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________________ ११.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, १४. पुणो असंजदसम्माइटि-अवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि असंजदसम्माइद्विरासिपमाणं पावदि । पुणो वारसगुणटाणरासिणा असंजदसम्माइट्ठिदव्वमोवट्टिय लद्धमावलियाए असंखेजदिभागं हेट्ठा विरलेऊग असंजदसम्माइट्ठिदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि वारसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि । पुणो उवरिमसुण्णहाणं मोत्तूण सेसुवरिमरूवधरिद असंजदसम्माइदिव्यस्सुवरि हेटिमविरलणाए रूवं पडि हिदवारसगुणट्ठाणरासिं पक्खित्ते रूवं पडि तेरसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि, हटिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूण एगरूत्रपरिहाणी च लब्भदि । पुणो वि तदणंतरएगरूवधरिद-असंजदसम्माइटिदव्यं हेट्टिमविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे वारसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि । पुणो तं घेत्तूण उवरिमविरलगाए उवरि हिद-असंजदसम्माइटिदव्वस्सुवरि सुण्णहाणं वोलिय पक्खित्ते रूवं पडि तेरसगुणहाणरासिपमाणं पावेदि हैं । इसे उपरिम विरलन १६ मेंसे घटा देने पर ९३६२५ आते हैं। यही उक्त १२ गुणस्थानोंका अवहारकाल है । इस अवहारकालका भाग पल्योपम ६५५३६ में देने पर उक्त बारह गुणस्थानोंके द्रव्यका प्रमाण ६६५८ आता है। ___ अनन्तर असंयतसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर पूर्वोक्त बारह (सासादन, मिश्र और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानवर्ती राशिसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणको भाजित करके जो आवलीका असंख्यातवां भाग लब्ध आवे उसे पूर्व विरलनके नीचे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उपरिम विरलनके प्रथम शून्यस्थानको छोड़कर शेष उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि द्रव्यप्रमाणमें अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त बारह गणस्थानसंबन्धी द्रव्यको मिला देने पर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति तेरह गुणस्थानसंबन्धी (सासादनादि १३) जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। और एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर एककी हानि प्राप्त होती है। पुनः जिस स्थानतक अधरतन विरलनके प्रति प्राप्त राशि मिलाई हो उसके आगेके एक विरलनके प्रति प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिके प्रमाणको अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त बारह गुणस्थानसंबन्धी राशिको ग्रहण करके उपरिम विरलनमें शून्यस्थानको, अर्थात् जिस स्थानकी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवराशि अधस्तन विरलनमें दी है उसे, छोड़कर शेष विरलनोंपर स्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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