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________________ १०८] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, १४. पुणो सम्मामिच्छाइटि-अवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सम्मामिच्छाइहिरासिपमाणं पावेदि। पुणो एकारसगुणहाणरासिणा सम्मामिच्छाइहिरासिदव्यमोवट्टिय तत्थ लद्धसंखेज्जरूवाणि विरलेऊण उवरिमविरलणपढमरूवधरिदसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एक्कारसगुणहाणदव्वपमाणं पावेदि । तं घेत्तूण उवरिमविरलणाए उवरि हिदसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वस्सुवरि परिवाडीए , दिण्णे रूवाहियहेहिमविरलणमेतद्धाणं गंतूग हेडिमविरलणमेत्तरासी समप्पदि, उवीरमविरलणाए एगरूवपरिहाणी च हवदि । तत्थेगरूवं पडि वारसगुणट्ठाणमेत्तरासी च हवदि । पुणो उपरिमतदणंतर एगरूवधरिदसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं हेटिमविरलणाए २०४८ २०४८ २०४८ अधस्तन विरलन ३३५३ में १ और १ १ १ ३२ वार; र मिला देने पर जो जोड़ हो उतने २०४८ : ५१४ = ३६५३, स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें १ अंककी हानि होती है तो उपरिम १ १ १ २५३ विरलनमात्र ३२ स्थान जाकर कितनी २६ हानि होगी, इसप्रकार राशिक करने ६५५३६ : २५.९४३ - २५६२. पण पर ६१२८ लब्ध आते हैं। इसे उप५९३६ ५ २५ १२८१ = २५६२. रिम विरलन ३२ मेंसे घटा देने पर २५४५४३ रहते हैं। यही उक्त ११ गुणस्थानवर्ती राशिके लानेके लिये अवहारकाल है। अनन्तर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर पल्योपमको समान खण्ड करके देयरू पसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सम्यग्मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर पूर्वोक्त ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानवर्ती राशिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यको भाजित करके वहां जो संख्यात अंक लब्ध आवें उन्हें विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनके पहले अंकके ऊपर रक्खे हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि दश) गुणस्थानवर्ती द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । उसको लेकर उपरिम विरलनके ऊपर स्थित सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर परिपाटीसे देने पर उपरिम विरलनके एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर अधस्तन विरलनमात्र राशि समाप्त हो जाती है और उपरिम विरलनमें एक अंककी हानि होती है। तथा उपरिम विरलनमें जहां तक अधस्तन बिरलनके प्रति प्राप्त राशि दी गई है वहां तक प्रत्येक एकके प्रति बारह (सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतादि दश ) गुणस्थानवर्ती जीवराशि होती है। अनन्तर उपरिम विरलनमें, जिस स्थान तक ग्यारह गुणस्थानोंकी जीवराशि मिलाई हो उसके, अनन्तरके विरलित एक अंकपर स्थित सम्यग्मिथ्यादृष्टिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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