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________________ १, २, १४. ] दव्यमाणागमे ओघ - भागभागपरूवणं [ १०७ विरलणमेतदसगुणद्वाणदव्वं उवरिमविरलणाए हिदसासणदव्त्रम्हि णिरंतरं दिण्णे हेडिम - विरलणमेतदसगुणद्वाणरासी समप्पदि । एत्थ एगरूवस्स परिहाणी लब्भदि । पुणो उवरिमविरलणाए तदणंतररूवोवरि द्विदसासणदव्वं हेडिमविरलणाए समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि दसगुणहाणरासिपमाणं पावेदि । एदं पि घेत्तूण पुत्रं व समकरणे कदे पुणो वि उat एगरूवपरिहाणी लब्भदि । एवं पुणो पुणो कादव्वं जा उवरिमविरलणा सन्मा एक्कारसगुणट्ठाण अवहारकालमेत्तं पत्ता त्ति । एवं समकरणं करिय परिहीणरूवाणं पमाणमाजिदे । तं जहा, हेडिमविरलणरूवाहियमेतद्भाणमुवरिमविरलणाए गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तसव्वरूवेसु केवडियरूवपरिहाणि लभामो त्ति तेरासियं करिय रूवादियहेट्टिमविरलणाए उवरिमविरलणमोवट्टिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अवणिज्जमाणरूवाणि लब्धंति । ताणि उवरिमविरलगाए सरिसच्छेदं काऊण अवणिदे एक्कारसगुणट्टाणाणमवहारकालो होदि । तेण अवहारकालेण पलिदो मे भागे हिदे एक्कारसगुणट्ठाणदव्वमागच्छदि । जीवराशि होती है । इसप्रकार अधस्तन विरलनमात्र दश गुणस्थानोंके द्रव्यको उपरिम विरलन में स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यमें मिला देने पर अधस्तन विरलनमात्र दश गुणस्थानोंकी जीवराशि समाप्त हो जाती हैं और यहां एककी हानि प्राप्त होती है । अनन्तर उपरिम विरलन में, जहां तक दश गुणस्थानराशि मिलाई हो उसके अनन्तर के विरलित अंकपर स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यको अधस्तन विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति संयतासंयत आदि दश गुणस्थानोंकी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । इस राशिको भी लेकर पहले के समान समीकरण करने पर, अर्थात् उपरिम विरलन के शून्यस्थानको छोड़कर आगे के स्थानों में अधस्तन विरलनमात्र दश गुणस्थानराशिके मिला देने पर, फिर भी ऊपर एककी हानि प्राप्त होती है । इसप्रकार जबतक संपूर्ण उपरिम विरलन सासादन और संयतासंयतादि दश इसप्रकार ग्यारह गुणस्थानवर्ती राशिके अवहारकालके प्रमाणको प्राप्त होवे तबतक यही विधि पुनः पुनः करते जाना चाहिये । इसप्रकार समीकरण करके हानिको प्राप्त हुए अंकोंका प्रमाण लाते हैं । वह इसप्रकार है एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान उपरिम विरलनमें जाकर यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमात्र संपूर्ण स्थानों में कितने अंकों की हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलन से उपरिम विरलन के भाजित करने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अपनेयमान अंक प्राप्त होते हैं । उनको उपरिम विरलनमेंसे समच्छेद विधान करके घटा देने पर सासादन और संयतासंयत आदि दश इसप्रकार ग्यारह गुणस्थानवर्ती राशिका अवहारकाल प्राप्त होता है । इस अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर उपर्युक्त ग्यारह गुणस्थानवर्ती जीवराशि आती है । उदाहरण - सासादन अव. ३२१ द्रव्य २०४८, संयतासंयतादि १० गुणस्थान द्रव्य ५१४ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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