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________________ १, २, १४.] दव्यपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं [ १०९ समखंडं करिय दिण्णे रुवं पडि एक्कारसगुणटाणमेत्तरासी पावदि । तमेकारसगुणहाणरासिं सुण्णट्ठाणं मोत्तूण उवरि णिरंतरं दिण्णे रूवं पडि वारसगुणद्वाणरासी हवदि । हेहिमविरलणाए रूवाहियं गंतूण एगरूवस्स परिहाणी च हवदि । एवं पुणो पुणो ताव कायव्यं जाव खयपरिसुद्धा उवरिमविरलणा वारसगुणट्ठाणदव्यस्स अवहारकालं पत्ता त्ति । एत्थ परिहीणरूवाणं पमाणमाणिजदे । तं जहा, रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सब्धिस्से उवरिमविरलणाए केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति तेरासियं काऊग रूवाहियहेटिमविरलणाए सम्मामिच्छाइटि-अवहारकालमोवाट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे वारसगुणहाणाणं दव्वस्त अवहारकालो हवदि । पुणो तेण अवहारकालेण पलिदोवमे भागे हिदे वारसगुणहाणदव्यमागच्छांदे । द्रव्यको अधरतन विरलनमें समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशि प्राप्त होती है। उस ग्यारह गुणस्थानसंबन्धी राशिको शून्यस्थानको (जिस अंकके ऊपरकी राशिको अधस्तन विरलनमें समान खण्ड करके दी है उस स्थानको) छोड़कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर निरन्तर देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति बारह ( सासादन, मिश्र और संयतासंयतादिदश) गुणस्थानसंबन्धी राशि प्राप्त होती है। तथा उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर एककी हानि होती हैं। इसप्रकार जबतक उपरिम विरलनका प्रमाण हानिरूप स्थानोंसे रहित होकर उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी द्रव्यके अवहारकालको प्राप्त होवे तबतक पुनः पुनः यही विधि करते जाना चाहिये । अब यहां पर हानिको प्राप्त हुए स्थानोंका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है घेक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एककी हानि होती है तो संपूर्ण उपराि विरलनमें कितने अंकोंकी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधरतन विरलनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालमेंसे घटा देने पर उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी द्रव्यका अवहारकाल होता है। पुनः इस अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर उपर्युक्त बारह गुणस्थानसंबन्धी द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकाल १६; द्रव्य ४०९६; अधस्तन विरलन १३५३४ में एक और मिलाकर जो हो उतने स्थान जाकर यदि उप रिम विरलनमें १कीहानि होती १५३४ १५३४. है तो उपरिम विरलनमात्र १६ २५६२' स्थान जाकर कितनी हानि २८०७ होगी, इसप्रकार त्रैराशिक ६५५३६ : ९१३२९ = ६६५८. करने पर ३२४४६६ लब्ध भाते ४०९६ ४०९६ ४०९५ १४ वा अधस्तनपान .. ४०९६ : २५६२ = ११५३४, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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