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________________ १, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं [ १११ एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं पुणो पुणो कायव्वं जा उवरिमविरलणा खयपरिसुद्धा तेरसगुणट्ठाण-अवहारकालमत्तं पत्ता त्ति । पुणो एत्थ अवणयणरूवपमाणमाणिज्जदे । तं जहा, ख्वाहियहेटिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सबिस्से उपरिमविरलणाए केवडियाणि परिहाणिरूवाणि लभामो त्ति तेरासियं करिय रूवाहियहेट्ठिमविरलणाए असंजदसम्माइडि-अवहारकाले ओवट्टिदे आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि परिहाणिरूवाणि लब्भंति । कुदो णबदे ? सव्वगुणट्ठाणेसु पविहसव्वगुणगारसंवग्गादो असंजदसम्माइट्ठि-अवहारकालो असंखेज्जगुणो त्ति एदम्हादो परमगुरूवदेसादो। असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिमें मिला देने पर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति उपर्युक्त तेरह गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है और एककी हानि होती है। इसत्रकार जबतक उपरिम विरलनका प्रमाण, क्षयको प्राप्त हुए स्थानोंसे रहित होकर, उपर्युक्त तेरह गुणस्थानसंबन्धी अवहारकालके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक पुनः पुनः यही विधि करते जाना जाहिये। अब यहां हानिको प्राप्त हुए स्थानोंका प्रमाण लाते हैं । वह इसप्रकार है ___एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एक स्थानकी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितने हानिरूप अंक प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनके प्रमाणसे असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको भाजित करने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र हानिरूप स्थान प्राप्त होते हैं। उदाहरण-असंयतसम्यदृष्टि अवहारकाल ४; द्रव्य १६३८४, । १६३८४ १६३८४ १६३८४ १६३८४ अधस्तन विरळ. २१५३४ में १ और मिलाकर जो हो उतने १५३४ स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें १ स्थानकी हानि ६६५८ १५३४ होती है तो उपरिम विरलन ३३२९ मात्र ४ स्थान जाकर कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर ११७३२ हानिरूप स्थानांक आते हैं। इसे उपरिम विरलन ४ मेंसे घटा देने पर २२२५३६ आते हैं । यही उक्त तेरह गुणस्थानोंका अवहारकाल है। इस अवहारकालका भाग पल्योपम ६५५३६ में देने पर सासादनादि १३ गुणस्थानराशिका प्रमाण २३०४२ होता है। शंका- आवलीके असंख्यातवें भाग हानिरूप स्थान प्राप्त होते हैं, यह कैसे जाना जाता है। समाधान-'संपूर्ण गुणस्थामोंमें प्राप्त संपूर्ण गुणकारोंके संवर्गसे असंयत. सम्यग्दृष्टिका अवहारकाल असंख्यातगुणा है' इस परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि १६३८४ : ६६५८ = २३३२९ ६५८ १८ ६६५८ ३०६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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