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________________ १, २, १४. ] toryमाणागमे ओघ - भागभागपरूवणं [ १०५ अधवा संजदासंजद - अवहारकालं विरलेऊण पुणो पलिदोवमं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि संजदासंजददव्यमाणं पावदि । तमेगरुवस्सुवरि दि-संजदासंजदद णवसंजदरासिणोवट्टिय लद्धं विरलेऊण उवरिमविरलणाए पढमरूवधरिदसंजदासंजदद समखंड करिय दिणे रूवं पडि णत्रसंजदरासिपमाणं पावेदि । पुणो तं घेत्तूण उवरिमविरलणाए विदियादि-रूवाणमुवरि ट्ठिदसंजदासंजददव्वाणमुवरि पक्खिविदव्त्रं जाव मि-विरोवर दि-नवसंजदरासी सरिसच्छेदं काऊण पविट्ठोत्ति । जदि हेडिमविरलणादो उवरिमविरलणा रूवाहिया हवदि तो एगरूवपरिहाणी हवदि । अध वेरूवाहियं दुगुणमेत्ता हवदि तो दोन्हं रूत्राणं परिहाणी हवदि । अध तिरूवाहियतिउणमेचा हवदि तो तिहं रूवाणं परिहाणी हवदि । एत्थ पुण उवरिमविरलणादो हेडिमविरलणा असंखेज्जगुणा त्ति एगरूव - असंखेज्जदिभागस्स परिहाणी हवदि । तं जहा, हेडिमविरलरूवाहियमेतद्वाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडिय - २९४९१२ ११५२१ २९४९१२ २७१७८ ÷ ९ १ स्थान राशिका अवहारकाल. अथवा, संयतासंयत के अवहारकालको विरलित करके अनन्तर उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति संयतासंयत द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्तर विरलित राशिके एकके ऊपर स्थित उस संयतासंयतके द्रव्यको प्रमसादि नौ संयतराशिसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उसके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनमें पहले एकके ऊपर रक्खे हुए संयतासंयतके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति प्रमत्तादि नौ संयत राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्तर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त उस नौ संयत द्रव्यको ग्रहण करके उपरिम विरलनके द्वितीयादि रूपोंके ऊपर स्थित संयतासंयतके द्रव्योंमें तबतक मिलाते जाना चाहिये जबतक अधस्तन विरलन के ऊपर स्थित नौ संयतराशि समान छेद करके प्रविष्ट हो सके। यदि अधस्तन विरलनसे उपरिम विरलन एक अधिक होवे तो एककी हानि होती है । यदि अधस्तन विरलन से उपरिम विरलन दो अधिक दुगुने होवें तो दोकी हानि होती है । यदि अधस्तन विरलन से उपरम विरलन तीन अधिक तिगुना होवे तो तीनकी हानि होती है। यहां प्रकृतमें तो उपरम विरलनसे अधस्तन विरलन असंख्यातगुणा है, इसलिये एकके असंख्यातवें भागकी हानि होती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो १ प्रतिषु ' अध वा रूवाहिय ' इति पाठः । Jain Education International = = २: १०३६८९ २३४५६३ सासादन आदि १३ गुण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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