित करने पर स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । स्त्रवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर स्त्रीवेदी सासादनसम्यदृष्टियोंका अवहारकाल होता है । स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर स्त्रीवेदी संयतासंयताका अवहारकाल होता है । इन अवहार कालोंसे पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियोंका प्रमाण आता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिवादरसांपरायप्रविष्ट उपशमक और १ प्रतिषु ' चदुगुणट्ठाणाणि ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'सणिधाणाणं ' इति पाठः । ३ प्रमचसंयतादयोऽनिवृत्तिवादशन्ता: संख्येयाः । स. सि. १, ८.
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४१६ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १२७.
( पत्ताणं ओघरासिं संखेज्जखंडे कए एयखंड मित्थवेदपमत्तादओ भवंति । इत्थवेद उवसामगा दस १०, खवगा वीस २० ।
पुरिसवेदसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, देवेहि सादिरेयं ॥ १२७ ॥
१
देवलोए देवीणं संखेज्जदिभागमेत्ता देवा भवंति । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं संखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्खेसु पुरिसवेदा भवति । तेसु देवेसु पक्खितेसु देवेहि सादिरेयं पुरिसवेदसिपमाणं होदि ।
एत्थ अवहारकालुष्पत्तिं वत्तइस्लामो ) देवअवहारकालं तेत्तीसरूवेहि गुणिय तत् एक्कपदरंगुलं घेतूण संखेजखंड काऊण तत्थेगखंडमवणिय बहुखंडे तत्थेव पक्खिते पुरिसवेदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एदेण जगपदरे भागे हिदे पुरिसवेदमिच्छाइट्टिरासी होदि ।
( सासणसम्माद्विपहुड जाव अणियट्टिबादरसां पराइयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवाडिया, ओघं ॥ १२८ ॥
१२६ ॥
क्षपक गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानसंबन्धी ओघराशिको संख्यातसे खंडित करने पर एक खंडप्रमाण स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। स्त्रीवेदी उपशामक दश और क्षपक वीस हैं ।
पुरुष वेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंसे कुछ अधिक हैं ।। १२७ ॥
देवलोक में देवियों के संख्यातवें भागमात्र देव हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों के संख्यातवें भागमात्र तिर्यचों में पुरुषवेदी जीव हैं । इन पुरुषवेदी तिर्यंचोंके प्रमाणको देवों में प्रक्षिप्त कर देने पर देवोंसे कुछ अधिक पुरुषवेद जीवराशिका प्रमाण होता है ।
अब यहां उक्त जीवोंके अवहारकालकी उत्पत्तिको बतलाते हैं- देवोंके अवहारकालको तेतीस से गुणित करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक प्रतरांगुलको ग्रहण करके और उसके संख्यात खंड करके उनमें से एक खंडको घटाकर बहुभाग उसी पूर्वोक्त राशिमें मिला देने पर पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इस अवहारकालसे जगप्रतर के भाजित करने पर पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि राशि होती है ।
सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादरसांपरायप्रविष्ट उपशमक
१ वेदानुवादेन XX पुंवेदाश्च मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रामेताः । स. सि. १, ८. देवहिं सादिरेया पुरिसा । गो. जी. २७९.
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१२, १२९.] दव्वपमाणाणुगमे वेदमग्गणापमाणपख्वणं
[११७ इस्थिवेद-णqसयवेदरासिपरिहीणो ओघरासी पुरिसवेदस्स भवदि । कधं तस्स ओघत्तं जुज्जदे ? ण एस दोसो, ओघमिव ओघमिदि तस्स ओघत्तसिद्धीदो।।
एत्थ अवहारकालो वुच्चदे । ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालं आवलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पुरिसवेदअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो होदि । ओघपमत्तादिसु अप्पणो संखेजभागभूदइस्थि-णqसयवेदरासिपमाणमवणिदे पुरिसवेदपमत्तादओ भवंति ।
__णqसयवेदेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघं ॥ १२९ ॥
और क्षपक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥१२८॥
ओघराशिमेंसे स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी राशिको कम कर देने पर जो लब्ध रहे उतना पुरुषवेदियोंका प्रमाण है।
शंका- इस सासादनसम्यग्दृष्टि आदि पुरुषवेदीराशिको ओघपना कैसे बन सकता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ओघके समानको भी ओघ कहते हैं, इसलिये उस सासादनसम्यग्दृष्टि आदि पुरुषवेदीराशिके ओघपना सिद्ध हो जाता है।
अब पुरुषवेदियोंके अघहारकालको कहते हैं- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकाल में मिला देने पर पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर पुरुषवेदी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। ओघ प्रमत्तसंयत आदि राशियोंमेंसे उन्हींके संख्यातवें भागभूत स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी राशिके प्रमाणको घटा देने पर पुरुषवेदी प्रमतसंयत आदि जीव होते हैं।
नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १२९ ॥
१नपुंसकवेदा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः।xx नपुंसकवेदाश्च सासादनसम्यग्दृष्टयादयः संयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८. तेहिं विहीण सवदो रासी संढाणं परिमाणं ॥ गो. जी. २७१.
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११८] छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १३०. गqसयवेदमिच्छाइट्ठिणो अणंतत्तणेण ओघमिच्छाइट्ठीहि समाणा । सासणादओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तणेण ओघगुणपडिवण्णेहि समाणा त्ति ओघत्तमेदेसिं जुञ्जदे। एत्थ अवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे । तं जहः- इत्थि-पुरिसवेदसगुणपडिवण्णे अवगदवेदजीवे च णवुसयवेदमिच्छाइट्ठिरासिभजिदमेदेसिं वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते धुवरासी होदि । एदेण सव्वजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे णqसयवेदमिच्छाइद्विरासी होदि । इत्थिवेदअसंजदसम्माइट्टिअवहारकालं आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे णqसयवेदअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो हेोदि ।
(पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १३०॥
नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तत्वकी अपेक्षा ओघमिथ्यादृष्टियोंके समान हैं और नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा ओघ गुणस्थानप्रतिपन्नोंके समान हैं, इसलिये नपुंसकवेदी इन राशियोंके ओघपना बन जाता है। अब इन नपुंसकवेदियोंके अवहारकालकी उत्पत्तिको कहते हैं। वह इसप्रकार है-गुणस्थानप्रतिपन्न स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव राशिको तथा अपगतवेदी जीवराशिको तथा नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित इन्हीं स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और अपगतवेदी राशिके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टियोंकी ध्रुवराशि होती है । इससे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहार कालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यातवें
गणित करने पर नपंसकवेठी सम्यग्मियादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गणित करने पर नपंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नपुंसकवेदी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिबादरसांपरायिकप्रविष्ट उपशामक और क्षपक गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥१३०॥
१ प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिनादरान्ताः संख्ययाः । स. सि. १,८.
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१, २, १३१.] दव्पमाणाणुगमे वेदमग्गणापमाणपरूवणे [४१९
इत्थिवेदपमत्तादिरासिस्स संखेज्जदिभागमेतो णवुसयवेदपमत्तादिरासी होदि । कुदो ? इट्टपागग्गिसमाणेण णqसयवेदोदयेण सणिदाणेण पउरं सम्मत्त-संजमादीणमुक्लंभाभावादो । ओघपमाणं ण पावेंति. त्ति जाणावणटुं सुत्ते संखेज्जणिद्देसो कओ। णqसयवेदउवसामगा पंच ५, खवगा दस १० । इत्थिवेद-णवुस यवेदे पमत्ता अपमत्ता च एत्तिया चेव हति त्ति संपहि उवएसो णत्थि ।
अपगदवेदएसु तिण्हं उवसामगा केवडिया, पवेसेण एको वा दो वा तिण्णि वा, उकस्सेण चउवण्णं ॥ १३१॥
एत्थ पुरदो भण्णमाणअवगदवेदजीवसंचयपदुप्पायणसुत्तेणेव पज्जत्तं किमणेणं अवगदवेदपवेसपरूवणासुत्तेणेत्ति ?ण एस दोसो, उवसमसेढिपवेसणतुल्लो अवगयवेदपज्जायपवेसो त्ति जाणावणफलत्तादो । तिहमिदि णेदं छट्ठीबहुवयणं किंतु पढमाबहुवयणमिदि घेत्तव्यं, छट्ठविहत्तिउप्पत्तिणिमित्ताभावादो । कधमुवसंतकसायस्स उवसामगववएसो ? ण,
स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत आदि राशिके संख्यातवें भागमात्र नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयत आदि जीवराशि होती है, क्योंकि, इष्टपाककी अग्निके समान नपुंसक वेदके उदयसे अतिकामाभिलाषसे युक्त होनेके कारण प्रचुरतासे सम्यक्त्व और संयमादि परिणामोंका उपलंभ नहीं पाया जाता है। प्रमत्तसंयत आदि नपुंसकवेदी जीवराशि ओघप्रमाणको नहीं प्राप्त होती है, इसका ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें संख्यात पदका निर्देश किया है। नपुंसकवेदी उपशामक पांच और क्षपक दश होते हैं। स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव इतने ही होते हैं, इसप्रकार इस समय उपदेश नहीं पाया जाता है।
अपगतवेदियों में तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव कितने हैं ? प्रवेशसे एक, दो या तीन, और उत्कृष्टरूपसे चौवन हैं ॥ १३१ ।।
शंका-यहां आगे कहा जानेवाला अपगतवेदी जीवोंके संचयका प्ररूपक सूत्र ही पर्याप्त है, फिर अपगतवेदी जीवों के प्रवेशके प्ररूपण करनेवाले इस सूत्रका क्या प्रयोजन है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उपशमश्रेणीमें प्रवेश करनेके समान ही अपगतवेद पर्याय में प्रवेश होता है, इस बातका ज्ञान कराना इस सूत्रका फल है।
सूत्रमें आया हुआ 'तिण्हं' पद षष्ठी विभक्तिका बहुवचन नहीं है, किन्तु प्रथमा विभक्तिका बहुवचन है, यहां ऐसा अर्थ लेना चाहिये, क्योंकि, यहां पर षष्ठी विभक्तिकी उत्पत्तिका कोई निमित्त नहीं पाया जाता है।
१ प्रतिषु सविणधाणेण' इति पाठः ।
२ प्रतिषु 'उसमागेण ति पाठः । ३ अपगतवेदा अनिवृत्तिबादरादयोऽयोगकेवल्यता सानाम्योक्तांख्या: । स. सि. १,..
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४२० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १३२
दव्त्रयिणयं पडुच्च उवसंतकसायस्स वि उवसामगववएस पडि विरोहाभावाद । एत्थ पवेसविधी उवसमसेढिपवेसणेण तुल्ला । एदेण खवगअवगदवेदपवेसो वि खवगढ - पवेसेण तुल्लो त्ति जाणाविदं । कुदो ? खवगअवगदवेदपवेसं पडि पुध सुत्तारं भाभावादो । अद्धं पहुच संखेज्जा ॥ १३२ ॥
एत्थ संखेज्जा त्तिण भणिय ओघमिदि वत्तव्यं ? ण, अवलंबियपज्जयत्तादो । से सुगमं ।
तिणि खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १३३ ॥
ओघादो एदेसिं पमाणं पडि विसेसाभावा ओघतं जुज्जदे ।
शंका-उपशान्तकषाय जीवको उपशामक संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उपशान्तकषाय जीवके भी उपशामक इस संज्ञा के प्रति कोई विरोध नहीं आता है ।
यहां अपगतवेदस्थान में प्रवेशविधि उपशमश्रेणीसंबन्धी प्रवेशविधिके समान है । इसी कथनसे क्षपक अपगतवेदियों का प्रवेश भी क्षपकश्रेणीसंबन्धी प्रवेशके समान है, इसका ज्ञान करा दिया, क्योंकि, क्षपक अपगतवेदियों के प्रवेशके प्रति पृथक्रूपसे सूत्रका आरंभ नहीं पाया जाता है ।
विशेषार्थ -- जिसप्रकार उपशमश्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में सामान्यसे जघन्य एक और उत्कृष्ट चौवन जीव प्रवेश करते हैं, और विशेषरूप से पहले आदि समय में एक जीवसे लेकर सोलह आदि जीवतक प्रवेश करते हैं; तथा क्षपकश्रेणी में सामान्यसे जधन्य एक और उत्कृष्ट एकसौ आठ जीव प्रवेश करते हैं, और विशेषरूपसे पहले आदि समयमें एक जीवसे लेकर बत्तीस आदि जीव प्रवेश करते हैं; वही नियम यहां अपगतवेदियोंके लिये भी प्रवेशकी अपेक्षा समझना चाहिये ।
कालकी अपेक्षा अपगतवेदी उपशामक संख्यात हैं ।। १३२ ।।
शंका- - इस सूत्र में ' संख्यात हैं ' इसप्रकार न कहकर ' ओघप्ररूपणाके समान है ' ऐसा कहना चाहिये ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया है । शेष कथन सुगम है ।
अपगतवेदियों में तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १३३ ॥
ओघ से इन तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक और अयोगिकेवलियों के प्रमाणके प्रति कोई विशेषता नहीं है, इसलिये ओघपना बन जाता है ।
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१, २, १३४.] दव्वपमाणाणुगमे वेदमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं
[४२१ सजोगिकेवली ओघं ॥ १३४ ॥ गदत्थमेदं सुत्तं ।
(भागाभागं वत्तइस्सामो ) सधजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा णqसयवेदमिच्छाइट्टिणो भवंति । सेसमणतखंडे कए बहुखंडा अवगदवेदा हवंति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा इत्थिवेदमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा पुरिसवेदमिच्छाइट्टिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सव्वेसिमसंजदसम्माइट्ठिणो होति । सेसमोघं ।
___ अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । सत्थाणे पयदं। इत्थिवेद-पुरिसवेदाणं सत्थाणं देवमिच्छाइट्ठीणं भंगो । सासणादि जाव संजदासंजदाणं सत्थाणमोघं । णqसयवेदमिच्छाइद्विसत्थाणं णत्थि । सासणादीणं सत्थाणमोघं ।
परत्थाणे पयंद। सव्वत्थोवा इत्थिवेदुवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । असंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो
अपगतवेदियोंमें सयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १३४ ॥ इस सूत्रका अर्थ भी वही है जैसा ऊपर कह आये हैं।
भव भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अपगतवेदी जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहभाग परुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सर्व असंयतसम्यग्दृष्टि जीव है। शेष कथन भोघप्ररूपणाके समान है।
स्वस्थान आदिकके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व देव मिथ्याष्टियोंके स्वस्थान अल्पबहुत्यके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयततक स्वस्थान अल्पबहुत्य ओघ स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है । नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, सासादनसम्यग्दृष्टि आदि नपुंसकवेदियोंका स्वस्थान अल्पबहुस्व मोध स्वस्थानके समान है।
अब परस्थानमें अशबहुत्व प्रकृत है-स्त्रीवेदी उपशमक सबसे स्तोक हैं । स्त्रीवेदी क्षपक जीय स्त्रीवेदी उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदी अप्रत्तसंयत जीव स्त्रीवेदी क्षपकोसे संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत जीव स्त्रीवेदी अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है। स्त्रीधेदी सम्यग्मिध्यादृष्टियोंका अवहारकाल स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके भवहारकालसे असंख्यातगुणा है। स्त्रविदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल स्त्रीवेदी
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४२२] ___ छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १३४. संखेज्जगुणो । संजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं पडिलोमेण णेयव्यं जाव असंजदसम्माइट्ठिदव्वं त्ति । तदो पलिदोवममसंखेज्जगुणं । तदो इत्थिवेदमिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो । विक्खंभमई असंखेज्जगुणा । सेढी असंखेज्जगुणा। दव्यमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो। एवं परिसवेदस्स वि वत्तव्यं । एवं चेव णqसयवेदस्स । णवरि पलिदोवमादो उवरि मिच्छाइट्ठी अंणतगुणा त्ति वत्तव्यं ।
सव्यपरत्थाणे पयद। सव्वत्थोवा ण_सयवेदुवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । इत्थिवेवसामगा तत्तिया चेव । तेसिं खवगा संखेज्जगुणा । पुरिसवेदुवसामगा संखेजगुणा । तेसिं खवगा संखेज्जगुणा । णवूमयवेदे अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । तम्हि चेव पमत्त. संजदा संखेज्जगुणा । इत्थिवेदे अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । तम्हि चेव पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । पुरिसवेदअप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । तम्हि
सम्यग्मिध्यादृष्टियों के अवहारकालसे संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदी संयतासंयतोंका अवहारकाल स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हीं संयतासंयतोंका द्रव्य अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसप्रकार प्रतिलोमरूपसे स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके द्रव्य आने तक ले जाना चाहिये। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियों के द्रव्यसे पल्योपम असंख्यातगुणा है। पल्योपमसे स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। स्त्रीवेदी मिथ्याष्टि अवहारकालसे स्त्रीवेदियोंकी विष्कंभसूची असंख्यातगुणी है। स्त्रीवेदियोंकी विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है। जगश्रेणीसे स्त्रीवेदियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगणा है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार पुरुषवेदका भी परस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये। तथा इसीप्रकार नपुंसकवेदका भी। परंतु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदियोंका कहते समय पल्योपमके ऊपर मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं, यह कहना चाहिये।
अब सर्व परस्थानमें अस्यबहुत्य प्रकृत है-नपुंसकवेदी उपशामक जीव सबसे स्तोक हैं। नपुंसकवेदी क्षपक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदी उपशामक जीव नपुंसकवेदी क्षपकोंका जितना प्रमाण है उतने ही हैं । स्त्रीवेदी क्षपक जीव स्त्रीवेदी उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदी उपशामक जीव स्त्रीवेदी क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदी क्षपक जीव पुरुषवेदी उपशमकोंसे संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदमें अप्रमत्तसंयत जीव पुरुषवेदी क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदमें ही प्रमत्तसंयत जीव नपुंसकवेदी अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदी अप्रमत्तसंयत जीव नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदमें ही प्रमत्तसंयत जीव स्त्रीवेदी अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। सयोगिकेवली जीव स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। पुरुषधेदी अप्रमत्तसंयत नीव सयोगिकेवलियोंसे संख्यात.
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१, २, १३४.] दवपमाणाणुगमे वेदमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं
[१२६ चेव पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पुरिसवेदअसंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइडिअवहारकालो संखेजगुणो । संजदासजदअवहारकालो असंखेजगुणो । इत्थिवेदअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइटिअवहारकालो संखेजगुणो । संजदासंजदअवहारकालो असंखेजगुणो । णqसयवेदअसंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेजगुणो । सम्मामिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । संजदासजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं पडिलोमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो इथिवेदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेजगुणो । पुरिसवेदमिच्छाइहिअवहारकालो संखेज्जगुणो । तस्सेव विक्खंभसूई असंखेजगुणा । इत्थिवेदमिच्छाइट्ठिविक्खंभई संखेज्जगुणा । सेढी असंखेज्जगुणा । पुरिसवेदमिच्छाइद्वि
गुणे हैं। पुरुषवेदमें ही प्रमत्तसंयत जीव पुरुषवेदी अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल पुरुषवेदी प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है। पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहार• कालसे संख्यातगुणा है। पुरुषवेदी संयतासंयतोंका अवहार काल पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल पुरुषवेदी संयतासंयतोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अपहारकाल सांधेदी असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवारकाल स्त्रीवेदी सम्यग्मिध्यावधि अवहारकालसे संख्यातगणा है। स्त्रीवेटी संयतासंय तोका अवहारकाल स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अकहारकाल स्त्रीवेदी संयतासंयतोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदी सम्यग्मिथ्या दृष्टियोंका अवहारकाल नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल नपुंसकवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। नपुंसकवेदी संयतासंयतोंका अवहारकाल नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हीं नपुंसकवेदी संयतासंयतोंका द्रव्य अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार प्रतिलोमक्रमसे पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है। उन्हीं पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची उन्हींके अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूचीसे संख्यातगुणी है। जगश्रेणी स्त्रीवेदी मिथ्याइष्टि विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है ।
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४२४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १३५०
दन्त्रमसंखेज्जगुणं । इत्थिवेदमिच्छाइदिव्वं संखेजगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । अवगतवेदा अणतगुणा । णवुंसयवेदमिच्छाइट्ठी अनंतगुणा (वेदगुणपडवण्णगुणगारो ण' णव्यदित्ति के वि आइरिया भणति । तेसिमभिप्पाएण सव्वपरत्थाणं वुच्चदे । सव्वत्थोवा अप्पमत्त संजदा तिवेदगदा ।) ( पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । संजदा ) तिवेदा विसेसाहिया । तिवेदअर्सजद सम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । एवं दव्वं जाव पलिदोवमं ति । उवरि इत्थवेदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तदुवरि पुत्रं व वतव्वं ।
एवं वेदमग्गणा समत्ता ।
कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु
कसायाणुवादेण मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ओघं ॥ १३५ ॥
दस्त सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- अनंतत्तणेण पलिदोवमस्स असंखेजदि
पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य पुरुषवेद मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे संख्यातगुणा है । जगप्रतर स्त्रीवेद मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे असंख्यात । गुणा है। लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है । अपगतवेदी जीव लोक से अनन्तगुणे हैं - नपुंसक वेदी मिथ्यादृष्टि जीव अपगतवेदियोंसे अनन्तगुणे हैं । वेद गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अवहार कालका गुणकार ज्ञात नहीं है, ऐसा कितने ही आचार्योंका कथन है । आगे उन्हीं के अभिप्रायानुसार सर्व परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। तीनों वेदोंसे युक्त अप्रमत्तसंयत जीव सबसे स्तोक हैं। तीनों वेदोंसे युक्त प्रमत्तसंयत जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। तीन वेदवाले संयत जीव विशेष अधिक हैं । त्रिवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्या है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । इससे ऊपर स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल असंख्यातगुणा है । इससे ऊपर पहलेके समान कथन करना चाहिये । इसप्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई । कषायमार्गणा के अनुवाद से क्रोधकपायी, मानकपायी,
सगुणा
कषायी जीवोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान में जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ १३५ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है- अनन्तत्वकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव और पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा गुणस्थानप्रतिपन्न जीव ओघ मिथ्यादृष्टि और
मायाकषायी और लोभगुणस्थानतक प्रत्येक
१ प्रतिषु ' - गुणगारेण ' इति पाठः ।
२ कषायानुवादन क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्टयादयः संयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । लोभकषायाणमुक्त एव क्रमः । स. सि. १, ८.
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१, २, १३५.] दव्वपमाणाणुगमे कसायमग्गणापमाणपरूवणं [१२५ भागत्तणेण च मिच्छाइट्ठी गुणपडिवण्णा च ओघमिच्छाइट्ठि-गुणपडिवण्णेहि समाणा त्ति कह सुत्ते एदेसि परूवणा ओघमिदि वुत्ता। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो। तं कधं ? चदुकसायमिच्छाइट्ठीसु तिरिक्खरासी पहाणो, सेसगदिरासिस्स तदर्णतभागत्तादो। तत्थ वि चदुकसायमिच्छाइट्ठिरासी ण' अण्णोण्णेण समाणो । कुदो ? तदद्धाणं सारिच्छाभावा । तं जहा
तिरिक्ख-मणुसेसु सव्वत्थोवा माणद्धा । कोधद्धा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तेण । मायद्धा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पुन्छ परूंविदो । लोभद्धा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो? आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो। ण च अद्धासु असरिसासु तत्थ द्विदरासीणं समाणणिग्गम-पवेसाणं संताणं पडि गंगाप: वाहो व्व अवट्ठिदाणं सरिसत्तं जुञ्जदे । तदो चउण्हमद्धाणं समासं काऊण चदुकसाइमिच्छाइट्ठिरासिम्हि भागे हिदे लद्धं चउप्पडिरासिं करिय माणादीणमद्धाहि पडिवाडीए गुणिदे सग-सगरासीओ भवंति । एदमट्ठपदं काऊण चदुकसाइमिच्छाइद्विस्स रासिस्स अवहार
गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके समान हैं, ऐसा समझकर सूत्र में क्रोधादि कषाययुक्त ओघ मिथ्याष्टि और ओघ गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके समान है, यह कहा। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है ही।
शंका-वह विशेषता कैसे है ?
समाधान-चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टि जीवों में तिर्यंचराशि प्रधान है, क्योंकि, शेष तीन गतिसंबन्धी जीवराशि तिर्यचराशिके अनन्तवें भाग है। उसमें भी चारों कषायवाली मिथ्यादृष्टिराशि परस्पर समान नहीं है, क्योंकि, चारों कषायोंका काल समान नहीं हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-तिर्यंच और मनुष्यों में मानका काल सबसे स्तोक है। क्रोधका काल मानकालसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलीके मसख्यातवें भागमात्र विशेषसे अधिक है। मायाका काल क्रोधके कालसे विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष है? पहले प्ररूपण कर दिया है, अर्थात् आवलीका असंख्यातवां भाग विशेष है। लोभका काल मायाके कालसे विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष है? आवलीका असंख्यातवां भागप्रमाण विशेष अधिक है। इसप्रकार कालोंके विसदृश रहने पर जिनका निर्गम और प्रवेश समान है और संतानकी अपेक्षा गंगानदीके प्रवाहके समान जो अवस्थित है, ऐसी वहां स्थित उन राशियों की सदृशता नहीं बन सकती है। तदनन्तर चारों कषायोंके कालोंका योग करके उसका चारों कषायवाली मिथ्यादृष्टिराशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियां करके मानादिकके कालोंसे परिपाटीकमसे
१ प्रतिषु णं' इति पाठः।
२णरतिरियलोममायाकोही माणो विइंदियादिव । आवलिअसंखभज्जा सगकालं व समासेज ॥ गो. जी. १९८०
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४२६ ]
कालो वुच्चदे
छक्खागमे जीवाणं
चउकसाइगुणपडिवण्णपमाणमकसाइपमाणं च चदुकसाइमिच्छाइट्ठिरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते चदुक्कसाइधुवरासी होदि । तं चदुहि गुणिदे कसायरासिचदुब्भागस्स भागहारो होदि । पुणो तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लं तम्हि चेव पक्खि माणकसाइधुवरासी होदि । पुव्वभागहारमब्भहियं काऊण कसायचउभागभागहाररासिम्हि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते को धकसाइधुवरासी होदि । पुणो कोधक साइभागहारमब्भहियं काऊण पुव्विल्लधुवरासिम्हि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते मायकसाइधुवरासी होदि । कसायचउब्भागधुवरासिमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय लद्धं तम्हि चे अवणिदे लोभकसाइधुवरासी होदि । एदेहि अवहारकालेहि सव्वजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे सग-सगरासीओ आगच्छति । तिन्हं कसायमिच्छाइट्ठीणं पमाणं सव्वजीवरासिस्स चउब्भागो देणो । लोभकसाइमिच्छाइट्ठिपमाणं चदुब्भागो सादिरेगो | गुणपडिवण्णेसु देवरासी पहाणो । कुदो ? सेसमदिरासिस्स तदसंखेज्जदि
[ १, २, १३५०
गुणित करने पर अपनी अपनी राशियां होती हैं । इस अर्थपदको समझकर चार कषायपाली मिथ्यादृष्टिराशिका अवहारकाल कहते हैं
गुणस्थानप्रतिपन्न चारों कषायवाले जीवोंके प्रमाणको और कषाय रहित जीवोंके प्रमाणको तथा चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणसे भक्त पूर्वोक्त दोनों राशियों के वर्गको सर्व जीवराशिके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर चारों कषायवाले जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । उसे चारसे गुणित करने पर कषायराशिके चौथे भागका भागद्दार होता है । पुनः इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर मानकषायवाले जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । पुनः इस भागहारको अभ्यधिक करके उसका कषायराशिके चौथे भागकी भागहारराशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी भागद्दारराशिमें मिला देने पर क्रोधकषायवाले जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । पुनः क्रोधकषाय के भागहारको अभ्यधिक करके उसका पूर्वोक्त ध्रुवराशिमें भाग देने पर जो लब्ध भावे उसे उसी ध्रुवराशिमें मिला देने पर मायाकषायवाले जीवों की ध्रुवराशि होती है । कषायराशिके चौथे भागकी ध्रुवराशिको (भागहारको) आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी ध्रुवराशिमेंसे निकाल लेने पर लोभकषाय जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । इन हारकालोंसे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां आती हैं । क्रोध, मान, और माया, इन तीनों कषायवाले मिध्यादृष्टियोंका पृथक् पृथक् प्रमाण सर्व जीवराशिका कुछ कम चौथा भाग है । लोभकषायवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कुछ अधिक चौथा भाग है । गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंमें देवराशि प्रधान है, क्योंकि, शेष तीन गतियोंकी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशि गुणस्थानप्रतिपन्न देवराशिके असंख्यातवें भाग है ।
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१, २, १३५.] दव्वपमाणाणुगेम कसायमग्गणापमाणपरूवणं [१२० भागत्तादो। देवेसु चउकसायगुणपडिवण्णरासी ण समाणो तदद्धाणाणं समाणत्ताभावादो । तं जहा- देवेसु सव्वत्थोवा कोधद्धा । माणद्धा संखेज्जगुणा । मायद्धा संखेज्जगुणा । लोभद्धा संखेज्जगुणा । णेरईएसु सव्वत्थोवा लोभद्धा । मायद्धा संखेज्जगुणा । माणद्धा संखेज्जगुणा । कोधद्धा संखेज्जगुणा । एत्थ देवगदिअद्धाणं समासं काऊण ओघअसंजदरासिं खांडय चउप्पडिरासिं काऊण परिवाडीए कोधादि'अद्धाहि गुणिदे सग-सगरासीओ भवति । एवं सम्मामिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं पि कायव्वं । संजदासजदाणं पुण तिरिक्खगइअद्धासमास काऊण ओघसंजदासंजदरासि खंडिय चदुप्पडिरासिं करिय कमेण कोधादिअद्धाहि गुणिदे सग-सगरासीओ भवंति । एदेण वीयपदेण एदेसिमवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे। तं जहा- ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालं संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते लोभकसाइअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजरूवेहि गुणिदे मायकसाइअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहिं
देवों में चारों कषायवाली गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशि समान नहीं है, क्योंकि, उन चारों कषायोंके काल समान नहीं हैं । आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं- देवों में क्रोधका काल सबसे स्तोक है। मानका काल उससे संख्यातगुणा है। मायाका काल मानके कालसे संख्यातगुणा है। लोभका काल मायाके कालसे संख्यातगुणा है। नारकियों में लोभका काल सबसे स्तोक है। मायाका काल लोभके कालसे संख्यातगुणा है। मानका काल मायाके कालसे संख्यातगुणा है। क्रोधका काल मानके कालसे संख्यातगुणा है। यहां देवगतिके कषायसंबन्धी कालका योग करके उससे देवोंकी ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियां करके उन्हें परिपाटीकमसे क्रोधादिकके कालोसे गुणित करने पर अपनी अपनी राशियां होती हैं। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशियोंका भी करना चाहिये। संयतासंयतोंका प्रमाण लाते समय तो तिर्यंचगतिसंबन्धी कषायोंके कालका योग करके और उससे ओघसंयतासंयत राशिको खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियां करके क्रमसे क्रोधादिकके कालोसे गुणित करने पर अपनी अपनी राशियां होती हैं । इस बीजपदके अनुसार इन पूर्वोक्त राशियोंके अवहारकालकी उत्पत्तिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- ओघ असंयतसम्य. ग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकालमें मिला देने पर लोभकषायवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस लोभ असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मायाकषायवाले असंयत
१ पुह पुह फसायकालो णिरये अंतोमुहुत्तपरिमाणो। लोहादी संखगुणा देवेमु य कोहपहुदीदो। सबसमासेणवहिदसगसगरासी पुणो वि संगुणिदे । सगसगगुणगारेहिं य सगसगरासीण परिमाणं ॥ गो. जी. २९६, २९७.
२ प्रतिषु ' कोधाओ' इति पाठः ।
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४२८) छक्खंडागमे जीवडाणं
[१, २, १३१. गुणिदे माणकसाइअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे कोधकसाइअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । एवं सम्मामिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठीणं पि वत्तव्वं । ओघसंजदासंजदअवहारकालं चदुहि गुणिय चदुप्पडिरासिं काऊण तत्थेगरासिमसंखज्जेहि स्वेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते माणकसाइसंजदासंजदअवहारकालो होदि । पुणो पुव्वभागहारमब्भहियं काऊण चदुगुणियभागहारं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते कोधकसाइसंजदासजदअवहारकालो होदि । पुणो पुव्वभागहारमभहियं काऊण चदुगुणिदअवहारकालं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते मायकसाइसंजदासंजदअवहारकालो होदि । चदुगुणभागहारमसंखेज्जरूवहिं खंडिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे लोभकसाइसंजदासंजदअवहारकालो होदि ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १३६ ॥
ओषमिदि अभणिय संखेज्जा इदि किमé वुच्चदे ? ण एस दोसो, कुदो ? ओघसम्यादृष्टियोंका भवहारकाल होता है। इस मायाकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मानकषायवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस मानकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल होता है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंका भी कथन करना चाहिये । ओघ संयतासंयतोंके अवहारकालको चारसे गणित करके जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियां करके उनमेंसे एक राशिको असंख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी राशिमें मिला देने पर मानकषायवाले संयतासंयतोंका भवहारकाल होता है। पुनः पूर्व भागहारको अभ्यधिक करके और उससे चतुर्गुणित भाग. हारको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर क्रोधकषायी संयतासंयतोंका भवहारकाल होता है । पुनः पूर्व भागहारको अभ्यधिक करके और उससे चतुर्गुणित अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी में मिला देने पर मायाकषायी संयतासंयतोंका भवहारकाल होता है। चतुर्गुणित भागहारको असंख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी चतुर्गुणित भागाहारमेंसे घटा देने पर लोभकषायी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक चारों कषायवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १३६ ॥
शंका-सूत्रमें 'ओघ' ऐसा न कह कर 'संखेज्जा' इसप्रकार किसलिये कहा है।
प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिबादरान्ताः संख्येयाः । स.सि. १,८.
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१, २, १३७.] दव्वपमाणाणुगमे कसायमग्गणापमाणपख्वणं पमत्तादिरासिं चदुण्हं कसायाणं पडिभागेण चउविहा विहत्ते तत्थ ओघरासिपमाणाणुवलंभादो । कधमेत्थ विहज्जदे ? वुच्चदे- चउण्हं कसायाणमद्धासमासं करिय चदुप्पडिरासिं अप्पप्पणो अद्धाहि ओवट्टिय लद्धसंखेज्जरूवेहि इच्छिदरासिम्हि भागे हिदे सग-सगरासीओ भवंति । एत्थ चोदगो भणदि-पमत्तादीणं चदुकसायरासीओ समाणा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाविसेसाओ त्ति । आवलिअसंखेजदिभागमेत्तद्धाविसेसत्ते वि ण रासीणं विसेसाहियत्तं विरुज्झदे, पवेसांतराणं संखाणियमाभावादो। तेणेत्थ तेरासियं ण कीरदे ? ण, पमत्तादिसु माणकसायरासी थोवो । कोधकसायरासी विसेसाहिओ। मायकसायरासी विसेसाहिओ । लोभकसायरासी विसेसाहिओ ।
णवरि लोभकसाईसु सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवा मूलोघं ॥ १३७ ॥
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ओघ प्रमत्तसंयत आदि राशिको घार कषायोंके भागहारसे भाजित करने पर वहां ओघराशिका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता है।
शंका-इन राशियोंका यह विभाग किसप्रकार होता है ।
समाधान -चारों कषायोंके कालोंका योग करके और उसकी चार प्रतिराशियों करके अपने अपने कालसे अपवर्तित करके जो संख्यात लब्ध आवें उससे इच्छित राशिके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां होती हैं।
शंका-यहां पर शंकाकार कहता है, एक तो प्रमत्तसंयत आदिमें चारों कषायराशियां समान हैं, क्योंकि, यहां पर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कालकी विशेषता नहीं है ? दूसरे, आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कालकी विशेषता नहीं होने पर भी राशियोंकी विशेषाधिकता विरोधको प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि प्रवेशान्तर करनेवाले जीवोंके संख्याका कोई नियम नहीं पाया जाता है। इसलिये यहां पर त्रैराशिक नहीं करना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में मानकषाय जीवराशि सबसे स्तोक है। क्रोधकषाय जीवराशि मानकषाय राशिसे विशेष अधिक है। मायाकषाय अविराशि क्रोधकषाय राशिसे विशेष अधिक है। लोभकषाय जीवराशि मायाकषाय जीवराशिसे विशेष भधिक है।
इतना विशेष है कि लोभकषायी जीवों में सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव मूलोष प्ररूपणाके समान हैं ॥ १३७ ॥
१ आ प्रतौ -मेसद्धाए' इति पाठः । १ अयं तु विशेषः, सूक्ष्मसापरायसंयता: सामान्योक्तसस्याः । स. सि. १,..
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१३०] छक्खंडागमे जौवट्ठाणं
[१, २, १३८. खवगोवसामगसुहुमसांपराइएसु सुहुमलोभकसायवदिरित्तसांपरायाभावादो ओघ ण विरुज्झदे।
अकसाईसु उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ १३८॥
एत्थ भावकसायाभावं पेक्खिऊण उवसंतकसाया अकसाइणो ण दव्वकसायाभावं पडि, उदओदीरणोकट्टणुक्कट्टण-परपयडिसंकमादिविरहिददव्वकम्मरस तत्थुवलंभादो । चउबिहदव्वकम्मभेएण चउबिहत्तो मूलो उवसंतकसायरासी कधं पादेकं मूलोघपमाणं पावदे १ ण एस दोसो, कुदो ? वुच्चदे- ण ताव दव्यकसायविसेसणमेत्थ संभवइ, तेण अहियाराभावा । ण भावकसायविसेसणं पि संभवइ, तस्स तत्थाभावादो। तदो उवसंतकसायरासी ण चदुविहा विहज्जदे तो चेव मूलोपत्तं पि तस्स ण विरुज्झदि ति ।
( खीणकसायवीदरागछदुमत्था अजोगिकेवली ओघं ॥ १३९ ॥)
क्षपक और उपशामक सूक्ष्म सांपरायिक जीवों में सूक्ष्म लोभ कषायसे व्यतिरिक्त कषाय नहीं पाई जानेके कारण सूक्ष्म लोभियोंके प्रमाणको ओघत्वका प्रतिपादन करना विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
कषायरहित जीवोंमें उपशान्तकषाय वीतराग छमस्थ जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १३८॥ .
यहां भाव कषायका अभाव देखकर उपशान्तकषाय जीवोंको अकषायी कहा है, द्रव्य कषायके अभावकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि, उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण आदिसे रहित द्रव्य कर्म वहां उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पाया जाता है।
शंका-द्रव्य कर्म चार प्रकारका होनेसे चार भेदोंमें विभक्त मूल उपशान्तकषायराशि प्रत्येक मूलोघ प्रमाणको कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है। दोष क्यों नहीं है, आगे इसीका कारण कहते हैंद्रव्यकषायरूप विशेषण तो यहां संभव नहीं है, क्योंकि, उसका यहां अधिकार नहीं है। भावकषाय विशेषण भी संभव नहीं है, क्योंकि, भावकषाय वहां पाया नहीं जाता है। अतएव उपशान्तकषाय जीवराशि चार भेदों में विभक्त नहीं होती है और इसलिये उसके मूलोघपना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
क्षीणकषायवीतरागछमस्थ जीव और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १३९ ॥
१अकषाया उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८.
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१, २, १४०. ]
दव्यमाणानुगमे कसायमग्गणा भागाभागपरूवणं
[ ०३९.
एत्थ समुच्चय च सदेोवादाणं कायव्वं ? ण, च-सद्देण विणा वि तदट्ठोवलद्धीदो । एदेसिं दोन्हं गुणड्डाणाणमेगजोगकरणं किमट्ठमिदि चे, ण एस दोसो, दव्त्रयमाणं पडि एदेसिं गुणट्ठाणाणं पच्चासत्तिं पेक्खिय एगत्तविरोहाभावादो' । ण च ओघत्तं विरुज्झदे, निव्विसेसणत्तादो ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ १४० ॥
सजोगि अजोगिकेवलीणमेगमेव सुत्तं किष्ण कीरदे, केवलित्तं पडि पच्चासत्तिसंभवादो १ ण, दोन्हं पमाणगदपहाणपच्चासत्तीए अभावादो । कथं पमाणस्स पधाणत्तं ! तेणेत्थ अहियारादो | सेसं सुगमं ।
भागाभागं वत्तस्समो । सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए तत्थ बहुखंडा चउकसायमिच्छाइट्टिणो भवंति । एगखंडमकसाइणो गुणपडिवण्णा च । पुणो चदुकसायमिच्छाइट्ठिरासिमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय तत्थेगखंडं पुध ट्ठविय सेसबहुखंडे चत्तारि
शंका- इस सूत्र में समुच्चयार्थ च शब्दका ग्रहण करना चाहिये १
समाधान -- नहीं, क्योंकि, च शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थकी उपलब्धि हो जाती है ।
शंका- इन दोनों गुणस्थानोंका एक योग किसलिये किया है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यप्रमाणके प्रति दोनों गुणस्थानोंकी प्रत्यासत्ति देखकर एक योग करने में कोई विरोध नहीं आता है ।
care भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, ये दोनों गुणस्थान निर्विशेषण हैं। सयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १४० ॥
शंका – सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इन दोनोंका एक ही सूत्र क्यों नहीं बनाया है, क्योंकि, केवलित्व के प्रति इन दोनोंकी प्रत्यासत्ति पाई जाती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इन दोनोंकी प्रमाणगत प्रधान प्रत्यासत्ति नहीं पाई जाती है, इसलिये इन दोनोंका एक सूत्र नहीं किया ।
शंका - प्रमाणको प्रधानता किस कारणसे है ?
समाधान - क्योंकि, यहां उसका अधिकार है। शेष कथन सुगम है ।
अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभाग चार कषाय मिथ्यादृष्टि जीव हैं और एक भागप्रमाण अकषायी और गुणस्थानप्रतिपक्ष जीव है । पुनः चार कषाय मिथ्यादृष्टि राशिको आवलीके असंख्यातवें भागले खंडित करके उनमें से एक खंडको पृथक् करके शेष बहुभाग के चार समान पुंज करके स्थापित करना
१ अ प्रतौ ' णाणात्तविरोहादो भावादो'
इति पाठः ।
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१३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ११०. समपुंजे करिय हुवेदव्वं । पुणो अवणिदएयखंडमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडेऊण तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते लोभकसायमिच्छाइद्विरासी होदि । सेसेयखंडमावलियाए असंखेञ्जदिभाएण खंडेऊण बहुखंडे विदियपुंजे पक्खित्ते मायकसायमिच्छाइद्विरासी होदि। सेसेयखंडमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय बहुखंडे तदियपुंजे पक्खित्ते कोधकसाइमिच्छाइहिरासी होदि । सेसं चउत्थपुंजे पक्खित्ते माणकसायमिच्छाइद्विरासी होदि । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा अकसाया होति । एत्तो उवरि कसायगुणगारेहितो सम्मामिच्छाइद्विरासिं पडि सासणसम्माइद्विगुणगारो संखेज्जगुणो ति उवएसमवलंबिय भागाभागो वुच्चदे । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा लोभकसायअसंजदसम्माइहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मायकसायअसंजदसम्माइहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा माणकसायअसंजदसम्माइहिरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कोधकसायअंसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा लोभकसायसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मायकसायसम्मामिच्छाइहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा माणकसायसम्मामिच्छाइद्विरासी
चाहिये । पुन निकालकर पृथक् रक्खे हुए एक भागको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके उनमेंसे बहुभाग पहले पुंजमें मिला देने पर लोभकषाय मिथ्याटष्टि जीवराशि होती है। शेष एक खंडको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके बहुभाग दूसरे पुंजमें मिला देने पर मायाकषाय मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है । शेष एक खंडको
आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके बहुभाग तीसरे पुंजमें मिला देने पर क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है। शेष एक भागको चौथे पुंजमें मिला देने पर मानकषाय मिथ्यादृष्टि राशि होती है। सर्व जीवराशिके अनन्त खंडोंमेंसे जो एक खंड प्रमाण अकषायी
और गुणस्थानप्रतिपन्न बतलाये थे उस एक खंडके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अकषाय जीव होते हैं। अब आगे कषायके गुणकारसे सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रति सासादनसम्यग्दृष्टिका गुणकार संख्यातगुणा है। इसप्रकारके उपदेशका अवलम्बन लेकर भागाभागका कथन करते हैं। शेषके संख्यात खंड करने पर बहुभाग लोभकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मायाकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मानकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यातं खंड करने पर बहुभाग क्रोधकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग लोभकषाय सम्यग्मिथ्याष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मायाकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मानकषाय सम्यग्मिथ्याष्टि
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१, २, १४०. ]
दव्यमाणागमे कसायमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ४३३
होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा कोधकसाय सम्मामिच्छाइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा लोभकसायसासणसम्माहिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मायकसायसा सणसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा माणकसायसासणसम्माइरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कोधकसायसास सम्माडिरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा चउकसाय संजदासंजदासी होदि । तदो संजदासंजदरासिस्स असंखेज्जदिभागमवणिय सेसं चत्तारि समपुंजे करिय वेदव्वं | पुणे पुव्वमवणिदए यखंड मसंखेज्जखंड करिय तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते लोभकसाइसजदासंजदरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे करिय बहुखंडे विदियपुंजे पक्खिते मायकसाइसजदासंजदरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडं करिय बहुखंडे तदियपुंजे पक्खिते कोधक साहसं जदा संजदरासी होदि । सेसं चउत्थपुंजे पक्खित्ते माणकसाइसंजदासंजदरासी होदि । सेसं जाणिऊण णेयव्त्रं ।
अप्पा बहुगं तिविहं सत्थाणादिभेषण । तत्थ सत्थाणं वत्तइस्लामो । मिच्छाइट्ठीणं सत्थाणं णत्थि रासीदो मिच्छाइद्विधुवरासिस्स अधिगत्तादो । असंजदसम्माइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा ति सत्थाणस्स मूलोघभंगो ।
जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग क्रोधकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग लोभकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि जविराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मायाकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है । शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग मानकषाय सासादन सम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर वहुभाग क्रोधकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चार कषाय संयतासंयत जीवराशि है । तदनन्तर संयतासंयत जीवराशिके असंख्यातवें भागको घटा कर शेषके चार समान पुंज करके स्थापित कर देना चाहिये । पुनः पहले घटा कर रक्खे हुए एक खंडके असंख्यात खंड करके उनमें से बहुभाग प्रथम पुंजमें प्रक्षिप्त करने पर लोभकषाय संयतासंयत जीवराशि होती है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करके उनमें से बहुभाग दूसरे पुंजमें मिला देने पर मायाकषायी संयतासंयत जीवराशि होती है । शेष एक भागके असंख्यात खंड करके बहुभाग तीसरे पुंजमें मिला देने पर क्रोधकषायी संयतासंयत जीवराशि होती है । शेष एक भागको चौथे पुंज में मिला देने पर मानकषायी संयतासंयत जीवराशि होती है । शेष कथन जानकर ले जाना चाहिये ।
स्वस्थान आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं— मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवराशि से मिथ्यादृष्टि ध्रुवराशि अधिक है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक स्वस्थान अल्पबहुत्व मूलोघ स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है ।
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४३४ ] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १४०. परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा कोधकसाइउवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । एवं णेयव्वं जाव पलिदोवमं ति । कोधकसाइमिच्छाइटिरासी अणंतगुणो। एवं माण-माय-लोभाणं पि परत्थाणं वत्तव्यं । अकसाईसु सव्वत्थोवा उवसंतकसाया । खीणकसाया संखेज्जगुणा। अजोगिकेवली तत्तिया चेव । सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । सिद्धा अणंतगुणा।
सव्यपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा माणकसायउवसामगा। कोधकसायउवसामगा विसेसाहिया । मायकसायउवसामगा विसेसाहिया । लोभकसायउवसामगा विसेसाहिया । माणकसाइखवगा विसेसाहिया । कोधकसाइखवगा विसेसाहिया। मायकसाइखवगा विसेसाहिया । लोभकसाइखवगा विसेसाहिया । एवं जम्मि गुणट्ठाणे चत्तारि कसाया संभवंति तमस्सिऊण भणिदं । अण्णत्थुवसामएहिंतो खवगा दुगुणा चेव । संसारत्था अकसाया संखेज्जगुणा । माणकसायअपमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। कोधकसायअपमत्तसंजदा विसे
परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- क्रोधकषायी उपशामक जीव सबसे स्तोक है। क्रोधकषायी क्षपक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । क्रोधकषायी अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। क्रोधकषायी प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना जाहिये। पत्योपमसे क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण अनन्तगुणा है। इसीप्रकार मान, माया ओर लोभकषायके परस्थान अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिये । कषायरहित जीवोंमें उपशान्तकषाय जीव सबले स्तोक हैं। क्षीणकषाय जीव उपशान्तकषाय जीवोंसे संख्यातगुण हैं। अयोगिकेवली जीव उतने ही हैं। सयोगिकेवली जीव अयोगियोंसे संख्यातगुणे हैं । सिद्ध जीव सयोगियोंसे अनन्तगुणे हैं।
अब सर्वपरस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- मानकषायी उपशामक जीव सबसे स्तोक हैं। क्रोधकषायी उपशामक जीव मानकषायी उपशामकोंसे विशेष अधिक हैं। मायाकषायी उपशामक जीव मानकषायी उपशामकोंसे विशेष अधिक हैं। लोभकषायी उपशामक जीव मायाकषायी उमशामकोसे विशेष अधिक हैं। मानकषायी क्षपक जीव लोभकषायी उपशामकोंसे विशेष अधिक है। क्रोधकषायी क्षपक जीव मानकषायी क्षपकोंसे विशेष आधक है। मायाकषायी क्षपक जीव क्रोधकषायी क्षपकोसे विशेष अधिक है। लोभकषाया भपक जीव मायाकषायी क्षपकोंसे विशेष अधिक है। इसप्रकार जिस गुणस्थानमें चारों कषाय संभव है उसका आश्रय लेकर कथन किया। अन्यत्र उपशामकोंसे क्षपक ने ही होते हैं । कषाय रहित संसारी जीव लोभकषायी क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। मानकषाय अप्रमत्तसंयत जीव संसारी कषाय रहित जीवोंसे संख्यातगुणे हैं। क्रोधकषाय अप्रमत्तसंयत
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१, २, १४०.] दव्वपमाणाणुगमे कसायमग्गणाअप्पाबहुगपरूवर्ण
[४३५ साहिया। मायकसायअप्पमत्तसंजदा विसेसाहिया। लोभकसायअप्पमत्तसजदा विसेसाहिया। माणकसायपमत्तसंजदा विसेसाहिया। कोधकसायपमत्तसंजदा विसेसाहिया। मायकसायपमत्तसंजदा विसेसाहिया । लोभकसायपमत्तसंजदा विसेसाहिया । लोभकसायअसंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। मायकसायअसंजदसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । माणकसायअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो। कोधकसायअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । लोभकसायसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । मायकसायसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । माणकसायसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । कोधकसायसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो। लोभकसायसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो। मायकसायसासणसम्माइटिअवहारकालो संखेजगुणो । (माणकसायसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो।) कोधकसायसासणसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । लोभकसायसंजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो।
जीव मानकषाय अप्रमत्तोंसे विशेष अधिक हैं। मायाकषाय भप्रमत्तसंयत जीव क्रोधकषाय अप्रमत्तोंसे विशेष अधिक हैं । लोभकषाय अप्रमत्तसंयत जीव मायाकषाय अप्रमत्तोंसे विशेष अधिक हैं। मानकषाय प्रमत्तसंयत जीव लोभकषाय अप्रमत्तोंसे विशेष अधिक है। क्रोधकषाय प्रमत्तसंयत जीव मानकषाय प्रमत्तोंसे विशेष अधिक हैं। मायाकषाय प्रमत्तसंयत जीव क्रोधकषाय प्रमत्तोंसे विशेष अधिक है। लोभकषाय प्रमत्तसंयत जीव मायाकषाय प्रमत्तोंसे विशेष अधिक हैं। लोभकषाय असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल लोभकषाय प्रमत्तोंसे असंख्यातगुणा है। मायाकषाय असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल ले असंयतसम्यग्दृष्टि अपहारकालसे संख्यातगुणा है । मानकषाय असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल मायाकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल मानकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे संख्यात. गुणा है । लोभकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल मानकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। मायाकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल लोभकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। मानकषायी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल मायाकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। क्रोधकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अपहारकाल मानकषाय सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है । लोभकषाय सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल क्रोधकषाय सम्यग्मिथ्याटि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। मायाकषाय सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल लोभकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। मानकषाय सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल मायाकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालले संख्यातगुणा है। क्रोधकषाय सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल मानकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है । लोभकषाय संयतासंयतोंका अवहारकाल कोधकषाय सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यात.
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४३६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १४१. मायकसायसंजदासंजदअवहारकालो विसेसाहिओ । कोधकसायसंजदासंजदअवहारकालो विसेसाहिओ। माणकसायसंजदासंजदअवहारकालो विसेसाहिओ। तस्सेव दव्वमसंखेजगुणं । एवं अवहारकालपडिलोमेण णेयव्वं जाव पलिदोवमं ति । अकसाई अणंतगुणा । माणकसाइमिच्छाइट्ठी अणंतगुणा । कोधकसाइमिच्छाइट्टी विसेसाहिया। मायकसाइमिच्छाइट्ठी विसेसाहिया । लोभकसाइमिच्छाइट्ठी विसेसाहिया।
एवं कसायमग्गणा समत्ता । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघ ॥१४॥
एदस्सत्थो बुच्चदे । तं जहा- ओघमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठिरासीहिंतो मदिसुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठिरासिणो ण एकेण वि जीवेण ऊणा भवंति, दुविहणाणविरहिय-मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणमभावादो। विभंगणाणिणो मिच्छादिहि-सासण
......................
गुणा है। मायाकषाय संयतासंयतोंका अवहारकाल लोभकषाय संयतासंयत अवहारकालसे विशेष अधिक है । क्रोधकषाय संयतासंयतोंका अवहारकाल मायाकषाय संयतासंयत अवहारकालसे विशेष अधिक है । मानकषाय संयतासंयत अपहारकाल क्रोधकषाय संयतासंयत अवहारकालसे विशेष अधिक है । मानकषाय संयतासंयतोंका द्रव्य उन्हींके अघहारकालसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार अयहारकालके प्रतिलोमक्रमसे पल्योपमतक ले जाना चाहिये। पल्योपमसे कषायरहित जीव अनन्तगुणे हैं। मानकषायी मिथ्यादृष्टि जीव कषायरहित जीवोंसे अनन्तगुणे हैं। क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीव मानकषायी मिथ्यादृष्टियोंसे विशेष अधिक हैं। मायाकषायी मिथ्याहाट जीव क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टियोंसे विशेष अधिक है। लोभकषायी मिथ्यादृष्टि जीव मायाकषायी मिथ्यादृष्टियोंसे विशेष भधिक हैं।
इसप्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि और सांसादनसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १४१॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है- ओघ मिथ्यादृष्टिराशि और ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि राशिसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टिराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव राशि एक भी जीव प्रमाणसे कम नहीं है, क्योंकि, उक्त दोनों प्रकारके ज्ञानोले रहित मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नहीं पाये जाते हैं।
. १ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयः सामान्योक्तसंख्याः। स. सि. १.८. सण्णाणिरासिपंचयपरिहीणो सव्वजीवरासी हु । मदिसुदअण्णाणीणं पत्तेयं होदि परिमाणं ॥ गो. जी. ४६४.
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१, २, १४२.] दव्वपमाणाणुगमे णाणमग्गणापमाणपरूवणं सम्मादिहिणो अस्थि त्ति ओघमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहिंतो मदि-सुदअण्णाणमिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठिणो ऊणा होति त्ति ओघपमाणमेदेसि णत्थि ति चे ण, मदिसुदअण्णाणिविरहिदविभंगणाणीणमणुवलंभादो तदो ओघमिदि सुह घडदे । एत्थ मदिसुदअण्णाणिमिच्छाइहिरासिस्स धुवरासी वुच्चदे। तं जहा- सिद्धतेरसगुणपडिवण्णरासिं मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइद्विरासिभजिदतव्यग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठिधुवरासी होदि । ओघसासणसम्माइटिअवहारकालो चेव मदि-सुदअण्णाणिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि।
विभंगणाणीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवहि सादिरेयं ॥ १४२॥
देवमिच्छाइट्ठिणो णेरइयमिच्छाइट्ठिणो च सव्वे विहंगणाणिणो, विहंगणाणभवपञ्चयसमण्णिदत्तादो । तिरिक्खविहंगणाणिणो वि पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता होता वि
- शंका-विभंगशानी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं, इसलिये ओघमिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे मत्यज्ञानी और श्रुताक्षानी मिथ्याष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कम हो जाते हैं, इसलिये इनके ओघप्रमाणका निर्देश नहीं बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मत्यज्ञानी और श्रुताशानियों को छोड़कर विभंगवानी जीव पृथक नहीं पाये जाते हैं, इसलिये इनका प्रमाण ओघप्ररूपणाके समान अच्छीतरह बन जाता है।
अब यहां पर मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी ध्रुवराशिका कथन करते हैं। यह इसप्रकार है-सिद्धराशि और तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न राशिको तथा सिद्ध और तेरह गुणस्थान प्रतिपन्न राशिके वर्गमें मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि राशिका भाग देने पर जितना लब्ध आवे उसको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी धुवराशि होती है। ओघसासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल ही मत्यशानी और श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है।
विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवासे कुछ अधिक हैं ॥ १४२ ॥
देव मिथ्यादृष्टि जीव और नारक मिथ्यादृष्टि जीध, ये सब घिभंगशानी होते हैं, क्योंकि, ये जीव भवप्रत्यय विभंगज्ञानसे युक्त होते हैं। तिर्यंच विभंगशानी जीव जगप्रतरके
-.....
१ विमंगहानिनो मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १, ८. पल्लासंखघणंगुलहदसेदितिरिक्खगतिविमंगजुदा । णरसहिदा किंचूणाचदुगदिवेभंगपरिमाणं ॥ गो. जी. ४६३.
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४३८ ]
छेक्खडागमे जीवद्वाणं
[ १२, १४३.
असंखेजसेढिमेत्ता भवंति । तासि सेठीणं विक्खंभई असंखेज्जघणंगुलमेत्ता । केत्तियताणिघणंगुलाणि १ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि । तदो देवमिच्छाइट्ठिरासीदो विहंगणाणमिच्छाइट्ठिरासी विसेसाहिओ भवदि । विहंगणाणविरहिददेवापज्जत्तरासिं रइय-तिरिक्ख विहंगणाणीहिंतो असंखेज्जगुणं देवेहिंतो अवणिदे देवेहिं सादिरेयत्तं ण घडदि ति णासंकणिज्जं विहंगणाणिसहस्सावित्तिकरणेण विहंगणाणिदेवा गं गहणादो । वेउव्जियमिस्सरासिस्स सांतरण, देवपज्जत्ताणं सव्त्रकालमसंभवा च । एदस्त अवहारकालो बुच्चदे | तं जहा- देवमिच्छाइट्ठिअवहारकालम्हि एगपदरंगुलं घेत्तूण असंखेज्जखंड करिय तत्थे - खंडमवणिय बहुखंडे तम्हि चेव पक्खिते विहंगणाणिमिच्छाइ अवहारकालो होदि । देण जगपदरे भागे हिदे विहंगणाणिमिच्छाइद्विरासी आगच्छदि ।
साससम्म इट्टी ओघं ॥ १४३ ॥
ओघसासणसम्म इट्ठरासीदो जदि वि एसो सासणसम्माइद्विरासी अप्पणी असं
असंख्यातवें भागप्रमाण होते हुए भी असंख्यात श्रेणीप्रमाण होते हैं । उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूची असंख्यात घनांगुलप्रमाण है । वे असंख्यात घनांगुल कितने होते हैं ? पस्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं । अतएव देव मिथ्यादृष्टि जीवराशि से विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवराशि विशेष अधिक होती है । नारक और तिर्यच विभंगज्ञानियों से विभंगज्ञान से रहित देव अपर्याप्त राशि असंख्यातगुणी है । अतएव उसे देवराशिमेंसे घटा देने पर देवोंसे साधिक विभंगज्ञानियोंका प्रमाण नहीं बन सकता है, इसप्रकार भी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, प्रकृतमें विभंगज्ञानी शब्दकी आवृत्ति कर लेनेसे विभंगज्ञानी देवोंका ग्रहण किया है। दूसरे वैक्रियिकमिश्र राशि सान्तर होने के कारण देव अपर्याप्त जीव सर्वदा पाये भी नहीं जाते हैं, इसलिये विभंगज्ञानियोंका प्रमाण देवोंसे साधिक है इस कथनमें भी कोई बाधा नहीं आती है ।
अब विभंगज्ञानी मिध्यादृष्टि राशिका अवहारकाल कहते हैं । वह इसप्रकार है- देव मिथ्यादृष्टि राशिमेंसे एक प्रतरांगुलको ग्रहण करके और उसके असंख्यात खंड करके उनमें से एक खंडको निकाल कर बहुभाग उसी देव मिध्यादृष्टि अवहारकाल में मिला देने पर विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इस अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है ।
विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्ररूपणा के समान पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १४३ ॥
ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि राशि से यद्यपि यह विभंगज्ञानी सासादन सम्यग्दृष्टि राशि
१ सासादनसम्यग्दृष्टयः पत्यीपमासंख्येयभागमिताः । स. सि. १, ८.
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१, २, १४४.]
दव्वपमाणाणुगमे णाणमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४३९
खेदिभाएण तिरिक्ख- मणुसदुणाणिपमाणेण हीणो, तो वि पलिदोवमस्स असंखेदिभागमेत्तत्तणेण दोन्हं पि रासीणं पच्चासत्ती अस्थि त्ति ओघमिदि वुच्चदे |
अभिणिबोहियणाणि-सुदणाणि ओहिणाणीसु असंजदसम्माइडि हुड जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघ ॥ १४४ ॥
आभिणिबोहिय-सुदणाणीणं पमाणस्स ओघत्तं जुञ्जदे, तेहि विरहिद- असंजदसम्माइआिणमवलंभादो | ण पुण ओहिणाणीणं ओघत्तं जुजदे, ओहिणाणविरहिदतिरिक्खमणुस्ससम्माइट्ठीणमुवलंभा ? ण एस दोसो, बहुसो दत्तुतरादो ।
देसिमवहारकालुष्पत्ती बुच्चदे । तं जहा- आभिणिबोहियणाणि-सुदणाणिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो ओघअसंजद सम्माइट्ठिअवहारकालो चैव भवदि । तहि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते ओहिणाणिअसंजद सम्माइट्ठिअवहार
अपने असंख्यातवें भागरूपं मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान इन दो अज्ञानोंसे युक्त तिर्यंच और मनुष्यों के प्रमाणसे हीन है, तो भी पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा ओघसासादन सम्यग्दृष्टि राशि और विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि राशि इन दोनोंकी प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिये सूत्रमें 'ओघ ' ऐसा कहा है ।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १४४ ॥
शंका – आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी जीवोंके प्रमाणके ओघपना बन जाता है, क्योंकि, इन दोनों ज्ञानोंके विना असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं । परंतु अवधिज्ञानियों के प्रमाणके ओघपना नहीं बन सकता है, क्योंकि, अवधिज्ञान से रहित तिर्यच और मनुष्य सम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, इस प्रकार के प्रश्नका अनेकवार उत्तर दे आये हैं ।
अब इनके अवहारकालों की उत्पत्तिको कहते हैं । वह इसप्रकार है- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल ही आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकाल में मिला देने पर अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है ।
मति श्रुतिज्ञा निनोऽसंयत सम्यग्दृष्टयादयः क्षीणकषायान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । अवधिज्ञानिनोऽसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८, चदुर्गादिमदिसुदबोहा पल्लासंखेज्जया ॥ गो. जी. ४६१. ओहिरहिदा तिरिक्खा मदिणाणि असंखभागगा मणुगा । संखेज्जा हु तदूणा मदिणाणी ओहिपरिमाणं ॥ गो. जी. ४६२.
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१४०] छक्खंडागमे जीवहाणं
[२, १, १५४. कालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे (मिस्समदि-सुदअण्णाणि-) सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं चेव पक्खित्ते मिस्सतिणाणिसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे मदि-सुदअण्णाणिसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते विहंगणाणिसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे आभिणियोहियणाणि-सुदणाणिसंजदासजदअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे ओहिणाणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि । अहवा ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते तिणाणिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलिएाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे मिस्सतिणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे तिणाणिसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेअदिभाएण गुणिदे दुणाणिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे मिस्सदुणाणिसम्मामिच्छाइट्टिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजरूवेहि गुणिदे दुणाणिसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदि
इस अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आघलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर मिश्र दो ज्ञानी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असं. ख्यातवें भागले भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकालमें मिला देने पर मिश्र तीन सानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर मत्यज्ञानी और श्रुताशानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकाल में मिला देने पर विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतशानी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलोके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर अवधिज्ञानी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है । अथवा, ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालमें मिला देने पर तीन ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दप्रियांका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर मिश्र तीन ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर तीन अज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर दो ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर मिश्र दो सानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित
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१, २, १४६.] दवपमाणाणुगमे णाणमग्गणापमाणपरूवणं
[४४१ भाएण गुणिदे दुणाणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे तिणाणिसंजदासजदबहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासीओ हवंति । पमत्तादीणं पमाणं ओघमेव भवदि, विसेसाभावादो।
ओहिणाणिपमत्तादीणं पि ओघत्तं पत्ते तप्पडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि__णवरि विसेसो, ओहिणाणिसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १४५॥
__ ओहिणाणिणो पमत्तसंजदा अपमत्तसंजदा च सग-सगरासिस्स संखेजदिभागमेचा भवंति । किंतु एत्तिया इदि परिप्फुडं ण णव्यंति, संपहियकाले गुरूवएसाभावादो । णवरि ओहिणाणिणो उवसामगा चोद्दस १४, खवगा अट्ठावीस २८।
मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १४६ ॥
पमत्तापमत्तगुणट्ठाणेसु मणपज्जवणाणिणो तत्थट्टियदुणाणीणं संखेज्जदिभागमेत्ता
करने पर दो ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तीन ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोंसे पृथक् पृथक् पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां आती हैं। प्रमत्तसंयत आदिका प्रमाण ओघरूप ही होता है क्योंकि वहां विशेष का अभाव है। अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयत आदिके प्रमाणको ओघत्वकी प्राप्ति होने पर उसका प्रतिषेध करनेकेलिये आगेका सूत्र कहते हैं
इतना विशेष है कि अवधिज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १४५॥
___ अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव अपनी अपनी राशिके संख्यातवें भागमात्र होते हैं, किन्तु वे इतने ही होते हैं यह स्पष्ट नहीं जाना जाता है, क्योंकि, वर्तमानकालमें इसप्रकारका गुरुका उपदेश नहीं पाया जाता है। इतना विशेष है कि अवधिज्ञानी उपशामक चौदह और क्षपक अट्ठाईस होते हैं।
मनःपर्यायज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय वतिराग छ अस्थ गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १४६॥
प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें मनःपर्ययशानी जीव वहां स्थित दो १ प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकसायान्ताः संख्येयाः। स. सि. १, ८.
२ मनःपर्ययहानिनः प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः संख्येयाः । स. सि. १, ८. मणपज्जा संखेम्जा ॥ गो. मी. ४६१.
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४१२) छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ११७. भवंति, लद्धिसंपण्णरासीणं बहूणमसंभवादो। ते च एत्तिया इदि सम्म ण णव्वंति, संपहियकाले उवएसाभावादो । णवरि मणपज्जवणाणिणो उवसामगा दस १०, खवगा २० । (केवलणाणीसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली ओघं ॥ १४७॥) सुगममिदं सुत्तं ।
भागाभागं वत्तइस्सामो । सयजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठिणो भवंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा केवलणाणिणो भवंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा विभंगणाणिमिच्छाइहिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा आभिणिबोहिय-सुदणाणिअसंजदसम्माइट्ठिणो भवंति । ते चेव पडिरासिं काऊण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव अवणिदे ओहिणाणिअसंजदसम्माइट्ठिणो होति । सेसं संखेजखंडे कए बहुखंडा मिस्सदुणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिणो होंति । ते चेव पडिरासिं काऊण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि
शानवाले जीवोंके संख्यातवें भागमात्र होते हैं, क्योंकि, लब्धिसंपन्न राशियां बहुत नहीं हो सकती हैं। फिर भी वे इतने ही होते हैं, यह ठीक नहीं जाना जाता है, क्योंकि वर्तमानकालमें इसप्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। इतना विशेष है कि मनःपर्ययशानी उपशामक दश और क्षपक वीस होते हैं।
केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं॥१४७॥
यह सूत्र सुगम है।
अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनसे बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमें से बहभाग केवलज्ञानी जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहभाग विभंगवानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इन्हीं आभिनिबोधिकहानी और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंकी प्रतिराशि करके और उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी प्रतिराशिमेंसे घटा देने पर अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मिश्र दो ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। उन्हीं मिश्र दो शानवाले जीवोंके प्रमाणकी प्रतिराशि करके और उसे आवलोके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे
१ प्रतिषु ' तद्धि' इति पाठः।
२ केवलज्ञानिनः सयोगा अयोगाश्च सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. केवलिणो सिद्धादो होति अदिरित्ता ॥ गो. जी. ४६१.
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१, २, १४७.] दवपमाणाणुगमे णाणमग्गणाभागाभागपरूवणं
[११३ चेव अवणिदे मिस्सतिणाणिसम्मामिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा मदि-सुदअण्णाणिसासणसम्माइद्विणो होति । ते चेव पडिरासिं काऊण आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव अवणिदे विभंगणाणिसासणसम्माइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा आभिणिवोहिय-सुदणाणिसंजदासजदा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओहिणाणिसंजदासजदा होति । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
__ अहवा सबजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा केवलणाणिणो भवंति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा विहंगणाणिमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा तिणाणिअसंजदसम्माइडिगो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा तिणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा तिणाणिसासणसम्माइट्ठिणो होति । सेसमसंखज्जखेड कए बहुखंडा दुणाणिअसंजदसम्माइहिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा दुणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिणो हति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा दुणाणिसासणसम्माइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा दुणाणिसंजदासजदा होति । सेसमसंखेज्जखंडे
उसे उसी प्रतिराशिमेंसे घटा देने पर मिश्र तीन ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं । उन्हीं मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिकी प्रतिराशि करके और उसे उसी आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी प्रतिराशिमेंसे घटा देने पर विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी संयतासंयत होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग अवधिज्ञानी संयतासंयत जीव होते हैं। शेष अल्पबहुत्वका जानकर कथन करना चाहिये। अथवा, सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहभाग केवलज्ञानी जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग विभंगशानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन शानवाले सम्यग्मिथ्याहष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो शानवाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्याटष्टि जीव हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो सानवाले संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड
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१४.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १४.. कए बहुखंडा तिणाणिसंजदासजदा होति । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
अप्पाबहुअं तिविहं सत्थाणादिभेएण । मदि-सुदअण्णाणीसु सत्थाणं णत्थि । कारणं पुवमणिदं । सासणसम्माइद्विसत्थाणप्पाबहुगे ओघभंगो । विभंगणाणिमिच्छाइट्ठीणं सत्थाणस्स देवमिच्छाइट्ठीणं सत्थाणभंगो । तिणाणीसु मदि-सुदणाणीसु च असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदेसु सत्थाणमोघं । सत्थाणप्पाबहुगं गदं ।
___परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवो मदि-सुदअण्णाणिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो । दव्वमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । मिच्छाइट्ठिदव्यमणंतगुणं । सव्वत्थोवो विभंगणाणिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो । दव्यमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । विभंगणाणिमिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो । विक्खंभई असंखेज्जगुणा । ( सेढी असंखेज्जगुणा । ) दबमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेजगुणो । सबत्थोवा मदि-सुदणाणिणों' चत्तारि उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा
करने पर बहुभाग तीन ज्ञानयाले संयतासंयत जीव हैं। शेषका जानकर कथन करना चाहिये।
स्वस्थान आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे मत्यज्ञानी और श्रुतामानी जीवों में स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। कारण पहले कहा जा चुका है। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघ स्वस्थान अल्पबहुस्वके समान है। विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व देव मिथ्यादृष्टियोंके स्वस्थान अरूपबहुत्वके समान है। तीन शानवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंमें तथा मति और श्रुत इन दो ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतों में स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघस्वस्थान अल्प बहुत्वके समान है । इसप्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- मत्यशानी और श्रुताशानी सासादनसम्य. ग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । पल्योपम द्रव्यप्रमाणसे असंख्यातगुणा है। मत्यक्षानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य पल्योपमसे अनन्तगुणा है। विभंगशानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। पल्योपम द्रव्यप्रमाणसे असंख्यातगुणा है। विभंगशानी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल पल्योपमसे असंख्यातगुणा है । उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। (जगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंण्यातगुणी है। ) जगश्रेणीसे उन्हींका द्रव्य असंख्यातगुणा है । द्रव्यप्रमाणसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी चार गुणस्थानोंके उपशामक सबसे स्तोक हैं। मतिज्ञानी और श्रुतशानी क्षपक जीय उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । मतिशानी और श्रुतक्षानी अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी प्रमत्तसंयत जीव
१ प्रतिषु ' मदि-सुदणाण' इति पाठः ।
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१, २, १४७.
दव्वपमाणाणुगमे णाणमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ४४५
संखेज्जगुणा । पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । संजदासंजद अवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । असंजदसम्माइट्ठिदव्यमसंखेज्जगुणं । पलिदोत्रममसंखेज्जगुणं । एवं चेत्र ओहिणाणि परत्थाणं पिवत्तन्वं I मणपज्जवणाणि सव्वत्थोवा उवसामगा । खवगा संखेज्जगुगा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । केवलणाणीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली । अगिवली अणतगुणा । परत्थाणं गदं ।
सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणि उवसामगा दस १० । ओहिपाणिउवसामगा विसेसाहिया १४ । मणपज्जवणाणिखवगा विसेस हिया २० । ओहिगाणिखवगा विसेसाहिया २८ । मणपज्जवणाणिणो अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । तत्थेव ओहिणाणिणो विसेसाहिया । मगपजवणाणिणो पमत्ता विसेसाहिया । तत्थेव ओहिणाणिणो विसेसाहिया | कुदो एदमवगम्मदे ? उवसम - खवगसेढिम्हि एदेसिं दोन्हं णाणाणं एदेणेव
अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है । मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी संयतासंयतोंका अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालले असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य संयतासंयतों के द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । पल्योपम असंयतसम्यग्दृष्टियोंके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार अवधि - ज्ञानियोंके परस्थान अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी उपशामक सबसे स्तोक हैं । मन:पर्ययज्ञानी क्षपक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकों से संख्यातगुणे हैं । मन:पर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतों से संख्यातगुणे हैं । केवलज्ञानियों में सयोगिकेवली जीव सबसे स्तोक हैं । अयोगिकेवली जीव सयोगिकेवलियों से अनन्तगुणे हैं । इसप्रकार परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
सर्वपरस्थान में अल्पबहुत्व प्रकृत है - मन:पर्ययज्ञानी उपशामक जीव सबसे स्तोक होते हुए दश हैं । अवधिज्ञानी उपशामक मन:पर्ययज्ञानियोंसे विशेष अधिक होते हुए चौदह हैं । मन:पर्ययज्ञानी क्षपक विशेष अधिक होते हुए बीस हैं । अवधिज्ञानी क्षपक विशेष अधिक होते हुए अट्ठाईस हैं । मन:पर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत जीव अवधिज्ञानी क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। वहीं पर अर्थात् अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अवधिज्ञानी जीव मनःपर्ययज्ञानि योंसे विशेष अधिक हैं । मन:पर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत जीव अवधिज्ञानी अप्रमत्तसंयतों से विशेष अधिक हैं। वहीं पर अर्थात् प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही अवधिज्ञानी जीव मनःपर्ययज्ञानियों से विशेष अधिक हैं ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - उपशम और क्षपक श्रेणीमें इन दोनों ज्ञानोंके प्रमाणका प्ररूपण इसी
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४४६ ]
छक्खडागमे जीवद्वाणं
[ १२, १४७.
कमेण पमाणपरूवणादो । कजं कारणाणुरूवं सव्वहा ण होदि त्तिण वत्तव्वं, कत्थ वि कारणाणुरूवकज्जदंसणादो। ण जिणंतरेण वभिचारो, तस्स पडिणियदतित्थ पडिबद्धत्तादो । दुणाणिअसंजद सम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तिगाणिअसंजदसम्म इडिअवहारकालो विसेसाहिओ | दुणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तिणाणिसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो विसेसाहिओ । दुणाणिसासणसम्म इडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । तिणाणिसा सणसम्म इडिअवहारकालो विसेसाहिओ । दुणाणिसंजदासंजदअवहारकाल असंखेज्जगुणो । तिणाणिसंजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवमवहारकालपडिलोमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो विहंगणाणिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । विक्खंभसूई असंखेजगुणा । सेठी असंखेज्जगुणा । दव्वमसंखेज्जगुणं । परमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । केवलणाणिणो अनंतगुणा । मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्टिणो अनंतगुणा ।
एवं णाणमग्गणा समत्ता ।
क्रम से किया है । कार्य सर्वदा कारणके अनुरूप नहीं होता है, यह भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, कहीं पर भी कारणके अनुरूप कार्य देखा जाता है । जिनान्तरसे व्यभिचार भी नही आता है, क्योंकि, जिनान्तर प्रतिनियत तीर्थसे प्रतिबद्ध होता है ।
अवधिज्ञानी प्रमत्त संयतोंसे दो ज्ञानवाले असयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। तीन ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल दो ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकाल से विशेष अधिक है। दो ज्ञानवाले सम्यग्मिध्यादृष्टियोंका अवहारकाल तीन ज्ञानवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । तीन ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल दो ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालसे विशेष अधिक है । दो ज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल तीन ज्ञानवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालसे संख्यातगुणा है। तीन ज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल दो ज्ञानबाले सासादनसम्यग्दृष्टियों के अवद्दारकालसे विशेष अधिक है । दो ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल तीन ज्ञानवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है | तीन ज्ञानवाले संयतासंयतों का अवहारकाल दो ज्ञानवाले संयतासंयतों के भवहारकालसे असंख्यातगुणा है । उन्हीं तीन ज्ञानवाले संयतासंयतोंका द्रव्य उन्हीं भवद्दारकालसे असंख्यातगुणा है । इसप्रकार अवहारकालके प्रतिलोमक्रम से पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है । उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है । जगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंख्यात - गुणी है। उन्हींका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है । जगप्रतर द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है । केवलज्ञानी लोकसे अनन्तगुणे हैं । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव केवलज्ञानियोंसे अनन्तगुणे हैं ।
इसप्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई ।
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१, २, १४९.] दव्वपमाणाणुगमे संजममग्गणापमाणपरूवणं [४४७
संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १४८॥
एत्थ ओघदव्वादो ण किंचि ऊणमधियं वा अत्थि, भेदणिबंधणविसेसाभावादो । तदो एत्थ ओघत्तं जुञ्जदे।
सामाइय- छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव आणियट्टिवादरसांपराइयपविट्ठ उवसमा खवा त्ति ओघं ॥ १४९॥
एत्थ वि ओघत्तं ण विरुज्झदे। कुदो ? दयट्ठियणयावलंबणेण पडिगहिदेगजमा सामाइयसुद्धिसंजदा वुच्चंति, ते चेय पज्जवट्ठियणयावलंबणेण ति-चदु-पंचादिभेएण पुविल्लजमं फालिय' पडिवण्णा छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा णाम । तदो दो वि रासीओ ओघरासिपमाणादो ण भिज्जति त्ति ओघत्तं जुञ्जदे ।।
एत्थ चोदगो भणदि- उभयणयावलंबणं किं कमेण भवदि, आहो अक्कमेणेत्ति ?
संयम मार्गणाके अनुवादसे संयमियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणाके समान संख्यात हैं ॥१४८।।
यहां थोघद्रव्यप्रमाणसे कुछ न्यन या अधिक प्रमाण नहीं होता है, क्योंकि, सामान्य प्ररूपणमें भेदका कारणभत विशेषकी अपेक्षा नहीं होती है, इसलिये यहां संयममार्गणामें सामान्यसे ओघपना बन जाता है।
सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिवादरसांपरायिकप्रविष्ट उपशमक और क्षपक गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्रमाणके समान संख्यात हैं ॥ १४९ ॥
यहां सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतोंमें भी प्रमाणकी अपेक्षा ओघत्व विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेकी अपेक्षा जिन्होंने 'मैं सर्व सावधसे विरत हूं' इसप्रकार एक यमको स्वीकार किया है, वे सामायिकशुद्धिसंयत कहे जाते हैं। तथा वे ही जीव पर्यायार्थिक नयके अवलम्बन करनेकी अपेक्षा तीन, चार और पांच आदि भेदरूपसे पहलेके यमको भेद करके स्वीकार करते हुए छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत कहे जाते हैं। इसलिये ये दोनों राशियां ओघराशिके प्रमाणसे भेदको प्राप्त नहीं होती हैं, इसलिये ओघपना बन जाता है।
शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि दोनों नयोंका अवलम्बन क्या क्रमसे होता ............
१ संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयताः प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिबादरान्ताः सामान्योक्तसंख्याः स. सि. १, ८. पमत्तादिचउण्ह जुदी सामायियदुगं । गो. जी. ४८०.
२ प्रतिषु -संजमं पालिय' इति पाठः ।
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४४८] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, १४९. ण ताव अक्कमेण', विरुद्धेहि भेदाभेदेहि जुगवं ववहाराणुववत्तीदो । अह कमेण, ण सामाइयसुद्धिसंजदा छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा भवंति, एगत्तज्झवसायाणं भेदज्झवसाइत्तविरोहादो। छेदोवट्ठावणासुद्धिसंजदा वि ण सामाइयसुद्धिसंजदा तत्काले भवंति, भेदज्झवसायाणमभेदज्झवसाइत्तविरोहादो। तदो अक्कमेण दोहि णएहि पादिदोघसंजदरासी तत्थेगेण भागेण ओघपमाणं ण पावेदि त्ति ओघत्तं ण जुञ्जदे । अध कदाइ सव्यो' संजदरासी अक्कमेण एकं चिय णयमवलंबिऊण जदि चिट्ठदि त्ति इच्छिञ्जदि, तो एदाओ दुविहसंजदरासीओ सांतराओ हवंति । ण च एवं, कालाणिओगे एदासिं णिरंतरतुवलंभादो । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा- दयट्ठियणए अवलंबिदे सव्वेसिं संजदाणं एकेको चेव जमो होदि ति सामाइयसुद्धिसंजदाणं ओघसंजदपमाणं होदि । पज्जवट्ठियणए अवलंबिदे सव्वेसिं संजदाणं पादेकं पंच पंच जमा हवंति त्ति छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा वि ओघसंजदरासिपमाणं पावेंति तेणेदेसिमोघत्तं जुञ्जदे । ण च एगं चेवैज्झवमाया एयंतेण अप्पप्पणो पडिवक्खणिरवेक्खा,
है या अक्रमसे ? अक्रमसे तो हो नहीं सकता, क्योंकि, परस्पर विरुद्ध भेद और अभेद इनके द्वारा एकसाथ व्यवहार नहीं बन सकता है। यदि क्रमसे होता है तो सामायिक शुद्धिसंयत जाव छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, एकत्वरूप परिणामोंका भेदरूप परिणामोंके साथ विरोध है। उसीप्रकार छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव भी उसी समय सामायिकशुद्धिसंयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, भेदरूप परिणामोंका अभेदरूप परिणामों के साथ विरोध है। इसलिये अक्रमसे दोनों नयोंकी अपेक्षा ओघसंयतराशि संयममार्गणामें एक भागके द्वारा ओघप्रमाणको प्राप्त नहीं हो सकती है, इसलिये सामायिकशुद्धिसंयतों और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंका प्रमाण ओघप्रमाणपनेको प्राप्त नहीं हो सकता है ? कदाचित् संयतराशि अक्रमसे एक ही नयका अवलम्बन लेकर यदि रहती है, ऐसा आप चाहते हैं, तो ये दोनों संयतराशियां सान्तर हो जाती हैं। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, कालानुयोगमें ये राशियां निरन्तर हैं, ऐसा पाया जाता है ?
समाधान-यहां पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं। वह इसप्रकार है-द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सर्व संयमियोंके एक एक ही यम होता है, इसलिये सामायिकशुद्धिसंयतोंके ओघसंयोंका प्रमाण बन जाता है। पर्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो सर्व संयमियोंके प्रत्येकके पांच पांच संयम होते हैं, इसलिये छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत भी ओघसंयतराशिके प्रमाणको प्राप्त हो जाते हैं, अतएव, इन दोनों संयतोंके ओघपना बन जाता है। कुछ एक जातिके परिणाम एकान्तसे अपने प्रतिपक्षी परिणामोंसे निरपेक्ष होते हैं,
१ प्रतिषु ' अक्कमे' इति पाठः ।
२ प्रतिघु 'सत्थो' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'एग चद-', क प्रतौ' एगं चेद- 'इति पाठः।
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१, २, १५१. ]
दव्यमाणागमे संजममग्गणापमाणपरूवणं
[ ४४९
तेसिं दुण्णयत्तावत्तदो । तदो जे सामाइयसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होंति । जे छेदोवट्ठावण सुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होंति त्ति । तदो दोहं रासीणमोघत्तं जुज्जदे |
परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १५० ॥
ओघसंजदपमाणं ण पावेंति त्ति भणिदं होदि । तो वि ते केत्तिया त्ति भणिदे उच्चदे, तिरूवूण सत्तसहस्समेत्ता हवंति ।
सुहुमसां पराइय सुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइय सुद्धिसंजदा उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १५१ ॥
एत्थ एगं सुहुमसांपराइयग्गहणं अहियारपदुष्पायणहूं, अवरेगं गुणद्वाणणिदेसो । तेसिं पमाणं तिरूवूण - णव सदमेत्तं । वृत्तं च
ऐसा नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर उनको दुर्णयपनेकी आपत्ति आ जाती है । इसलिये जो सामायिक शुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं । तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं । अतएव उक्त दोनों राशियोंके ओघपना बन जाता है ।
परिहारविशुद्धिसंयतों में
प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।। १५० ।।
परिहारविशुद्धिसंयमसे युक्त प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण ओघसंयतों के प्रमाणको प्राप्त नहीं होता है, यह इस सूत्रका तात्पर्य है । तो भी उन परिहारविशुद्धिसंयतका प्रमाण कितना है, ऐसा पूछने पर कहते हैं कि वे परिहारविशुद्धिसंयत तीन कम सात हजार होते हैं।
सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसां परायिक शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणा के समान हैं ।। १५१ ॥
इस सूत्र में प्रथमवार सूक्ष्मसपरायिक पदका ग्रहण अधिकारका प्रतिपादन करनेके लिये किया है । और दूसरीवार सूक्ष्मसांपरायिक पदका ग्रहण गुणस्थानका निर्देशरूप किया है । उन सूक्ष्मसां परायिकशुद्धिसंयतों का प्रमाण तीन कम नौ सौ है । कहा भी है
१ परिहारविशुद्धिसंयताः प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च संख्येयाः । स. सि. १, ८, कमेण सेसतियं सचसहस्सा णवस्य णवलक्खा तीहिं परिहीणा ॥ गो. जी. ४८०.
२ सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८.
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छक्खंडागमे जीवहाणं
१५.1
[१, २, १५२. सत्तादी छकंता दोणवमझा य होति परिहारा ।
सत्तादी अटुंता णवमझा सुहुमरागा दु ॥ ७९ ॥ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चउट्ठाणं ओघं ॥ १५२॥
चउट्ठाणमिदि. कधमेगवयणणिदेसो ? ण, चउण्हं पि जादीए एगत्तमवलंबिय सधोवदेसादो । सेसं सुगमं ।
संजदासजदा दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १५३ ॥ सुगममिदं सुत्तं ।
असंजदेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १५४ ॥
चदुण्हमसंजदगुणट्ठाणाणं ओघचदुगुणहाणेहिंतो अविसिट्ठाणमोघत्तं जुञ्जदे । एत्थ
जिस संख्याके आदिमें सात, अन्तमें छह और मध्यमें दोवार नौ हैं उतने अर्थात् छह हजार नौसौ सत्तानवें परिहारविशुद्धिसंयत जीव हैं। तथा जिस संख्याके आदिमें सात, भन्तमें आठ और मध्यमें नौ है उतने अर्थात् आठसौ सत्तानवें सूक्ष्मरागवाले जीव हैं ॥७९॥
यथाख्यात विहारशुद्धिसंयतोंमें ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जीवोंका प्रमाण ओघप्ररूपणाके समान है ॥ १५२ ॥
शंका-सूत्रमें 'चउढाणं' इसप्रकार एकवचन निर्देश कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, जातिकी अपेक्षा एकत्वका अवलम्बन लेकर चारों गुणस्थानोंका एक वचनरूपसे उपदेश दिया है । शेष कथन सुगम है।
संयतासंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥१५३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंयतोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ १५४ ॥
असंयतसंबन्धी चारों गुणस्थान ओघ चारों गुणस्थानोंके समान हैं, इसलिये असंयत चारों गुणस्थानोंके प्रमाणके ओघपना बन जाता है। अब यहां पर अवहारकालकी उत्पत्ति
१ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि १, ८.
२ संयतासंयताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. पल्लासंखेज्जदिमं विरदाविरदाण दव्वपरिमाणं ॥ गो. जी. ४८१.
३ असंयताश्च सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. पुवुत्तरासिहीणा संसारी अविरदाण पमा ॥ गो. नी. ४८१.
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१, २, १५४.] दव्यपमाणाणुगमे संजममग्गणाभागाभाग-अप्पाबहुगपरूवणं [१५१ अवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे। तं जहा-सिद्ध-तेरसगुणपडिवण्णरासिं मिच्छाइद्विरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते मिच्छाइविधुवरासी होदि । सासणादीणमवहारकालुप्पत्ती ओघसमाणा । एवं संजदासजदाणं पि ।
भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा मिच्छाइडिणो होति । सेसमणतखंडे कए बहुखंडा सिद्धा होति । सेसमसंखेज्जखंड कए बहुखंडा असंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो होति। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइटिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा संजदासजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे' कए बहुखंडा सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा जहाक्खादसुद्धिसंजदा होति । सेस संखेज्जखंडे कए बहुखंडा परिहारया होति । (सेसेगखंडं सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा होति ।)
अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । तत्थ सत्थाणे पयदं । संजदाण सत्थाणं णत्थि, अवहाराभावादो । मिच्छाइट्ठीणं पि सत्थाणं णत्थि, रासीदो भागहारस्स बहुत्तादो। सासणसम्माइद्विमादि करिय जाव संजदासजदा त्ति एदेसि सत्थाणस्स ओघभंगो ।
...........................................
कहते हैं। वह इसप्रकार है-सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवी राशिको तथा मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित सिद्ध और तेरह गुणस्थानवर्ती राशिके धर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर मिथ्यादृष्टिशशिकी धुवराशि होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि आदिके अवहारकालोंकी उत्पत्ति ओघ सासादनसम्यग्दष्टि आदि अवहारकालोंकी उत्पत्तिके समान है। इसीप्रकार संयतासंयतोंके अवहारकालकी उत्पत्ति भी समझना चाहिये ।
भव भागाभागको बतलाते हैं-सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग मिथ्याइष्टि जीव होते है। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग सिद्ध जीव होते है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्याडष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहभाग संयतासंयत जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग यथाख्यातशुद्धिसंयत होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग परिहारविशुद्धिसंयत होते हैं। (शेष एक भाग सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयत हैं।)
स्वस्थान अल्पबहुत्व आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे यही स्वस्थान अस्पबहुस्व प्रकृत है- संयत जीवोंके अघहारकालका अभाव होनेसे स्वस्थान अल्पबत्व महीं पाया जाता है। मिथ्याष्टियों के भी स्वस्थान अल्पबहत्व नहीं है, क्योंकि. मिथ्यादृष्टि राशिले भागहार बहुत बड़ा है। सालादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक इन जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्वसामान्य स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है।
प्रतिषु · सेसमसंखेज्जखंडे ' इति पाठः ।
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१५२ ]
[ १, २, १५४.
परत्थापय । सव्वत्थोवा सामाइय-छेदोवडावणसुद्धिसंजदउवसामगा । तेसिं खवगा संखेज्जगुणा । अपमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । परिहारसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवा अपमत्तसंजदा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । सुहुमसां पराइय सुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवा उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । जहाक्खादसंजदेसु सव्वत्थोवा उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । संजदासंजदेसु परत्थाणं णत्थि । असंजदेसु सव्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । सम्मामिच्छाइडिअवहार कालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणा । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं यव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो मिच्छाइट्ठी अनंतगुणा ।
खंडाग
सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा मुहुमसांपराइयमुद्धिसंजदा । परिहारमुद्धिसंजदा संखेज्जगुणा । जहाक्खाद सुद्धिसंजदा संखेज्जगुणा । सामाइय-छेदोवट्टावण सुद्धिसंजदा दो वितुल्ला संखेजगुणा । असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । एवं यव्त्रं जाव पलिदोवमं ति । तदो उवरि मिच्छाइट्ठी अनंतगुणा ।
एवं संजममग्गणा गदा ।
अब परस्थान में अल्पबहुत्व प्रकृत है- सामायिक और छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत उपशामक जीव सबसे स्तोक हैं । उन्हींके क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । वे ही अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं । वे ही प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतों से संख्यातगुणे हैं । परिहारविशुद्धिसंयतों में अप्रमत्तसंयत जीव सबसे स्तोक हैं। प्रमत्तसंयत जीव उनसे संख्यातगुणे है । सूक्ष्मसपरायिकशुद्धिसंयतों में उपशामक जीव सबसे थोड़े हैं । क्षपक जीव उनसे संख्यातगुणे हैं । यथाख्यात संयतों में उपशामक जीव सबसे थोड़े हैं। क्षपक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । सयोगिकेवली जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं । संयतासंयतों में परस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। असंयतों में असंयतसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्या दृष्टियों का अवहारकाल असंयत सम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहार काल से संख्यातगुणा है । उन्हीं सासादन सम्यग्दृष्टियों का द्रव्य उन्हींके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं ।
अब सर्वपरस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयत जीव सबसे स्तोक हैं । परिहारविशुद्धिसंयत जीव उनसे संख्यातगुणे हैं । यथास्यातशुद्धिसंयत जीव परिहारविशुद्धिसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत जीव दोनों समान होते हुए यथाख्यातसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल उक्त दोनों संयतों के प्रमाणसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पोपमसे ऊपर मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं।
इसप्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई ।
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२, १, १५७. ]
दव्यमाणानुगमे दंसणमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४५३
सण वादे चक्खुदंसणीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ १५५ ॥
सुगममेदं सुतं, बहुसो वक्खाणिदत्तादो । असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ १५६ ॥
अइथूल-धूल- मुहुमपरूवणाओ तिष्णि वि परिवाडीए किमडुं वुच्चति, सुदुमपरूवणमेव किण बुच्चदे ? ण, महावि-मंदाइमंदमे हा विजणाणुग्गहकारणेण तहोवएसा । सेसं सुगमं । खेतेण चक्खुदंसणीसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिदि अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाए ॥ १५७ ॥
संखेज्जरूवेहि सूचिअंगुले भागे हिदे तत्थ जं लद्धं तं वग्गिदे चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठी पडिभागो होदि । एदेण पडिभागेण चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठीहि जगपदरमवहिरदि । एत्थ किं चक्खुदंसणावरणकम्मक्खओवसमा जीवा चक्खुदंसणिणो वुच्चंति, आहो चक्खु
दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। १५५ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, अनेकवार व्याख्यान हो गया है ।
कालकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ १५६ ॥
शंका - अतिस्थूल, स्थूल और सूक्ष्म, ये तीनों प्ररूपणाएं परिपाटीक्रमसे किसलिये कही जाती हैं, केवल एक सूक्ष्म प्ररूपणा क्यों नहीं कही जाती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, मेधावी, मन्दबुद्धि और अतिमन्दबुद्धि जनोंका अनुग्रह करने के कारण इस प्रकारका उपदेश दिया गया है । शेष कथन सुगम है ।
क्षेत्रकी अपेक्षा चक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता हैं ।। १५७ ।।
सूच्यंगुल में संख्यातका भाग देने पर वहां जो लब्ध आवे उसे वर्गित करने पर दर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रतिभाग होता है । इस प्रतिभागसे चक्षुदर्शनी मिध्यादृष्टि जीवोंके द्वारा जगप्रतर अपहृत होता है ।
शंका- यहां पर क्या चक्षुदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमसे युक्त जीव चक्षुदर्शनी कहे जाते हैं, या चक्षुदर्शनरूप उपयोग से युक्त जीव चक्षुदर्शनी कहे जाते हैं ? इनमेंसे प्रथम १ दर्शनानुषादेन चक्षुर्दर्शनिनो मिथ्याष्टष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभाग प्रमिताः । स. सि. १,८० मोगे चउरक्खाणं पंचक्खाणं च खीणचरिमाणं चक्खूणं । गो. जी. ४८७.
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४५१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १५८. दसणोवओगसहिदजीवा त्ति ? पढमपक्खे चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठिअवहारकालेण पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभाएण होदव्वं, चदु-पंचिंदियापज्जत्तरासीणं पाहण्णादो । ण विदियपक्खो वि, चक्खुदंसणद्विदीए' अंतोमुहत्तप्पसंगादो ति? एत्थ परिहारो वुच्चदे। असंखेज्जदिभाए चक्खिदियपडिभागे चक्खुदंसणुवजोगपाओग्गचक्खुदसणखओवसमा चक्खुदंसणिणो त्ति जेण वुचंति तेण लद्धिअपज्जत्ताणं गहणं ण भवदि, तेसु चविखदियणिप्पत्तिविरहिदेमु चक्खुदंसणोवओगसहिदतक्खओवसमाभावादो । संखेज्जसागरोवममेत्ता चक्खुदंसणिहिदी वि ण विरुज्झदे, खओवसमस्स पहाणत्तब्भुवगमादो। तदो पदरंगुलस्स संखेजदिभागमेत्तो चक्खुदंसणिमिच्छाइटिअवहारकालो होदि त्ति सिद्धं, चदु-पंचिंदियपज्जत्तरासीणं पहाणत्तभुवगमादो।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघ ॥ १५८ ॥
पक्षके ग्रहण करने पर चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमान होना चाहिये, क्योंकि, ऐसी स्थितिमें चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्रधानता है । इसप्रकार पहला पक्ष तो ठीक नहीं है । उसीप्रकार दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उसके मानने पर चक्षुदर्शनकी स्थितिको अन्तर्मुहूर्तमात्रका प्रसंग आ जाता है?
समाधान- आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं-चक्षुदर्शन वाले मिथ्यादृष्टियोंका भवहारकाल सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागरूप आक्षेपका परिहार यह है कि चूंकि यक्षुदर्शनोप. योगके योग्य वक्षुदर्शनावरणके क्षयोपशमवाले जीव चक्षुदर्शनी कहे जाते हैं, इसलिये यहां पर लभ्यपर्याप्त जीवोंका ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, वे जीव चक्षु इन्द्रियकी निष्पत्तिसे रहित होते है, इसलिये उनमें चक्षुदर्शनरूप उपयोगसे युक्त चक्षुदर्शनरूप क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। तथा चक्षुदर्शनवाले जीवोंकी स्थिति संख्यातसागरोपममात्र होती है, यह कथन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर क्षयोपशमकी प्रधानता स्वीकार की है। इसलिये चक्षुदर्शनी मिथ्यापियोंका अवहारकाल प्रतरांगुलके संख्यातवें भागमात्र होता है, यह कथन सिद्ध होता है, क्योंकि, यहां पर चक्षुदर्शनी जीवोंके प्रमाणके कथनमें चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी प्रधानता स्वीकार की है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें चक्षुदर्शनी जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १५८॥
१ प्रतिषु ' -दसणदिट्ठीए ' इति पाठः । १अ-कप्रलोः पिडिघादे'. आप्रतौ पडिवादे' इति पाठः। ३.चखुदंसीस मिच्छाइट्ठी' उक्कस्सेण वेसागरोषमसहस्साणि 'जी. का. सू. २७९-२८१.
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१, २, १६०.] दम्वपमाणाणुगमे दंसणमग्गणापमाणपखवणं
[१५५ कुदो ? चक्खुदसणक्खओवसमरहिदगुणपडिवण्णाभावादो।
अचक्खुदसणीसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघ ॥ १५९ ॥
किं कारणं? अचक्खुदसणखओवसमविरहिदछदुमत्थजीवाभावादो। संपहि अचक्खुदसणीणं धुवरासी बुच्चदे । तं जहा- सिद्ध तेरसगुणपडिवण्णरासिमचक्खुदंसणमिच्छाइट्ठिरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते अचक्खुदंसणिमिच्छाइविधुवरासी होदि । एदेण सधजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे अचक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । सासणादीणमोघम्हि भणिदअवहारो चेव वत्तव्यो, विसेसाभावादो।
ओहिंदसणी ओहिणाणिभंगों ॥ १६०॥
क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न जीव चक्षुदर्शनरूप क्षयोपशमसे रहित नहीं होते हैं । अर्थात् गुणस्थानप्रतिपन्न प्रत्येक जीवके चक्षुदर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम पाया जाता है, अतएव गुणस्थानप्रतिपन्न चक्षुदर्शनी जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके समान है।
____ अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १५९ ॥
शंका-अचक्षुदर्शनी जीवोंका प्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान है, इसका क्या
। समाधान- क्योंकि, अचक्षुदर्शनरूप क्षयोपशमसे रहित छमस्थ जीव नहीं पाये जाते हैं, इसलिये उनका प्रमाण ओघप्रमाणके समान कहा है।
अब अचक्षुदर्शनी जीवोंकी धुवराशिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशिको तथा मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित सिद्धराशि और गुणस्थानप्रतिपन्न राशिके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी धुवराशि होती है। इस ध्रुवराशिसे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण होता है। अवक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंका ओघनरूपणामें कहा गया अवहारकाल ही कहना चाहिये, क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न ओघ अवहारकालसे अचक्षुदर्शनी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अवहारकालमें कोई विशेषता नहीं है।
अवधिदर्शनी जीव अवधिज्ञानियोंके समान हैं ॥ १६० ॥
१ अचक्षुर्दर्शनिनो मिथ्याष्टयोऽनन्तानन्ताः । उभये च सासादनसम्यग्दृष्टयादयः क्षीणकषायान्ता: सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. 1, ८. एइंदियपहुदीणं खीणकसायंतणंतरासीणं । जोगो अचक्खुदंसणजीवाणं होदि परिमाणं॥ गो.जी.४८८.
२ अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् । स. सि. १,८.
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४५६ ]
छक्खंडागमे जीवाणं .. [ १, २, १६१ ओहिदसणविरहिदओहिणाणीणमभावादो । एत्थ अवहारकालो वुच्चदे । जो ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो सो चेव अचक्खुदंसणि-चक्खुदंसणिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते ओहिदंसणिअसंजदसम्माइद्विअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजरूवेहि गुणिदे चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे ओहिदंसणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि।।
केवलदसणी केवलणाणिभंगों ॥ १६१ ॥
केवलणाणविरहिदकेवलदसणाभावादो । सुद-मणपज्जवणाणाणं किमिदि ण दंसणं ? वुच्चद- ण ताव सुदणाणस्स दंसणमत्थि, तस्स मदिणाणपुव्वत्तादो । ण मणपज्जव
चूंकि अवधिदर्शनको छोड़कर अवधिज्ञानी जीव नहीं पाये जाते हैं, इसलिये दोनोंका प्रमाण समान है। अब यहां पर इनके अवहारकालका कथन करते है-जो ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल है, वही अचक्षुदर्शनी और चक्षुदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकालमें मिला देने पर अवधिदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस अवधिदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर चक्षदर्शनी और अचक्षदर्शनी सम्यग्मिथ्याटियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर चक्षदर्शनी और अचादर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर चक्षुदर्शनी और अचक्षु. दर्शनी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलोके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर अवधिदर्शनी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है।
केवलदर्शनी जीव केवलज्ञानियोंके समान हैं ॥ १६१॥
चूंकि केवलज्ञानसे रहित केवलदर्शन नहीं पाया जाता है, इसलिये दोनों राशियोंका प्रमाण समान है। - शंका-श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का दर्शन क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान-श्रुतज्ञानका दर्शन तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, वह मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानका भी दर्शन नहीं है, क्योंकि, मनःपर्ययज्ञान भी उसीप्रकारका है, अर्थात् मनःपर्ययशान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिये उसका दर्शन नहीं पाया जाता है।
१ केवलदर्शनिनः केवलज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. ओहिकेवलपरिमाण ताण जाणं च । गो. जी. ४८७. २ प्रतिषु 'सुद-मणपज्जवणागं ' इति पाठः ।
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१, २, १६१.] दवपमाणाणुगमे दसणमग्गणाभागाभागपरूवणं
[१५० णाणस्स वि दंसणमत्थि, तस्स वि तधाविधत्तादो । जदि सरूवसंवेदणं देसण तो एदेसि पि दसणस्स अत्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । ण च केवलिम्हि एसो कमो, तत्थ अक्कमेण णाण-दसणपउत्तीदो। ण च छदुमत्थेसु दोण्हमकमेण वुत्ती अत्थि, 'हंदि दुवे णत्थि उवजोगा' ति पडिसिद्धत्तादो। ण च णाणादो पच्छा दंसणं भवदि, 'दंसणपुव्वं णाणं, ण णाणपुव्वं तु दंसणमत्थि' इदि वयणादो।
__ भागाभागं वत्तइस्सामो । सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा अचक्खुदसणमिच्छाइट्ठी होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा केवलदंसणिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणमिच्छाइद्विणो होति । सेसमसंखज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणिअचक्खुदंसणिअसंजदसम्माइट्ठिदव्वं होदि । तत्थ तस्सेव असंखेजदिभागमवणिदे ओहिदंसणिदव्वं होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइढिदव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसंजदासंजददव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए
___शंका-यदि दर्शनका स्वरूप स्वरूपसंवेदन है, तो इन दोनों शानोंके भी दर्शनके अस्तित्वकी प्राप्ति होती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, उत्तरमानकी उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदनको दर्शन माना है। परंतु केवलीमें यह क्रम नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वहां पर अक्रमसे शान और दर्शनकी प्रवृत्ति होती है। छमस्थों में दर्शन और शान, इन दोनोंकी अक्रमसे प्रवृत्ति होती है, यदि ऐसा कहा जावे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, छन्नस्थोंके 'दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं। इस आगमवचनले छद्मस्थों के दोनों उपयोगोंके अक्रमसे होनेका प्रतिषेध हो जाता है। ज्ञानपूर्वक दर्शन होता है, यदि ऐसा कहा जावे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, 'दर्शनपूर्वक शान होता है, किंतु ज्ञानपूर्वक दर्शन नहीं होता है। ऐसा आगसवचन है।।
अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग केवलदर्शनी जीव हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी असं. यतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य है। इसमेंसे इसीका असंख्यातवां भाग घटा देने पर शेष अवधिदर्शनी जीवोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और भचक्षुदर्शनी संयतासंयतोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग
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१५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १५१० बहुखंडा ओहिदंसणिसंजदासंजददव्वं होदि । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । सत्थाणे पयदं। चक्खुदंसणिमिच्छाइट्टिसत्थाणस्स तसपज्जत्तमिच्छाइटिसस्थाणभंगो। सासणादीणं सत्थाणस्स ओघसस्थाणभंगा।
परत्थाणे पयदं । अचवखुदंसणीसु सव्वत्थोवा उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । उवरि ओघपंचिंदियं व वत्तव्वं' जाव पलिदोवमं ति। तदो मिच्छाइद्विणो अणंतगुणा । एवं चेव चक्खुदंसणिपरत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्यं । णवरि पलिदोवमादा उवरि चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठिणो असंखेज्जगुणा । ओहिदसणीणमोहिणाणिभंगो । केवलदसणीणं केवलणाणिभंगो ।
सवपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा ओहिदंसणउवसामगा। खवगा संखेज्जगुणा । चक्खुदंसणि-अचमवुदंसणिउवसामगा संखज्जगुणा । खवगा संखेज्जगुणा। ओहिदंसणअप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । दुदंसणिअप्पमत्तसंजदा संखेज्ज
.......
अवधिदर्शनी संयतासंयतोंका द्रव्य होता है। शेष भागाभागका कथन जानकर करना चाहिये।
स्वस्थानादिकके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टियोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व बस पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके स्वस्थान अलाव हुत्वके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि आदिका स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघस्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है। ___अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- अचक्षुदर्शनियोंमें सबसे स्तोक उपशामक जीव हैं। क्षएक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। इसके ऊपर पल्योपमतक भोघ पंचेन्द्रियोंके परस्थान अल्पबहुत्यके समान कथन करना चाहिये ।। जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार चक्षुदर्शनियोंके परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। इतना विशेष है कि पल्योपमसे ऊपर चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं। अघधिदर्शनवालोंका अल्पब हुत्व अवधिज्ञानियोंके अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिये । केवलदर्शनचालोंका केवलज्ञानियोंके अल्पबहत्वके समान जानना चाहिये।
अब सर्वपर स्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- अवधिदर्शनी उपशामक जीव सबसे स्तोक हैं । अवधिदर्शनी क्षपक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी उपशामक जीव अवधिज्ञानी क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। वे ही क्षपक जीव अपने उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । अवधिदर्शनी अप्रमत्तसंयत जीव चक्षु और अचक्षुदर्शनवाले क्षपकोंसे
ख्यातगुणे हैं। वे ही प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। दो दर्शनवाले भप्रमत्तसंयत जीव अवधिदर्शनी प्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। वे ही प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। दो दर्शनवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल दो
१ प्रतिषु · आंघ पंचिंदिय वत्तव्यं ' इति पाठः ।
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१, २, १६२.] दवपमाणाणुगमे लेस्सामग्गणापमाणपरूवणं
[१५९ गुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । दुदंसणिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तिदसणअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो विसेसाहिओ। दुर्दमणसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। दुदंसणसासणसम्माइटिअबहारकालो संखेजगुणों। दुदंसणमजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तिदंसणसंजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्बमसंखेज्जगुणं । एवमवहारकालपडिलोमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। विक्खंभसूई असंखेजगुणा । सेढी असंखेजगुणा । दबमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । केवलदसणी अणंतगुणा ।अचक्खुदंसणी अणंतगुणा ।
__ एवं दंसणमग्गणा गदा । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइहित्ति ओघं ॥ १६२ ॥
दर्शनवाले प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है । तीन दर्शनवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल दो दर्शनघाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे विशेष अधिक है। दो दर्शनवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल तीन दर्शनवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अघहारकालसे भसंख्यातगुणा है। दो दर्शनवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल दो दर्शनषाले सम्यमिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है। दो दर्शनवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल दो दर्शनवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अघहारकालसे असंख्यातगुणा है। तीन दर्शनवाले संयतासंयतोंका अवहारकाल दो दर्शनवाले संयतासंयतोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हीं तीन दर्शनषाले संयतासंयतोंका द्रव्य उन्हींके अघहारकालसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार अवहारकालके प्रतिलोमरूपक्रमसे पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे चक्षु. दर्शनी मिथ्याष्टियोंका अघहारकाल असंख्यातगुणा है। उन्हींकी विष्कंभसूची अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। अगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है। उन्हींका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है। जगप्रतर द्रव्यसे असंख्यातगुणा है। लोक जगप्रतरसे असंख्यात. गुणा है। केवलदर्शनी जीव लोकसे अनन्तगुणे हैं । अचक्षुर्दशनी जीव केवलदर्शनियोंके प्रमाणसे अनन्तगुणे हैं।
इसप्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई । लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओषप्ररूपणाके समान हैं ॥ १६२॥
१ प्रतिषु । असंखेज्जगुणो' इति पाठः ।
२ लेश्यानुवादेन कृष्णमालकापोतलेश्या मिथ्यादृष्टयादयोऽसंयतसम्यग्दृष्ट यन्ता: सामान्योक्तसंख्याः । से. सि. १,८. किण्हादिरासिमावलिअसखभागेण भजिय पविभते । हीणकमा काल वा अस्सिय दवा दु मजिदचा ॥
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१६.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १६२. __ अणंतत्तणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागतेण च ओघेण साधम्ममत्थि ति ओघमिदि भणिदं । विसेसे अवलंबिज्जमाणे पुण णत्थि समाणत्तं, सेसलेस्सोवलक्खियजीवाणं पयदगुणहाणेसु असंभवादो। एत्थ धुवरासी वुच्चदे । तं जहा-सिद्ध-तेरसगुणपडिवण्ण-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्समिच्छाइट्ठिरासिं किण्ह-णील-काउलेस्समिच्छाइट्ठिरासिभजिदमेदेसि वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खिते हि किण्ह-णील-काउलेस्समिच्छाइद्विधुवरासी होदि । तं तीहि रूवेहि गुणेऊण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते काउलेस्सियधुवरासी होदि । पुयभागहारमब्भहियं काऊण तिगुणधुवरासिम्हि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते णीललेस्सियधुवरासी होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव अवणिदे किण्हलेस्सियधुवरासी होदि । काउ-णीललेस्सरासीओ सव्वजीवरासिस्स तिभागो देसूणो । किण्हलेस्सियरासी तिभागो सादिरेओ । गुणपडिवण्णाणमवहारकालं पुरदो भणिस्सामो ।
उक्त तीन लेझ्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंकी अनन्तत्वकी अपेक्षा, और सासादनसम्यग्दृष्टि भादि गुणस्थानवी जीवोंकी पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा ओघप्रमाणके साथ समानता पाई जाती है, इसलिये सूत्र में 'ओघं' ऐसा कहा है। विशेष अर्थात् पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो उक्त तीन लेश्यावाले जीवोंके प्रमाणकी ओघप्रमाणप्ररूपणाके साथ समानता नहीं है, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर शेष लेश्याओंसे उपलक्षित जीवोंका प्रकृत गुणस्थानों में रहना असंभव मानना पड़ेगा। अब यहां पर ध्रुवराशिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-सिद्धराशि, सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न राशि और पीत, पश तथा शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंकी राशिको, तथा इन सर्व राशियोंके धर्गमें कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाली मिथ्यादृष्टि राशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे सर्व जीवराशिमें मिला देने पर कृष्ण, नील और कापोतलेश्यासे युक्त मिथ्याष्टि जीवों की ध्रुवराशि होती है। इसे तीनसे गुणित करके जो प्रमाण हो उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी में मिला देने पर कापोतलेश्यासे युक्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है। पूर्वोक्त भागहारको अभ्यधिक करके और उसका त्रिगुणित ध्रुवराशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी त्रिगुणित ध्रुवराशिमें मिला देने पर नीललेश्यासे युक्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमेंसे घटा देने पर कृष्णलेश्यासे युक्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है। कापोतलेश्यासे युक्त और नीललेश्यासे युक्त प्रत्येक जीवराशि सर्व जीवराशिके कुछ कम तीसरे भागप्रमाण है। तथा कृष्णलेश्यासे युक्त जीवराशि कुछ अधिक तीसरे भाग प्रमाण है। उक्त तीन लेश्याओंसे युक्त गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके भवहारकालका कथन आगे करेंगे।
खेत्तादो असुहतिया अणंतलोगा कमेण परिहीणा। कालादो तीदादो अणंतगुणिदा कमा हीणा ।। केवलणाणाणंतिममागा मावाद किण्हतियजीवा ॥ गो. जी. ५३७,५३९.
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१, २, १६३.] दन्वपमाणाणुगमे लेस्सामग्गणापमाणपरूवणं
[ ४६१ तेउलेस्सिएसु मिच्छाइट्ठी दवपमाणेण केवडिया, जोइसियदेवेहि सादिरेयं ॥ १६३ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे। जोइसियदेवा पज्जत्तकाले सव्वे तेउलेस्सिया भवंति । अपज्जत्तकाले पुण ते चेय किण्ह-णील-काउलेस्सिया होति । ते च पजत्तरासिस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता। वाणवेंतरदेवा वि पज्जत्तकाले तेउलेस्सिया चेव होति । ते च जोइसियदेवाणं संखेजदिभागमेत्ता हति । एदेसिमपज्जत्ता किण्ह-णील-काउलेस्सिया भवति । ते च सगपज्जत्ताणं संखेजदिभागमेत्ता । मणुस-तिरिक्खेसु वि तेउलेस्सियमिच्छाइद्विरासी पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो तिरिक्खपम्मलेस्सियरासीदो संखेज्जगुणो अस्थि । एदे तिणि वि रासीओ भवणवासिय-सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठीहि सह गदाओ जोइसियदेवेहि सादिरेया हवंति । एदेसिमवहारकालो वुच्चदे। तं जहा- जोइसियअवहारकालादो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागे अवणिदे तेउलेस्सियवहारकालो होदि । तदो एक्कपदरंगुलं घेत्तूण संखेज्जखंडं करिय एगखंडमवणिय बहुखंडे तम्हि चेव पक्खित्ते तेउ
तेजोलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ज्योतिषी देवोंसे कुछ अधिक हैं ॥ ६३ ॥
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- पर्याप्तकाल में सभी ज्योतिषी देव तेजोलेश्यासे युक्त होते हैं। तथा अपर्याप्त कालमें वे ही देव कृष्ण, नील और कापोतलेश्यासे युक्त होते हैं । वे अपर्याप्त ज्योतिषी जीव अपनी पर्याप्त राशिके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं। वाणव्यन्तर देव भी पर्याप्तकालमें तेजोलेश्यासे युक्त होते हैं, और वे वाणव्यन्तर पर्याप्त जीव ज्योतिषियोंके संख्यातवें भागमात्र होते हैं। इन्हीं वाणव्यन्तरों में अपर्याप्त जीव कृष्ण, नील भौर कापोतलेश्यासे युक्त होते हैं, और वे अपर्याप्त वाणव्यन्तर देव अपनी पर्याप्त राशिके संख्यातवें भागमात्र होते हैं। मनुष्य और तिर्यंचों में भी तेजोलेश्यासे युक्त मिथ्यादृष्टिराशि जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण है, जो पद्मलेश्यासे युक्त तिर्यंचराशिसे संख्यातगुणी है । इन तीनों राशियोंको भवनवासी और सौधर्म-पेशान राशिके साथ एकत्रित कर देने पर यह राशि ज्योतिषी देवोंसे कुछ अधिक हो जाती है। अब इस राशिके अवहारकालका कथन
वह इसप्रकार है- ज्योतिषी देवोंके अवहारकालमेंसे प्रतरांगलके संख्यात भागप्रमाणको घटा देने पर तेजोलेश्यासे युक्त जीवरांशिका अवहारकाल होता है। उक्त तेजोलेश्यासे युक्त जीवराशिके अवहारकालमेंसे एक प्रतरांगुलको ग्रहण करके और उसके संख्यात खंड करके एक खंडको घटा कर शेष बहुत खंडोंको उसी अवहारकालमें मिला देने पर
तेज:पद्मलेश्या मिष्यादृष्टयादयो संयतासंयतान्ताः स्त्रीवेदवत् । स. सि. १,८. तेउतिया संखेज्जा संखासंखेजभागकमा ॥ जोइसियादो अहिया तिरिक्खमणिस्स संखभागो दु। सूइस्स अंगुलस्स य असंखभागं तु तेउतियं ॥ उदु असंखकप्पा... | ओहिमसंखेम्जदिमं तेउतिया भावदो होति ।। गो. जी. ५३९, ५४०,५४३.
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४६२) छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १६१. लेस्सियामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । सेसं जोइसियभंगो ।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ओघं ॥ १६४॥
छसु लेस्सासु द्विदओघअसंजदसम्माइद्वि-सम्मामिच्छाइहि-सासणसम्मादिट्ठीहि सरिसो एकाए तेउलेस्साए द्विदरासी कधं होदि ? ण, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागतेण सरिसत्तमवेक्खिय ओघोवएसादो।
पमत्त-अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥१६५॥ ओघरासिपमाणं ण पूरेदि त्ति जं बुत्तं होदि ।
पम्मलेस्सिएसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोगिणीणं संखेज्जदिभागो ॥ १६६ ॥
तेजोलेश्यासे युक्त मिथ्यादृष्टि जीवराशिका अवहारकाल होता है। शेष कथन ज्योतिषी देवोंके कथनके समान है।
तेजोलेश्यासे युक्त जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुण स्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें ओघप्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ १६४ ॥
शंका- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि राशि, ओघ सम्यग्मिथ्यादृष्टिराशि और ओघ सासादनसम्यग्दृष्टिराशि छहों लेश्याओं में स्थित है, अतएव उसके साथ केवल तेजोलेश्यामें स्थित असंयतसम्यग्दृष्टिराशि, सम्यग्मिथ्यादृष्टिराशि और सासादनसम्यग्दृष्टिराशि समान कैसे हो सकती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा उक्त दोनों राशियोंमें समानता देखकर तेजोलेश्यासे युक्त सासादनसम्यग्दृष्टि आदि राशिका ओघरूपसे उपदेश किया है।
तेजोलेश्यासे युक्त प्रमत्तसंयत जीव और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १६५ ॥
उक्त दो गुणस्थानों में तेजोलेश्यासे युक्त जीवराशि ओघप्रमाणको पूर्ण नहीं करती है, यह इस सूत्रमें संख्यात पदके देनेका अभिप्राय है।
पपलेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ १६६ ।।
प्रमाप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । स. सि. १,८.
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१, २, १६९.] दव्वपमाणाणुगमे लेस्सामग्गणापमाणपरूवणं
[१६३ सुगममेदं सुत्तं । एदस्स अवहारकालो वुच्चदे। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीअवहारकाले संखेज्जरूवेहि गुणिदे सणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणमवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरवेहि गुणिदे सणिपंचिंदियतिरिक्खतेउलेस्सियमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे पम्मलेस्सियमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि।
सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ति ओघ ॥१६७॥ एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो । पमत्त-अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेजा ॥१६८॥
तेउलेस्सियाणं संखेज्जदिभागमेत्ता हवंति । कुदो ? पम्मलेस्साए' सह गदजीवाणं पउरं संभवाभावादो। .. सुकलेस्सिएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण ॥ १६९ ॥
यह सूत्र सुगम है। अब पद्मलेश्यासे युक्त मिथ्यादृष्टि जीवराशिके अवहारकालका कथन करते हैं-पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर संधी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर पनलेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है।
पालेश्यावाले जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें ओपनरूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ १६७ ॥
इस सूत्रका भी अर्थ सरल है।
पालेश्यावाले प्रमत्तसंयत जीव और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १६८ ॥
पनलेश्याघाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव तेजोलेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, क्योंकि, पद्मलेश्यासे युक्त प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए जीव प्रचुर नहीं होते हैं। . शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक
१ प्रतिषु लेस्सा' इति पाठः ।
२ शुक्ललेश्या मिध्यादृष्टयादयः संयतासंयतान्ताः पल्पोपमासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १,८. पल्लासंसेज्जमागया मुक्का। गो. जी. ५४२.
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४६४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १६९.
एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवयणं सावहारपरूवणं ओघपमाणपडिसेहफलं । कुदोवगम्मदे ? संगह परिहारेण पज्जवणयावलंबणादो । एत्थ अवहारकालो बुम्बदे | ओघ - असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालं आवलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते तेउलेस्सियअसंजदसम्म इडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे पम्मलेस्सिय असं जद सम्माइद्विअवहार कालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे काउलेस्सियअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तहि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे किण्हलेस्सियअसंजद सम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते णीललेस्सियअसंजदसम्म इट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सुकलेस्सियअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । सग-सगअसंजदसम्म इडिअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सग-सगसम्मामिच्छाइट्ठिअवहार कालो होदि । ते
गुणस्थान में जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इन जीवोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालसे पल्योपम अपहृत होता है ।। १६९ ॥
इस सूत्र में अवहारकालसहित पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण इस वचनका प्ररूपण ओघप्रमाणके प्रतिषेध करनेके लिये दिया है ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - संग्रहनयका परिहार करके पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लेने से यह जाना जाता हैं ।
अब यहां पर अवहारकालका प्ररूपण करते हैं- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागले भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर तेजोलेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्याभाग गुणित करने पर पद्मलेश्याले युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर कापोतलेश्याले युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवली के असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर कृष्णलेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर नीललेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर शुक्ललेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इन अपने अपने असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर अपने अपने सम्यग्मिथ्या• दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इन अपने अपने सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको
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१, २, १०१.]
[ ४६५
संखेज्जरूवेहि गुणिदे सग-सगसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तेसु आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदेसु तेउ - पम्म लेस्सिय सजदासंजद अवहारकालो होदि । वरि सुक्कलेस्सिय असंजदसम्माइट्ठिअवहारकाले संखेज्जरूवेहि गुणिदे सुक्कमिच्छाइ द्विअवहार कालो होदि । तहि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तह संखेज्जरूहि गुणिदे सुक्कलेस्सियसा सणसम्माइद्विअवहारकालो होदि । तम्हि आव लियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सुक्कलेस्सिय संजदासंजदअवहारकालो होदि । सग-सगअवहारकाले पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासिणो हवंति ।
दम्पमाणानुगमे लेस्सामग्गणापमाणपरूवणं
पमत्त - अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा' ॥ १७० ॥ दे दो विरासिणो ओघपमाणं ण पावेंति, तेउ-पम्म सुक्कलेस्सासु अक्कमेण विहजिय दत्तादो | सेसं सुझं ।
अपुव्वकरणपहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १७१ ॥
संख्यातसे गुणित करने पर अपने अपने सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इन्हें अर्थात् तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालोंको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले संयतासंयतोंके अवहारकाल होते हैं । इतना विशेष है कि शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर शुक्ललेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर शुक्ललेश्या वाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर शुकुलेश्यावाले संयतासंयतों का अवहारकाल होता है । इस अपने अपने अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशिका प्रमाण आता है ।
शुक्लेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १७० ॥
शुक्ललेश्यासे युक्त प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये दोनों राशियां अघप्रमाणको प्राप्त नहीं होती हैं, क्योंकि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें जीव तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यामें युगपत् विभक्त होकर स्थित हैं। शेष कथन सुग्राह्य है ।
शुक्ललेश्यावाले जीव अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थान में ओघप्ररूपणा के समान हैं ।। १७१ ॥
१ प्रमत्ताप्रमत्तसंयताः संख्येयाः स. सि. १,८.
२ अपूर्वकरणादयः सयोग केवल्यन्ताः अलेश्याश्च सामान्योकसंख्याः । स. सि. १,८.
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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, १७१. . कुदो ? अण्णलेस्साभावादो। अजोगिणो अलेस्सिया । कुदो ? कम्मलेवणिमित्तजोग-कसायाभावा। जोगस्स कधं लेस्साववएसो १ ण, लिंपदि त्ति जोगस्स वि लेस्साववएससिद्धीदो।
__ भागाभागं वत्तइस्सामो । सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा तिलेस्सिया होति। सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा अलेस्सिया होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा तेउलेस्सिया होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा पम्मलेस्सिया । सेसेगभागो सुक्कलेस्सिया। तिलेस्सियरासिमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडेऊण तत्थेगखंड तदा पुध दृविय सेसे बहुभागे घेत्तूण तिणि समपुंजे करिय अवणिदेगखंडमावलियाए असंखेअदिभाएण खंडिय तत्थ बहुखंडे पढमपुंजे पक्खित्ते किण्हलेस्सिया । सेसेगखंडमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिय बहुखंडे विदियपुंजे पक्खित्ते णीललेस्सिया। सेसेगखर्ड तदियपुंजे पक्खित्ते काउलेस्सिया । तदो काउलेस्सियरासिमर्णतखंडे कए बहुखंडा मिच्छाइद्विणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा असंजदसम्माइट्ठिणो। सेसं संखेज्जखंडे कए
चूंकि अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें शुक्ललेश्याको छोड़कर दूसरी लेश्या नहीं पाई जाती है. इसलिये अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में ओघप्रमाण ही शकलेश्यावालोंका प्रमाण है। अयोगी जीव लेश्यारहित हैं, क्योंकि, अयोगी गुणस्थानमें कर्मलेपका कारणभूत योग और कषाय नहीं पाया जाता है।
शंका-केवल योगको लेश्या यह संक्षा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जो लिंपन करती है वह लेश्या है' इस निरुक्तिके भनुसार योगके भी लेश्या संशा सिद्ध हो जाती है।
अब भागाभागको बतलाते हैं-सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग. प्रमाण कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्यावाले जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग लेश्यारहित जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग तेजोलेश्यावाले जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग पद्मलेश्यावाले जीव हैं। शेष एक भागप्रमाण शुक्ललेश्यावाले जीव हैं। कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्यासे युक्त जीवराशिको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके उनमें से एक खंडको पृथक् स्थापित करके और शेष बहुभागके समान तीन पुंज करके घटाकर पृथक रक्खे हुए एक बंडको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके वहां जो बहुभाग आवे उसे प्रथम पुंजमें मिला देने पर कृष्णलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है। शेष एक भागको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके बहुभाग दूसरे पुंजमें मिला देने पर नीललेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है। शेष एक भाग तीसरे पुंजमें मिला देने पर कापोतलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है। अनन्तर कापोतलेश्यावाली राशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग मिथ्यारष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात बंड करने पर बहुभाग भसंयतसम्यग्दृष्टि
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१, २, १७१.]
दव्वपमाणाणुगमे लेस्सामग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ४६०
बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो । सेसेगखंडं सासण सम्माइट्टिणो । एवं गील- किण्हलेस्साणं पि भागाभागं कायन्त्रं । तेउलेस्सियरासिमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा मिच्छाइहिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा असंजद सम्माइट्टिणो । सेसं संखज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा संजदासंजदा । सेसेगभागो पमत्तापमत्तसंजदा । पम्मलेस्सियरासिम संखेजखंडे कए बहुखंडा मिच्छाइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा असंजद सम्माइट्ठियो । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइट्टिणो । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा संजदासंजदा । सेसेगभागो पमत्तापमत्तसंजदा । सुक्कलेस्सियरासिं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असंजदसम्माइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा मिच्छाइट्टिणो । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइट्टिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा संजदासंजदा | सेसेगभागो पमत्तापमत्तादओ ।
अप्पा बहुगं तिविहं सत्थाणादिभेषण । सत्थाणे पयदं । किण्ह णील- काउलेस्सिय
जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है । शेष एक भाग प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं । इसीप्रकार नील और कापोतलेश्याबालों का भी भागाभाग कर लेना चाहिये । तेजोलेश्यावाली जीवराशिके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग मिध्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग असंयत सम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग असंख्यात खंड करने पर बहुभाग संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भाग प्रमाण प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव हैं । पद्मलेश्यावाली जीवराशिके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीव है । शेष एक भाग असंख्यात खंड करने पर बहुभाग संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भागप्रमाण प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव हैं। शुक्ललेश्यक राशिके संख्यात खंड करने पर बहुभाग असंयतसम्यग्दृष्टि जीव है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीव है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग संयतासंयत जीव है। शेष एक भागप्रमाणप्रमत्तसंयत आदि जीव है ।
स्वस्थान आदिके भेदले अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है । उनमेंसे स्वस्थानमें मल्पबहुत्व
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४६८ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १७१
मिच्छाइडीणं सत्थाणं णत्थि रासीदो थोवदरभागहाराभावा । सासणादीण मोघभंगो । सत्थवो तेउलेस्सियमिच्छाइडिअवहारकालो । विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा । सेढी असंखेज्जगुणा । दव्वमसंखेज्जगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । सासणादीणमोघं । एवं चैव पम्म सुक्कलेस्साणं सत्थाणं वत्तव्यं । सत्थाणं गदं ।
परत्थापयदं । सव्वत्थोवो काउलेस्सियअ मंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो । सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । तस्सेव दवमसंखेज्जगुणं । एवं यव्त्रं जाव पलिदोवमं ति । तदो काउलेस्सिय मिच्छाइट्टिण अनंतगुणा । एवं णील- किण्हाणं । सव्वत्थोवा तेउलेस्सिय अप्पमत्तसंजदा । पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सम्मामिच्छाइडिअवहार कालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्म इडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । संजदासंजदअवहार कालो असंखेज्जगुण । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं यव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो तेउ
प्रकृत है - कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंके स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, कृष्ण, नील और कापोतलेश्यक राशियोंसे उनके भागद्दार स्तोक नहीं हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि के स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघ स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान हैं । तेजोलेश्यक मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल सबसे स्तोक है। उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है । जगश्रेणी विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है । द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है जगप्रतर द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । लोक जगप्रतरसे असंख्यात गुणा है । सासादन सम्यग्दृष्टि भादिका स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघ स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है । इसीप्रकार पद्मलेश्य और शुक्लेश्या वालों के स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । इसप्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
I
अव परस्थानमें अल्पबहुस्व प्रकृत है— कापोतलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अव हारकाल सबसे स्तोक है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंयत सम्यग्दीष्टयों के भवद्वारकालसे असंख्यातगुणा है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकाल से संख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पक्ष्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे कापातलश्यक मिध्यादृष्टि जीय अनन्तगुणे हैं । इसीप्रकार नील और कृष्णलेश्यक जीवोंके परस्थान अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिये I तेजोलेश्यक अप्रमत्तसंयत जीव सबसे स्तोक हैं । प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतों से संख्यात. गुणे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवधारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । सासादन. सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालसे संख्यातगुणा हैं । संयतासंयतका अवहारकाल सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । उन्हींका द्रव्य भवद्दारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपम से
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१, २, १०१.] दव्वपमाणाणुगमे लेस्सामागणाअप्पाबहुगपरूवणं
[१६९ लेस्सियमिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो । उवरि सत्थाणभंगो । एवं पम्मलेस्साए । सुकलेस्साए सव्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा। खवगा संखेज्जगुणा। सजोगिकेवली संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। असंजदसम्माइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो। मिच्छाइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो । सम्मामिच्छाइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो। संजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्यमसंखेज्जगुणं । एवमवहारकालपडिलोमेण णेयव्वं जाव पलिदोवमं ति । परत्थाणं गदं ।
सयपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा। खवगा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवली संखेज्जगुणा। सुक्कलेस्सियअप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पम्मलेस्सियअप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेजगुणा । तेउलेस्सियअप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्ससंजदा संखेज्जगुणा । तेउलेस्सियअसंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेजगुणो। सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेजगुणो। सासणसम्मा
तेजोलेश्यक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इसके ऊपर स्वस्थान अस्पबहुत्वके समान कथन करना चाहिये । इसीप्रकार पद्मलेश्याके परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। शुक्ललेश्यामें चारों उपशामक सबसे स्तोक हैं। क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। सयोगिकेवली जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है। मिथ्यादृष्टियोंका अपहारकाल असंयतसम्यग्दष्टि अघहारकालसे संख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्याटियोंका अवहारकाल मिथ्याटियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्याष्टियोंके भवहारकालसे संख्यातगुणा है। संयतासंयतोंका अवहारकाल सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अधहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार अबहारकालके प्रतिलोम क्रमसे पल्योपमतक ले जाना चाहिये । इसप्रकार परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
भव सर्व परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- चारों उपशामक सबसे स्तोक हैं। क्षपक उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं । सयोगिकेवली संख्यातगुणे हैं। शुक्ललेश्यक अप्रमत्तसंयत जीव संयोगियोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुगे हैं। पालेश्यक अप्रमत्तसंयत जीव शुक्ललेश्यक प्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। पद्मलेश्यक प्रमत्तसंयत जीष पालेश्यक अप्रमत्तसंयत जीवोंसे संख्यातगुणे हैं। तेजोलेश्यक अप्रमत्तसंयंत जीब पचलेश्यक प्रमत्तसंयत जीवोंसे संख्यातगुणे हैं । तेजोलेश्यक प्रमससंयत जीव तेजोलेश्यक अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। तेजोलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोका अवहारकाल तेजोलेश्यक प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्याधि
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१७.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १५४. इडिअवहारकालो संखेज्जगुणो। पम्मलेस्सियअसंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो। काउलेस्सियअसंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। किण्हलेस्सियअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । णीललेस्सियअसंजदसम्माइडिअवहारकालो विसेसाहिओ । काउलेस्सियसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो असंखेज्जगुगो। सासणसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो। किण्हलेस्सियसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो असंखज्जगुणो । णीललेस्सियसम्मामिच्छाइटिअबहारकालो विसेसाहिओ । किण्हलेस्सियसासणसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो। णीललेस्सियसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो विसेसाहिओ । तेउलेस्सियसंजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । पम्मलेस्सियसंजदासजदअवहारकालो संखेज्जगुणो ।
योंका अपहारकाल असंयतसम्यग्दृपियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालसे संख्यातगुणा है। पद्मलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल तेजोलेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के भवहारकालसे संख्यातगुणा है । कापोतलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल पनलेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। कृष्णलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल कापोतलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। नीललेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल कृष्णलेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे विशेष अधिक है। कापोतलेश्यक सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल नीललेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। कापोतलेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालले संख्यागुतणा है। कृष्णलेश्यक सम्यमिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल कापोतलेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । नीललेश्यक सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल कृष्णलेश्यक सम्यग्मिध्यादृष्टियों के अवहारकालसे विशेष अधिक है । कृष्णलेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल नीललेश्यक सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है। नीललेश्यक सासादन. सम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल कृष्णलेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे विशेष अधिक है । तेजोलेश्यक संयतासंयतोंका अवहारकाल नीललेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके मषहारकालसे असंख्यातगुणा है । पद्मलेश्यक संयतासंयतोंका अपहारकाल तेजोलेश्यक संयतासंयतोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है। शुक्ललेश्यक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका
प्रतिषु प्रमत्त.' इति पाठः ।।
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२, १, १७१.] दवपमाणाणुगमे लेस्सामग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [४७१ सुक्कलेस्सियअसंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सुकलेस्सियमिच्छाइद्विअवहारकालो संखेज्जगुणो। सुकलेस्सियसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सुक्कलेस्सियसासणसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो। सुक्कलेस्सियसंजदासंजदअवहारकालो असंखेजगुणो । तस्सेव दव्यमसंखेजगुणं । एवमवहारकालपडिलोमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो तेउलेस्सियमिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। पम्मलेस्सियमिच्छाइद्विअवहारकालो संखेज्जगुणो। तस्सेव विक्खंभई असंखेजगुणा । तेउलेस्सियमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई संखेजगुणा । सेढी असंखेजगुणा। पम्मलेस्सियमिच्छाइद्विदबमसंखेज्जगुणं । तेउलेस्सियमिच्छाइट्ठिदव्वं संखेञ्जगुणं । पदरमसंखेजगुणं । लोगो असंखेजगुणो । अलेस्सिया अणंतगुणा । काउलेस्सिया अणंतगुणा । णीललेस्सिया विसेसाहिया। किण्हलेस्सिया विसेसाहिया (एसो सव्वपरत्थाणअप्पाबहुओ गुरूवएसेण लिहिदो, णत्थि एत्थ सुत्तजुत्ती वक्खाणं वा ।)
एवं लेस्साणुवादो गदो।
अषहारकाल पालेश्यक संयतासंयतोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । शुक्ललेश्यक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल उन्हींके असंयतसम्यग्दृष्टि भवहारकालसे संख्यातगुणा है । शुक्ललेश्यक सम्यग्मिथ्याष्टियोंका अवहारकाल उन्हींके मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे असंख्यात. गुणा है। शुक्ललेश्यक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल उन्हींके सम्यग्मिथ्यारष्टि अव. हारकालसे संख्यातगुणा है। शुक्ललेश्यक संयतासंयतोंका अपहारकाल उन्हींके सासादन. सम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य पल्योपमसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार अवहारकालके प्रतिलोम क्रमसे पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे तेजोलेश्यक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। पद्मलेश्यक मिथ्याष्टियांका भवहारकाल तेजोलेश्यक मिथ्याष्टियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है। उन्हींकी विष्कंभसूची अवहारकालसे असंख्यातगुणी है। तेजोलेश्यक मिथ्यादृष्टि जीवोंकी विष्कमसूची पद्मलेश्यक जीवोंकी विष्कंभसूचीसे संख्यातगुणी है। जगश्रेणी तेजोलेश्यक विष्कंभसूचीसे असंख्यातगुणी है । पालेश्यक मिथ्याष्टियोंका द्रव्य जगश्रेर्णासे असंख्यातगुणा है । तेजोलेश्यक मिथ्यादृष्टि जीवोंका द्रव्य पालेश्यक मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे संख्यातगुणा है। जगप्रतर तेजोलेश्यक द्रष्यसे असं. ख्यातगुणा है। लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है। लेश्यारहित जीव लोकसे अनन्तगुणे हैं। कापोतलेश्यक जीव लेश्यारहित जीवोंसे अनन्तगुणे हैं। नीललेश्यावाले जीव कापोतलेश्यक जीवोसे विशेष अधिक हैं। कृष्णलेश्यक जीव नीललेश्यक जीवॉले विशेष अधिक है। यह सर्व परस्थान अल्पबहुत्व गुरुके उपदेशसे लिखा है। परंतु इस विषयमें सूत्रयुक्ति अथवा व्याख्यान नहीं पाया जाता है।
इसप्रकार लेश्यानुषाद समाप्त हुभा।
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १७२.
भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छाइट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १७२ ॥
४७२ ]
एदस्य सुत्तस्स अत्थो सुगमा । णवरि अभवसिद्धिय सहिद सिद्ध-तेरसगुणपडिवण्णरासि भवसिद्धियमिच्छाइट्ठिभजिदं तेसिं वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते भवसिद्धियमिच्छाविरासी होदि ।
अभवसिद्धिया दव्वपमाणेण केवडिया, अनंता ॥ १७३ ॥
एत्थ अनंतवणं संखेज्जासंखेज्जपडिसेहफलं । एत्थ कालपमाणं सुत्ते किमिदण बुतं ? ण एस दोसो, अभवसिद्धियाणं वयाभावा । वयाभावो वि तेसिं मोक्खाभावादो अवगमदे |
खेत्तपमाणं किमिदि ण वृत्तं इदि चे ण, अपरिष्फुडस्स अत्थस्स फुडीकरणटुं
भव्य मार्गणा के अनुवाद से भव्यसिद्धिकोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवल गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १७२ ॥
इस सूत्र का अर्थ सुगम है । इतना विशेष है कि अभव्यसिद्धिक जीवराशिसहित सिद्धराशि और तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशिको तथा उक्त राशियों के वर्ग में भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि राशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे सर्व जीवराशिमें मिला देने पर भष्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि ध्रुवराशि होती है ।
अभव्यसिद्धिक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ १७३ ॥ यहां सूत्रमें अनन्त यह वचन संख्यात और असंख्यातके प्रतिषेध के लिये दिया है । शंका- यहां भव्य मार्गणा में अभव्योंका प्रमाण कहते समय सूत्रमें कालकी अपेक्षा प्रमाण क्यों नहीं कहा ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अभव्यसिद्धों का व्यय नहीं होता। उनका व्यय नहीं होता है यह कथन उनको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती है इससे जाना जाता है ।
शंका - अभव्यों का प्रमाण क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि, जो अर्थ अपरिस्फुट हो उसके स्फुट करनेके लिये
१ भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्यादयोऽयोग के बल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. तेण विहिणो सव्वो संसारी भव्त्ररासिस्स ॥ गो. जी. ५६०..
२ अभव्या अनन्ताः । स. सि. १, ८. अवरो जुत्ताणंतो अमव्त्ररासिस्स होदि परिमाणं ॥ गो. जी. ५६०. ३ प्रतिषु ' मयाभावादि ' इति पाठः ।
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१, २, १७३.] दव्वपमाणाणुगमे भवियमग्गणाभागाभाग-अप्पाबहुगपरवणं [४०१ खेत्तपमाणं वुच्चदे । एसो पुण अभवसिद्धियरासिपमाणं सुट्ठ परिप्फुडो। कुदो ? अभवसिद्धियरासिपमाणं जहण्णजुत्ताणंतमिदि सयलाइरियजयप्पसिद्धादो।
भागाभागं वत्तइस्सामो । सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा भवसिद्धियमिच्छाइट्ठिणो । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया । सेसमणतखंडे कए बहुखंडा अभवसिद्धिया । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा असंजदसम्माइद्विणो । सेसमोघभंगो।
अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । भवसिद्धियसत्थाणं परत्थाणं मिच्छाइडिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति औषं । अभवसिद्धियसत्थाणं णत्थि ।
सव्वपरत्थाणे सव्वत्थोवा अजोगिकेवली । चत्तारि उवसामगा संखेज्जगुणा । एवं जाव पलिदोवमं ति णेयव्वं । तदो अभवसिद्धिया अणंतगुणा । णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया अणंतगुणा । भवसिद्धियमिच्छाइट्ठी अणंतगुणा ।
____ एवं भवियमग्गणा समत्ता ।
क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण कहा जाता है। परंतु यह अभव्यसिद्धिक राशिका प्रमाण अत्यन्त स्फुट है, क्योंकि, अभव्यसिद्धिक राशिका प्रमाण जघन्य युक्तानन्त है, यह सर्व आचार्य जगत्में प्रसिद्ध है।
__ अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक विकल्परहित जीव होते हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अभव्यसिद्धिक जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष भागाभाग ओघ भागाभागके समान है।
स्वस्थान अल्पबहुत्व आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमें से भव्य. सिद्धिक जीवोंका स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व मिथ्यादाष्ट गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक ओघ स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्वके समान है। अभव्यसिद्धिक जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है।
सर्व परस्थान अल्पबहुत्वमें अयोगिकेवली जीव सबसे स्तोक हैं। चारों उपशामक अयोगियोंसे संख्यातगणे है। इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे अभव्यसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं। भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक विकल्पसे रहित अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणे हैं । भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव अभव्योंसे अनन्तगुणे हैं।
इसप्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई।
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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १७१,
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्टीसु असंजदसम्माइट्टि पहुडि जाव अजोगकेवलि त्ति ओघं ॥ १७४ ॥
४७४ ]
के कारण ? सम्मत्तसामण्णेण अहियारादो। ण हि सामण्णवदिरित्तो तव्विसेसे अस्थि । तम्हा ओघपरूवणा चेय णिरवयवा एत्थ वत्तव्या ।
खइयसम्म इट्टीसु असंजदसम्माहट्टी ओघं ॥ १७५ ॥
जद व एसो खइयसम्माइट्ठिरासी ओघअसंजदसम्म इहिरासिस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो, तो वि ओघपरूवणं लभदेः पलिदोवमस्स असंखेञ्जदिभागमेत्तत्तं पडि विसेसा
भावा ।
संजदासंजद पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था दव्व. पमाणेण केवडिया संखेना ॥ १७६ ॥
सम्यक्त्वमार्गणा के अनुवाद से सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १७४ ॥
शंका- सम्यक्त्वी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक ओधप्ररूपणाके समान किस कारणसे हैं ?
समाधान — क्योंकि, यहां पर सम्यक्त्व सामान्यका अधिकार है । सामान्यको छोड़कर उसके विशेष नहीं पाये जाते हैं । इसलिये ओघप्ररूपणा ही निश्शेष यहां पर कहना चाहिये ।
क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ।। १७५ ।।
यद्यपि यह क्षायिक असंयतसम्यग्दृष्टिराशि ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि राशिके असंख्यातवें भागमात्र है तो भी वह ओघप्ररूपणाको प्राप्त होती है, क्योंकि, पल्योपमके 'असंख्यातवें भागत्व के प्रति उक्त दोनों राशियों में कोई विशेषता नहीं है ।
संयतासंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थानतक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।। १७६ ॥
१ प्रतिषु ' - केवली ' इति पाठः ।
२ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयत सम्यग्दृष्टयः पल्योपमासंख्येयभाग प्रमिताः । स. सि. १, ८. वासपुधत्ते खइया संखेज्जा जह हवंति सोहम्मे । तो संखपल्लठिदिये केवदिया एवमणुपादे ॥ संखावलिहिदपल्ला खइया ॥ गो. नी. ६५७-६५८.
३ संयतासंयतदय उपशान्तकषायान्ताः संख्येयाः । स. सि. १,८०
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१, २, १७७. ]
दव्वपमाणाणुगमे सम्मत्तमग्गणापमाणपरूवर्णं
[ ४७५
पुव्वसुत्तादो खइयसम्माइट्ठि त्ति अणुवट्टदे | ओघपमाणं ण पूरेदि' त्ति जाणावणङ्कं संखेज्जवयणं । संजदासंजदखइयसम्म इट्टिणो कथं संखेज्जा ? ण, तेसिं मणुसगहवदिरित्तसे सगईसु अभावाद । पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआ सम्मतं घेतूण दंसणमोहणीयं खविय तिरिक्खेसु उववज्र्ज्जता लब्भंति तेण संजदा संजदखइय सम्माइट्टिणो असंखेज्जा लब्भंति त्ति चे ण, पुत्रं बद्धाउअखइयसम्माइट्ठीणं तिरिक्खे सुप्पण्णाणं संजमासंजमगुणाभावादो । कुदो ? भोगभूमिमंतरेण तेसिमुप्पत्तीए अण्णत्थ संभवाभावादो। ण च तिरिक्खेसु दंसणमोहणीयखवणा व अस्थि, 'णियमा मणुसगईए' इदि वयणादो |
चउन्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १७७ ॥
एत्थ चउन्हं कम्माणं घाइसण्णिदाणं खवगा इदि अज्झाहारो कायव्वो । चउसदोगुणा विसेसणं कण्ण होदि त्ति वृत्ते ण, तत्थ छट्ठीणिदेसाणुववत्तदो । सेसं सुगमं ।
पूर्व सूत्र से इस सूत्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि इस पदकी अनुवृत्ति होती है । संयतासंयत से उपशांतकषाय गुणस्थानतक क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का प्रमाण ओघप्रमाणको पूर्ण नहीं करता है, इसका ज्ञान कराने के लिये सूत्र में ' संख्यात हैं ' यह वचन दिया है।
।
शंका - संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात कैसे हैं ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य गतिको छोड़कर शेष गतियों में नहीं पाये जाते हैं, और पर्याप्त मनुष्य संख्यात ही होते हैं, इसलिये संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव भी संख्यात ही होते हैं, ऐसा कहा ।
शंका- जिन जीवोंने पहले तिर्यचायुका बंध कर लिया है ऐसे जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करके और दर्शनमोहनीयका क्षय करके तिर्यचों में उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं, इसलिये संयतासंयत क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात होना चाहिये ।
समाधान — नहीं, क्योंकि, जिन्होंने पहले तिर्यचायुका बन्ध कर लिया है ऐसे तिर्यचों में उत्पन्न हुए क्षायिकसम्यग्दृट्टियोंके संयमासंयमगुण नहीं पाया जाता है, क्योंकि, भोगभूमिके बिना अन्यत्र उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है । तथा तिर्यंचों में दर्शनमोहनीयकी क्षपणा भी नहीं पाई जाती है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नियमसे मनुष्यगति में ही होती है, ऐसा आगमवचन है ।
चारों क्षपक और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं । १७७ ॥ यहां पर क्षपक पदले घातिसंज्ञक चारों कर्मों के क्षपक, ऐसा अध्याहार कर लेना चाहिये । शंका- सूत्रमें आया हुआ 'चउ' शब्द गुणस्थानों का विशेषण क्यों नहीं होता है ? समाधान - ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि नहीं, क्योंकि, 'च' शब्द में षष्ठी
२ प्रतिषु 'संजदा ' इति पाठः ।
१ प्रतिषु ' ओषपमाणं पूरेदित्ति ' इति पाठः । ३ चत्वारः क्षपकाः सयोग केव लिनोऽयोगकेवलिनश्च सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १.८.
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Alimauswimmisnahavina
छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १०८. सजोगिकेवली ओघं ॥ १७८ ॥ कुदो ? खइयसम्मत्तेण विणा सजोगिकेवलीणमणुवलंभा ।
वेदगसम्माइट्ठीसु असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति ओघं ॥ १७९॥
एत्थ ओघरासी चेव त्थोवूणो वेदगरासी होदि तेणोत्तं ण विरुज्झदे । उवसमसम्माइट्ठीसु असंजदसम्माइटि-संजदासंजदा ओघ ॥१८०॥
एदे दो वि रासीओ ओघअसंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणमसंखेजदिभागमेत्ता जदि वि होति, तो वि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तेण समाणत्तमत्थि त्ति ओघमिदि भणिदं । सेसं सुगमं ।
विभाक्तिका निर्देश नहीं बन सकता है। अर्थात् सूत्र में आया हुआ 'चउण्हं' यह पद प्रथमा विभाक्तिरूप है, षष्ठी नहीं, इसलिये गुणस्थानोंका विशेषण नहीं हो सकता है। शेष कथन सुगम है।
सयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १७८ ॥
चूंकि सयोगिकेवली जीव क्षायिकसम्यक्त्वके विना नहीं पाये जाते हैं, इसलिये उनका प्रमाण ओघप्ररूपणाके समान है।
वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक जीव ओघनरूपणाके समान हैं ॥ १७९ ॥
असंयतसम्यग्दृष्टि गुपस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक ओघराशि ही कुछ कम वेदकसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है, इसलिये ओघत्व विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
__उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंयंतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १८० ॥
ये दोनों भी राशियां ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं, तो भी पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंकी ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके साथ समानता है, इसलिये सुत्रमें 'ओघ' ऐसा कहा है। शेष कथन सुगम है।
१क्षायोपशामिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टयादयोऽप्रमत्तान्ताः सामान्योक्तसंख्या: । स. सि. १,८. तत्तो य वेदमुवसमया । आवलिअसंखगुणिदा असंखगुणहीणया कमसो ॥ गो. जी. ६५..
२ प्रतिषु — त्योदूणो' इति पाठः । ३ औपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयताः पल्योपमासंख्येयमागप्रमिताः । स. सि. १,८.
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१, २, १८१.] दव्वपमाणाणुगमे सम्मत्तमग्गणापमाणपरूवणं
[४७७ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १८१॥
एत्थ संखेजवयणं ओघपमाणपडिसेहफलं । ओघदव्यपमाणं ण पावेदि ति कधमवगम्मदे ? ओघपमत्तादिरासिस्स संखेजदिभागो तम्हि तम्हि उवसमसम्माइद्विरासी होदि ति अप्पाबहुगवयणादो । (सासणसम्माइट्ठी ओघं ॥ १८२ ॥
सम्मामिच्छाइट्ठी ओघं ।। १८३॥ मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ १८४ ॥)
एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि ओघम्मि परूविदाणि त्ति णेह परूविज्जत्ति । एत्थ अवहारकालुप्पायणविहिं वत्तइस्सामो । ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकाले आवलियाए
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय वीतरागछमस्थ गुणस्थानतक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १८१ ॥
यहां सूत्रमें 'संख्यात हैं' यह वचन ओघप्रमाणके प्रतिषेधके लिये दिया है।
शंका-प्रमत्तादि उपशान्तकषाय गुणस्थानतक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ओघ द्रव्यप्रमाणको प्राप्त नहीं होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'ओघ प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवी राशिके संख्यातवें भाग उस उस गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। इस अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके घचमसे जाना जाता है कि प्रमत्तसंयत आदि उपशान्तकषायतक प्रत्येक गुणस्थानके उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्रमाणको प्राप्त नहीं होते हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ १८२
सम्यग्मिथ्यावृष्टि जीव ओधप्ररूपणाके सामन पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ।। १८३ ॥
मिथ्यादृष्टि जीव ओघप्ररूपणाके समान अनन्तानन्त हैं ॥ १८४ ॥
इन तीनों सूत्रोंका प्ररूपण ओघप्ररूपणाके समय कर आये हैं, इसलिये यहां उनका प्ररूपण नहीं करते हैं। अब यहां पर अवहारकालके उत्पन्न करनेकी विधिको बतलाते है
१ प्रमलाप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । चत्वार औपशमिकाः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८..
२ सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च सामान्योक्तसंख्या: । स. सि. १, ८. पल्लासंखेज्जदिमा सासणमिच्छा य संखगुणिदा हु । मिस्सा तेहिं विहीणो संसारी वामपरिमाणं ॥ गो. जी. ६५९.
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१७८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १८.. असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेदगअंसजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे खइयअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे असंजदउवसमसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संवेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे वेदगसम्माइट्ठिसंजदासंजदअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे उवसमसम्माइट्ठिसंजदासंजदअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासीओ आगच्छंति । सिद्धतेरसगुणट्ठाणरासिं मिच्छाइटिभजिदतव्वग्गं च सव्यजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते मिच्छाइट्टिधुवरासी होदि।
भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्यजीवरासिमगंतवंडे कए बहुखंडा मिच्छाइदियो होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा सिद्धा । सेसमसंखज्जखंडे कए बहुखंडा वेदगअसंजदसम्माइट्ठिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा खइयअसंजदसम्माइद्विणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा उवसमअसंजदसम्माइट्ठिणो। सेसं संखेज्जखंडे कए
मोघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आधे उसे उसी अघहारकाल में मिला देने पर वेदक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर क्षायिक असंयतसम्यग्हटियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर असंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यात भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर उपशममसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोसे पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां आती हैं।
सिद्धराशि और तेरह गुणस्थानवर्ती राशिको तथा मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित उन राशियोंके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर मिथ्यादृष्टियोंकी ध्रुवराशि होती है।
अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमें से बहुभाग मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग सिद्ध जीव है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वेदकअसंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग क्षायिक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके भसंख्यात खंड करने पर बहुभाग उपशम असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक
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१, २, १८४.] दव्वपमाणाणुगमे सम्मत्तमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं
[१७९ बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्ठिणो। सेसमसंखेजरवंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइडियो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेदगसम्माइट्ठिसंजदासजदा । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा उवसमसम्माइद्विसंजदासजदा । सेसं संखेज्जरवंडे कए बहुखंडा खइयसम्माइट्ठिसंजदासजदा। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पमत्तसंजदा। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा अप्पमत्तसंजदा । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । सव्वेसिं सत्थाणमोघं । परत्थाणे पयदै । सव्वत्थोवा वेदगसम्माइद्विअप्पमत्तसंजदा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। असंजदसम्माइद्विअवहारकालो असंखेज्जगुणो । संजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं णेयव्वं जाव पलिदोवमं ति । उवसमसम्माइट्ठीसु सव्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेजगुणा । उवरि वेदगपरत्थाणभंगो। खइयसम्माइट्ठीसु सव्यत्थोवा चत्तारि उवसावगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । संजदासंजदा संखेजगुणा । असंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेजगुणो । तस्सेव दवम
भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके भसंख्यात खंड करने पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात बाड करने पर बहुभाग वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव है। शेष एक भागके असख्यात खड करने पर बहभाग उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग प्रमत्तसंयत जीव हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग अप्रमत्तसंयत जीव हैं । शेष भागाभागका कथन जानकर करना चाहिये।
स्वस्थान अल्पबहुत्व आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे सभीका स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघप्ररूणाके समान है। अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- वेदकसम्यग्दीष्ट अप्रमत्तसंयत जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असयतसम्यग्दृधियोंका अवहारकाल असंख्यातगणा है। इससे संयतासंयतोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये। उपशमसम्यग्दृष्टियों में चारों उपशामक सबसे थोड़े हैं। क्षपक संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। इसके ऊपर वेदकसम्यग्दृष्टियोंके परस्थान अस्पबहुत्वके समान जानना चाहिये । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में चारों उपशामक सबसे स्तोक हैं । क्षपक उनले संख्यातगुणे हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा
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४८० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
संखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । केवलणाणिणो अनंतगुणा ।
सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा उवसमसम्माइट्टिणो चत्तारि उवसामगा । तत्थेव खइयसम्माइडिणो संखेज्जगुणा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्त संजदउवसमसम्माइट्टिणो संखेज्जगुणा । कारणं, चारितमोहणीयखवणकालादो उवसमसम्मत्त कालस्स संखेज्जगुणत्ता । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसजदा खइयसम्माइट्टिणो संखेज्जगुणा । पमत्त संजदा संखेजगुणा । वेदगसम्माइट्ठिअप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्ता संखेज्जगुणा । खइयसम्माइट्ठिसंजदासंजदा संखेज्जगुणा (पमत्तसंजदाणं संखेज्जभागमेत्तपमत्तसंजदवेदगसम्माइट्ठीहिंतो कधं मणुस संजदासंजदाणं संखेजदिभागमे तखइयसम्माइट्ठिसंजदासंजदाणं संखेज्जगुणतं ? ण, सव्वसम्मत्तेसु संजदेहिंतो देससंजदाणं देस संजदेहिंतो असंजदाणं बहुत्तुवलंभादो । तं पि कुदो ? चारित्तावरणखओवसमुहस सव्वसम्मत्ते सुपायण
है । इससे उन्हींका द्रव्य असंख्यातगुणा है । इससे पल्योपम असंख्यातगुणा है । इससे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं ।
[ १, २, १८४.
सर्वपरस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है- उपशमश्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं । उपशमश्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। क्षपक जीव उपशमश्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं । अप्रमत्तसंयत उपशमसम्यग्दृष्टि जीव क्षपक जीवोंसे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, afta मोहनीयके क्षपण कालसे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है । प्रमत्तसंयत उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अप्रमत्तसंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं । अप्रमत्तसंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव प्रमत्तसंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं । प्रमत्त संयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अप्रमत्तसंयत क्षायिकससम्यग्दृष्टियोंसे संख्यातगुणे हैं । वेदकसम्यदृष्टि अप्रमत्तसंयत जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतों से संख्यातगुणे हैं । वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीव वेदकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतों से संख्यातगुणे हैं ।
शंका - प्रमत्तसंयतोंके संख्यातवें भागमात्र प्रमत्तसंयत वेदकसम्यग्दृष्टियों से मनुष्य संयतासंयतों के संख्यातवें भागमात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव संख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि, सर्व सम्यक्त्वोंमें संयतोंसे देशसंयत और देशसंयतों से असंयत जीव बहुत पाये जाते हैं, इसलिये मनुष्य संयतासंयतोंके संख्यातवें भागमात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव प्रमत्तसंयतोंके संख्यातवें भागमात्र वेदकसम्यग्दृष्टियों से संख्यातगुणे बन जाते हैं ।
शंका - सर्व सम्यक्त्वोंमें संयतोंसे संयतासंयत और संयतासंयतोंसे असंयत बहुत होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ?
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१,२, १८४. ]
दव्वपमाणागमे समत्तमग्गणा अप्पा बहुगपरूवणं
[ ४८१
संभवाभावादो । ' तेरसकोडी देसे ' एदीए गाहाए एदस्स वक्खाणस्स किण्ण विरोहो ? होउ णाम । कधं पुण विरुद्धवक्खाणस्स भद्दत्तं ? ण, जुत्तिसिद्धस्स आइरियपरंपरागयस्स एदीए गाहा णाभद्दत्तं काऊण सक्किज्जदि, अइप्पसंगादो | वेदगअसंजद सम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । खइयअसंजदसम्म इडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । उवसमअसंजदसम्म इडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । साससम्म इडिअवहार कालो संखेज्जगुणो । वेदगसम्म इट्ठिसंजदासंजद अवहारकालो असंखेज्जगुणो। उवसमसम्माइट्ठि संजदासंजद अवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवमवहारकालपडिलोमेण णेयव्वं जाव पलिदोषमं ति । तदो खइयसम्माइणि केवलणाणिणो अनंतगुणा । मिच्छाइट्टिणो अनंतगुणा ।
एवं सम्मत्तमग्गणा गदा ।
समाधान- चूंकि चरित्रावरण मोहनीयकर्मका क्षयोपशम सर्व सम्यक्त्वों में प्रायः संभव नहीं है, इसलिये यह जाना जाता है कि सर्व सम्यक्त्वोंमें संयतोंसे संयतासंयत और संयतासंयतों से असंयत जीव अधिक होते हैं ।
शंका- यदि ऐसा है तो ' देशसंयत में तेरह करोड़ मनुष्य हैं' इस गाथा के साथ इस पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध क्यों नहीं आ जायगा ?
समाधान - यदि उक्त गाथार्थके साथ पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध प्राप्त होता है तो होभो ।
शंका - तो इस प्रकारके विरुद्ध व्याख्यानको समीचीनता कैसे प्राप्त हो सकती है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, जो युक्तिसिद्ध है और आचार्य परंपरा से आया हुआ है उसमें इस गाथासे असमीचीनता नहीं लाई जा सकती, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा । वेदकसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंसे असंख्यातगुणा है । क्षायिकअसंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल वेदकअसंयतसम्यग्दृष्टियोंके भवहारकाल से असंख्यातगुणा है । उपशमअसंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल क्षायिकअसंयतसम्यग्डष्टियों के अपहारकाल से असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल उपशम असंयत सम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकाल से संख्यातगुणा है । वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयताका अबहारकाल सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयताका अवहारकाल वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हीं उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंका द्रव्य उन्हीं के अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार अवहारकालके प्रतिलोमक्रमसे पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे क्षायिक सम्यग्दष्टि केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं। मिथ्यादृष्टि जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि केवलशांनियोंसे अनन्तगुणे हैं।
इसप्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई ।
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१८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १८५. सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, देवेहिं सादिरेयं ॥ १८५ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। सव्वे देवमिच्छाइट्ठिणो सणिणो चेय। तेसिं संखेज्जदिभागमेत्ता तिगदिसण्णिामिच्छाइट्ठिणो होति । तेण सण्णिमिच्छाइट्ठिणो देवेहि सादिरेया । एत्थ अवहारकालो वुच्चदे । तं जहा- देवअवहारकालादो पदरंगुलमेगं घेत्तूण संखेजखंडे करिय तत्थेगखंडमवणिय सेसबहुखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते सणिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एदेण जगपदरे भागे हिदे सण्णिमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि ।
सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ १८६॥
सुगममेदं सुत्तं । असण्णी दव्वपमाणेण केवडिया, अणंता ॥ १८७ ॥
संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंसे कुछ अधिक हैं ॥ १८५ ॥
___ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। सर्व देव मिथ्यादृष्टि जीव संशी ही होते हैं। तथा उनके संख्यातवें भागप्रमाण तीन गतिसंबन्धी संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। इसलिये संक्षी मिथ्यादृष्टि जीव देवोंसे कुछ अधिक है, ऐसा सूत्र में कहा है।
अब यहां पर अवहारकालका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है- देव अवहारकालमें एक प्रतरांगुलको ग्रहण करके और उसके संख्यात खंड करके उनमेंसे एक खंडको निकालकर शेष बह खंड उसी में मिला देने पर संज्ञी मिथ्याधियोंका अवहारकाल होता है। इस अव कालसे जगप्रतरके भाजित करने पर संक्षी मिथ्यादृष्टि द्रव्य होता है। - सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें संज्ञी जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १८६ ।।
यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ १८७॥
१ संज्ञानुवादेन संक्षिषु मिथ्यादृष्टवादयः क्षीणकषायान्ताश्चक्षुर्दर्शनिवत् । स. सि. १, ८. देवेहिं सादिरेगो रासी सण्णीणं होदि परिमाणं॥ ॥ गो. जी. ६६३.
२ असंझिनो मिध्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः। तदुभयव्यपदेशरहिताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८. तेणूणो संसारी सव्वेसिमसण्णिजीवाणं ॥ गो. जी. ६६३.
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१, २, १९०.] दव्वपमाणाणुगमे सण्णि-आहारभग्गणापरूवणं [४८३
अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ १८८॥
खेत्तेण अणंताणता लोगा ॥ १८९ ॥
एदाणि तिण्णि सुत्ताणि अवगदत्थाणि त्ति एदेसि ण वक्खाणं वुच्चदे । एत्थ धुवरासिं वत्तइस्सामो। सण्णिरासिं णेव-सण्णि-णेव-असण्णिरासिं च असण्णिभजिदतव्वग्गं च सधजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते असण्णिधुवरासी होदि ।
भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा असण्णिणो होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा णेव सण्णी व असण्णी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सण्णिमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमोघभागाभागभंगो । तिविहमवि अप्पाबहुगं जाणिऊण माणिदव्वं ।
एवं सष्णिमग्गणा समत्ता । आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १९०॥
कालकी अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होते हैं। १८८ ।।
क्षेत्रकी अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ १८९ ॥
इन तीनों सूत्रोंका अर्थ अवगत है, इसलिये इनका व्याख्यान नहीं किया है। अब यहां पर ध्रुवराशिका प्रतिपादन करते हैं- संशीराशि और संक्षी तथा असंही इन दोनों व्यपदेशोंसे रहित जीवराशिको तथा असंज्ञी राशिसे भाजित उक्त राशियोंके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर असंही जीवोंके प्रमाण लाने के लिये ध्रुवराशि होती है।
अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभाग असंही जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनसे बहुभाग संझी और असंही इन दोनों व्यपदेशोंसे रहित जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग संशी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष भागाभागका ओघ भागाभागके समान कथन करना चाहिये। तीनों प्रकारके अल्पबहुत्वका भी जानकर कथन करना चाहिये ।
इसप्रकार संशीमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगि१ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टयादयः सयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८.
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१८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १९१९ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय । णवरि सगुणपडिवण्णअणाहाररासिं आहारमिच्छाइद्रिरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते आहारिमिच्छाइट्ठिधुवरासी होदि ।
अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ १९१ ॥
एदं पि सुत्तं सुगमं चेय । एत्थ धुवरासी वुच्चदे । औषमिच्छाइट्ठिधुवरासिमंतोमुहुत्तेण गुणिदे अणाहारिमिच्छाइद्विधुवरासी होदि । ओघअसंजदसम्माइटिअवहारकालं आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते आहारिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासजदअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे अणाहारिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि ।
केवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १९० ॥
यह भी सूत्र सुगम है । इतना विशेष है कि गुणस्थानप्रतिपन्न राशि और अनाहारक जीवराशिको तथा माहारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे भाजित उक्त राशियोंके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण लाने के लिये ध्रुवराशि होती है।
। अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली जीवोंका प्रमाण कार्मणकाययोगियोंके प्रमाणके समान है ॥ १९१ ।।
यह भी सूत्र सुगम ही है। अब यहां ध्रुवराशिका प्रतिपादन करते हैं- ओघ मिथ्यादृष्टियोंकी ध्रुवराशिको अन्तमुहूर्तसे गुणित करने पर अनाहारक मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाण लानेके लिये धुवराशि होती है । ओघअसंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर आहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलाके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर आहा. रक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर आहारक संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यात भागसे गुणित करने पर अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके
तविवरीदसंसारी सव्वो आहारपरिमाणं ॥ गो. जी. ६७१.
१ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयः सामान्योक्तसंख्याः । सयोगिकेवलिमः संख्येयाः । स. सि. १, ८. कम्मइयकायजोगी होदि अणाहारयाण परिमाण ॥ गो. जी. ५७१.
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१, २, १९२.] दवपमाणाणुगमे आहारमग्गणाभागाभाग-अप्पाबहुगपरूवणं [४८५ तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे अणाहारिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि।
अजोगिकेवली ओघं ॥ १९२ ॥ सुगममेदं ।
भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा आहारिमिच्छाइहिणो होति। सेसमणतखंडे कए बहुखंडा अणाहारिबंधगा होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा अणाहारिअबंधगा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा आहारिअसंजदसम्माइट्ठिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा आहारिसासणसम्माइट्ठिणो होति । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा संजदासजदा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा अणाहारिअसंजदसम्माइट्ठिणो हेति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा अणाहारिसासणसम्माइद्विणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पमत्तसंजदा होति । सेसेगखंडं अप्पमत्तसंजदादओ' होति ।
अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । तत्थ सत्थाणं मूलोघभंगो। परत्थाणे पयदं।
..................
असंख्यात भागसे गुणित करने पर अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल होता है।
अनाहारक अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १९२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
अब भागाभागको बतलाते हैं-सर्व जीवराशिके असंख्यात खंड करनेपर बहुभाग आहारक मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अनाहरक बन्धयुक्त जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अनाहारक अबन्धक जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीब हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव है। शेष एक मागकेसंख्यात खंड करने पर बहुभाग प्रमत्तसंयत जीव हैं। शेष एकभाग प्रमाण अप्रमत्तसंयत मादि जीप हैं।
सास्थान अस्पबहुस्व आदिके भेदसे भस्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थान भस्याहुत्व मूल ओघ स्वस्थान भल्पषहुत्यके समान है।
. ..
. अयोगकेवलिमा सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, .. २ प्रतिषु ' अप्पमत्तसंजदा' इति पाठः।
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१८६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[ १, २, १९२. सव्वत्थोवा चत्तारि उवसामगा । खवगा संखेज्जगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा । आहारिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। आहारिसासणसम्माइटिअवहारकालो संखेज्जगुणो। संजदासंजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं णेयव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो आहारिमिच्छाइट्ठिणो अणतगुणा । अणाहारएसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली। असंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । एवं णेयव्वं जाव पलिदोवमं ति । तदो अबंधगा अणंतगुणा । बंधगा अणंतगुणा ।
सव्यपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा अणाहारिसजोगिकेवली । (अजोगिकेवली संखेजगुणा।) चत्तारि उवसामगा संखेजगुणा । (खवगा संखेजगुणा।) आहारिसजोगिकेवली संखेजगुणा । अप्पमत्तसंजदा संखेजगुणा । पमत्तसंजदा संखजगुणा। आहारिअसंजदसम्माइडिअव
...........
__ अब परस्थानमें अल्पबहुत्व प्रकृत है-चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव सबसे स्तोक हैं। क्षपक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं। आहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । आहारक सासादनसम्यदृष्टियोंका अवहारकाल आहारक सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे संख्यातगुणा है । संयतासंयतोंका अवहारकाल आहारक सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य उन्हींके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे आहारक मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं। अनाहारकों में सयोगिकेवली जीव सबसे स्तोक हैं। अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल अनाहारक सयोगिकेवलियोंसे असंख्यातगुणा है । अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका भवहारकाल अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य उन्हींके अघहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पत्योपमतक ले जाना चाहिये । पल्योपमसे अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । बन्धक जीव अबन्धकोंसे अनन्तगुणे हैं।
अब सर्व परस्थानमें अल्पबहुत्य प्रकृत है- अनाहारक सयोगिकेवली जीव सबसे स्तोक हैं । अयोगिकेवली जीव उनसे संख्यातगुणे हैं । चार गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव अयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं । क्षपक जीव उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। आहारक सयोगिकेवली जीव क्षपकोंसे संख्यातगुणे हैं। अप्रमत्तसंयत जीव आहारक सयोगिकेवलियोंसे संख्यातगुणे हैं । प्रमत्तसंयत जीव भप्रमत्तसंयतोंसे संख्यातगुणे हैं । आहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल प्रमत्तसंयतोंसे
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१, २, १९२.] दव्वपमाणाणुगमे आहारमग्गणाअप्पाबहुगपरूवणं [४८७ हारकालो असंखेजगुणो । सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो असंखेजगुणो। आहारिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो संखेज्जगुणो । संजदासजदअवहारकालो असंखेज्जगुणो । अणाहारिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । अणाहारिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्यमसंखेज्जगुणं । एवं णेयव्यं जाव पलिदोवमं ति । तदो अबंधगा अणंतगुणा । अणाहारिणो बधंगा मिच्छाइट्ठिणो अणंतगुणा। तदो आहारिणो मिच्छाइट्ठिणो असंखेज्जगुणा।
__एवं दवाणिओगद्दारं समत्तं ।
असंख्यातगुणा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियाका अवहारकाल आहारक असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । आहारक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालसे संख्यातगुणा है। संयतासंयतोंका अवहारकाल आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संयता. संयतोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। उन्हींका द्रव्य अपने अवहारकालसे असंख्यातगुणा है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये। पल्योपमसे अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। अनाहारक बन्धक मिथ्यादृष्टि जीव अबन्धकोंसे अनन्तगुणे हैं। इनसे आहारक बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं।
इसप्रकार द्रव्यानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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परिशिष्ट
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१ दव्वपरूवणासुत्ताणि ।
सूत्र संख्या
सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १ दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो १२ अद्धं पडुच्च संखेज्जा। ओघेण आदेसेण य ।
११३ सजोगिकेवली दवपमाणेण केव२ ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्यपमाणेण डिया, पवेसेण एको वा दो वा __ केवडिया, अणंता।
१० तिण्णि वा, उक्कस्सेण अद्रुत्तरसयं । ९५ ३ अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पि- १४ अद्धं पडुच्च सदसहस्सपुधत्तं । ९५ . णीहि ण अवहिरंति कालेग। २७१५ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरय४ खेत्तेण अणताणता लोगा। ३२ गईए णेरइएसु मिच्छाइट्ठी दव्य५ तिण्हं पि अधिगमो भावपमाणं । ३० पमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । १२१ ६ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संज- १६ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि· दासजदा ति दधपमाणेण केव- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । १२९ डिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदि- १७ खेत्तेण असंखेज्जाओ सेढीओ जग
भागो । एदेहि पलिदोवममवहिरि- पदरस्स असंखेजदिभागमेत्ताओ। • ज्जदि अंतोमुहुत्तेण ।
६३ । तासिं सेढीण विक्खंभसूची अंगुल७ पमत्तसंजदा दयपमाणेण केवडिया, वग्गमूलं विदियवग्गमूलगुणिदेण । १३१ कोडिपुधत्तं ।
८८१८ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव असं८ अप्पमत्तसंजदा दधपमाणेण केव- जदसम्माइहि त्ति दवपमाणेण डिया, संखेज्जा । ८९ केवडिया, ओघं ।
१५६ ९ चदुण्हमुवसामगा दवपमाणेण केव- १९ एवं पढमाए पुढवीए णेरइया । १६१ डिया, पवेसेण एको वा दो वा २० विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए
तिण्णि वा, उक्कस्सेण चउवणं । ९० रइएसु मिच्छाइट्ठी दबपमाणेण १० अद्धं पडुच्च संखेज्जा। ९१ केवडिया, असंखेज्जा। १९८ ११ चउण्हें खवा अजोगिकवली दब- २१ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि
पमाणेण केवडिया, पवेसेण एको वा उस्सप्पिणीहि अवहिरति कालेण। १९८ दो वा तिण्णि वा, उक्कस्सेण अट्ठ- २२ खेत्तेण सेढीए असंखेजदिभागो । त्तरसदं।
९२ तिस्से सेढीए आयामो असं
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( २ )
सूत्र संख्या
परिशिष्ट
सूत्र
खेज्जाओ जोयणकोडीओ पढमा
दियाणं सेविग्गमूलाणं संखेखाणं अण्णोष्णवभासेण ।
२३ सासणसम्म इट्टि पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठित्ति ओघं । २४ तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छाहुड जाव संजदासंजदा ति
ओघं । २५ पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा । २१७ २६ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि
उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २१७ २७ खेत्तेण पंचिदियतिरिक्खमिच्छा
पृष्ठ
२१५
हि पदरमवहिरदि देवअवहारकलादो असंखेज्जगुणहीणकालेग । २१९ | २८ सासणसम्माइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा ति तिरिक्खोघं ।
१९९ ३४ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २३० २०६ ३५ खेत्तेण पंचिदियतिरिक्खजोणिणिमिच्छाइट्ठी हि पदरमवहिरदि देव - अवहारकालादो संखेज्जगुणेण कालेण ।
२३०
३२ सास सम्माट्ठिप्प हुडि जाब संजदासंजदा त्ति ओघं ।
३३ पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छा
सूत्र संख्या
सूत्र
इट्ठी पमाण केवडिया, असंखेज्जा ।
२२८
३६ सासणसम्माइट्ठिप्प हुडि जाव संजदासंजदा ति ओघं ।
| ३७ पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ता दव्त्र
३८ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसपिणिपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । २३९
उस्सप्पिणीहिं अवहिरंति कालेण । २३९ ३९ खेतेण पंचिदियतिरिक्खअपजसे हि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणेण कालेन । २२६ ४० मणुसईए मणुस्सेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेजा । २४४
२९ पंचिदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठी
दवमाण केवडिया, असंखेजा । २२६ ४१ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि३० असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २४५ उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २२७ ४२ खेत्तेण सेटीए असंखेज्जदिभागो । ३१ खेतेण पंचिदियतिरिक्खपज्जतमिच्छाइडीहि पदरमवहिरदि देवअवहारकालादो संखेज्जगुणहीणेण काले ।
तिस्से सेटीए आयामो असंखेजदिजोयकोडीओ । मणुसमिच्छाइट्ठीहि रूवा पक्खित्तएहि सेढी अवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियमूलगुण |
२४५
२२९ ४३ सासणसम्माइट्ठिप्प हुडि जाव संजदासंजदा त्ति दव्वपमाणेण केव
पृष्ठ
२२९
२३७
२३९
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दव्वपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ डिया, संखेज्जा।
२५१ अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणि४४ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगि- देण।
___ २६२ केवलि त्ति ओघं ।
२५२ ५३ देवगईए देवेसु मिच्छाइट्ठी दव्य४५ मणुसपज्जत्तेसु मिच्छाइट्ठी दव- पमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । २६६
पमाणेण केवडिया, कोडाकोडा- ५४ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडा- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २६८ कोडीए हेवदो छण्हं वग्गाणमुवरि ५५ खेत्तेण पदरस्स वेछप्पणंगुलसयसत्तण्हं वग्गाणं हेट्टदो। २५३ वग्गपडिभागेण ।
२६८ ४६ सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव संज- ५६ सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि.
दासंजदा ति दयपमाणेण केव- असंजदसम्माइट्ठीणं ओघं । २६९ डिया, संखेज्जा।
२५९ ५७ भवणवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्य४७ पमत्तसंजदप्पहडि जाव अजोगि- पमाणेण केवडिया, असंखेजा। २७० केवलि त्ति ओघ ।
६६०५८ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि४८ मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठी दयपमा- उस्सप्पिणीहि अबहिरंति कालेण । २७०
णेण केवडिया, कोडाकोडाकोडीए ५९ खेत्तण असंखेज्जाओ सेढीओ पदउवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हे- रस्स असंखेजदिभागो । तासिं ढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं सेढीणं विक्खंभमई अंगुलं अंगुलवग्गाणं हेढदो। २६० वग्गमूलगुणिदेण ।
२७० ४९ मणुसिणीसु सासणसम्माइटिप्पहु- ६० सासणसम्माइहि-सम्मामिच्छाइटि
डि जाव अजोगिकेवलि त्ति दव- असंजदसम्माइटिपरूवणा ओघ । २७१
पमाणेण केवडिया, संखेज्जा। २६१/६१ वाण-तरदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव५० मणुसअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केव- पमाणेण केवडिया, असंखजा। २७२ डिया, असंखेज्जा।
२६२६२ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि५१ असंखेजासंखेज्जाहि ओसप्पिणि- उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २७२
उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । २६२ ६३ खेत्तेण पदरस्स सखेज्जजोयणसद५२ खेत्तेण सेढीए असंखेअदिभागो। बग्गपडिभाएण।
तिस्से सेढीए आयामो असंखेजाओ६४ सासगसम्माइटि-सम्मामिच्छाइटिजोयणकोडीओ । मणुसअपजत्तेहि असंजदसम्माइट्ठी ओघ । २७४ रूवा पक्खित्तेहि सेढिमवहिरदि६५ जोइसियदेवा देवगईणं भंगो। २७५
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( ४ )
परिशिष्ट
सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या
६६ सोहम्मीसाण कप्पवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । ६७ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण | २७६ ६८ खेत्ते असंखेज्जाओ सेढीओ पद
| ७५ अनंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण । ३०६ २७६ ७६ खेत्तेण अनंताणंता लोगा । ३०७ ७७ वेइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । ७८ असंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहित कालेन |
रस्स असंखेज्जदिभागो | तासिं सेठीणं विक्खंभसूई अंगुलविदिय
६९ सासणसम्म इट्टि सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठी ओघं ।
वग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण । २७७ ७९ खेत्तेण वेइं दिय-तीइंदिय - चउरिंदिय तस्मेव पज्जत्त-अपज्जत्तेहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएग अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण अगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडि
२८०
भाषण ।
७० सणक्कुमारप्प हुडि जाव सदारसहस्सारकप्पवासि यदेवेसु जहा सत्तमा पुढवीए रइयाणं भंग। । २८० ७१ आणद-पाद जाव णवगेवेज्जविमाणवासिय देवेसु मिच्छाइट्ठिपहुडि जाव असंजद सम्माइट्ठित्ति दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण । २८१ ७२ अणुद्दिस जाव अवराइदविमाण
वासि देवे असंजदसम्माइड दव्यपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंत मुहुत्त्रेण । २८१ ७३ सव्वसिद्धि विमाणवासियदेवा द
- व्यापमाणेण केवडिया, संखेज्जा । २८६ ७४ इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा
सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, अनंता ।
८० पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ।
सूत्र
तसु मिच्छाइ हि पदरमवहिर दि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखेज्जदि - भागवग्गपडिभाएण । सासणसम्माइट्टि पहुडि जाव अजोविलिति ओघं । ८४ पंचिदियअपज्जत्ता दव्त्रयमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । ३०५ | ८५ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि
| ८३
पृष्ठ
३१०
३१२
|८१ असंखेज्जासंखे जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । ३१४ |८२ खेत्तेण पंचिदिय - पंचिदियपज्ज
३१३
३१४
३१४
३१७
३१७
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
दव्वपरूवणासुत्ताणि
सूत्र संख्या
सूत्र
उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । ३१७ | ८६ खेत्तेण पंचिदियअपज्जतेहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभाएण । ८७ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादर उकाइया बादरवा उकाइया बादरवणफइकाइया पत्तेयसरीरा तस्सेव अपजत्ता सुहुम पुढविकाइया सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहुमवाउकाइया तस्सेव पञ्जत्तापजत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेजा लोगा ॥ ८८ बादरपुढविकाइय- बादआउकाइयबादरवणफइकाइयपत्तेयसरीरपजत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ।
पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र
haडिया, असंखेखा । |९३ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । ३५५ ३१८ ९४ खेत्ते असंखेज्जाणि जगपदराणि लोगस्स संखेज्जदिभागो । ३५५ | ९५ वणष्फइकाइया णिगोदजीवा बादरा सुहुमा पज्जत्तापज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, अनंता । ९६ अनंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेन । ३५८ ९७ खेत्तेण अणंताणंता लोगा । ३५८ ९८ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ।
३५६
३६०
९९ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । ३६१ १०० खेत्तेण तसकाइय-तसकाइयपज्ज
तसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभागेण अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्ग पडिभाएण । १०१ सासणसम्माइट्टिप्पहु डि अजोगिकेवलि त्ति ओघं । १०२ तसकाइ अपजत्ता पंचिदियअपज्जत्ताण भंगो ।
जात्र
३२९
३४८
८९ असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेन । ३४९ ९० खेत्तेण बादरपुढ विकाइय-बादरआउकाइय- बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपञ्जत्तएहि पदर महिरदिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभागेण ।
३४९
९१ बादर उपज्जत्ता दव्यपमाणेण केवडिया, असंखेजा । असंखेजाव - लियarगो आवलियघणस्स अंतो । ३५० ९२ बादरवाउकाइयपञ्जत्ता दव्वपमाणेण
१०३ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि ति ण्णिव चिजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्त्रपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेभागो ।
( ५ )
पृष्ठ
३५५
३६१
३६२
३६२
३८६
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________________
(६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या १०४ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव । इट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दवपमा
संजदासजदा त्ति ओघं। ३८७ णेण केवडिया, ओघं । ३९९ १०५ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगि- ११७ वेउब्धियमिस्सकायजोगीसु मिकेवलि त्ति दयपमाणेण केव
च्छाइट्ठी दवपमाणेण केवडिया, डिया, संखेज्जा।
३८७ देवाणं संखेज्जदिभागो। ४०० १०६ वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु ११८ सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्मा
मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केव- इट्ठी दयपमाणेण केवडिया,
डिया, असंखेज्जा। ३८८ ओघ । १०७ असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणि- ११९ आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा
उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । ३८९ दव्यपमाणेण केवडिया, चदुवण्णं । ४०१ १०८ खेत्तेण वचिजोगि-असच्चमोस- १२० आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तवचिजोगीसु मिच्छाइट्ठीहि पद
संजदा दयपमाणेण केवडिया, रमवहिरदि अंगुलस्स संखेज्जदि
संखेज्जा।
४०२ भागवग्गपडिभागेण। ३८९ १२१ कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाइट्टी १०९ सेसाणं मणजोगिभंगो। ३९० दव्वपमाणेण केवडिया, मूलोघं । ४०२ ११० कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु- १२२ सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्मा
मिच्छाइट्ठी मूलोघं । ३९५ इट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, १११ सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव
ओघं। सजोगिकेवलि त्ति जहा मण- १२३ सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवजोगिभंगो। ३९५ डिया, संखेजा।
४०४ ११२ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मि- १२४ वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु मिच्छा. च्छाइट्ठी मूलोघं ।
३९६ इट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ११३ सासणसम्माइट्ठी ओघं। ३९७ देवीहि सादिरेयं ।
४१३ ११४ असंजदसम्माइट्ठी सजोगिकेवली १२५ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव सं.
दव्वपमाणेण केवडिया, सखेजा। ३९७ जदासजदा त्ति ओघं। ४१४ ११५ वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी १२६ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियदव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं
ट्टिबादरसांपराइयपविट्ठ उवसमा संखेज्जदिभागूणो । ३९८ खवा दव्वपमाणेण केवडिया, ११६ सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छा
संखेजा।
४१५
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________________
दव्यपरूवणासुत्ताणि
सूत्र संख्या
सूत्र
१२७ पुरिसवेदसु मिच्छाइड्डी दव्वपमाण केवडिया, देवेहि सादिरेयं । १२८ सासणसम्माइट्टिप्पहुडि अणियट्टिबादर सांपराइयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ।
जाव
१२९ बुंसयवेदेसु मिच्छा इट्ठिप्प हुड जाव संजदासंजदा ति ओघं । १३० पमत्तसंजद पहुडि जाव अणिबादरसां पराइयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा |
१३१ अपगदवेदसु तिन्हं उवसामगा दव्वपमाणेण केवडिया, पवेसेण एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कस्सेण चउवण्णं ।
पृष्ठ सूत्र संख्या
४१६
४१८
१४० सजोगिकेवली ओघं । ४१६ | १४१ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुद
४१७
सूत्र
मूलोघं ।
१३८ अकसाईसु उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ओघं । |१३९ खीणकसायवीदरागछदुमत्था अजोगकेवली ओघं ।
अण्णाणीसु मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं । १४२ विभंगणाणीसु मिच्छाइट्ठी दव्त्रपमाणेण केवडिया, देवेहि सादिरेयं ।
४२८|१४७
( ७ )
पृष्ठ
४२९
४३०
४३०
४३१
| १४३ सासणसम्म इट्ठी ओघं । १४४ आभिणिबोहियणाणि - सुदणाणिओहिणाणी असंजदसम्माइट्ठिपहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ।
४१९
१३२ अद्धं पडुच्च संखेज्जा ।
४२०
४२१
१३३ तिण्णि खवा अजोगिकेवली ओघं । ४२० १४५ णवरि विसेसो, ओहिणाणीसु १३४ सजोगिकेवली ओघं । १३५ कसायाणुवादेण कोधकसाइ माणसा-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव संजदासंजदा ति ओघं ।
४२४
पत्तसंजद पहुडि जाव खीणकसायर्व । यरायछदुमत्था त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा । ४४१ १४६ मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदपहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था दिव्वपमाणेण केवडिया संखेज्जा । केवलणाणीसु सजोगिकेवली अजोगकेवली ओघं । | १४८ संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्त
१३६ पमत्त संजद पहुडि जाव अणिग्रट्टि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ।
१३७ णवरि लोभकसाईसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवा
४३६
४३७
४३८
४३९
४४१
४४२
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________________
(८)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या संजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि १५८ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव त्ति ओघं ।
४४७ खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति १४९ सामाइय-छेदोवट्ठावणमुद्धिसंजदेसु ओघं।
४५४ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणि- १५९ अचक्खुदंसणीसु मिच्छाइट्ठियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठ उव
प्पहुडि जाव खीणकसायवीदसमा खवा त्ति ओघं । ४४७ रागछदुमत्था त्ति ओघं। ४५५ १५० परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्त- १६० ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो। ४५५
संजदा दव्वपमाणेण केवडिया, १६१ केवलदसणी केवलणाणिभंगो। ४५६ संखेज्जा।
४४९ १६२ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय१५१ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुः णीललेस्सिय काउलेस्सिएसु मि
मसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा च्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदखवा दव्वपमाणेण केवडिया, सम्माइट्टि त्ति ओघं । ४५९ ओघं।
४४९१६३ तेउलेस्सिएसु मिच्छाइट्ठी दव्व१५२ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु च- पमाणेण केवडिया, जोइसियउहाणं ओघं।
देवेहि सादिरेयं ।
४६१ १५३ संजदासजदा दव्वपमाणेण केव- १६४ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव डिया, ओघं।
संजदासजदा त्ति ओघ । ४६२ १५४ असंजदेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव १६५ पमत्त-अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाअसंजदसम्माइहि त्ति दव्यपमा
णेण केवडिया, संखेज्जा । ४६२ णेण केवडिया, ओघं। ४५० १६६ पम्मलेस्सिएसु मिच्छाइट्ठी दव्य१५५ दंसणाणुवादेण चक्खुदसणीसु
पमाणेण केवडिया, सण्णिपंचिंमिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केव- दियतिरिक्खजोणिणीणं संखेज्जडिया, असंखेजा।
४५३ दिभागो। १५६ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पि- १६७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव। णि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति
संजदासजदा ति ओघं । ४६३ कालेण ।
४५३ १६८ पमत्त-अप्पमत्तसंजदा दव्वपमा१५७ खेत्तेण चक्खुदंसणीसु मिच्छा
णेण केवडिया, संखेज्जा। ४६३ इट्टीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स१६९ सुक्कलेस्सिएमु मिच्छाइट्ठिप्पसंखेअदिभागवग्गपडिभाएण। ४५३, हुडि जाव संजदासजदा ति
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दध्वपरूवणामुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या
पृष्ठ दघपमाणेण केवडिया, प- १८० उवसमसम्माइट्वीसु असंजदसलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
माइट्ठि-संजदासंजदा ओघं । ४७६ एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतो- १८१ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव उवसंतमुहुत्तेण ।
कसायवीदरागछदुमत्था सि द१७० पमत्त-अप्पमत्तसंजदा दधपमा
व्यपमाणेण केवडिया, संखेआ । ४७७ __णेण केवडिया, संखेजा। ४६५ १८२ सासणसम्माइट्ठी ओघ । ४७७ १७१ अपुधकरणप्पहुडि जाव सजोगि
., १८३ सम्मामिच्छाइट्ठी ओघ । ४७७ केवलि त्ति ओघं । ४६५ १७२ भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु
१८४ मिच्छाइट्ठी ओघ । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजो
१८५ सणियाणुवादेण सणीसु मिच्छागिकेवलि त्ति ओघं। ४७२ इ8। दयपमाणेण केवडिया, १७३ अभवसिद्धिया दधपमाणेण के.
देवहि सादिरेयं ।
४८२ वडिया, अणंता।
४७२ १८६ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव खी१७४ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीसु ।
णकसायवीदरागछदुमत्था ति असंजदसम्माइढिप्पहुडि जाव
ओघं।
४८२ अजोगिकेवलि ति ओषं। ४७४/१८७ असण्णी दव्यपमाणेण केवडिया, १७५ खइयसम्माइट्ठीसु असंजदसम्मा
अणंता। इट्ठी ओघं।
४७४ १८८ अगंताणताहि ओसप्पिणि-उस्त१७६ संजदासंजदप्पडि जाव उवसंत- प्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण । ४८३
कसायवीदरागछदुमत्था दब- १८९ खेत्तेण अणंताणंता लोगा। ४८३
पमाणेण केवडिया, संखेज्जा । ४७४|१९० आहाराणुवादेण आहारएसु मि१७७ चउण्हं खवा अजोगिकेवली ओघ । ४७५ च्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगि१७८ सजोगिकेवली ओघं। ४७६ केवलि त्ति ओघ ।
४८३ १७९ वेदगसम्माइट्ठीसु असजदसम्मा- १२२ अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिइट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा
भंगो।
४८४ त्ति ओघं।
४७६ १९२ अजोगिकेवली ओघं ।
४८२
४८५
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________________
२ अवतरण-गाथा-सूची ।
क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां ३४ अट्टत्तीसद्धलवा ६६ गो. जी. ५०५ ८ णाम टवणा दवियं...मणं- ११ ४८ अट्टेव सयसहस्सा अट्ठा- ९६ गो. जी. ६२९ ५७ णामं ढवणा दवियं...मसं. १२३ ४९ अट्टेव सयसहस्सा णव- ९७
४ १ तिगहिय-सद णवणउदी ९० गो. जी. ६२५ ३५ अस्त अणलसस्ल य ६६ गो. जी. टीका, ३६ तिणि सहस्ला सत्त य ६६ अनु. आदि.
आदि.
४५ तिसदिं वदंति केई ९४ गो. जी. ६२६ १२ अवगयणिवारणटुं
७० तेरस कोडी देसे वाव २५४ गो. जी. ६४२ ५९ अपगयणिवारणढे १२६
६९ तेरह कोडी देसे पण्णा- २५२ १ अरसमरूवमगंधं २ प्रवच. आदि. ६८ तेरह कोडी देसे चाव- २५२ गो. जी. ६४२ २९ अवणयणरासिगुणिदो ४८
१९ धम्माधम्मागासा २९ २४ अवहारवटिरूवा ४६
६२ धम्माधम्मा लोगा १२९ २५ अवहारविसेसेण य ४६
३ नयोपनयैकान्तानां ५ आ मी. १०७ १. आगमो ह्याप्तवचन- १२ अनु. टीका ५ नानात्मतामप्रजहत्तदेक. ६ युक्त्यनु. ५० ३३ आवलि असंखसमया ६५ गो. जी. ५७७ ३० पक्खेवरासिगुणिदो ४९ ७७ आवलियाए वग्गो ३५५
३८ पणट्ठी च सहस्ता ८८ ४४ उत्तरदलहयगच्छे ९४
२२ पत्थेण कोदवेण य ३२ ४७ एक्केक्कगुणट्ठाणे ९५
२० पत्थो तिहा विहत्तो २९ ४ एयदवियम्मि जे
गो. जी. आदि.६ पलो सायर-सूई १३२ त्रि. सा. ९२ २१ कालो तिहा विहत्तो २९
२ पुढवी जलं च छाया ३ गो. जी आदि. ७१ गयण?णयकसाया २२५
९ पूर्वीपरविरु द्वादे- १२ ४६ चउरुत्तरतिणि सयं ९४ ५२ चउस छच्च सया ९९
४० पंचसय बारसुत्तर- ८८ ५६ छक्कादी छक्कंता १०१
५४ पंचेव सयलहस्सा ...उण-१०० ७८ जगसेढीए वग्गो ३५६
५५ पंचेव सयसहस्सा ...ते. १०१ ६० जत्थ जहा जाणेज्जो १२६
१४ प्रमाणनयनिक्षेपै- १७ १३ जत्थ बहू जाणेज्जो
१२६ ३१ जे अहिया अवहारे
७ बहिरर्थो बहुव्रीहिः ७ ३२ जे ऊणा अवहारे
६ बहुव्रीहव्ययीभावो ६ १५ शानं प्रमाणमित्याहु- १८ लघीय ६, २.७६ बीजे जोणीभूदे ३४८ ५० णव चेव सयसहस्सा ९७
११ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा १२
५८
६१
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________________
क्रम संख्या
गाथा
७५ रासिविसेसेण वहिद
२६ लद्धविसेसच्छिण्णं २७ लद्धंतरसंगुणिदे २३ लोगागास पसे
४३ बत्तीसमदालं
३७ बत्तीस सोलस चत्तारि
६६ वारस दस अट्ठेव य
६७
३९ विसद्द
अडयालं
५३ वे कोडि सत्तवीसा ७२ सत्त णव सुण्ण पंच
35
अवतरणगाथासूची व न्यायोक्तियां
अन्यत्र कहां क्रम संख्या
पृष्ठ
३४२
४६
४७
१००
२५६
३३
९३ गो. जी. ६२८ १६ सिद्धा णिगोदजीवा ८७
१६७
२०१
८८
भाग पृष्ठ १, २८
१ अग्निरिव माणवकोऽग्रिः । २ कज्जणाणत्तादो कारणणाणत्तमणुमणिज्जदि ।
१, २१९
३. कारण कम् माणुसारी कजकमो । १, २१८ ४ कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्तिः । ५ कारणानुरूपं कार्यम् । ६ जहा उद्देसो तहा णिद्देसो । ३, १०-३१३.३१५
१, २३७ १, २७०
७ जं थूलं अपवण्णणीयं तं पुत्रमेव भाणियव्यं ।
८ नदीस्रोतो न्याय |
९ नहि प्रमाणं प्रमाणान्तरमपेक्षते- १, २०४ १० न हि स्वभावाः परपर्यनु
योगाः ।
११ नागमस्तर्कगोचरः । १२ पमाणेण
पमाणाविरोहिणा
|७३ सत्तसहस्लडसीदहि ५१ सत्तादी अहंता ७९ सत्तादी छक्कंता |७३ साधारणमाहारो
३ न्यायोक्तियां |
सूचना - न्यायवाक्य के पश्चात् १, ३ संख्या भागसूचक और शेष संख्याएं पृष्ठसूचक हैं ।
१, २९६ १, ३०४
होदष्वं ।
१३ परिशेषन्याय
१४ प्रतिपाद्यस्य बुभुत्सितार्थविषयनिर्णयोत्पादनं फलम् ।
वक्तृवचसः
१, ९२२ १५ भाविनि भूतवत् ( उपचारः ) १, १८१
गाथा
१७ सुमो य हवदि... हवदि | ६३ सुहुमो य हवदि... जायदे १३० | १८ सुहुमं तु हवदि... हवदि २८ | ६४ सुदुमं तु हवदि... जायदे १३० ४२ सोललयं चडवीसं
१ २८ हारान्तरहृनहारा
१, २१७
१, ४२१५७
पृष्ठ
२५६
९८ गो. जी. ६६३
( ११ )
अन्यत्र कहां
४५०
३३२ गो. जी. १९२
२६ ति. प. आदि. २७ वि. भा.
९१ गो. जी. ६२७
४७
३, २७-१३० २३ वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामा१, १८०
भाग पृष्ठ | १६ भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणात् । १, २६३ १७ भूतपूर्वगति । १. १६६ १, १२९
१८ भूदपुव्वगइ |
१, २५ १, १६१
१९ भूपुव्वणापण
| २० यथेोद्देशस्तथा निर्देशः । २१ यद्येकशब्देन न जानाति ततोऽन्येनापि शब्देन ज्ञापयितव्यः । १, ३२ | २२ रूढितन्त्रा व्युत्पत्तिः ।
ण्यम् ।
१, १४० १, ७२-१९६, ३, ११ | २४ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः । ३, १८ सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति ।
१, १८५
| २५ सव्वकालमवदिरासीणं वयाणुसारिणा आपण होदव्वं । ३, १२० | २६ सामान्य चोदनाश्च विशेषेष्व. तिष्ठन्ते ।
१, १४० | २७ सिद्धासिद्धाश्रया हि कथामार्गाः १, ३४९
| २८ संते संभषे वियहिवारे व विसेसण मत्थवंतं भवदि ।
| २९ सुपरिक्खा हिययणिवुइकरा । १, ७०
१,२६२-३३१
Page #595
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________________
४ ग्रन्थोल्लेख ।
भाग पृष्ठ
१ अप्पाबहुग सुत्त १ 'उवसमसम्माइट्ठी थोवा । खइयसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा । वेदयसम्माइट्ठी भसंखेज्जगुणा' त्ति अप्पाबहुगसुत्तादो णव्वदे। ___ २ 'तेइंदियअपज्जत्तरासीदो चउरिदियरासी विसेसहीणो' त्ति वुत्तअप्पाबहुगसुत्तादो । xxx एदं पि अप्पाबहुगसुत्तादो चेव णव्वदे ।
३ ३२१ ____ 'सव्वत्थोवा णबुंसयवेदअसंजदसम्माइट्ठिणो । इथिवेदभसंजदसम्माइट्ठिणो असंखेज्जगुणा । पुरिसवेदअसंजदसम्माइट्ठिणो असंखेज्जगुणा' इदि अप्पाबहुअ. सुत्तादो कारणस्ल थोवत्तणं जाणिज्जदे ।
३ २६१ ४ अण्णहा अप्पाबहुगसुत्तेण सह विरोहादो।
३२७३ २ कसायपाहुड, पाहुडसुत्त / १कसायपाहुडउचएसो पुण अढकसाएसु खीणेसु पच्छा अंतोमुहुक्तं गंतूण सोलस कम्माणि खविज्जति त्ति। २ आइरियकहियाण xx कसायपाहुडाणं ।
१२२१ ३ ' अणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं ' इदि अणेण पाहुडसुत्तेण सह विरोहा।। २ ५६६
३ कालसूत्र ( कालानुयोग) १ कालसूत्रेण सह विरोधः किन्न भवेदिति चेन्न, तत्र क्षयोपशमस्य प्राधान्यात्। १ १४२
२ तो एदाओ दुविहसंजदरासीओ सांतराओ हवंति। ण च एवं, कालाणिओगे एदासिं णिरंतरतुवलंभादो।
३ ४४८ ४ खुद्दाबंध १ 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीहिंतो वाणवेंतरदेवा संखेज्जगुणा, तत्थेव देवीओ संखेज्जगुणाओ' एदम्हादो खुद्दाबंधसुत्तादो जाणिज्जदे ।
३ २३१ __ २ 'मणुसगईए मणुसेहि रूवं पक्खित्तएहि सेढी अवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण' इदि खुद्दाबंधसुत्तादो।
३२४९ ३ 'ईसाणकप्पवासियदेवाणमुवरि तम्हि चेव देवीओ संखेज्जगुणाओ । तदो सोहम्मकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा । तम्हि चेव देवीओ संखेज्जगुणाओ । पढमाए पुढवीए णेरड्या असंखेज्जगुणा। भवणवासियदेवा असंखेज्जगुणा ।
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________________
ग्रंथोल्लेख
(१३)
भाग पृष्ठ देवीओ संखेज्जगुणाओ। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणाओ। वाण. वेतरदेवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ। जोइसियदेवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखेज्जगुणाओ' त्ति पदम्हादो खुद्दाबंधसुत्तादो जाणिज्जदे जहा देवाणं संखेज्जा भागा देवीओ होति । ४ खुद्दाबंधे वि घणधारुप्पण्णविक्खंभसूईणं पादोलंभादो वा।
३२७९ ५ खुद्दाबंधुवसंहारजीवट्ठाणस्स मिच्छाइट्ठिविक्खंभसूईए सामण्णविखंभ. सूचिसमाणत्तविरोहा । एवं खुदाबंधम्हि वुत्तसव्वअवहारकाला जीवट्ठाणे सादिरेया वत्तव्वा ।
६ अवलेसिदमणुसरासिपरूवणादो जुत्तं खुद्दाबंधम्हि भागलद्धादो एगरूवस्स अषणयणं ।
३२४९ __७ संपदि खुद्दाबंधेण सामण्णेण जीवपमाणपरूवएण जाओ विक्खंभईओ xxx इदि एसा खुद्दाबंधे xxx खुद्दाबंधे उत्ता xxx खुद्दाबंधे वुत्ता xx। तम्हा एत्थ वुत्तविक्खंभसूईहि ऊणियाहि खुद्दाबंधवुत्तविक्खंभसूहि वा अधि. याहिं होदव्वमिदि चोदगो भणदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे । जीवट्ठाणवुत्तविक्खंभसूईओ संपुण्णाओ, खुद्दाबंधम्हि वुत्तविक्खंभसूईओ साधियाओ।
३२७४ ८ खुदाधम्हि वुत्तविक्खंभसूईओ संपुण्णाओ किण्ण होति ? xxx अहवा एत्थ वुत्तविक्खंभसूईओ देसूणाओ, खुद्दाबंधम्हि वुत्तविक्खंभसूईओ संपुणाओ। ३ २७५
५ जीवट्ठाण १ जीवट्ठाणमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूचिपादो वि खुद्दाबंधसामण्णषिक्खंभसूचिपादेण समाणो।
३२७९ __२ एत्थ पुण जीवट्ठाणम्हि मिच्छत्तविसेसिदजीवपमाणपरूवणे कीरमाणे रूवाहियतेरसगुणट्ठाणमत्तेण अवणयणरामिणा होदधमिदि ।
३ २५० ३ एत्थ वि जीवट्ठाणेxx वुत्ताओ।
३२७८ ६ तत्वार्थभाष्य १ उक्तं च तत्वार्थभाष्ये-उपपादो जन्म प्रयोजनमेषां त इमे भोपपादिकाः। १ १०३
७ तत्वार्थसूत्र १ ' वनस्पत्यन्तानामेकम् ' इति तत्वार्थसूत्राद्वा।।
१२३९ १ 'कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि' इति अस्मात्तत्वार्थसूत्राद्वा। १ २५८
८ तिलोयपण्णत्ती १ 'गुण-दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगे' त्ति तिलोयपण्णात्तिसुत्तादो। ३ ३६ २ जोइसियभागहारसुत्तादो चंदाचबिंबपमाणपरूवयतिलोयपण्णत्तिमुत्तादोच।३ ३६
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( १४ )
परिशिष्ट
९ परियम्म
१ 'जहि जहि अनंताणंतयं मग्गिज्जदि तम्हि तरिह अजद्दण्णमणुक्कस्स अणंताणंतस्लेव गद्दणं' इदि परियम्मवयणादो |
३ १९
२ 'जद्दण्णअणंताणंतं वग्गिज्जमाणे जद्दण्णअणंताणंतस्स हेट्टिमवग्गणट्टाणेहिंतो उवरि अनंत गुणवग्गट्टाणाणि गंतॄण सव्वजीवरासिवग्ग सलागा उप्पज्जदि' त्ति परियम्मे वुत्तं ।
३ण च तदियवारवग्गिदसंवग्गिदासिवग्गसलागाओ देट्ठिमवग्गणट्ठाणेद्दितो उवरि परियम्मउत्त अनंत गुणवग्गणट्टाणाणि गंतॄणुप्पण्णाओ ।
४ 'अनंतात विसए अजहण्णमणुक्कस्सअणताणतेणेव गुणगारेण भागद्दारेण विहोदव्वं' इदि परियम्मवयणादो |
५ 'जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाद्दियाणि' त्ति परिमसुते सह विरुज्झइ ।
६ जं तं गणणा संखेज्जयं तं परिम्यमे वृत्तं ।
भाग पृष्ठ
७ 'जम्हि जहि असंखेज्जासंखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्णमणुकस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्सेव गद्दणं भवदि' इदि परियम्मवयणादो ।
८ 'अट्ठरुवं वग्गिज्जमाणे वग्गिज्जमाणे असंखेज्जाणि वग्गट्टाणाणि गंतॄण सोहम्मीसाणविक्खंभसूई उप्पज्जदि । सा सई वग्गिदा णेरइयविक्खंभसूई हवदि । सा सई वग्गिदा भवणवासियविक्खंभसूई हवदि सास वग्गिदा घणंगुलो हवदि' त्ति परियम्मवयणादो ।
१३ ण च परियम्मेण सह विरोहो, तस्स तदुद्देसपदुष्पायणे वावारादो । १४. परियम्मदो वग्गत्तसिद्धी, तस्स तेडक्काइय अद्धच्छेदणएहि अयंतियत्तादो ।
० पिंडिया
उत्तं च पिंडियाए
१ लेस्ला य दव्व-भावं कम्मं णोकम्ममिस्सयं दव्वं । जीवस्त भावलेस्ला परिणामो अप्पणो जो सो ॥
११ वर्गणात्र
१ कथमेतदवगम्यते ? वर्गणासूत्रात् । किं तद्वर्गणासूत्रमिति चेदुच्यते
३ २४
३ २४
३ १३४
९ पदांसं अवहारकालपरूवयगाहा सुत्तादो वा परियम्मपमाणादो वा जाणिज्जदे । ३ २०१ १० परियम्मादो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढीए पमाणमवगद मिदि चे ण, पदस्स सुत्तस्स बलेण परियम्मपवृत्तीदो ।
११ परियम्मवयणादो ।
१२ परियम्मवयणादो ।
३ २५
३ ३६
३ ९९
३ १२७
३ २६३ ३ ३३७ ३ ३३८ ३ ३३८
३ ३३९
२ ७८८
१२९०
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________________
ग्रन्थोल्लेख
(१५) क्रम नं,
भाग पृष्ठ १२ वियाहपण्णति १ लोगो यादपविट्टिदो त्ति वियाहपण्णत्तीययणादो ।
१३ वेयणासुत्त, वेदनाक्षेत्रविधान १ जो मच्छो जोयणसहस्सिओ सयंभूरमणसमुहस्स बाहिरिल्लए तडे वेयणसमुग्धारण समुहदो काउलेस्तियाए लग्गो त्ति एदेण वेयणासुत्तेण सह विरोहो ३ ३७
२ तत्कुतोऽवसीयत इदि चेद्धेदनाक्षेत्रविधानसूत्रात् । तद्यथा...... । १२५१
३ ण, बादरेइंदियोगाहणादो सुहुमेइंदियओगाहणाए वेदणखेत्तविहाणादो बहुत्तोवलंभा।
३ ३३० ___४ सुटुमेरदियोगाहणादो बादरेइंदियओगाहणाए वेदणखेत्तविहाणसुत्तादो थोवत्तुषलंभा।
३३३१ १४ सन्मतिसूत्र १ णामं ठवणा दविए त्ति एस दव्वट्टियस्स णिक्खयो। २ भाषो दु पज्जवट्ठियपरूवणा एस परमत्थो । ३ अणेण सम्मइसुत्तेण सह कधमिदं वक्खाणं ण विरुज्वदे ?
१५ संतकम्मपाहुड १ एवं काऊण xxx सोलस पयडीओ खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण पञ्चफ्लाणापञ्चक्खाणावरणकोध-माण माया-लोभे अक्कमेण खवेदि । एसो संतकम्म. १ २१७
२ पाहुडउवएसो ३ आइरियकहियाणं संतकम्म-कसायपाहुडाणं
१२२१ १६ संतसुत्त (परूवणा) १ अपज्जत्तकाले पंचिंदियपाणाणमस्थित्तपदुप्पायणसंतसुत्तदसणादो २६५८
-
Page #599
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________________
५ परिभाषिक शब्दसूची ।
सूचना- जो शब्द ग्रंयमें अनेकवार आये हैं उनके प्रायः प्रथम एक दो पृष्ठांक ही यहां दिये गये हैं।
- शब्द
पृष्ठ
शब्द
अजीवद्रव्य अतीतप्रस्थ अधर्मद्रव्य अधस्तनविकल्प अधिगम अधस्तनविरलन अनन्त
|अप्रदेशिक
अप्रदेशिकानन्त २९ अप्रदेशिकासंख्यात
अरूपी अजीवद्रव्य ५२, ७४ अर्धच्छेद
२१ ३९ अर्धच्छेदशलाका १६५, १७९ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल
२६, २६७ अल्पबहुत्व
११४, २०८ अवसर्पिणी अवहार
४६, ४७, ४८ अवहारकाल
१६४,१६७ १९ अवहारकालप्रक्षेपशलाका १६५, १६६, १७१
अवहारकालशलाका अवहारविशेष
६२ अवहारार्थ
अनन्तगुण अनन्तगुणहीन अनन्तानन्त अनन्तप्रदेशिक असंख्येयप्रदेशिक अनन्तिमभाग अनागत (काल) अनागतप्रस्थ अनुगम अन्तर्मुहुर्त अन्योन्यगुणकारशलाका अन्योन्याभ्यास अपनयन (राशि) अपनेय अपर्याप्त अपवाइज्जमाण अपहत
अव्ययीभावसमास २९ अष्टरूपधारा (धनधारा)
असंख्यात असंख्यातासंख्यात
३३४ असंख्येयगुण
२१, ६८
२०,
११५, १९९
असंख्येयगुणहीन असंख्येयप्रदेशिक असंख्येयभाग
६३,
आ
४२ आकाशद्रव्य
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________________
परिभाषिक शब्दसूची
( 25 )
" शब्द
शब्द १२, १२३ कालद्रव्य
१२ कालभावप्रमाण १२३ कृतयुग्गराशि १२३ क्षेत्रभावप्रमाण १२५ कोटाकोटी
आगम आगमद्रव्यानन्त आगमद्रव्यासंख्यात आगमभावानन्त आगमभावासंख्यात आदि (धन) आदेश आप्त आयाम आवलिका
२४९
२५५
१, १० खंडित
३९, ४१, ७१
१२४, १२६
१९९, २००, २४५ गणनानन्त
गणनासंख्यात
गृहीत १८७, १९०, १९१ गृहीतगुणाकार
गृहीतगृहीत
her
इच्छा (राशि)
९१, ९३, ९४ घनपल्य
९४, ९९ घनांगुल
८०, ८१ १३२, १३९
घनाघनधारा
उच्छास उत्तर (धन) उत्तरपडिवत्ती उत्सर्पिणी उपरिमवर्ग उपरिमविकल्प उपरिमविरलन उभयानन्त उभयासंख्यात
484
एकानन्त एकासंण्यात
२१
२१, २२, ५२ ___५४, ७७
चतुष्कछेद १६५, १७९
१६ छहद्रव्यप्रक्षिप्तराशि १२५
जगप्रतर जघन्य अनन्तानन्त जघन्य परीतानन्त जगश्रेणी जाति जातिस्मरण जीवद्रव्य जंबूद्वीप
सायकशरीरद्रव्यानन्त २४९ शायकशरीरद्रव्यासंख्यात १३१, ३५९ ४३, ७२ तत्पुरुषसमास
ओघनिर्देश ओज (राशि)
१३५, १४२, १७७
२५० १५७
कर्मधारयसमास कलिओजराशि कल्पकाल कारण
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--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ )
शब्द
तद्व्यतिरिक्तकर्मानन्त तद्ब्रूयतिरिक्तकर्मा संख्यात तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानन्त तद्व्यतिरिकद्रव्यासंख्यात
तद्व्यतिरिक्तनो कर्मानन्त तद्व्यतिरिक्त कर्मासंख्यात
तेओजराशि
त्रिकच्छेद
त्रैराशिक
दक्षिणप्रतिपत्ति
दिवस
देय
द्रव्य
द्रव्यप्रमाण
द्रव्यप्रमाणानुगम
द्रव्यभावप्रमाण
द्रव्यानन्त
द्रव्यानुयोग
द्रव्या संख्यात
द्विगुणादिकरण
द्विरूपधारा
द्विगुसमास
द्वन्द्वसमास
धर्मद्रव्य ध्रुवराशि
मय
नामानन्त
नामासंख्यात
नालिका
माली
ध
न
- परिशिष्ट
पृष्ठ
१६ | निगोदजीव १२४ निक्षेप
१५ निरुक्ति
१२४ निर्देश
१५
१२४
नोआगम नोआगमद्रव्यानन्त
| नो आगमद्रव्यासंख्यात नोआगमभावानन्त
७८ नोआगमभावा संख्यात
२४९
९५, ९६, १०० न्यास
प
९४, ९८ परस्थान ( अल्पबहुत्व ) ६७ पर्याप्त
२० परिहाणि ( रूप )
२, ५, ६ परीतानन्त
१० पल्योपम
१, ८ पुङ्गलद्रव्य ३९ पूर्वफल
१२ | पृथक्त्व १ पृथिवीकायिक १२३ पंचच्छेद
७७, ८१, ११८ प्रक्षेप
शब्द
५२ प्रक्षेपराशि ७ प्रक्षेपशलाका ७ प्रचय
प्रतरपल्य
प्रतरांगुल
३
| प्रत्येकशरीर ४१ प्रमाण
११
१२३
प्रमाण ( परिमाण )
१८ | प्रमाण (राशि)
| प्रबाह्यमान ( पवाइज्ज माण )
प्राण
६५
६६ | फल (राशि)
फ
१,
- पृष्ठ
३५७
५१, ७३
८, ९
१३, १२३
१३
१२३
१६
१२५
१८
२०८
३३१
१८७
१८
६३, १३२
३
४९
८९
३३०
७८
४८, ४९, १८७
४९
१५९
९४
७८,७९, ८० ३३१, ३३३
४, १८ ४०, ४२, ७२ १८७, १९४
९२
६६
१८७, १९०
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिभाषिक शब्दसूची
पृष्ठ
शब्द
शब्द
पृष्ठ
बहुव्रीहिसमास
लब्धअवहार
लन्धविशेष ३३०, ३३१ लब्धान्तर
लोक
बादरनिगोदप्रतिष्ठित बादरयुग्मराशि
३३, १३२
२४९ लोकप्रतर
लोकप्रदेशपरिमाण
व
३५७ १३३, १३४
भज्यमानराशि भव्यानन्त भव्यासंख्यात भागलब्ध भागहार भागाभाग भाजित भाज्यशेष भावप्रमाण भावानन्त भिन्नमुहूर्त
३३५
१
१४ वनस्पतिकायिक १२४ वर्गमूल ३८, ३९ वर्गशलाका
३९, ४८ वर्गस्थान १०१, २०७ वर्गितसंवर्गित ३९, ४१ वर्गितसंवर्गितराशि
४७ वर्तमानप्रस्थ ३२, ३९ वस्तु
१६ वादाल ६६, ६७ विकल्प २०२, २०३ विरलन
विरलित
विष्कंभसूची २५५, २५६ विस्तारानन्त
६६ विस्तारासंख्यात
वृद्धि (रूप)
५२, ७४
भंग
४०, ४२ १३१, १३३, १३८
मानुषक्षेत्र मुहूर्त
४६, १८७
युक्तामन्त युग्म (राशि)
३३५,३३६
राशि राशिविशेष रूपीअजीवद्रव्य
२४९
शलाकी ३३
शलाकाराशि २४९ शाश्वतानन्त ३४२ शाश्वतासंख्यात
श्रेणी
१२४ ३३, १४२
६५/समकरण
Page #603
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________________
(२०)
परिशिष्ट
शब्द
पृष्ठ
शब्द
२६७
समास समास (जोड़) सर्वपरस्थान सर्वानन्त सर्वासंख्यात
८७, १९७ ११४, २०८
६ संख्या २०३ संख्यात ११४, २०८ संख्यान
संदृष्टि स्वस्थान अल्प हुत्व
स्थापनानन्त १३२ स्थापनासंख्यात ३३३ स्तोक
३३१ १३२, १३५ हार
९१, ९३ हारान्तर
सागर साधारणशरीर
ho
सूच्यंगुल संकलनसूत्र
६ मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके मिलान ।
अ - मूडबिद्रीकी प्रतियोंके ऐसे पाठभेद जो अर्थ व पाठशुद्धिकी दृष्टिसे विशेषता रखते हैं, अतएव ग्राह्य हैं।
भाग १. पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये । ९ २ सयलस्थवत्थूणं
सयलत्थवत्थाणं , १३ अर्थ-वाचक
. पदार्थोंकी अवस्थाके वाचक १८ ४ समवाय-णिमित्तं .. समवायदव्वणिमित्तं ३४ ७ मङ्गलप्राप्तिः
मंगलत्वप्राप्तिः ३८ २ मंगलम् । तन्न,
मंगलत्वम् । न ३९ १० देहिंतो कय___ अव्वोच्छित्ति य
अव्वोच्छित्ति (त्ती) ४१ ६ णिबद्धदेवदा
कयदेवदा १७ निबद्ध कर दिया
स्वयं किया
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूडबौद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके मिलान
(२१) पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये। .. . ,, ७ कयदेवदा
णिवद्धदेवदा ,, १८-१९ देवताको....जाता है,) अन्यकृत देवतानमस्कार निबद्ध किया जाता है, ४९७ साहण
-सोहण४९ २० साधन अर्थात् व्रतोंकी रक्षा शोधन अर्थात् व्रतोंकी शुद्धि ५२ ८ रत्नाभोगस्य
रत्नभागस्य ६३ ७ -प्राप्त्यतिशय
प्राप्तातिशय ६३ १७ निश्चय व्यवहाररूप....प्राप्त हुई निश्चय और व्यवहारसे प्राप्त अतिशयरूप ६४ ३ चउक्क-घाइ-तिए
तहेव घाइतिए , १४ चार घातिया कर्मोमेंसे ६५ ६ तेण गोदमेण
तेण वि गोमेण , १४ गौतम गणधरने
गौतम गणधरने भी ६७ ४ होहदि त्ति
होहिदि त्ति ८ चेव
चेव होंति ८३ ११ द्रोष्यत्यदुद्रुवत्
द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवत् , २७ जो
जो वर्तमानमें पर्यायोंको प्राप्त होता ८६ ५ सन्त्वेते
संतु ते ९७ ३ पूजा-विहाणं
पूजादिविधाणं , १३ पूजाविधिका
पूजा आदि विधिका १०१ ५ णेयप्पमाणं
णेयप्पमाणज्ञेयप्रमाण है, क्योंकि ज्ञान- है, क्योंकि ज्ञेयप्रमाण ज्ञानमात्र
प्रमाण ही १०२ १ धम्मदेसणं
धम्मुवदेसणं १०६ ५ समयस्स
ससमयस्स ४ वेइयाणं
वेश्या-वंसा संठाणं
संठाण, १४ नाना प्रकारके....गलाता है छह प्रकारके संस्थानोंसे युक्त नाना प्रकारके
शरीरोंसे पूरित होता है और गलाता है १२३ ८ अद्भुवमं पणिधिकप्पे अद्धवसंपणिधिकप्पे " १० वज्झए
बुज्झए १४६ ४ विक्रमेणोपलंभात्
ऽक्रमेणोपलंभात्
११०
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२२)
परिशिष्ट पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये। १५१ ४ श्रद्धानमनुरक्तता
श्रद्धानमुत्कता १५९ - १ अवधरणं
अवधाणं जायदि
जादि ९ समिल्लिया
समल्लियह १७१ २४ वेदक सम्यक्त्वसे मेल कर लेता है वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होता है १९४ ६ सहावयवस्य
सहास्यार्षावयवस्य १९६ ६ अपौरुषेयत्वस्य
अपौरुषेयस्य १९८ त्पत्तिरिति
पुनर्नोत्पत्तिरिति २०१७ पातयति
यातयति " २३ गिराता है
यातना देता है २०३ ८ दव्व
दिव्व. २०३ २२ द्रव्य और भावरूप दिव्य स्वभाववाले २१२ ४ अणेणेव
अणेण २१७ ४ संखेन्जदि.
संखेज्जे २२० ६ परिमाणत्तादो
परिणामत्तादो २४३ २ उत्तिरंग
उत्तिग्ग (उत्तिंग) ४ घ्राणमिति
घ्राणमिति चेत् २४८ २ भवेदिति
भवति २५९ ६ संक्षिन इति
संक्षिन:, अमनस्काः असंझिन इति १९ कहते हैं
और मनरहित जीवोंको असंज्ञी कहते हैं २६० २ निष्पत्तौ
निष्पत्तेः १ कर्मस्कन्धैः
नोकर्मस्कन्धैः १४ कर्मस्कंधोंके
नोकर्मस्कंधोंके २८१ २ सच्चमोसं ति
सच्चमोसं तं २८७ ९ प्रयत्ना
सप्रयत्ना, ३० प्रयत्न और
प्रयत्नसहित २९३ १ तत्परित्यक्ता
परित्यक्ता२९५ ६ को ह्यौ
केष्वौ३१८ ५ भूतपूर्वगत
भूतपूर्वगति३२० ७ ताम्यां
पताम्यां ३२१ ४ जादि
जांति , जादि
जांति
Page #606
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________________
(२३)
मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलान पृष्ठ पंक्ति पाठ है ।
पाठ चाहिये। ३२१ ५ जादि
जांति ३४१ ११ नपुंसकमुभया
नपुंसक उभया३४४ ३ अभिलाषे
आभिलाषो ३४९ ८ गहीं
गृर्द्धा १४९ ३० गर्दा
गृद्धि १ भेयं च
मेयगयं ३७३ ७ सचित्त
सञ्चित्त३७४
३ निबंधनावेवाभविष्यतां निबंधनावभविष्यतां ३८८ ५ पीत
तेज ३८९ अप्पाणमिव
अप्पाणं पिव ३९० ४ रायबोसो
रायदोसा ३९८ ३ एकदेशे सत्यविरोधात् एकदेशोत्पत्यविरोधात् ३९८ १७ एकदेश रहने में
एकदेशकी उत्पत्तिमें
३६०
भाग २. ४१५ ४ मिच्छाइट्ठी सिद्धा० चेदि मिच्छइट्ठी० सिद्धा चेदि . ४१९ ४ एइंदियादी
अत्थि एइंदियादी ४२७ २ भण्णमाणे
ओघे भण्णमाणे ४४४ १ सिद्धमपज्जतं
सिद्धमपज्जत्तत्तं २ सरीर-पट्ठवण
सरीरावण ( सरीराढवण) ४६२ ६ तिण्णि सम्मत्तं
तिणि सम्मत्ताणि ४६३ ४ तिण्णि सम्मत्तं
तिषिण सम्मत्ताणि ५१३ ५ दन्वित्थिवेदा
दग्वित्थिवेदा पुण ५३४ ७ असुह-ति-लेस्साणं गउरवण्णा- असुह-ति-लेस्साणं धवलवण्णाभावप्पसंगादो, भावापत्तीदो।
कम्मभूमिमिच्छाइट्ठीणं पि अपज्जत्तकाले असुह
ति-लेस्साणं गउरवण्णाभावापत्तीदो। ५३४ २६ भोगभूमियां मनुष्योंके गौर वर्णका भोगभूमियां मनुष्योंके धवलवर्णके अभावका
प्रसंग प्राप्त होगा। तथा, अशुभ तीनों लेश्यावाले कर्मभूमियां मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी अपर्याप्त कालमें गौर वर्णका
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२४)
परिशिष्ट पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये। ५३५ ९ तेउ-पम्म सुक्कलेस्साओ भवंति। तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ भवंति । बहुवण्णस्स. पंच-वण्ण-रस-कागस्स जीवसरिस्स कधमेक्कलेस्सा जुज्जदे ? ण,
पाधण्णपदमासेज्ज 'कसणो कागो' त्ति पंच
वण्णस्स कागस्स ५३५ २५ तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं होती हैं।
होती हैं । जैसे पांचों वर्ण और शंका-अनेक वर्णवाले जीवके शरीरके एक पांचों रसवाले काकके अथवा लेझ्या कैसे बन सकती है ? पांचों वर्णवाले रसोंसे युक्त समाधान-नहीं, क्योंकि, प्राधान्यपदकी अपेक्षा काकके कृष्ण व्यपदेश ' काक कृष्ण है ' इसप्रकार पांचों वर्गोंसे युक्त
काकके जैसे कृष्ण व्यपदेश ५६८ ६ एवं देवगदी
एवं देवगदी समत्तो (त्ता) ५८९ ३ तिरिक्खगदीओ त्ति तिरिक्खगदि त्ति ५९० १० एवं विदियमग्गणा
एवमिंदियमग्गणा ५९८ ४ अपज्जत्ता दुविहा
अपज्जत्तभेयेण दुविहा ६०९ १२ आयारभावे मट्टियाए आधारभूमिमट्टियाए ६१० १२ आधारके होनेपर मट्टीके आधारभूत भूमिकी मट्टीके ६११ ३ बादरकाइयाणं
बादरतेउकाइयाणं ६४८ ८ केवलणं
सयोगकेवली ६४८ २० केवली जिनके
सयोगिकेवली जिनके ६५३ ३ भावगद-पुव्वगई च
भूदपुव्वगई च ६५३ १७ भावमनोगत पूर्वगति अर्थात् भूतपूर्वगति न्यायके
भूतपूर्व न्यायके ६५७ ४ मिच्छाइट्ठीणं
मिच्छाइट्ठीणं व ६५९ २ समणा भवदि
संभवो भवदीदि ६५९ ७ प्राणोंका सद्भाव हो जाता है, प्राणोंका होना संभव है, ६६० ४ वारिद-जीव-पदेसाणं
वा ठिदजीवपदेसाणं ६६० १६ व्याप्त जीवके
स्थित जीवके
१ देखो पृष्ठ ६५७ का अर्थ और विशेषार्थ ।
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मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलान
(२५) पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये। ६६० ५ एवं बंधहरस्त
एवं दहरस्स (डहरस्त) , १८ विशिष्ट बंधको धारण करनेवाले इस छोटे शरीरके
शरीरके ८२३ २ चढमाणा
चढमाणाणं ८२३ ३ उपसमसम्मत्तेण
उवसमसम्मत्ते ,, १५ श्रेणि चढ़नेके पूर्वमें ही परिहार- श्रेणिसे उतरनेके पश्चात् ही उपशमसम्यक्त्वके
शुद्धिसंयमके नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाने पर परिहारविशुद्धिसंयमीका । उपशमसम्यक्त्वके साथ परिहार
विशुद्धिसंयमीका ८४६ २ पज्जत्तापज्जत्ता आलावा पज्जत्तापज्जत्ता बे आलावा , ११ पर्याप्त और अपर्याप्तकालसंबन्धी पर्याप्त और अपर्याप्तकालसंबन्धी दो आलाप
आलाप
भाग ३ १४ ३ धनुर्धतायामेवायं
धनुर्धतावंस्थायामेवायं २० ३ पुणो
पुणो वि २६ ९ अवट्ठाणादो
अव्ववडाणादो , २५ वह पदार्थ प्रमाणसे अवस्थित है। प्रमाणसिद्ध पदार्थकी पुनः प्रमाणसे परीक्षा करने
पर किसी भी पदार्थकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। २८ १० ण अवहिरिज्जति
मा अवहिरिज्जंतु ३० ७ रूवसदपुधत्तं
रूवदसपुधत्तं, रूवदसमपुधत्तं , २६ शतप्रथक्त्वरूप
दसपृथक्त्वरूप ३४ ४ एति
रासी , १५ यह जगच्छ्रेणीका सातवां भाग यह राशि जगच्छ्रेणीके सातवें भागप्रमाण है ।
आता है। ३६ ५ एदस्स समवहागादो । एदस्त वक्खाणस्स सम्मवट्ठाणादो । ३९ १णाणपमाणमिदि
णाणं पमाणमिदि
१ये दी पाठ दो भिन्न भिन्न ताडपत्रीय प्रतियोंके हैं।
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( २६ )
पृष्ठ
पंक्ति पाठ है ।
३९ १२ अधिगम और ज्ञानप्रमाण ये दोनों
३९
२ दव्वत्थिविसयाणं
१५ द्रव्योंके अस्तित्व विषयक
५ सहियपमाणाभावे
६ अवधारणसिस्लाणमभावादो ।
२१ करनेवाले शिष्यों का
""
३९
३९
99
३९
91
४०
४८
५४
५६
y
५८
६४
६५
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६७
६८
९७
१२५
१७८
१९१
""
१९१
२०८
"" २०८
"
२०८
६ अधवा एयं
२३ अथवा, इस भावप्रमाणका कथन
करना चाहिये ।
१ एगखंडगहिदे
४ खंड
२ अवहारो
४ केण कारणेण ?
५ सरूवेहि
२ तिगुणरुवृणेण
१ मिच्छाइट्टिस्सिव
३ अद्धापरूवणं
२४ कालका प्ररूपण
९ जाव उसासो
६ अवहार कालो
५ परुविद सव्वं संजद
४ संखातीदादो |
७ असंखेज्जदिभागं
६ - तिण्णि
२० तीन संख्याको
९ अनंतरुप्पण्ण
४ असंखेज्जेसु
१८ असंख्यात खंड
४ संखेज्जेसु
१९ संख्यात खंड
७ असंखेज्जेसु
परिशिष्ट
पाठ चाहिये ।
अधिगम, ज्ञान और प्रमाण ये तीनों
दव्व विसयाणं द्रव्यविषयक मुहियमाणाभावे
अवध रणसमत्थसिस्साणमभावादो । करने में समर्थ शिष्योंका
अथवा एवं
अथवा,
चाहिये।
भावप्रमाणका कथन इसप्रकार करना
खंड गहिदे
दो खंड
अवहारे
केण कारणेण ? जेण रूहि तिगुणिदरूवेणूणेण मिच्छाइट्टिम्मि व अत्थपरूवणं अर्थका प्ररूपण
गुस्सा अवहारकालो आवलियाए
परुविदसव्व संजद
संखादीदत्तादो | असंखेज्जदिभागं व - तिण्णि-तिष्णि
तीन तीन संख्याको अनंतरुप्पण्णरूवाणं
संखेज्जेसु
संख्यात खंड
असंखेज्जेसु
असंख्यात खंड
संखेज्जेसु
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मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियों के मिलान
(२७) पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये । २०८ २२ असंख्यात खंड
संख्यात खंड २०८ ८ संखेज्जेसु
असंखेज्जेसु , २३ संख्यात खंड
असंख्यात खंड २१५ ६ ओघपडिवण्णेहि
ओघगुणपडिवण्णेहि २३२ ३ भवणादियाणं
भवणादियाणं देवाणं २७१ २ पडिसेहढें ।
पडिसेहटुं । पदरस्स असंखेज्जदिभागो ते मि
च्छाइट्टी होति त्ति उत्तं । , १४ कहा है।
कहा है । भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, यह इस कथनका
तात्पर्य है। २७५ ६ ओघपरूवणाए
देवओघपरूवणाए २७६ १दव्वमिच्छाइदिरासिं
देवमिच्छाइट्ठिरासिं २८३ १० असंखेज्जगुणा
संखेज्जगुणा " २७ हुए भी वे असंख्यातगुणे हुए भी वे संख्यातगुणे २८६ ४ सयदेवरासिमसंखेज्जखंडे सब्वदेवरासिं संखेज्जखंडे , १५ असंख्यात खंड
संख्यात खंड २९५ ६सेसमसंखेज्जखंडे
सेसं संखेज्जखंडे , २२ असंख्यात खंड
संख्यात खंड २९८ १० भवणवासियदेवि त्ति
भवणवासियदेवेत्ति " २९ देवियोंके
देवोंके ३६१ ११ उपरिम-हेटिमसंखेज्जपियप्पा उपरिमहेट्टिमसव्वे वियप्पा " २५ असख्यात विकल्प
सर्व विकल्प ३८१ १२त्ति
वेत्ति ३९८ ५रासी
रासी सो ४०४ ६-कायजोगरासीओ
-कायजोगरासी होदि ४९४ ९इस्थिवेदअवहारकालस्स भागहारो इत्थिवेदअवहारकालो ४१९ ६ उवसामगा केवडिया, पवेसेण उवसामगा व्यपमाणेण केवडिया, पवेसणेण , १९ जाव कितने हैं ?
जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं? ४२६ ६ भागभागहाररासिम्हि -भागधुवरासिम्हि , २१ चौथे भागकी भागहार राशिमें चौथे भागरूप ध्रुवराशिमें
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(२८)
परिशिष्ट पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये। ४२७ ४ देवगदिअद्धाणं
देवगदिकसाइअद्धाणं ४३० ६ मूलो उवसंतकसायरासी मूलोधुवसंतकसायरासी ४३६१०-११ दुविदणाणविरहिय
दुविहण्णाणविरहिय४३६ २८ दोनों प्रकारके ज्ञानोंसे दोनों प्रकारके अज्ञानोंसे ४४० ३ चेव
तम्हि चेव ४४२ १ लद्धिसंपण्णरासीणं
लद्धिसंपण्णरिसीणं ,, १२ राशियां बहुत नहीं हो सकती हैं । ऋषि बहुत नहीं हो सकते हैं । ४४२ ६ सेसमसंखेज्जखंडे
सेसमणंतखंडे , २० असंख्यात खंड
अनन्त खंड ४४४ २ मदि सुदअण्णाणीसु
मदि-सुदअण्णाणमिच्छाइट्ठीसु , १४ -ज्ञानी जीवोंमें
ज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ४४५ ९ विसेसाहिया २८ ।
विसेसाहिया २८ । आभिणि-सुदणाणिउवसामगा
संखेज्जगुणा । खवगा संखेज्जगुणा। , २५ अहाईस हैं । मनःपर्ययज्ञानी अप्रम- अट्ठाईस हैं । आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी उप. त्तसंयत जीव अवधिज्ञानी क्षपकोंसे शामक जीव अवधिज्ञानी क्षपकोंसे संख्यातगुणे
हैं। मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी क्षपक जीव उक्त उपशामकोंसे संख्यातगुणे हैं। मनःपर्ययज्ञानी
अप्रमत्तसंयत जीव उक्त क्षपकोंसे ४०६ ३ दुणाणिअसंजद
आभिणिणाणि-सुदणाणिअप्पमत्तसंजदा संखज्जगुणा। तत्थेव पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा।
दुणाणि असंजद, १६ अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयतोंसे
अवधिज्ञानी प्रमत्तसंयतोंसे आमिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणे हैं । इन्हीं दो ज्ञानोंमें प्रमत्तसंयत जीव उक्त अप्रमत्त.
संयतोंसे संख्यातगुणे हैं । इनसे ४५४ ३ चक्खुदंसणहिदीए
चक्खुदंसणमिच्छाइटिटिदीए " १५ चक्षुदर्शनकी
चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टियोंकी , ३ असंखेज्जदिभाए चक्खिदियपडि- असंते चक्खिदियपडिघादे
भागे
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मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलान
(२९) पृष्ठ पंक्ति पाठ है।
पाठ चाहिये । १५१ १७ चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टियोंका अव- चूंकि चक्षुइन्द्रियके प्रतिघातके नहीं रहने पर
हारकाल सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागरूप आक्षेपका परिहार यह है
कि चूंकि ४६१ ११ तेउलेस्सियअवहारकालो देवतेउलेस्सियअवहारकालो ,, २६ तेजोलेश्यासे युक्त जीवराशिका तेजोलेश्यासे युक्त देवोंका ४७३ २ सयलाइरियजयप्पसिद्धादो। सयलाइरियवियप्पसिद्धादो।
, १४ यह सर्व आचार्य जगत्में प्रसिद्ध है। यह कथन सर्व आचार्योके वचनोंसे सिद्ध है। ४७८ ९ मिच्छाइट्ठिभाजिदतव्यग्गं मिच्छाइट्ठिरासिभजिदतव्वग्गं ४८६ १ खवगा संखेज्जगुणा ।
खवगा संखेज्जगुणा । सजोगिकेवली आहा
रिणो संखेज्जगुणा । , १३ अप्रमत्तसंयत जीव क्षपकोंसे सयोगिकेवली आहारक जीव क्षपकोंसे संख्यात
गुणे हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत जीव
ब-मूडविद्रीकी प्रतियोंके ऐसे पाठभेद जो शब्द और अर्थकी दृष्टिसे दोनों शुद्ध हैं, अतएव जो संभवतः प्राचीन प्रतियोंमें वैकल्पिकरूपसे निबद्ध पाये जाते हों।
भाग १
१३ २ साह-पसाहा ३२ १ किमिति ७१ ६ तदो ९४ ५ ओरालिय-सरीर-णिज्जरं १०८ ३ स्वेष्टकृदैतिकायन१०८ ११ स्वेष्टकृत् ११० ४ जिणहरादीणं ११० १६ जिनालय आदिका ११२ १ चउण्हमहियाराणमत्थि ११२ १४ चार अधिकारोंका नामनिर्देश ११६ ६ छ-अहिय, ७ वाक्संस्कारकारणं
साहुपसाहा किमर्थ पुणो ओरालिय-णिज्जरं स्विष्टिकृदैतिकायनस्विष्टिकृत् जिणहराणं जिनालयोंका चउण्हमाहियाराणमत्थचार अधिकारोंका अर्थनिर्देश छहि अहियसंस्कारकारणं
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(३०)
परिशिष्ट पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ
मूडबिद्रीका पाठ ११८ १ साद्यनादीनौपशमिकादीन् साधनादीन् भावान् ११८ १५ सादि और अनादिरूप औपशमिक सादि और अनादि भावोंकी
आदिभावोंकी १२५ ९णेयव्वा
णायव्वा ,, २३ निषेध कर देना
निषेध जानना १४७ १ अभावप्रसंगात्
अभावासंजनात् ,, ५ इति चेन्न
इति चेत् , २२ ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि,
क्योंकि, १५६ ६वण्णणीओ
वण्णओ १५८ ५ तेहिंतो
तेहि १८६ ५ तदेकत्वोपपत्तेः
तदेकत्वोक्तेः , २० एकता बन जाती है।
एकता कही है। २०९ १ प्रतिपादकार्षात्
प्रतिपादनार्षात् २२८ ४ मिश्रणमवगम्यते
मिश्रतेहावगम्यते , १३ जीवोंके साथ मिश्रण
जीवोंके साथ यहां मिश्रण २५४ ९-शक्तर्निमित्तानामाप्तिः , २६ परिणमन करनेरूप शक्तिसे बने हुए परिणमन करनेकी शक्तिकी पूर्णताको
आगत पुद्गलस्कंधोकी प्राप्तिको २५५ २ औदारिकादिशरीरत्रयपरिणाम- औदारिकादिपरिणमनशक्तेर्निष्पत्तिः
शक्त्युपेतानां स्कंधानामवाप्तिः ,, १३ परिणमन करनेवाले औदारिक औदारिक आदि शरीररूप परिणमन करनेरूप
आदि तीन शरीरोंको शक्तिसे शक्तिकी पूर्णताको युक्त पुद्गलस्कंधोंकी प्राप्तिको ४ -ग्रहणशक्त्युत्पत्तेनिमित्तपुद्गल -ग्रहणशक्तनिप्पत्तिः
प्रचयावाप्तिः ,, १६ ग्रहण करनेरूप शक्तिकी उत्पत्तिके ग्रहण करनेरूप शक्तिकी पूर्णताको
निमित्तभूत पुद्गलप्रचयकी प्राप्तिको ,, ६ निमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिः
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मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलान
(३१) पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ
मूडबिद्रीका पाठ २५५ २० शक्तिकी पूर्णताके निमित्तभूत पुद्गल- शक्तिकी पूर्णताको
प्रचयकी प्राप्तिको ,, ८ निमित्तनोकर्मपुद्गलप्रचयावाप्तिः , २३ शक्तिके निमित्तभूत नोकर्म पुद्गल- शक्तिकी पूर्णताको
प्रचयकी प्राप्तिको ९ मनोवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गल• मनोवर्गणाभिर्निष्पन्नद्रव्यमनोवष्टंभेनानुभूत
प्रचयः अनुभूतार्थस्मरणशक्ति- स्मरणशक्तेरुत्पत्तिः मनःपर्याप्तिः निमित्तः मनःपर्याप्तिः द्रव्यमनोवष्टम्भेनानुभूतार्थस्मरण
शक्तेरुत्पत्तिर्मनःपर्याप्तिर्वा , २५ अनुभूत अर्थके स्मरणरूप शक्तिके मनोवर्गणाओंसे निष्पन्न द्रव्यमनके
निमित्तभूत मनोवर्गणाके स्कन्धोंसे निष्पन्न पुद्गलप्रचयको मनःपर्याप्ति
कहते हैं । अथवा, द्रव्यमनके २५६ ३ निष्पत्तेः कारणं
निष्पत्तिः , १५ पूर्णताके कारणको
पूर्णताको २५७ ४ इति चेन्न, पर्याप्तीनां
इति चेच्छक्तीनां , २२ पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको शक्तियोंकी अपूर्णताको २८३ ३ परिस्पंदरूपस्य , १४ मनके निमित्तसे जो परिस्पन्दरूप मनके निमित्तसे जो प्रयत्नविशेष
प्रयत्नविशेष ३५३ ७ ज्ञानानुवादेन
झानानुवादे ३८३ ९ आसंजननात्
आसंजनात् ४०० २ आसंजननात्
आसंजनात्
भाग ३ ३ ७ लोगपमाणं
लोगसमाणं १६ ७ तं पदरागारेण आगासं तं पदरागारेण
८ सव्वजीवरासिवग्गसलागाओ ३ तेरसगुणट्राणमेत्तण
तेरसगुणट्ठाण३६ ४ भद्दतं
अभहत्तं
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(३२)
परिशिष्ट पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ
मूडबिद्रीका पाठ ४६ ६ अवहारविसेसेण य
अवहारविसेसेण ५१ ४एयं खंड
एयखंड ५५ ७ भागच्छदि त्ति ।
आगच्छदि। ६० ७ ६८ ४ गुणिदे
गुणिदे हि १०९ ३ हेट्टिमविरलणाए
हेट्टिमविरलणाणं ११८ १ गुणगारो रासी
गुणगाररासी ११९ ३ असंखजगुणाए सेढीए
असंखेजगुणसेढीए १२६ ६ भणिज्जमाणं
वणिज्जमाणं १३० ७छंडिय
छड्डिय १३२ ५ अप्पिदत्तादो
पदिदत्तादो १४२ १ एगसेढी
एगा सेढी १६२ १ विसेसाभावादो
विसेसाभावा १८४ ६ पेच्छामो
पच्छामो ५ उवरिमविरलणरूव
उपरिमविरलण१९२ ७सो १९३ ५ इच्छाए
-मिच्छाए १९८४-परूवय
-परूवण. २०१ ४ देवेसु ।। ६७॥
देवेसु (६७ ) इदि २१५ ७-ट्ठियणए
-ट्टियणए पुण २१६ १ अवलंबिज्जमाणे ओघपरूवणादो अवलंबिओघपरूवणादो २१८ १ सुत्तस्स वि
सुत्तस्स २२४ ७ होदि।
आगच्छदि। ४२६ २चदुक्कसाइ
चदुकसाइ ४४१ ४ ओघत्तं
ओघत्ते ४४७ ६खवा
खवगा ४४८ ५चिय ४७६ ७ पदे दो वि
एदेणावि स-मूडबिद्रीय ताडपत्रीय प्रतियोंके वे पाठ भेद जो उच्चारण भेदसे संबन्ध रखते हैं, अतएव - उनमेंसे किसीके भी रखने में कोई आपत्ति नहीं है ।
भाग १ ६ ३ विविहद्धि
विविहिद्धि" ५ गओह
गयोह
hailash
१९१
एसो
चेय
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मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके मिलान पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ
मूडबिद्रीका पाठ ७ १ पुष्फदंतं
पुष्फयंतं " ३ भूयबलिं
भूवबलि ५ हेऊ ६ आइरियो
आइरिओ
१एयत्थ २भणिओ १पज्जय २ सुकुक्खि८मोली ७ अण्ण-णिमित्तंतर
१णिवददि २६ २ घादेणियरेण
२ आदीवसाण
३ मारुद ६२ ७ वसप्पिणीए
२दसण-णाणं चरित्ते ६६ १ जंबूसामी य ७० ३णिव्वुइकरे ति ७१ ७जिणवालिदस्स , १० एयं ७७ २ द्रमिल ८१९-१० जाणुग१९ ३पण्हवायरणं १०३ ३ किष्किबिल १०८ ८ दिविवादादो १९२ ५ सम्वहिं
" १३ उपाय ११४ १पगूण
८.अणियोग११९ ६ सुख १२१ ८वि.सद १२२ ३ वि-सद
एय? भणिदो पज्जय सुवकुक्कि (-क्खि) मउलि अण्णं णिमित्तंतरणिपददि घायेणियरेण आदि-अवसाण मारुव उव सब्धिणीये दसण-णाण-चरित्ते (णाणच्चरित्ते) जंबूसामी च णिव्वुहकरोत्ति जिणपालिदस्त एदं द्रविल जाणगपण्डवाहरणं किष्कंबिल दिट्टिवायादो सव्वेहि उप्पाद पऊण -यणियोगसुह वि-सय दु-लय
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________________
परिशिष्ट
(३४) पृष्ठ पंक्ति
मुद्रित पाठ
...
मूडबिद्रीका पाठ
लोग अत्याधियारो चवण पच्छा हवंति संपदि संतत्थपारिसेसादो
तेहि
२०२
, ५लोक १२३ ३ अस्थाहियारो १२४ ४ चयण १२६ ४ पुच्छा १२७ ५ भवंति १३० ११ संपहि १५७ २ संतमत्थ
, ७परिसेसादो १५८ ५ तेहिंतो १७० ५पुह भावं १८६ ९ हुयवह
७ सुवियड २१७ ९उवएसा २२२ ९ मेत्तिं २४३ १पिपीलिक २५२ १ वणप्फदि २६४ ६ आदधाना ३१३ ७ पंचेंदिया त्ति ३४३ ७ णव॒सयवेदा ३४७ ११ सम्माछम ३५० ८ हरिद्द ३५८ ८ उवएसा ३६४ १० ओहिणाणं ३७३ ६ ज्झरिय ३९४ २णिगोद ४०७ ४ अवराजिद
पिह भावं हुदवह सुवियद उवएसे मोत्ति (मेत्ती) पिपीलिय वणप्फा
धाना पंचेंदिय त्ति णqसगवेदा सम्मूञ्छित हलिद उवदेसा
ओधिणाणं ज्झडिय णियोद अवराइद
भाग २
४१७ ७ चत्तारि (३ वार) ४१९ ९छ लेस्साओ ४२१ ५वा
चारि (३ वार) छल्लेसाओ
"
६ संपहि ४एओ
संपदि ... एगो
४३४
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________________
पृष्ठ
४४८
"3
४५२
४५३
४५६
४७१
४९३
४९७
५०३
५२८
५५९
५६३
५६६
५६९
५९०
५९१
६००
६०४
६२९
૬૮૮
६९९
८२३
"
33 39
५९३
६ अट्ठारस
५९७
१. घे तूण
५९८ १० एक्कावण
१
39
१
३
पंक्ति
मुद्रित पाठ
२ मूलोघालावा समत्ता सुड्डु कण्हेत्ति
५ असंजम
३ असंजम
४ काऊ काऊ काऊ
३ पंचविधा भवंति
२ आहारिणी अणाहारिणी
७ तास चेव
२ पक्खिऊण
७ मणुसिणीसु
७ परिणमिय
८ कापिडु
७ मणुस्साणं च
२ अदीदपज्जत्तीओ
९ आनंदियाणं
२ छव्वा
१ पदे
२ मूलोघब्भुत्त
१ पेक्खिय
१ सासणसम्म इडिप हुडि
८ ओघालावा मूलोघभंगा २ उवसंहरिद
२ णमिऊण
मूडबिद्री ताड़पत्रीय प्रतियों के मिलान
मूडबिद्रीका पाठ
मूलोघालाबो समत्तो
सुड्डु कत्ति असंजमो
असंजमो
दव्वणि ओगं
"
५ दुविहो
१० देऊ
काउ काउ तह काओ पंचविधा हवंति आहारिणीओ अणाहारिणीओ तासिं
पेक्खियूण
मसणी
परिणामिय
काविट्ठ
मणुसाण व
अदीदपजत्तीणो अणिदिया
छाव
33
अट्ठारह X एक्कावण्ण एए
मूलोघम्मि उत्त पेक्खिऊण सासणसम्माइट्टि पहुडिं ओघालाओ मूलोघभंगो उवसंघरिद
भाग ३
मिथूण दव्वणियोगं
दुविधो
हेदू
( ३५ )
Page #619
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________________
(३६)
परिशिष्ट
मूडबिद्रीका पाठ
पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ ५, ६ २,३,५,७,८ दुंद
६ १२ तदत्थाभावादो १३ ४ दव्वाणंतं चेदि
" " जाणुगसरीरं १४ २ दुक्केज्जेत्ति १४ २ गहेयब्वं १७ २ तधादसणादो १९ ७ अहवा २९ ५ ववहारजोग्गो ३० ५ अणाइरस ३२ ७जधा ३२ ७मिणिज्जदि ३२ ८लोएण ३७ ५वेयणासुत्तेण ३८ ७ होंति ४० ४ एगरूवं ४० ९-भाजिद४३ ४-विरलणय
६-मवहिरिज्जदि ६४ ५ अठतीस ६७ १० सेसुस्सासे वि ७१ २ वलिदोवमे ९० २ तेणउदी ९८ १० भावमापण्णं
९चउसट्ठी १०० १णवणउदी १०० २ अट्ठाणउदी १०० १२ उणीसा ११४ २ भवदित्ति १२३ ३ सव्व-भावा १४२ ९-सूईदो
९-स्सरण १७३ १ आणेयव्वाओ
तदट्ठाभावादो दव्वाणंतमिदि -जाणुगस्स सरीरं दुक्केज्जेदित्ति गहेदव्वं तहादसणादो, अथवा ववहारजोगो अणादिस्स जहा मिणिज्जदे लोगेण धेयणसुत्तेण, वेदणसुत्तेण हवंति, भवंति एगं रूवं -भजिद-विरलण-मवहिरदि अतीस सेसुस्सासासो वि पलिदोवमे तेणउदा भावमावण्ण चउसट्टा णवणउदा अट्ठाणउदा उगुतीसा भवदीदि सव्व-भावो सूचीदो चरण आणेवाओ
१५७
Page #620
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मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलान
मूडबिद्रीका पाठ
एक्कूणवीसहि
दुयं
पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ १९० २ एगुणवीसेहि २०१ ३ दुर्ग २१० १०णेदव्यो २१३ ४ अट्ठम२१९ ७,९ वेसय. २२३ १-भागेण
, ५ भागे २२४ १संपहि २२८ २ कप्पमाणपरूषणा २३९ १४ भाणेदव्वा २४४ ७ सेसगइपडिसेहो २४६ ५-मिच्छाइट्ठीण २६२ १२ वियहिचारे २७२ १० पदरस्सेदि २७३ ३ विरोहादो २७८ ३ अण्णूणाहियाओ २९५ २ चउग्गह३३० २-मकाइत्त३३७ ६ गुणेज्ज३३७ ६ पवेसमाण३४८ ३ भादओ ३६० १पजत्तरासिणा ३७५ ३ पक्खेविय ३७९ १ पविसिव्वाणि ३९० ३ -जोगरासिं ३९७ १ तमद्धाए गुणगारेण ३९७ १३ कायजोगम्हि ४०८ ५-मणेयंतमिदि ४२० २ पवेसविधी ४२५ ११ पडिवाडीए
णेयचो -अहविलय-भारण भाए संपदि कप्पयमाणपरूवणादो। . भाणिदव्वा सेसगइपडिसेधो -मिच्छाइट्ठीणं वभिचारे पदरस्लेत्ति विरोहा अणूणाहियाओ चउगह-मकाइयत्तगुणिज्जपविसमाण-भुदओ पज्जत्तरासिएहि पक्खिविय पवेसिदव्वाणि -जोगरासीओ तमद्धागुणगारेण -कायजोगिम्हि -मणेयंतियमिदि पवेसणविधी परिवाडीए
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(३८)
परिशिष्ट
ड - मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके वे पाठ जो पाठ या अर्थकी दृष्टिसे अशुद्ध प्रतीत हुए ।
नोट - जिन पाठोंके संबंध में कुछ विशेष कहना है वह नीचे पाद टिप्पण में देखिये । जो पद पाठ या अर्थकी दृष्टिसे स्पष्टतः अशुद्ध प्रतीत हुए उनके ऊपर कोई टिप्पण देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई ।
पृष्ठ
"
v m w = av ov 30
८
१३
१६
२१
३१
४४
39
५३
५८
६०
६४
६८
८२
८३
पंक्ति मुद्रित पाठ
३ अरिहंताणं
१ उजुसुद्द ४ णियत
८ तस्यायुक्तं १ अणुवजुत्तो ५ विपर्यस्यतोः
४ अरिहंता
५
५ तत्कणादप्युप
११ अम्बुच्छिष्णं
33
३ व्याकुलता
६ दिव्वज्झणी
५ पादमूलमुवगया
१० जीवट्ठाणे
८ जीवट्ठाणं
भाग १
मूडबिद्रीकापाठ
अरहंताणं
उजुसुद
च्चियत (?) तस्याप्युक्तं
अणवजुत्तो
विपर्यस्थयोः
अरिहंतः
95
तत्करणादप्युपअव्वच्छिण्णं
व्याकुल दिव्वज्झाणे
८ ३ पृष्ठ ४२ पर जो णमोकार सूत्रका अर्थ प्रारंभ किया गया है वहीं ' अरिहंताणं '
पाठ ही ग्रहण
किया गया है और मूडबिद्री प्रतियोंसे भी वहाँ कोई पाठान्तर प्राप्त नहीं हुआ । उसके अर्थ करने में भी धवलाकारने
“
अरिर्मोहः ' इत्यादि पदशि ग्रहण किया है । इससे अनुमान होता है कि धवलाकार के सन्मुख ' अरिहंताणं ' पाठ ही रहा है। अरिहंताणं पद ग्रहण करने से प्राकृत नियमानुसार उसका ' अरिहंता ' व अर्हत' दोनों अर्थ हो सकते हैं (देखो हैम प्राकृत व्याकरण ८, २, १११ ) किन्तु अरहंत से केवल अर्हत् अर्थ ही निकल सकता है अरिहंता नहीं ।
3
पादमूलमवगया जीवाण
जीवा
३१, ५ ' विपर्यस्थयोः पाठ तो व्याकरणसे शुद्ध है ही नहीं, किन्तु यदि उसके स्थान पर विपर्ययस्थयोः ' पाठ हो तो माझ हो सकता है, क्योंकि उसका वही अर्थ निकल आता है जो प्रकृतोपयोगी है । ४४, ४-५ इसका विचार हम पहले ही कर चुके हैं। देखो षट्खंडागम, भाग १, भूमिका पृ. १२ व ८७
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पृष्ट
९२
९७
२०५
35
१११
११२
१२४
१५८
१८६
२१९
२२०
३३३
३५९
३६३
३६६
३७६
59
३८०
३९२
૨
४१३
पंक्ति
मुद्रित पाठ
३ वियोगापायस्य
१ पुरिसं च १ कहाओ
२ सुद्धिं करेंती
२ उत्तं च
२२२
२६२
२९८
३१५ २ बाधा
३२६ १० महव्वदाई
३२८
८ तत्रैतासां
१ अस्मादेवार्षात्
१ खइयुवसमियं
७ इदि ॥ ११९ ॥ अत्रैक
५ स्थितम्
७ पंचयमः
८
اور
३ हवह
१२ णामं कम्माणं
४ जमत्थितं
८ जेस्सि
६ तो वि
३ अम्भहिय
४ णिवट्टति
९ असंशिप्रभृतयः
६ नैष
39
११ चक्षुषा
८ तद्
५ क्षयोपशमापेक्षया
३ मैथुनसंज्ञायाः
विशेषलक्षण
35
५ आलीढबाह्यार्थाः
33
४१४
१० वेदमार्गणाप्रभेदः
४१७ ११ आणप्पाणपाणा
बद्री की ताड़पत्रीय प्रतियों के मिलान
मूडबिद्रीका पाठ
वियोपायस्य
पुरिस च
x
सुद्धिमकरेंती
उत्ता च
x
णाम कम्माणं जमतित्थित्तं
जंस
ते वि
अव्वहिय
पिन्बुदिति (१) संशिप्रभृतयः
नैष दोषः
बाधात्
महव्वदे
तत्रैतेषां
यस्मादेवात्
दियुव समियं
इत्यत्र एक
स्थितः पंचयमाः
39
चक्षुषो ते
भाग २
क्षयोपशमापेक्ष्य मैथुनसंज्ञायां
विशेषलक्षणं
आलीढ बाह्यार्थ वेदमार्गणाप्रभेदाः
आणपाणपाण
( ३९ )
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परिशिष्ट
. मूडबिद्रीका पाठ
(४०) पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ ४२० ७सिद्धगदी ४३३ ३-सण्णा ४४३ ६-मणिञ्चमिदि ४५३ ३तिणि अण्णाण ४९३ ३ पज्जत्तजोणिणीणं
७ तेणित्थिवेदे पि ६०९ ११ रत्ताअंब ६५३ ५ सत्तभुवगमादो वा ८२३ ३ ओदिण्णाणं
सिद्धगदी वि सण्णाओ -मणिञ्चमि तेण तिणि णाणाणि पज्जत्तजोणिणी तेणित्थिवेदो पि वत्ताअंब सत्तब्भुवादो वा उदिण्णाणं
५१B
भाग ३
२ ५ सपरप्पगासओ ५ ११ -मनेकधा ६ ७व्वपमाणाणं ७ २ पूर्वमव्ययीभावस्य १२ १ भेंडकम्मेसु १८ ८ अण्णभेदस्स २२ १ अणंतगुणाओ २५ १० णटुंतस्त २६ ६ तत्तियमेत्तो
९एवं महंती २८ २ मोगाहे २८ ८ अवहिरिज्जमाणे सव्वे
सपरप्पगासदि -मनेकवा व्वपमाणाणं परूवणाणं पूर्वमव्यायभावस्य' भेदकम्मेसु उप्पण्णभेदस्स अणंतगुणादो णिटुंतस्स तत्तियाणिमेत्तो एम्महंती मोगादे अवहिरिज्जमाणे सब्बे समया अवहिरिज्जमाणे सब्वे
अणंता'
३२ ३ अणंताणंता ३८ २ अइंदियत्थविसए ५२ ५ सव्वजीवरासिणा तस्स घणो ५८ ३ अपरूवणा
अइंदियत्थविसयो सव्वजीवरासिणा पुणो अट्ठरूवणा
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१ संस्कृत व्याकरणके नियमानुसार · अव्ययीभाव ' ही होता है, किन्तु छंदकी रक्षा हेतु वहां -हस्वत्व कर लिया जान पड़ता है।
२ आगे इन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें, जिनका प्रमाण क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त है, उनका प्रमाण 'अणंताणता ' इसी रूपमें बतलाया गया है। देखो सूत्र ७६, ९७ व १८९.
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७०
मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंके मिलान
(४१) पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ
• मूडबिद्रीका पाठ ६७ ४-मुहुत्तब्भुवगमादो । -मुहुत्तब्भुगदो ३ -संजुद
-संजत्त ९ छासट्टि
छावत्तरि,, परिमाणं
पमाणं ५ अट्ठसमयाहिय
अट्ठसमयाविय १०५ ७ अध वेरूवाहिय
अथवा रूवाहिय१२३ ४ कट्टकम्मादिसु
कट्ठमादिसु १३१ १ ओगाहे
ओगाडे १३३ ७ जडाहि
जदाहि १९१ ९ अवणिदसेसपमाणं
अवणिदे सेसपमाणं १९१ ९ हेटिमविरलणाए
विरलणाए १९२ २ पुव्वट्ठविवेति
पुश्वविदजेत्ति६ सोधिदे
सोविदे १९९ ३ अण्णोण्णभासेण
अण्णोण्णब्भासो २०९ ४ पदरम
पढम२२७ ४ अदीव
अदीद२३२ ३भवणादियाणं
अणादियाणं २३२ ८ छज्जोयण
तिण्णिजोयण२३६ १० तव्वग्गवग्गं
तत्तस्स वग्गं २४३ १पज्जत्तअवहारकालो
पज्जत्तमिस्सअवहारकालो २४५ ७ असंखेज्जदि
असंखेज्जादि२६० ६ कोडाकोडाकोडाकोडीए
कोडाकोडाकोडीए २६२ ११ तदियवग्गमूलगुणिदेण तदियवग्गमूलगुणिदेण। तिस्से सेढीए आयामो
असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ' २६३ १णेव
चेव २६८ ३ असंखेज्जासंखेन्जाहि
असंखेज्जासंखेज्जाओ २७५ ५ बहुत्ताविरोहादो
बहुत्ताविरोहो २७९ ६ घणधारुप्पण्ण
घडणधारुप्पण्ण३०७ २ गंधव्व-णागादि
गंधव्वणिगादि ३०७ ४ वोच्छेजति
वोच्छेजंतो
१ 'पमाणं' पद रखनेसे अर्थमें कोई भेद न पड़ते हुए भी छंदोभंग दोष हो जाता है । २. तिस्से सेटीए' आदि पाठ ऊपरसे पुनरावृत्त होगया है।
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परिशिष्ट
मूडबिद्रीका पाठ बेलवे
(४२) पृष्ठ पंक्ति मुद्रित पाठ ३४१ २ घणाघणे ३४२ १०हिये ३५३ ५ आगच्छदि। ३५९ ७-सेसरासिणा ३७२ ३-लरीरपज्जत्तण ३८१ १२ किमहिओ ऊणो ३८२ ३ बादरआउपजत्त३८४ १-व्यमसंखेजगुणं ३८६ ९जदो ४०४ ४ पुणरवि ओदरमाणा ४१२ १ मोसवचिजोग-सच्चवचिजोगि ४१४ २ संखेज्जगुणाओ ४२५ ८-भागमेत्तो " ९ण च
९णिग्गम-पवेसाणं ४३० ४ अकसाइणो ण ४४८ ११चेवझवसाया ४५४ ६ चक्खुदंसणट्ठिदी ४७४ ६ एसो ४८१ ३णामहत्तं ४८४ १० अणाहारिअसंजद४८६ १० (खवगा संखेज्जगुणा)
आगच्छदित्ति गुणेऊण भागग्गहणं कर्द। -सेसरासि सरीरपज्जत्त किमादीभो ऊणा बादरवाउपजत्त -दव्यमणतगुणं जादो पुण छुवियोदरमाणा मोसवचिजोोग संभवदि असंखजगुणाओ भागमेत्ते णव णिग्गमपवेसणं अकसाइणा चेदज्झवसाया चक्खुदंसणट्टिदीओ एगो ण भइत्तं आहारिअसंजदबंधगा संखेज्जगुणा
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