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________________ १०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १४. स्वपरिहाणि लभामो त्ति तेरासिए कदे एगरुवस्स असंखेजदिभागो आगच्छदि । तमुवरिमविरलणाए अवणिदे णवसंजदसहियसंजदासंजदाणमवहारकालो होदि । पुणो सासणसम्माइहि-अवहारकालं विरलेऊण पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सासणसम्माइहिदव्यपमाणं पावदि । पुणो उवरिमविरलणपढमरूवधरिदसासणसम्माइडिदव्यं णवसंजदसहिदसंजदासंजददव्वेणोवट्टिय तत्थ लद्धमावलियाएं असंखेजदिमागं घिरलेऊण उवरिमविरलणाए पढमरुवस्सुवरि हिदसासणसम्माइदिव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दसगुणट्ठाणरासीओ पावेंति । एत्थ एगरूवधरिददसगुणहाणरासिपमाणं घेत्तूण उवरिमविरलणम्हि सुण्णं मोत्तूण तदणंतररूवस्सुवरि हिदसासणदव्वम्हि पक्खित्ते एकारसगुणहाणरासीओ सव्वे मिलिदा हवंति । एवं हेहिम उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर एकका ' असंख्यातवां भाग आता है। उसे उपरिम विरलनमेंसे घटा देने पर नौ संयतसहित संयतासंयत राशिका अवहारकाल होता है। उदाहरण-नौ संयतराशि २, संयतासंयत अवहारकाल १२८, संयतासंयत द्रव्य ५१२; अधस्तन विरलन २५६ में १ ५१२ ५१२ १२ १२८ वार; अधिक अर्थात् २५७ स्थान जाकर ५१२:२= २५६, यदि १ की हानि प्राप्त होती है २ २ २ २ २ २ २५वार. तो उपरिम विरलन मात्र १२८ ११ १२ १२ २५६ वार; स्थान जाकर कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिकसे ३३६ की हानि प्राप्त हो जाती है। इसे उपरिम विरलन राशि १२८ भेले घटा देने पर १२७३२९ आते हैं। यही संयत सहित संयतासंयतके द्रव्यका अवहारकाल है। अनन्तर सालादनसम्यग्दृष्टिके अवहारकालको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एक पर पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति सासादनसम्यग्दृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उपारिम विरलनके पहले अंकपर रक्खे हुए सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यको प्रमत्तादि नौ संयतोंके द्रव्यसहित संयतासंयतके द्रव्यसे भाजित करके वहां जो आवलीका असख्यातवा भाग लब्ध आवे उन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनके पहले अंकपर स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति संयतासंयत आदि दश गुणस्थानवी जीवोंकी संख्या प्राप्त होती है। यहां अधस्तन विरलनके एक अंकपर रक्खे हुए दश गुणस्थानकी राशिके प्रमाणको ग्रहण करके उपरिम विरलनमें शून्य स्थानको (जिस पहले अंकके ऊपर रक्खी हुई संख्यामें दश गुणस्थानोंके द्रव्यका भाग दिया है उसे) छोड़कर उसके अनन्तर अंकपर स्थित सासादनसम्यग्दृष्टिके द्रव्यमें मिला देने पर सब मिल कर सासादन और संयतासंयत आदि अयोगिकेवलीपर्यंत ग्यारह गुणस्थानवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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